आत्मकथ्य : अब मोड़ो आयो मोड़ो रे / डॉ. हेमंत कुमार

अब मोड़ो आयो मोड़ो रे
- डॉ. हेमंत कुमार


करीब दो-ढाई बिघा जमीन को घेरे मिट्टी की डोळ (मेड़) उस पर कँटीली बाड़। गुवाड़ी की गोद में उगा बड़ा सा खेजड़ी का पेड़। खेजड़ी के अगल- बगल जमीन से ही उगे-से दो तीन झौंपड़े। उनमें से एक झौंपड़ा बल्कि कहना चाहिए छान, जिसकी ईंटों और गारे की दीवारें उसे नीचे आयताकार रूप देतीं और ऊपर दोनों ओर के चनवों पर टिका बेर की झाड़ी का मोटा बलिंडा जो पानी (सरकंडे) ’ से बनी छत को संभाले रहता। उस छान का नाम था ढूँढी दूसरा झूँपा जो दीवार से छत तक पूरा कच्चा था, ऊपर का छप्पर उसी पानी और सरकंडे के डोकों (डंठल) से निर्मित और नीचे का पाल रोहिड़े की लम्बी हरी टहनियों से गूँथकर बनाया गया था। उसका नाम था न्हाणा झूँपा एक और था अधपक्का-अधकच्चा झूँपा(झौंपड़ा) आँगन तीनों का एक सा था; गोबर और काँप मिट्टी के मिश्रण से लिपा-पुता।

एक छान और भी थी। जिसका फर्श नहीं था, बस रेत बिछी थी। तो यह था हमारा शीशमहल शीशमहल इस माने में कि भीतर प्रवेश करते या बाहर निकलते वक्त झुकते-झुकते भी छपर से लटकते फूसके(घास-फूस के बारीक रेशे) ’ सिर सहलाते। एकाध दिन से बड़ते-निकळते सचेत रहने पर सिर सामने लगे सिलधर के बाते से जोर से टकरा जाता। माँ, जिसे दिनभर अनगिनत बार बाहर-भीतर आना-जाना होता था, उसने एक रास्ता निकाल लिया था। कमर तक झुकी-झुकी ही बाहर का क्षणिक काम निपटाकर भीतर चली जातीं। इससे एक तो समय बचता, दूसरा सिर में लगने वाले संभावित बटीड़ (चोट) ’ से बचाव होता लेकिन लम्बे समय तक झुके रहने से उनकी कमर में दर्द रहने लगा था। मगर माँ को काम की अधिकता के कारण अपने कष्ट की परवाह नहीं रहती थी। अक्सर उफनते दूध की गरम देगची माँ हाथ से पकड़कर ही चुल्हे से उतार लिया करती। आगे पाँचवीं क्लास में आने पर जब-जब ईदगाहकहानी में हामिद द्वारा दादी अमीना के जलते हाथों को याद करके चिमटा खरीदने का किस्सा पढ़ता तो मुझे अमीना की जगह अपनी माँ के जलते हाथ याद आते। तर्जनी और मध्यमा अँगुली के आखिरी पोरों को अँगूठे से छूकर सहलाते हुए साँसों की फूँक से ठंडक पहुँचाती हुई माँ!

खैर, शीशमहल में हम अकेले रहते। अनेक गौरेयाँ छप्पर में घौंसले बनातीं। उनके अंड़ों नवजात बच्चों को खाने के लिए कई बार साँप भी घुस आते। छिपकली, खसारी, ऊनरी (चुहिया) आदि भी निर्बाध आतीं-जातीं। सो वह घर एक ही साथ चिड़ियाघर भी था और गुड़ियाघर भी। दीदी की खेलने की गुड़िया जो दही बिलौने के यंत्र झेरनेकी टूटी ताड़ियों पर कपड़ा सिलकर बनाईं जातीं, उन गुड़ियों को ससुराल से मैके लाने के खेल में एकाध बार शामिल होने की याद है। यह उस बखत की बात है जब बाजरे की कड़बी कट चुकी होती और कटे पूळों के पंजोळ (पाँच-पाँच के समूह) सारे खेत में बिछे होते और बेर की झाड़ियों पर लगे फल अधपके होकर हल्दिया पीले रंग के हो जाते। स्वाद में खट्टे-मीठे मगर खाँसी कारक!  सींव में उगी इन्हीं झाड़ियों की गोद में गुड़ियों की ससुराल होतीं। हम लौटती हुए गुड़ियों के संग नीचे गिरे अध खाए, अधपके बेर भी बिदाकी में ले आते। दोनों दीदियाँ इसी घर में पलकर यहीं से विदा हुई थीं। कई बार यों भी लगता है कि हम उन छान-झूँपड़ों में नहीं, उन छान-झूँपड़ों के साथ रहते थे क्योंकि वे सब घर के सदस्यों की तरह ही यादों में बसे हैं।

 ‘न्हाणे झूँपेकी दोहरी जिम्मेदारी थी। एक तो वह रसोईघर था। उस वक्त उसे सिर्फ़ रसोई कहा जाता। दूसरा वह घर का कोषागार भी था। माँ ने चाय-चीनी के डिब्बों को लोकर बना रखा था। लोकर और एटीएम दोनों! दुकान से सामान लाने के लिए केशइन्हीं डिब्बों से निकलता और बचे हुए पैसे भी वापस इन्हीं में जमा हो जाते। बाहर जाते समय माँ का बटुआ था उनका पल्लू। जिसमें पैसे लपेट और गाँठ मारकर पल्लू ऊपर ब्लाउज़ में खौंस लिया जाता। ढूँढी घर का वीआईपी रूम था। सबसे अच्छी चारपाइयाँ उसी में डली होतीं। मेहमानों के लिए अलग से बचाकर रखे नए बिस्तर, तकिया और बेडशीट उसी में तहाकर तिवाव (देसी तिपाई) पर धरे होते।

तीसरे अधपक्के-अधकच्चे ईंटों वाले झूँपे की भूमिका भंडार कक्ष की थी। दोनों दीदियों के ब्याह में कोठ्यार (मिठाई स्टोर कर रखने का देहाती कमरा) इसे ही बनाया गया था। इसकी दीवारों में छोटी-छोटी मोखियाँ बनी थी जिन्हें कच्ची ईंटें फँसा कर चूहे-बिल्लियों का प्रवेश रोकने के लिए पूर दिया गया था। इसी झूँपे के पिछवाड़े जाकर हम स्कूल के दोस्तों को शादी में बचे लड्डू खिलाने के लिए बड़ी सावधानी से मोखे की ईंट हटाकर लड्डू चुराते और मोखे को यथावत बंद कर देते।

झौंपड़ों के पीछे बँधती थी बड़े सींगों वाली पीळती गायऔर उसकी बछड़ियाँ। कुछ बकरियाँ भी थीं- फतेहपुर वाली माँसी के यहाँ से आयी लाखीथी जो अपेक्षाकृत ज्यादा दूध देती। काले रंग की छ्याळी। मगर कानों, पैरों और मुँह पर भूरे-पीले रंग की किनारी! बकरियाँ या तो इकहरे रंग की होतीं; काली, भूरी, सफेद, या फिर दुरंगी या आधी-काली और आधी सफेद। कुछ चितकबरी भी होतीं। मगर लाखी का रूप अलग ही था। लाखों में एक!  इसलिए नाम धरा गया लाखी वह शहर से आई थी इस कारण भी उसका मान ज्यादा था। दूसरी बकरी थी हुँम्याँ। हुँम्याँ’, भूख-प्यास की कच्ची थी। सबेरे उठते ही बोलने लगती-हुँ..हुँ...हुँ..म्याँ,-हुँ..हुँ...हुँ..म्याँ। इसी कारण उसका नाम पड़ गया था हुँम्याँ नामकरण करने वाली पंडित थी हमारी छोटी दीदी जो किसी की भी नकल उतारने में, नाम रखने में उस्ताद थी। तब तक घर में किताब बाँचना भी हमारी जान में उन्हें ही आता था। उन्हीं की सिखाई एक पहेली यों थी -

   "च्यार हलण-चलण

   दोय घर बरतण

   दोय सूखी लकड़ी

   बोलो के?"

    "बकरी। "

 (चार हिलने-चलने वाले अंग यानी पैर, दो घर में बरतने योग्य अंग यानी थन, दो सूखी लकड़ी माने सींग)

चौमासे में जब पहली बरखा होती तो हळसोत्या की रस्म होती। हळ की मूठ पर, ऊँट-साँऽड (ऊँटनी) की नाड़ (गर्दन) पर और सारे घरवालों की कलाई पर राखी बँधती। छोटी-छोटी कपड़े की रंगीन कातरों में अनाज के दो-दो दाने बाँध कर धागे से गाँठ लगा दी जाती और राखी तैयार हो जाती। जिसे आगे चलकर बाजरे के सीटे (कलगी) निकलने पर कलाई से खोलकर बाजरे के तने से बांध दिया जाता था। हळसोते के दिन घर में बाजरे-मोठ का खिचड़ा बनता। दसेक दिन बाद हम बच्चों को जिम्मेदारी दी जाती खेत रुखाळने की। हम बड़े उत्साहित!  रात को आखिरी रोटी के बाद पर्याप्त नमक डालकर बाजरे की बाटी भोभर(चुल्हे की गर्म राख) में ओट दी जाती। उसी को खाने के लालच में हम सवेरे जल्दी उठकर खेत में चले जाते। भोर में ओस की नथनी पहने नवांकुरित बाजरे को पैरों से बचाते हुए ऊमरों (खेत जोतते समय जमीन पर हल से बनी लकीर) पर पाँव धरते खेत की टीबड़ी पर पहुँच जाते। थोड़ी देर हाड़ऽत…. ‘हाड़ऽतहाड़्त की आवाजें निकाल कर खेत को चिड़ियों से बचाने की रस्म अदा करते। टीले पर अस्थायी झोंपड़ी टापीबनी होती, जिसके एक कोने में घड़े में पानी रखा होता। हम न्यातणे(पुरानी ओढनी से फाड़ा हुआ कपड़ा) से बाटी निकालकर कोरीमोरी(बिना सब्जी, दाल आदि के) ही खाना शुरू कर देते। बाटी का जो अंश जमीन पर गिरता उसे चुगने को प्रायः रोज बुलबुलें आया करतीं। जिनकी पूँछ के नीचे के रंगीन नन्हें रेशमी पंख हमें बहुत लुभाते। कभी-कभी बुलबुल की पूछ के नीचे के ये एक आध लाल पीले पंख नीचे गिरे मिल जाते जिन्हें हम अपनी स्कूली किताबों के बीच दबाकर रखते। किताबों के बीच दबे ये पंख बिद्याकहलाते। दोस्तों को यह बिद्या माता दिखाते समय सबको मुँह बंद रखना होता था क्योंकि बिद्या को दाँत दिखाने पर वह ब्याती’ (प्रसव) नहीं थी। अरसे बाद किताब के पन्नों के बीच दबी बिद्या का एक अंश टूटकर अलग हो जाता और हम उसे कुछ दिनों के बाद दोस्तों को उपहार में दे देते, दाँत दिखाने की शर्त पर क्योंकि दाँत दिखाने पर शिशु बिद्या के बड़ी भी नहीं होने की मान्यता थी। लीलटांस के नीले पंख भी बहुत लुभाते थे। टिटहरी, घुर्सली, लमपूँछा, कागडोड, तीतर, कमेड़ी जब तब दिख जाते। ल्हेली या तूँतली नामक चिड़ियाँ डार की डार आतीं। मादा तीतर के पीछे दौड़ते दर्जन भर नन्हें बच्चे बहुत प्यारे लगते। तोते होते, मोल्डी-मोर होते, स्योनचिड़ी कम दिखती। कालीचिड़ी हमेशा पूँछ हिलाती रहती। गौरेयाँ जैसी ही बिनराबिन की चिड़कलीहोतीं जिनके कंठ पर पीली चंदनिया रंग की बिंदी बनी होती। बगूले कभी कभार ही दरसाव देते। अलबत्ता चील-गिद्ध खूब दिखते।

 खेत में तरह-तरह की घास उगतीं। भरूँट, भाँकड़ी, साटा, आग्या, रूखड़ी, गूगाजाँटी, झेरन्या, मकड़ा, जचाबड़ी आदि। मोथ और चँवळाई होतीं। सिणिया और खींप रस्सी बटने में काम आते। इनसे बनी रस्सी गूँथला कहलाती। छप्पर बनाने में भी इनका उपयोग होता था। एक घास बरूँ थी जिसे बाजरे के डंठलों में मिलाकर कर पशु चारे में उपयोग होता। घासों का सिरमौर था कूँचा! उसके सिर पर सचमुच का मौर आता; सुंदर कलंगी। सम्मोहक! कूचे के पतले तारों को पानीकहा जाता। इसी पानी से बनी झाडू से आँगन बुहरते। दीवाली पर धुँवासा झड़ता। कूँचे के मोटे डंठल डोके कहलाते। आगे का पतला जोड़ तीरिया कहाता। इसी तीरिये के ऊपर खिलती थी कलंगी! दंग कर देनेवाली दंगी सुंदर, मनहर, मोहक! हरे कच्च तीरिये को तोड़कर उनसे पशुओं के गले के कँठले गूँथे जाते। सूखने पर कूँचे को काटकर पूले बाँध दिए जाते। इन्हीं पूलों से छान-झूपड़े की छतें, कर्ण और बाते बनते। मगर छप्पर की छत बनाने से पहले तीरिये के ऊपर का छिलका सावधानी से उतार कर अलग कर लिया जाता। इसी छिलके से बनती थी मूँज। मूँज निकालना बहुत श्रम साध्य काम था।

मूँज से याद आए हीरा बाबा। हीरा बाबा दुबली देह में जबर आदमी! साँवली काया हाड़तोड़ मेहनत करते-करते तिरबंकी हो गई थी। चलते तो पिंडलियाँ तिरछी, कमर में बाँक, छाती आगे को निकली, कोहनियों के पास से बाँह भी वक्र। पर आदमी एकदम सीधे! हमारे यहाँ मूँज वही छीलते, वही कूटते, वही बाँटते। मूँज कूटने की मोगरी बेहद भारी! कूटते-कूटते बाँह रह जाती। वे मन से मस्तमौला, धन से दरिद्र और समाज से दलित थे। साग में तेज मिर्ची के शौकीन! कढ़ी में ऊपर से माँगकर चम्मच भर मिर्च खाते। कहते झाळ बिना मुँह नहीं खुलता सो मिर्च तेज ही होनी चाहिए। काम के साथ या काम के बीच मौज में जाते तो मगन हो भजन गाने लगते; अब मोड़ो आयो मोड़ो रे ….’ हीरा बाबा अब मोड़ोको इस तरह उचारते अब्भु मोड़ो….’अब्भु मोड़ो…., ‘अब्भु मोड़ो….’लगता कि कंठ से मृदंग-ढोलक का भी काम ले रहे हैं। गाँव के पुरबिया बास में उनका वास था। मज़ाक में गाँव के जिन चुनिंदा लोगों की नकल हम उतारते उनमें हीरा बाबा भी थे।

बरस भर हो गया था उन्हें देखे। एक दिन हमने छोटी दीदी से भजन का मतलब समझा; नरसी भगत शिकायत कर रहे हैं सावरिया सेठ से कि नानीबाई का भात भरने कन्हैया तू आया भी मगर तब, जब मेरी सारी इज्ज़त मटियामेट हो चुकी। तूने मोड़ा (देर) कर दिया आने में। भजन हमारे बालमन को भी मार्मिक लगा। सोचा कि बाबा से सुनकर पूरा भजन लिख लेना चाहिए था। अबके लिखेंगे। यहाँ आएँ तब लिखें या वहीं जाकर लिख लाएँ ? दो चार दिन दोगाचित्ती में निकल गए।

एक दिन सोचा जाकर लिख ही लाना चाहिए। सुबह बिचारा...और दुपहर होते-होते क्या देखता हूँ कि उनके बास की तरफ आदमियों का हुजूम उमड़ रहा है। बास और हमारे घर के बीच लम्बा चौड़ा जोहड़ था (है अब भी, पर लम्बा है, चौड़ा) जिसमें एक पक्का तालाब बना था, अनगिनत बरसों से। तालाब के पास इकलौते कमरे जैसा निर्माण और था जिसे सब मंढी कहते। मंढी के पास कुछ दूरी पर दो गोल चबूतरे बने थे, जिन पर गाँव से आसाम कमाने के जानेवाले बैठकर बस का इंतजार किया करते। तालाब के एक छोर पर एक ढलवाँ खुरेनुमा संरचना थी जिसे सब गऊघाटकहते। जहाँ बरसात बीत जाने के बाद भी महीनों गाय-भैंसे पानी पीने आतीं। गऊघाटकी काई लगी दीवारें और शैवालों का दुशाला ओढ़े हरियल पानी तालाब के छोर पर दीवार फोड़ उग आए पीपल के पत्तों के रंग से होड़ लेता। इसी तालाब के कारण समूचा जोहड़ तळावकहलाता। तो आदमियों का हुजूम बास से तळावकी ओर बढ़ने लगा। गऊघाटगुजरा, मंढी गुजरी, स्कूल के गेट के सामने से हुजूम आगे बढ़ रहा था राम नाम सत उचारता। भय, करुणा, जिज्ञासा और दुख से जड़ीभूत हम बच्चों के सिर से माँ ने चुटकी भर मिट्टी उँवार कर दूर अरथी की ओर उछाली, करुणा-गदगद स्वर में हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, बाबा ! सब अलाय-बलाय, हारी-बेमारी अपने साथ लेते जाना।थोड़ी देर में खबर फैल गई कि अलाय-बलाय, हारी-बेमारी लेकर हीरा बाबा ही गए हैं। मगर वह भजन भी तो उन्हीं के संग चला गया अब मोड़ो आयो मोड़ो रे...

गाँव में हीरा बाबा अकेले थोड़े थे जिनका हूनर उनके साथ चला गया। और भी कितने ही तो लोग थे! कौन भूल सकता है जिकरू बाबा को! मुझे उनका पतला-लम्बा सुँतवा बदन और लम्बोतरा पतला चेहरा ज्यों का त्यों याद है। साँस उठने के कारण पोपले मुँह से फूँक मारते हुए से बोलते थे जिकरू बाबा। ठुड्डी पर झूलती लम्बी सफेद दाढ़ी ऐसी इकलौती चीज थी जो उनके मुसलमान होने की गवाही देती। पर मुसलमान नाम तो सुना ही नहीं कभी बस्ती ने। समूचा गाँव मणिहारों को मणियार और कसाइयों के इकलौते घर को खसाई और शेष सारे मुसलमानों को फकीर कहता। मुसलमानों का गाँव से कितना पुराना नाता है, यह तो मालूम नहीं पर कहते हैं गाँव का मीरण नाम मीरान नामक नवाब के नाम पर पड़ा। जिकरू बाबा गाँव के इकलौते नाड़ी बेद थे। वे कोई ट्रेंड हकीम या वैद्य थे पर अनुभवी ऐसे कि नब्ज देखकर महीनों पहले खानपान में हुई बदपरहेजी को बता देते। खानपान ऊकचूक होने पर जिकरू बाबा देसी इलाज बताते कोई काढा या फाकी। काढे में लोंग, इलायची, काली मिर्च जैसी चीजें होतीं तो फाकी में अजवाइन, मैथी जैसी। बुजुर्गों के लिए जरूर वे जिकरू फकीर थे। शेष गाँव के लिए वे आदर और श्रद्धा के मूर्तरूप जिकरू बाबाथे।

जिकरू बाबा का जिक्र हो और बूजीकी याद आए ऐसा कैसे हो सकता है। जिकरू बाबा यदि एमबीबीएस की भूमिका में थे तो बूजीमहिला और शिशु रोग विशेषज्ञ थीं। बच्चों की हँसली उतर जाने पर हँसली बिठाने की तो वे इकलौती विशेषज्ञ थीं। बूजी कम उम्र में विधवा हो गईं। विधवा ऊपर से राजपूत! उनकी बारीक आवाज़ में सदा करुणा घुली होती। जिकरू बाबा और बूजी दोनों अपढ़ थे, पर थे अनुभव सिद्ध! दोनों निःशुल्क और चौबीस घंटे सेवाएँ देते।

एक थे गिरदारी बाबा! गाँव भर के कलैंडर! कंधे पर सफेद कपड़े से बनी झोली डाले आते। घर में घुसते ही आवाज़ लगाते आज पून्यों मंगळवार हुग्यो भाई! ‘ आवाज़ सुनते ही लोग घर से निकलते और अनाज से भरी कटोरी उनकी झोली में उड़ेल देते। वे अगले घर की राह लेते। गृहस्थ उन्हीं से अपने दिनबार पूछते। वे कुर्ते की जेब से तह किया हुआ पंचांग निकालते, अंगुलियों पर कुछ गिनते और ग्रह गोचर की स्थिति बता देते। हमारे घर जब आते तो अनाज के अलावा उन्हें भोजन के लिए कहा जाता और वे चमड़े की जूतियाँ उतार कर जमीन पर बैठ जाते। झोली से पीतल का लोटा निकालकर सामने धर लेते। जब थाली आती तो थोड़ी सी रोटी बिचूरकर चिड़ियों के लिए पास ही डाल देते। लोटे से अंजुरी में पानी भर थाली के चारों ओर कार देते और पिताजी का नाम लेते हुए बोलते भगवान परसराम कै घरां भली करै भाई! ‘ और तब भोजन शुरू करते। उनके द्वारा पास ही मिट्टी में डाले गए रोटी के टुकडों को खाने गौरेया जातीं। एक गिरदारी बाबा के साथ चिड़ियों का कुटुम्ब भी जीमता!

एक तुरही वाले फकीर बाबा थे। गाँव भर के इकलौते बैंड! नाम मैंने कभी सुना नहीं। काम से पहचाने जाते। ब्याह में तुरही बजाने को हाजिर। ब्याहों के दस-पंद्रह दिन पहले से रात को काँसे की थाली और नगाड़े की संगत पर महिलाएँ नाचतीं। नवेली वधुएँ, लजीली भाभियाँ, काकियाँ, ब्याहने की उम्र को पहुँची लड़कियाँ, किशोरियाँ-छोरियाँ-गौरियाँ-भोरियाँ सब नाचतीं। सम्मिलित स्वर में गीत गूँजते! मेहंदियाँ रचतीं, बिंदियाँ सजतीं। सिर गुँथाई होती। कुँवारी किशोरियों की कलाइयों में काँच की चूड़ियाँ खनकतीं। ब्याहताओं के हाथों में लाख का लाखीणा चुड़ला सोहता। उडीकती(प्रतीक्षारत) आँखों में उमड़ आए मोतियों को तनिक पलके छुपा लेतीं, तनिक घुँघटा चुरा लेता।

अब गाँव दिसम्बर की आखिरी तारीख की आधी रात को पटाखे फोड़ कर हैप्पी न्यू ईयर मनाने लगा है। जन्मदिन पर कैक आने लगा है। एनिवर्सरी सेलेब्रेट होने लगी है। डीजे-सीजे है! ग़लत नहीं है यह सब। होना चाहिए। मगर किस कीमत पर! आज गाँव के अनेक घरों में गाय, भैंस, भेड़-बकरी, ऊँट जैसा कोई जानवर नहीं है। गोया जानवर की भूमिका में भी जैसे आदमी ही बचा रह गया है। दूध, घी मोल का आने लगा है। लकड़ी के चुल्हे बुत गए हैं, खेतों से हल लुप्त हो गए हैं। अनेक घासें पेस्टीसाइड पीकर आत्महत्या कर चुकी हैं। तुम्बे की बेल अब नहीं दिखतीं, काचरे-मतीरे की बेलों ने जैसे परिवार नियोजन अपना लिया है। सत्यानाशी के पीले फूल देखे अरसा हो गया है। खेजड़ी की डालों से लटूमते बया के घोंसले नजर नहीं आते। तळाव तारबंदी और बसावट की कसावट में कसमसा रहा है। मंढी ढह गई है उसकी जगह मंडी ने ले ली है। गिरदारी बाबा, जिकरू बाबा, बूजी और हीराबाबा दुनिया छोड़ चुके हैं। एक चौथाई से ज्यादा गाँव शहर चला गया है। एक चौथाई शहर (बाजार, इंटरनेट और अंग्रेजी माध्यम स्कूल के वेश में) गाँव चला आया है। किस्से-कहानियाँ सो गए हैं क्योंकि यूट्यूब, फेसबुक और टिकटॉक जाग रहे हैं। गीत के मुखड़े कहीं खो गए हैं क्योंकि लोग दुखड़े छुपाने के गुर सीख गए हैं। अंतरे उजड़ गए हैं क्योंकि अंतर्मन पथरा रहे हैं। अब जब गाँव जाना होता है तो जैसे गाँव के बरगद, नीम, पीपल, कीकर पुकारते हैं; ‘अब मोड़ो आयो मोड़ो रे... पूराने औसारे, ओबरे, बाड़े कहते हैं; ‘अब मोड़ो आयो मोड़ो रे... वाकई क्या इतना मोड़ाहो गया है!

डॉ. हेमंत कुमार
सहायक आचार्य, श्री कल्याण राजकीय कन्या महाविद्यालय, सीकर (राजस्थान)
सम्पर्क : hemantk058@gmail.com, 9414483959
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

2 टिप्पणियाँ

  1. दरकते गांव और कस्बे, बदलते पारंपरिक- सांस्कृतिक प्रतिमानो पर बहुत ही अच्छा आलेख हेमंत जी द्वारा लिखा गया है। 🙏🙏

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  2. बहुत मार्मिक और यथार्थ से रूबरू करवाता संस्मरण। वास्तव में बहुत मोड़ा हो गया। अब वे परम्पराए दम तोड़ चुकी है, और कुछ तोड़ने को है।

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