आलेख : हिन्दी नवजागरण और प्रतिबंधित साहित्य में प्रतिरोध के स्वर / अमित कुमार

हिन्दी नवजागरण और प्रतिबंधित साहित्य में प्रतिरोध के स्वर
- अमित कुमार

    साहित्य गहरे स्तर पर अपने समाज से प्रभावित होता है और समाज को  प्रभावित भी करता है। समाज के साथ साहित्य का सम्बन्ध द्वंद्वात्मक है। किसी भी समाज, राज्य और राष्ट्र की उन्नति में साहित्य की प्रमुख भूमिका होती है, इसके साथ ही  किसी भी समाज की स्थिति, चिन्तन, संघर्ष, विचार-प्रणाली को समझने के लिए साहित्य इतिहास और समाजशास्त्र की  भूमिका भी अदा करता है। इसलिए मुक्तिबोध साहित्य की भूमिका  को  सभ्यता समीक्षा के रूप में  देखते हैं।  औपनिवेशिक दौर में  प्रतिबंधित साहित्य हमारे लिए मुक्ति की चेतना जगाने का प्रमुख स्रोत था तो आज  इतिहास को समझने का प्रमुख स्रोत है।  प्रतिबंधित साहित्य के महत्त्व पर बात करते हुए मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं- “हिन्दी में प्रतिबंधित साहित्य के ऐतिहासिक महत्त्व पर विचार की प्रवृत्ति बहुत दुर्बल है। जिन लेखकों ने पाबंदी, मुकदमा और जेल का खतरा उठाकर साहस के साथ ऐसी रचनाएँ लिखीं, जो प्रतिबंधित थी, उनके महत्त्व की पहचान करना आलोचना का एक राष्ट्रीय दायित्व है।

प्रतिबंधित साहित्य के मायने  -

    प्रतिबन्ध एक राजनीतिक शब्द है, जिसका अर्थ है निषेध का फरमान। यह एक प्रशासनिक कार्यवाही है, जिसमें व्यवस्था द्वारा किसी भी प्रकाशक, संगठन, पुस्तक, सभा को सत्ता के अस्तित्त्व के प्रति खतरा देखकर उसे गैरकानूनी घोषित किया जाता है, और उसके खिलाफ दमनात्मक कार्यवाही की जाती है। व्यवस्था अपनी प्रभुत्वशाली सत्ता को बनाये रखने के लिए किसी भी प्रकार से चुनौती बन सकने वाली गतिविधियों पर लगातार निगाह रखती है और व्यवस्था के संदर्भ में खतरा पाये जाने पर निषेधाज्ञा निकालती है। प्रतिबंधित साहित्य का सरोकार ऐसे साहित्य से है, जो सत्ता द्वारा लगाये गये तमाम तरह के  निषेधों  के बावजूद प्रतिरोधी स्वर में  अभिव्यक्त होता है, अथवा व्यवस्था द्वारा जिन रचनाओं पर निषेध का फरमान घोषित किया जाता है, वे सब प्रतिबंधित साहित्य के दायरे में आते हैं।  

    भारत में प्रतिबंधित साहित्य का उद्भव औपनिवेशिक काल में हुआ है। इस साहित्य का लक्ष्य है- सत्ता की कुनीतियों की आलोचना करना, उसकी कुव्यवस्था के खिलाफ बोलना, लिखना अथवा अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यम से जनता को जागरूक करना और उसमें स्वतंत्रता की चेतना का प्रसार करना। सत्ता इस तरह के अभिव्यक्ति के स्वर को मिटाने  के लिए दमनात्मक रुख अपनाती है। एन. जेराल्ड बैरीयर जिन्होंने प्रतिबंधित साहित्य पर चर्चित पुस्तक ‘बैण्ड कंट्रोवर्सियल लिटरेचर एंड पोलिटिकल कण्ट्रोल इन ब्रिटिश इण्डिया1907-1947’ (BANNED CONTROVERSIAL LITERATURE AND POLITICAL CONTROL IN BRITISH INDIA 1907-1947) लिखी है, बैरियर का मानना है कि औपनिवेशिक भारत में बांग्ला में 226, गुजराती में 158, हिन्दी में 1391, हिन्दुस्तानी में 320, मराठी में 185, अंग्रेजी में 273, पंजाबी में 135, उर्दू में 468, द्रविड़ भाषाओँ में 224 और अन्य में 538 रचनाओं को ब्रिटिश शासन के अंतर्गत प्रतिबंधित किया गया था। प्रतिबंधित साहित्य की इतनी संख्या देखकर हम उसकी ताकत का अंदाजा लगा सकते हैं। हालाँकि गंभीरता से पड़ताल करने पर अप्राप्त प्रतिबंधित साहित्य की संख्या और भी बढ़ सकती  है।
 
हिन्दी साहित्य में प्रतिबंधित साहित्य -

    साहित्य का इतिहास तदयुगीन दौर में उपलब्ध युगीन प्रवृत्तियों की पड़ताल के साथ  साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन भी करता है। प्रतिबंधित साहित्य के साथ सबसे बड़ी बात यह हुई कि युगीन प्रवृत्तियों के मूल्यांकन के दौरान उसकी सबसे ज्यादा उपेक्षा हुई। मसलन जब साहित्य का इतिहासकार आधुनिक हिन्दी साहित्य के आरंभिक चरण का मूल्यांकन करता है, तो उसका मुख्य फोकस भारतेन्दु मण्डल के साहित्य पर होता है, जबकि भारतेन्दु मण्डल के समान्तर ही 1857 के स्वाधीनता संग्राम के पक्ष में गीतों और लोकगीतों की रचना हो रही थी। अंग्रेजी सरकार की निषेधाज्ञा के बावजूद विपुल मात्रा में प्रतिबंधित साहित्य रचा जा रहा था। बावजूद इसके हिन्दी साहित्य के इतिहास में आज तक प्रतिबंधित साहित्य की उपेक्षा दिखाई देती है। साहित्य के इतिहासकारों के इस उपेक्षा भाव को देखते हुए मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं-"यह देख कर बहुत आश्चर्य होता है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल के अन्तर्गत अंग्रेजी राज के दौरान प्रतिबन्धित हिन्दी साहित्य का कोई उल्लेख नहीं मिलता, ऐसी स्थिति में उनके विश्लेषण और मूल्यांकन की उम्मीद कैसे की जाए? अंग्रेजी राज के दौरान दो तरह की पुस्तकों पर पाबन्दी लगी थी। उनमें कुछ वैचारिक थीं और कुछ सर्जनात्मक। वैचारिक पुस्तकों में अधिकांशतः इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र से सम्बन्धित थीं, सर्जनात्मकता के अन्तर्गत कविता, उपन्यास, कहानी और नाटक की पुस्तकें। अगर साहित्येतिहास में किसी भाषा में मौजूद ज्ञान की दशा का आकलन है, जैसा कि एस. जॉनसन ने कहा था तो हिन्दी साहित्य के इतिहास में हिन्दी में लिखी गई और प्रतिबन्धित हुई इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र की पुस्तकों पर विचार होना चाहिए। ऐसा करने के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास को हिन्दी वांग्मय का इतिहास बनाना होगा, जो वह अभी नहीं है, लेकिन जो लोग साहित्य का इतिहास लिखते समय या उसके बारे में सोचते समय इतिहास से अधिक महत्त्वपूर्ण साहित्य को मानते हैं, वे भी उन कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और नाटकों पर ध्यान नहीं देते, जिन पर प्रतिबन्ध लगा था। उनके विश्लेषण और मूल्यांकन के बाद ही उनकी साहित्यिकता तय हो सकती है, न कि अंग्रेजी राज की तरह उन्हें अवांछित मानकर उपेक्षित करने से। हिन्दी साहित्य के इतिहास और कहीं-कहीं हिन्दी आलोचना में भी एक राष्ट्रीय साहित्यधारा की चर्चा होती है पर उनमें कहीं प्रतिबन्धित रचनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान आन्दोलन के पक्ष में प्रेरणादायी साहित्य लिखने वालों को दोहरा दण्ड मिला, अंग्रेजी राज ने उन रचानाओं पर प्रतिबन्ध लगाकर दण्डित किया, तो हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने उन्हें उपेक्षा का दण्ड दिया।"

  साहित्य के इतिहास के मूल्यांकन के दौरान  बड़ी भूलें हुईं  जिसकी वजह से साहित्य के इतिहास की परम्परा का मूल्यांकन ठीक  ढंग से नहीं हुआ है। जब हम प्रतिबंधित साहित्य से होकर गुजरते हैं तो हमें यह भान होता है कि भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग और छायावाद युग के समानांतर बहुतायत रूप से विपुल साहित्य रचा जा रहा था, जिसमें स्वाधीनता की प्रखर चेतना दिखाई देती है, जो अपने कथ्य और शिल्प में प्रगतिवाद से सीधे जाकर जुड़ता है। हम प्रतिबंधित साहित्य की कविता, नाटक, कहानी, पम्पलेट, पत्र-पत्रिकाओं की भाषा और प्रगतिवादी दौर में लिखे जा रहे साहित्य का विश्लेषण करें तो हम यह पाते हैं कि इन दोनों  के कथ्य और शिल्प  में अद्भुत साम्यता है। इन दोनों का लक्ष्य आम जनता तक पहुँचना था। 

    वास्तव में, हम इतिहास का मूल्यांकन एक रेखीय ढंग से करते आये  हैं, जबकि साहित्य के इतिहास में एक ही समय में कई तरह की धाराएँ मौजूद थीं। प्रतिबंधित साहित्य का मूल्यांकन करते समय हमें 1857 के गीतों और लोकगीतों को भी शामिल करना चाहिए। 1857 के गीतों और लोकगीतों की संवेदना और शिल्प भी वही है, जो प्रतिबंधित साहित्य में मौजूद है। लोककंठ में संचित होने की वजह से वह प्रतिबन्ध की जद में नहीं आ सकी, पर 1857 के दौर के गीतों और लोकगीतों को हम देखें तो कथ्य के स्तर पर हमें कोई अंतर नहीं मिलेगा। स्वाधीनता की चेतना और साम्राज्यवाद का विरोध इनका मुख्य लक्ष्य था। यह साहित्य जनमानस का अनिवार्य हिस्सा था और बिना इनसे होकर गुजरे हम जनमानस की चेतना को नहीं समझ सकते और न ही साहित्यिक परम्परा में प्रगतिवादी दौर को समझ सकते हैं, क्योंकि प्रगतिवाद में जो मुक्ति की चेतना है, वह प्रतिबंधित साहित्य की परम्परा से आकर मार्क्सवाद के साथ घुलमिल गई है। साम्राज्यवाद विरोधी चेतना मार्क्सवादी चेतना के साथ मिलकर एक बड़े लक्ष्य का उद्घाटन करती है। 

       सत्ता हमेशा सामूहिक अथवा सांगठनिक चेतना से डरती है क्योंकि सामूहिक चेतना में बहुत बल होता है। एक तरफ अंग्रेजी सरकार औपनिवेशिक व्यवस्था बरकरार रखने के लिए तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगा रही थी, तो दूसरी तरफ भारतीय जन मुक्ति की आकांक्षा में अंग्रेजी सत्ता से लगातार संघर्ष कर रहा था। जनता के लिए इस संघर्ष में साहित्य प्रमुख हथियार था इसलिए अंग्रेजों के लिए जरूरी था कि वे इस तरह के साहित्य पर प्रतिबन्ध लगाए जो उनकी शासन व्यवस्था में अवरोध पैदा करता है। ब्रिटिश शासन द्वारा निर्धारित प्रतिबन्ध के मानदण्ड निम्नलिखित प्रकार से थे–
 अंग्रेजी सरकार के दमन और शोषण के खिलाफ लिखा जाने वाला कोई भी लेख या रचना प्रकाशित नहीं  हो सकती ।
सन् 1857 के आन्दोलन के समर्थन में लिखी हुई कोई रचना प्रकाशित नहीं हो सकती ।
रूसी क्रांति और मार्क्सवाद के बारे में कुछ भी जानकारी देने वाली रचना प्रकाशित नहीं हो सकता ।
दुनिया के किसी भी देश के स्वाधीनता आन्दोलन के समर्थन में लिखा हुआ कुछ भी प्रकाशित नहीं हो सकती।
असल में, भारतीय जनता ने जिस तरह सन् 1857 में अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेजी राज के खिलाफ संगठित होकर लड़ाई लड़ी अंग्रेजी सत्ता उससे हिल गई थी, इसलिए अंग्रेजों ने बहुत ही क्रूरतापूर्वक  उस स्वाधीनता संग्राम की चेतना को दबाने की चेष्टा की। इस क्रूरता को लोकगीतों और प्रतिबंधित साहित्य ने दर्ज किया है। ‘चाँद’ पत्रिका  के ‘फाँसी अंक’ के संपादक  इस दुर्दांत ह्रदय विदारक घटना के संदर्भ में  अंग्रेज इतिहास लेखक सर जॉन  के हवाले से लिखते हैं- “फौजी और सिविल दोनों तरह के अंग्रेज अफसर अपनी-अपनी खूनी अदालतें लगा रहे थे, अथवा बिना किसी तरह के मुकदमे का ढोंग रचे और बिना मर्द-औरत या छोटे-बड़े का विचार किए भारतवासियों का संहार कर रहे थे। इसके बाद खून की प्यास और भी अधिक भड़की। भारत के गवर्नर जनरल ने जो पत्र इंगलिस्तान भेजे उनमें हमारी ब्रिटिश पार्लियामेंट के कागजों में यह बात दर्ज है कि “बूढ़ी औरतों और बच्चों का उसी तरह वध किया गया है, जिस प्रकार उन लोगों का, जो विप्लव के दोषी थे। इन लोगों को सोच-समझ कर फाँसी नहीं दी गई, बल्कि  उन्हें उनके गाँव के अंदर जलाकर मार डाला गया; शायद कहीं-कहीं उन्हें इत्तिफाकिया गोली से भी उड़ा दिया गया। ...सडकों के चौरस्तों पर और बाजारों में जो लाशें टँगी हुई थीं; उनको उतारने में सूर्योदय से सूर्यास्त तक मुर्दे ढोने वाली आठ-आठ गाड़ियाँ बराबर तीन-तीन महीने तक लगी रहीं और इस प्रकार एक स्थान पर छ: हजार मनुष्यों को झटपट ख़तम करके परलोक भेज दिया गया।” 
 
प्रतिबंधित साहित्य में मुक्ति की चेतना -

सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य की मुक्ति की आकांक्षा जुड़ी हुई है। समय और काल के सापेक्ष मनुष्य की मुक्ति की प्राथमिकताएँ हमेशा बदलती रही हैं। प्रतिबंधित हिन्दी साहित्य में मुक्ति की आकांक्षा स्वाधीनता की चेतना के साथ जुड़ी हुई दिखाई देती है।  

  प्रतिबंधित हिन्दी साहित्य में राष्ट्र-मुक्ति का सवाल सबसे ऊपर दिखाई देता है। जिस तरह से औपनिवेशिक दौर का भारतीय जन पराधीनता की जंजीरों में सांस ले रहा था, उसकी अभिव्यक्ति प्रतिबंधित हिन्दी साहित्य में पर्याप्त  रूप में  हुई  है। असल में, साम्राज्यवादी ताकत से लड़ने के लिए रचनाकारों के पास दोहरी चुनौती थी, पहली चुनौती कि औपनिवेशिकता के जांत में पिस रहे जन को जागरूक करना और दूसरा उनमें स्वतंत्रता की चेतना फूँकना। कहना न होगा, अंग्रेजी राज के तमाम तरह के प्रतिबंधों के बावजूद भारतीय रचनाकार पूरे साहस के साथ अपनी भूमिका निभा रहे थे। औपनिवेशिक दौर में मौजूद स्वाधीनता की चेतना का अंदाजा हम प्रतिबंधित नाटक ‘बरबादी-ए-हिन्द’ से लगा सकते हैं। इस नाटक का एक पात्र दौलतराम कहता है- हम मनुष्य हैं। यदि जिएंगें तो स्वतंत्र मनुष्य की तरह जिएंगें, नहीं तो मर जाएंगें, अपना जीवन सफल कर जाएंगें । अब समय है कि हम कम्पनी की गुलामी का जुआ अपनी गर्दन पर से उतार देंवे।

     कोई भी आन्दोलन अथवा क्रान्ति बिना सम्पूर्ण भागीदारी के कभी सफल नहीं हो सकती। बात चाहे सन् 1857 के प्रथम  स्वाधीनता संग्राम की हो अथवा बाद के अन्य स्वाधीनता आंदोलनों की, उनमें हर वर्ग जाति और जेंडर की प्रमुख भूमिका थी। इसी तरह स्वाधीनता की यह चेतना केवल प्रतिबंधित हिन्दी साहित्य तक ही सीमित नहीं थी बल्कि इस तरह की चेतना उस दौर के लोकगीतों में भी मौजूद है। इन गीतों ने भी आज़ादी की लड़ाई में ग्रामीण अंचलों में स्वाधीनता की चेतना का प्रचार-प्रसार किया। स्वाधीनता की जाग्रत चेतना से ओत-प्रोत एक लोकगीत की पंक्तियाँ देखिए-

जागो, उठो, अब हुआ बिहान
आजादी का बिगुल बजा है
और क्रांति का साज सजा है
 XX     XX    XX    XX  
यही समय है कुछ करने का 
माता मांगती है बलिदान ।।
जागो, उठो, अब हुआ बिहान 
पकड़ लो हाथों में कृपान ।।

  प्रतिबंधित साहित्य की पूरी लड़ाई साम्राज्यवादी सत्ता से थी, क्योंकि अग्रेजों ने भारत में आने के बाद न केवल भारत की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह चौपट किया बल्कि किसान, मजदूर और बुनकरों के काम को भी बर्बाद कर दिया इसलिए स्वाधीनता की लड़ाई में एकजुटता दिखाई देती है। औपनिवेशिक भारत की आर्थिक स्थिति का अंदाजा हम उस दौर में रचित इस भोजपुरी लोकगीत से लगा सकते हैं-

हो गइली कंगाल हो विदेसी तोरे रजवा में ।
सोने की थारी जहाँ जेवना जेंवत रहनी,
भारत के लोग आजू दाना बिनु तरसे भइया
लन्दन के कुतवा उड़ावे मजा माल,
हो विदेशी तोरे रजवा में।   
 
हिन्दी नवजागरण और प्रतिबंधित साहित्य -

    आधुनिक हिन्दी साहित्य में आधुनिकता, नवजागरण और स्वाधीनता की चेतना का उद्भव एक साथ दिखाई देती है। हिन्दी साहित्य में नवजागरण का मूल्यांकन तो बहुत-से विद्वानों ने किया है पर हिन्दी नवजागरण और प्रतिबंधित साहित्य को समानांतर रखकर उसका मूल्यांकन करना एक दिलचस्प प्रक्रिया होगी। एक ही समय में लिखे जाने के बावजूद साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु मण्डल और द्विवेदी युग (महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनके साथ रचनाकर्म करने वाले मुख्य धारा के रचनाकार) पर तो खूब लिखा गया पर ‘प्रतिबंधित साहित्य’ साहित्येतिहास में उपेक्षित ही रहा। 

    असल में साहित्य  के मूल्यांकन में भी वर्चस्व की शक्ति अपना प्रभाव दिखाती है। जिन्हें नोटिस किया जाता है, वे मुख्य धारा में आ जाते हैं, किन्तु जो उपेक्षित रह जाते हैं, वे इतिहास पटल से ओझल हो जाते हैं। हम उन्नीसवीं सदी के साहित्येतिहास पर बात करते हुए केवल भारतेन्दु मण्डल तक सीमित हो जाते हैं, जबकि  भारतेन्दु मंडल से इतर भी उस दौर में  लोकगीत, कविता, पैम्पलेट आदि अनेक साहित्य रूपों में साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना अभिव्यक्ति पा रही थी, जिसका मूल्यांकन अभी बाकी  है। इसके लिए जरूरी होगा कि प्रतिबंधित साहित्य पर मेहनत और गंभीरता के साथ काम हो। प्रतिबंधित साहित्य का अभी भी बहुत-सा हिस्सा ऐसा है जो हिन्दी के पाठकों, इतिहासकारों, शोधार्थियों और आलोचकों की पहुँच से दूर है। 

    ‘नवजागरण’ का अर्थ एक ऐसी चेतना से है, जो ऐतिहासिक रूप से सामूहिक स्तर पर जागृति का आह्वान करती है। यह जागृति धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक से लेकर ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्य और संस्कृति हर क्षेत्र में होती है। नवजागरण की अवधारणा आधुनिकता की सूचक तो है ही, साथ ही यह मानव सभ्यता की उन्नति और विकास पर भी जोर देती है। 
     
    भारतीय नवजागरण का उद्भव और विकास बहुत हद तक पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति के संघर्ष तथा ज्ञान-विज्ञान, प्रेस, छापाखाना और संचार माध्यमों के प्रसार होने के साथ हुआ। यह भारतीय नवजागरण अपने भीतर मानव-कल्याण, देशोन्नति, समाज-सुधार, धार्मिक-सुधार, साम्राज्यवाद विरोध, अंग्रेजी सरकार की प्रशंसा और आलोचना, पुनरुथान, ज्ञानोदय इत्यादि कई अंतर्विरोधों को अपने भीतर समेटे हुए था। 

    भौगोलिक,सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ किसी भी देश अथवा प्रदेश के आन्दोलन के मिजाज को प्रभावित करती हैं। युगीन परिस्थितियाँ तय करती हैं कि कोई भी आन्दोलन अथवा जागरण किसी देश या समाज में किस तरह का तेवर अख्तियार करेगा। ज्ञान-विज्ञान और राजनीतिक बदलाव के फलस्वरूप यूरोप में जिस नई चेतना का संचार हुआ, भारतीय पृष्ठभूमि में स्थितियाँ इससे बिल्कुल अलग थीं। भारतीय पृठभूमि में नवजागरण का उद्भव साम्राज्यवाद के शोषण के दौरान हुआ।  इसके साथ ही एक राष्ट्र के रूप में भारत की परिकल्पना भी इसी साम्राज्यवाद के विरोध में हुई इसलिए भारतीय नवजागरण के प्रत्येक प्रदेशीय नवजागरण में अंग्रेजी राज की आलोचना, उसका विरोध और देशोन्नति की भावना उसे आपस में जोड़ने का काम करती है, किन्तु हर प्रदेश की अपनी एक विशिष्ट भौगोलिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक विशिष्टता होने के कारण हर प्रादेशिक नवजागरण की अपनी एक खास विशेषता भी है।  

    अपने शुरुआती चरण में ‘हिंदी नवजागरण’ ‘बंगाल और मराठी नवजागरण’ की तरह अधिक रैडिकल ना होते हुए भी अपनी तद्युगीन जनता को जागरूक करने में पर्याप्त रूप से तत्पर दिखाई देता है। यह तत्परता विकासात्मक रूप में भारतेन्दु युग (?) से प्रेमचन्द युग (?) तक दिखाई देती है। औपनिवेशिक सत्ता की कुव्यवस्था, अंग्रेजी सरकार की कुनीतियों का विरोध, किसानों की स्थिति, कुटीर उद्योग-धंधो के निरंतर बर्बाद होते जाने की स्थिति ऐसे अनेक मुद्दे हैं, जिसपर प्रतिबंधित साहित्य और नवजागरण साहित्य ने समान रूप से  खुलकर कलम चलाई पर 1857 के स्वाधनीता संग्राम के प्रति हिन्दी नवजागरण के रचनाकारों का रवैया लगभग बचकर निकल जाने जैसा ही रहा। मैनेजर पाण्डेय इस बात की पड़ताल करते हुए लिखते हैं-“हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के भारतेन्दु युग में 1857 के विद्रोह के पक्ष में खुलकर नहीं लिखा गया क्योंकि अंग्रेजी राज की दमन नीति के कारण जो आतंक और भय का वातावरण था उसमें 1857 के पक्ष में लिखना कठिन और खतरनाक भी था। इसी काल में प्रेस, प्रकाशन और लेखन पर नियंत्रण के लिए अनेक कानून बने और उन्हें सख्ती से लागू किया गया।”  “18 जून, 1857 को नया प्रेस एक्ट जिसे भारतीय प्रेस ने ‘गला घोंटू एक्ट’ की संज्ञा दी, पारित किया गया। इस एक्ट  द्वारा प्रतिबन्ध के लिए ऐसी किसी भी पुस्तक, पर्ची, अख़बार या अन्य  मुद्रित सामग्री को ‘सरकारी रडार’ पर लिया गया जो या तो इंग्लैण्ड या भारत के ब्रिटिश शासन के विरुद्ध षड्यंत्र वाला हो, या जिनके दृष्टान्त या बयान से विरोध का आभास हो, या इस सरकार के विरुद्ध घृणा, विद्वेष व असंतोष की भावना फैलाये, या गैर-क़ानूनी अवमानना करे या उसकी क़ानूनी संस्था या असैनिक अथवा सैनिक कर्मचारियों के क़ानूनी अधिकार को कमजोर करे। इसमें वह सभी मुद्रित सामग्री शामिल थी, जिसके धार्मिक विचार और निष्कर्ष में कोई बयान या दृष्टान्त ऐसे हों जो सरकार द्वारा किसी प्रायोजित हस्तक्षेप की देशी कार्यवाही में संदेह या खतरा उत्पन्न करने वाला हो। इसके साथ ही सन् 1867, 1878 और 1898 में प्रेस एक्ट को और कड़ा बनाकर प्रतिरोध के स्वर को कमजोर करने की कोशिश की गई इसका प्रभाव हिन्दी नवजागरण की रचनाओं पर दिखाई देता है। इसके अलावा उन्नीसवीं सदी के बुद्धिजीवियों में अंग्रेजों के प्रति एक खास तरह का दुचित्तापन दिखाई देता है । वसुधा डालमिया के विचार से यह मान्यता बहुत मजबूत जड़ें जमा चुकी थी कि किसी भी तरह की तरक्की अंग्रेजों द्वारा कायम की गई कानून और व्यवस्था से ही  संभव हो पाई है, चाहे वह वाणिज्य के क्षेत्र में दिखने वाली तरक्की हो, चाहे शहरों, सड़कों और रेल की बढ़ोत्तरी में या फिर  शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और एक नये शिक्षित वर्ग के अभ्युदय में।  यह एक ऐसा सबक था, जिसे रटंत विद्या की तरह शुरुआती राष्ट्रवादियों ने भी दुहराया। अंग्रेजों ने भले ही यह सब अपने लाभ के लिए किया हो, किन्तु उन्नीसवीं सदी के भारतीय बुद्धिजीवियों की दृष्टि में यह उन्नति का ही एक रूप था। लेकिन भारतीय व्यापार, उद्योग-धंधों में कमी और शोषण की तीव्र प्रक्रिया के कारण धीरे-धीरे इन बुद्धिजीवियों को भी अंग्रेजों का शोषक चरित्र स्पष्ट होने लगा था।  इस युग के साहित्यकारों के विचार और रचना  में अंग्रेजी सरकार के प्रति दुचित्तापन इसी वजह से दिखाई देता है ।

    भारतेंदु युग के रचनाकार यद्यपि प्रखर रूप से अंग्रेजी साम्राज्यवाद का विरोध नहीं करते किन्तु इसके साहित्य में प्रच्छन्न रूप से राष्ट्रवादी चेतना और अंग्रेजी सरकार की शोषक नीतियों की आलोचना अवश्य दिखाई पड़ती है। भारतेंदु युगीन साहित्यकार अपने देश की तद्युगीन परिस्थितियों का गहन विश्लेषण करता है और अंग्रेजी-राज की शोषक नीतियों को भारत दुर्दशा का प्रमुख कारक मानता है।  

    देशोन्नति और देशोद्धार ही हिन्दी नवजागरण के लिए प्रमुख मुद्दा था। अंग्रेजी शासन के खिलाफ कुछ भी लिखना उन दिनों ‘राजद्रोह’ माना जाता था। दमन, राजदंड तथा प्रेस एक्ट द्वारा प्रतिबन्ध के प्रभाव में अंग्रेजी शासन की  आलोचना के बाद इन साहित्यकारों का स्वर प्रार्थना की मुद्रा में हो जाना भी स्वाभाविक जान पड़ता है।  राजद्रोह से बचने के लिये इस युग के लेखकों ने अपनी रचनात्मकता में खास तरह की व्यंग्य की धार का सृजन भी किया जो उस उस युग की रचनात्मकता की प्रमुख शैली मानी जाती है, जिसे आलोचक ‛हँसमुख गद्य’ कहते हैं। अंग्रेजी राज द्वारा किये जा रहे शोषण तथा साम्राज्यवादी नीतियों पर व्यंग्य करते हुए भारतेंदु लिखते हैं- “चुंगी और पुलिस तुम्हारी दोनों भुजा हैं, अमेल तुम्हारे नख हैं, अंधेर तुम्हारा पृष्ठ है और आमदनी तुम्हारा ह्रदय है, अतएव हे अंगरेज, हम तुम्हें प्रणाम करते हैं। खजाना तुम्हारा पेट है, लालच तुम्हारी क्षुधा है, सेना तुम्हारा चरण है, ख़िताब तुम्हारा प्रसाद है, अतएव हे विराटरूप अंगरेज, हम तुमको प्रणाम करते हैं।”

    अंग्रेजी सरकार की दमन सम्बन्धी नीतियों और तद्युगीन परिस्थितियों को देखते हुए सारसुधा निधि के संपादक ‘सदानंद मिश्र’  लिखते हैं- “यह तो निश्चय हुआ कि वर्तमान राजनीति के आन्दोलन का फल चाहे सम्पूर्ण न हो, परन्तु बुरे से कुछ अच्छा ही हुआ। क्योंकि यह तो कुछ इंगलैंड नहीं है, कि यहाँ की प्रजा स्वाधीन प्रकृति की है। जब इंग्लैण्ड ही में प्रधानमंत्री की स्वेच्छाचारिता झलकती है, और पुन: ढँक जाती है, तो यहाँ तो प्रजा के दुःख दूर करने के दो ही उपाय है- प्रथम समाचार पत्रों में लिखना, दूसरा आवेदन करना।” इन पंक्तियों में औपनिवेशिक शासन के अधीन साहित्यकार के पराधीन चेतस मानस की विवशता और उसकी वैकल्पिक उपायों की उन्मुखता को आसानी से समझा जा सकता है। 

    कई बार भारतेंदु युग के लेखक अपने वर्गीय चरित्र के कारण अंग्रेजी राज और उसके द्वारा हुई उन्नति की प्रशंसा भी करते हैं, तो कई बार साम्राज्यवादी इतिहास-दृष्टि के प्रभाव में मुसलमानों को भारतीय संस्कृति के प्रति खलनायक के रूप में  देखते हैं, और अंग्रेजी राज को देशोन्नति के सुअवसर के रूप में देखते हैं। यह प्रवृत्ति भारतेंदु युग के लगभग सभी रचनाकारों में देखने को मिलती है।  इसके बावजूद नवजागरणकालीन साहित्यकार अंग्रेजी-राज द्वारा शोषण के तंत्र को पहचानने में तनिक भी भूल नहीं करता। 

    देशोन्नति के लिए समाज-सुधार तो जरूरी है ही, साथ ही आर्थिक उन्नति भी बहुत जरूरी है। आर्थिक उन्नति के बिना देशोन्नति का ख्वाब अधूरा नजर आता है। भारतेंदु मंडल का साहित्यकार देशोन्नति पर बात करते हुए आर्थिक पहलुओं पर भी विचार करता है। वह आर्थिक उन्नति के लिए ‘स्वदेशी’ पर बल देता है। स्वदेशी पर बात करते हुए भारतेंदु लिखते हैं- “तुम्हारा रुपया तुम्हारे देश में रहे, वह करो। ...देखो, जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली है, वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका को जाती है, दिया-सलाई ऐसी तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती है। ... ...हाय अफ़सोस तुम ऐसे हो गए कि अपने निज काम की वस्तु भी नहीं बना सकते।” प्रतिबंधित साहित्य में भी स्वदेशी वस्तुओं के प्रति विशेष सजगता दिखाई देती है ।

    हिन्दी नवजागरण के चिंतन में शिल्प और कल-कारखानों के उद्योग स्थापित करने को लेकर एक खास तरह का जोर दिखाई देता है। शिल्प उद्योग की महता पर प्रकाश डालते हुए ‘सारसुधा निधि’ के संपादक ‘सदानंद मिश्र’ लिखते हैं- “शिल्प जो देश को समृद्ध  करने का प्रधान कारण है, हम जानते हैं कि इस विषय में किंचित भी संदेह नहीं हो सकता है। क्योंकि शिल्प ही वाणिज्य का मूल है, और वाणिज्य में ही देश को प्रयोजनीय पदार्थ प्राप्त होते हैं, सुतरां (अत:) कृषि जिस प्रकार खाद्य सामग्री की प्रसूता है, उसी प्रकार शिल्प, देश के अभावों को दूर करने का एकमात्र सर्व प्रधान कारण है।  ... विचारिये तो जिस देश में शिल्प की जितनी उन्नति होगी अर्थात् जितना विशेष शिल्प का कार्य होगा, उस देश का उतना ही वाणिज्य बढ़ेगा, सुतरां वह देश उतना ही समृद्धि-सम्पन्न होगा।” औपनिवेशिक भारत में पुराने शिल्प के लगातार नष्ट होने और कृषि पर बढ़ती निर्भरता को लेकर प्रतिबंधित कृति ‘देश की बात’ में सखाराम गणेश देउस्कर लिखते हैं – यहाँ का पुराना शिल्प नष्ट कर सरकार ने अधिकांश लोगों को किसान बना डाला है। उसके बाद निरंतर कर बढ़ाकर उन्हें कर्ज के भयंकर दलदल में फंसा दिया है। अन्यान्य सभ्य देशों में शिल्प वाणिज्य की उन्नति से राजकोष हरा-भरा रहता है। यहाँ भारत-सरकार ने देशी शिल्प वाणिज्य का नाश किया है अथच विलायती माल पर कर बैठाने का उन्हें साहस भी नहीं होता। कारण विलायती माल पर कर बैठाने से इंग्लैण्ड के कारीगरों को हानि होगी।

  औपनिवेशिक शासन ने न केवल भारतीय शिल्प-उद्योग को हानि पहुँचाई बल्कि कर लगाकर कृषि पर निर्भर जनता को भी आर्थिक रूप से कमजोर किया। औपनिवेशिक भारत में कृषि और शिल्प-उद्योग की स्थिति पर बात करते हुए प्रसिद्ध समाजशास्त्री ‘ए.आर. देसाई’ लिखते हैं- “पूंजीवादी देशों के विपरीत, भारत में नये भूमि संबंधों के आगमन के साथ समानांतर औद्योगिक विकास नहीं हुआ। ब्रिटिश उद्योगों के मशीन निर्मित सामान के बाजार में आने की वजह से भारतीय कारीगरों में बहुसंख्यक बर्बाद हो गए और चूँकि देश में उद्योगों का विकास नहीं हो रहा था, इसलिए उन्हें अन्यत्र काम नहीं मिल सका। इन लोगों ने जीविकोपार्जन के लिए बहुत बड़ी तादाद में खेती का सहारा लिया और भूमि की जनसंकुलता और बढ़ी ही। इस जनसंकुलता के कारण जमीन का विभाजन-उपविभाजन हुआ और अनार्थिक जोतों की संख्या बढ़ी। कृषि की गुण क्षमता का ह्रास हुआ और किसानों के क्रमिक दरिद्रीकरण की प्रक्रिया तेज हुई।”

    हिंदी नवजागरण का चेता औपनिवेशिक शोषण की इन महीन प्रक्रियाओं को देख रहा था। तद्युगीन  किसानों के शोषण और निरंतर बढ़ती निर्धनता को देखकर वह लिखता है- “अब ऐसा समय हो गया है कि भूमि से जितना उपजता है, उसका बारह आना बेचकर गवर्नमेंट को देना पड़ता है।  बाकी चौथाई में उनके परिवार का अन्न वस्त्रादि पूरा नहीं होता, इसलिए उनको महाजनों से ऋण लेकर कार्य निर्वाह करना पड़ता है। दूसरे बरस उनकों उससे भी विशेष कष्ट होता है, इधर गवर्नमेंट को पूरा राजस्व देना है, और उधर महाजन को भी संतुष्ट करना है।  इस अवस्था में निरुपाय प्रजा को आगामी बरस की फसल बंधक रखकर महाजन से रुपये ले निर्दय गवर्नमेंट के हाथ से छुटकारा की चेष्टा करनी पड़ती है।” तद्युगीन कृषक के शोषण की स्थिति को बताने के बाद शोषण के प्रमुख कारक की पहचान करता हुआ लेखक आगे लिखता है- “पाठक! अब देखिए प्रजा की दुरावस्था का कारण क्या है? प्रजा की दुरवस्था का कारण सिवाय गवर्नमेंट संस्थापित राजस्व संग्रह प्रणाली के और भी कुछ हो सकता है?” प्रतिबंधित साहित्य में भी किसानों की स्थिति का ठीक इसी तरह का  विश्लेषण देखने को मिलता है। राधामोहन गोकुल लिखते हैं – “देश की कंगाली बहुत बढ़  गई है और दिन-दिन बढ़ती जाती है ।  किसान मजदूर खाने-पहनने के लिए तरसते हैं। अंग्रेज राज आने के पहले हमारी यह दशा कभी नहीं थी। देश में 100 में से 96 आदमी न पेट भर खाने को पाते हैं, न तन ढकने को पूरा कपड़ा मिलता है। देश में इतना अन्न और इतनी रुई पैदा होती है, पर वह सब महाजन के ब्याज और जमींदारों की माँग और सबसे अधिक सरकारी करों में ही सोख ली जाती है। इसका कारण अंग्रेजी-राज की निर्दय शासन प्रणाली है । 

`    औपनिवेशिक शासन की बंदिशों के बावजूद हिंदी नवजागरण राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक मुद्दों पर अपने समय से लगातार टकराता रहता है, किन्तु उसके धार्मिक पहलू में उसका ‘हिन्दू’ चिंतन कई बार उसके नवजागरण चिंतन के आयतन को संकुचित करने का काम करता है। उन्नीसवीं सदी के हिंदी नवजागरण की निष्पक्ष पड़ताल करने पर कई बार हम हिंदी नवजागरण चिंतन में मुसलमानों की खलनायक छवि पाते हैं। इस विभेदक इतिहास दृष्टि को बनाने में प्राच्यवादी इतिहासलेखन तथा साम्राज्यवादी इतिहासलेखन का खासा प्रभाव दिखाई पड़ता है। 

    असल में भारतेन्दु युगीन बुद्धिजीवी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के तले सांस्कृतिक बदलाव और पाश्चात्य इतिहास लेखन के प्रभाव में अपनी चेतना का विकास कर रहा था। तटस्थ इतिहासदृष्टि के अभाव में साम्राज्यवादी और प्राच्यवादी इतिहासलेखन का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।  

   वास्तव में, 1857 से शुरू हुआ स्वाधीनता संग्राम जिसमें साम्राज्यवादी सत्ता का विरोध एक प्रमुख लक्षण था, तद्युगीन दौर के लोकगीत, प्रतिबंधित साहित्य और हिन्दी नवजागरण सबमें दिखाई देता है, अंतर है तो बस तेवर का। किन्तु उनका  उद्देश्य लगभग एक ही था- औपनिवेशिक सत्ता का विरोध। साहित्य के इतिहास में एक ही साथ कई धाराएँ प्रवाहमान होती हैं, अमूमन यह होता है कि बड़ी धारा को नोटिस में लिया जाता है और अन्य धाराएँ उपेक्षित कर दी जाती हैं। जरूरत इस बात की है कि साहित्य के  इतिहास के मूल्यांकन के दौरान सभी धाराओं को शामिल किया जाये ताकि साहित्य का समग्रता में मूल्यांकन हो सके। 


1. यह किताब क्यों और कैसे?, लोकगीतों और गीतों में 1857, संकलन और संपादन - मैनेजर पाण्डेय, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, दूसरा संस्करण-2015, नई दिल्ली पृष्ठसंख्या- 28
2. देव नारायण द्विवेदी, भूमिका, मैनेजर पाण्डेय, देश की बात, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2013,  पृष्ठ संख्या-08
3.  सन् 57 के कुछ संस्मरण,  चाँद पत्रिका, फाँसी अंक, सम्पादक- चतुरसेन शास्त्री, नवम्बर, 1928, पुनर्प्रकाशन- 2008, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-149
4.  सत्येन्द्र कुमार तनेजा, सितम की इन्तिहा क्या है, राष्र्टीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, 2010, पृ. 403
5.  खड़ी बोली के गीत, संकलन और संपादन - मैनेजर पाण्डेय, लोकगीतों और गीतों में 1857, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, दूसरा संस्करण-2015, नई दिल्ली पृष्ठ संख्या- 81
6.   भोजपुरी लोकगीत, संकलन और संपादन - मैनेजर पाण्डेय, लोकगीतों और गीतों में 1857, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, दूसरा संस्करण-2015, नई दिल्ली पृष्ठ संख्या- 38
7.  यह किताब क्यों और कैसे?, लोकगीतों और गीतों में 1857, संकलन और संपादन - मैनेजर पाण्डेय, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, दूसरा संस्करण-2015, नई दिल्ली पृष्ठसंख्या- 27
8. नरेंद्र शुक्ल, भारत में प्रेस एवं प्रेस विधि, (1556-1947) अनन्य प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2019, पृष्ठ संख्या-48,
9. भारतेंदु हरिश्चंद्र, ‘अथ अंग्रेज स्तोत्रंलिख्यते’, सम्पादक-रामजी यादव भारतेंदु संचयन, भारतीय पुस्तक परिषद, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-307
10. सदानंद मिश्र, भारत का दुर्भाग्य, नवजागरणकालीन पत्रकारिता और सारसुधानिधि, भाग-01, सम्पादक- कर्मेन्दु शिशिर,अनामिका पब्लिकेशन, पृष्ठ संख्या-46
11.भारतेंदु हरिश्चंद्र, भारतवर्षोंन्नति कैसे हो सकती है,  सम्पादक- रामजी यादव भारतेंदु संचयन, भारतीय पुस्तक परिषद,पृष्ठ संख्या-341
12.सदानंद मिश्र, नवजागरणकालीन पत्रिकारिता और सारसुधानिधि, भाग-01, सम्पादक- कर्मेन्दु शिशिर, अनामिका पब्लिकेशन, पृष्ठ संख्या-331
13. सखाराम गणेश देउस्कर, देश की बात, अनुवाद- बाबूराव विष्णु पराड़कर, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली, पाँचवा संस्करण- 2017, पृष्ठ संख्या-92 
14.ए.आर. देसाई. भारतीय कृषि के रूपांतरण के सामाजिक परिणाम, भारतीय राष्ट्रवाद की  सामाजिक पृष्ठमभूमि, मैकमिलन
  प्रकाशन, पृष्ठ संख्या-56
15. सदानंद मिश्र, दक्षिणापत्य प्रजा और गवर्नमेंट नवजागरणकालीन पत्रकारिता और सारसुधानिधि, भाग-01,
   सम्पादक- कर्मेन्दु शिशिर, अनामिका पब्लिकेशन, पृष्ठ संख्या-118
 16.सदानंद मिश्र, दक्षिणापत्य प्रजा और गवर्नमेंट नवजागरणकालीन पत्रिकारिता और सारसुधानिधि, भाग-01,
   सम्पादक- कर्मेन्दु शिशिर, अनामिका पब्लिकेशन, पृष्ठ संख्या-118
 17.रुपा गुप्त, राधामोहन गोकुल की अप्राप्त रचनाएँ – 02, स्वराज्य प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2016, पृष्ठ संख्या- 22
 
 
अमित कुमार 
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय 
नई दिल्ली -110067

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )


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