आलेख : हिन्दू पंच का ‘बलिदान अंक’ / विनीत कुमार पाण्डेय

हिन्दू पंच का ‘बलिदान अंक’ 
विनीत कुमार पाण्डेय

हिंदी पत्रकारिता का इतिहास आगामी 30 मई 2026 ई. को 200 वर्षों का हो जाएगा। हिंदी का पहला समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड 30 मई 1826 ई. को कोलकाता से प्रकाशित हुआ था। उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन पाठकों की कमी और आर्थिक चुनौतियों की  वजह से कुछ वर्ष बाद ही बंद करना पड़ा। उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन के पश्चात कोलकाता से लेकर बनारस, कानपुर, इलाहाबाद, तक कई समाचार पत्र  और पत्रिकाओं का प्रकाशन  होने लगा था।

उदन्त- मार्तण्ड प्रकाशन के शताब्दी वर्ष(1926) में हिंदी जगत का एक महत्वपूर्ण साप्ताहिक पत्र “हिन्दू पंच” का प्रकाशन बाबू रामलाल वर्मा ने शुरू किया और प्रकाशक थे मुकुन्दलाल वर्मा। ऐसा लगता है कि उदन्त मार्तण्ड के अधूरे स्वप्नों को आगे बढ़ाने के लिए ही हिन्दू पंच का प्रकाशन किया गया। हिन्दू पंच के पांच प्रधान उद्देश्य थे - 1.हिन्दू संगठन, 2. शुद्ध संस्कार, 3. अछूतोद्धार, 4. समाज सुधार, 5. हिंदी प्रचार। आरम्भिक हिंदी पत्रों की एक विशिष्टता यह रही है कि पत्रों के मुखपृष्ठ  पर एक सूत्रवाक्य लिखा रहता था जो पत्र का उद्देश्य प्रकट करता था। हिंदी प्रदीप, हरिश्चन्द्र चन्द्रिका, मतवाला आदि पत्रों के ध्येय वाक्य को देख सकते हैं। हिन्दू पंच का ध्येय वाक्य  था-

“लज्जा रखने को हिन्दू की, हिन्दू नाम बचाने को ।
आया “हिन्दू पंच” हिन्द में, हिन्दू जाति जगाने को”।।

यह पंक्ति श्री मधुसुदन ओझा द्वारा रचित “हिन्दू पंच” नामक कविता से ली गयी है। ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित ‘बलिदान अंक’ में यह कविता प्रकाशित है। 

एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में हिन्दू पंच नाम से किसी समाचार पत्र का प्रकाशन बहुतों को साम्प्रदायिक लग सकता है। हिंदी पत्रकारिता के दूसरे और तीसरे दौर की पत्र-पत्रिकाओं के नामकरण  को देखें तो ब्राम्हण, कायस्थ समाचार, क्षत्रिय पत्रिका, वैश्योपकारक आदि नाम से पत्र प्रकाशित किया जाता था। इन पत्रों में वर्ण, जाति एवं जातीयता के निर्माण और विकास की चेतना दिखाई पडती है, परन्तु किसी अन्य वर्ण, धर्म और जाति के अपमान का कोई सजग प्रयास नही दिखाई पड़ता है।  

‘हिन्दू पंच’ के प्रकाशन से पहले मैथिलीशरण गुप्त की  ‘भारत- भारती’ (1912 ई.) का प्रकाशन हो चुका था। भारत- भारती को ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। द्विवेदी युग के बाद छायावादी युग की कविता और गद्य को देखें तो कई महत्वपूर्ण रचनाएँ शक्ति सर्जना, शक्ति समन्वय पर केन्द्रित हैं। नाटककार जयशंकर प्रसाद अपने नाटकों की कथाभूमि सारे हिन्दू राजाओं के कालखंड से चुनते हैं और एक लम्बी कविता ‘महाराणा का महत्व’ के माध्यम से मध्यकालीन इतिहास में राणाप्रताप के शौर्य का वर्णन करते हैं। जागरण गान भी छायावादी कवियों द्वारा खूब लिखा गया। जिस समय हिन्दू पंच के बलिदान अंक के लिए सामग्री संकलन की तैयारी चल रही थी उस समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कृत ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ का प्रकाशन होता है। शुक्ल जी की भक्तिकाल के उदय सम्बन्धी अवधारणा के बीज और जातीय चेतना के जागरण का स्वर हिन्दू पंच के ‘बलिदान अंक’ में मौजूद हैं। 

हिन्दू पंच ने 1 जनवरी 1930 ई. को अपना विशेषांक ‘बलिदान अंक’ के नाम से प्रकाशित किया। बलिदान अंक के क्रान्तिकारी तेवर के कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा राजद्रोह का आरोप लगाकर जब्त कर लिया गया। कोलकाता से प्रकाशित इस प्रतिबंधित अंक को दिनेश शर्मा के सौजन्य से पाठक वर्ग के सामने पुनः प्रकाश में लाया जा सका। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत द्वारा पुस्तकाकार  रूप में प्रकाशित इस अंक के संपादक कमलादत्त पाण्डेय हैं और इसकी प्रस्तावना रामविलास शर्मा ने लिखी है। हिन्दू पंच के  बलिदान अंक को कुल 310 पृष्ठों में प्रकाशित किया गया है। यह विस्तृत कलेवर स्पष्ट कर रहा है कि  विशेषांक के प्रकाशन की एक दीर्घावधि योजना थी जिसकी तैयारी 1929 ई. में की गयी होगी। बलिदान अंक की श्रमसाध्यता के बारे में भूमिका में लिखा है कि- “इस उद्योग में और इस विशाल अंक को सर्वांग सुंदर बनाने में प्रायः 15000 रूपये व्यय हुए हैं । कागज, स्याही, छपाई आदि खर्चों के साथ प्रेस का झंझट भी मौके बेमौके दुःखप्रद हो जाती थी, पर तो भी हमें संतोष है कि यह अंक ठीक अवसर पर आपकी सेवा में पहुंचकर आपको आनंदित करेगा”।  बीसवीं सदी में भारत कई मोर्चों पर संघर्ष कर रहा था एक तरफ विदेशी ताकतों से स्वाधीनता का संघर्ष तो दूसरी तरफ समाज में फैली तमाम कुरीतियों, रुढियों, आडम्बरों से मुक्ति का संघर्ष। समाज सुधार और अछूतोद्धार हिन्दू पंच के मुख्य एजेंडे में था जो बलिदान अंक में भी आपको दिखाई देगा। पाठकों को सम्बोधन की मुद्रा में सम्पादक ने बलिदान अंक की भूमिका में लिखा है कि- “यह अत्यंत आंदोलनकारी समय है। इस समय न केवल इस देश में बल्कि समग्र भूमंडल पर और समस्त देशों और जातियों में एक अभूतपूर्व अति क्रांति की उत्ताल तरंग उठी है। प्राचीन परम्पराओं और दासता को जकड़ने वाली रुढियों के विरुद्ध एक घोर विप्लव मचा है”। 

बलिदान अंक के सम्पादकीय ‘वलि-वेदी पर’ में बलिदान पर अपने विचार रखते हुए सम्पादक देश की  स्वतंत्रता के लिए देशवासियों से त्याग और बलिदान का आह्वान करता है । इस अंक में बलिदान का सर्वत्र अर्थ प्राणों की आहुति देने से नहीं  है। त्याग और संघर्ष के साथ देश के लिए कुछ करने गुजरने का जज्बा लिए काम, क्रोध, मद, मोह का त्याग करते हुए आगे बढ़ना भी बलिदान ही  है। 
 
प्रथम विश्व युद्ध के बाद भी स्वाधीनता का ख़्वाब पूरा नहीं हुआ बल्कि देश के आज़ादी के लिए जूझ रहे सेनानियों और नेताओं का अंग्रेजों द्वारा दमन किया गया । ऐसे समय में देशवाशियों के बीच जोश और उर्जा का संचार करने का कार्य साहित्यकार और पत्रकार बंधुओं ने सम्हाला । इसी दौर में  जयशंकर प्रसाद लिखते हैं ‘हिमाद्री तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती’ कामायनी में  जो ‘एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह’ यह प्रलय प्रवाह आज़ादी के दौर का उथल पुथल ही है। स्वामी विवेकानंद की कविता ‘नाचुक ताहाते श्यामा’ की छाया में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ‘नाचे उस पर श्यामा’ कविता में  बलिदान के इसी  भावबोध पर लिखते हैं कि-

फोड़ो वीणा, प्रेम -सुधा का 
पीना छोडो, तोड़ो, वीर, 
दृढ आकर्षण है जिसमें उस
 नारी -माया की जंजीर।
बढ़ जाओ तुम जलधि- उर्मी- से
गरज गरज गाओ निज गान ;
आंसू पीकर जीना, जाये
देह, हथेली पर लो जान।
जागो वीर! सदा ही सिर पर 
काट रहा है चक्कर काल, 

बलिदान अंक की सम्पादकीय टिप्पणी भी दृष्टव्य है - “संसार के जितने भी देश दानवी शासनों से स्वतंत्र हो सके हैं, वे निर्भीक शहीदों के बलिदानों के ही द्वारा स्वतंत्र हुए हैं । फ़्रांस, इटली, रूस, तुर्की, अमेरिका, चीन आदि देशों के स्वतंत्र होने में वहां के अगणित महापुरुषों को हंसते हंसते बलि-वेदी पर चढ़ना पड़ा है ।   

हिन्दू पंच के बलिदान अंक में कुल  लगभग 111 लेखों की संख्या विषयसूची में दी गई है । प्रकाशित लेखों को ४ भागों में विभाजित किया गया है । प्रथम भाग में प्राचीन भारत के बलिदान, द्वितीय भाग मध्यकालीन भारत का इतिहास, तृतीय भाग वर्तमान  भारत के बलिदान, चौथा भाग विदेशों में बलिदान के नाम से प्रकाशित है। लेखों के अलावा कविता खंड के अंतर्गत महत्वपूर्ण कवितायें भी प्रकाशित हैं ।  प्राचीन भारत के बलिदानियों में ‘राजा बलि और वामन’, ‘महाराज शिवी’, ‘दधीचि’, ‘जटायु का आत्मदान’  जैसी पौराणिक और मिथकीय कहानियों को संकलित करके भारत में त्याग और बलिदान की प्राचीन  उदात्त परम्परा से जोडकर सोये हुए भारतीयों को जगाने का प्रयास किया गया है। हिंदी में नवजागरण की चेतना के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अपने निबन्ध ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’ में भारतीयों के आलस्य और निद्रा को हिंदुस्तान के पतन का मूल माना है। बलिदान अंक की सम्पादकीय में सम्पादक ने स्पष्ट लिखा है कि- “हम साधारण भारतवासियों ने अपने आलस्य और अविवेक से बलिदान का महत्व कुछ भुला सा दिया है”। 

इस दौर में साहित्यकारों और पत्रकारों द्वारा चेतना पर जमी काई को साफ  करने के लिए अपने गौरवशाली इतिहास एवं मिथकीय चेतना को पुनर्सृजित करने का प्रयास किया जा रहा था । राजा बलि और वामन की कथा लोक में काफी प्रचलित है । बलिदान अंक में इस कथा को संकलित किया गया है जिसके लेखक श्री युत रामस्वरूप शर्मा जी हैं । कहानी प्रसंग में  शर्मा जी साम्राज्यवाद के चरित्र पर तल्ख टिप्पणी कुछ इस प्रकार करते हैं - “साम्राज्यवाद स्वभावतः राज्यलिप्सा की वृद्धि करता है; साम्राज्यवादी शासक चाहे जितना ही उदार क्यों न हो, उसे अपने साम्राज्य का एक मद अवश्य होता है और वही मद उसके अंत का कारण बनता है”। यह टिप्पणी ब्रिटिश साम्राज्य के चरित्र को भी सामने लाती है और उसके अंत की तरफ भी संकेत करती है । इसी लेख में शर्मा जी समाज में व्याप्त असमानता और शोषण पर अपने विचार रखते हुए दान के औचित्य पर टिप्पणी करते हैं । भारतीय संस्कृति में दान को पुण्य- लाभ  का साधन माना जाता है और इसे हृदय की उदात्तता से जोडकर भी देखा जाता रहा है। दान के महत्व को नकारते हुए शर्मा जी साम्यवादी विचार को समाज एवं दुनिया के लिए सही मानते हैं- “भगवान को हमारे यहाँ के दार्शनिकों ने समदर्शी भी कहा है। अतएव भगवान यह नही देख सकते कि संसार में साम्राज्यवादियों के द्वारा असाम्य की सृष्टि हो और उस असाम्य पर समता की कलई चढाने के लिए सम्राट या राजा को समय- समय पर दान देने की आवश्यकता प्रतीत हो। समदर्शी तो यही चाहेगा, कि  न कोई अमीर हो न कोई गरीब; न किसी को परमुखापेक्षी होकर दान लेना पड़े और न किसी को दानी कहलाने के लिए अंहकारी होना पड़े”।  लेखक दान को  असाम्यता पर समता की कलई चढ़ाने को  दिखावा  बताता है । यह दिखावा समय-समय पर सरकारें, पूंजीपति और तमाम शोषक वर्ग करता रहता है । सत्ताएं एवं पूंजीपति  एक तरफ तो निरकुंश कराधान आदि के माध्यम से धन एकत्रित करते हैं फिर उसमें से कुछ अंश लौटकर मसीहा की छवि धारण कर लेते  हैं । तुलसीदास ने समदर्शी भाव को राजाओं का गुण बताते हुए लिखा - 

“मुखिया मुख सों चाहिए खान- पान महुं एक। 
पालहिं पोषहिं सकल अंग तुलसी सहित विवेक ।।” 

पूँजी  के असमान वितरण को न्यायसंगत सिद्ध करने के लिए दान का दिखावा किया जाता है। बलिदान अंक में प्रकाशित कार्ल मार्क्स के लेख में इस पर विस्तार से  चर्चा की गयी है ।

एक लेख महर्षि दधीचि के देह-दान पर है ,लेखक श्रीयुत नरोत्तम व्यास जी हैं । कथा देवों और असुरों के युद्ध की है । हतदर्प और पराजित इंद्र को स्वदेश और स्वधर्म का उपदेश देते हुए विष्णु जो कुछ कहते हैं वह ब्रिटिश साम्राज्य में पल रहे भारतीय नागरिकों के लिए उतना ही महत्वपूर्ण हैं जितना इंद्र के लिये था - “स्वदेश की भक्ति ही जिनका जीवन है, वे भोग और विहारों में अपना समय नष्ट नही करते। सम्पति वीरभोग्या है। जो भोगता है वही प्राण देकर उसकी रक्षा भी करता है । आप में यदि स्वदेशोद्धार की चिंता होती, तो कायरों की भांति भाग कर मेरे पास न आते, वरन देश के नाम पर अपने को बलि कर देते । परन्तु मालूम होता है, आपमें वह जीवन ही नही रह गया है । अमृत पीकर जो अमर हो गयें हैं,वे ही बलिदान का साहस न कर, आर्त होकर मेरी शरण ग्रहण करने आयें हैं ?  छि ! आपको धन, सम्पत्ति  स्त्री बालकों का मोह है ।   

भारत में आज  भी आलस्य और अकर्मणता इतना अधिक प्रभावी है कि लोग अपनी नाकामी को दैव की इच्छा और अनिच्छा के सहारे छिपा ले जाते हैं । आज भी इस प्रचलित  मुहावरे  ‘अगर भगवान नें मुह दिया है तो आहार की व्यवस्था भी करेगा ही’ के सहारे  कितने लोग जीवन काट रहे हैं। ऐसे लोगों की चेतना को जगाने के लिए जरूरी था उन्हें भगवान द्वारा ही धिक्कारा जाए । 

बीसवीं सदी का पूर्वार्ध राष्ट्र में उथल-पुथल का दौर था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद देश को मिलने वाली आज़ादी का स्वप्न भी अधूरा ही दिख रहा था। देश आर्थिक रूप से दरिद्र हो चुका था। अकाल, दुर्भिक्ष,महामारी, और भुखमरी से करोड़ों लोग पहले ही काल- कवलित हो चुके थे ऐसे में अंग्रेजी सेना और शासन से मुक्ति की राह कठिन नजर आ रही थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ देश में लोगों को एकजुट करने के लिए कूटनीतिक तौर पर प्रयास की जरूरत को ध्यान में रखकर देवतास्वरूप  भाई परमानंद का  एक लेख “विदुला” महत्वपूर्ण है। विदुला कहानी का उपजीव्य महाभारत है। विदुला एक राजकुल की क्षत्राणी है जो  अपने अन्यमनस्क पुत्र संजय को राजधर्म का उपदेश देती है -  

संजय ने पुनः पूछा - “माता ! न मेरे पास धन है न सेना । ऐसी अवस्था में विजय कैसे प्राप्त होगी ? अपनी अवस्था का विचार करके ही मैंने राज्य चिन्तन का कार्य छोड़ दिया है। तू ही कह, कि मैं क्या करूं और शत्रु पर कैसे विजय प्राप्त करूं” ? 

विदुला कहती है - “तेरे राज्य में ऐसे पुरुष हैं, जिनमें देश का अभिमान है। वे शत्रु को अत्यंत घृणा की दृष्टि से देखते हैं । उनको अपनी राज्य पताका के नीचे ला, धन की लालसा वालों को धन लोभ दे और जो शत्रुओं से परास्त हैं तथा जो ईर्ष्या और द्वेष की अग्नि में जल रहे हैं, उन पर अपनी गूढ़ सहानुभूति प्रकट कर वे सब तेरा साथ देंगे” ।  
  दक्षिण अफ्रीका से 1915 ई. में वापसी के बाद महात्मा गाँधी ने भारत भर में भ्रमण किया। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति लोगों के मनोभावों को समझने की कोशिश की। सत्य, अहिंसा और असहयोग के सहारे स्वाधीनता आंदोलन में नई उर्जा का संचार किया। नागरिकों से सहज जुडाव के लिए गाँधीजी  ने खुद में व्यापक बदलाव किये। गाँधी जी  से 1942 ई. में  जब पूछा गया की आप ब्रिटिश साम्राज्य का सामना कैसे करेंगे तो उनका उत्तर था “लाखों लाख मूक जनता की शक्ति द्वारा”। यह लाखों लाख जनता वही थी जिसे विदुला के हवाले से  भाई परमानंद जी 1929-30 ई. में हिन्दू पंच के पाठकों को बता रहे थे । 

पक्षिराज जटायु पर श्रीयुत दण्डकवासी जी का लेख है। जटायु के बलिदान के माध्यम से औपनिवेशिक काल में नारियों के उपर हो रहे अत्याचार और हिंसा का पर्दाफाश किया गया है, साथ ही बौद्धिक वर्ग की विलासिता और संवेदनहीनता पर व्यंग्य किया गया है - “ प्रायः नित्य प्रति आजकल इस देश में भयंकर से भयंकर नारी निर्यातन होते हैं। लोगों के घरो में घुसकर बहू बेटियां उड़ायी  जाती हैं, बहकायी जाती हैं और उन पर ऐसे पाशविक अत्याचार किये जाते हैं, कि जिन्हें सुनकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। नित्य प्रति समाचार पत्रों में इस प्रकार की कितनी ही  घटनाएँ छपा करती है।  समाचार पत्रों के पाठक उन्हें पढ़ते हैं, लेखक उन्हें लिखते हैं, सम्वाददाता  उनका सम्वाद भेजते हैं, सम्पादक उन पर टीका टिपण्णी करते हैं, प्रकाशक उन्हें छापते हैं और सरकारी अधिकारी वर्ग उन्हें देखते हैं, पर कहीं से कोई प्रतिकार की ध्वनि नही सुन पड़ती, जैसी कि जटायु के आत्मविसर्जन की उस हजारो वर्ष की पुरानी कथा से आज भी प्रतिध्वनित होती है”। 
 
दंडकवासी जी की  चिंता महिलाओं के ऊपर हो रहे अत्याचार के साथ बौद्धिक वर्ग की चुप्पी पर है, भले ही वो चुप्पी अंग्रेजों के क़ानून के डर से हो । इस चुप्पी को तोड़कर ललनाओं के रक्षार्थ जटायु की तरह बलिदान के लिए आगे आना चाहिए।

पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, छ्त्रशाल जैसे राजाओं को हिन्दू जनमानस अपना नायक मानता चला आ रहा है। मराठों के अत्याचार से त्रस्त गुजराती समाज मराठों को लेकर थोड़ा  अलग विचार रखता है । हिन्दुओं का मानना है कि ये लोग अपने समाज और संस्कृति के लिए मुगलों से अंतिम साँस तक लड़े और देश को इस्लामी देश बनने से रोका। इनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से  लगाया जा सकता है कि इनके नायकत्व पर महाकाव्य से लेकर कई छोटी- बड़ी रचनाएँ लिखी मिलती हैं।   महाराष्ट्र -केशरी शिवाजी पर एक लेख श्री युत देवकृष्ण त्रिपाठी जी का है जो ओज गुणों से परिपूर्ण हैं  । लेख को पढ़ते हुए विद्यापति और सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला दोनों लोग याद आ रहे थे। छत्रपति शिवाजी का प्रादुर्भाव इस्लामी अराजकता विशेषकर औरंगजेब की क्रूरता के बीच दिखाया गया है - “धर्मपरायण हिन्दू लोग अपने शिखा सूत्र परित्याग करने के लिए बाध्य किये जा रहे थे, बहुत सी जातियां तथा सम्प्रदाय भीषण अत्याचार को सहन करने में असमर्थ होकर धर्मभ्रष्ट हो रहे थे;  गोभक्त हिन्दुओं के सम्मुख गौओं की हत्या कर उनके हृदय को व्यथित किया जा रहा था; हिन्दुओं के धर्मग्रंथों का अग्निसंस्कार हो रहा था; हिन्दू जाति अन्याय और अत्याचार की चक्की में पिस रही थी; वह सर्वथा निरुपाय होकर घृणित जीवन व्यतीत कर रही थी”।

कुछ इसी तरह के  परिवेश का वर्णन  विद्यापति (1360- 1440 ई.) अपनी महत्वपूर्ण कृति कीर्तिलता के  द्वितीय पल्लव में करते हैं - “तुर्क ब्राम्हण के लडके को पकड़ लाता है और उसके सिर पर गाय का शोरबा रखता है, उसके तिलक को जीभ से चाटकर पोंछ देता है, जनेऊ को तोड़ देता है, उसके उपर घोड़ा चढ़ा देना चाहता है,पूजा के लिए धोये हुए उरिधान से मदिरा बनाता है, देवालय तोड़कर मस्जिद बनाता है, कब्रों और मकबरों से धरती भर गयी है। पैर रखने को भी जगह नहीं बची है ।(तुर्क हिन्दू को) हिन्दू कहकर या हिन्दू की गाली देकर दूर से ही निकाल देता है, छोटा तुर्क भी भभकी मारता है । तुर्कों को देखकर ऐसा भान होता है जैसे वे समूचे हिन्दू समुदाय को निगल जायेगें” । 

विद्यापति ने जिस यथार्थ का वर्णन किया है उसका  चित्रण दुर्लभ है।

तुलसीदास की चिंता राजनैतिक पराभव तथा राजपदों और नौकरियों को हटायें जाने को लेकर नही है, उनके लिए चुनौती इस्लामी संस्कृति को लेकर है”। 

आगे लिखते हैं कि- “वे (निराला ) इस्लाम के सांस्कृतिक आतंक को स्पष्ट देख रहे हैं और इन्ही परिस्थितियों के बीच वे तुलसी के कवि- जीवन  का उदय दिखाते हैं” ।   देवकृष्ण द्विवेदी   का मानना है कि अगर शिवाजी का उदय न हुआ होता तो यह भारत हिन्दुओं का भारत न कहलाता और यहाँ सम्पूर्ण इस्लामी राज्य कायम हो जाता। निराला ने इस्लामी संकट से हिन्दू जीवन को बचाने का श्रेय तुलसीदास को दिया है। विद्यापति ने उस राजा को ही धन्य माना है जिसके अधीन इतनी वैमनस्य के बावजूद दोनों रह रहे हैं। धर्म और संप्रदाय की यह टकराहट  कबीर, जायसी और तुलसी की  रचनाओं में भी दिखाई देती है।  

अलाउद्दीन के आतंक से अपने राजपूती गौरव की रक्षा करते हुए लड़ने वाले योद्धाओं में महारानी पद्मिनी,वीरवर हम्मीर, गोरा बादल को याद किया गया है। कुछ ऐसे भी बलिदानियों को याद किया गया है जिनकी चर्चा अब कम होती है जिनमें महारानी जिन्दा का बलिदान और विद्युल्लता का बलिदान मुख्य है । विद्युल्लता रणक्षेत्र में  अपने मातृभूमि की रक्षा के लिए प्रेमी से युद्ध करती है और उसे धिक्कारती है । श्री लक्ष्मी प्रसाद चौधरी ‘विद्युल्लता’ के त्याग और बलिदान पर मुग्ध होकर लिखते हैं कि- “स्त्री शिक्षा के द्रोहियों! स्त्रियों को अशिक्षित और पराधीन बनाये रखने के पक्षपातियों! सामाजिक सुधार के विरोधियों! इस त्याग से शिक्षा लो और भारत को ऐसी-ऐसी वीर माताएं प्रसव करने का अवसर दो। देखो, भारत किस प्रकार स्वतंत्रता को प्राप्त कर लेता है ।   बलिदान अंक में न सिर्फ राजनैतिक पक्ष पर ध्यान दिया गया है बल्कि सामाजिक सुधारों में स्त्री मुक्ति, स्त्री शिक्षा और समानता पर भी बल दिया जा रहा है। 

गुरु तेगबहादुर, वीर मुरली मनोहर, महावीर बन्दा वैरागी के साथ एक साधारण मुस्लिम पीर अली के फांसी को भी याद किया गया है। इस भाग में 1857 ई. के विद्रोह में शामिल क्रांतिकारियों पर कई लेख हैं जिनमें मंगल पाण्डेय, नाना साहब और उनकी पुत्री मैना के बलिदान पर स्वतंत्र लेख है, बिहार केशरी बाबू  वीर कुंवर सिंह के साहस और स्वदेश प्रेम का उल्लेख है। नाना साहब अंग्रेजों के पेंशन भोगी थे 1857 ई. के विद्रोह में शामिल कुछ क्रांतिकारियों ने नाना साहब से भेंट की और विद्रोह में साथ देने की अपील की। यह संघर्ष काफी भयानक रहा. अंग्रेजों को जान माल की काफी क्षति पहुंचाई गयी। अंग्रेजों की  नजरों में नाना साहब विश्वासघाती साबित हुए। नाना साहब की बेटी मैना को नाना साहब  के प्रतिशोध में अंग्रेजों ने भस्म कर दिया। नाना साहब के बारे में गार्सा द तासी लिखता है - “भर्त्सना योग्य  क्रूरताओं का सबसे बड़ा दोषी नाना साहिब है । वह मराठा पेशवा बाजीराव का दत्तक पुत्र है, जिसका मुख्य निवास कानपुर के पास बिठुर में है । इस रक्त-पिपासु व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि वह बखूबी अंग्रेजी बोलता है और लिखता है और उसने शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ का अनुवाद भी किया है” ।  गार्सा द तासी की भाषा और खीझ दोनों देखने लायक है। अंग्रेजों का मानना था कि अंग्रेजी  पढ़ने के बाद भारतीय काले अंग्रेज बन जायेंगे लेकिन उनकी धारणा सत्य साबित नहीं हुई। गार्सा द तासी इसीलिए नाना साहब के अंग्रेजी ज्ञान और अनुवाद का उल्लेख करते हुए नाना साहब को रक्त पिपासु तक बोल जाते हैं। विद्रोह के कारण और  दमन में अंग्रेजों ने कितनी पाशविकता की उस पर वे ध्यान नही देते हैं। भारतीय बलिदानियों में राजा नन्दकुमार के नाम का जिक्र कम ही सुनने को मिलता है। राजा नन्दकुमार बंगाल के शासक अलीवर्दी खां के यहाँ कर वसूली का कार्य करते थे। बंगाल जब अंग्रेजों के प्रभाव में आया तो जनता से अधिक कर वसूली का फरमान हुआ। राजा नन्दकुमार जनता की स्थिति देखकर अधिक कर वसूली के पक्ष में नही थे उन्होंने जनता का साथ दिया और कर न देने के लिए लोगों को उकसाया फलस्वरूप अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार करके 16 जून 1775 ई. को फांसी पर लटका दिया। सखाराम गणेश देउस्कर ने अपनी पुस्तक ‘देश की बात’ में राजा नन्दकुमार की फांसी और बंगाल में उत्पन्न रोष का उल्लेख किया है। 

वर्तमानकालीन भारत के बलिदानियों में भारत भर के क्रांतिकारियों पर लेख है जिन्होंने अस्त्र -शस्त्र के साथ अंग्रेजों का डटकर सामना किया। स्वाधीनता आन्दोलन में  नौजवानों की भूमिका बढ़ रही थी । शठ प्रति शाठ्यम समाचरेत के अनुसरण पर अंग्रेजों को मुँहतोड़ जवाब देने की कोशिश की जा रही थी। बनारस, बंगाल, पंजाब, मुंबई समेत भारत भर में रणनीतियां तैयार की जा रही थी। देश के नागरिकों में स्वदेश प्रेम और स्वाधीनता का जोश इस कद्र परवान चढ़ा था कि बूढ़े, नौजवानों के साथ- साथ  महिलाएं और बच्चों  तक आंदोलनों में शामिल होने लगे थे। जलियांवाला हत्याकांड सबसे बड़ा गवाह है, निहत्थी भीड़ पर गोलियां चलवाई गयी। पंजाब में बेगुनाहों का खून नाम से ‘ख्वाजा अब्बास अली वेग’ जी का लेख है जिसमें वेग जी अपने शोध के आधार पर लिखते हैं कि 1650 गोलियां अंग्रेजों के द्वारा चलाई गयी थी, एक हजार से अधिक लोगों की हत्या हुई थी। सबसे बड़ा अत्याचार तो हत्याकांड के बाद महिलाओं के साथ होना शुरू हुआ पुलिस गाँवों में जाकर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करती और मुंह पर थूकती, डंडे से मारती और बुरा भला बोलती थी। अशफाक उल्ला खां के बलिदान पर एक लेख संकलित है।  लेखक का नाम श्री युत ‘राष्ट्रोपासक’ अंकित है, यह लेखक का  छद्म नाम लगता  है। बीसवीं  सदी में देश  में मुस्लिम और हिन्दू दोनों अपने हितों को लेकर अलग- अलग संगठित हो रहे थे। अंग्रेज इस अलगाव को अपनी कूटनीति से और बढ़ा रहे थे। अशफाक उल्ला खां की गिरफ्तारी एक मुस्लिम पुलिस अधिकारी खां बहादुर साहब करता है और अशफाक को इस लड़ाई में सहयोग न देने की सिफारिश  करता है, उसका कहना  है कि काफिर ‘हिन्दू सल्तनत’ कायम करने के लिए लड़ रहे हैं। अशफाक का जवाब उल्लेखनीय है - “खबरदार ऐसी बातें फिर कभी न कहियेगा। अव्वल तो पंडित जी (श्री रामप्रसाद) वगैरह सच्चे हिन्दुस्तानी हैं; उन्हें हिन्दू सल्तनत, सिख राज्य या किसी भी फिर्काने सल्तनत से सख्त नफरत है और आप जैसा कहतें हैं, अगर वह सत्य भी हो तो मैं अंग्रेजों के राज्य से हिन्दू राज्य ज्यादा पसंद करूंगा”।

आज देश में जिस तरह का माहौल है उससे खां बहादुर की चिंता ही सच साबित होती हुई दिख रही है। भारतेंदु के निबन्ध ‘स्वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन’ की तरह फिर कोई अधिवेशन बुलाया जाए तो निसंदेह खां बहादुर मुस्कराता हुआ अशफाक उल्ला खां की अदूरदर्शिता पर तंज करेगा और पंडित जी भी अशफाक से नजरे मिलाते वक्त असहज हो जायेंगे। 

कविता खंड में बलिवेदिका, बलिदान, पवित्र बलिदान, जन्मभूमि, कुर्बानियां कब तक, यौवन ज्वाला, स्वतन्त्रोद्गार, विप्लवी हृदय, हिन्दू पंच, जज्बए शहीद आदि नाम से आह्वान गीत, जागरण गीत प्रकाशित  हैं । हिन्दू पंच नामक कविता में कृषक की असहाय स्थिति पर लिखी पंक्ति उल्लेखनीय है -

 “यहाँ कृषक मरते हैं भूखों देखो दाने -दाने को, 
तन पर कपड़े अरे! कहाँ हैं, सर्दी धुप बचाने को;
साहूकार जमीदारों तक, मुँह बाये खा जाने को,
इस संकट से कौन उबारे, है गरीब मिट जाने को ।
लज्जा रखने को हिन्दू की, हिन्दू- नाम जगाने को!
आया, ‘हिन्दू पंच’ हिन्द में, हिन्दू जाति जगाने को ।।”

प्रेमचन्द इसी दौर में अपने कथा साहित्य में कृषकों के शोषण में सहभागी जमीदारों, साहूकारों को  उनके काईयांपन के साथ चित्रित कर रहे थे। प्रेमचंद ने अपने निबन्ध ‘महाजनी सभ्यता’ में भी  महाजनी शोषण के कुचक्र का पर्दाफाश किया है। बलिदान अंक में प्रकाशित कविता हिन्दू पंच का भी उद्देश्य हिन्दू जाति के जगाने के साथ- साथ  मजलूमों, कृषकों के जगाने का  है, अब न जगे तो पिस जायेंगे। कविता खंड में  प्रकाशित अधिकतर कविताएँ वीर रस, ओज गुणों से पूर्ण हैं। गीतों, कविताओं में भारत माता की दुर्दशा का वर्णन है जो पराधीनता की बेड़ी में जकड़ी हुई कराह रही हैं । भारतवासियों पर फिरंगियों का अत्याचार बढ़ता जा रहा है उनसे मुक्ति के लिए सभी को मिलकर लड़ना चाहिए। कुछ कविताएँ देश में आपसी भेदभाव और दलितों, वंचितों, कृषकों के शोषण की तरफ भी संकेत करती हैं।

विदेशों में बलिदान भाग में दुनिया भर में साम्राज्यवादी ताकतों से जूझने वाले कुछ  क्रांतिकारियों को केंद्र में रखा गया है। कार्ल मार्क्स से लेकर लेनिन, स्व डॉ. सनयात सेन, अब्दुल करीम,रोरी ओकनोर, इमोन डी वेलरा इत्यादि पर लेख संकलित हैं । स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान देश के पत्रकारों और बौद्धिकों की नजर एशिया के  साथ- साथ विदेशों के घटनाक्रमों पर भी रहती थी। एशिया के अलावा विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था में जहाँ कहीं भी प्रतिरोध के स्वर सुनाई देते थे हिंदी पत्रकारिता उसे हिंदी जन समुदाय तक पहुँचाने का कार्य करती थी। ‘साम्यवाद के प्रवर्तक महर्षि कार्ल मार्क्स’ नाम से एक लेख किन्ही ‘साम्यवादी’ द्वारा लिखा गया है। इस लेख में मार्क्स के व्यक्तित्व एवं उसके संघर्षों को  अत्यंत  मार्मिक रूप से प्रस्तुत किया गया है। मार्क्स के विचारों और सिद्धांतों का विवेचन करने के पश्चात लेखक कार्ल मार्क्स को पीड़ित मानवता का त्राता बताता है। मार्क्स, लेलिन के संघर्षों पर कई लेख संकलित हैं जो देश की बदलती हुई राजनीति के रुझान का परिचायक है। साम्राज्यवादी ताकतों के चंगुल में फंसे परतंत्र राष्ट्रों के प्रति  हिन्दुस्तानियों में सहानुभूति दिखाई देती है। आयरिशों के अपूर्व बलिदान लेख में आयरलैंड के स्वतंत्रता सेनानी ‘डीवेलरा’ के रणकौशल, साहस का विस्तृत जानकारी छापी गयी है। डीवेलरा के साथ - साथ अन्य आयरिश स्वतंत्रता सेनानियों में ऑस्टिन स्टाक, लिआम लिंच, डेन ब्रीन का भी जिक्र किया गया है।  सोवियत प्रजातंत्र के विधाता बोल्शेविक आचार्य महात्मा लेनिन के नाम से यह लेख श्रीयुत विनोदविहारी शुक्ल जी ने लिखा है। रूस के  निरंकुश जारशाही शासन के खिलाफ बगावत करके प्रजातंत्र की नींव डालने का काम लेनिन ने किया था। लेनिन के नेतृत्व में हुई क्रांति दुनिया में बोल्शेविक क्रांति के नाम से मशहूर है।  हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित विद्वान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की लेनिन को लेकर राय सही नही थी, कहीं पर वह लिखते हैं कि अपने समय का लाभ लेकर लेनिन महात्मा बन बैठा । योरोप में चल रही क्रांति पर आचार्य शुक्ल का कथन अवलोकनीय है - “किसी समुदाय के मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष और अहंकार को काम में लाकर ‘अगुआ’ और ‘प्रवर्तक’ बनने का हौसला रखने वाले समाज के शत्रु हैं। योरोप में जो सामाजिक अशांति चली आ रही है, वह बहुत कुछ ऐसे ही लोगों के कारण योरोप में जितने लोक विप्लव हुए हैं, जितनी राजहत्या और नरहत्या हुई है, सबमें जनता के वास्तविक दुःख और क्लेश का भाग १/३ था तो विशेष जनसमुदाय की नीच प्रवृत्तियों का भाग २/३। ‘क्रांतिकारक’ ‘प्रवर्तक’ आदि कहलाने का उन्माद योरप में बहुत अधिक है, इन्ही उन्मादियों के हाथ में पड़कर वहां का समाज छिन्न भिन्न हो रहा है।”  लेनिन की महत्वकांक्षा जो भी रही हो लेनिन को दुनिया में साम्यवादी आन्दोलन के बड़े नेता के रूप में स्वीकृति मिली। तानाशाह सरकार और पूंजीपतियों के खिलाफ लेनिन का संघर्ष आज भी लोगों को प्रेरणा देता है।
 
बलिदान अंक में क्रांतिकारियों और बलिदानियों  की तस्वीरों को भी छापा गया है। एक तस्वीर राजा बलि और वामन की है जिसमें राजा बलि के सिर पर याचक  वामन का पैर रखा हुआ है। एक तस्वीर आश्रित रक्षक महाराज शिवि की है। तस्वीर में महाराज शिवि के सामने एक पक्षी बैठा है और तराजू पर कटे हुए हाथ का चित्रांकन हैं। सत्याग्रही प्रह्लाद सापों के गार में की एक तस्वीर छपी है। एकलव्य के अंगूठा दान करते समय की एक तस्वीर है। जटायु के आत्मदान की एक मार्मिक तस्वीर है जिसमें रावण तलवार से जटायु का पंख काट रहा है और माता सीता करुणा विगलित होकर आँख बंद कर लेतीं हैं। मध्यकाल के बलिदान से सम्बन्धित तस्वीरों में महाराणा प्रताप सिंह की खड़े मुद्रा की तस्वीर अंकित है। एक तस्वीर  अश्व सवार मानसिंह की छपी है जिसमें वो चेतावनी देते हुए जा रहे हैं। मानसिंह महाराणा प्रताप के घर पर थे और साथ में भोजन करने के लिए महाराणा प्रताप की प्रतीक्षा कर रहे थे। महाराणा प्रताप आये और बोले जो तुर्कों से सम्बन्ध रखता है मैं उसके साथ भोजन नही कर सकता। क्रोध में देख लेने की धमकी देकर मान सिंह जाने लगे तो किसी ने आवाज दी आना तो अपने फूफा को भी लेते आना उसी समय की यह तस्वीर है । युद्ध हो या विभाजन के बाद पलायन की विभीषिका इन सबमें सबसे अधिक कष्ट किसी को हुआ तो वो महिलाएं हैं। आपसी दुश्मनी और कुंठा के प्रतिशोध में महिलाओं को वस्तु की तरह इस्तेमाल किया गया है। समाज में महिला केन्द्रित गालियाँ भी उसी मानसिकता का परिचय देती हैं। शिवाजी  बैठे हैं सामने सेनापति अभिवादन की मुद्रा में खड़ा है और वहीँ एक मुस्लिम लड़की शिवाजी के सामने खड़ी है जो युद्ध में किसी के द्वारा पकड़ कर लाई गयी है शिवाजी उस बालिका को ससम्मान उसके घर पहुँचाने की आज्ञा दे रहे हैं।      

निष्कर्ष : हिन्दू पंच का ‘बलिदान अंक’  क्रांतिकारी अंक रहा। अंक में संकलित सभी निबन्ध, कविताएँ अपने भाषा, भाव में बेजोड़ हैं। पौराणिक मिथकों, कहानियों के माध्यम से यह बताने की कोशिश रही है कि हम त्यागी और बलिदानी महापुरुषों के वंशज हैं दधीचि,महाराज शिवि हमारे आदर्श हैं। स्वदेश और स्वजाति की रक्षा के लिए हमने हमेशा परिवार, सम्पत्ति का त्याग किया है।  अतीत में हुई गलतियों को सुधारते हुए हमें संगठित होकर लड़ना होगा। इस अंक में बलिदान को व्यापक सन्दर्भों में लिया गया है, बलिदान सिर्फ प्राणों के उत्सर्ग तक ही सीमित नही है। स्वार्थों से उपर उठकर राष्ट्र के लिए किया गया कोई भी योगदान बलिदान की श्रेणी में रखा गया है। स्वाधीनता के लिए बेंत खाने से लेकर जेल जाने और अपने हक हुकुक की लड़ाई के लिए प्राण देने तक की यात्रा बलिदान है। बलिदान अंक में स्पष्ट लिखा है कि “यदि राष्ट्र हमारे अधिकारों का हृदय है, तो बलिदान असहयोगी अहिंसात्मक विद्रोह है।”

विनीत कुमार पाण्डेय
शोधार्थी, हैदराबाद विश्वविद्यालय   

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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