शोध आलेख : प्रतिबंधित साहित्य : अनकही दास्तान / डॉ. ज्योति यादव

प्रतिबंधित साहित्य : अनकही दास्तान  
- डॉ. ज्योति यादव

शोध सार : भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष अपनी विविधताओं के लिए भी जाना जाता है। इस संग्राम में सभी धर्मों, जातियों और क्षेत्रों के लोगों ने अपना अधिकतम योगदान दिया। प्रेस, पत्रकार और साहित्यकारों की भूमिका भी इसमें अग्रगामी थी। उन्होंने जेल, ज़ब्ती, जुर्माना की परवाह न करते हुए, अपनी जान की बाज़ी लगाकर भारतीय जनता में जागरूकता पैदा करने का कार्य किया। इनके अकथनीय साहस और शौर्य ने जनता के मन में ब्रिटिश सरकार के विरोध की हिम्मत पैदा की। रचनाएं ज़ब्त होती रहीं; जेल, जब्ती, जुर्माना जैसी कठिन यातनाएं मिलती रहीं, लेकिन इन्होंने हार नहीं मानी। देश के विरूद्ध हो रहे अन्याय और अत्याचार की खबरें  लोगों तक पहुँचाते रहे, जिन्होंने जनमानस को झकझोरने का काम किया। प्रेस की इसी शानदार और ऐतिहासिक भूमिका की विवेचना प्रस्तुत आलेख में की गई है।

बीज-शब्द : मुक्ति, दासता, आज़ादी, विप्लवकारी, गुंडागर्दी, हौसला, मकड़जाल, गिरफ्तार, मुचलका, स्वराज, क्रांतिकारी, संपादक, मुद्रक, मालिक, पत्रकार, मजिस्ट्रेट, अहिंसा, अखबार, प्रेस, जमानत, मुकदमा, वन्देमातरम, गिरफ्तार एडिटर, चेतना, कलमकार, संघर्ष, शरहे-तनख़्वाह, अभियुक्त संपादक, पुलिस, औपनिवेशिक आदि।

मूल आलेख : भारत ने अपनी आज़ादी के 75 वर्ष पूरे कर लिए हैं। इस मुकाम को पाने के लिए लाखों जाने-अनजाने लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी है। इसमें मज़दूर, किसान, छात्र, नेता, कवि, पत्रकार और लेखक सभी शामिल रहे हैं। औपनिवेशिक दासता से मुक्ति दिलाने में प्रेस की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जन जागरूकता और राष्ट्रवादी विचार विनिमय के प्रसार तथा राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में साहित्य का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसीलिए प्रायः सभी देश की सरकारें प्रेस पर पाबंदी लगाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोटती रही हैं। यदि ऐसा साहित्य जो जनता को जागरुक करता है, छप भी गया तो उन्हें 'राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा' बताकर ज़ब्त कर लिया जाता है। भारत में यह काम ब्रिटिश सरकार ने बख़ूबी किया है। "भारत सरकार के राष्ट्रीय अभिलेखागार के 26 जून 1982 के रिकॉर्ड के अनुसार ज़ब्तशुदा गीतों की पुस्तकों की संख्या इस प्रकार है: हिंदी-264; उर्दू-58; मराठी-33; पंजाबी-22; गुजराती-22; तमिल-19; तेलगू-10; सिंधी-9; बांग्ला-4; कन्नड़-3; उड़िया-१।"1 इसके अतिरिक्त "प्रतिबंधित गद्य संग्रहों में असमी की 8, बांग्ला की 44, अंग्रेज़ी की 89, गुजराती की 39, हिंदी की 138, कन्नड़ की 4, तमिल की 31, तेलगु की 20 और उर्दू की 68 कृतियां हैं. इन सभी कृतियों में ब्रिटिश सरकार के ज़ोर-ज़ुल्म का विशद वर्णन है।"2

    'भारत के नवजागरण और स्वतंत्रता संग्राम में संपादकों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। पीढ़ियों ने इस भूमिका के पुरस्कार में पत्रों और पत्रकारों को जेल-ज़ब्ती-जुर्माना भुगतते हुए देखा। दुनिया में ऐसी नज़ीर और कहीं नहीं मिलेगी कि 'स्वराज' (1907) नाम के उर्दू अखबार के संपादकों को कुल मिलाकर 94 साल 9 माह की कैद और देश निकाला की सजा हुई। इस अखबार के संपादक पद के लिए विज्ञापन का मजमून इस प्रकार था -"एक जौ की रोटी और एक प्याला पानी यह शरहे-तनख्वाह है जिस पर 'स्वराज' इलाहाबाद के वास्ते एक एडिटर मतलूब है।"3 इस प्रकार का अदम्य शौर्य और साहस आसान नहीं है। यह घर फूँक तमाशा देखने जैसा ही था, लेकिन स्वदेशानुराग उस दौर की पत्रकारिता की विशेषता रही है।

    बनारस का 'आज' लाहौर से निकलने वाले ‘वन्देमातरम’ के बारे में लिखता है- "लाहौर का दैनिक ‘वन्देमातरम’ अपना विशेषांक जेल नंबर के नाम से निकाला है। ठीक भी है। जिसके तीन संपादक जेल में हों, चौथे हवालात में, उसकी जेल प्रवेश की पात्रता संपादित कर रहे हों और पांचवें संभवतः दफ्तर में बैठे रहते हुए भी वहां के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे हों, उसका 'जेल नंबर निकालना' सर्वथा उचित ही है। पंडित कर्मचन्द शुक्ल इस नंबर की तैयारी कर ही रहे थे कि गिरफ्तार कर लिये गये और पत्र का भार श्रीयुत मेलाराम वफा पर पड़ा, परन्तु यह बाधा होते हुए भी वन्देमातरम का जेल नंबर समय पर निकल ही आया। इस अंक में जेल विषयक 2-3 लेख, 5-6 टिप्पणियां, चार कविताएं और एक अंबाला जेल के राजनीतिक कैदियों के साथ किये गये भीषण दुर्व्यवहारों का विवरण है। देश के प्रधान नेताओं के, जिनमें से कितने ही कारावासी हैं, चित्र दे देने से इस अंक की उपयोगिता बढ़ गई है। इस जेल नंबर का प्रकाशन बड़े ही मौके से हुआ है। हम इसके वर्तमान संपादक की तत्परता की प्रशंसा करते हैं।"4 ऐसा नहीं है कि यह किसी पत्र-पत्रिका के विशेष संदर्भ में हुआ हो, यह उस समय के साहित्यकारों और संपादकों के लिए आम बात थी। जो भी व्यक्ति कलम से देशभक्ति जगाने का प्रयास करता, उसी को यातनाएं सहनी पड़ती थीं। इसी अखबार में छपा है कि "अकाली पत्र के पाँचवे सम्पादक सरदार सुन्दर सिंह गिरफ्तार कर लिये गये हैं। अब से पहले के 4 सम्पादक इस समय जेल में कैद की सजा भुगत रहे हैं।"5 लोगों को ऐसे साहित्य लिखने से रोकने के लिए औपनिवेशिक सरकार डर पैदा करती थी। इसीलिए जल्द से जल्द इन्हें सजा दिलवाने का प्रयास भी करती थी। "लाहौर के अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट ने 'वन्देमातरम' और 'अकाली' के सम्पादक करम चन्द्र शुक्ल और श्रीयुत लाभसिंह का फैसला सुना दिया। आपने भारतीय दंड संविधान की धारा 124 (A) धारा में दोनों अभियुक्तों को 18 महीने की सजा का हुक्म दिया।"6

    ‘वन्देमातरम’ और ‘अकाली’ के अन्य सम्पादकों, मुद्रकों और लेखकों को भी सजाएं हुई थीं। ‘वन्देमातरम’ के एक अन्य संपादक लाला शान्तिनारायण को एक साल, मुद्रक लाला केदारनाथ सिंघल को 6 महीने तथा 'निषेध' लेख के लेखक श्रीपाल फजल दीन को दो साल की सजा हुई थी। दूसरी तरफ "लाहौर के जिला मजिस्ट्रेट ने 'अकाली' के भूतपूर्व सम्पादक ज्ञानी हीरासिंह को राजद्रोह के अपराध में 6 मास कठिन कारावास का दण्ड दिया है। वे अभी दूसरे अपराध में सजा भुगत रहे हैं, यह सजा उसके खत्म हो जाने पर भुगतनी होगी।"7 जेल, ज़ब्ती और जुर्माना का अंतहीन सिलसिला चल रहा था तो उसके मुकाबिल कलम भी तलवार की माफ़िक तैयार थी। विद्रोहात्मक लेख प्रकाशित करने के कारण 'वतन' पत्र के तीसरे सम्पादक टीकमदास को सक्खर के सब डिविजनल मजिस्ट्रेट के सामने हाज़िर होने का नोटिस मिला। आज के फास्ट ट्रैक कोर्ट से भी तेज सुनवाई करते हुए मात्र डेढ़ घंटे में ही जांच समाप्त करके 124 A के तहत साल भर की सजा दी गई। सम्पादक टीकमदास ने न तो कोई बयान दिया और न जिरह की।8  जनता के मन से भय दूर करने की प्राथमिक जिम्मेदारी कलमकारों की ही थी; यह जिम्मा उन्होंने बकायदा उठाया भी। 'स्वराज्य' पत्र के सम्पादक श्री मगनलाल भट्ट को जमानत देने से इनकार करने पर फौजदारी की 108 दफा के मुताबिक एक साल की सादी कैद की सजा दी गयी। आपने अपने लिखित वक्तव्य में कहा कि मेरे पत्र से सरकार को इतना न डरना चाहिये, क्योंकि इसका प्रचार बहुत ही कम है। पुलिस सुपरिंटेंडेंट ने कहा कि मजिस्ट्रेट ने इन्हें तीन बार चेतावनी दी कि ऐसे उत्तेजना लेख न लिखिए पर इन्होंने जब नहीं माना तब मजबूर होकर यह कार्यवाही करनी पड़ी। इनके अंतिम लेख से उत्तेजना फैलने की आशंका थी। सम्पादक ने अंत में कहा कि मैंने जो कुछ किया है उसके प्रत्येक शब्द को फिर से दुहराने के लिए अब भी तैयार हूं।"9

    असहयोग आंदोलन स्थगित किये जाने के बाद क्रांतिकारी गतिविधियां बढ़ गयी थीं। भगत सिंह सहित तमाम क्रांतिकारियों और लेखकों ने भी छद्म नाम से लिखना शुरू कर दिया था। क्रांतिकारी गतिविधियों की अनुगूँज पत्र-पत्रिकाओं में भी बढ़ रही थी। क्रांतिकारियों के समर्थन में 'नायक' पत्रिका में 24 जनवरी 1927 को 'शाबाश' शीर्षक से लेख प्रकाशित करने के कारण सम्पादक डाॅ. प्रताप चन्द्र गुहराव और मुद्रक सोमेन्द्र नाथ राय के ऊपर 124( A) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया।10 मद्रास से प्रकाशित हिन्दी दैनिक 'भारत तिलक' के सम्पादक भी इसी आरोप में गिरफ्तार किये गये थे।11 सूरत जिला कांग्रेस कमेटी के मंत्री तथा 'नवयुग' के सम्पादक कल्याण जी विट्ठल भाई मेहता भी 6 और 13 अप्रैल 1923 के अंक में राजद्रोही लेख छापने के आरोप में गिरफ्तार कर लिए गए। पुलिस ने इनके घर तथा 'नवयुग' के दफ़्तर पर छापा मारा तथा उक्त दोनों अंकों की प्रतियों को जब्त कर लिया।12

     ब्रिटिश सरकार द्वारा इन ताबड़तोड़ कार्यवाहियों का मुख्य उद्देश्य लोगों को हतोत्साहित करना था। ऐसा साहित्य जनता तक न पहुंचे जिससे 'राज के प्रति आक्रोश' पैदा हो। लेखकों और सम्पादकों को मुकदमेबाजी से डराने-धमकाने में नाकामयाब होने के बाद सरकार ने प्रेस के मुद्रकों और मालिकों पर नकेल कसना शुरू कर दिया। जिससे ये साहित्य छप ही न पाए। 'अकाल प्रेस' के मालिक श्री खेमसिंह और 'गुरु का बाग' के सम्बन्ध में एक पुस्तक लिखने वाले निरंजन सिंह के नाम एक ऐसा वारंट निकला, जिसमें जमानत ही न ली जाती। यह पुस्तक अकाल प्रेस से ही निकली थी, जिसे जब्त कर लिया गया।13 ब्रिटिश राज की आंखों में चुभ रही पत्र-पत्रिकाओं को मौका मिलते ही अन्य मामलों में भी दबोच लिया जाता था। लाहौर के 'जमींदार' के सम्पादक, मुद्रक तथा प्रकाशक तीनों को अश्लील विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए अस्सी-अस्सी रुपए का जुर्माना किया गया।14 कलकत्ता में 'कात्यायनी प्रेस' के मालिक अरुण चन्द्र गुह और मुद्रक जगजीवन घोष 'दशेरे डाक' पुस्तक छापने के कारण 'राजद्रोह' के आरोप में गिरफ्तार कर लिए गए।15 यहीं के 'स्वतन्त्र' पत्र के सम्पादक अम्बिका प्रसाद वाजपेयी को सी.एल.ए. की धारा 17 (2) में कठोर कारावास की सजा हुई।16 कलकत्ता के ही हिन्दी दैनिक 'कलकत्ता समाचार' के संयुक्त सम्पादकों, प्रकाशक तथा मुद्रक पर सारन की बाढ़ में पुलिस सुपरिंटेंडेंट के ऊपर लिखने के कारण मुकदमा कर दिया गया। ‘छपरा की 1922 की बाढ़ पर लिखने से पटना के 'सर्चलाइट' के सम्पादक और मुद्रक पर मुकदमा दर्ज किया गया।‘17

      वस्तुतः पत्र-पत्रिकाओं की यह खबरें गुलामी की जंजीरों में जकड़ी और शोषण की यातना भुगत रही भारतीय जनता के चीत्कार की प्रामाणिक और प्रभावशाली अभिव्यक्ति थी। कभी-कभी संपादक भी देश पर हो रहे जुल्म और ज़्यादती को देखकर कठोर शब्दों का प्रयोग कर बैठते थे। कानपुर से निकलने वाले हिंदी अखबार 'फक्कड़' के सम्पादक पंडित वेदनारायण बाजपेयी पर झांसी की अदालत में जाब्ता फौजदारी की धारा 506, 507 और 107 के अनुसार मुकदमा चलाया। "फक्कड़ की फुलझड़ियों के एक फुलझड़ी पर ही मुकदमा चलाया गया है। फुलझड़ी यह है। झांसी की पुलीस होशियार हो जाय ज्यादा आवाज ना करें नहीं तो चारपाई के खटमलों की भांति मार डाली जायेगी. यह वह भूमि है, जहां की क्षत्राणी ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। कहीं अब यहां वही दशा न होने लगे जो पुलीसवालों की इति भी हो जाय।"18 इस जुर्म में वाजपेयी जी पर झांसी के मजिस्ट्रेट ने छह माह की कड़ी सजा सुनाई, जिसे बाद में प्रयाग हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा।

     लाहौर के स्टीम प्रेस से निकलने वाले 'प्रकाश' पत्र में फिरोजपुर झिरका की पुलिस के विरुद्ध कुछ छपा था। पंजाब सरकार की दृष्टि में यह 'राजद्रोह और जातिद्वेष' ठहरा। उसने 'प्रकाश' की दो हजार रूपये की जमानत जब्त कर ली। प्रेस के संचालक ने इसके खिलाफ पंजाब हाई कोर्ट में अपील की। हाईकोर्ट ने पुलिस के खिलाफ टिप्पणी को सरकार के विरुद्ध टिप्पणी के आरोपों को खारिज करते हुए असंतोष फैलाने के आरोप से भी 'प्रकाश' को मुक्त कर दिया।19 तमाम ऐसी भी पत्रिकाएं थीं, जो अपने बेहद सीमित संसाधनों के कारण कोर्ट, कचहरी का चक्कर नहीं लगा सकती थीं वे कुछेक अंक ही निकालकर बंद हो गईं। इसी तरह मोतिहारी का 'निर्भीक' 1922 में जमानत मांगने के कारण बंद हो गया। भागलपुर का 'सुप्रभात' भी जमानत मांगे जाने के कारण केवल एक अंक ही निकालकर बंद हो गया। गोरखपुर का 'यादव' भी जमानत मांगे जाने के कारण कुछ वर्ष बंद रहा, यद्यपि बाद में इसके संपादक चौधरी राजित सिंह यादव ने स्थान बदलकर बनारस से इसका प्रकाशन शुरू किया।

    स्वराज के लिए साहस और बलिदान की अनेकों अनसुनी कहानियां इतिहास में दफन हैं। इतने जुल्म और ज़्यादती पर भी लोगों के न टूटने के वाकये भी दस्तावेजों में दर्ज हैं। ऐसी ही एक बानगी राष्ट्रीय कवि पं० माधव शुक्ल की है। जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने आपत्तिजनक गीत लिखने के आरोप में रात 10:00 बजे घर से धारा 504 लगाकर गिरफ्तार कर लिया था। गिरफ्तारी के समय उनकी धर्मपत्नी ने उन्हें फूलों का हार पहनाकर सहर्ष विदा किया। गौरतलब है कि शुक्ल जी की ऐसे आरोपों में यह तीसरी जेल यात्रा थी।20 शुक्ल जी ने जेल जाते समय ब्रिटिश सरकार की इन कार्यवाहियों से न डरने की बात करते हुए गीत गाया-

              "यह न समझो कि मुसीबत से दहल जायेंगे।
               संग है मोम नहीं है जो पिघल जायेंगे।।
               लाख देखा करो दुश्मन की नजर से हमको।
               लाल आंखों से नहीं ख्याल बदल जायेंगे।।"21

    जेल जाने के एक सप्ताह बाद ही शुक्ल जी के दामाद की अचानक गिरने से मृत्यु हो गयी। उन्होंने इस 
शोक को धैर्यपूर्वक सहन किया। सरकार ने माफी मांगने की शर्त पर छोड़ देने का वायदा दिया। बहुत सारे शुभचिंतकों ने माफी मांग कर जेल से बाहर आने की सलाह दी, परंतु शुक्ल जी ने इसे ठुकरा दिया। उन्होंने घर पर सांत्वना देने के लिए पत्र लिखा- "यह उचित नहीं है कि मैं माफी मांगकर अथवा जमानत देकर चला आंऊ। ऐसा करने से मैं संसार को मुंह दिखाने लायक न रह जाऊंगा। इस पापी गवर्नमेंट के साथ यदि ईश्वर की भी सहानुभूति है तो मैं उसे भी नष्ट करुंगा। ह्रदय को पत्थर बना डालो, किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। मैं हरिश्चन्द्र और प्रताप का अभिनय कर चुका हूँ। दुखों का सामना करने के लिए तो मेरा हृदय वज्र के समान है।"22
               
      संपादकों, लेखकों, मुद्रकों, प्रकाशकों और मालिकों पर तो कार्यवाहियां जारी ही थीं। देशभक्तिपूर्ण गीत गाने वालों को भी गिरफ्तार कर लिया जाता था। "लाहौर के एक खिलाफत स्वयंसेवक अब्दुल वहीद को जो एक विप्लवकारी गीत गाने के अपराध में गिरफ्तार किया गया था, अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट ने 1 हजार का मुचलका और पांच पांच सौ की दो जमानतें देने या 6 महीने की सजा का हुक्म सुनाया। अब्दुल वहीद ने जमानत न देकर जेल जाना स्वीकार किया।"23 जुल्म और ज़्यादती की इंतहा यहीं नहीं रुकती, बिना प्रतिबंध लगाए भी पुस्तकें ज़ब्त कर ली जाती थीं। बनारस में 1922 के "पहिली मई को गड़खड़ा ग्राम निवासी श्री जगतनारायण सिंधोरा बाजार में 'हमारा सुदर्शनचक्र' नामक पुस्तिका बेच रहे थे। वहां के थाने के हेड कांस्टेबल ने उन्हें पुस्तक बेचने से रोककर और पकड़कर बहुत देर तक बैठा रखा था।बहुत तंग करने के पश्चात लगभग 45 पुस्तकें जबरदस्ती छीन कर उन्हें छोड़ दिया।"24 इसी प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद कराची के स्थानीय दैनिक 'डेली गजट' में पण्डित जवाहरलाल नेहरू का यह कथन प्रकाशित हुआ था कि युद्ध के बाद ब्रिटेन द्वितीय श्रेणी का राष्ट्र रह गया। इस पर कुछ ब्रिटिश सैनिक पत्र के दफ़्तर में घुस आये और इस प्रकाशन का विरोध करने लगे। सैनिकों ने टेलीप्रिण्टर पर से तारों को नोच लिया और कुछ तार फाड़ भी डाले। उनका कहना था कि ब्रिटेन की प्रशंसा न करके उसकी बदनामी के समाचार प्रथम पेज पर क्यों छापे जाते हैं।"25 इसे हम एक प्रकार की सरकारी गुंडागर्दी ही कह सकते हैं। इसी प्रकार "संयुक्त प्रांत के गवर्नर की आज्ञा से काशी के ज्ञानमंडल प्रेस में छपी हुई 'अहिंसा संग्राम' नाम की हिन्दी पुस्तिका, रायबरेली में छपी 'महात्मा गांधी' तथा बिजनौर में छपी 'गिरिया हिन्द' नाम की ऊर्दू पुस्तिकाएं जब्त कर ली गई।"2

      सत्ता चाहे जितनी भी दंभी और अत्याचारी रही हो लेकिन स्वराज के लिए लड़ने वाले आजादी के दिवाने पत्रकारों और कलमकारों ने किसी भी ज़ोर-ज़ुल्म और ज़्यादती के आगे न झुकने का निश्चय करके तत्कालीन समाज में लोगों को ब्रिटिश सरकार से लड़ने का हौसला दिया। जनता को औपनिवेशिक सरकार के अत्याचारों से जागरूक किया। इस जनजागरूकता का ही असर था कि जन के मन से औपनिवेशिक सरकार का डर समाप्त हुआ। भारतीय जनता ने अंग्रेजी सरकार से स्वतंत्रता का संघर्ष करते हुए देश को गुलामी के मकड़जाल से मुक्त कराया।

संदर्भ:
रामजन्म शर्मा, जब्तशुदा गीत: आजादी और एकता के तराने, प्रकाशन विभाग-सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार,चतुर्थ संस्करण:2012, पृ०- भूमिका से।
डॉ. मंजूलता तिवारी (सं०), भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दी कवियों का योगदान, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण- 1988, पृ०- 354-55
विजयदत्त श्रीधर,पहला संपादकीय, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण -2011, पृ०- 12
आज, 30 जून 1922, पृ०- 5
आज, 6 मई 1922, पृ०- 4
आज, 23 जुलाई 1922, पृ०- 4
आज, 27 नवम्बर 1922, पृ०- 4
आज, शनिवार, सौर १ वैशाख, सं० १९८०, पृ०- 4
वही
आज, 9 मई 1927, पृ०- 5
आज, 5 अगस्त 1922, पृ०- 3
आज, शनिवार, सौर २६ ज्येष्ठ, सं० १९८०, पृ०- 4
आज, शनिवार, सौर १ वैशाख सं० १९८० वै०, पृ०- 4
आज, 5 अगस्त 1922, पृ०- 3
आज, 1 जुलाई 1922, पृ०- 4
आज, 19 मई 1922, पृ०- 3
आज- 14 जून 1922, पृ०- 4 
आज, 11 जून 1922, पृ०- 4
आज, 6 अगस्त 1922, पृ०- 3
आज, 15 जून 1922, पृ०- 4
वही
आज, 24 जून 1922, पृ०- 4
आज, 6 अगस्त 1922, पृ०- 4
आज, 3 मई 1922, पृ०- 6
आज, 9 अक्टूबर 1945, पृ०- 2
आज, 20 जुलाई 1922, पृ०- 6

डॉ. ज्योति यादव
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, राजकीय महिला महाविद्यालय, हमीरपुर, उत्तर प्रदेश 
umesh198129@gmail.com 

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

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