यथार्थ के आईने में 'अंगारे' की आवाज़
- आशीष कुमार वर्मा
कबीर आधुनिक काल या औपनिवेशिक काल में हुए होते तो निःसंदेह उनकी रचनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया होता। अवश्य ही उन्हें अपनी बेबाकी की कीमत चुकानी होती। मजहबी या धार्मिक बाह्याडम्बरों, रूढ़ियों और जात-पात के विरुद्ध खरी-खोटी सुना देने वाले कबीर को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से उन्नत वर्गों की मुखालिफत झेलनी पड़ी होगी। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उनकी दृष्टि की तीक्ष्णता की धार को बर्दाश्त कर पाना तात्कालिक प्रभु वर्गों के बारे में क्या कहा जाए वह आज के भी सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अभिजात्य वर्गों को तिलमिला देने के लिए काफी है। आलोचना की दुनिया में एक पद-बंध प्रचलित है – ‘तेजाबी यथार्थ’ जो लगभग तिलमिला देने वाली सच-सच बात को ही चरितार्थ करती है। जिसे कहने या सुनने के लिए गैर सामान्य स्तर के साहस की जरूरत होती है, इसलिए इनकी स्वीकार्यता समाज में कई बार नहीं हो पाती है। हर युग की अपनी सीमाएँ होती हैं और उन सीमाओं का रचनाकार पर प्रभाव न पड़े ऐसा नहीं हो सकता। रचनाकार अपनी सीमाओं से बद्ध रहते हुए भी उसका अतिक्रमण करता है, कबीर उसी श्रेणी में आते हैं। जिन्होंने अपने युग की सीमाओं का अतिक्रमण धार्मिक बाह्याडम्बरों, रूढ़ियों और जात-पात के भेद पर चोट करके किया। लेकिन कबीर ब्रह्म की सत्ता को नकार नहीं पाए थें। यह अलग बात है कि उनके राम निराकार राम रहें हैं। यही बंधन उन्हें अपनी युग की सीमाओं से जोड़ता है। शायद यही कारण है कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म के अनुयायियों ने कमोबेश उनकी स्वीकार्यता भी स्वीकार की।सच तो यह भी है कि किसी अलौकिक शक्ति पर उनकी आस्था थी। उन्होनें उसे पूरी तरह से नकारा नहीं था।
जब किसी धर्म विशेष या पंथ विशेष या जाति विशेष के भीतर जीवन की विषमता के बारे में संवेदनात्मक अनुभव के आधार पर बात-चीत करते हैं तो उस बात-चीत से किसी धर्म विशेष, पंथ विशेष या फिर जाति विशेष के हितों को नुकसान होता है। या कह सकते हैं कि उसके अस्तित्व को खतरा महसूस होता है।तब उन धर्म, पंथ और जाति विशेष पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए लोग उस प्रभुत्व से हो रहे लाभ के छिन जाने के खतरे से उठ खड़े होते हैं और विरोध करने लगते हैं। धर्म जीवन का अनुशासन कहा गया है, यह भी कह सकते हैं कि जिसमें समाज काफी स्तर तक संतुलित भी रहता है। लेकिन इस संतुलन की तुला में ढेर सारी गैर ईमानदारी, शोषण और अन्याय जैसे कृत्य भी शामिल है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। इसी दरमियां मुझे मार्क्स का वो कथन याद आ रहा है; जिसमें वह कहते हैं कि “धर्म पीड़ित प्राणी की कराह है, वह इस हृदयहीन जगत का हृदय है, ठीक उसी प्रकार जैसे वह आत्माहीन परिस्थितियों की आत्मा है। यह जनता के लिए अफीम है।” मार्क्स ने मनुष्य के जीवन में धर्म के महत्व को स्वीकार करते हुए उसे जनता के लिए अफीम जैसा हानिकारक बताया है। धर्म के संदर्भ में मार्क्स की यह भौतिकवादी व्याख्या उसके भीतर के अंतर्विरोधों की ही शिनाख्त करती है। एक अलग परिप्रेक्ष्य में भगत सिंह अपने लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ में आस्तिकता के संदर्भ में कहते हैं कि “ आस्तिकता मुश्किलों को आसान कर देती है, यहाँ तक की उन्हे खुशगवार भी बना सकती है। आदमी ईश्वर में बड़ी जबरदस्त राहत और दिलासा पा सकता है। उसके बिना आदमी को अपने ऊपर ही भरोसा करना पड़ता है। और आँधियों-तूफ़ानों के बीच अपने पैरों पर खड़े रहना बच्चों का खेल नहीं है।” यानि धर्म या मजहब की राह को अस्वीकार करने वाले और उससे इतर अपने ही अनुभव, बुद्धि, ज्ञान और तर्क की राह का दामन थाम लेने वालों का जीवन उनकी अपेक्षा बेहद कठिन किन्तु ज्यादा तर्काश्रित होती है। इसमें यह बहुत संभव है कि धर्म या मजहब के अस्वीकार के साथ-साथ उसकी ओट में होने वाले शोषण, गैर बराबरी, अन्याय, दमन और अत्याचार जैसे उन सारे षड्यंत्रों का एक ही चोट में समापन हो जाए। समापन न भी सही तो उसकी संभावनाएँ तो बहुत स्तर तक कम हो ही जाएंगी। जिन षड्यंत्रों के भरोसे यह इमारत गढ़ी गई है उसके ढहा दिए जाने से वही लोग विरोध करेंगे जो उससे लाभ ले रहे थे। दरअसल पितृसत्तामक चरित्र का धर्म या मजहब के साथ गहरा ताल्लुक है। धर्म या मजहब को नकारना पितृसत्ता को नकारने के जैसा ही है। पितृसत्ता शक्ति या ताकत का ही द्योतक है उसे नकारने वालों की मुखालिफत न हो ऐसा कैसे हो सकता है? और वह भी तब जब हम पितृसत्तात्मक प्रवृत्तियों का गहरे रूप से शिकार हों।
ऐसे में मजहबी खिलाफत की अभिव्यक्ति से भरे ‘अंगारे’ कथा संग्रह (जो मूल रूप में उर्दू में सन् 1932 में प्रकाशित हुई) पर प्रतिबंध लगा भी दिया जाए तो क्या कोई आश्चर्य की बात है? अब बात चाहे सन् 1933 की हो या आज की। उन प्रवृत्तियों में कोई खास बदलाव नहीं दिखाई पड़ता है। यह कहानी संग्रह चार प्रगतिशील व्यक्तियों के सामूहिक सहयोग से प्रकाशित हुई। जिनमें एक खातून (युवती) भी शामिल हैं। इसमें सज्जाद ज़हीर की पाँच कहानियाँ, दो कहानियाँ अहमद अली की, रशीद जहां की एक कहानी और एक एकांकी, एक कहानी महमूद जफ़र की। कुल मिलकर नौ कहानियाँ और एक एकांकी इस संग्रह में शामिल है। इन कहानीकारों ने अपनी कहानियों के बहाने एक ठहरे हुए समाज के भीतर कंकड़ मारने की कोशिश की है। मजहबी परंपराओं और संस्कारों के अंतर्विरोधों की शिनाख्त इन कहानियों से होती है। स्वयं चरित्रों की परिस्थितियों और उनके संवेदनात्मक अनुभवों के भरोसे अल्लाह का नकार एक क्रांतिकारी बयान की तरह मालूम पड़ता है। इस नकार या विद्रोह का साहस अक्सर पेट की राह से उपजता है। यह अलग बात है कि उसके और भी आयाम हैं।
आइए कुछ कहानियों के भीतर प्रवेश करके उन तथ्यों से रूबरू होते हैं, जिन्हें संभवतः बर्दाश्त नहीं किया गया। सज्जाद ज़हीर की ‘नींद नहीं आती’, ‘गर्मियों की एक रात’ और ‘दुलारी’ जैसी कहानियाँ मुफलिसी की आग में जल रहे लोगों की कहानियाँ है। ‘नींद नहीं आती’ में अल्लाह, भूख और आजादी के त्रिकोण पर कहानी रची गई है, जिसमें अल्लाह की जरूरतों और पेट की आग के महत्व को रेखांकित किया गया है। कहानी का एक संवाद यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ, जो इसे जाहिर करता है- “खुदा बंदे पाक, अल्लाह बारीताला, रब्बुल इज्जत, परमेश्वर परमात्मा लाख नाम लिए जाओ। जल्दी-जल्दी और जल्दी क्या हुआ? रूहानी सुकून? बस तुम्हारे लिए यही काफी है। मगर मेरे पेट में दोजख है। दुआ करने से पेट नहीं भरता, पेट से हवा निकल जाती है। भूख और ज्यादा मालूम होने लगती है, भों-भों-भो...।” यहाँ इस तरह के संवाद अन्य कहानियों में भी मिलते हैं, जिनका जिक्र आगे किया जाएगा। इसी कहानी में ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के लिए महात्मा गांधी द्वारा स्वदेशी आंदोलन की चेतना जागृत करने के प्रयास भी दिखाई पड़ते हैं। ‘गर्मियों की एक रात’ कहानी भी एक बेबस मातहत की मामूली जरूरतों की मदद की आकांक्षा से मुँह फेर लेने वाले मुंशी बरकत अली की कहानी है। एक अन्य कहानी ‘फिर यह हंगामा’ जिसकी चर्चा यहाँ की जा सकती है, जो कई कथ्यों का कोलाज दिखाई पड़ता है। लगभग इस छोटी सी कहानी के भीतर सात से आठ कथ्य शामिल हैं। जिनके कुछ कथ्य महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं तो कुछ कथ्य कमजोर भी हैं। यह भी उतना ही सत्य है, इन कथ्यों का गहरे स्तर से आपस में कोई विशेष सरोकार नहीं है। लेकिन फिर भी कुछ कथ्य गहरे सवाल खड़ा करते हैं, कुछ का जिक्र यहाँ किया जा सकता है, जैसे – मजहब और भूख दोनों के महत्व पर एक छोटी लेकिन सार्थक बातचीत मिलती है। जिसमें मजहब को बड़ी चीज माना गया और हमारे जीवन के सरोकारों से उसके गहरे ताल्लुकातों पर दृष्टिपात किया गया है। दो व्यक्तियों की बातचीत से कहानी की शुरुआत होती है, पहला व्यक्ति कहता है कि “मजहब दरअसल बड़ी चीज है। तकलीफ में, मुसीबत में, नाकामी के मौके पर जब हमारी अक्ल काम नहीं करती और हमारे होश गायब होने को होते हैं, जब हम एक जख्मी जानवर की तरह चारों तरफ डरी हुई, लाचार नजरे दौड़ाते हैं, उस वक्त वह कौन सी ताकत होती है जो हमारे डूबते हुए दिल को सहारा देती है? मजहब। और मजहब की जड़ ईमान है। खौफ और ईमान। मजहब की व्याख्या लफ्जों में नहीं की जा सकती। उसे हम बुद्धि के जोर से नहीं समझ सकते।” वह इतने पर ही नहीं रुकता आगे मजहब के बारे में दार्शनिक लहजे में कहता है “मजहब एक आसमानी रौशनी है जिसके उजाले में हम सृष्टि का सौन्दर्य देखते हैं।” धर्म या मजहब के बारे में कितनी सुंदर बात कही गई है लेकिन तनाव तो दूसरे आदमी के जवाब से पैदा होता है, वह कहता है कि “आपको इस वक्त मेरी अंदुरुनी कैफियत का अंदाजा नहीं मालूम होता। मेरे पेट में सख्त दर्द हो रहा है। इस वक्त मुझे आसमानी रोशनी की बिल्कुल जरूरत नहीं।” इसके आगे यही व्यक्ति कहता है कि मेरे नजदीक नॉवेल पढ़ना मजहबी बातों में दिलचस्पी लेने से कहीं बेहतर है। कहानी के रूप में संवाद के इस छोटे से अंश का तनाव बड़ा ही वाजिब तनाव है। यह सवाल तनाव के रूप में ही सही लेकिन आज तक बना है कि हमें मजहब की ज्यादा जरूरत है या रोटी कपड़ा मकान और शिक्षा की? इसी कहानी के भीतर जो दूसरी कहानी है वह एक मेहतर और उसके बच्चे की मृत्यु से जुड़ी हुई है। सांप के काटने की वजह से कल्लू मेहतर का लड़का अपनी जान गवा देता है। कल्लू के मालिक के साहबजादे गरीबों का बहुत ज्यादा ख्याल रखने वाले व्यक्ति थे लेकिन यह भ्रम तब टूट जाता है, जब मालिक के साहबजादे सांप काटे हुए लड़कों को दवा पिलाने उसके पास जाते हैं उन्होनें “कल्लू के लड़के को हाथ से छुआ और दवा पिलाई। मगर कल्लू की अंधेरी कोठरी इतनी ज्यादा गंदी थी और उसमें इतनी बदबू थी कि साहबजादे से चार पाँच मिनट भी न ठहरा गया। रहमदिली और गरीब परवरी की आखिर एक हद होती है। वह वापस तशरीफ़ लाकर अच्छी तरह नहाए, कपड़े बदल कर रुमाल में इत्र लगा कर सूंघा तब जाकर उनकी तबीयत दुरुस्त हुई।” इनकी दवा से कल्लू का लड़का तो नहीं बचता क्योंकि काफी देर हो चुकी थी और जहर पूरे शरीर में फैल गया था। लेकिन साहबजादे की रहमदिली की सीमाओं का पूरा एहसास हो जाता है। हमारे भीतर के अंतर्विरोधों की सच्चाई को कई बार परिस्थितियाँ ही जाहिर करती हैं। सज्जाद जहीर की यह कहानी ‘फिर यह हंगामा’ इसी तरह की छोटी छोटी कहानियों के समुच्चय से गुथी हुई है।
अहमद अली की दो कहानियाँ इस संकलन में संकलित है पहला ‘बादल नहीं आते’ और दूसरा ‘महावटों की एक रात’ । दोनों कहानियाँ इस संकलन की महत्वपूर्ण कहानियाँ है। बात पहली कहानी से शुरू करते हैं- ‘बादल नहीं आते’ शीर्षक कहानी गर्मी के महीने की पृष्ठभूमि में लिखी गई है। जिसमें एक मुस्लिम महिला अपनी जैसी तमाम औरतों का प्रतिनिधित्व करती हुई अपने जीवन की दुर्दशा को व्यक्त करती है। मजहब की आड़ में परंपराओं और रूढ़ियों से बंधा जो जीवन उसे मिला है। उस जीवन के प्रति उसकी आलोचनात्मक दृष्टि देखी जा सकती है, वह कहती है कि “बादल क्यों नहीं आते? और जिंदगी बवाल है। बवाल। बाल लंबे-लंबे काले-काले बाल। एक फिजूल की लादी लदी हुई। आखिर हम भी मरदुवों की तरह क्यों नहीं कटवा सकते। छोटे-छोटे बालों से सर कैसा हल्का मालूम होता होगा।... काश कि हमारे बाल भी कटने होते। गुद्दी जली जाती है झुलसी जाती है। उस पर भी बाल नहीं कटवा सकते। खानदान वालों की क्या बड़ी नाक है, हम जो बाल कटवा लेंगे तो उनकी नाक कट जाएगी।” स्त्रियों के कंधों पर खानदान भरके लोगों के नाक की रक्षा का दायित्व बिन मांगे ही उन्हें सुपुर्द कर दिया गया और बड़ी चालाकी से इस सुपुर्दगी की आड़ में उनकी आजादी पर पहरा लगा दिया गया। इस कहानी में आगे वह स्त्री अपने जीवन और श्रम के बारे में बयान देती हुई कुछ सवाल करती है “... आखिर हम ही में रहम क्यों पैदा किया। औरत कमबख्त मारी की भी क्या जान है, चिचड़ी से बद्तर। काम करें-काल करें, सीना पिरोना, खाना पकाना, सुबह से रात तक जले पाँव की बिल्ली की तरह इधर-उधर फिरना। उस पर तुर्रा यह कि बच्चे जनना। जी चाहे न चाहे, जब मियाँ मुए का जी चाहा हाथ पकड़ के खींच लिया।” अपने इस शोषणपूर्ण पराधीनता की ओर उसका ध्यान जाता है, वह अपनी आर्थिक स्वतंत्रता के बारे में सोचती हुई खुद से ही सवाल करती है। उसके सवाल मजहबी संस्कारों और परंपराओं के प्रति उसमें चिढ़ पैदा करते हैं, वह कहती है “हम क्यों नहीं कुछ कर सकते? अगर रुपया होता तो ये सब जिल्लत क्यों सहनी पड़ती। जिस वक्त जो जी चाहता करते। कमाने की इजाजत भी तो नहीं। परदे में पड़े-पड़े सड़ते हैं। लौंड़ियों (नौकरानियों) से बद्तर जिंदगी है। जानवरों से गए गुजरे हुए पिजरे में पड़ें हैं, कैद किए पड़े हैं। पर होते हुए भी फड़फड़ाने की गुंजाइश नहीं। हमारी जिंदगी ही क्या है? बुझा दिया तो बुझ गए, जला दिया तो जल रहे हैं। जलने के अलावा और भी कुछ हमारी किस्मत में हैं?” अपनी इस दुर्दशा के लिए वह मजहब और उन संस्कारों को ही जिम्मेदार मानती है, जिसमें पुरुषों का वर्चस्व है। इसलिए इसे वह सिरे से खारिज करती हुई कहती है कि “आग लगे ऐसे मजहब को। मजहब, मजहब, मजहब, रूह की तसल्ली मर्दों की तसल्ली है। औरत बेचारी को क्या पाँच उंगली भर दाढ़ी रख के बड़े मुसलमान बनते हैं। टट्टी की आड़ में शिकार खेलते हैं। हमारे तो जैसे जान तलक नहीं। आजादी के लिए तो एक दीवार है।” स्त्री की आजादी के मायने दीवारों में मानों सिमट के रह गए हैं। वह अपने बचपन और अब्बाजान को याद करती है कि कितनी मुश्किलों से उसे स्कूल में दाखिल कराया था। कक्षा आठ तक ही तो वह पढ़ सकी थी क्योंकि अब्बाजान के इंतिकल के बाद ही तो सबने स्कूल से नाम कटा दिया था। फिर इस मोटे मुस्टंडे, दाढ़ी वाले के साथ नत्थी कर दिया था, वह उसके बारे में कहती है कि “मुवा शैतान है। औरत की आजादी तो आजादी, औरत का जवाब तक देना गवारा नहीं करता।” क्या यह सच्चाई आज भी हमारी जिंदगी का हिस्सा नहीं है? मैं तो कहता हूँ कमोबेश ही सही लेकिन आज भी उसके अवशेष हमारे जेहन में मौजूद हैं। हम औरत की आजादी के कितने पक्षधर हैं? ये कुछ सवाल आज भी अंगारे की तरह दहक रहे हैं।
उनकी दूसरी ‘महावटों की एक रात’ शीर्षक कहानी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो तीन बच्चों की माँ है। अपने मामूली और जर्जर से घर में जाड़े की वर्षा भरी रात जिस तरह उसकी गुजरती है, वह किसी यातनापूर्ण दौर से कम नहीं, क्योंकि उसके पास सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं। बारिश के गड़गड़ाहट से छत के गिर जाने की आशंका से भर जाती है। वह अल्लाह को संबोधित कर बारिश को रोक देने के लिए कहती है-“अब तो रोक दो। कहाँ जाऊं? क्या करूं? इससे तो अच्छा मौत ही आ जाए। तूने गरीब ही क्यों बनाया? या अच्छे दिन ही न दिखाए होते। यहाँ यह हालत है लेटने को जगह नहीं। छत छलनी की तरह टपकी जाती है। बिल्ली के बच्चों की तरह सब कोने झांक लिए। लेकिन चैन कहाँ? मेरा तो खैर कुछ नहीं बच्चों निगोड़े मारो की मुसीबत है। न मालूम सो भी कैसे गए हैं। सर्दी है कि उफ़... बोटी बोटी कांपी जाती है और उस पर एक लिहाफ और चार जानें। ऐ मेरे अल्लाह... जरा रहम कर।” इतना कहकर ही मरियम जन्नत के स्वप्न में खो सी जाती है। स्वप्न में ही पूछती है- “तो क्या यह जन्नत है? क्या हम जन्नत में हैं? हां, ‘बहिश्त’ खुदा के नेक और प्यारे बंदों की जगह। ..... क्या इनमें मुझको भी जगह मिलेगी? खुदा के नेक और सच्चे बंदों के लिए है, पाक बंदों के लिए।” इसके बाद वह स्वप्न से पुनः मौजूदा स्थिति में आ जाती है। गड़-गड़ और टप-टप की चारों तरफ आवाज आती ही रहती है। पानी का टपका मरियम की तरफ के लिहाफ को भीगा चुका है, जिससे उसकी समस्या और बढ़ती हुई नज़र आती है। बच्चे आपस में लिपटे हुए सर्दी महसूस कर रहे हैं, इधर मरियम कहती है कि “ या अल्लाह रहम कर खुदा गरीबों के साथ होता है, उनकी मदद करता है, उनकी आह सुन लेता है। क्या मैं गरीब नहीं? खुदा सुनता क्यों नहीं? है भी या नहीं? आखिर है क्या? जो कुछ भी है बड़ा जल्लाद है और फिर बड़ा बेइंसाफ है। कोई अमीर क्यों? कोई गरीब क्यों? उसकी हिकमत है, अच्छी हिकमत है, कोई जाड़े में ऐंठे, लेटने को पलंग तक न हो, ओढ़ने को कपड़े तक न हों।..... किसकी बकरी और कौन डाले घास। हमको बनाया किसने? अल्लाह ने? तो हमारी परवाह क्यों नहीं करता? किसलिए बनाया? रंज सहने और मुसीबत उठाने के लिए? अरे क्या इंसाफ है? वह क्यों अमीर है? हम क्यों नहीं? मरने के बाद इसका बदला मिलेगा, मौलवी तो यही कहते हैं।” लेकिन मरियम के सवालों की सक्रियता खत्म नहीं होती है, वह यमलोक के न्याय को सिरे से खारिज करती है, कहती है “ भाड़ में जाए यमलोक। तकलीफ तो अब है, जरूरत तो अभी है। बुखार तो इस वक्त चढ़ा हुआ है और दवा दस बरस बाद मिलेगी? खुदा बचाएं ऐसे आखिरत से। जब की जब भुगत लेते, अब तो कुछ हो, खुदा महज एक धोखा है।” मरियम अपने अनुभवों से इस बात को समझ जाती है कि खुदा सिर्फ धोखे की एक टट्टी है। जो मुसीबत में तकलीफ से संतुष्ट रहने का मात्र जरिया बनता है और कुछ नहीं।
इस कहानी संकलन में रशीद जहां की एक कहानी ‘दिल्ली की सैर’ और एक एकांकी जो इस संकलन की इकलौती एकांकी है ‘परदे के पीछे’ भी संकलित है। इनकी कहानी तो मलका बेगम नाम की एक महिला की है। जो अपने दिल्ली की यात्रा का वर्णन खुद की सखियों के साथ साझा करती है। कहानी बहुत छोटी और केवल रेल यात्रा और दिल्ली स्टेशन की विशालता के वर्णन तक सीमित रह गई है। कहानी में कोई खास उद्देश्य की जगह मलका बेगम की सखियां उनकी रेल यात्रा के अनुभवों का बहुत ही रोचकता के साथ आनंद लेती हुई दिखाई पड़ती हैं। इसलिए उनकी यह कहानी उद्देश्य के स्तर से काफी कमजोर मालूम पड़ती है।
अब बात एकांकी के संदर्भ में किया जा सकता है- रशीद जहां की एकांकी ‘परदे के पीछे’ मुस्लिम परिवार की दो स्त्रियों के संवाद पर आधारित है। जिसमें उनकी अपनी जीवन की कटुता की अभिव्यक्ति ही मिलती है। बत्तीस साल की उम्र में ही अगर मुहम्मदी बेगम को अपनी जिंदगी से मोह भंग हो जाए तो जरूर उसकी समस्याएँ असामान्य स्तर की होंगी। सतरह साल की उम्र में शादी और उसके बाद लगभग हर साल बच्चा इस मुसलसल प्रक्रिया ने उसके शरीर को जर्जर बना दिया है, वह कहती है कि “ कौन मुझे जवान कहेगा? सत्तर बरस की बुढ़िया मालूम होती हूँ। रोज-रोज की बीमारी, रोज-रोज के हकीम डाक्टर और हर साल बच्चे जनने।” वह भी सब के सब कमजोर जिन्हें माँ का दूध ही नसीब नहीं, दूध पिलाने के लिए भी अन्नाएँ (माताएँ) रखी गई हैं। मुहम्मदी बेगम के मियाँ का हुक्म है कि जब खुदा ने रुपया दिया है तो उनकी बेगम भला दुख क्यों उठाएं। मुहम्मदी बेगम आफताब बेगम से कहती हैं कि मेरे दुख की चिंता महज एक ढोंग है “ सारा मजा अपनी इच्छा का है कि जब बच्चा मेरे पास रहेगा तो स्वयं को तकलीफ होगी। न रात देखें न दिन, बस हर समय बीवी चाहिए। और बीवी पर ही क्या है, इधर-उधर जाने में कौन से कम हैं।” मुहम्मदी अपने एक चार महीने के बच्चे ‘नसीब’ की बीमारी के कारण उसके शरीर की होने वाली दुर्दशा और अंततः उसके मर जाने की पीड़ा से क्षुब्ध है। अन्ना जो दूध पिलाती थी, वह बीमार थी। गर्मी की बीमारी थी उसे, बच्चा भी बीमार पड़ गया। “ यह बड़े-बड़े छाले बदन पर पड़ गये। और फूटे तो कच्चा-कच्चा गोश्त निकल पड़ा। जोड़-जोड़ में पीप पड़ गये। तसला भर-भरके डॉक्टर गयास ने निकाला। मैं परदे के पीछे से देखती थी। दो महीने इसी तरह सड़-सड़ कर बच्चा चला गया। इसके बाद तीन बच्चे हुए। कितना कहा मैं स्वयं दूध पिलाऊँगी, लेकिन सुनता कौन है। धमकी यह है कि दूध पिलाऊँगी तो मैं दूसरी शादी कर लूँगा। मुझे हर समय औरत चाहिए। मैं इतना सबर नहीं करता...।” ऊपर दिए गये कथनों में मात्र भोगवादी मनसा ही दिखाई पड़ती है। दरअसल स्त्री को पूरी तरह से भोग लेने की पुरुष की यह निर्मम चाह उसकी पशुवत प्रवृत्ति का ही द्योतक है। लेकिन इस एकांकी में स्त्री के प्रति घोर उपेक्षा का भाव और पुरुष की पशुता की अधिक ऊंचाई मुहम्मदी बेगम के जीवन और उनकी स्मृति में निहित उस वाकये में दिखाई पड़ती है। जिसे वह आफताब बेगम से साझा करती हैं, बार-बार गर्भ धारण करने से वह अक्सर बीमार रहती हैं। उस चार महीने की लंबी बीमारी में वह बेड पर ही पड़ी रही। एक दिन डाक्टरनी जांच करती है और फिर हैरानी से कहती है कि आपको तो दो महीने का पेट है! लेकिन “ बेगम साहब, आप तो कह रही थीं चार महीने से आप पलंग पे पड़ी हैं। रोज शाम को बुखार आता है और डाक्टर गयास भी यही कह रहे थे कि रोज शाम को 100 या 101 पर बुखार आ जाता है। तो आपका मतलब है कि आपके... मैंने कहा – ऐ मिस साहब! तुम भी भली हो, कमाती हो, खाती हो, मजे की नींद सोती हो, यहाँ तो मुर्दा जन्नत में जाए या दोजख में, अपने हलवे-माँडे से काम है। बीवी चाहे अच्छी हो चाहे मर रही हो, मर्दों को अपनी इच्छा से काम है।” इन सबसे खींझकर वह आगे कहती है कि इससे अच्छा तो क्रिश्चन रहते तो भला रहता। यहाँ धार्मिक पलायन की आकांक्षा लिए हुए मुहम्मदी बेगम मौजूदा स्थितियों का ही तिरस्कार करती है क्योंकि उसे यहाँ ज्यादा बंधन महसूस होता है। इसी तरह की प्रतिक्रियाओं से यह कहानियाँ भरी पड़ी हैं। संभवतः मुस्लिम समाज में इन्हीं तरह की प्रतिक्रियाओं को बर्दाश्त नहीं किया गया। खास तौर से अल्लाह के अस्तित्व को ही नकार देने की बात। जिसके कारण इस संग्रह के खिलाफ अभियान चलाकर इसे मार्च 1933 में प्रतिबंधित करा दिया गया।
अंत में ये बहुत ही स्पष्ट है कि यह कहानियाँ उनकी मजहबी या धार्मिक मान्यताओं पर गहरा आघात करती हैं। यह आघात किसी वायवीय शक्ति से प्रेरित न होकर बल्कि पीड़ा में तपे हुए उन चरित्रों के जीवनानुभव और व्यवहार की तर्क आधारित कसौटी पर कसी हुई मालूम पड़ती है। वह हमारे भीतर की सच्चाईयों और बाह्य के बनावटीपन को जाहिर करती है। मजहब की आड़ में, परंपरा की आड़ में, नैतिकता की आड़ में छिपे हुए उन तमाम चेहरों को अंगारे की आवाज प्रश्नांकित करती हुई उनके द्वारा किए जा रहे शोषण, अन्याय, अत्याचार और गैर बराबरी की राजनीति का पर्दाफ़ाश करती है।
आशीष कुमार वर्मा
शोधार्थी, पांडेचरी यूनिवर्सिटी
7398589922
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक चित्रांकन : अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )