आलेख : प्रतिबन्धित हिन्दी नाट्य साहित्य में स्त्रियों की भूमिका / आशुतोष

प्रतिबन्धित हिन्दी नाट्य साहित्य में स्त्रियों की भूमिका
(संदर्भ :- सितम की इन्तिहा क्या है? सम्पादक - सत्येन्द्र कुमार तनेजा)
- आशुतोष

    प्रतिबन्धित साहित्य की बात करने से पूर्व यह जान लेना ज्यादा जरूरी होगा, कि उस समय मौजूदा परिस्थितियों के केन्द्र में कौन सी समस्या या हालात थे। जिनके कारण ब्रिटिश सरकार भयभीत और डरी हुई थी। 1857 के विद्रोह की बात करें, तो यह ब्रिटिश उपनिवेश से आजाद होने का पहला प्रयास था। इसे अन्य नामों से भी जाना गया, जैसे :- ‘सिपाही विद्रोह’, ‘भारतीय विद्रोह’, आदि आदि। 1857 के विद्रोह में शामिल होने वालों को गद्दार तक अपने ही देश के लोगों द्वारा कहा गया। अंतत: यह एक व्यापक स्तर पर ब्रिटिश सरकार के प्रति विद्रोह था, जिसमें हिन्दी भाषी क्षेत्र के अलावा अहिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ाव था। इस जन क्रांति के कारण लोगों में स्वाधीनता आन्दोलन के प्रति चेतना जागृत हुई। इस चेतना के जागृत होने के कई कारण थे जैसे- इरफ़ान हबीब लिखते है कि “सिपाहियों के सीने में अन्य प्रकार से भी काफी ईधन एकत्र हो चुका था, जिसमें चर्बी वाले कारतूस ने चिंगारी का काम किया। (1857, नवजागरण और भारतीय भाषाएँ, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, संपादक: शंभुनाथ)” इसके अलावा इस आन्दोलन का व्यापक रूप लेने का एक और कारण था। ब्रिटिश सरकार के सेना में ज्यादातर किसानों के बच्चे भर्ती थे। जिसके फलस्वरूप ये सैनिक विद्रोह के साथ-साथ किसान विद्रोह के नाम से भी जाने जाना लगा। इसलिए रामविलास शर्मा सिपाहियों को “वर्दीधारी किसान” कहते हैं। (सन सत्तावन की राज्यक्रांति और मार्क्सवाद)

    विद्रोह के पश्चात  ब्रिटिश सरकार ने विद्रोहियों को कुचलने के लिए नये-नये कानूनों का प्रावधान करना शुरू कर दिया। इनमें से ही एक कानून “ड्रामेटिक परफॉर्मेंसिस एक्ट 1876” लागू कर दिया जिसके तहत सरकार को किसी नाट्य लेखन या प्रदर्शन पर पाबंदी लगाने के अनेक अधिकार मिल गए। यह कानून 1860 में प्रकाशित ‘नील दर्पण’ के बाद प्रकाशित कई नाटकों के लिए लाया गया था| ‘नील दर्पण’ नाटक की बात करें तो इसमें नील की खेती करने वाली ‘रैयत’ की मर्मभेदी यंत्रणाओं को ‘दर्पण’ की तरह दृश्यांकित करने में दीनबन्धु ने अचूक क्षमता दिखाई है| इसके बाद इस तरह के कई नाटक प्रकाशित हुए या एक तरह से परिपाटी चल पड़ी। जैसे, सन्1873 के हिंदू मेला में ‘किरणचंदु वधोपाध्याय’ का लिखा तथा ग्रेट नेशनल थिएटर द्वारा ‘भारत माता’ ऑपेरा नाटक प्रस्तुत किया| ग्रेट नेशनल थिएटर ने हास्य व्यंग्य से भरपूर ‘गजादानन्द ओ जुबराज’ नाटक लिख दिया। ये कुछ नाटक थे, जो ‘ड्रामेटिक परफॉर्मेंसिस एक्ट 1876’ के बाद लिखे गये, क्योंकि भारतीय जनमानस अंग्रेजी हुकूमत की नीतियों से परेशान हो गया था। उसकी समझ में आ गया था कि ये सरकार हमारा भला नहीं बल्कि शोषण कर रही हैं। इन चिंताओं को मौजूदा समाज लेखक,पत्रकार, बौद्धिक वर्ग अपनी अभिव्यक्ति, पत्रिका, अख़बार, कहानी, उपन्यास और नाटकों के माध्यम से व्यक्त कर रहा था।

    नाट्य विधा की बात करें, तो नाटक ऐसी विधा है, जिसे पढ़ने के साथ-साथ दृश्यांकन भी किया जा सकता है। ये विधा उस समय के समाज के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण थी। क्योंकि इसे शिक्षित, अशिक्षित दोनों आसानी से आत्मसात कर सकते थे। किसी कृति को पढ़कर किया अनुभव और उसकों प्रत्यक्ष रूप में देखना प्रभावशाली होता है। इसलिए स्वाधीनता आन्दोलन में नाट्य विधा ने अहम भूमिका निभाई।
  
गौरतलब है, हम यहाँ प्रतिबन्धित साहित्य में स्त्रियों की भूमिका की बात कर रहे हैं। यहाँ स्त्रियों की भूमिका को लेकर बात करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि स्त्रियाँ पहले से पुरुषों द्वारा प्रतिबन्धित थी, जिस समाज की स्त्रियों को घरों के चौका बर्तन तक सिमित रखा जाता था, वह देश व्यापी स्वाधीनता आन्दोलन में हिस्सा कैसे लेतीं| यह महत्वपूर्ण विषय  है,कि जब स्त्री और पुरूष दोनों साम्राज्यवादी ताकतों के अधीन थे तो स्त्रियों की देश और समाज के प्रति क्या भूमिका थी? इसके अलावा हम देखते हैं कि पुरुष इतिहास की किताबों में प्रथम द्रष्टा में अंग्रेजों के शोषण का शिकार होते थे। शहीद हो जाते थे, जेलों में भर दिए जाते थे।उसके बाद स्त्रियों की क्या दशा होती थी? वह किन परिस्थितियों का सामन करती थी| अंग्रेज उनके साथ कैसा व्यवहार या दृष्टिकोण रखते थे या स्त्रियों का अंग्रेजों के प्रति कैसा व्यवहार होता था। यह जाना जा सकता है, इसके अलावा इन नाटकों में समय-समय पर हुई घटनाओं के माध्यम से नाटकों में प्रत्यक्ष प्रभाव के साथ रेखांकित किया गया है|

    अंग्रेजों के  द्वारा शोषण की बात करें तो, ‘कुली प्रथा’ नाटक महत्वपूर्ण है, जिसमें भारतीयों को सुनहरे सपने दिखाकर धोखे से बहला-फुसलाकर लालच देकर, फ़िजी भेज दिया जाता था। भेजनें वालों में कोई अँग्रेज नहीं था बल्कि अपने ही समाज के भारतीय व्यापारी चंद पैसों के लालच में यह घृणित कृत्य किया करते थे। भोला के पुत्र(शंकर) को भी किसी व्यापारी ने धोखे से फ़िजी भेज दिया था। भोला और शंकर की माँ कुंती दोनों अपने पुत्र को ढूढ़ते हुए भारतीय व्यापारियों के चुंगल में फंस जाते हैं। उन्हें भी फ़िजी भेज दिया जाता है| जबकि कुंती को अपने बेटे के मिलने की उम्मीद नहीं है, फिर भी बेटे से एक बार मिलने की चाह में वह इस अंतिम प्रयास में जाने को तैयार हो जाती है। यहाँ उनकी अभिव्यक्ति ध्यान देने योग्य है, वह कहती है - “यह सच है, कि बेटा शंकर की याद सदा हृदय को जलाया करती है। उसके लिए समुन्द्र पार क्या मैं आकाश पर भी जाने के लिए तैयार हूँ| किन्तु वहाँ पर मिल जावेगा, यह हम कैसे कह सकते हैं। उससे मिलना तो अब असम्भव सा रहा है। यदि मिलने वाला होता तो आज एक वर्ष होने चाहता है, मिल जाता।”(1) ये एक माँ का पुत्र के प्रति प्रेम है, जो उसे किसी भी परिस्थिति से सामना करने का साहस देता है। वहाँ पहुँचने के बाद शारीरिक क्षमता से ज्यादा श्रम कराना, ना करने पर यातना दी जाती थी। जिसके कारण भोला इंस्पेक्टर की पिटाई से मर जाता है और उसकी गलत रिपोर्ट बनाई जाती है कि किसी जंगली जानवर ने भोला को मार दिया। इसके बाद कुंती जिसने अभी चार दिन पहले ही एक नवजात बच्चे को जन्म दिया है। उससे काम पर जाने के लिए विवश किया जाता है। इंस्पेक्टर कुंती के नवजात बच्चे को भी बहुत ही निर्मम तरीके से मार देता है। उसकी मौत का जिम्मेदार अब्बास को बनाया जाता है| इस तरह की घटना कितनी सामान्य थी यह एक तथ्यात्मक उदाहरण से समझा जा सकता है - “घटना सन् 1893 की है। एक अँग्रेज सिपाही ने हम्पन्ना नामक एक रेलवे गेट कीपर को गोली मार मौत की नींद सुला दिया। हम्पन्ना का कसूर सिर्फ इतना था कि उसने उससे(हम्पन्ना से) मिलने आई दो औरतों को ब्रितानी सिपाही द्वारा छेड़े जाने का विरोध किया था|”(2)

    इन सब घटनाओं के बाद इंस्पेक्टर उससे प्रेम प्रस्ताव देता है, वह सोचता है, अब इसका कोई सहारा नहीं बचा कहाँ जाएगी, लेकिन उसको इसके विपरीत जवाब मिलता है-“प्रेम, और तुझसे! जिसने मेरे पति को मार मुझे विधवा बनाया! तू मुझसे प्रेम चाहता है ? तेरे लिए इस ह्रदय में यदि कोई भाव उठ रहा है तो घृणा का, क्रोध का और बैर का।”(3) कुंती को किसी दुसरे देश में रहते हुए हार मान लेना चाहिए था, लेकिन वह अपने पति और बच्चे  के मौत का बदला लेने का संकल्प ले लेती है।

“फोड़ दूंगी उँगलियों से मैं तेरी आँखे जभी।
खिंच लेऊँगी तेरे पेट की आंते सभी।
रगड़ दूंगी एड़ियों से निचे तेरा हृदय भी।
बस दुखमय इस जगत में मैं शांति पाऊँगी तभी।|”(4)

    अंत में कुंती अपने पति और नवजात बच्चे के निर्मम हत्या का बदला अपने बड़े बेटे शंकर के साथ मिलकर लेती है। सन् 1931  में एक भारतीय घटना का जिक्र करे तो बिल्कुल ऐसी ही घटना थी जिसमें ‘शांति घोष तथा सुनीति चौधरी’ नामक दो लड़कियों ने टिपर के जिला मजिस्ट्रेट ‘स्टीपेंस’ की गोली मारकर हत्या कर दी। यह वही मजिस्ट्रेट था जिसने सरकारी नियमों का महिलाओं के शोषण के लिए सर्वाधिक दुरूपयोग किया| इलासेन के अनुसार:- “पर्वतीय इलाकों में किसी भी अच्छे घर की बंगाली लड़की इन मजिस्ट्रेटों की निगाहों से बच नहीं सकती थी| ये लोग उसे पकड़कर उसके  साथ ज्यादती करते तथा अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते थे। इसलिए दो नवयुतियों ने मजिस्ट्रेट की हत्या करके इस अपमानजनक स्थिति के खात्मे का नमूना पेश किया। उनका मानना था कि बर्बरता का जवाब उसी की भाषा में दिया जाना चाहिए, अत: वे दोनों युवतियाँ निडर होकर मजिस्ट्रेट के दफ्तर में गई और वहाँ जाकर उसे गोली मारकर ढेर कर दिया। उन्हें मालूम था कि वे गिरफ्तार कर ली जाएँगी परतुं उन्होंने एकदम शांत एवं साहसी रवैये का परिचय दिया।”(5)

    वही दुसरे नाटक ‘जख्मी पंजाब’ में रत्नादेवी के चरित्र को देखते है, बहुत कम संवाद है, लेकिन जितने हैं, उत्साह से भरे हुए हैं| इसमें रॉलेट एक्ट 1919 के विरोध में जलियांवाला बाग में एक सभा हो रही थी। उस भीड़ पर ‘रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर’ ने गोलियां चलवा दी| जिसमें काफी संख्या में लोग मारे गए और घायल भी हुए| उसी दृश्य का वीभत्स चित्रण नाटकार ने नाटक में जीवंत कर दिया है। जहाँ अँधेरी रात में बेशुमार जख्मी और मृत बच्चे, जवान और बूढ़े का धरती पर पड़े हुए दिखाई देना, जिसमें रत्नादेवी के पति और पुत्र दोनों मारे जाते हैं, वह उस क्षण को देखकर असहाय महसूस करने लगती है| लेकिन अगले  ही क्षण उसे उन वीरों के साहस पर गर्व भी होता है। वह अपने पति और पुत्र के मृत्यु पर निराश न होकर स्वाधीनता आंदोलन के लिए शहीद हुए, घायल हुए लोगों की मदद करने का संकल्प लेती है - “प्यासा मर गया, क्या यह सब एक बूंद पानी को तरस-तरस कर प्राण छोड़ देंगें। अब मेरा कर्तव्य क्या है?, अब पावन धरती को प्राण-नाथ की तकिया बनाऊँ, कुँए से साड़ी भिगों कर ले आऊँ और इन प्यासे भाइयों को पानी पिलाऊँ।”(6)

`‘खून तड़पेगा’ मेरा नाटक में लेखक ने रॉलेट एक्ट को एक पात्र के रूप में चित्रित किया है। जिसका नाम ‘मार्सल ला’ रखा गया है। वह अभिनय के माध्यम से एक्ट की सच्चाई को बताता है। उसमें बूढी माता जिसका एकलौता पुत्र जो मारा गया है। वह मार्शल ला को पकड़कर पूछती है - “यही है, खुनी, चोर, डाकू, मेरे अनमोल लाल को लुटने वाला, जिसने मेरी बुढ़ापे की लाठी को तोड़ डाला|”

“जन्म कीथी कमाई एक ही अनमोल हिरा था।
मेरा बेटा मेरी तारिक आँखों का ममीरा था।
अय जालिम तोड़कर तूने रखा है फल सेरा कच्चा।”(7)

    अब सवाल है कि बूढी माता के जीवन का निर्वाह कैसे होगा ? ऐसे में नाटककार गाँधी के व्यक्तित्व और उनके विचारों को लेकर आते हैं। जिनका प्रभाव जन-जन तक फैला हुआ था| तत्कालीन समय में गाँधी जी ने भी यह महसूस किया था कि “स्त्रियाँ उनकी अहिंसक लड़ाई में निकटता से उनकी नीतियों का अनुसरण कर रही हैं, क्योंकि यह बड़े पैमाने पर कष्ट उठाने का आह्वान था और महिलाओं के अलावा इतनी ईमानदारी से यह कष्ट और कौन उठा सकता था? गाँधीजी का दृष्टिकोण समय की मांग और स्त्री के गुणों के अनुरूप था क्योंकि गाँधी के विचारों के केंद्र में पीड़ा थी उनकी आदर्श कार्यकर्ता ‘स्वैच्छिक विधवा’ थी जो कि ‘मानवता के लिए एक उपहार’ थी क्योंकि उसने ‘कष्ट उठाने में ख़ुशी हासिल करने का सबक सिख रखा था|”(8)  गाँधी का विचार निश्चित रूप से सराहनीय था, जिन स्त्रियों के पति  आजादी की लड़ाई में शहीद हो गये थे, उनमें प्रतिशोध की भावना ज्यादा थी| वह समर्पण के साथ देश सेवा में योगदान दे सकती थी। वहीं गाँधी के अहिंसा के सिद्धांत का भी बखूबी पालन कर रही थी या उनके स्वभाव में पहले से ही ये गुण थें|

    अब तक के वर्णन में हमने देखा कि जितना कष्ट पुरुषों ने सहन किया, उतना ही स्त्रियों ने भी सहन किया| पुरुषों के बजाय स्त्रियों में सहन शक्ति ज्यादा थी, इसलिए उनके ऊपर हुए शोषण, अत्याचार उभरकर सामने नहीं आए या उसे स्वाधीनता आन्दोलन का हिस्सा ही नहीं माना गया ठीक वैसे ही जैसे उनके घरेलू श्रम के महत्व को रेखांकित नहीं किया जाता। उपर्युक्त वर्णन में स्त्रियों के हमने दोनों चरित्रों को देखा, वह जरूरत पड़ने पर हिंसक रूप भी अपनाती हैं और अहिंसक रूप उनके स्वभाव में अभिन्न रूप शामिल तो है ही|

     इसलिए इन नाटकों को ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबन्धित किया, क्योंकि इसमें भारतीय जनमानस को एकजुट और उनके द्वारा किए जा रहे, शोषण को एक जनसमुदाय तक पहुंचा रहा था इसलिए सरकार इस प्रकार के सांस्कृतिक प्रयासों से डरी हुई थी, और कानून के माध्यम से इस जनचेतना को दबाना चाहती थी। इसमें स्त्रियाँ कहाँ तक, किस रूप में स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ पा रही थी| उसका एक छोटा प्रयास इस लेख में किया गया है|

सन्दर्भ :
(1) कुमार तनेजा, सत्येन्द्र,  सितम की इन्तिहा क्या है? (सात जब्तशुदा हिन्दी नाटक), राष्ट्रीय  नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, संस्करण:-2010. पृष्ठ संख्या:-188
(2) कुमार, राधा, स्त्री संघर्ष का इतिहास(1800-1990), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण:-2005, पृष्ठ संख्या:-86
(3) कुमार तनेजा, सत्येन्द्र,  सितम की इन्तिहा क्या है? (सात जब्तशुदा हिन्दी नाटक), राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, संस्करण:-2010, पृष्ठ संख्या:-199
(4) वही, पृष्ठ संख्या:-199
(5) कुमार, राधा, स्त्री संघर्ष का इतिहास(1800-1990), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण:-2005, पृष्ठ संख्या:-183
(6) कुमार तनेजा, सत्येन्द्र, सितम की इन्तिहा क्या है? (सात जब्तशुदा हिन्दी नाटक), राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, संस्करण:-2010, पृष्ठ संख्या:-271
(7) कुमार तनेजा, सत्येन्द्र, सितम की इन्तिहा क्या है? (सात जब्तशुदा हिन्दी नाटक), राष्ट्रीय  नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, संस्करण:-2010, पृष्ठ संख्या:-287
(8) कुमार, राधा, स्त्री संघर्ष का इतिहास(1800-1990), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण:-2005, पृष्ठ संख्या:-177

आशुतोष
 शोधार्थी,  हैदराबाद विश्वविद्यालय
asutosh8819@gmail.com

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  प्रतिबंधित हिंदी साहित्य विशेषांक, अंक-44, नवम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : गजेन्द्र पाठक
 चित्रांकन अनुष्का मौर्य ( इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

Post a Comment

और नया पुराने