शोध आलेख : कामकाजी महिलाओं के पारिवारिक समायोजन का एक समाजशास्त्रीय अध्ययन/ अजरा सुल्ताना



कामकाजी महिलाओं के पारिवारिक समायोजन का एक समाजशास्त्रीय अध्ययन

अजरा सुल्ताना

 

 

शोध सार -‘‘मातृ देवा भवः’’ प्रस्तुत शोध पत्र पिथौरागढ़ की गंगोत्री गर्ब्‍याल गर्ल्स राजकीय इंटर कॉलेज में कार्यरत महिला अध्यापिकाओं के पारिवारिक समायोजन पर आधारित है इस शोध पत्र के माध्यम से कामकाजी महिलाओं के पारिवारिक समायोजन उनकी दोहरी भूमिका का निर्वहन उनकी आर्थिक स्थित व सामाजिक स्थिति का अध्ययन किया गया है।

              प्रस्तुत शोध पत्र में वर्णनात्मक शोध प्रारूप का प्रयोग किया गया है तथा इस प्रपत्र का पूर्ण करने में असम्भावित निदर्शन के प्रकार जिसको सुविधापूर्ण निर्दशन के रूप मे जाना जाता है का प्रयोग किया गया है तथा साक्षात्कार अनूसुची के माध्यम से तथ्यों का वर्गीकरण व सारणीयन किया गया है।

              प्रस्तुत शोध पत्र में वर्णनात्मक शोध प्रारूप का प्रयोग किया गया है तथा इस प्रपत्र का पूर्ण करने में असम्भावित निर्दशन के प्रकार जिसको सुविधापूर्ण निर्दशन के रूप में जाना जाता है का प्रयोग किया गया है तथा साक्षात्कार अनुसूची के माध्यम से तथ्यों का वर्गीकरण व समायोजन किया गया है।

उपरोक्त तथ्यों के सत्यापन से यह बात स्पष्ट होती है कि कामकाजी महिलाऐं इतनी परेशानियों के बावजूद भी अपनी नौकरी व परिवार के बाीच सन्तुलन बनाने में सक्षम पायी गयी अतः यह कहा जा सकता है कि आज की नारी सशक्त बनकर दोनों स्थानों में अपनी योग्यता कर रही हैं।

कूट शब्द- कामकाजी महिलाऐं, समायोजन, दोहरी भूमिका, सामंजस्य

प्रस्तावना-भारत में महिलाओं की स्थिति सदैव एक समान नहीं रही है। भारतीय समाज में विभिन्न कालों में स्त्रियां प्रारम्भ से ही पुरूषों के अधीन रहीं हैं चाहे वह शिक्षित हों या अशिक्षित भारत में महिलाओं की स्थिति सदैव एक समान नहीं रही इसमें युगों युगों से परिवर्तन होते रहे हैं उनकी स्थिति में वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक अनेक उतार-चढ़ाव आये हैं वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति उच्च थी उन्हें सभी अधिकार प्राप्त थे सम्पत्ति में उन्हें बराबरी का अधिकार थे परिवार तथा समाज में उन्हें सम्मान प्राप्त था। समाज में भारतीय महिलाओं की स्थिति में गिरावट मध्ययुगीन काल में अधिक आयी इन परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ महिलाओं ने राजनीति, साहितय, शिक्षा और धर्म के क्षेत्रों में सफलता प्राप्त की।

              अंग्रेजी शासन काल में आने के साथ ही भारतीय सामाजिक आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन आने लगे। महिलाओं का पुनरोत्थान का काल ब्रिटिश काल से ही शुरू होता है स्वतंत्रता प्राप्ती के बाद से सरकार द्वारा उनकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक स्थिति में सुधान लाने तथा उन्हें विकास की मुख्य धार मे लाने हेतु अनेक कल्याणकारी योजनाओं और विकासात्मक कार्यक्रमों का संचालन किया गया। आधुनिकीकरण पश्चिमीकरण नगरीकरण विज्ञान तथा तकनीकी शिक्षा के समुचित अवसर उपलब्ध कराकर परम्परागत भारत को परिवर्तित कर दिया। महिलाओं को उनके अधिकारों और दायित्वों के प्रति सजग करते हुए उनकी सोच में मूलभूत परिवर्तन लाने आर्थिक गतिविधियों में उनकी अभिरूचि उत्पन्न कर उन्हें आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से आत्मनिर्भर और स्वावलम्बन की ओर अग्रसर करने हेतु पिछले कुछ दशकों में विशेष प्रयास किए गए। जिसके फलस्वरूप जातिप्रथा, विवाह, खानपान पर प्रतिबन्ध पर्दा प्रथा आदि के कठोर नियमों में कमी आने लगी परिणामस्वरूप महिलाओं के मूल्यों, प्रस्थिति व भूमिकाओं में भी परिवर्तन आने लगे किन्तु पूर्णतः नहीं।

              यदि हम वर्तमान समय की बात करें तो आज भी लोग विचारों से स्वतंत्र नहीं हैं महिलाओं के लिए उनकी सोच अभी भी पारम्परिक ही है नारी पत्नी धर्म का पालन करे सहयोगिनी बनकर पति के कार्यों में हाथ बटाये बच्चों का पालन-पोषण करे और घर परिवार सम्भाले शहरी क्षेत्रों में जहां कामकाजी विवाहित महिलाओं की संख्या बढ़ती जा रही है साथ ही पारिवारिक भूमिका और समायोजन की समस्या भी उत्पन्न हो रही है इस उभरती हुई समस्या ने कई सामजशास्त्रीयों ने ध्यान इस ओर आकर्षित किया। शिक्षा के प्रचार प्रसार तथा कानूनी प्रावधानांे के कारण महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन हुए हैं इनकी सामाजिक व आर्थिक प्रस्थिति में परिवर्तन आये है।

आज नारी जीवन के हर क्षेत्र में कदम बढ़ा रही है आज की नारी अपने कर्तव्यों को गृह है बल्कि अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति भी सजग है, तथा स्वयं के प्रति भी सजग है और अपने अधिकारों के प्रति आवाज उठाने का जज्बा रखती है कोई सिर्फ यह कहकर उसके आत्मविश्वास का को जरा भी नहीं हिला सकता कि वह एक नारी है। शिक्षा चलते ही नारी जागरूक हुई और इस जागरूकता ने नारी के कार्यक्षेत्र की सीमा को घर की चारदीवारी से बाहर की दुनिया तक फैला दिया है। शिक्षा के प्रभाव के कारण ही आज नारी अपने कैरियर के प्रति संवेदनशील है इससे जहाँ वह अपने पैरों पर खड़ी हुई वहीं आर्थिक आत्मनिर्भरता ने उसे रचनात्मक कार्यों के लिए भी प्रेरित किया है। आज नारी घर में जितना कार्य करती है उसका मोल कोई नहीं समझता पुरूष उसे महिला की ड्यूटी मानकर निश्चित हो जाता है। यह उस स्थिति में भी है जब महिला कमा रही है महिलाऐंज ब घर से बाहर कार्य करती हैं तो उन्हें छः से दस घंटों तक बाहर रहना पड़ता है इस अवधि में उनके घर की व्यवस्था, बच्चों का पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा गृहणी के हिस्से ही आती है फिर भी नारी ने इसे बखूबी निभाया है।

              कहने का तात्पर्य है कि महिलाओं की सामाजिक व पारिवारिक स्थिति का निर्धारण आज भी परिवार व परम्पराओं के द्वारा ही होता है परन्तु आज महिलाऐं जो पुरूषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रही हैं तो उनके जीवन में परिवर्तन आना स्वभाविक है।

              मकाजी महिला शब्द का प्रयोग प्रायः नौकरी करने वाली महिला के सन्दर्भ में किया जाता है अर्थात वे महिलाऐं जो घरों के बाहर नियमित रूप से आर्थिक व व्यवसायिक गतिविधियों में व्यस्त हैं आज के भौतिकवादी परिवेश में पत्नी का कामकाजी होना एक अनिवार्यता सी बन गयी है घर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पति और पत्नी दोनों का ही कार्य करना आवश्यक हो गया है। कामकाजी महिलाओं को दोहरी भूमिकाओं को निभाना पड़ता है एक ओर पत्नी माँ, गृहणी की भूमिका दूसरी ओर नौकरी का कार्यभार इन दोनों भूमिकाओं के तनाव के कारण महिलाओं के वैवाहिक जीवन में संघर्ष का सामना करना पड़ता है।

कामकाजी महिलाओं को दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ता है घरेलू एवं बाह्य अर्थात उन्हें अपने घर परिवार, रिश्तेदार के साथ-साथ आफिस सबको ठीक से चलाना पड़ता है इस स्थिति में संघर्ष हो जाता है। एक कामकाजी महिला के सन्दर्भ में अगर हम भूमिका संघर्ष को देखें तो उसकों दोनों भूमिकाओं के दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता है यह सारे कर्तव्य उसे अकेले ही पूरे करने पड़ते हैं एैसी स्थिति में भूमिका संघर्ष सम्भव है।

समायोजन-परस्पर विरोधी आवश्यकताओं को संतुलित करने की व्यवहार सम्बन्धी प्रक्रिया को समायोजन कहते हैं इसी प्रकार पर्यावरण को कठिनाईयों एवं बाधाओं को ध्यान में रखते हुए व्यवहार में जो परिवर्ततन किए जाते हैं उन्हें समायोजन कहते हैं।

              समायोजन से तात्पर्य परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको बदलना जिससे उस परिवेश में बिना टकराव के जीवन-यापन किया जा सके समायोजन शब्द अनुकूलन शब्द के काफी करीब है या लगभग पर्यायवाची माना जाता है। अनुकूलन की क्षमता ही जीवों को विशेष परिस्थितियों में जीवित रखती है।

बोरिंग तथा लैगफिल्ड यह मानते हैं कि ‘‘समायोजन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों के संतुलन रखता है’’

              जहाँ तक कामकाजी नारी का प्रश्न है तो आधुनिक बोध के कारण आज आर्थिक स्वावलम्बन का भाव आधिक आया है पर आर्थिक स्वावलम्बन के लिए पारिवारिक दायित्वों एवं सम्बन्धों से वह पूर्णतः मुक्त नहीं हो पायी है फिर भी कामकाजी महिला अपने कार्य और घर की देखभाल दोनों के बीच समायोजन कर लेती है। कामकाजी महिलाओं में आत्म-मूल्यांकन की क्षमता होती है। अर्थात वे अपने गुण और दोष को अच्छी तरह से जानती हैं और परिस्थिति के अनुरूप अपना व्यवहार करती हैं। महिलाओं के कामकाजी दायित्वों के अतिरिक्त दायित्व कहा जाता है क्योंकि आज भी पारिवारिक दायित्व उसके मूल एवं प्राथमिक दायित्व समझे जाते हैं। नौकरी पेशा महिलाऐं अपने सीमित समयावधि में घर एवं बाहरी क्षेत्र के दोहरे उत्तरदायित्वों की किस प्रकार सन्तुलन कर पाती हैं यही समायोजन है।

              इस शोध के अध्ययन के अर्न्तगत यह जानने का प्रयास किया जायेगा कि कामकाजी महिलाओं के जीवन में इन दोहरी भूमिकाओं के निर्वहन के फलस्वरूप जो परिवर्तन आते हैं उनके बावजूद भी वह अपने परिवार में समायोजन लाने तथा उसे बनाए रखने में कितनी सफल हुई।

अध्ययन की आवश्यकता- शोधार्थिनी ने अपने अध्ययन में यह जानने का प्रयत्न किया है कि कामकाजी महिलाओं में पारिवारिक समायोजन है कि नहीं इस शोध पत्र के द्वारा कामकाजी महिलाओं के पारिवारिक समायोजन उनकी दोहरी भूमिका का निर्वहन व उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति का अध्ययन किया जायेगा।

              आज महिलायें शिक्षित होकर स्वावलम्बी हो गयी हैं साथ ही धनोपार्जन कर परिवार को आर्थिक सहयोग प्रदान कर रही हैं। जिससे उनके अन्दर आत्मविश्वास और उत्साह जाग्रत हुआ है।

              कामकाजी नारी के उपर घर व कार्यालय दोनों की जिम्मेदारी होती है इतना सब होने पर भी उसको कार्यालय व परिवार के कर्तव्यों के बीच समायोजन करना पड़ता है इन नई-नई चुनौतियों का प्रभाव नारी के व्यक्तिगत जीवन में क्या और कैसे पड़ रहा है इसका अध्ययन इस शोध पत्र के माध्यम से करेंगे।

संबंधित साहित्य का अध्ययन- नीरा देसाई ने अपनी पुस्तक ‘‘स्त्री बोध एण्ड सोशल प्रोग्रेस इन इंडिया’’ में बताया है कि पुरूषों के साथ ही साथ अब भारतीय महिलाऐं भी यह करने लगी है कि नारी के जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य केवल पति के प्रति कर्तव्यनिष्ठ रहने बच्चों को जन्म देने और गृहस्थी संभालने तक ही सीमित नहीं हैं किन्तु नारी जीवन का उद्देश्य इससे कही अधिक उंचा व गम्भीर है।

गुप्ता पदमिनी सेन- ने शिक्षित महिलाओं की स्थिति का अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला कि अब शिक्षित महिलाऐं जीवन के नवीन मूल्य उद्देश्य नये विचारों की खोज करने लगी है तथा अपने जीवन के मूल्यों एवं प्राथमिकताओं का निर्णय स्वयं लेने लगी हैं।

कपूर प्रमिला 1970-ने शिक्षित महिलाओं के सम्बन्ध में लिखा है कि अधिकांशतः पति का दृष्टिकोण यही रहता है कि परिवार का दायित्व और बच्चों का पालन-पोषण की जिम्मेदारी महिला की है उन्होने कहा कि जब पति-पत्नी नौकरी करने वाले हों तेा यह जरूरी नहीं हो जाता है कि दोनों एक दूसरे की सहायता करें पति की सोच ही एक दूसरे के सम्बन्धों को निर्धारित करती है।

अध्ययन के उद्देश्य-

1.       कामकाजी महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक स्थिति का अध्ययन करना।

2.       कामकाजी महिलाओं के पारिवारिक समायोजन में आने वाली कठिनाईयों का अध्ययन करना।

3.       कामकाजी महिलाओं की दोहरी भूमिका का अध्ययन करना।

4.       कामकाजी महिलाओं को परिवार से मिलने वाले सहयोग का अध्ययन करना।

इस शोध पत्र में गंगोत्री गर्ब्‍याल गर्ल्स राजकीय इण्टर कॉलेज पिथौरागढ़ में कार्यरत महिला शिक्षिकाओं का चुनाव किया गया।

इस शोध पत्र को पूर्ण करने के लिए असम्भावित निर्दशन के प्रकार जिसे सुविधाजनक निर्दशन कहते हैं का प्रयोग किया गया है। यह निर्दशन मितव्ययी तथा सुविधाजनक है

इस शोध पत्र को पूरा करने हेतु तथ्यों के संकलन में कुछ कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।

              इस अध्ययन के अर्न्तगत चयनित शिक्षिकाओं की सामाजिक पृष्ठभूमि का तथ्यों के साथ विवरण प्रस्तुत किया गया है कामकाजी शिक्षिकाओं के सम्बन्ध में साक्षात्कार अनुसूची के माध्यम से उनकी आर्थिक स्थिति जाति, दोहरी भूमिका, परिवार में समायोजन आदि का विश्लेषण किया गया है।

सामाजिक स्थिति

जाति

तालिका संख्या 01

क्र00

जति

संख्या

प्रतिशत

1

सामान्य

30

60%

2

अनुसूचितजाति

6

12%

3

अनूसूचितजनजाति

10

20%

4

0बी0सी0

4

8%

 

कुलयोग

50

100%

सारणी संख्या 1 के विश्लेषण के पश्चात यह ज्ञात हुआ है कि सर्वाधिक उत्तरदात्रियां सामान्य जाति 30(60%) की थी। दूसरे स्थान पर अनूसूचित जाति 6(12%) तीसरे स्थान पर अनूसूचित जनजाति 10(20%) तथा चौथे स्थान पर ओ0 बी0 सी0 4(8%) वर्ग की शिक्षिकाऐं पाई गई जो कि संख्या के दृष्टिकोण से कम थी।

धर्म- क्षेत्रीय कार्य के दौरान यह पता चला कि सभी 50 (100%) उत्तरदाता हिन्दु धर्म से सम्बन्धित हैं।

आर्थिक स्थिति

आय

तालिका संख्या 2

क्र00

जति

संख्या

प्रतिशत

1

40-50 हजार

20

40%

2

50-60 हजार

15

30%

3

60-70 हजार

10

20%

4

70 से अधिक

5

10%

 

कुलयोग

50

100%

 

उपरोक्त तालिका के अवलोकन के पश्चात यह पता चलत है कि सर्वाधिक शिक्षिकाऐं 20(40) 40-50 हजार आय समूह से सम्बन्धित हैं दूसरे स्थान पर 15(30%) शिक्षिकाऐं 50-60 हजार आय समूह से सम्बन्धित हैं तीसे स्थान पर 10(20%) शिक्षिकाऐं 60-70 हजार आय समूह से सम्बन्धित हैं तथा चौथे स्थान पर 5(10%) शिक्षिकाऐं 70 से अधिक आय समूह से सम्बन्धित हैं।

कार्यरत महिलाओं की दोहरी भूमिका

तालिका संख्या 3

दोहरी भूमिका में तनाव का अनुभव करती

क्र00

जति

संख्या

प्रतिशत

1

पूर्णतः सहमत

26

52

2

सहमत

20

40

3

अनिश्चित

4

8

 

कुल योग

50

100

 

उपरोक्त तालिका संख्या 3 के अध्ययन के पश्चात यह ज्ञात होता है कि 26(52%) शिक्षिकाऐं इस बात से पूर्णतः सहमत है कि दोहरी भूमिका में वह तनाव का अनुभव करती हैं 20(40%) शिक्षिकाऐं केवल सहमत हैं कि वह दोहरी भूमिका में तनाव का अनुभव करती हैं तथा 4(8%) शिक्षिकाऐं इस बात से अनिश्चित थीं।

घर और कार्य के बीच समायोजन

तलिका संख्या 4

घर और कार्यस्थल में समायोजन कर पाती

क्र00

जाति

संख्या

प्रतिशत

1

हाँ

50

10

2

नहीं

00

00

 

कुल योग

50

100

 

उपरोक्त सारणी संख्या 4 से स्पष्ट होता है कि  सभी 50(100ः) उत्तरदाता घर और कार्यस्थल के बीच समायोजन कर लेती हैं।

निष्कर्ष- उपयुक्त तथ्यों के विश्लेष्ण से यह स्पष्ट होता है कि कामकाजी महिलाऐं समाज के विकास में अपना योगदान दे रहीं हैं वह अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को सुदृण बनाने में सहयोग कर रही हैं। कामकाजी महिलाऐं घर व कार्यस्थल में भलि भांति समायोजन के साथ परिवार के दायित्वों को भी निष्ठापूर्वक पूर्ण कर रही हैं।

सुझाव-

1.       कामकाजी महिलाओं के परिवार द्वारा सहयोग मिलना चाहिए।

2.       कामकाजी महिलाओं को भी पुरूषों के समान सम्मान मिलना चाहिए।

3.       कामकाजी महिलाओं के कार्यों की भी प्रशंसा करनी चाहिए ताकि उनका मनोबल उंचा हों।

4.       महिलाओं के कार्य को पार्ट टाइम न समझकर उनके कार्य को भी पूरूषों के कार्य के समान महत्वपूर्ण समझना चाहिए।


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची


1.       1. देसाई नीरा-आधुनिक भारत में महिलाऐं

2.       2. कपूर प्रमिला-भारत में कामकाजी महिलाऐं

3.      3.  गुप्ता सेन पद्मिनी-भारत में कामकाजी महिलाऐं

4.       4. गुप्ता एस0 पी0- अनुसंधान संदर्शिका, शारदा पुस्तक भवन इलाहाबाद (2011)

5.       5. कुमार सिंह अरूण- मनोविज्ञान समाजशास्त्र तथा शिक्षा में शोध विधियां (2007)

6.       6. पवार रेनु-कार्यरत महिलाओं के पारिवारिक समायोजना का एक समाजशास्त्री अध्ययन, शोध पत्र (2017)

7.       7. भारद्वाज कमलेश-कामकाजी महिलाओं की भूमिका एवं संघर्ष-शोध पत्र (2017)

8.       8. डा0 बाजपेयी अनीता-प्राथमिक शिक्षिकाओं में भूमिका संघर्ष, शोध पत्र (2016)

9.       9. https://www.gkexams.com>ask>

 शोध छात्रा

अजरा सुल्ताना

लक्ष्मण सिंह महर राजकीय

स्नातकोत्तर महाविद्यालय

पिथौरागढ़ (उत्तराखण्ड)


 

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन कमल कुमार मीणा (अलवर)

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