- अभिषेक तिवारी
अब तक
का
जीवन
कुछ
ही
सेकंड
में
फ्लैशबैक
के
रूप
में
याद
आ
गया। मैं मेवाड़
के
एक
कस्बे
की
उपज
हूं, जो काफी
शर्मीले
किस्म
की है। इस
किस्म
ने
आज
तक
रिश्तेदारों
को
5, 6, 7 का
पहाड़ा
नही
सुनाया।
काफी
बार
खेल-खेल
में
घर
से
काफी
दूर
निकला
हूं
जिसे
घरवालों
ने
'भागना' कहा। एक
बच्चा जिसने स्कूल
में
गणित
के
टेस्ट
से
बचने
के
लिए
पेट
दर्द
का
ऑस्कर
जीतने
लायक
ऐसा
अभिनय
किया
था
कि
घर
वालों
को
भी
एक
बार
तो
लग
गया
था
कि
कोई
गंभीर
बीमारी
हो
गई
इसको। यह बात
अलग
है
कि
डॉक्टर
के
हाथ
में
इंजेक्शन
देखते
ही
ऐसा भागा कि
यह
भूल
गया
था
कि
उसे
पेट
दर्द
भी था।
एक
वो
दिन
था
जिसके
बाद
घर
वालों
का
मुझ
पर
विश्वास
जो
मरणासन्न
था, उसका मिलन
परमात्मा
से
हो
गया।
मेरी
प्रारंभिक
शिक्षा
पास
ही
के
एक
निजी
विद्यालय
में
हुई
जिसने
मेरी
शैक्षिक
नींव
को
बहुत
मजबूत
किया
जिसका
शुक्रगुजार
में
आज
भी
हूं,
किंतु
अनजाने
में
ही
सही
पर
सरकारी
स्कूलों
के
प्रति
घृणा
भी
वहीं
की
देन
है।
हमारे
विद्यालय
में
"सरकारी स्कूल से
हो
क्या?" एक ऐसा
व्यंग्य
था
जिसके
बाद
नजरें
झुकाने
के
अलावा
और
कोई
रास्ता
जान
नहीं
पड़ता
था।
नौवीं
और
दसवीं, जहां किशोरावस्था
मेरे
मन
और
तन
पर
दस्तक
दे
रही
थी,
मैंने
मेरा
दाखिला
एक
अन्य
निजी
विद्यालय
में
करवाया
जहां
मैंने
नई-नई
लड़कियां
देखी।
सोचने
लगा
कि
आठवीं
तक
मैं
कहां
था।
विज्ञान
की
दृष्टि
से
देखें
तो
यह
आकर्षण
किसी
किशोर
में
आना
एक
सामान्य
और
एक
महत्त्वपूर्ण
घटना
है,
किंतु
हमें
बताने
वाला
था
कौन? शर्मिला
बालक
उस
किशोर
रूप
को
धारण
कर
चुका
था, जिसने 9वीं के
वार्षिक
और
दसवीं
के
अर्द्धवार्षिक
पेपर
पूरे
इलाके
में
आउट
करवा
दिए।
उस
समय
सरकार
इंटरनेट
बंद
करके
भी
हमारे
क्या
ही
उखाड़
पाती।
एक
अच्छी
बात
यह
हुई
कि
8वीं
तक
हम
अपने-अपने
टिफिन
से
खाना
खाते
थे,
नवीं
में
आते-आते
हम
दूसरों
के
टिफिन
छीन
कर
खाने
लगे
थे।
एक
लड़की
आए
दिन
मेरी
पसंदीदा
आलू
की
सब्जी
लाती
थी
जिसको
मैं
प्यार
समझ
बैठा
था।
बाद
में
पता
चला
कि समय के
अभाव
के
कारण
आलू
के
अलावा
कुछ
बना
नहीं
पाती
थी।
हमें
लड़की
से
मित्रता
व
प्रेम
के
मध्य
फर्क
किसी
ने
बताया
ही
नहीं।
अध्यापक
सिलेबस
पूरा
कराने
को
अध्यापन
व
उनका
धर्म
समझते
थे।
यह
वह
समय भी था जब
मुझे
होटल
और
दुकानों
के
माध्यम
से
राजनीतिक
समझ
होने
लगी
थी।
मैं
हमारे
ग्रुप
का
एक
मंजा
हुआ
चतुर
राजनीतिज्ञ
था
जिसको
कांग्रेस-बीजेपी
के
अलावा
आम
आदमी
पार्टी
के
बारे
में
भी
पता
था।
दसवीं
की
परीक्षा
हुई।
दसवीं
बोर्ड
अंतिम
पेपर
के
दिन
हम
सब
चिल्लाते
हुए,
टेबल
को
नीचे
गिराते
हुए
परीक्षा-कक्ष
से
भांगड़ा, घूमर जैसे
सामाजिक
एकता
के
परिचायक
कई
नृत्यों
का
प्रदर्शन
करते
हुए
बाहर
आए,
क्योंकि
सुना
था
10वीं
पास
कर
लो,
उसके
बाद
मजे
हैं।
वो
मजे
है
या
कहने
वाले
मजे
ले
रहे
थे,
अभी
तक
समझ
नही
पाया।
मैंने
गणित
के
अध्यापक
से
कहा
था,
"गुरु जी, अब
गणित
के
हाथ
तक
न
लगाऊ
मैं
तो।"
मैं
अपनी
धुन
में
कुछ
यूं
था
कि
उन्होंने
बाद
में
क्या
कहा
मुझे
याद
नहीं।
दसवीं
की
परीक्षाओं
के
बाद
अखबार
पढ़ने
की
आदत
लगी।
मेरी
इस
आदत
का
भी
दुनिया
वालों
व
पूंजीवादियों
ने
गलत
फायदा
उठाया।
मुख्य
पृष्ठ
पर
कोचिंग
के
विज्ञापन
वह
भी
ऐसे
लाल
भड़कीले
अक्षरों
में, कौन देता
है
भाई? इस
उम्र
में
हर
एक
किशोर
के
मन
में
यह
भाव
होता
है
कि
उसके
आसपास
के
लोग
घर
परिवार
के
लोग
सभी
उसका
दमन
कर
रहे
हैं।
मैं
भी
इसी
भावना
से
बोला,
"मुझे
डॉक्टर
बनना
है, बाहर
पढ़ने
जाना
है।" घरवाले
खुश
और
मैं
तो
ज्यादा
इस
लिए
खुश
था
कि
बाहर
रहने
की
शुरुआत
उस
शहर
से
कर
रहा
हूं
जिसे
पूर्व
का
वेनिस
कहा
जाता
है।
जाने
से
पहले
मुझ
में
जरा
सी
समझ
नहीं
थी।
जब
कोचिंग
में
गया,
तब
पता
चला
कि
जीवविज्ञान
पढ़ना
पड़ेगा,
वरना
मुझे
लग
रहा
था
कि
कोई
दूसरी
भी
पढ़ाई
होती
है।
बाद
में
और
पता
चला
कि
भौतिक विज्ञान व रसायन
विज्ञान
भी
दिमाग में भरना पड़ेगा।
फँस
गया।
इसमें मैं हमारी यानी विद्यार्थियों की गलती नही मानता, क्योंकि हमारे पास साधन नही थे। स्कूल, घर, बड़े भाई-बहन जरूर है, पर हमे कैरियर गाइडेंस बिल्कुल नही दी गई। मेरी आस पास के कक्षा वाले आज भी भटक रहें है अपने जीविकोपार्जन के लिए। वे सरकार, और उनके द्वारा ली जाने वाली परीक्षा पर निर्भर है। शायद वे उनके वोट बैंक भी बन चुके है निर्भरता के कारण।
वह
दिन
आया
जब
मैंने
घर
को
सराय
समझकर
एक
बड़े
मिशन
के
लिए बाहर कूंच किया
था।
जब हॉस्टल के लिए निकल रहा था तो दादी, बहन,
मां
और
मेरे
गालों
पर
स्पर्श
होते
हुए
आंसू
बह
रहे
थे।
मेरे
कानों
में
घर
के
पुरुष
सदस्यों
का
‘विजय भव:’ उद्घोष
अभी
भी
गूंज
रहा
है। मैं खुश दिखना चाह रहा था, लेकिन रत्ती भर भी झूठी खुशी मेरे चेहरे पर उकेर नही पा रहा था। हॉस्टल
पहुंच
गया। जब हॉस्टल
से
घरवाले, गांव जानें लगे तब
गांव
आने
तक
उनको रास्ते में ही 53
बार
फोन
किया और बस यही पूछता "कहा तक पहुंचे? मुझे वापस लेने आ जाओ न।"
एक
विद्यार्थी
को
किसी
भी
विषय
की
विद्या
से
ज्यादा
जीवन
विद्या
की
जरूरत
ज्यादा होती है
और
यह
मैंने
वहां
जाकर
महसूस
किया। मुझे खुद में ही लावारिस जैसी फीलिंग आ रही थी। मुझे बाहर जाने से पहले बताया ही नहीं गया की कैसे ढलना है, कैसे बच के रहना है। एक चूज़ा जिस
पर
कभी
आंच
न
आई, जब वह विरासत में मिले घोंसले से बाहर निकलकर उसके
जैसे
बहुत
से
चूजों
के
मध्य
गया
तो
उसे
जीवन
में
पहली
बार घोंसले बनाने
वाले
का
महत्त्व, प्रेम
समझ
आया।
उसे
समझ
आया
कि
जिस घोंसले में
जो
टहनियां
उसे
कभी
चुभ
रही
थी, आज वो
चुभन
के
लिए
भी
नही
है।
मेरे
बारे
में
हॉस्टल
के
कोचिंग
वालों
को
यह
कहते
हुए
सुना
था
कि
यह
नहीं
टिक
पाएगा, काफी
गुमसुम
रहता
है, बोलता
नहीं
है।
लेकिन
मैं
एक
ऐसे
हॉस्टल
में
रात
को
मैगी
बनाकर
खाता
व
दूसरों
को
खिलाता
था
जहां
पर
इलेक्ट्रॉनिक
चूल्हा
तो
छोड़ो,
स्मार्टफोन
तक
एलाऊ
नहीं
था। राजनेताओं की तरह बिना बोले, कांड करते रहना कला है।
समय
बीतते
बीतते
कोचिंग
वालों
का
प्रेशर
और
रिश्तेदारों
के
तानों
का
भार
इतना
बढ़
गया
था
कि
मैंने
यह
भार
पंखे
से
लटककर
कम
करने
की
कोशिश
की।
अब
पता
नहीं
उस
समय
वार्डन
कमरे
की
तरफ
क्यों
आ
गया
और
मैं
यह
नहीं
कर
पाया। मैंने मेरे आसपास वालो को इतना भी 'अपना' नही समझा कि मैं मन का दर्द उनसे साझा कर पाऊं। मुझे बस यही लगता रहा कि कमी मुझमें है। मैं हूं निरर्थक, गलती मेरी ही है।
जब
एक
बच्चा
गांव
से
शहर
जाता
है
तो
वह
केवल
सामान
ढोकर
नहीं
ले
जाता।
वह
ले
जाता
है
घरवालों
का
रिटायरमेंट
और
पेंशन
एग्रीमेंट।
बहन
के
महंगे
कपड़ों
का
शौक।
मां
के
डिजाइनर
बाजूबंद
का
कच्चा
चित्र।
पापा
के
शहर
में
घर
लेने
का
ख्वाब
और
इन
सब
के
चक्रों
में
खुद
को
शहर
ले
जाना
भूल
जाता
है।
कहीं
न
कहीं वो शहरी आबो हवा को उसके ईंधन के रूप में काम लेता है, किंतु उससे पहले उस आबो हवा का जहरीला धुआं उसके अंदर, उसके
मन
मस्तिष्क
तक
पहुंच जाता है। कुछ
बच्चे
जीवन
विद्या
नामक
मास्क
का
उपयोग
करना
भूल
जाते
हैं। अब करे भी कैसे? पता ही नहीं होता की बचाव के लिए मास्क भी मौजूद है संसार में।
अभी तक हर किस्से के अंत में एक समान वक्तव्य है, "पता ही नही था, कैसे करता।" ये मेरे जैसे कई नौजवान जो भारत का भविष्य कहलाते है, उनकी अंतरात्मा की आवाज है। खुद को इस समय में ठगा हुआ महसूस करते है कि हमे क्या-क्या नहीं बताया गया। हमे क्यों नही बताया गया कि राजनेता हमारा फायदा उठा रहे है? क्यों नही बताया गया कि आकर्षण और वासना में फर्क होता है? क्यों नही बताया गया कि डॉक्टर, इंजीनियर के अलावा भी दुनिया है जो उतनी ही खूबसूरत है, जितना डॉक्टर इंजीनियर की दुनिया को मानते है? क्यों नही बताया गया कि जात-पात की बीमारी एक जानबुझ कर फैलाई गई बीमारी हैं? क्यों नही बताया गया कि सिर्फ घर छोड़ना आपके सपने पूरे होने की गारंटी नहीं है।
इस बीच लॉकडाउन आया और खुद से जुड़ने का मौका मिला। इस
दरमियान सोशल मीडिया से दूर रहा कुछ समय। राजनीति लगभग दूषित हो चुकी है, हम सब एजेंडा है, खबरे बिकाऊ है, नेता भगवान नही है, पूरी दुनिया हमारा कैरियर है, जीवन-मौत का कोई मजहब नहीं होता है, इन सब बातों को खुद से ही सीखा और सीखने का निश्चय किया।
संचार
क्रांति
के
कारण
इंटरनेट
हमारे
मध्य
पहुंचा
तो
पता
चला
कि
गांव
और
शहर
सब
मेरे
मोबाइल
के
अंदर
है।
वह
घर
का
व्हाट्सएप
ग्रुप
मुझे
गांव
की
याद
दिलाता
तो
यूट्यूब
पर
शहर
का
अनुभव
होता
है। पर मुझे बाद में पता चला कि मुझे " हर पल कुछ नया " की बीमारी
लग
चुकी
है
जिसका संक्रमण केंद्र इंस्टाग्राम, रील्स और 30-30 सेकंड के छोटे वीडियो थे। यह बीमारी
हम
युवाओं
को
एक
ऐसे
यंत्र
में
बदल
रही
है
जिसके
कारण
हमारा
फोकस
भी
चंद
पलों
की
कहानी
में
सिमट
चुका
है।
आज
के
युवा
की
इस
कमजोरी
का
फायदा
राजनीतिक
दल
बड़ी
चतुराई
से
उठाते
हैं।
महज
15-20 सेकंड
में
आधी
अधूरी
न्यूज़
देखकर
अपना
वोट
बैंक
तैयार
करते
हैं।
कॉलेज
में
लगभग
युवा
उसी
प्रकार
के
हैं
जो
स्वयं
को
धर्म
का
रक्षक
मानते
हैं
तथा
इस
धर्म
यज्ञ
में
अपनी
आहुति
व्हाट्सएप
स्टेटस
लगाकर
देते
हैं।
हमारी पीढ़ी 'स्व' से काफी दूर जा रही है। अब किसी को खाली बैठना ही नही, सिर्फ खाली बैठ कर मन में क्या दबा हुआ है, उसे बाहर निकालना ही नही, दोस्तो के साथ चाय पीते हुए भी रिल्स देख रहे है, "दोस्ती बड़ी चीज है, ये पल वापस नहीं आयेंगे।" इतने
असहिष्णु
हैं
कि
किसी
मूवी
का
क्लाइमैक्स
पहले
देखते
हैं
बाद
में
ट्रेलर। युवाओं को, उनके आदर्श जो कहे वो मान लेते
हैं।
कितने
आज्ञाकारी
प्रतीत
होते
हैं,
है
न? तो हम
आज्ञाकारिता
और
अंधभक्ति
में
भेद
कैसे
करेंगे?
शिक्षा
के
नाम
पर
कॉलेज
में
कुछ
ज्यादा
खास
नहीं
है,
लेकिन
सांस्कृतिक
समारोह
बहुत
होते
हैं
जिनसे
बहुत
कुछ
सीखने
को
मिलता
है।
वर्तमान
में
अजनबियों
से
बात
करना
अब
मेरा
स्वभाव
बन
गया
है।
उनके
सुख-दुख
कब
मेरे
बन
जाते
हैं,
यह
मुझे
पता
ही
नहीं
चलता
और
कब
वह
मुझे
छल
कर
चले
जाते
हैं,
यह
बहुत
देर
बाद
पता
चलता
है।
लेकिन
तब
तक
खून
सूख
चुका
होता
है।
मैं
मेरे
अन्य
साथियों
की
तरह
टीचर
बाय
चांस
न
होकर
टीचर
बाय
चॉइस
हूं।
आज
का
युवा
संगीत
मूल
वाद्य
यंत्र
से
काफी
विमुख
हो
चला
है,
लेकिन
"ओल्ड
इस
गोल्ड" के
नाम
पर
शो
ऑफ
करने
से
नहीं
चूकता।
छोटे
या
महंगे
कपड़े
को
पहनना
उस
का
शौक
नहीं,
मजबूरी
बन
कर
रह
गई
है। किसी लड़की का रिप्लाई न
आने पर उसको स्वयं के अस्तित्व पर संदेह होता हैं। फोटो याद संजोने के लिए नही, लाइक्स के लिए लेता है।
जब
युवा
संबंधों
में
सामंजस्य
नहीं
बिठा
पाता
तो
परेशान
होता
है
,वह
दूसरों
में
दोष
देखता है। वैसे
दोष
है
भी।
उसके
शिक्षक
का, घर
वालों
का
कि
उन्होंने
उसे
शारीरिक
युवा
को
अभी
तक
मानसिक
युवा
बनाने
में
कोई
मदद
नहीं
की। भारत का प्रचार "विश्व का सबसे युवा देश" के रूप मे जोर-शोर से किया जा रहा है, लेकिन
वास्तविकता
के
पोस्टर
छापने
वाला
कारखाना
आज
है
क्या?
वास्तविकता
कुछ
यूं
है
कि
युवा
कैरियर
से
ज्यादा
विपरीत
लिंगी
कामवासना
के
मध्य
फंसा
है
और
मासूमियत
से
निहार
रहा
है
उस
हाथ
को
जो
उसे
बचाने
आए।
वह
खुद
को
बीयर
बार
में
कैद
कर
खुश
है। विश्व को घर नही मानता। वह समस्या वो देख रहा है उसको दूर करने के लिए हाथ पैर तक नही चलता। जाति विशेष
का
चोला
पहन
लेता
है
। जिसके लिए
आज
भी
मंदिर-मस्जिद
जरूरी
है,
न
कि
पुस्तकालय।
जो
आज
भी
बाहर
की
भीड़
से
बचने
के
लिए
यह
इयरफोन
पहने
है
लेकिन
उस
ईयर
फोन
में
क्या
बज
रहा
है,
उसे
खुद
नहीं
पता। जैसे महंगी से महंगी कार भी इंजन के बिना निरर्थक है, वैसे ही देश में कितने ही युवा हो, यदि उनका इंजन ही खराब है तो विश्वगुरु एक "लोहे का चना" है।
बीएड प्रशिक्षणार्थी, विजन स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट, चित्तौड़गढ़
सम्पर्क : 77376 84411
इस लेख को पढ़ते वक्त ऐसा लगा कि मैं अपने किशोर जीवन की यात्रा कर रहा हूं। विद्यालय जीवन में जिस तरह की मौलिक पृवत्ति होती है उसके दर्शन यहां हो जाते हैं। इतनी साफगोई से बात कहना हर किसी के बस की बात नहीं है।
जवाब देंहटाएंअनेकानेक धन्यवाद जी उत्साहवर्धन हेतु।
हटाएंअभिषेक जी!आप विचारवान व्यक्ति हैं।रिश्ते, समाज, राजनीति, स्कूल ,अध्यापक,अभिभावक सब पर आपकी दृष्टि है।यही बात इस आत्मकथ्य को विस्तार देता है।अच्छे लेखन के लिए बधाई स्वीकारें। ✒️हेमंत कुमार (एक पाठक)
जवाब देंहटाएंधन्यवाद हेमंत जी। आपके उत्तम स्वास्थ्य की मंगलकामनाएं।
हटाएंएक ऐसे हॉस्टल में रात को मैगी बनाकर खाता व दूसरों को खिलाता था जहां पर इलेक्ट्रॉनिक चूल्हा तो छोड़ो, स्मार्टफोन तक एलाऊ नहीं था। राजनेताओं की तरह बिना बोले, कांड करते रहना कला है। 😁👍
जवाब देंहटाएं🌚
हटाएंबहुत ख़ूब भैया जी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंbadi prasannta ho rahi hai apne sir ki yeh atmakatha itne samay baad padh kar , asha hai ki woh hame pehchane
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें