शोध आलेख : ‘आत्मजयी’ में मिथकीय कथा का स्वरूप विश्लेषण / मनीष कुमार

‘आत्मजयी’ में मिथकीय कथा का स्वरूप विश्लेषण 
मनीष कुमार 

शोध सार : भारतीय साहित्य में ‘मिथक’ आधुनिकता की देन है और हिंदी में मिथकीय चेतना का प्रथम प्रयोग धर्मी होने का गौरव आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। कुँवर नारायण द्वारा रचित खंडकाव्य ‘आत्मजयी’ (1965) अखिल भारतीय स्तर पर प्रशंसित एक असाधारण कृति है  तथा ‘आत्मजयी’ का मूल कथ्य ‘कठोपनिषद’ के नचिकेता प्रसंग पर आधारित है।  कवि द्वारा रचित यह खंडकाव्य भले ही वर्ष 1965 में प्रकाशित हुई है, किंतु काव्य में वर्णित औपनिषदिक कथा कवि के तत्कालीन समय और वर्तमान समय दोनों को समृध्द करता है। एक प्रकार से इस आख्यान के पुरा-कथात्मक पक्ष को कवि ने आज के मनुष्य की जटिल मनः स्थितियों को एक बेहतर अभिव्यक्ति देने का अपूर्व साधन बनाया है।  चूँकि यही कारण है कि कुँवर नारायण के काव्य-संसार में जितनी मजबूती से ‘मिथक’ अपना स्थान ग्रहण किया हुआ है उतनी ही सशक्त रूप में आधुनिकता भी।  अस्तु इनके काव्य में मिथक और आधुनिकता दोनों साथ-साथ चलते हैं। 

शब्द बीज : मिथक, मिथक का स्वरूप, आधुनिकता, औपनिषदिक नचिकेता की स्वतंत्र अभिव्यक्ति आदि।   

मूल आलेख : नयी कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कवि कुँवर नारायण द्वारा रचित खंडकाव्य ‘आत्मजयी’ (1965) का मूल कथ्य कठोपनिषद के नचिकेता प्रसंग पर आधारित है।  इस आख्यान के पुरा-कथात्मक पक्ष को कवि ने आज के मनुष्य की जटिल मनः स्थितियों को एक बेहतर अभिव्यक्ति देने का अपूर्व साधन बनाया है। चूँकि कुँवर नारायण के काव्य-संसार में जितनी मजबूती से ‘मिथक’ अपना स्थान ग्रहण किया हुआ है उतनी ही सशक्त रूप में आधुनिकता भी। अस्तु इनके काव्य में मिथक और आधुनिकता दोनों साथ-साथ चलते हैं।  पुरुषोत्तम अग्रवाल के शब्दों में “मिथकों के प्रति गंभीर संवेदनशीलता रखते हुए कुँवर नारायण उन्हें न तो जबरन इतिहास बनाते हैं, न उनमें अपने समकालीन राजनीतिक आग्रहों को ठूँसते हैं”। ‘आत्मजयी’ में वाजश्रवा मिथक की ओर से एक श्रेष्ठ अभिनेता का अभिनय करता है, तो नचिकेता आधुनिक मनुष्य के रूप में एक श्रेष्ठ  नायक का अभिनय भी करता है।  इसके संबंध में कवि ‘आत्मजयी’ की भूमिका में लिखते हैं- “’आत्मजयी’ में उठाई गई समस्या मुख्यतः एक विचारशील व्यक्ति की समस्या है। तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति-भर ही उसके लिए पर्याप्त नहीं। उसके अंदर वह बृहतर जिज्ञासा है जिसके लिए केवल सुखी जीना काफ़ी नहीं, सार्थक जीना जरूरी है। यह जिज्ञासा ही उसे उन मनुष्यों की कोटि में रखती है जिन्होंने सत्य की खोज में अपने हित को गौण माना और ऐंद्रिय सुखों के आधार पर ही जीवन से समझौता नहीं किया, बल्कि उन चरम लक्ष्य के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया जो उन्हें पाने के लिए योग्य लगा”।

‘आत्मजयी’ में नचिकेता की अभिव्यक्ति कहीं–न-कहीं कवि की स्वतंत्र अभिव्यक्ति लगती है; मानो कवि अपने पिता से कह रहा है-

“पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं,
क्योंकि तुम ‘अपने’ हित के आगे नहीं सोच पा रहे,
न ‘अपने’ हित को ही अपने सुख के आगे।
तुम वर्तमान को संज्ञा तो देते हो पर महत्त्व नहीं।
तुम्हारे पास जो है, उसे ही बार- बार पाते हो
और सिध्द नहीं कर पाते कि उसने
तुम्हें संतुष्ट किया।
इसीलिए तुम्हारी देन से तुम्हारी ही तरह
फिर पाने वाला तृप्त नहीं होता,
तुम्हारे पास जो है, उससे और अधिक चाहता है,
विश्वास नहीं करता कि तुम इतना ही दे सकते हो”।

कविता में यह वैचारिक मतभेद वर्तमान मनुष्य का मतभेद है। मिथक से आधुनिकता की ओर अग्रसर होने वाले मनुष्य का विवादित बयान है।  ‘आधुनिकता’ मनुष्य के मन को खोलती है।  आधुनिकता मनुष्य की तर्कशील शक्ति को मजबूत करता है। यही कारण है कि ‘आत्मजयी’ का नचिकेता अपने पिता वाजश्रवा से प्रश्न करने में किंचित भयभीत नहीं होता है। अर्थात् कहा जा सकता है कि औपनिषदिक मनुष्य का भौतिक मनुष्य के साथ मतभेद है और यही मतभेद ‘आत्मजयी’ में मिथक और आधुनिकता के संबंध को पूरा भी करता है। साहित्य में ‘आधुनिकता’ का प्रधान और मूल आधार मानते हुए डॉ॰ जगदीश गुप्त लिखते हैं, “आधुनिकता अपने सही अर्थ में उस विवेकपूर्ण दृष्टिकोण से उपजती है, जो व्यक्ति को वास्तविक युग-बोध प्रदान करने के साथ-साथ अधिक दायित्वशील सक्रिय और मानवीय बनाता है”।  यहाँ कहा जा सकता है कि ‘आत्मजयी’ का नचिकेता अधिक दायित्वशील सक्रिय और मानवीय है।  
  
ध्यातव्य है कि आगे बढ़ने से पहले मिथकीय कथा का अर्थ और स्वरूप विश्लेषण पर बात करना उचित होगा, जो इस प्रकार है- 

मिथक : अर्थ एवं स्वरूपसामान्य रूप से ‘मिथक’ अंग्रेजी के ‘मिथ’ शब्द का हिंदी पर्याय है और अंग्रेजी का ‘मिथ’ शब्द यूनानी भाषा के ‘मिथोस’ (Mythos) से व्युत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है ‘आप्तवाचन’ अथवा ‘अतर्क्य कथन’ अरस्तू ने कथा-विधान (फ़ेबिल) के अर्थ में इसका प्रयोग किया है। हिंदी में ‘मिथक’ के लिए ‘कल्पकथा’, ‘पुराकथा’, ‘पुरावृत्त’, ‘देवकथा’, ‘धर्मकथा’ इत्यादि अन्य शब्द का भी प्रयोग हुआ है, किंतु अब ‘मिथक’ ही एक प्रकार से रूढ़ हो गया है। 

‘मिथक’ के संबंध में भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों का अपना अलग-अलग मत है - डॉ॰ नगेंद्र के अनुसार- “सामान्य रूप से मिथक का अर्थ है ऐसी परंपरागत कथा जिसका संबंध अतिप्राकृत घटनाओं और भावों से होता है। मिथक मूलतः आदिम मानव के समष्टि-मन की सृष्टि है जिसमें चेतन की अपेक्षा अचेतन प्रक्रिया का प्राधान्य रहता है”।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने मिथक की व्याख्या करते हुए लिखा है, “रूपगत सुंदरता को माधुर्य (मिठास) और लावण्य(नमकीन) कहना बिलकुल झूठ है, क्योंकि रूप न तो मीठा होता है न नमकीन, लेकिन फिर भी कहना पड़ता है, क्योंकि अंतर्जगत के भावों को बहिर्जगत की भाषा में व्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है। सच पूछिए तो यही मिथक तत्त्व है।  ...मिथक तत्त्व वास्तव में भाषा का पूरक है।  सारी भाषा इसके बल पर खड़ी है। आदि मानव के चित्र में संचित अनेक अनुभूतियाँ मिथक के रूप में प्रकट होने के लिए व्याकुल रहती हैं।  ...मिथक वस्तुतः उस सामूहिक मानव की भाव-निर्मात्री शक्ति की अभिव्यक्ति है जिसे कुछ मनोविज्ञानी ‘आर्किटाइजल इमेज(आद्यबिंब)’ कहकर संतोष कर लेते हैं”।

यहाँ मिथक अध्येता हिंदी के वरिष्ठ आलोचक रमेशकुंतल मेघ के शब्दों में कहना उचित होगा कि, “मिथक होमोसेपियेंस अर्थात् मानव के विकास के साथ ही उन्मीलित हुई।  मिथक और शैल गुफाचित्र, फिर भाषा और मुखौटे उद्भूत हुए। बाद में सभ्यता और समाज, संस्कृति और कर्मकांडी व्यवहार इनके ही अनुवर्ती रहे हैं। आज भी विश्वमंच पर इन्द्र या विष्णु या शिव और दुर्गा, जियास या एफ्रोडाइट, इंटी या विराकोचा, आइसिस या हाथोर कहाँ हैं? किंतु आज, अभी, यहाँ, वहाँ वे सभी तो सर्वव्यापी हैं। यही मिथक का अनादि-अनंतवाला मिथकेतिहास है”।  ...मिथक छोटे से ‘वृत्त’ से लेकर भव्य वृत्तांत तक की समावेशी है। यह ऐतिहासिक तथा ज़मीनी सामाजिकता और हकीकत का अतिक्रमण करती है। मिथक में पवित्र और पार्थिव, उदात्त और भयाक्रांत, इहलौकिक तथा पारलौकिक के अंतर्विरोधों का संगम तथा द्वयता का आभास है”।

वहीं पाश्चात्य मिथककार दुर्खीम तथा अन्य समाजशास्त्रियों का कथन है कि, “मिथक सामाजिक व्यवस्था के सरंक्षण तथा संचालन के लिए गढ़े गए हैं। ये किसी मानव समाज की सामूहिक अनुभूतियों से उपजाते हैं और उसे एक इकाई में भी बाँधते हैं। यह अपने आप में एक समाजशास्त्रीय तथ्य तो है ही, समाज तथा उसके विकास के अध्ययन में भी यह सहायक होता है”।

वस्तुतः भारत एवं पाश्चात्य देश के विद्वानों के अनुसार मिथक संपूर्ण समाज, ज्ञान-विज्ञान व भाषा सृजन का आधार है। यही कारण है कि किसी भी देश की सांस्कृतिक विरासत को लिखित कम मौखिक रूप में अधिक बचाए रखने का काम उस देश का मिथकीय साहित्य के द्वारा ही किया जाता है।   

मिथक का स्वरूप 
सामान्य तौर पर विद्वानों ने ‘मिथक’ को तीन भागों में बाँटा है- 
  • सृष्टि संबंधी मिथक,
  • प्रलय संबंधी मिथक और 
  • देवताओं के प्रणयाचार संबंधी मिथक 

डॉ॰ नगेंद्र मिथक का वर्गीकरण करते हुए दो वर्ग किए हैं- 
  • प्राकृतिक मिथक और 
  • धार्मिक मिथक

उन्होंने ‘धार्मिक मिथक’ को दो हिस्सों में बाँटा है-
  • उपास्य देवों के स्वरूप से संबंद्ध मिथक और 
  • कर्मकांड संबंधी मिथक 

ध्यातव्य है कि ‘आत्मजयी’ का कथ्य ‘कर्मकांड संबंधी मिथक’ पर आधृत है जिसका नचिकेता युवा पीढ़ी की ओर से कमान थामे हुए हैं, तो वाजश्रवा वृध्द पिता की ओर से। कवि ने खंडकाव्य में दो युगों के मनुष्य को एक मंच पर लाकर उसके स्वतंत्र अभिव्यक्ति को उजागर किया है। नचिकेता नवीन युवाओं के आगे चलने वाला नायक है तो वाजश्रवा एक जिम्मेदार पिता के मार्ग पर चलने वाले श्रेष्ठ पिता का अभिनय कर रहा है। दोनों के बीच अंतर केवल इतना ही है कि एक बाह्य-आडंबर से ग्रस्त है तो दूसरा बाह्य-आडंबर के बिलकुल विपरीत। उसका हठ एक दृढ़ जिज्ञासु का हठ है जिसे कोई भी सांसारिक वरदान डिगा नहीं पाता। और वह स्पष्ट शब्दों मे कहता है- 

“रनिवास मे यह असमय विलाप कैसा?
मनहूस काली आकृतियाँ खंभों से लगी हुई...
यह सब क्या मेरा भ्रम है? या
इन्हें न देख पाना तुम्हारा?
रहस्यमय कानाफूसियाँ,
पेचीदा मंत्र-जाप? या गुप्त मंत्रणाएँ?
यह दान? या अज्ञात वधिकों से कोई अशुभ समौझता?
पिता,
ये सब कैसे संकेत हैं जो आश्वस्त नहीं करते-
ये कैसी स्तुतियाँ हैं जिनसे
पाखंड की गंध आती है?”

नचिकेता अपने पिता वाजश्रवा के बाह्य-आडंबर से बिलकुल समझौता नहीं करता है। उल्टे ‘पेचिंदा मंत्र जाप’, ‘गुप्त मंत्रणाएं’, ‘स्तुतियाँ’ आदि पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं। लताश्री के अनुसार, “कुँवर नारायण मानवीय मूल्यों की तालाश में रहने वाले कवि हैं। एक ओर तो उनकी कविता में आधुनिक भाव-बोध है, तो दूसरी ओर तर्क, विचार एवं चिंतन की प्रधानता होने से उसमें वैज्ञानिक बोध भी समाविष्ट हुआ है”।  कवि लिखते हैं- “ नचिकेता की चिंता भी अमर जीवन की चिंता है। ‘अमर जीवन’ से तात्पर्य उन अमर जीवन-मूल्यों से है जो व्यक्ति-जगत का अतिक्रमण करके सार्वकालिक और सार्वजनीन बन जाते हैं। नचिकेता इस असाधारण खोज के परिणामों के लिए तैयार है। वह अपने आपको इस धोखे में नहीं रखता कि सत्य से उसे सामान्य अर्थों में सुख ही मिलेगा; लेकिन उसके बिना उसे किसी भी अर्थ में संतोष मिल सकेगा, इस बारे में उसे घातक संदेह है। 28 शीर्षकों में बंटे इसे प्रबंध काव्य में कवि ने मूल्यों की सैध्दांतिक विवेचना और दार्शनिक व्याख्या की है। कवि की यह दार्शनिक व्याख्या उपनिषदिक(औपनिषदिक) होते हुए व्यावहारिक और व्यक्ति प्रधान है, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्र अभिव्यक्ति आज के मनुष्य के संदर्भ में सृजित है...”।  आगे कवि ने नचिकेता के संबंध में लिखा है- “नचिकेता अपना सारा जीवन यम, या काल, या समय को सौंप देता है। दूसरे शब्दों में वह अपनी चेतना को काय-सापेक्ष समय से मुक्त कर लेता है : वह विशुद्ध ‘अस्तित्वबोध’ रह जाता है जिसे ‘आत्मा’ कहा जा सकता है”।
उदाहरण के लिए –

“यह भी संभव है कि एक पशु दूसरे को खा जाए
यह भी संभव है कि एक मनुष्य...।
अस्तित्व एक घातक तर्क भी हो सकता है
एक पाशविक भावना भी- इस तरह
कि युध्द और कलह ज़रूरी लगे,
स्वार्थ और छल से जीना मजबूरी लगे।“

‘कठोपनिषद’ का वाजश्रवा और कुँवर नारायण का वाजश्रवा दोनों आध्यात्मिक दृष्टि से वैदिक है, जबकि नचिकेता औपनिषदिक। परिणाम यह होता है कि, नचिकेता अपने पिता वाजश्रवा के ‘आस्थाबोध’ का बेहिचक चैंलेंज करता है यही चैलेंज आधुनिकता से भरे ‘अस्तित्वबोध’ का मार्ग प्रशस्त करता है-

“मेरी आस्था काँप उठता है।
मैं उसे वापस लेता हूँ।
नहीं चाहिए तुम्हारा यह आश्वासन
जो केवल हिंसा से अपने को सिध्द कर सकता है।
नहीं चाहिए वह विश्वास, जिसकी चरम परिणति हत्या हो।
मैं अपनी आस्था में अधिक सहिष्णु हूँ,
अपनी नास्तिकता में अधिक धार्मिक,
अपने अकेलेपन में अधिक मुक्त,
अपनी उदासी में अधिक उदार।“

शंभुनाथ ‘हिंदू मिथक : आधुनिक मन’ के ‘आत्मजयी : भौतिकवाद और इससे परे’ निबंध में लिखते हैं  “कुँवर नारायण एक आधुनिक कवि हैं। उन्हें नई सभ्यता में भौतिकवाद की बढ़ती प्रधानता, लोभ, द्वेष, हिंसा और निराशा का बढ़ता जाना और मनुष्य का आमतौर पर अपने भाव को भूलकर शरीर भाव में डूबे रहना उद्विग्न करता है।  वे नई कविता युग के ‘आत्मन्वेषण’ को प्रश्नों से भरे मानव मन और आत्मज्ञान में रूपांतरित करते हैं। वे विरोधाभास से दिखने वाले ‘लौकिक अध्यात्म’ को चुनते हैं”। अपने पिता वाजश्रवा से धर्म-कर्म संबंधी मतभेदों के परिणामस्वरूप नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, ‘मृत्यवे त्वा ददामी’ अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहाँ वह तीन दिन टीके रहा, भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है।  उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देता है। नचिकेता के तीन वरदान निम्न है-
पहला यह कि वाजश्रवा का नचिकेता के प्रति क्रोध शांत हो, दूसरा यज्ञों की नचिकेताग्नि, तीसरा मृत्यु के रहस्य का उद्घाटन।   
यमराज तीन वरदान देकर नचिकेता को घर वापस भेजते हैं- 

“मैं तुमको जीवन फिर से वापस देता हूँ।
वह ज़िम्मेदारी
फिर से तुझे सौंपता हूँ।
मैं आदि अंत की तुलनाओं के बिना तुझे
जीवन-धारा में पुनः बहाए देता हूँ। ...”

यमराज द्वारा नचिकेता को वरदान देकर वापस घर भेजना ‘मिथक’ का अभिप्राय है और यमराज के साथ दृढ़ता से सवाल करना आधुनिकता का अभिप्राय है। इधर कवि ने प्रयोगधर्मिता की तरह ‘आत्मजयी’ में एक नए शीर्षक को जोड़कर उपनिषद के कठोपनिषद कथा से कुछ दूर आगे लेकर बढ़ गया।  वह यह कि जहाँ कठोपनिषद में यमराज के तीन वरदान के बाद आगे कुछ पता नहीं चलता है वहीँ ‘आत्मजयी’ में नचिकेता को उनके पिता वाजश्रवा से मिलाते हैं। यह मिलन आकस्मिक और शुद्ध अस्तित्व बोध से भरा आधुनिक है, जहाँ पर नचिकेता अपने पिता वाजश्रवा के स्वभाव में परिवर्तन  भी देखता है-

“किसी सदियों दूर अंधी कन्दरा की 
लोप दूरी सितारों के बीच खोई...
और दोनों ओर रखी 
मूर्तियाँ कुछ-
दृष्ट से अदृष्ट तक 
निक्षिप्त लाखों मूर्तियों... की दूरियाँ...
छायाम-छायाभास-का आभास-आगे शून्य से आगे...

सबसे समीप थी 
वाजश्रवा की उदास मूर्ति। 
फटी हुई आँखों में 
अधूरी मृत्यु।
जीवन के अंतिम रहस्य को सहसा 
पा जाने का गहरा अचम्भा। 
अन्य-सदियों मृत-उदासीन चेहरों की अपेक्षा 
केवल उदास। सबसे कम मृत,
उस रेखा के पास जहाँ 
जीवन तो छूटता 
किन्तु जीवन से मोह नहीं टूटता”।\

नचिकेता की स्वतंत्र अभिव्यक्ति ही अस्तित्व बोध का सम्यक रूप है। यही सम्यक रूप नचिकेता को अपने पिता वाजश्रवा की दैहिक स्थिति को देखकर ज्ञात होता है- 

“नचिकेता को लगा 
वह प्रतिमा अभी मरी नहीं,
न कठोर हुई,
न उसमें काल की अनंतता व्यापी है :
उसमें अपनत्व की 
एक सघन व्यथा अभी बाकी है-
वह अगाध ममता जो 
जीवन की साक्षी है 
महाशक्ति 
सृष्टि-बीज 
जो घसीट ला सकती चाहे तो 
मृत को भी मृतकों की घाटी से,
जड़ को भी 
धरती की अंतरतम छाती से”

मिथक में अमर जीवन की कामना मानवता को श्रेष्ठतर आदर्श अपनाने की अवधारणा पर विकसित हुई दिखाई देती है। पुनर्जन्म, कर्मकांड में आस्था भले न चरितार्थ हो किंतु अमर जीवन मूल्यों की उदात्तता मनुष्यता को उच्चतर भूमि अवश्य प्रदान करती है और वह इस जीवन के लिए सार्थक दिखती है। 
   
निष्कर्ष : हिंदी साहित्य में ‘मिथक’ का प्रथम प्रयोग आधुनिकता की देन है और यह मिथकीय कथाएँ आदिमानव के आख्यायिक घटनाओं और उसकी चारित्रिक विशेषताओं को एक सांस्कृतिक रूप देता है। कारणस्वरूप मिथकीय कथाएँ प्रत्येक देश और उस देश की युग विशेष की जीवनाभिव्यक्ति के लिए कलात्मक मार्ग प्रशस्त करते आई हैं। जिससे कवि और साहित्यकार का सच अधिक संप्रेषणीय हो जाता है। कुल अठाईस भाग में विभक्त कवि की ‘आत्मजयी’ (1965) में दो पीढ़ियों के संघर्ष के द्वारा युगीन जीवन के चित्रण का एक सार्थक प्रयास है। जिसमें पुरानी पीढ़ी के प्रतीक नचिकेता के पिता वाजश्रवा उसके व्यक्तित्व को विकसित नहीं होने देना चाहते हैं। जबकि नचिकेता विपरीत परिस्थितियों के विरोध में ‘अधिकार समान होना चाहिए’ की माँग करता है। आधुनिक युग में मौजूद धार्मिक पाखंड, सर्वसत्तावाद और औद्योगिक स्पर्धा के अमानवीय रूपों को मिथकीय अनुभूति में ढालने के लिए ही कुँवर नारायण ने नचिकेता को चुना था। उन्होंने वाजश्रवा के रूप में भौतिकवादी दुनिया के पाखंडों को चुनौती दिया है। अर्थात् एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी से लगातार संघर्ष करती है और ‘आत्मा की स्वायत्तता’, ‘आत्मविद्’, ‘सृष्टि-बोध’, ‘सौंदर्य-बोध’, ‘शांति-बोध’, ‘मुक्ति-बोध’ के अंतिम पायदान तक पहुँचता है। अस्तु कवि ने ‘आत्मजयी’ में पौराणिक कथावृत्त का सहारा लेकर न केवल आधुनिक संदर्भों में देखने का प्रयास किया है बल्कि एक नया वैचारिक आलोक देकर मनुष्य की स्वतंत्र अभिव्यक्ति की महत्ता को और बढ़ा दिया है, जो उनकी मिथकीय दृष्टि की अत्यंत परिचायक है। 

संदर्भ :
  1. संपादक पुरुषोत्तम अग्रवाल, कुँवर नारायण प्रतिनिधि कविताएँ, पृ. सं. 11 
  2. कुँवर नारायण, आत्मजयी, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली पृ॰ सं॰ 5  
  3. वही पृ॰ सं॰ 20  
  4. रामचंद्र तिवारी, हिंदी का गद्य साहित्य, पृ. सं. 160 
  5. डॉ नगेन्द्र, मिथक और साहित्य, पृ. सं. 7 
  6. रमेशकुंतल मेघ, विश्वमिथक सरित्सागर, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली पृ॰ सं॰ 11 
  7.  वही, पृ. सं. 12 
  8.  डॉ अमरनाथ, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, पृ. सं. 282  
  9.  डॉ नगेन्द्र, मिथक और साहित्य, पृ. सं. 6 
  10.  कुँवर नारायण, आत्मजयी, पृ. सं. 22 
  11.  लताश्री, कुँवर नारायण की एक भावदीप्त विचार-यात्रा, पृ. सं. 77
  12.  कुँवर नारायण, आत्मजयी, पृ. सं. 5 
  13.  वही, पृ. सं. 5  
  14.  वही, पृ. सं. 23   
  15.  वही, पृ. सं. 24 
  16.  शंभुनाथ, हिंदू मिथक आधुनिक मन, पृ. सं. 229 
  17.  कुँवर नारायण, आत्मजयी, पृ. सं. 104 
  18.  वही, पृ. सं. 106 -107 
  19.  वही, पृ. सं. 107 

मनीष कुमार 
पीएच. डी. शोधार्थी, हिंदी विभाग, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी 845401 बिहार 
सम्पर्क : manish1992.mgahv@gmail.com, 6206421764


  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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