शोध आलेख : वेब मीडिया और वंचित समुदाय : वर्तमान स्वरूप और चुनौतियां / सरोज कुमार व कृष्ण शंकर कुसुमा

वेब मीडिया और वंचित समुदाय : वर्तमान स्वरूप और चुनौतियां
- सरोज कुमार व कृष्ण शंकर कुसुमा

शोध सार : भारतीय समाज के अन्य क्षेत्रों की भांति पारंपरिक मीडिया में भी वंचित समुदाय हमेशा हाशिए पर रहे हैं मीडिया में दलितों, आदिवासियों और अन्य वंचित समुदायों की उपस्थिति बहुत ही कम है इन वंचित समुदायों के मुद्दों को भी कथित मुख्यधारा की मीडिया में उचित कवरेज नहीं मिलता है ऐसे में वंचित समुदायों ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए हमेशा वैकल्पिक साधनों का इस्तेमाल किया है इंटरनेट और इस पर आधारित मीडिया के उभार के साथ इन वंचित समुदायों ने भी इसमें अपने रास्ते तलाशे हैं इन्होंने अपने समाचार वेबसाइट्स और यूट्यूब चैनल बनाकर अथवा फेसबुक तथा ट्विटर जैसे सोशल मीडिया मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर अपने मुद्दों को प्रस्तुत करना शुरू किया है भारतीय वंचित समुदाय किस तरह वेब मीडिया का प्रयोग कर रहे हैं और इससे किस तरह की अभिव्यक्ति हो रही है? इसका वर्तमान स्वरूप औऱ संभावनाएं क्या हैं? इस परिप्रेक्ष्य में इन वंचित समुदायों के सामने क्या-क्या चुनौतियां हैं? इस आलेख में इन प्रश्नों की पड़ताल की गई है

बीज शब्द : वेब मीडिया, इंटरनेट, वंचित समुदाय, दलित, आदिवासी, ओबीसी, सोशल मीडिया, फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, समाचार वेबसाइट, भारतीय मीडिया

मूल आलेख : भारत विविधताओं से भरा देश है लेकिन यहां के संसाधनों और विभिन्न क्षेत्रों की हिस्सेदारी में इस सामाजिक विविधता का अभाव नजर आता है आम तौर पर लोकतंत्र का चौथा खंभा कहे जाते रहे मीडिया में भी ऐसी ही स्थिति है कम-से-कम कथित मुख्यधारा की पारंपरिक मीडिया के लिए तो यह बात पूरी तरह से मुफीद है विभिन्न विद्वानों, शोधार्थियों और सर्वेक्षणों तथा अध्ययनों ने भी इस बात को रेखांकित किया है वर्ष 1996 में वाशिंगटन पोस्ट के संवाददाता केनेथ जे कूपर ने उक्त समाचार पत्र में भारतीय मीडिया में वंचित जातियों की अनुपस्थिति का उल्लेख किया उन्होंने बताया कि भारत में करीब 100 भाषाओं में लगभग 4,000 दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे थे, लेकिन उनमें देश की कथित निचली जातियों का प्रतिनिधित्व और अभिव्यक्ति नहीं थी, जबकि ये समुदाय देश की कुल आबादी का करीब 70 प्रतिशत हैं उसी वर्ष पायोनियरसमाचार पत्र के बीएन उनियाल भी अपनी रिपोर्ट में इसी निष्कर्ष पर पहुंचे उन्होंने लिखा कि उस समय तक उन्हें अपनी पत्रकारिता के पूरे करियर में कोई भी सहकर्मी दलित पत्रकार नहीं मिला था वास्तव में मीडिया में अन्य वंचित समुदायों की तरह दलितों का प्रतिनिधित्व भी चिंताजनक रूप से काफी कम पाया गया है

इसके बाद राजनीतिक विश्लेषक और प्रोफेसर रॉबिन जेफ्री ने भी 2001 में अपनी पुस्तकइंडियाज न्यूजपेपर रिवॉल्यूशनमें इसी धारणा की पुष्टि की है रॉबिन जेफ्री ने भारत के 20 शहरों की यात्रा की, वे दर्जनों समाचार पत्र संस्थानों में गए और उन्होंने 250 से अधिक लोगों का साक्षात्कार लिया, लेकिन उन्हें मुख्यधारा की मीडिया में कोई दलित पत्रकार नहीं मिला यही नहीं, उनके अनुसार, दलितों की स्टोरी में समाचार पत्र तभी रूचि लेते थे जब उसमें किसी तरह की हिंसा या आरक्षण जैसे मुद्दे का मामला हो इससे पता चलता है कि सामान्य रूप से दलितों से संबंधित रिपोर्टों में समाचार पत्रों की कोई रूचि नहीं होती थी कालांतर में भी मुख्यधारा की मीडिया के संदर्भ में इस स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं नजर आया करीब दस वर्ष बाद 2012 में रॉबिन जेफ्री ने हिंदूसमाचार पत्र में लिखा कि मुख्यधारा की मीडिया में दलितों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है और इस समुदाय को अपना खुद का उच्च कोटि का समाचार पत्र या पत्रिका का प्रकाशन करने की जरूरत है

केवल दलित ही नहीं बल्कि मुख्यधारा की मीडिया में आदिवासी समुदाय के प्रतिनिधित्व का भी अभाव रहा है वर्ष 2006 में मीडिया स्टडीज ग्रुप और विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) ने 37 ‘राष्ट्रीयमीडिया संस्थानों के 315 मुख्य निर्णायक व्यक्तियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के अध्ययन के लिए सर्वेक्षण किया मीडिया संस्थान के मुख्य निर्णायक व्यक्तियों से तात्पर्य ऐसे पत्रकारों या कर्मियों से है जो संस्थान में मुख्य रूप से निर्णय लेते हैं उक्त सर्वेक्षण में पाया गया कि उन संस्थानों के 315 निर्णायक व्यक्तियों में कोई भी दलित या आदिवासी समुदाय से नहीं थाऑक्सफैम इंडिया-न्यूजलॉन्ड्रीकी 2019 की रिपोर्ट में भी पाया गया कि मीडिया संस्थानों में निर्णायक पदों पर दलितों और अन्य वंचित समुदायों का प्रतिनिधित्व नहीं हैऑक्सफैम इंडिया-न्यूजलॉन्ड्रीकी 2022 की हालिया रिपोर्ट में भी यही नतीजे सामने आए हैं 

मीडिया संस्थानों में केवल नियुक्ति अथवा नौकरी के मामले में ही दलित और अन्य वंचित समुदाय पीछे नहीं हैं, बल्कि अभिव्यक्ति के संदर्भ में भी इन समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला हैऑक्सफैम इंडिया-न्यूजलॉन्ड्रीकी 2022 की रिपोर्ट बताती है कि हिंदी और अंग्रेजी के समाचार पत्रों में 60 प्रतिशत बाइलाइन अर्थात् लेखक सामान्य वर्गों यानी सवर्ण समुदाय से थे, जबकि 10 प्रतिशत बाइलाइन अन्य पिछड़े वर्गों तथा 5 प्रतिशत से भी कम बाइलान दलित और आदिवासी समुदाय के लेखकों के थे इसी प्रकार, हिंदी और अंग्रेजी, दोनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्राइमटाइम शो में बुलाए गए 60 प्रतिशत पैनलिस्ट (प्रतिभागी) सामान्य वर्गों से थे जबकि 5 प्रतिशत से भी कम प्रतिभागी दलित और आदिवासी समुदाय से थे उपर्युक्त अध्ययनों के विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में सामाजिक रूप से वंचित समुदायों का वर्तमान समय में भी मुख्यधारा की मीडिया में अभाव रहा है यही कारण है कि इन वंचित समुदायों के लोग मुख्यधारा की मीडिया में अपनी अभिव्यक्ति और प्रतिनिधित्व का प्रश्न अभी भी उठा रहे हैं

वंचितों की अभिव्यक्ति की वैकल्पिक परंपरा -

दलित और अन्य वंचित समुदायों ने हमेशा अपनी अभिव्यक्ति के वैकल्पिक रास्ते खोज निकाले हैं इन्होंने विभिन्न माध्यमों से खुद को अभिव्यक्त किया है मसलन, दलितों ने कविता, कहानी और आत्मकथा जैसे विभिन्न साहित्यिक लेखन के जरिये अपनी भावनाओं और संघर्षों को अभिव्यक्त किया है हिन्दी साहित्य में रैदास और कबीर उन शुरुआती महत्वपूर्ण कवियों में हैं जिन्होंने वंचित समुदायों की भावनाओं को अभिव्यक्त किया और हर प्रकार के भेदभाव का विरोध किया रैदास दलित समुदाय के माने जाते हैं और उन्होंने भक्ति के माध्यम से असमानता के विरुद्ध प्रतिरोध दर्ज किया रैदास ने अपनी कविताओं के माध्यम से केवल शोषक वर्ग की रूढ़ियों और आडंबरों के प्रति आक्रोश प्रकट किया, बल्कि समाज में समानता स्थापित करने का भी विचार प्रतिपादित किया 

आधुनिक काल में अछूतानंद हरिहर ने दलित साहित्य और पत्रकारिता की शुरुआत की उन्होंनेप्राचीन हिन्दूऔरआदि हिन्दूजैसे पत्र निकाले आधुनिक भारत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण दलित शख्सियत माने जाने वाले बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर ने भी पत्रकारिता को अपनी बात को व्यक्त करने और दलित-प्रश्नों को उठाने का माध्यम बनाया एमके गांधी और अन्य कांग्रेस नेताओं ने विभिन्न भाषाओं में समाचार पत्र शुरू किए, जिनमें जाति के मुद्दों पर सीमित या विषम दृष्टिकोण है इसके विपरीत डॉ आंबेडकर ने कथित उच्च वर्ग/जाति के प्रचार का मुकाबला करने और हाशइए पर पड़े लोगों को आवाज देने के लिएमूकनायकजैसे समाचार पत्र शुरू किए  ‘मूकनायकके अतिरिक्त उन्होंनेबहिष्कृत भारतजैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया था इस प्रकार से दलितों ने लघु पत्रिकाओं और समाचार पत्रों को भी अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया है हालिया वर्षों में देखें तो अध्येता बद्री नारायण ने लिखा है कि दलितों ने छोटी-छोटी पत्रिकाओं, पत्रों, पंपलेट, लोक कथाओं आदि के माध्यम से अपनी अस्मिता को अभिव्यक्त किया है और इस प्रक्रिया में अपने लिए नए नायक-नायिकाओं को गढ़ा है

आदिवासी समुदाय में भी इस तरह की पंरपरा मौजूद रही है अविभाजित बिहार में छोटानागपुर में वर्ष 1920 मेंआदिवासीनामक पत्रिका की शुरुआत की गई थी समकालीन दौर में कई पत्रिकाएं दलितों समेत आदिवासी और हाशिए के अन्य समुदायों पर केंद्रित रही हैं, जैसेयुद्धरत आम आदमीऔरहाशिए की आवाजआदि वहींआदिवासी साहित्यजैसी पत्रिकाएं विशेषकर आदिवासियों पर केंद्रित रही हैं इसी तरह अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों ने भी लघु पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपने विमर्शों और साहित्य को अभिव्यक्त किया है राजेंद्र यादव के संपादन में  हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिका हंस भी वंचित समुदायों से जुड़े विमर्श और साहित्य को उल्लेखनीय रूप से स्थान देने के लिए जानी जाती है हंस ने विशेषकर स्त्री, दलित तथा अन्य बहुजन तबकों की विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान की  इस प्रकार से स्पष्ट है कि वंचित समुदायों ने हर दौर में खुद को विभिन्न वैकल्पिक साधनों के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त किया है

वेब मीडिया का उभार और वंचितों के लिए संभावनाएं -

वर्तमान दौर इंटरनेट और नई तकनीकों का युग है इंटरनेट और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ-साथ इन पर आधारित विभिन्न मीडिया मंचों का भी उभार हुआ है इसने जनसंचार और पत्रकारिता के स्वरूप को भी काफी बदल दिया है मोटे तौर पर इंटरनेट आधारित मीडिया को ही वेब मीडिया के रूप में वर्णित किया जाता है शालिनी जोशी और शिवप्रसाद जोशी ने अपनी पुस्तकनया मीडियाः अध्ययन और अभ्यासमें लिखा है कि इंटरनेट के परिणामस्वरूप वेब पत्रकारिता के उदय ने सूचना और समाचार को लोगों तक पहुंचाने के कई विकल्पों का सृजन किया है इसने वैकल्पिक विचारों के लिए प्रभावी मंच का निर्माण भी किया है केवल पत्रकारिता ही नहीं, बल्कि आम जीवन में भी इंटरनेट और वेब मीडिया ने संचार के साधन के रूप में क्रांतिकारी प्रभाव डाला है ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया साइट्स के अतिरिक्त यूट्यूब वगैरह ने भी लोगों को बहुत प्रभावित किया है इनके माध्यम से लोग विभिन्न सीमाओं से परे जाते हुए व्यापक और तीव्र गति से एक-दूसरे से जुड़ रहे हैं दो-तरफा संवाद ने इसे और कारगर बना दिया है यह सब इंटरनेट और वेब मीडिया के विकास से ही संभव हो सका है

विभिन्न वंचित समुदायों के लोग भी इस नए मीडिया के जरिये केवल एक-दूसरे से जुड़ रहे हैं, बल्कि खुद को विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त कर रहे हैं वे फेसबुक और ट्विटर जैसे मंचों पर अपने प्रोफाइल और पेज बनाकर संवाद कर रहे हैं वे इसमें केवल अपनी सामान्य बातों और तस्वीरों को साझा कर रहे हैं, बल्कि अपनी बड़ी समस्याओं को भी उठा रहे हैं उदाहरण के रूप में, सुप्रीम कोर्ट के द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को कथित रूप से कमजोर किए जाने का आरोप लगाते हुए अप्रैल, 2018 में दलित और आदिवासी समुदाय के लोगों ने सोशल मीडिया के माध्यम से भी अपना विरोध दर्ज किया था इसके अलावा उन्होंने ऐसे ही कुछ अन्य मुद्दों पर भी सोशल मीडिया अभियान चलाया है मसलन, अगस्त, 2019 में उत्तर प्रदेश के बलिया में एक जिलाधिकारी ने कथित तौर पर एक दलित नेता के कथित महंगे जूतों, गाड़ी और कपड़ों पर तंज कसा उस दलित नेता ने सोशल मीडिया पर जब यह आरोप लगाते हुए वीडियो डाला तो दलितों समेत अन्य वंचित समुदाय के लोगों ने सोशल मीडिया पर ही जिलाधिकारी के उस कृत्य का विरोध करना शुरू कर दियाशूजफॉरदडीएमहैशटैग के माध्यम से वह सोशल मीडिया अभियान पूरे देशभर के दलितों और वंचित समुदायों के बीच बहस के केंद्र में रहा वंचितों के द्वारा ऐसे अभियान विभिन्न मुद्दों पर लगातार चलाए जा रहे हैं वास्तव में दलितों समेत विभिन्न वंचित समुदायों ने सोशल मीडिया को अपनी बात रखने के वैकल्पिक मंच के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की है

सोशल मीडिया के अतिरिक्त दलितों, आदिवासियों समेत अन्य वंचित समुदाय के लोग नागरिक पत्रकारिता के लिए भी वेब मीडिया का लाभ उठा रहे हैं वे समाचार वेबसाइट और यूट्यूब चैनल बनाकर अपने समुदाय से जुड़ी खबरों को प्रमुखता से प्रसारित कर रहे हैं वर्तमान में ऐसे कई वेबसाइट और चैनल कार्य कर रहे हैं दलित दस्तक, नेशनल दस्तक, एक्टिविस्ट, दलित कैमरा, बहुजन नेटवर्क, ट्राइब टीवी, आदिवासी लाइव टीवी, नेशनल जनमत और जनता लाइव नामक ऐसे ही कुछ प्रमुख वेबसाइट और चैनल हैं चूंकि, मुख्यधारा की मीडिया में उनकी बात प्रमुखता से नहीं उठ पाती है, इसलिए सोशल मीडिया और ऐसे अन्य मंचों में वंचित समुदायों को उम्मीद नजर आई है यही कारण है कि वे इन माध्यमों से वेब पत्रकारिता कर रहे हैं रॉबिन जेफ्री ने दलितों का खुद का मीडिया संस्थान होने की वकालत की थी, वह विचार इस परिदृश्य में थोड़ा संभव प्रतीत हो रहा है

इस प्रकार से वेब मीडिया वंचित समुदायों के लिए उम्मीद बनकर उभरा है और इसमें भरपूर संभावनाएं हैं वेब मीडिया आधारित वेबसाइट और यूट्यूब चैनल शुरू करना पारंपरिक मीडिया की तुलना में आसान और बहुत कम खर्चीला भी है मसलन, कोई यूट्यूब चैनल महज इंटरनेट की सुविधा और स्मार्टफोन की उपलब्धता के साथ भी शुरू किया जा सकता है दूसरी बात यह है कि वेब मीडिया के जरिये तीव्र गति से व्यापक जनसमुदाय से जुड़ा जा सकता है ये सामान्य और जगजाहिर बातें वेब मीडिया को वंचित समुदायों के लिए बेहद महत्वपूर्ण बना देती हैं इस तरह से वेब मीडिया का वर्तमान स्वरूप वंचितों के लिए संभावनाओं से भरपूर हैं ऑक्सफैम इंडिया-न्यूजलॉन्ड्री की 2022 की रिपोर्ट भी इसका संकेत करती है उसमें कहा गया है कि मुख्यधारा के मीडिया संस्थानों की तुलना में, (इंटरनेट आधारित) डिजिटल मीडिया के वैकल्पिक संस्थानों में वंचित समुदायों के लोगों के आलेख ज्यादा छापे गए ऐसे में स्पष्ट है कि वंचित समुदाय के लोगों के द्वारा शुरू किए गए वैकल्पिक वेब मीडिया मंचों पर उनके समुदाय के लोगों का प्रतिनिधित्व सकारात्मक रूप से अधिक है

चुनौतियां और सीमाएं -

वास्तविक दुनिया की तरह आभासी दुनिया में भी असमानता मौजूद है नई तकनीक, स्मार्टफोन और इंटरनेट आदि तक वंचित समुदाय के लोगों की पहुंच अभी भी अन्य तबकों की तुलना में काफी कम है उदाहरण के रूप में कुछ अध्ययनों के अनुसार, 2017-18 के दौरान करीब 14 प्रतिशत आदिवासियों की ही इंटरनेट तक पहुंच थी सोशल मीडिया के इस्तेमाल में भी वंचित समुदायों और अन्य सामान्य तबकों के बीच काफी असमानता देखी जाती है आर्थिक असमानता भी डिजिटल असमानता का निर्माण करती है और सामाजिक रूप से वंचित समुदाय आर्थिक रूप से कमजोर माने जाते हैं ऐसे में वे डिजिटल असमानता का शिकार हैं इस प्रकार से डिजिटल दुनिया में पहुंच के मामले में भी वंचित समुदाय अपेक्षाकृत पिछड़े हुए हैं इन समुदायों के कुछ लोग भले ही वेब मीडिया के मंचों का इस्तेमाल करने में सक्षम हैं, लेकिन इनकी बड़ी आबादी अभी भी इससे महरूम है इसके अतिरिक्त विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक बहिष्कार और उत्पीड़न की तरह वेब मीडिया में भी दलितों तथा हाशिए की ऑनलाइन आवाजों के दमन की कोशिश की जाती है उनके खिलाफ पूर्वाग्रह और अभद्र भाषा का प्रयोग किया जाता है उनकीविच हंटिंगकी जाती है और उनकी ट्रोलिंग की जाती है इस प्रकार से वंचित समुदायों के लोगों को आभासी दुनिया में भी ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है

वंचित समुदाय के लोगों की ओर से शुरू किए गए वेबसाइट और यूट्यूब चैनलों की भी अपनी सीमाएं हैं संसाधानों की कमी और आर्थिक अभाव के कारण उन्हें अपने चैनल को व्यापक दर्शकों तक पहुंचाने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है इन चैनलों के सामने आर्थिक रूप से सक्षम बनने की चुनौती भी होती है सतत् व्यापक दर्शकों के बीच पहुंचकर ही वे यूट्यूब आदि के विज्ञापनों की सुविधा प्राप्त करके धन अर्जित कर पाते हैं लेकिन, ऐसा करना आसान नहीं होता इनकी एक और सीमा यह है कि इनमें से अधिकतर अपने-अपने समुदायों तक ही सीमित नजर आते हैं विभिन्न वंचित समुदायों समेत व्यापक रूप से अन्य तबकों में भी अपने वेबसाइट या चैनल को लोकप्रिय बनाना चुनौतीपूर्ण कार्य है इन कठिनाईयों से पार पाकर ही, रॉबिन जेफ्री के शब्दों में कहें तो दलित या अन्य वंचित समुदाय उच्च कोटि का अपना मीडिया संस्थान निर्मित कर सकते हैं

निष्कर्ष : उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वेब मीडिया ने वंचित समुदायों में अपनी अभिव्यक्ति को लेकर एक नई उम्मीद जगाई है यह उनके लिए संचार के वैकल्पिक माध्यम के रूप में उभरा है फलस्वरूप इन समुदायों के लोग लगातार नए-नए यूट्यूब चैनल वगैरह शुरू कर रहे हैं मुख्यधारा की मीडिया में आज भी इनके प्रतिनिधित्व की कमी इसका एक प्रमुख कारण है निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भले ही उनके समक्ष कई चुनौतियां हैं, परंतु वंचित समुदायों के लिए वेब मीडिया में काफी संभावनाएं हैं और वे इसका लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं

संदर्भ :

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सरोज कुमार
शोधार्थी, एजेके मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
krsaroj989@gmailcom, 9560093581
 
कृष्ण शंकर कुसुमा
एसोसिएट प्रोफेसर, एजेके मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
kusumakk@gmailcom, 9818888863

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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