शोध आलेख : कोरकू जनजाति की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था / दीपक कुमार व योगेश कुमार जांगिड़

कोरकू जनजाति की सामाजिकआर्थिक व्यवस्था
- दीपक कुमार योगेश कुमार जांगिड़

शोध सार : जनजाति समुदाय अपनी विशेष भाषा, बोली, संस्कृति, परंपरा, धार्मिक मान्यताएं आदि से अन्य समाजों से अलग पहचान बनाए हुए है। भारत में 500 से अधिक जनजातीय समुदाय अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में निवास करते हैं। जनजाति समुदाय भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 8 प्रतिशत है। जनजाति समुदाय मैदानी क्षेत्रों से दूर सुदूर जंगली एवं पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करता है। इस कारण जनजाति समुदाय का सामाजिक-आर्थिक जीवन जंगल और पहाड़ पर अधिक निर्भर करता है। जनजाति समुदाय विशेष प्रकार की कलाकृतियों, विशिष्ट कलाओं में निपुण है, जो उनके जीविकोपार्जन में मददगार होता है। कोरकू जनजाति मध्य प्रदेश के बाद सबसे अधिक संख्या में महाराष्ट्र के अमरावती जिले में निवास करती है। कोरकू जनजाति की अर्थव्यवस्था पारंपरिक कृषि, दैनिक मजदूरी, कलाकृतियों, लघु व्यवसाय आदि पर निर्भर है। क्षेत्र में भौगोलिक स्थिति अनुकूल नहीं होने और सिंचाई का उचित प्रबंध नहीं होने के कारण इनके द्वारा कृषि पारंपरिक पद्धति से की जाती है, जिससे यहाँ कृषि व्यवसायिक होकर जीवन निर्वाह के लिए है। यह कबीलाई समाज अपनी उत्पत्ति महादेव के आशीर्वाद से मानते हैं, जिससे कोरकू में महादेव अधिक पूजनीय माने जाते हैं। इसके अलावा कोरकू देवी-देवताओं में मुठवा देव, खेड़ा देव, बाघ देव, रावण, आगासों-पताल बुड़ी देव, बेलकुंड माई एवं जड़ाम-जोधा भी प्रमुख हैं। अमरावती जिले में कोरकू जनजाति के पास बेहतर जीवन निर्वाह के लिए सभी आर्थिक संसाधन उपलब्ध है लेकिन फिर भी उनकी आर्थिक स्थिति गैर जनजाति समुदाय से निम्न देखने को मिलती है।  

बीज शब्द : कोरकू, जनजाति, जनजातीयसंस्कृति, लोक कथाएं, जनजातीय सामाजिकी, सामाजिक, आर्थिक, कृषि, उत्पत्ति, जीविकोपार्जन।

मूल आलेख : जनजातीय समुदाय प्राचीन समय से ही मैदानी क्षेत्रों से सूदूर दुर्गम वनाच्छादित पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करते रहे हैं। जनजाति समुदाय अपनी विशिष्ट संस्कृति, बोली एवं सामान्य जीवनशैली की विशेषताओं के कारण तथाकथित मुख्य धारा के समाज से अलग अपनी पहचान बनाए हुए हैं। जनजाति समुदाय अपने जीविकोपार्जन के साधन के रूप में प्रकृति प्रदत्त पहाड़, वन एवं नदियों का उपयोग करता है। इनके द्वारा कृषि, आखेट, वन उत्पादों का संग्रहण, कलाकृतियों का निर्माण, कलाओं का प्रदर्शन आदि से अपना जीवन निर्वाह किया जाता रहा है। हालांकि आज के समय में आधुनिक तकनीकों की मदद से जीविकोपार्जन की नई-नई संभावनाएं खुली हैं, लेकिन वर्तमान समय में भी कई जनजाति क्षेत्रों में आधुनिक तकनीकें नहीं पहुँच पाई हैं, जिसके कारण वह समुदाय आज भी अपने जीवन निर्वाह के लिए अपनी परंपरागत तकनीक एवं प्रकृति पर निर्भर है।

अध्ययन क्षेत्र -

            कोरकू जनजाति वृहत रूप से मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र में निवास करती है। इसके अलावा कोरकू जनजाति के विस्तार के प्रमाण असम, छत्तीसगढ़, अरुणाचल प्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा, नागालैंड, राजस्थान एवं बांग्लादेश में भी मिलते हैं। महाराष्ट्र राज्य में कोरकू जनजाति सर्वाधिक अमरावती जिले में सतपुड़ा की पहाड़ियों में निवास करती है। इसके अलावा जलगाँव, नागपुर, अकोला, बुलढाना एवं वर्धा जिले में भी कोरकू जनजाति का विस्तार है। जनगणना 2011 के अनुसार मध्य प्रदेश में कोरकू जनजाति की जनसंख्या 7,30,847 है और महाराष्ट्र में इनकी जनसंख्या 2,64,492 है, वहीं अमरावती जिले में कोरकू जनजाति की जनसंख्या 2,40,784 है। अमरावती जिले के धारणी तालुका के अंतर्गत मेलघाट व्याघ्र प्रकल्प (Melghat Tiger Reserve) क्षेत्र में सबसे अधिक कोरकू जनजाति की जनसंख्या है। प्रस्तुत शोध में धारणी तालुका के पांच ग्रामों (बोरी, चित्री, लावादा, कोठा एवं भुलोरी) का चयन किया गया है, जिसके अंतर्गत 100 परिवारों का अध्ययन किया गया है।

अध्ययन पद्धति -

            प्रस्तुत अध्ययन में क्षेत्र का चुनाव असंभावित निदर्शन के अंतर्गत उद्देश्यात्मक प्रविधि के अंतर्गत किया गया है। गाँव का चुनाव संभावित निदर्शन के अंतर्गत लॉटरी पद्धति के द्वारा और उत्तरदाताओं का चयन यादृच्छिक निदर्शन के द्वारा किया गया है। अध्ययन में परिवार के मुखिया को, जो परिवार के आर्थिक कार्यों में संलिप्त है, अध्ययन इकाई के रूप में चयन किया गया है। अध्ययन में अनुसूची, असंरचित साक्षात्कार, अर्द्ध-सहभागी अवलोकन, शोध उपकरणों का प्रयोग उदेश्य से संबंधित आंकड़ों के संकलन के लिए किया गया है।

उत्पत्ति - कोरकू जनजाति की उत्पत्ति के बारे में जानकारी कोरकू लोक कथाओं में ही मिलती है। कोरकू की उत्पत्ति के संबंध में एक लोककथा का उल्लेख वेरियर एल्विन ने किया है। उनके अनुसारएक बार कहीं किसी जगह पर एक सगे भाई-बहन के बीच यौन संबंध स्थापित हो जाता है। बाद में जब उन्हें इस पर ग्लानि महसूस होती है, तो वे भगवान महादेव के पास जाते हैं। महादेव उन दोनों की बातों को सुनने के पश्चात उनका विवाह एक-दूसरे से ही करा देते हैं।आगे चलकर उनसे ही उत्पन्न बच्चेकोरकूकहलायें। एक अन्य कथा के अनुसारएक बार रावण विंध्याचल एवं सतपुड़ा के पहाड़ियों में घूम रहा था। तभी उसने देखा कि यह क्षेत्र बिल्कुल ही निर्जन है, कोई पेड़-पौधे हैं और ही कोई इंसान। तब रावण ने भगवान महादेव से प्रार्थना की कि वह इस क्षेत्र में हरियाली लाये और साथ ही साथ यहाँ मनुष्य का भी सृजन करें। तब महादेव मिट्टी से एक पुरुष एवं एक स्त्री की मूर्ति बनाई और उनमें प्राण डाल दिए, फिर सतपुड़ा की पहाड़ियों को वनों एवं प्राकृतिक सुंदरता से युक्त हरा-भरा बना दिया। मूर्तियाँ जैसे ही सजीव हुई, महादेव ने इनका नाममूलाएवंमूलईरखा। ये दोनों आज भी कोरकू के आदि पूर्वज माने जाते हैं। इस कथा के आधार पर ही कोरकू महादेव एवं रावण की पूजा करते हैं तथा उन्हें अपना वंशज मानते हैं।

सामाजिक स्थिति -

        कोरकू प्रजातीय दृष्टिकोण से प्रोटो औस्ट्रेलोइड समूह के हैं। शारीरिक बनावट के अंतर्गत गोल चेहरा, चौड़ी नाक, छोटी आँखें, उठे हुए गाल, गहरा काला रंग से लेकर साँवला तथा गोरा रंग एवं काले घुँघराले बाल होते हैं। पुरुषों की औसतन लंबाई 5 फिट से लेकर साढ़े-5 फिट होती है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं का रंग अधिक हल्का साफ होता है तथा औसत लंबाई भी महिलाओं की साढ़े-4 फिट से साढ़े-5 फिट के बीच ही होती है। वर्तमान में अब काफी विविधताएँ देखने को मिलती हैं। अगर हम तीन पीढ़ियों को एक साथ खड़ा कर दें, तो उनके रंग-रूप में विभिन्नताएँ साफ-साफ देखने को मिलती है। कोरकू की भाषाकोरकूहै, जो एस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार कीमुंडा शाखाकी एक भाषा है। कोरकू जनजाति का कोई विशेष प्रकार का पहनावा नहीं है, पुरुष साधारण कुर्ता-धोती एवं महिलाएं साधारण रंग-बिरंगी साड़ी-ब्लाउज पहनती है। धोती को सुलुंग-लीबा कुर्ता को अंगी एवं साड़ी को लूगा ब्लाउज को तोलका कहते हैं। वर्तमान में कोरकू की नई पीढ़ी आधुनिक फैशन वाले कपड़े पहनती है। कोरकू महिलाएं पीतल, तांबा एवं चांदी के आभूषण पहनती है। आभूषणों में सुतरा, पायरी, बिछिया, मुडी, कड़ा, निगडी, पयरपट्टी और मछी अधिक पहने जाते हैं। कोरकू जनजाति में गोदना (Tatoo) बनाने की परंपरा भी है, हालाँकि पुरुष अपने शरीर पर किसी भी प्रकार के गोदना नहीं बनाते हैं। लेकिन महिलाएं हाथ के निचले हिस्से में कई तरह के फूल, पेड़-पौधे, मोर या त्रिभुजाकार, चौकोर या विभिन्न जानवरों के चित्र बनवाती हैं। महिलाएं ललाट के बीचो-बीच तीन बिंदु का गोदना बनवाती है जो पति की लंबी उम्र के लिए होता है जिसेसौभाग्यकहा जाता है।

सभी जनजातियों में उनके धार्मिक, रीति-रिवाज, परंपराओं आदि का विशेष महत्व रहता है। कोरकू जनजाति के जीवन में भी धार्मिक, संस्कारों एवं त्यौहारों आदि का विशेष महत्व है। कोरकू जनजाति में धार्मिक संस्कारों की शुरुआत गर्भधारण से ही हो जाती है और मृत्युपर्यंत तक चलती है। कोरकू जनजाति अपने पूर्वजों में विश्वास रखते हैं। उनकी मान्यता है कि पूर्वज उनके गाँव और परिवार की रक्षा करते हैं, जिसे प्रसन्न रखने के लिए वर्ष में एक बार उनकी पूजा की जाती है। कोरकू देवी-देवता में मुठवा देव, खेड़ा देव, बाघ देव, रावण, मेघनाथ, आखड़ी देव, आगासों-पताल बुड़ी देव, बेलकुंड माई एवं जड़ाम-जोधा की पूजा विभिन्न अवसरों पर कोरकू जनजाति द्वारा की जाती है। इसके अलावा हिंदू देवी-देवता, शिव, गणेश, हनुमान, दुर्गा, सरस्वती, भैरव की भी पूजा करते हैं। कोरकू जनजाति के कुल देवता मादेव-सिरटो, इटा-मठा देव, कोठा गोमेज, रारि गोमेज, चांदों एवं सुरजों हैं।

कोरकू जनजाति में किसी भी महत्वपूर्ण कार्य की शुरुआत मुठवा देव की पूजा के बगैर नहीं होती है। मुठवा देव को गाँव का मालिक कहा जाता है और इन्हें पहले देव का दर्जा भी प्राप्त है। मुठवा देव के देव स्थान कोओटलाकहा जाता है जो सभी कोरकू गांवों के मध्य में होता है। मुठवा देव की पूजा वर्ष में एक बार की जाती है, जिसमें दो सफेद मुर्गों की बलि दी जाती है। मुठवा देव के बाद कोरकू में खेड़ा देव को दूसरा स्थान दिया गया है। इनका मंदिर गाँव के बाहर होता है और ये गाँव में आने वाले विपत्तियों से रक्षा करते हैं। साथ ही कृषि फसलों का उत्पादन भी इनकी इच्छा से होता है। खेड़ा देव की पूजा भी सभी गाँव वाले मिलकर वर्ष में एक बार करते हैं और बकरे की बलि चढ़ाते हैं। देवों के इतर कोरकू देवियों की पूजा भी करते हैं। बियसरी सबसे क्रोधित होने वाली देवी हैं, इनकी पूजा गाँव के बाहर मुर्गे या बकरे की बलि देकर की जाती है। कोरकू एक राक्षसी की भी पूजा करते हैं जिसका नामडाकिन है। ये गाँव में प्रवेश करने वाली बाह्य शक्तियों से रक्षा करती हैं। इनकी पूजा में समुदाय द्वारा किसी भी प्रकार की गलती स्वीकार्य नहीं है। महादेव और रावण से ही कोरकू की उत्पत्ति हुई है, इस मान्यता से कोरकू जनजाति के लोग इनकी पूजा करते हैं।  

अर्थव्यवस्था -

        अध्ययन क्षेत्र में कोरकू जनजाति की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर आधारित है। कृषि के अलावा वनोत्पाद, व्यापार, दैनिक मजदूरी, नौकरी, अन्य शहरों में मजदूर आदि से भी कोरकू जनजाति के लोग आय उपार्जन करते हैं।

कोरकू जनजाति कृषि के अंतर्गत मुख्य रूप से खेतों में ज्वार, तुअर (अरहर), सोयाबीन, मक्का, धान, चना, गन्ना एवं गेहूँ की फसलों का उत्पादन करती है। उपरोक्त अनाजों के अलावा ये अधिक मात्रा में सब्जियों की खेती करते हैं। सब्जियों में बैंगन, भिंडी, गोभी आदि मुख्य रूप से उगाते हैं। अनुकूल एवं अधिक उर्वरकता वाले खेत एवं सिंचाई की सुदृढ़ व्यवस्था होने के कारण कृषि स्वयं के उपभोग के लिए किया जाता है, बहुत कम मात्रा में कृषि फसलों की बाजार में बिक्री की जाती है। पहाड़ी भौगोलिक स्थिति होने के कारण खेतों की जुताई के लिए कोरकू जनजाति ट्रैक्टर की अपेक्षा बैलों पर अधिक निर्भर है। अध्ययन क्षेत्र में कृषि पारंपरिक तकनीक पर आधारित है। कृषि कार्य में परिवार के सभी सदस्य मिलकर कार्य करते हैं। खेतों में महिला-पुरुष की भागीदारी एक समान होती है। फसल बुआई से फसल की कटाई तक महिला-पुरुष साथ मिलकर खेतों में कार्य करते हैं। खेत के आसपास जंगल होने के कारण जंगली जानवरों से फसल के नुकसान का खतरा बना रहता है। इस कारण फसल तैयार होने के बाद कटने तक जंगली जानवरों से सुरक्षा करने के लिए खेतों में मचान बना होता है, जिसपर कोरकू सदस्य रात में रुककर फसलों की देखभाल करता है। सिंचाई की उचित व्यवस्था, खेतों में उर्वरकता, आधुनिक तकनीक आदि की कमी के कारण अध्ययन क्षेत्र में फसल बहुत अधिक मात्रा में उत्पादित नहीं हो पाती है। कई बार फसल का उत्पादन अधिक होता है तब कोरकू परिवार उस फसल को बेचता है। इन क्षेत्रों में कृषि अनाजों की खरीदारी के लिए सरकारी मंडी उपलब्ध नहीं है, अनाजों की खरीद-बिक्री व्यापारियों द्वारा की जाती है, जो व्यापारियों द्वारा अपने मनमाने मूल्यों पर की जाती है।

वनोत्पाद भी कोरकू जनजाति की आर्थिक व्यवस्था को मजबूत करने में एक महत्वपूर्ण कारक है। अमरावती जिला महाराष्ट्र में दूसरा सबसे अधिक वनाच्छादित क्षेत्र है। अमरावती के वनों में साल, तेंदू, आम, जामुन, नीम, पीपल, कुसुम, बांस आदि के वृक्ष बहुलता में पाए जाते हैं। कोरकू जनजाति वनों से तेंदू पत्ता, विभिन्न प्रकार के खाद्य वनोत्पाद, जलावन की लकड़ियाँ और जानवरों के शिकार आदि प्राप्त करते थे और इनसे अपना जीविकोपार्जन करते थे लेकिन मेलघाट व्याघ्र प्रकल्प (Melghat Tiger Reserve) क्षेत्र बनने के बाद सरकार ने कोरकू जनजाति के साथ अन्य जनजातियों के जंगल में प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया है। कोई भी व्यक्ति जंगल से किसी भी प्रकार के उत्पाद नहीं ला सकता है, इससे प्राथमिक क्रियाओं से होने वाले जीविकोपार्जन पर संकट खड़ा हो गया है।

कोरकू जनजाति के लोगों की कोई विशेष हस्तशिल्प कला नहीं है, लेकिन फिर भी कोरकू जनजाति के लोग बांस से विभिन्न प्रकार के हस्तशिल्प बनाते हैं। इन हस्तशिल्प में खिलौने, आभूषण, सजावट की वस्तुएं, दैनिक उपयोग की वस्तुएं आदि प्रमुख रूप में हैं। बांस से हस्तशिल्प बनाने का प्रशिक्षण मेलघाट क्षेत्र में कार्यरत कई गैर सरकारी संगठन (NGOs) द्वारा कोरकू जनजाति को दिया जाता है। बांस से बने इन हस्तशिल्पों का बड़े-बड़े शहरों में बहुत अधिक मांग होती है लेकिन मेलघाट क्षेत्र में उचित बाजार नहीं मिलने के कारण ये शिल्प बाहरी व्यापारी बहुत कम मूल्य में खरीद लेते हैं।

क्षेत्र में कोरकू लोग घरों में मुर्गियां, बकरी, मधुमक्खी पालन आदि करते हैं। कोरकू जनजाति के लोग मत्स्य आखेट भी करते हैं। मत्स्य आखेट सर्वाधिक रूप से वर्षा ऋतु में की जाती है लेकिन इसके अलावा भी वर्षभर तालाबों, नदियों आदि में आखेट किया जाता है। मछली पकड़ने के लिए एक विशेष प्रकार की बांस से बना लंबा बेलनाकार वस्तु होती है जो एक तरफ से खुली और दूसरे छोर पर बंद होती है, जिसेकुकाकहा जाता है। यह संकरी नदियों या नालों में जहाँ पानी का बहाव ज्यादा होता है वहां लगाया जाता है जिससे छोटी मछलियाँ उसमें आकर फंस जाती है।

रोजगार उपलब्ध नहीं होने और विशेष कौशल की कमी के कारण कोरकू जनजाति के लोग रोजगार की तलाश में अन्य शहरों/राज्यों में जाते हैं। कोरकू लोग अन्य शहरों/राज्यों में ईट भट्ठों, भवन निर्माण, कृषि मजदूर आदि क्षेत्रों में दैनिक मजदूरी का कार्य करते हैं। अन्य राज्यों/शहरों में इनकी शांत प्रवृति, अशिक्षित एवं भोलेपन के कारण इन्हें बहुत कम मजदूरी दी जाती है और कई बार इनका शोषण भी किया जाता है। अन्य राज्यों/शहरों में ये लोग पति-पत्नी और बच्चों के साथ जाते हैं जिससे बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है। मेलघाट क्षेत्र में कोरकू जनजाति के लोग अपनी आय के लिए छोटे व्यवसाय भी करते हैं। व्यवसाय में दुकान चलाना और साप्ताहिक बाजारों में अनाज, सब्जियां, मछलियाँ आदि बेचना शामिल है।

निष्कर्ष : कोरकू जनजाति की लोक कथाओं में उनकी उत्पत्ति के अनुसार यह जनजाति मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के सतपुड़ा की पहाड़ियों में बहुत प्राचीन समय से निवास कर रही है। रोजगार, शिक्षा, बेहतर जीवन आदि कारणों से इनका विस्तार विभिन्न राज्यों में भी हुआ है। पहाड़ी और जंगली क्षेत्रों में निवास करने के कारण कोरकू जनजाति का सामाजिक आर्थिक जीवन जंगल, पहाड़, नदियों आदि पर निर्भर है। इनके पर्व-त्योहार, जन्म-मृत्यु एवं अन्य संस्कार वनों से संबंधित है। यह जनजाति मुख्य रूप से अपना जीवनयापन सुदृढ़ रूप से चलाने के लिए कृषि का कार्य करती है। इसके अलावा व्यवसाय, नौकरी, दैनिक मजदूर, अन्य शहरों/राज्यों में दैनिक मजदूर, भवन निर्माण, ईट भट्ठों आदि पर कार्य करते हैं। मेलघाट क्षेत्र में कोरकू जनजाति के पास पर्याप्त आर्थिक साधन है जिससे वह अपना जीवन निर्वाह बहुत ही अच्छे ढंग से कर सकते हैं लेकिन इसके बावजूद भी इस क्षेत्र में कोरकू जनजाति की स्थिति सम्मानजनक नहीं है।

            मेलघाट क्षेत्र में कृषि वाले खेत आकार में छोटे-छोटे जोत और ढलान पर हैं। छोटे-छोटे जोत और ढलान पर खेत होने कारण ट्रैक्टर से जुताई और सिंचाई की समस्या होती है। क्षेत्र में सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था की कमी है। सिंचाई नदियों और वर्षा पर निर्भर है। भौगोलिक विषमताओं, महंगे आधुनिक कृषि यंत्रों और आधुनिक कृषि तकनीकों की अज्ञानता के कारण कृषि में परंपरागत तकनीक का उपयोग किया जाता है, जिससे उत्पादन तय मात्रा से कम होता है। उत्पादित फसलों की बिक्री के लिए उचित मूल्य के सरकारी क्रय केन्द्रों का होने के कारण सही मूल्य नहीं मिल पाता है। जनजाति क्षेत्र में कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था, आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रशिक्षण एवं निम्न मूल्य पर यंत्रों को उपलब्ध करवाना, कृषि में आधुनिक तकनीकों के बारे में बताना आदि कार्य सरकार द्वारा किया जाना चाहिए। जनजाति क्षेत्रों में खरीद-बिक्री के लिए उचित मूल्य के सरकारी केन्द्रों को संचालित करना चाहिए।

            जनजाति क्षेत्रों से सबसे अधिक प्रवासन अन्य राज्यों/शहरों में रोजगार की तलाश में होता है। बहुत अधिक संख्या में कोरकू जनजाति के परिवार रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों/शहरों में जाते हैं। ये लोग अशिक्षित या निम्न शिक्षित और किसी विशेष कौशल के अभाव में दैनिक मजदूरी, सड़क निर्माण, भवन निर्माण, ईट भट्ठों, आदि जगहों पर कार्य करते हैं। इन जगहों पर मालिकों द्वारा उन्हें कम वेतन दिया जाता है और उनका मानसिक-शारीरिक शोषण भी किया जाता है। इस प्रकार के प्रवासन से इनके बच्चों की शिक्षा बहुत अधिक प्रभावित होती है। इस तरह के प्रवासन को रोकने के लिए सरकार द्वारा जनजाति क्षेत्रों में ही रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाना चाहिए और साथ ही साथ विभिन्न कार्यों में विशेष कौशल के प्रशिक्षण भी देने की आवश्यकता है।

            जनजातियों में विशेष प्रकार की कलाकृतियां बनाने की अनूठी कला होती है, जो बहुत ही आकर्षक एवं वनोपज से बनी होती है। कोरकू जनजाति के लोग बांस से कलाकृतियाँ बनाने में कुशल हैं। ये बांस से घरेलू उपयोग की वस्तुएं, सजावट की वस्तुएं, आभूषण आदि बनाते हैं, जो आधुनिक बाजार में बहुत उच्च दरों पर बिकता है। लेकिन इन कलाकृतियों के बाजार की अनभिज्ञता के कारण इन्हें अपनी कलाकृतियों का सही मूल्य नहीं मिल पाता है। गैर-जनजाति लोग इन क्षेत्रों से बहुत ही निम्न मूल्यों पर इन कलाकृतियों को खरीदकर बड़े बाजारों में उच्च दरों पर बेचते है। इनकी कलाकृतियों को उचित बाजार दिलवाने की आवश्यकता है ताकि इन्हें इनका उचित मूल्य मिल सके और यह क्षेत्र इनकी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने में कारगर साबित हो सके।

दूसरे शब्दों में हम कहें तो जनजाति समाज बहुत ही मेहनती और कुशल क्षमता वाला समाज है। कोरकू जनजाति अपने आर्थिक जीवन को बेहतर बनाने के लिए बहुत अधिक मेहनत और प्रयासरत है। भौगोलिक स्थितियां, आधुनिक संसाधनों की कमी के बावजूद भी कोरकू समाज अपनी सामाजिक आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास कर रहा है। जनजाति विकास के लिए इन क्षेत्रों में कई सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन किया गया है। सरकार भी जनजाति विकास के लिए प्रयासरत है लेकिन इन क्षेत्रों में भौगोलिक स्थिति और विशेष जनजाति को केंद्र में रखकर योजनाओं को लागू करने की आवश्यकता है। सामाजिक और आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के लिए आधुनिक तकनीकी शिक्षा, आधुनिक कृषि का प्रशिक्षण आदि देने की अधिक आवश्यकता है। सामाजिक स्थिति को बेहतर करने के लिए सरकारी नीतियों के साथ-साथ गैर जनजातियों के अन्दर जनजातियों के प्रति व्याप्त भेदभाव जैसी हीन भावना को निकालने की अधिक आवश्यकता है।

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योगेश कुमार जांगिड़
शोधार्थी, गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
yogeshjangid872@rediffmail.com, +91-9414494589

दीपक कुमार
शोध सहायक, मानवविज्ञान विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
cooldeepak451@gmail.com, +91-8294163039

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

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