यात्रावृत्त : विरासत और साहस का संगम स्थल 'अंडमान एवं निकोबार' / डॉ. मुकेश कुमार मिरोठा

विरासत और साहस का संगम स्थल 'अंडमान एवं निकोबार'
- डॉ. मुकेश कुमार मिरोठा

‘‘इकां पावाँ म्हैं तौ चक्को घूमे छ।’’ माँ ने दादी से जब कहा तो मेरा मन चिन्तित हो उठा। अपनी सारी शिक्षा मैंने दादी जी के सानिध्य में रहकर पूरी की है। वे मेरी बहुत फिक्र करती हैं। माँ ने जब उनसे शिकायत की, वे मुस्काई। दंतहीन मुख से बोली- ‘‘घोड़ा ने घर काईं दूरी।’’ अर्थात् घोड़े के लिए घर से क्या दूरी, वो तो अपनी तेज़ गति से तीव्रता से दूरियों को नाप सकता है। कहकर वे हंसी। मेरा मन प्रफुल्लित हो उठा। अपनी पूरी शिक्षा के दौरान मैंकभी भी घर और शिक्षण केन्द्र के अलावा कहीं बाहर नहीं गया। घूमा। घूमूँ भी कैसे, आर्थिक व्यवस्था तीसरी दुनिया के देशों के समाज में सदैव अस्थिर ही रही। नौकरी के बाद व्यवस्थित हो जाने पर मेरा घूमने का चक्र बना। माँ के शब्दों में जो पहिया मेरे पैरों से जुड़ गया है, रुकने, थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। राजस्थान निवासी और भारतीय राजधानी दिल्ली के एक बड़े प्रतिष्ठित केन्द्रीय विश्वविद्यालय की नौकरी में हर हफ्ते (वीकेण्ड) में घर जाने की जो शुरूआत हुई, धीरे-धीरे एक परम्परा बनती चली गई। अब पाँव रूकते नहीं, ठहरते नहीं। बिल्कुल घरौंदा बनाती चिड़िया की तरह। एक बार बन जाने पर फिर नए घर का निर्माण। नीड़ का निर्माण फिर-फिर।

सरकारी सेवा में एक अच्छी बात यह है कि आपको अवकाश ज्यादा मिल जाता है, तिस पर मैं तो सामान्य शिक्षक हूँ। लगभग पूरा एक माह गर्मी और 20 दिन सर्दियों में छुट्टियों के मिल ही जाते हैं। मैंने आवश्यक कार्यों के अतिरिक्त दिनों को इनमें शामिल नहीं किया है। ऐसे ही एक व्यस्त दिन जब मैं अपने कार्य मे मग्न था, तब धीरे से मेरी गर्दन और कानों के पास एक विचार ने जैसे मुझे जकड़ लिया। मुझे लगा जैसे वो मुझे कहीं खींचकर ले जाना चाहता है, बात करना चाहता है। मैं हैरान-परेशान उसके शिकंजे से मुक्ति के लिए भरसक प्रयत्न करता हूँ परन्तु सब निरर्थक, निष्फल। मुझे लगता है उस दिन मैं पूरी तरह उस विचार के आगोश में था। नियंत्रण नहीं या मेरा मेरे ही अस्तित्व पर। ह्नदय तेज धड़कने लगा था, श्वासें उतार-चढ़ाव में शायद प्रतिद्वन्द्विता करने लगी थी। शाम को घर आकर मैंने पहले चाय पी, विचार को भी पिलाई। तदन्तर उसके साथ रूबरु हुआ। दिल्ली की धूसर शाम ढलने को थी। प्राकृतिक रोशनी कृत्रिमता का आवरण ओढ़ने लगी थी। विचार बोला- ‘‘थक गए हो बहुत। ह्नदय और बुद्धि मिलकर तन को परास्त करने लगे हैं। जिजीविषा उमंगों पर हावी होकर हतोत्साहित करने की पुरज़ोर कोशिश कर रही है। इससे संघर्ष करने का साहस तो आपको प्राप्त हो रहा है मगर यह अस्थायी प्रबन्ध हैं। दूर तक चलना है तो इन सबको तरोताज़ा करना होगा। आत्म को, देह को, भावों को भी।’’ स्वयं का स्वयं से प्रतिकार करने का सवाल ही नहीं था। विचार की जीत हुई। घूमने का मन बना लिया। तत्क्षण ऐसा प्रतीत हुआ मानों स्फूर्ति दस्तक देने लगी हो।

समय से पहले अस्त होना मेरा प्रारब्ध नहीं हैं। उसे होने दूँगा। जब तक जीवन है तब तक प्रतिकूलताओं से लगातार जूझता रहूँगा। अतः उस दिन भी उत्साह की ज्योति अपने अंतस में जागृत कर निश्चय किया कि आगामी अवकाश में जीवन की सौम्यता और संघर्ष चेतना को साकार करने वाली जगह पर जाया जाए। अंधेरी रात्रि में जुगनू झिलमिलाया। सौम्यता, शान्ति और संघर्ष चेतना, सम्मिश्रण। अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह। मैं अंधेरे की गोद से ज्ञान रोशनी की तरफ जा बैठा। पंछी चहचहाने लगे। हवा उम्मीदों की सुगन्ध लिए निराशा को बहाकर ले जाने लगी। केन्द्रशासित क्षेत्र। भारत की भूमि का हिस्सा होकर भी उससे अलग। समुद्र में मोती। शांत द्वीप, मनोरम प्रकृति। सेल्यूलर जेल के बारे में दिल्ली विश्वविद्यालय के हमारे साथी डॉ. कपिल देव निषाद एक मुलाकात के दौरान ने पहले ही बता दिया था। मेरे लिए एकदम अनजान, अपरिचित जगह। सागर के मध्य में उभरी भूमि जो अनेक द्वीपों में बंटी हुई है। जहाँ आज भी भारत की आदिम जनजाति निवास करती है। काफी कुछ था जानने को। अण्डमान को देखने की इच्छा बलवती हो उठी। उपयुक्त तिथियों को ध्यान में रखते हुए माँ, दादी माँ, और पापाजी के संग-साथ की टिकट बुक करा ली। हफ्ते भर की छुट्टी थी। इन्हीं दिनों का सदुपयोग किया गया। घर में तैयारी होने लगी। शेष दिन हवा की मानिन्द उड़ से गए और यात्रा का नियत समय ही गया। आना क्या, हम सब बेताब होकर उस दिन का इन्तज़ार कर रहे थे। बहरहाल तैयार हुए और दिल्ली के चमकते-दमकते अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पहुँचे।

जिस वक्त हम पोर्ट ब्लेयर के अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरने वाले थे, उद्घोषणा हुई कि मौसम साफ है, तापमान भी ठीक ही था। दूर-दूर तक फैला विशाल महासागर यह बता रहा था कि प्रकृति के सामने हमारा अस्तित्व क्या है। नीचे समुद्र का किनारा दिखाई दे रहा था। बादलों के घेरों के मध्य टापू नज़र रहे थे। आसमानी टापू और जमीनी टापू। अद्भुत दृश्य संयोजन था। दादी माँ ने तो वहीं से प्रकृति को नमन किया। ठीक वक्त पर हमारे हवाई जहाज ने एयरपोर्ट की जमीन को छुआ और हम सब सुरक्षित उतर कर, सामान के साथ अपने गाँधी चौक स्थित होटल की तरफ बढ़ चले। गाड़ी के ड्राईवरनमितने बताया कि यहाँ ज्यादातर मलयालम, तेलुगू और बंगाली भाषी लोग है। हिन्दी को लेकर अनिश्चय की कोई बात नहीं थी। सबको हिन्दी आती थी, बोल रहे थे, समझ रहे थे। खैर पर्यटन उद्योग में हो रही निरन्तर वृद्धि ने हिन्दी को बाजार से जोड़ दिया है। पूरे भारत में आपको कहीं भी पर्यटन स्थलों पर भाषा को लेकर कोई समस्या नहीं होगी। हिन्दी का प्रयोग लगातार बढ़ रहा है।पोर्ट ब्लेयरभी इससे अछूता नहीं है। साफ सड़कों की तरह वहाँ के निवासी भी मुझे साफ दिल के ही लगे। हालांकि मूल निवासियों से ज्यादा वहाँ प्रवासियों (भारत के अन्य क्षेत्रों के निवासी) की संख्या थी। भोजन संस्कृति पर भी यह व्यवस्था लागू है।

अण्डमान पहुंचने के लिए दो ही मार्गों का विकल्प है। एक हवाई और दूसरा पानी के जहाज द्वारा। एक जितना तीव्र है तो दूसरा उतना ही धीमा। मेरा मन पानी के जहाज़ द्वारा एकतरफा यात्रा का था लेकिन परिजनों के स्वास्थ्य और वक्त की कम उपलब्धता ने इसे साकार रूप नहीं लेने दिया। खै़र, इसे भी मैंने प्रकारान्तर से पूरा करने का प्रयत्न किया।हैवलॉक द्वीपतक पानी के जहाज़ (फेरी) चलते हैं तो मैंने निश्चय किया कि वहाँ अवश्य जाऊँगा। हालांकि यह मेरे प्लान का हिस्सा नहीं था। राजस्थान सदृश कठोर भूमि पर रहने के कारण परिजनों को पानी की अधिकता से थोड़ा डर लगता है। अतः इसे मैंने उस वक्त तो टाल दिया लेकिनहेवलॉककी स्वर्णिम आभामयी सुन्दरता ने मन को मंत्रमुग्ध कर दिया और पानी के जहाज की बुकिंग करवाने के बाद ही मैं उस मंत्र के प्रभाव से स्वयं को मुक्त कर पाया। यह सारी व्यवस्था होटल के मैनेजर ने की। बड़ा भला आदमी था। भारत के अन्य पर्यटन स्थलों सी बेरूखी, धूर्तता और चालाकी का भाव उसमें नहीं था। सहज सरल था। पापाजी ने जब उसकी तारीफ की तो मुझे पक्का यकीन हो गया कि मैनेजर अच्छा व्यक्ति है। पापाजी इतनी जल्दी किसी की तारीफ नहीं करते हैं। शायद वे ज्यादा सैद्धांतिक हैं। दुनिया देखी हुई है। उनकी बातें अक्सर सच ही निकलती हैं। मैनेजर, मेरी दादी माँ और माँ के साथ बड़ा खुश था। उसने अच्छा सा लंच कराया। लंच में साउथ इण्डियन स्टाइल का खाना था। स्वाद भरपूर था। थोड़े आराम के बाद हमने बाहर बाज़ार घूमने का प्लान किया। शाम का वक्त था। बाज़ार में भीड़ थी। यहीं मुख्य बाज़ार है। जिन्दगी के लिए आवश्यक वस्तुओं का वहाँ भण्डार था, बावजूद इसके चीजें अपेक्षाकृत महंगी थीं। समुद्र से सम्बद्ध चीजें बहुतायत में थीं। थोड़ी-बहुत खरीददारी हमने भी की। रात होने लगी थी। हम सब होटल लौट चले। खाना खाया और नींद के आगोश में चले गए। ऑखों में नींद थी और मन में उत्सुकता।

ऑंख खुली तो देखता हूँ कि क्षितिज से खिड़की के सहारे उजास झांक रहा है। माँ और दादी माँ तैयार होकर कमरे की खिड़की के पास बैठकर स्थानीय लोगों के जीवन एवं रहन-सहन पर अपनी भाषा में बात रही हैं। पापाजी मैनेजर से बात करने चले गए हैं। चाय हमारे कक्ष तक हाजिर हो चुकी थी। चाय और बन पाव को ग्रहण करके हम सब पोर्ट ब्लेयर के बंदरगाह की तरफ चल पड़े। वहीं से हमारा पानी का जहाजहैवलॉककी तरफ जाता है। शाम को वापसी होती है। मैंने एक रात्रि वहीं रूकने का प्लान किया था। इस तरह हमारे पास दो दिन का समय था। मेरे साथियों नेनील द्वीपके लिए भी कहा था, लेकिनसी-सिकनैसकी अधिकता की वजह से मैंने मना कर दिया।फिनीक्स बेबंदरगाह पहुंचकर हम टर्मिनल के विशाल भवन में प्रवेश कर गए। वहीं पर हमारे टिकट, पहचान-पत्र आदि की जांच हुई। जांच के बाद हम फैरी में प्रवेश के लिए कतारबद्ध हो गए। मेरे पैर कांप रहे थे। पहली बार था जब मैं इतने लम्बे सफर के लिए फैरी पर सवार हो रहा था। नदियों में नौकायन किया है मगर यह बंगााल की खाड़ी थी। लहरदार, गरज के साथ ऊपर उछलती पानी की प्राचीरें अद्भुत अहसास करा रही थीं। दृश्य बहुत शानदार था। हम उम्र भर सुख का पीछा करते रहते हैं। उसकी प्राप्ति के लिए संघर्षरत रहते हैं। और एक दिन जब वह मिल जाता है, हम अपने से पूछने लगते हैं। खो जाते हैं। मैं, कहाँ हूँ, किस देश में हूँ, मेरा ठिकाना कहाँ है, यह कौन-सी जगह हैं, क्या ऐसी जगहें अभी हैं आदि आदि। मैं भी फैरी की भव्यता और समुद्र की विशालता के मध्य खो गया था। खाने-पीने की सारी व्यवस्था वहां पर थी। एक तेज़ ध्वनि के साथ फैरी जब किनारा छोड़ा तो मैं पुनः यथार्थ भूमि पर उतर पाया। शोरगुल की आवाज़ मधुर संगीत में परिवर्तित हो गयी। लोगों ने दूरी काटने के लिए नाच-गाना प्रारंभ कर दिया। कुछ अपने कैमरे और मोबाईल से जीवंत दृश्यों को कैद कर रहे थे। मैं यथार्थ में होकर भी अर्धचेतन सा था। जीवन के उन महत्त्वपूर्ण पलों को जीना चाहता था। अवगाहन कर रहा था मैं मस्तिष्क और आंखों के मध्य बने हुए दृश्य सागर में। माता-पिता, दादी माँ सब खुश थे। मैं समुद्र सरीखे सयानेपन में नदी जैसा मौन रखकर स्वयं को अपरिमित विस्तार देने की लघु कोशिश में था।

हैवलॉक द्वीप अब स्वराज द्वीप से पहचाना जाने लगा है। नामान्तरण के बावजूद वहाँ अभी भी हैवलॉक जिन्दा है। बंदरगाह या टर्मिनल से उतरकर हम सबने भरपूर अंगड़ाई ली। अंग्रेज़ कमाण्डर हैनरी हैवलॉक के नाम से इसको पहचान मिली हे। मुझे लगता है कि हैवलॉक का आरामदायक अनुभव सबको लेना चाहिए। इसकी भौगोलिक स्थिति और समुद्र का अनूठा आकर्षण हमें इसकी ओर खींचता है। समुद्र की आबोहवा प्राकृतिक सौन्दर्य को नए प्रतिमान देती है। प्रकृति प्रेम और वास्तविक जोखिम लेने वाले समुद्र प्रेमियों के लिए यह द्वीप खास मायने रखता है। दिल्ली, मुम्बई या अन्य किसी व्यस्ततम शहर की तनाव भरी जिन्दगी में यहाँ की शान्ति आपको ताज़गी का अहसास कराती है। लंच के बाद उम्र और वज़न की पाबंदियों की वजह से केवल मैं ही समुद्र के खारे नीले जल में स्कूबा डाइविंग के लिए स्कूबा दल द्वारा उपयुक्त पात्र घोषित हुआ। दादी माँ और माँ ने तो साफ मना कर दिया। पापा को मैंने फिर भी स्नोर्कलिंग के लिए तैयार कर लिया। उत्तुंग पहाड़ों पर मैनें कई बार ट्रेकिंग की है। राजस्थान की रेतीली धरा पर भी मैं कई ीलों तक चला हूँ। इस बार मुझे पानी में, वो भी समुद्र के असीमित और अपार जलसमूह के नीचे जाना था। यह अपनी तरह का वॉटर एडवेंचर था। धड़कनें बढ़ने लगी थी। उन्हेंउत्साहनियंत्रित करने की लगातार कोशिश कर रहा था। लगभग 30 मिनिट की ट्रेनिंग के बाद मेरा ट्रेनर मुझे पानी के अन्दर नीचे ले गया। अब मैं था, पानी था, नीचे समुद्र की सतह थी और अपार जलसंसार था।

पानी के नीचे गोताखोरों को पेशेवर तौर-तरीकों से रहना पड़ता हैं। मनोरंजन के लिए स्कूबा डाइविंग आपको अपार आनन्द की प्राप्ति भले ही कराती हो लेकिन यह उतनी ही खतरनाक भी हैं। एक सेल्फ कांटेनेड अण्डरवॉटर ब्रीथिंग अप्पेरेटस के साथ गोताखोर नीचे जाते हैं और समुद्रीजगत के साथ अठखेलियों के दौरान आपको रिकार्ड भी करते हैं। समुद्र में सीप, रिफ्स, चट्टाने, मछलियाँ, अन्य जलीय जीव और अनेक प्रकार की वनस्पतियाँ आपकी आँखों के सुकून के लिए पर्याप्त हैं। समुद्र के परिस्थितिकी तंत्र को जानन-समझने का यह बेहतरीन माध्यम है। पानी के भीतर का संसार। अपनी आँखों से देखने का अहसास। मन को संतुष्टि प्रदान करता वातावरण। नमकीन परिवेश। मेरा मन ही नही कर रहा था कि मैं बाहर निकलूँ। खैर समय की पाबन्दी भी। पापा भी समुद्र संसार को देखकर अत्यंत प्रसन्न थे। हमने अपने ट्रेनर से विदा ली। दादी माँ और माँ हमारा इन्तजार कर रही थी। हम होटल आए। चाय पी। थोड़ा आराम किया और फिर घूमने निकल पड़े। गोविन्द नगर और श्याम नगर वहाँ के प्रसिद्ध तटीय गाँव हैं। हमने वहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता और जीवन को नज़दीक से देखा। एक जगह खरीददारी भी की। स्टारफ्रूट और मसालों का कुछ हिस्सा अपने साथ लिया। शाम हो रही थी। सूर्य अस्ताचलगामी थे। माहौल में और ज़्यादा शान्ति महसूस होने लगी थी। घूम फिर कर हम वापस होटल लौट आए। दिन भर की सुखद अनुभूतियों पर चर्चा करते हुए भोजन करके बिस्तर की राह ली। तन थका हुआ था, पर मन का जोश बरकरार था। आँखें निर्णायक की मुद्रा में थी।

पता नहीं कितनी इच्छाओं को अन्तस में दबाए हम अगली सुबह फिर तैयार थे। स्नान एवं नाश्ते के बाद हमारी मंज़िल संसार के सबसे खूबसूरत तटों में से एक राधा नगर तट था। हम सब उसकी सुन्दरता को निहारने के लिए व्याकुल थे। कहते हैं, वहाँ सुबह जो रेतीला तट नज़र आता है वो दिन छिपने के साथ समुद्र के जल स्तर में वृद्धि के कारण डूब जाता है। आभामयी प्राकृतिक स्थलों की सुरम्य राहों में चलते हुए जब हम राधानगर तट पर पहुंचे तो लगा मानों आँखें स्थिर हो गई हों। रेतीला चमकता तट, स्वर्णिम आभा लिए हम सबके मन को हरता चला जा रहा था। वहाँ विस्तार ही विस्तार था, सारी दिशाएं खुली हुई थीं। तट और समुद्र एकमेव हो गए थे। मनमोहक स्थान। मनोहारी दृश्य। हम सबने वहीं पर बैठकर दोपहर का सुस्वादु भोजन किया। उदर के साथ मन में सुप्त इच्छाओं की भी पूर्ति हो रही थी। वहीं समीप में इकोलॉजिकल पार्क था। उसका भी भ्रमण किया। दादी मॉं ने राधा नगर तट पर अपने हाथों से एक खूबसूरत घरौन्दा बनाया। हमारा घरौन्दा आबाद रहे। वे रहें। यह जगह रहे। समाज रहे। देश रहे। हम सब खुश रहें। यहाँ शनैः शनैः मन के विकार नष्ट होने लगते हैं। स्वयं को हम तरोताजा महसूस करने लगते हैं। यात्राओं का एक मकसद यह भी तो है। ताड़ के पेड़ों से युक्त समुद्र तट का शांत वातावरण आपको कवि बनने को मजबूर कर देगा। संगीत की तरंगें आपको नाचने को कहने लगेंगी।नील गुफाकम ज्ञात स्थल है। हमारे अलावा वहाँ इक्का-दुक्का लोग ही थे। विश्राम और तैराकी के लिए यह तट आदर्श स्थान हैं। बिल्कुल शांत, साफ, नीला जल। निर्मल जल। रेत का अन्तहीन खिंचाव आपको वहाँ आने रूकने को बाध्य कर देता है। माहौल के आनन्द में हम भूल गए कि हमें आज वापस पोर्ट ब्लेयर जाना भी है। खैर वक्त रहते हम वहाँ से निकल गए। तन हमारे साथ था, मन राधानगर तट की सुन्दरता में खो गया था। टर्मिनल पर आकर हम फैरी में नियत स्थान पर बैठ गए। फिर यात्रा। आनन्ददायक यात्रा। सुखद यात्रा।

ताज़ा नमकीन हवा के झोंकों संग मस्ती करते हुए हम सान्ध्य बेला में पोर्ट ब्लेयर के तट पर उतरे। रोशनी से पूरा तटीय इलाका चमक रहा था। मनोरम मार्ग ने थकावट को दूर कर निःसंग सौन्दर्य को हमारे भीतर समाने की कोशिश की। गांधी चौक पर बहुत भीड़ थी। हमने होटल की सीधी राह पकड़ी। होटल आए और जाने अनजाने अपने को महत्त्वपूर्ण मानते  हुए आंखों को विश्राम देना उपयुक्त समझा। खाना खाकर हम सब बेसुध हो बिस्तरों पर पड़कर दुनियावी दुःस्वप्नों को भुलाने की कोशिश में लग गए। यहाँ पर इण्टरनेट बहुत स्लो है अतः मोबाइल के वर्चुअल संसार से भी दूरी थी। नींद थी, हम थे और था स्वप्न संसार। मैं देख रहा था चारों ओर सघन नील-नभ है। नीचे भी नील सागर। मध्य में मैं अकेला असहाय दो ध्रुवों के मिलन को देख रहा हूँ, निस्तेज, निर्निमेष। चारों ओर नीरवता का अखण्ड राज्य है। मैं भी प्राणी-शून्य, शब्द-शून्य नील गगन में समाते चला जा रहा हूँ। धरा भी उसी में समाहित हो रही है। अनूठा सुखमय अहसास, जो मेरे रोम-रोम में व्याप्त हो रहा था। मैंने स्वयं को उसके हवाले कर दिया। सुखद स्मृतियों ने फिर से डेरा डाल लिया। मैं अम्बर-घट के प्रवाह में बहता चला गया। जाने फिर कब।

अगले दिन हमारे दो कार्यक्रम थे। पहला समीप के रॉस आयलैण्ड की सैर और दोपहर के बाद सेल्यूलर जेल का दीदार। तैयार होकर हम सब रॉस द्वीप के लिए निकल पड़े। रास्ते के नज़ारों ने मन मोह लिया था। हमने होटल से फैरी या छोटी नाव मिलने के टर्मिनल तक की दूरी पैदल ही तय की। दादी जी और माँ तो थकती हैं, रुकती हैं। अपने जन्म से लेकर अभी तक मैंने उन्हें सदैव ऐसे ही देखा है। अनथक, अथक, लगातार काम करते रहना। उनकी सुबह और शाम परिवार के नाम थी। परिवार की एकजुटता और मूल्यों के लिए कोई भी उनके योगदान की बराबरी नहीं कर सकता। वे हमारी आधार हैं। वे परिवार हैं। शायद इन्हीं भावों की वजह सेपरिवारनामक संस्था अब तक अपना अस्तित्व बचाये रखी हुई है। यह हमें सामूहिकता एवं सामाजिकता की भावना सिखाती है। संवेदनशीलता सिखाता है। इन्हें सलाम। टर्मिनल पहुँच कर हम नाव में बैठ गए। किनारे से ही यह द्वीप दिखाई देता है। थोड़ी देर में ही नाव ने हमें गन्तव्य तक पहुँचा दिया। हमारे पास लगभग दो घण्टे का समय था। हमने द्वीप की राह पकड़ी। अण्डमान निकोबार द्वीप समूह के ज्ञात कुल 572 द्वीपों में रॉस द्वीप अपने इतिहास के लिए प्रसिद्ध है। अब इसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नाम से जाना जाता है। इस द्वीप पर ब्रिटिशकालीन हुकूमत को बयान करते उनके घरों के खण्डहर, बंगलें, चर्च, बॉलरूम (मनोरंजन स्थल) और एक कब्रिस्तान के खण्डहर मिलते हैं। अण्डमान के ज्यादातर द्वीपों का पानी पीने योग्य नहीं है। रॉस द्वीप पर पीने का पानी मौजूद था। आज भी यहॉं पर अंग्रेज़ों द्वारा बनाया गया पानी साफ करने का प्लाण्ट टूटी-फूटी जर्जर अवस्था में विद्यमान है। यहाँ के सभी खण्डहर अपने काले अतीत का आईना है। वे कंकालों के समान हैं, जिनमें हड्डियाँ तो हैं लेकिन जीवन्तता की कोई निशानी मौजूद नहीं हैं। एक वक्त का चमकता रौशन द्वीप काले और घिनौने इतिहास को समेटे वर्तमान में वीरान हो चुका है। अब यहाँ केवल हिरण, खरगोश और मोर की इकलौती आवाजे़ं ही इसकी वीरानी के मध्य गूंजती हैं। यह द्वीप हमारे इतिहास का एक दाग है। स्वतंत्रता को आसान समझने वाले लोगों को एक बार रॉस द्वीप का भ्रमण करना चाहिए। बुलंद ब्रिटिशर्स से आबाद यह द्वीप अब सुनसान है। प्रकृति इसे फिर से अपने में शामिल कर रही है। चारों तरफ का जंगल बढ़ता ही चले जा रहा है। घूमने की जगह सिमटती चली जा रही है। कुदरत अपने इलाकों पर फिर से हक जमा रही है। सोचते-विचारते हमने वहीं हिरण, खरगोश और मोर के संग साथ लाया हुआ भोजन किया। तृप्त हुए। वापसी की। तट पर आए। अगला ठिकाना अब सेल्यूलर जेल था। नाम लेते ही सनसनी। सरसराहट। पीड़ा, दर्द का अगाध समंदर।

स्वतंत्रता सेनानियों को कठोर दण्ड देने के इरादे से सेल्यूलर जेल का निर्माण किया गया। इसे बनाने में लगभग दस साल लग गए। आधारभूत ढाँचे और संरचना के स्तर पर तत्कालीन वक्त की उत्कृष्ट कारीगरी। बर्मा से मंगाई गई लाल ईंटों से निर्मित इस जेल में कुल सात शाखाएं थीं। 698 कमरे हैं, जिनकी माप साढ़े चार मीटर लम्बाई और सात मीटर चौड़ाई है। जेल के मध्य में दो टॉवर है, जो कैदियों पर नज़र रखने के काम आता है। प्रत्येक शाखा तीन मंजिल की है। शयनकक्ष होने एवं कोठरियों के अत्यंत छोटे होने की वजह से कैदियों को अपार यंत्रणा सहनी पड़ती होगी। गहरे समुद्र से घिरी होने के कारण चारदीवारी काफी छोटी है। कैदियों का कोई रिकॉर्ड अब यहाँ मौजूद नहीं हैं। बर्बरता से जाने कितने देशभक्तों को यहाँ फांसी दे दी गई होगी, हम सोच कर ही सिहर उठते हैं।काला पानीयह शब्द अपने भीतर भयानक यंत्रणा, बर्बरता और पीड़ा को समेटे वर्तमान में भी मुहावरा बना हुआ है।फांसी घरकैदियों की कोठरियों के सामने स्थित था। एक तो अकेलापन, दूसरा फांसी लगते हुए अपने किसी साथी को देखना, यह उनकी पीड़ा को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था। फिलहाल जुल्म की दास्तान सुनाती यह जेल अब एक राष्ट्रीय स्मारक है। स्वतंत्रता सेनानियों पर ढाये गए अमानवीय नृशंस अत्याचारों की गाथा को आप शाम में होने वाले ध्वनि एवं प्रकाश व्यवस्था के माध्यम से जान सकते हैं। उनकी तकलीफों के आप मूक गवाह बन सकते हैं, जिन्होंने देश की आज़ादी हेतु अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। उन सभी माँ-बहनों को सादर नमन जिन्होंने अपनों को खोया होगा। जेल के मध्य में स्थित पीपल वृक्ष को याद करके राग विरह गाया होगा। प्रखर राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा इसको देखकर आप स्वतः महसूसने लगते हैं। दादी माँ, माँ और पिताजी के साथ मेरी आँखें भी सजल थीं। पीड़ाओं के महासागर में भी देश के लिए जान देने वालों ने अपनी हंसी का त्याग नहीं किया होगा। हम सब उनके सदैव कृतज्ञ हैं। ऋणी हैं उनके दाय के, त्याग के। आजादी के लिए जो जुनून उनमें था, काश हम उस आजादी का वास्तविक अर्थ समझ सकें। तथाकथित राष्ट्रवाद से परे यह सच्ची राष्ट्रभक्ति थी। देश-प्रेम का ऐसा दीया था, जो अब कभी नहीं बुझ सकेगा। हम सबको आज़ादी की इस कीमत का सम्मान करना चाहिए। सेल्यूलर जेल की दीवारों पर उन वीर शहीदों के नाम लिखे हुए हैं। यहाँ एक संग्रहालय भी है, जिसमें उन रक्तपिपासु अस्त्रों को देखा जा सकता है, जिनसे स्वतंत्रता सेनानियों पर असह्य अत्याचार किया जाता था।

भारत की आजादी के बाद जेल की दो शाखाओं को नष्ट कर दिया गया था। वहीं पास में सन् 1963 में गोबिन्द वल्लभ पंत अस्पताल खोला गया है जो पूरे अण्डमान का सबसे बड़़ा अस्पताल है। अपने निर्माण के सौ साल पूर्ण होने पर 10 मार्च 1996 को सेल्यूलर जेल का शताब्दी वर्ष भी मनाया गया। इसका मकसद वर्तमान को उस काले अतीत से सम्बद्ध करना था। यहाँ शहीद हुए उन क्रान्तिकारियों को नमन करते हुए मैं सोचने लगा ‘‘क्या हम उस आजा़दी का मोल लगा सकते हैं, थोड़ा भी अहसास कर सकते हैं?’’ कभी नहीं। कभी नहीं। हममें इतना सत्व नहीं। पूरा परिसर आज भी शहीदों की श्वासों से अनुगूंजित है। सुनामी से जेल परिसर को नुकसान तो हुआ है लेकिन रॉस द्वीप ने द्वारपाल की मानिन्द प्रकृति का पूरा कहर अपने पर ले लिया और पोर्ट ब्लेयर को उसकी स्वर्णिम भोर सौंप दी।शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।मैं चाहूँगा कि ताउम्र मैं भी उस मेले में शामिल रहूं। इस देश की खातिर थोड़ा बहुत मैं भी कुछ अच्छा कर सकूँ तो शायद मेरा जीवन सफल हो। देश की महिमा को और ज्यादा निखार सकूँ। इस भूमि का मान बढ़ा सकूँ। यह सोचते हुए परम शांति का अहसास हुआ। इन्हीं भावों मे डूबते-उतरते होटल आकर खाना खा के सपनों की सुनहरी दुनिया में डूब गए। स्वप्न-संसार में देश-प्रेम का लालित्यमय रूप दिखाई दिया। वो परम सौन्दर्यशाली था। शीतल एवं शांत। कुछ-कुछ अनूठा और अद्भुत। नमन ऐसी धरा को जिसने ऐसे शहीदों को जन्म दिया।

अगली सुबह सुहावनी। आज हम सबकी उत्तरी अंडमान में स्थितबाराटांगघूमने की योजना थी।मड वालकैनोको मिलाकर वहाँ पर कुल आठ ज्वालामुखी है। अद्वितीय गुफाओं वाला यह द्वीप प्राकृतिक सुन्दरता में भी अप्रतिम है। सड़क एवं नाव दोनों साधनों से आप यहाँ जा सकते हैं। मैंने सड़क मार्ग चुना। कारण था जारवा जनजाति के वन आरक्षित क्षेत्र के मध्य से गुज़रना। जनजातियों से भरपूर इस क्षेत्र में यात्रा के दौरान सड़़क पर आप रुक नहीं सकते। कुछ वक्त पहले जनजातीय बच्चों को पर्यटकों द्वारा खाने-पीने की चीजों के बदले परेशान करने का एक वीडियो वायरल हुआ था। प्रशासन ने अब सख्त पाबंदी लगा दी है। पूरी जॉच-पड़ताल के बाद ही आप संरक्षित क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। बता दूँ कि पोर्ट ब्लेयर से बारटांग लगभग 100 कि.मी. दूर है। पूरा रास्ता जंगल से गुजरता है। इस जंगल के मूल निवासी आदिम जनजाति जारवा है। हो सकता है वे आपको दिखाई दे जाएं। पूरा रास्ता वर्षा वनों से आच्छादित है। जंगल के सन्नाटे को गाड़ी की आवाज तोड़ती चलती है। खैर बारटांग पहुँचकर हमने चूना पत्थर की गुफाएं, कीचड़ वाले ज्वालामुखी और गिटार बीच का आनन्द लिया। पास ही स्थित पैरट द्वीप की शांत समुद्र वाली आकर्षक तट रेखा को निहारा। उन सब जगहों को मौके के अनुसार मैं कैमरे में कैद भी करते चले जा रहा था। पूरा माहौल आकर्षक और दिलचस्प था। शांत वातावरण। शून्य से बात करती हवा। एक जगह से दूसरी जगह जाते हम सब। कभी नाव से, कभी पैदल, कभी गाड़ी से। कैसे स्वयं को शामिल करें उस मंद समीर में। यहाँ की मनोहारी समुद्री तट रेखा को अपनी आखों में कैसे समेटें। दिशाओं का ज्ञान खो रहा था। बस हम उन पलों में जी रहे थे। दृश्य थे, बिम्ब थे, पोर्ट ब्लेयर वापसी तक आसमान में सितारे टंकने प्रारंभ हो गए थे। वहाँ की सड़कें तपस्वी-सी शांत हो चली थीं।

अगला दिन आराम करने का दिन था। हम लगभग पांच दिनों से लगातार घूम ही रहे थे। नाश्ता-पानी और तैयार होने के बाद मेरा मन आराम की मुद्रा में आने ही वाला था कि पिताजी बोले, ‘‘क्यों भाई्! आज नहीं चलना कहीं।’’ मैं हतप्रभ। दादी माँ और माँ मन ही मन मुस्कुराने लगीं। हमारा शहरी जीवन वीकेण्ड आते-आते हमें धराशायी कर देता है। परिवार वाले ताज़गी के साथ थकान को परास्त कराने वाले भावों के साथ घूमने को उद्यत थे। ‘‘जो आज्ञा पिताश्री’’ कहकर मैंने भी उनसे सहमति जाहिर की। हमारा पहला पड़ाव था-सुन्दर और प्राकृतिक खूबसूरती समेटे समुद्री तट कार्बन कोव।स्नेक आईलैण्डतक यहॉं से जेट स्कीइंग या छोटी नाव से सवारी का आनन्द लिया जा सकता है। मैंने जेट स्कीइंग द्वारा स्नेक आइलैण्ड का एक चक्कर लगाया। समुद्र के पानी को चीरती जेट की रफ्तार ने बहुत कम वक्त में अधिकाधिक साहस का परिचय करा दिया। हमने पूरे तट का पैदल ही चक्कर लगाया। दादी माँ ने घूम-घूमकर वहाँ पर अनेक तरह की सीपियाँ और पत्थर एकत्र कर लिए।वॉटर स्पोर्ट्सके लिए मुझे यह जगह ठीक लगी। यहाँ भीड़-भाड़ की ज्यादा नहीं थी। समुद्र की लहरों से आँख-मिचौली और अठखेलियों के बादफीयरलेस रिसॉर्टमें लंच किया। यहाँ पर नारियल पानी का भी भरपूर आनन्द लिया। इसके बाद हमचिड़िया टापूके लिए निकल गए। लगभग 25 कि.मी. दूर यह छोटा सा टापू रंग-बिरंगे पक्षियों और सूर्योदय एवं सूर्यास्त की भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। पहाड़़ी रास्तों और जंगली पेड़-पौधों से भरे इस द्वीप का अनूठा प्राकृतिक सौन्दर्य ही इसे सबसे आकर्षित बनाता है। पशु-पक्षियों का कलरव एवं चहचहाहट भरा स्वर आपको मोहित कर लेगा। यह द्वीप जितना छोटा है उतना ही अद्भुत आकर्षण का केन्द्र भी है। हरियाली से झाँकता समुद्र शोभाकारक है। ऐसा लगता है मानों अण्डमान निकोबार द्वीप समूह की प्राकृतिक जीवन्तता हम सबका स्वागत करने को तत्पर हो। हम सब मुग्ध थे उस पर। अलौकिक आभा। हमारी जिन्दादिली लहरों के उफान में शामिल हो गई थी। प्रकृति के उस खुले आंगन से हम वापस अपने कमरे में लौट आए। वक्त की सीमा थी। अगली शाम शहर वापसी थी। उत्साह, उमंग पर वापसी ने पहरा डाल दिया था।

शाम को ही हमने अबारदीन बाजार घूमकर थोड़ी बहुत स्थानीय सामग्री खरीद ली। पैकिंग वगैरह भी लगभग पूरी कर ली। खाते वक्त होटल के मैनेजर को पापा ने बताया तो हमें प्रसन्न देखकर वह खुश हुआ। उसका हिसाब-किताब पूरा किया। इस दौरान उसने कहा कि आपने यहाँ का मानव- विज्ञान संग्रहालय देखा कि नहीं? माँ ने प्रश्नचिन्ह नज़रों से मेरी ओर देखा। अभी कल शाम में बहुत वक्त शेष था। मैंने कहा कि सुबह उसे देखेंगे और फिर वहीं से एयरपोर्ट निकल लेंगे। मेरी योजना से सबने सहमति जताई। मैनेजर अपनी बात का समर्थन होते देख खुश था। हमने उससे विदा ली और नींद को आमंत्रण दिया। अगली सुबह हम सब तैयार होकर दोपहर होते-होते संग्रहालय पहुँच गए। अंडमान निकोबार द्वीप समूह के नृवंश विज्ञान को जानने के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ की विभिन्न जनजातियों, उनका खान-पान, रहन-सहन, जीवन-शैली और आदिम संस्कृति, सभ्यता को विस्तार से जाना, समझा जा सकता है। आदिम जन-जातियों के इतिहास को भी आपको यहाँ जानने का अवसर मिलेगा। मुख्य भवन दो मंज़िला है। पूरे भवन को अलग-अलग हिस्सों में बांटकर प्राचीन वस्त्रों, नावों, टोकरियों, उपकरणों, हथियारों, कलाकृतियों एवं अन्य मानवीय जीवन से सम्बन्धित वस्तुओं को दर्शाया गया है। अण्डमान की आदिम संस्कृति और समृद्ध इतिहास को यहाँ देखा जा सकता है। वे हमें नज़दीक से जानने का अवसर देती हैं। नज़दीक जाने का मौका देती हैं। आदिम संस्कृति और उसकी भव्य सम्पदा से रूबरू कराती हैं। ज्ञान के लिए तो नए क्षेत्रों अर्थात् कहें कि पुरातन ज्ञान की समृद्धि से हमारा सीधा साक्षात्कार कराती हैं। संग्रहालय पुरातन ज्ञान एवं मानव को देखने के लिए आधुनिक मनुष्य द्वारा निर्मित दर्शनीय केन्द्र है। संग्रहालय से बाहर आकर हमने नारियल पानी से अपनी थकान दूर की और एयरपोर्ट की तरफ बढ़ चले। रास्ते मेंजॉगर्स पार्कमें ठहरकर स्फूर्तिदायक वातावरण की खुशनुमा महक को नासिका द्वारा अपने में भरने की असफल कोशिश की। उन्मुक्त हवा भी भला कैद हो सकती है कभी। वो तो प्रेम और स्नेह की तरह सर्वत्र व्याप्त है। हम सब अभिभूत थे। सामने एयरपोर्ट की विशाल इमारत थी। एक नए लोक का प्रवेश द्वार।

वर्तमान भारत तेजी से आर्थिक विकास कर रहा है। भूमण्डलीकरण की बाजारवादी नीतियों के कारण प्रत्येक व्यक्ति उपभोक्ता बना हुआ है। वह बाजार की शक्तियों के अधीन हो गया है। बढ़ता पर्यटन एवं परिवहन इसका प्रमाण है। हालांकि भारत में प्राचीन काल से घुमक्कड़ी का अपना महत्व रहा है। हम भारतीयों में प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई समन्वय दृष्टि मिलती है। राहुल सांकृत्यायन की कालजयी कृतिवोल्गा से गंगामें हमें प्राचीन से आधुनिक तक की अन्वेषी यात्रा का पता चलता है। मनुष्य अपनी जिज्ञासु प्रकृति के कारण हमेशा सफर में रहा। अब तो वह पृथ्वी के दायरे से निकलकर आकाशीय संसार की अनवरत यात्रा पर निकल चुका है। वह अपनी सीमाओं के परे जाकर देखना जानना चाहता है। हम सब इसी तरह की आकांक्षाओं में सदैव जीते हैं। विपन्नता और सम्पन्नता के बीच झूलते हुए भी हम संसाधनों के अनुरूप यदा-कदा घूम ही लेते हैं। मन में व्याप्त हसरतों को मार भी तो नहीं सकते। कभी कभी उसे पूरा करने की कोशिश करते रहते हैं। मैं भी ऐसा ही हूँ। मेरी इस लघु कोशिश में मेरा परिवार भी मेरे साथ है। आज यात्रा पूरी करके सूर्यास्त के साथ दिल्ली एयरपोर्ट की चमक-दमक में डूबने का वक्त है। सामने दिल्ली की भागमभाग है। अंडमान निकोबार द्वीप समूह का वो खाना जो हमारे पेट में जाने से पहले ही हमारी आंखों को तृप्त कर देता था, उसका थोड़ा सा हिस्सा अभी भी बैग में मौजूद है। जाने कब तक साथ दे। उन पलों को जीते हुए आँखों में फिर से समुद्र का खारा पानी झिलमिलाने लगा है। शायद हमारी यह यात्रा पूरी हो गई है।

डॉ. मुकेश कुमार मिरोठा
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली-110025
mmirotha@jmi.ac.in, 9312809766
 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

4 टिप्पणियाँ

  1. डॉ. हेमंत कुमारअप्रैल 12, 2023 1:12 pm

    जीवंत यात्रा-कथा!समंदर, आसमान, दरख्त, सूरज, सेल्यूलर जेल, पानी के भीतर पनपी दुनिया सब साकार हो उठी हैं।

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    1. हार्दिक आभार डॉ हेमन्त जी। आप सदृश सुधी पाठक आज की जरूरत भी है। 💐💐

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  2. स्थानीयता में लिपटी हुई खूशबू की सुंगध वाला आख्यान जो रचनाकार की जडों से भी वाकिफ करवाने का कार्य कर रहा है। बढिया इसको पूरा पुस्तक का रूप दें

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद छोटू राम जी। हमारे अनुभव भी हमें एक करते हैं।

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