शोध आलेख : युवाओं के परासंज्ञानात्मक (मेटाकॉग्निशन) विकास में भारतीय पारंपरिक ध्यान तकनीकों की प्रासंगिकता / नरोत्तम कुमार, डॉ. ऊधम सिंह

युवाओं के परासंज्ञानात्मक (मेटाकॉग्निशन) विकास में भारतीय पारंपरिक ध्यान तकनीकों की प्रासंगिकता
- नरोत्तम कुमार, डॉ. ऊधम सिंह

शोध सार : वर्तमान समय आधुनिकीकरण तथा भौतिकवादिता का समय है। विज्ञान के इस तथाकथित भौतिकता में युवाओं में जागरूकता एवं सजगता में अत्यधिक कमी देखी गई है। इसके अलावा अध्ययनरत युवाओं में संज्ञान और परासंज्ञानात्मक क्षमता में भी भारी गिरावट आई है। सजगता और जागरूकता की कमी होने के कारण युवा ठीक तरीके से अपने प्रतिदिन के अध्ययन कर नहीं पाते हैं जिससे उनका अकादमिक परफ़ॉर्मेंस लो होता है। देश भर के युवा प्रतियोगी परीक्षाओं, अकादमिक कार्यशाला, संगोष्ठी, सम्मेलन में प्रतिभाग करते हैं परन्तु परफ़ोर्मेंस उनका ही बेहतर रहता है जो स्वयं के संज्ञानात्मक क्षमता के बारे में सजग होते हैं। संज्ञानात्मक कार्य का बेहतर होना और उसमे सफलता का कोई कोई कौशल की जरूरत होती है। किसी अकादमिक कार्य में स्वयं के संज्ञान के बारे में सजग और सचेत होने की जरूरत होती है, किसी में परिपूर्ण सोच, योजना, नियंत्रण की जरूरत होती है। कई अकादमिक कार्य ऐसे होते हैं जिसमें इन सभी कौशल की जरूरत होती है। स्वयं के संज्ञानात्मक कौशल के बारे में जानकारी, सचेत होना और उस कौशल को नियंत्रित करना परासंज्ञान कहलाता है। युवाओं के परासंज्ञानात्मक विकास हेतु इस आलेख में योग के एक आयाम ध्यान का उल्लेख किया गया हैं। ध्यान अभ्यासों को युवाओं की दिनचर्या में शामिल करने पर संज्ञानात्मक विकास के साथ-साथ परासंज्ञान का विकास निश्चित ही होगा। ध्यान से उनका मानसिक विकास होगा जिससे वह तनाव आदि से मुक्त रहेंगे। प्रस्तुत शोध अध्ययन में युवाओं के परासंज्ञानात्मक विकास में सहायक भारतीय ध्यान तकनीकों को सुझाया गया है जिनसे युवावों का अध्ययन कौशल भी उत्कृष्ट होगा।

मुख्य शब्द : संज्ञान, परासंज्ञान, तनाव, सजगता, जागरूकता, योग, ध्यान, अकादमिक परफ़ोर्मेंस, दिनचर्या, युवा

मूल आलेख : परासंज्ञान (अंग्रेजी में मेटाकॉग्निशन) और आत्म-संज्ञान मानव अंतर्दृष्टि का उच्चतम स्तर है, जिसे अनुभूति, जागरूकता तथा सजगता के रूप में जाना जाता है[1]. परासंज्ञानात्मक क्षमता स्वयं की संज्ञानात्मक अनुभूति तथा संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के बारे में एक सजगता है। परासंज्ञान स्वयं की संज्ञानात्मक प्रक्रिया का ज्ञान होने के अलावा, मन के द्वारा संज्ञान को नियंत्रित करने से भी सम्बन्धित है। यह स्वयं के विचार, स्मृति, जागरूकता और ध्यान देने की प्रवृत्ति को पहचानने का कौशल है[2]. आधुनिक तकनीकी दुनिया के कारण युवाओं में संज्ञानात्मक कार्य जैसे सोचने की क्षमता, कार्यकारी स्मृति, सामान्य स्मृति, ध्यान, धारणा कौशल आदि बाधित हो रहे हैं। बाधाओं, तनाव, चिंता, चित्तवृत्तियों और चित्तविक्षेप के कारण युवाओं की परासंज्ञान (मेटाकॉग्निशन) अच्छी स्थिति में नहीं है। रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (सीडीसी) के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका (17%) में लगभग 6 में से 1 युवाओं में संज्ञानात्मक अक्षमता है। जिसमें सीखने की अक्षमता और बौद्धिक अक्षमता जैसी संज्ञानात्मक अक्षमताएं शामिल हैं। कहा जाता है कि युवा में जागरूकता की कमी और संज्ञानात्मक अक्षमता तब रहती हैं जब वे प्रतिदिन के संज्ञानात्मक संबंधी कार्य ठीक से करने में असमर्थ होते हैं, पढ़ने-लिखने पर ध्यान देने में असमर्थ होते हैं पूर्व में हुए शोध अध्ययन में पाया गया है कि युवा ऐसी तनाव की स्थिति में आवेगपूर्ण और अतिसक्रिय हो जाते हैं।[3] संज्ञानात्मक और अध्ययन के कार्यों में कम सक्रिय एवं अत्यधिक सक्रिय होना एक विकार है जिसे अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी) के नाम से जाना जाता है।[4]  

        प्रमुख परासंज्ञानात्मक क्षमताएँ जिसमे युवा कमजोर हैं-ध्यान, मनोगत्यात्मक प्रदर्शन, सामान्य स्मृति, कार्यशील स्मृति और पढ़ने-लिखने की समस्या। इस संज्ञानात्मक आधारित विकार के कारण उनमें भावनात्मक अस्थिरता, बौद्धिक अक्षमता, परासंज्ञानात्मक अक्षमता की वृद्धि होने लगती है एडीएचडी के लक्षण संज्ञानात्मक कठिनाइयों से जुड़े होते हैं जिसमें खराब मनोगत्यात्मक समन्वय, कम काम करने वाली स्मृति, धारणा-ध्यान की कमी, खराब शैक्षणिक प्रदर्शन शामिल है इसके अतिरिक्त बाधक तत्त्व एवं विक्षेप के कारण युवाओं में दिन प्रतिदिन परासंज्ञानात्मक कौशल धीरे-धीरे कम हो रही है। युवाओं के संज्ञानात्मक तथा परासंज्ञान विकार के अनेक कारण हो सकते हैं। उन कारणों को महर्षि पतंजलि ने विक्षेप का नाम दिया है जिसकी व्याख्या पातंजल योगदर्शन के प्रथम अध्याय के 30वें सूत्र में की गई है।

व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्त्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः

         इस सूत्र के माध्यम से महर्षि पतंजलि ने कुल 9 बाधक तत्त्व बताए हैं जो चित्त में विक्षेप उत्पन्न करते हैं। जिसमें व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरती, भ्रांतिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थित की चर्चा की गई है।[5] व्याधि- व्याधि या इंद्रिय समुदाय में व्याधि- विषमता से उत्पन्न रोग को व्याधि कहते हैं, जो कहीं कहीं हमारे चित्त पर प्रभाव डालते हैं। स्त्यान- स्त्यान का अर्थ होता है, चित्त की अकर्मण्यता अर्थात् चित्त का स्थिर होना। संषय- इसका अर्थ संदेह करना होता है। प्रमाद- कार्य में रुचिकर रूप से भाग लेना या पालन करना। आलस्य- चित्त में तमोगुण अर्थात भारीपन का होना। अविरति- सांसारिक विषयों के प्रति आकर्षित होना। भ्रांतिदर्षन- मिथ्या ज्ञान का होना। अलब्धभूमिकत्वमानसिक शांति की अनुपलब्धि। अनवस्थितत्त्व- मानसिक शांति प्राप्त होने पर भी उस पर स्थिर रह पाना। इन चित्तविक्षेपों को योगअंतराय तथा विघ्न आदि नामों से भी जाना जाता है। युवाओं में संज्ञानात्मक तथा परासंज्ञानात्मक के विकसित होने के प्रमुख कारणों में तनाव एक महत्त्वपूर्ण कारण है। अत्यधिक तनाव होने की वजह से युवाओं में सोचने की क्षमता क्षीण हो जाती है जिसके फलस्वरूप उनकी स्मृति, कार्य करने की कुशलता तथा शैक्षणिक प्रदर्शन में कमी आती है।

समाधान- पारंपरिक ध्यान तकनीक -

        बाधित मेटाकॉग्निशन और खराब संज्ञान का समाधान क्या हो सकता है, यह प्रमुख प्रश्न है और युवाओं के इस समस्या को दूर करने के लिए, युवाओं में संज्ञानात्मक क्षमताओं में सुधार करने के लिए विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में एक व्यवस्थित और व्यवहार्य दृष्टिकोण को नियोजित किया जाना चाहिए ताकि उनकी मानसिक आवेग एवं अतिसक्रियता कम हो जब मन की गतिविधि नियंत्रित रहेगी तो उनके संज्ञान का विकास होगा, उनमे स्वयं के प्रति जागरूकता बढ़ेगी और इस प्रकार परासंज्ञानात्मक कौशल में सुधार होगा। दूसरा प्रश्न हमारे समक्ष यह है कियह समाधान कैसे होगा, किस तकनीक से होगा? इसका संभावित समाधान है ध्यान को लागू करना और विश्वविद्यालय में मूल्य शिक्षा के माध्यम से युवाओं की शुद्ध मानसिकता विकसित करना। शिक्षा जिसका तात्पर्य नैतिक और सामाजिक मूल्यों से है, छात्रों को उनके कुछ व्यवहारों को संशोधित करने और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को सही करने के लिए पढ़ाया जाता है। विश्वविद्यालय में निहित मूल्य शिक्षा युवाओं से लेकर युवाओं तक मूल्यों के विकास में सक्रिय भूमिका निभाती है। इसलिए, पारंपरिक ध्यान तकनीकों का अभ्यास तेजी से विकसित हो रहा है और जो गैर-पारंपरिक अभ्यास हैं उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। योग किसी विशेष धर्म, विश्वास प्रणाली या समुदाय का पालन नहीं करता है।[6]; यह हमेशा आंतरिक शक्तियों और उच्च संज्ञानात्मक जागरूकता के लिए एक तकनीक के रूप में भारतीय ऋषियों द्वारा विकसित किया गया है। प्रत्येक ध्यान के अपने सिद्धांत और अभ्यास होते हैं जो चित्तवृत्ति को मिटाकर कुछ हद तक परासंज्ञानात्मक जागरूकता की ओर ले जाते हैं। मानसिक स्थिरता, बेहतर संज्ञानात्मक कार्यों और परासंज्ञान को प्राप्त करने के लिए मानसिक ऊर्जा को संरेखित करने के लिए ध्यान अभ्यास सबसे अच्छी तकनीक हो सकती है।

        अतः प्रस्तुत शोध अध्ययन का उद्देश्य युवाओं के परासंज्ञान (मेटाकॉग्निशन) में सुधार और विकास के लिए भारतीय पारंपरिक ध्यान तकनीकों की प्रासंगिकता पर प्रकाश डालना है। आधुनिक तकनीकी दुनिया में पारंपरिक ज्ञान और प्राचीन योग अभ्यास खो गए हैं। लोगों को ध्यान की भारतीय जड़ों से परिचित कराने के लिए भी प्रस्तुत शोध आलेख का अत्यधिक महत्व होगा। युवाओं में वर्तमान समय की स्थिति निश्चित रूप से चिंताजनक है। आज के संदर्भ में देखें तो पाएंगे कि युवा अपने तक ही सीमित होते जा रहे हैं। जब कोई व्यक्ति अपने आप में संकीर्ण हो जाता है, तो उसका दायरा वही रहता है वर्तमान समय में युवा अध्ययन के तनाव के अलावा सामान्य तनाव को भी नहीं झेल पा रहे हैं। युवा अपनी संज्ञानात्मक क्षमताओं और अपने प्रति जागरूकता को विकसित करने में असमर्थ है। यदि विश्वविद्यालय और महाविद्यालय युवाओं में बेहतर संज्ञानात्मक क्षमता का विकास करना चाहते हैं तो उनके दिनचर्या में ध्यान तकनीकों को शामिल कर उनकी स्वयं के प्रति जागरूकता और परासंज्ञान (मेटाकॉग्निशन) क्षमता में वृद्धि करनी होगी।

भारतीय पारंपरिक ध्यान : अवधारणा -

        हिमालय प्राचीन काल से ही योगियों का आध्यात्मिक स्थान रहा है। ऋषियों ने हिमालय की गुफाओं में बैठकर तपस्या की और लोगों के कल्याण के लिए योगाभ्यास के ज्ञान का प्रसार किया। योग विज्ञान की उत्पत्ति हिमालय से हुई और ज्ञान जो अब तक प्रवाहित हो रहा है। लोगों के मानसिक म्यान में अलग-अलग भावनाएं/विचार होते हैं। ध्यान तब होता है जब व्यक्ति का हृदय भावनाओं/विचारों के पीछे के सिद्धांतों में से किसी एक पर स्थिर हो जाता है। ध्यान एक अनुभवात्मक घटना है जब एक गैर-प्रतिक्रियाशील सामान्य जागरूकता "व्यापक और अमूर्त (प्रत्यय)" बन जाती है और मन लयबद्ध हो जाता है। ध्यान मन-शरीर-बुद्धि की जटिलता, स्वास्थ्य को बहाल करने का एक प्रयास है। समस्त चंचलताओं को शांत करने के पश्चात्  (अर्थात् अचंचल मन) एक ध्येय विषय की ओर एकाग्र करना ध्यान है। इस मार्ग में यद्यपि कठिनाइयाँ अवष्य आती है जिससे उसकी चेतना बिखर जाती है, परन्तु इसे पुनः समेट कर ध्येय विषय की ओर लगाना है। महर्षि पतंजलि कहते हैंतत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्- अर्थात् चारों ओर की उपेक्षा कर और किसी चुने हुए विषय पर एकाग्रचित होना और जब वह एकाग्रता उस विषय पर लगातार बना रहता है तब उस अवस्था को ध्यान कहते हैं [7] ध्यान सतर्कता और जागरूकता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है जिससे मनुष्य की परा-संज्ञानात्मक कौशल वृद्धि में सहायक होगी।

        आत्म-ज्ञान के लिए योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने चित्तवृत्ति को रोकने तथा मन को एकाग्र करने के लिए अष्टांग योग की चर्चा की है-यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। जिसमे ध्यान एक महत्त्वपूर्ण अंग है जिसका अभ्यास कर मनुष्य अपने चित्तवृत्ति का निरोध कर स्वयं के प्रति जागरूक होता है। महर्षि पतंजलि कहते हैंयोगश्चित्तवृत्तिनिरोधः, अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग कहलाता है।[3] लगातार ध्यान का अभ्यास करने से मानसिक हलचल और वृत्तियों का निरोध हो जाता है। जिससे मनुष्य स्वयं में अवस्थित हो जाता है। ध्यान के कोई भी तकनीक अष्टांग योग के प्रत्याहार और धारणा पर निर्भर करता है क्योंकि मन को एक स्थान पर एकाग्र करने के लिए अपने मस्तिष्क और इंद्रियों को विषयों से हटाना होता है जिसे प्रत्याहार कहा जाता है।[8] जब किसी एक विषय पर मन को एकाग्रचित होता है तब उसे धारणा कहा जाता है- देशबन्धश्चित्तस्य धारणा[9] जब मन किसी एक विषय पर पूर्ण एकाग्रचित होता है तब वह स्थिति ध्यान कहलाता है।

        जैसा कि प्रस्तुत शोध आलेख के शुरुआती गद्यांश में यह व्याख्या की गई है किसंज्ञानात्मक क्षमता जिसकी जानकारी मनुष्य को होती है और उस क्षमता को प्रतिदिन के संज्ञानात्मक कार्यों को पूरा करने हेतु प्रयोग करता है तो उसे परासंज्ञान कहा जाता है। चूँकि परासंज्ञानस्वयं से जुड़ा हुआ है इसलिए, यह उम्मीद की जाती है कि ध्यान तकनीक युवाओं के तनाव और मानसिक हलचल को शांत करके स्वयं के संज्ञान के बारे में जागरूक होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। एक बार जब मन की हलचल दूर हो जाती है तो व्यक्ति अपनस्वयं में स्थापित कर लेता है। इस बात की पुष्टि योगसूत्र तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् से की जा सकती है।[10] इसका अर्थ है कि योग मानसिक हलचलों (चित्तवृत्ति) को रोकता है ताकि आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में स्थापित हो जाए। इस प्रकार स्वयं की वास्तविक प्रकृति में, संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के बारे में जागरूकता बढ़ने की संभावना है। प्रस्तुत शोध आलेख भारतीय शास्त्रों में वर्णित ध्यान के अवधारणाओ को नीचे के अनुभाग में व्याख्या किया है।

विभिन्न भारतीय पारंपरिक ध्यान तकनीक -

        ध्यान लोगों को अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद करता है यह व्यक्तियों में उत्पन्न होने वाले कई मनोदैहिक विकारों से बचाता है। चूंकि, प्रस्तुत शोध आलेख का उद्देश्य युवाओं के परासंज्ञानात्मक विकास में भारतीय पारंपरिक ध्यान तकनीकों की प्रासंगिकता को समझना है। इसलिए विभिन्न ध्यान तकनीकों की व्याख्या करना महत्त्वपूर्ण है जो परंपरागत चलती रही हैं। संभावित कौशल और विशेषज्ञता के विशाल संसाधन को अपने शोध पत्रों के माध्यम से विभिन्न ध्यान तकनीकों के गतिशील