शोध आलेख : भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति और हिंदी महिला नाट्य लेखन / देवानंद यादव

भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति और हिंदी महिला नाट्य लेखन
देवानंद यादव

शोध सार : किसी भी समाज की उन्नति वहाँ की स्त्रियों की सामाजिक स्थिति पर निर्भर करती है। समाज में स्त्रियों की स्थिति अच्छी होगी तो समाज उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ता हुआ दिखाई देगा। कहा जाता है कि एक स्त्री शिक्षित होती है तो वह पूरे परिवार, समाज और राष्ट्र को शिक्षित करती है। भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति सदा एक समान नही रही है। उसमें कभी ह्रास तो कभी विकास होता हुआ दिखाई देता है। वैदिक काल में उन्हें पुरुषों के समान सभी अधिकार प्राप्त थे तो मध्यकाल में उनके ऊपर कई तरह के बंधन डाले हुए दिखाई देते है। समाज में बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा और विधवा विवाह पर निषेध जैसे कई कुप्रथाओं का शिकार स्त्रियाँ बनती रही है। आधुनिक काल में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में कुछ सुधार भी हुआ है। महिला नाटककारों ने समाज में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति का यथार्थ वर्णन अपने नाटकों में किया है।

बीज शब्द : भारतीय समाज, नाट्यशास्त्र, महिला नाटककार, स्त्री, नाटक, स्त्री विमर्श।


 मूल आलेख : स्त्री से ही मानव की सृष्टि होती हैं परन्तु उसी स्त्री की स्थिति हमारे भारतीय समाज में दोय्यम दर्जे की हैं। स्त्री अपने जीवन में अनेक भूमिकाओं को निभाती हैं कभी स्त्री बेटी के रूप में घर की लक्ष्मी कहलाती हैं, तो कभी पत्नी के रूप में घर की गृहस्वामिनी या अर्द्धांगिनी कही जाती हैं, तो कभी वही स्त्री माँ की भूमिका में बच्चे को जन्म देकर सृष्टि का निर्माण करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं नारी का मानव की सृष्टि में ही नही, वरन समाज निर्माण में भी महत्वपूर्ण स्थान हैं। नारी और पुरुष मिलकर परिवार का निर्माण करते हैं अनेक परिवारों से समुदाय और अनेक समुदायों से मिलकर एक समाज निर्मित होता हैं। यदि हम विश्व इतिहास पर दृष्टी डाले तो हमें यह पता चलता हैं कि संस्कृति की नींव डालने का श्रेय सर्वप्रथम नारी को ही दिया जाता हैं[1] इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने पर भी स्त्रियों को समाज में कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं। भारतीय समाज में नारी आरंभ से ही शोषित रही हो, ऐसा नही हैं। प्राचीन काल में स्त्रियों को उच्च स्थान दिया जाता था  उन्हें सुख, वैभव, शांति ज्ञान का प्रतीक माना जाता था। महर्षि मनु के अनुसार यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवताः यत्रौतास्तु पूजयन्ते सर्वास्तत्राफला क्रियाः, मनुस्मृति /५६, अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती हैं वहां देवता निवास करते हैं; और जहाँ इनकी पूजा नही होती वहाँ सभी कार्य निष्फल होते हैं[2]


        वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समान ही थी, उन्हें वो सभी अधिकार एवं मान सम्मान प्राप्त था, जो एक पुरुष को दिया जाता है। वे अपनी मर्जी से घर से बाहर जा सकती थी, शिक्षा ग्रहण कर सकती थी, यहाँ तक कि उन्हें अपना वर चुनने का भी अधिकार प्राप्त था। अतः कहा जा सकता है कि वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति वर्तमान की अपेक्षा बहुत अच्छी थी उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति में ह्रास दिखाई देता हैं। इस युग में मनु परंपरा प्रचलित हुई। जिसके अनुसार स्त्रियों को वेदपाठ और यज्ञ करने पर रोक लगा दिया गया। उनके ऊपर कई तरह के प्रतिबन्ध लगाए गए। पति को परमेश्वर मानने पर बल दिया गया


        धर्म शास्त्र युग जिसे स्मृति युग भी कहा जाता हैं।  इस युग से स्त्रियों की स्थिति काफी ख़राब होती हुई दिखाई देती है। इस युग में नारी शिक्षा पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इसके साथ ही उसे घर की चहारदीवारी में रहकर अपने पति को ही परमेश्वर मान कर उसकी सेवा करना ही एकमात्र नारी का धर्म माना गया। स्मृतिकारों ने निर्देश दिया कि नारियों को किसी भी स्थिति में स्वतंत्र नही रहने देना चाहिए| नारियों को बाल्यपन में पिता के संरक्षण में, युवावस्था पति के तथा वृध्दावस्था बेटे के संरक्षण में बितानी चाहिए। उनकी शिक्षा पर प्रतिबन्ध-सा लग गया बाल विवाह पर जोर, विवाह में कन्या की रूचि का अंत, पुरुष का नारी पर पूर्ण नियंत्रण, विधवा पुनर्विवाह के निषेध, सती प्रथा आदि से नारी की ह्रासोन्मुख प्रस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता हैं। नारियों को स्वभाव से ही कामुक, नासमझ चरित्रहीन बताया गया। अतः उन्हें विश्वास के अयोग्य समझा जाने लगा[3]


        मध्यकालीन युग में स्त्रियों की स्थिति बहुत ख़राब होती हुई दृष्टिगोचर होती हैं इस युग में नारी को शिक्षा का कोई अधिकार नही था। - वर्ष की आयु में ही लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था स्त्रियों पर कई नए प्रतिबंध लगाए गए जिसमें सती प्रथा एवं पर्दा प्रथा प्रमुख है। स्त्रियों का क्रय विक्रय भी इस युग में होने लगा। उसे केवल भोग विलास की वस्तु समझा जाने लगा। स्त्रियों को पराधीन एवं गुलाम समझा जाने लगा। भारतीय संस्कृति में मध्यकाल नारी जीवन के लिए बहुत ही कष्टदायक रहा है। उसके ऊपर इतने पाबंद लगाए गए कि मानो वह कोई मानव नहीं जानवर हो। मध्यकाल के उपरांत आधुनिक काल में स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार देखने को मिलते हैं। “1829 . से सती प्रथा निषेध अधिनियम, 1856  में हिंदू विवाह पुनर्विवाह अधिनियम, 1937 . में हिंदू स्त्रियों का संपत्ति पर अधिकार अधिनियम आदि विधान इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास रहे।[4] स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्त्रियों की स्थिति में बहुत अधिक सुधार देखने को मिलता है। इस सुधार में सरकार के साथ-साथ गैर सरकारी संगठनों तथा समाज सुधारको का महत्वपूर्ण हाथ रहा है। समाज सुधार संस्थाओं ने स्त्रियों की शिक्षा उनके समान अधिकार तथा उन्हें समाज में प्रतिष्ठित करने का कार्य किया है। वर्तमान में भारतीय नारी को अपने जीवन साथी चुनने का पूर्ण अधिकार है। उन्हें मताधिकार तथा पारिवारिक संपत्ति में भी उत्तराधिकार प्राप्त है। आज स्त्रियां पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं। स्त्रियां वर्तमान में प्रत्येक क्षेत्र में कार्य कर रही हैं। चाहे वह राजनीति हो या सिनेमा या आईटी सेक्टर, सरकारी नौकरियों से लेकर प्राइवेट नौकरियों में स्त्रियां पुरुषों से किसी भी मायने में कम नहीं है। 

        स्त्रियों द्वारा नौकरी करने पर पुरुष के अहम भाव को चोट लगती है यही भाव मनु भंडारी के नाटक बिना दीवारों के घर में दिखाई देता है नाटक की नायिका शोभा अपने पति अजित द्वारा प्रोत्साहित किए जाने पर पढ़ लिखकर नौकरी करने लगती है तो अजित के अहम को गहरा धक्का लगता है और वह उससे नाराज होता है और दोनों के रिश्तो में दूरी पनपने लगती है डॉ. दीपा कुचेकर के अनुसार- अजित और शोभा की समस्या इस आधुनिक दंपति की समस्या है जो एक दूसरे के स्वतंत्र व्यक्तित्व को सहन नहीं कर पाती  पुरुष प्रधान संस्कृति में पुरुष स्त्री को अपनी निजी संपत्ति समझता है उसे अपने विचारों के अनुसार ढालना चाहता है परिणामस्वरूप पति-पत्नी एक ही घर में रहते हुए अजनबी बन जाते हैं।[5]


        सुनो शेफाली नाटक में एक हरिजन लड़की शेफाली का वर्णन किया गया है बी.. पास लड़की होने के बावजूद वह एक ब्राह्मण परिवार के लड़के बकुल से प्रेम करती है परंतु बकुल और उसका पिता दीक्षित शेफाली से विवाह केवल इसलिए करना चाहते हैं ताकि चुनाव में उन्हें हरिजनों का वोट मिल सके शेफाली के विवाह से इनकार करने पर बकुल उसकी छोटी बहन से विवाह करता है और अपने चुनावी स्वार्थ की पूर्ति करता है।


        भारतीय समाज में भले ही लड़की पढ़ी-लिखी हो परंतु उसकी स्थिति आज भी दोय्यम दर्जे का ही माना जाता है उसका उपभोग पुरुष अपने स्वार्थ सिद्धि हेतु करना चाहता है  यही स्वार्थ सिद्धि वाला रूप मृदुला गर्ग के नाटक एक और अजनबी में देखने को मिलता है शानी इंद्र खोसला से प्रेम करती है परंतु वह पढ़ाई करने के लिए अमेरिका चला जाता है तो शानी वोल्टास के सहायक मैनेजर जगमोहन से विवाह कर लेती है विवाह उपरांत जगमोहन शानी के जरिए अपना पदोन्नति चाहता है इसलिए वह शानी से इंद्र को प्रसन्न करने की बात करता है श्रीमती विनोद जैन के अनुसार- शराब पीना, डांस करना, पति की पत्नी को सीढी बनाकर उन्नति करना तथा व्यावसायिक दृष्टिकोण- यह सभी बातें नगरीय सभ्यता के विकारों को प्रस्तुत कर सामाजिकार्थिक चेतना को उभारती हैं।[6] त्रिपुरारी शर्मा के नाटक बहू में सामंती संस्कारों से जर्जर ग्रामीण समाज में एक विधवा स्त्री की निजी और पारिवारिक स्थिति का मर्म स्पर्शी वर्णन किया गया है| त्रिपुरारी शर्मा का दूसरा नाटक अक्स पहेली में आज की मध्यमवर्गीय नारी की मानसिकता और बौद्धिक द्वंद्व का चित्रण किया गया है|


        संस्कार को नमस्कार नाटक में नारी शोषण की समस्या को उठाया गया है। समाज में सताई हुई एवं घर से भागी हुई लड़कियों के लिए नारी निकेतन ही एकमात्र आश्रय का स्थान होता है। परंतु संस्कारचंद जैसे राजनेताओं द्वारा यहां भी नारियों का यौन शोषण किया जाता है और इसमें नारी निकेतन की संचालिका कमोबेन भी साथ देती है। आश्रम की अबोध कन्या शक्ति और विद्या का संस्कारचंद यौन शोषण करता है। पांचाली शोषण और अत्याचार से पीड़ित होकर नारी निकेतन से भाग निकलने का प्रयास करती है परंतु पकड़ी जाती है और पुलिस अधिकारी द्वारा उसका भी बलात्कार किया जाता है। श्रीमती विनोद जैन के अनुसार "लेखिका ने राजनेताओं के इस नारी शोषण के माध्यम से जहां उनके विकृत और घिनौने रूप का अनावरण किया है, वहां नारी उत्थान के उनके दावों की वास्तविकता की यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत किया है "[7]


        नाटक सकुबाई में नाटक की नायिका सकुबाई जब 15,16 वर्ष की थी| तो वह अपनी मां के साथ मुंबई में अपनी नानी के घर पर रहती थी| एक दिन काम करके आने के बाद वह काफी थकी हुई थी और सो गई| उसके साथ उसके छोटे मामा ने ही बलात्कार किया| सकुबाई कहती है "एक दिन आई को जागरण के लिए सारी रात बर्तन धोने के लिए जाना था| उस रात गहरी नींद में मुझे लगा जैसे मुझे कोई कुचल दे रहा है| दिन भर की जी तोड़ मेहनत से थका मेरा बेहोश बदन....... मैं यह समझ नहीं पा रही थी कि मेरे साथ क्या हो रहा है? बलात्कार...? या फिर छोटे मामा ने मुझे बेहोश कर दिया था|"[8] सकुबाई चिल्लाती रही परंतु उसके मामा ने उसकी एक नहीं सुनी और उसके साथ अकेलेपन का फायदा उठाते हुए उसका बलात्कार किया| सुबह जब सकुबाई ने अपनी मां से यह सारी घटना का जिक्र किया तो उसकी मां ने उसे दो-तीन थप्पड़ लगाया और चुप रहने के लिए कहा| सकुबाई खूब रोयी, चिल्लायी, उसने यह भी बताने का प्रयास किया कि मामा ने उसे बेहोश कर दिया था| इसमें उसकी कोई गलती नहीं है| फिर भी उसकी मां घसीटते हुए उसे बाहर ले गई और नानी से सभी बात कही परंतु नानी ने भी अपने बेटे का ही पक्ष दिया| सकुबाई कहती है- "मेरी आई ने मुझे बहुत समझाया और कसम दी कि मामा वाली बात मैं किसी से ना कहूँ| वरना मेरी शादी कैसी होगी? बाबा को भी कहूँ| नहीं तो ससुराल और मायके वालों में झगड़ा हो जाएगा| ऐसे कितने सारे अपमान हम औरते इसलिए सह लेती हैं कि घरों में कोई क्लेस हो| चाहे वह क्लेस हमें जीते जी जलाता रहे|"[9]


        डॉ मधु धवन का नाटक मैंने कब चाहा में एम.एस.सी. पास एकता की कहानी है। एकता शिक्षित लड़की है और उसे अपने शिक्षित होने पर अभिमान है। परंतु उसका पति जब घर छोड़ कर चला जाता है और वह अकेली पड़ जाती है। तो पश्चाताप करती हुई करती है कि मैंने कब कहा मैं परित्यक्ता होऊ .... पुत्र बेबाप का कहलाये .....मुझे बस मेरा पति मिल जाये ... मैं दुनिया की तमाम खुशियां उसके चरणों पर न्योछावर कर दूंगी.. .. वे  जो कहेंगे मैं वही करूंगी।[10] इस कथन के द्वारा लेखिका कहना चाहती हैं कि एक स्त्री भले ही आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो परंतु उसे हमेशा एक पुरुष के सहारे की जरूरत होती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि भारतीय समाज में एक स्त्री हमेशा पुरुषों पर ही आश्रित रहती हैं। जब वो छोटी होती हैं तो पिता पर आश्रित रहती है और विवाह उपरांत पति पर एवं बुढ़ापे में बेटे पर आश्रित होती हैं। स्त्रियों को बालपन से ही पुरुषों पर आश्रित रहने की संस्कार दे दिया जाता है।


        लेखिका मधु धवन ने केवल महिलाओं की पीड़ा को वाणी दी है, अपितु उनके नाटकों में नारी के अहंकारी, स्वार्थी, घमंडी रूप का भी चित्रण हुआ हैं नारी को अपने शिक्षा और रूप सौन्दर्य पर घमंड हो जाता हैं तो वह घर को भी बर्बाद कर सकती है मधु धवन का नाटक भूल में दीक्षा अर्थशास्त्र में एम. पास है और रूपवती भी बहुत है| उसके रूप सौंदर्य पर नरेश रीझकर दीक्षा से विवाह कर लेता है परन्तु विवाह के उपरांत दीक्षा अपने शिक्षा और रूप सौंदर्य के गर्व में चूर होकर सिंधिया परिवार से अलग रहना चाहती है दीक्षा की सास कहती है- कमाल है, भोली- भाली कन्या कपटी निकली... बाह्य रूप जितना मनोहारी है, उतना अंत करण कलुषित....[11] ससुर द्वारा दीक्षा को कंपनी के आय-व्यय की संचालिका बनाने पर कंपनी के पैसों से खुद के लिए घर खरीदती है और कंपनी के चेक को रोककर कंपनी एवं सिंधिया परिवार के इज्जत को भी नुकसान पहुचाने का प्रयास करती है


        आदिकाल से लेकर अब तक स्त्री पुरुष के कुत्सित वासना का शिकार बनती रही हैं परन्तु वर्तमान समय में नारी की सुरक्षा एक महत्वपूर्ण समस्या बनती जा रही है आज स्त्री घर में भी सुरक्षित नही है| उसे अपने ही सगे-संबंधियों से खतरा हो रहा है यहाँ तक की बहन भाई से एवं पुत्री पिता के साथ भी सुरक्षित नही है विभा रानी का नाटक अगले जनम मोहे बिटिया कीजो में राजकुमार का अपने ही बहन राजकुमारी चम्पाकली पर बुरी नजर है वह उससे शादी करने के लिए धोखे से ताखे पर भटकोएँ (एक प्रकार का जंगली फल) रख देता है और नगर वासियों के सामने मुनादी करवाता है कि जो कोई भी ताखे पर रखा हुआ फल खा लेगा, उस लड़की से राजकुमार विवाह करेंगे इस बात से अंजान  चम्पाकली भटकोएँ खा लेती है और पिता और पुत्र के दबाव में आकर माँ भी राजकुमार से राजकुमारी के विवाह के लिए तैयार हो जाती है अंत में अपने सम्मान एवं इज्जत की रक्षा के लिए चम्पाकली नदी में डूब कर आत्महत्या कर लेती है इसी नाटक में एक समानांतर कथा अंकिता की भी चलती रहती है अंकिता का पिता और अपने ही भाई द्वारा लगातार पंद्रह दिनों तक बलात्कार होता है इस नाटक की भूमिका में विभा रानी लिखती है – “वर्तमान स्थिति में भी हम पाते हैं कि अच्छे-भले, सभ्य, सुसंस्कृत परिवार की अंकिता पर उसके पिता की ही कुदीठ है पिता की इस मंशा से अंजान अंकिता पिता और पिता की देखादेखी अपने भाई की हवस का पंद्रह दिनों तक शिकार बनती रहती है जिस विश्वास की नींव तले वह स्वयं को सुरक्षित मानती है, उसी के परखचे उड़ते देख मारे सदमे के वह चीख भी नही पाती[12]


        मीराकांत के नाटक नेपथ्य राग की मूल कथा खना के इर्द-गिर्द घूमती है| खना एक ग्राम बाला है और उसकी जो बुद्धि है वह काफी विलक्षण है| जिसके कारण वह प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर, जो चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक है, का शिष्य बनती है और परिस्थितिवश वह वराहमिहिर की पुत्रवधू भी बन जाती है| खना की भविष्यवाणी सिद्ध होने लगती है तो विक्रमादित्य भी उससे प्रभावित होते हैं और उसे अपनी सभा में स्थान देना चाहते हैं किंतु सभासद इसके लिए तैयार नहीं है| एक स्त्री सभासद के अधीन रहना उन्हें अपना अपमान महसूस होता है| खना के प्रभाव को खत्म करने के लिए उसकी जीभ काट दी जाती है|पुरुष समाज द्वारा स्त्री के महत्व को अस्वीकार की इस परंपरा का निर्वाह किस तरह हो रहा है| इस नाटक की आधुनिक नायिका मेधा दर्शाती है| वह एक ऑफिस में अफसर है परंतु उपेक्षित सी| दो काल खंडों में सामंजस्य स्थापित करता यह नाटक निश्चित रूप से वैचारिक धरातल पर गहरा प्रभाव छोड़ता है| समय भले ही बदल जाए, हमारी मानसिकता में बदलाव कब आएगा| इस प्रश्न को जैसे बार-बार यह नाटक उठाता है| औरत शताब्दियों पहले भी नेपथ्य में थी और आज भी सही मायने में नेपथ्य में है|[13]  मीराकांत के नाटक कंधे पर बैठा था शाप में महाकवि कालिदास की जीवन की त्रासदी का वर्णन है| किस प्रकार उनका विडंबना पूर्ण देहांत होता है| इस नाटक में विद्योत्तमा और कामिनी की जिंदगी का मर्मस्पर्शी वर्णन किया गया है| "आज के आक्रमक स्त्री विमर्श और स्वच्छतावादी आधुनिकता के बावजूद बुनियादी स्थिति में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं आया है| केवल समयानुसार पुरुष द्वारा स्त्री को अपनी हद में इस्तेमाल करने के तरीके जरूर बदल गए हैं| त्रासदी की दृष्टि से कंधे पर बैठा था शाप एक  विडंबनापूर्ण  करुण  नाटक हैं| जिसके अंत में कालिदास, कुमारदास और कामिनी तीनों प्रमुख पात्र मर जाते हैं|"[14]


        मीराकांत का नाटक अंत हाजिर हो में मध्यवर्गीय परिवार के अंदर यौन उत्पीड़न की समस्या को लेकर यह नाटक लिखा गया है| समाज में किस प्रकार सामाजिक रिश्तो का पतन हो रहा है| इसका जीता जागता उदाहरण अंत हाजिर हो नाटक में देखने को मिलता है| नाटक की पूर्वार्ध में नरेंद्र द्वारा सलोनी और उसकी मां के साथ संबंध एवं नाटक के अंत में छोटी के पिता द्वारा छोटी और अनु दीदी के साथ यौन उत्पीड़न यह समाज की विडंबना और विकृति को दर्शाता है| "यह नाटक बलात्कार की कथा नहीं रिश्तो में गैर ईमानदारी की कथा है। विश्वासघात की कहानी है - मां के साथ, बेटी के साथ और रिश्तो की मर्यादा के साथ, समाज की संरचना मर्यादा की जिन ईटो से हुई है, उन ईटो के साथ। यह घरेलू हिंसा और बलात्कार से कहीं आगे जाकर मानवता की टूटती सांसों का नाटक है।"[15]  पुरुष की कुत्सित वासना का शिकार लड़कियां होती है| पहले घर के बाहर स्त्रियाँ असुरक्षित थी परंतु वर्तमान में घर के अंदर भी वे खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करती है| उसके अपने ही घर के परिवार के सदस्यों द्वारा ही उसका यौन उत्पीड़न एवं बलात्कार किया जाता है| यह समस्या आधुनिक हिंदी साहित्य में एक नई समस्या को दर्शाता है| साहित्य के क्षेत्र में जब से स्त्री विमर्श का जन्म हुआ है| तब से स्त्रियों ने रचनाएं लिखना आरंभ किया है| उसके अंदर उन्होंने अपनी स्वयं की अनुभूतियों के आधार पर स्त्रियों की समस्याओं को वाणी दी है| यही अभिव्यक्ति मीराकांत के नाटक अंत हाजिर हो नाटक में देखने को मिलता है| इसमें स्त्री विमर्श के माध्यम से नाटककार स्त्रियों के ऊपर हो रहे यौन शोषण और उत्पीड़न की समस्या को दिखाना एवं  समाज को जागरुक करना लेखिका का उद्देश्य है|


निष्कर्ष  : उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्राचीन काल की स्त्रियों की स्थिति समाज में अच्छी थी। उन्हें शिक्षा, वेदपाठ एवं अपने लिए वर चुनने का पूर्ण अधिकार था, परंतु समय के साथ साथ स्त्रियों की स्थिति में ह्रास होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। मध्यकाल आते आते स्त्रियों की स्थिति काफी बद से बत्तर होती हुई दिखाई देती हैं। आधुनिक काल में एक बार फिर से स्त्रियों की स्थिति में सुधार आया  और उन्हें मानव होने पर जो अधिकार प्राप्त होता है वे सभी अधिकार भारतीय समाज में उन्हें  दिए जा रहे हैं। हिंदी की महिला नाट्य लेखिकाओं ने समाज में स्त्रियों के इस बदलते हुए रूप को बखूबी चित्रित किया हैं।

सन्दर्भ :
[1] डॉ.धर्मवीर महाजन तथा डॉ.कमलेश महाजन, भारत में समाज, विवेक प्रकाशन, दिल्ली, नवीनतम संस्करण 2010, पृष्ठ संख्या 107
[2] वही, पृष्ठ संख्या 107 
[3] डॉ.धर्मवीर महाजन तथा डॉ.कमलेश महाजन, भारत में समाज, विवेक प्रकाशन, दिल्ली, नवीनतम संस्करण 2010, पृष्ठ संख्या 108
[4] डॉ.धर्मवीर महाजन तथा डॉ.कमलेश महाजन, भारत में समाज, विवेक प्रकाशन, दिल्ली, नवीनतम संस्करण 2010, पृष्ठ संख्या 109
[5] डॉ.दीपा कुचेकर, हिंदी नाट्य साहित्य में महिला रचनाकारों का योगदान, विकास प्रकाशन, कानपूर, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ संख्या 88
[6] श्रीमती विनोद जैन, स्वातंत्र्योत्तर हिंदी महिला नाटककारों के नाटकों में सामाजिक चेतना, के.के. पब्लिकेशन्स, नई दिल्लीप्रथम संस्करण 2007, पृष्ठ संख्या 75
[7] श्रीमती विनोद जैन, स्वातंत्र्योत्तर हिंदी महिला नाटककारों के नाटकों में सामाजिक चेतना, के.के. पब्लिकेशन्स, प्रथम संस्करण 2017, पृष्ठ संख्या 60
[8] सकुबाई नादिरा जहीर बब्बर वाणी प्रकाशन नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2008 पृष्ठ संख्या 30
[9] सकुबाई नादिरा जहीर बब्बर वाणी प्रकाशन नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2008 पृष्ठ संख्या 32
[10] चिंगारियाँमधु धवन, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2017, पृष्ठ संख्या – 192
[11] चिंगारियाँमधु धवन, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2017, पृष्ठ संख्या पृष्ठ संख्या 42
[12] अगले जनम मोहे बिटिया न कीजोविभा रानी, किताब घर, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण – 2015
[13] हिंदी का गद्य साहित्य, डॉ रामचंद्र तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, तेरहवाँ संस्करण 2020, पृष्ठ संख्या- 506
[14] हिंदी का गद्य साहित्य, डॉ रामचंद्र तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, तेरहवाँ संस्करण 2020, पृष्ठ संख्या- 507
[15] नाटककार मीराकांत, डॉ. एम. गोपी, नेशनल पब्लिशिंग कंपनी, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2018, पृष्ठ संख्या 13

 

 

देवानंद यादव

शोधार्थी, हिंदी विभाग, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक, म.प्र.

yadavhindi1@gmail.com, 9623690981

 

   अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

Post a Comment

और नया पुराने