शोध आलेख : रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में अभिव्यक्त सामाजिक चेतना / बर्णाली गोगोई एवं प्रो. सुशील कुमार शर्मा

रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में अभिव्यक्त सामाजिक चेतना
- बर्णाली गोगोई एवं प्रो. सुशील कुमार शर्मा

शोध सार : रत्नकुमार सांभरिया का हिन्दी कहानीकारों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी कहानियाँ समाज के यथार्थ का सजीव चित्रण करती हैं। उनकी अधिकतर कहानियाँ ग्रामीण परिवेश पर आधारित हैं। उनकी कहानियों में स्त्री चेतना, दलित चेतना, वृद्ध जीवन, दिव्यांग जीवन, पारिवारिक विघटन, वस्तुवादी दृष्टिकोण आदि का चित्रण मिलता है। रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में जीवन तथा समाज का यथार्थ रूप देखने को मिलता है। उनकी विद्रोहिणी, कील, शर्त, सवांखें, धूल आदि कहानियों में सामाजिक चेतना का असल रूप का चित्रण हुआ है। विद्रोहिणी कहानी में समाज में एक अकेली स्त्री की दशा का वर्णन है। कील कहानी में एक बूढ़ी माँ की पीड़ा का वर्णन है। शर्त कहानी में एक दलित परिवार के साथ-साथ स्त्री की समस्याओं का भी चित्रण है। दिव्यांग की समस्या का चित्रण सवांखें कहानी में मिलती है। धूल कहानी में पारिवारिक विघटन का चित्रण हुआ है। अतः रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में सामाजिक यथार्थ जीवंत रूप से विद्यमान है।

बीज शब्द : समाज, पारिवारिक विघटन, दलित चेतना, स्त्री जीवन, सामाजिक यथार्थ।

मूल आलेख : रत्नकुमार सांभरिया हिन्दी साहित्य के प्रमुख कहानीकारों में से एक है। साहित्य केवल समाज का आइना ही नहीं, समाज का संवाहक भी है। साहित्यकार अपने साहित्य के माध्यम से जनता में चेतना का प्रचार करता है। रत्नकुमार सांभरिया ने भी अपनी कहानियों के माध्यम से समाज में चेतना की धारा प्रवाहित की है। उन्होंने अपनी कहानियों में सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति दी है। उनकी कहानियाँ दलित चेतना, स्त्री समस्या, पारिवारिक विघटन जैसे विषयों का सटीक वर्णन करती हैं। उनकी कहानियों में समाज की सच्चाई का पुट देखने को मिलता है। उनके पात्र समाज यथार्थ से लिए गए हैं। उसमें जीवन जीने की इच्छा तथा साहस दिखाई देता है। उनकी कहानियों में पात्र अपने अधिकार के लिए लड़ते हुए चित्रित किए गए हैं। वे जीवन यथार्थ के सामने हार नहीं मानते हैं। हर समस्याओं का डटकर सामना करते हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में वर्तमान जीवन तथा समाज के यथार्थ रूप का वर्णन किया है।

रत्नकुमार सांभरिया की कहानियाँ सामाजिक चेतना का मार्मिक चित्रण करती हैं। उनकी कहानियाँ समाज में जागरूकता फैलाने का कार्य करती हैं। उनकी कहानियों में स्त्री समस्या का चित्रण अधिक मात्रा में हुआ है। विद्रोहिणी कहानी इसी विषय पर आधारित है। कहानी में एक विधवा स्त्री का चित्रण है। अकेली स्त्री को समाज किस नज़रिए से देखता है, उसके बारे में क्या सोचता है? उसका वर्णन है। कहानी की पात्र सुंदरी अपने पति के कहने के कारण पति की मृत्यु के बाद भी साज-शृंगार किए रहती है। सुंदरी का यही रूप देख समाज के लोग उसके बारे में तरह-तरह की बातें करने लगते हैं। उसे बुरा भला कहते हैं- “गाँव में बात में बात फूटती है, बेहिसाब। गाँव में घर-घर, चूल्हे-चौक नासूर थी बात। कोई कहता- कौनसी बी.. है। बिल्ली के भाग छींका टूट गया। खसम मर गया, नौकरी पा गई।नवोढ़ाओं-सा सुंदर है। अफ़सर-सा गुरूर है। इज़्ज़त-आबरू, मान-मरियादा बगल में दबाए घूमती है।बतरस, गार सनी एक भैंस बीस को गार लगती है। गाँव में बेटियाँ भी हैं, बहुएँ भी हैं। ऐसी बेलाज, ऐसी द्रोही नहीं देखी। और एक दिन जैसे सुलगती चिनगारी ने फूस पकड़ ली थी।1

कहानी में सुंदरी के साथ बहुत ग़लत होता है। समाज के लोग उससे सीधे मुँह बात तक नहीं करते। पति की मृत्यु के बाद उसके घर वाले भी उसका साथ छोड़ देते हैं। वह एकदम अकेली पड़ जाती है। जिस कारण वह अपने पति की अस्थियाँ भी स्वयं त्रिवेणीधाम-प्रयागराज ले जाती है। सुंदरी द्वारा अस्थियाँ ले जाने की बात सुनकर गाँव वाले कहते हैं- “बातें बनी थीं, या तो यह औरत मूर्खों की मूर्ख है या राक्षसों की राक्षस। पति की मृत्यु का ग़म, औरत की लाज, जात की कान, गाँव का क़ायदा सब ताक पर रख दिए। ऐसी कामनगारी तो बेड़िने भी नहीं होतीं। वक़्त करवट ले गया, वरना इसके सुंदर बाल नोचकर गंजी कर देते और सफ़ेद कपड़े पहनाकर दूर बैठा देते। ख़ामोश चीख़ बनी रहती ज़िंदगी भर। सुंदरी के काका ससुर, जेठ, देवर एक-एक कर सबने कदम पीछे खींच लिए थे। उसका सगा भाई और चाचा भी मुकर गए। कौन प्रयागराज जाए, ऐसी विधर्मी के साथ...2 कहानी में एक स्त्री के प्रति लोगों की हीन मानसिकता का चित्रण है। यहाँ पितृसत्तात्मक समाज का चित्रण हुआ है। साथ ही कहानीकार ने पुरुषवादी मानसिकता पर कड़ा प्रहार किया है। जब एक औरत विधवा होती है, तो लोग उस पर सहानुभूति दिखाने के बजाए उसे बुरा-भला सुना देते हैं। उसे ग़म से निकलता देख ख़ुश होने की बजाए उस पर तरह-तरह के आरोप लगाते हैं। समाज के लोग तो भला-बुरा कहते ही हैं। साथ ही घर वाले भी साथ छोड़ जाते हैं। एक स्त्री को पति के रहते ही सम्मान मिलता है। जब वह अकेली होती है तो उसे कोई पूछता तक नहीं। कहानी में सुंदरी के साथ भी ऐसा ही होता है। पति की अस्थियाँ ले जाने के कारण उसे राक्षस, मूर्ख कहा जाता है। कहानीकार ने यहाँ समाज में स्त्रियों की स्थिति का सजीव वर्णन किया है।

कहानी में सुंदरी द्वारा अस्थियाँ ले जाने से पांडा भी सुंदरी को बुरा-भला कहने लगता है। पांडा उसे पापिन, डायन आदि कहकर गालियाँ देने लगता है। कहता है कि पति को मारकर उसकी अस्थियाँ लाई है। वह पांडा जो पहले सुंदरी पर बुरी नज़र डाल रहा था। जब पता चलता है कि वह एक विधवा है और अपने पति की अस्थियाँ लाई है। वह बोखला जाता है। वह कहने लगता है- “औरत! नहीं, पापिन। डायन। भूतनी। प्रेतनी। हत्यारिन। पति मार उसकी बोटियाँ लाई है। सुंदरी की वह गोराई, कशिश, रंग-रूप, खूबसूरती सब धोखा लगने लगे थे उनको। मल्ला इधर-उधर बदहवास-सा देखने लगता था।3  हर मनुष्य की मृत्यु निश्चित है। इसमें स्त्री का क्या दोष, जो उसे पति की हत्यारिन कहा जाता है। स्त्री की मृत्यु पर तो पति को हत्यारा नहीं कहा जाता। बल्कि उसे तो दूसरी शादी का प्रस्ताव दिया जाता है। समाज के सारे नियम-कानून स्त्री पर ही थोपे जाते हैं। मानने पर उसे बेइज़्ज़त किया जाता है। कहानी में एक स्त्री की मनोदशा का स्पष्ट चित्रण मिलता है।

रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में वृद्ध जीवन का चित्रण भी हुआ है। कहानी कील इसका सशक्त उदाहरण है। कील कहानी में एक माँ (सोनवती) को अपने ही बेटे-बहू द्वारा ठगता दिखाया है। बेटा माँ को बीमारी के बहाने शहर बुलाता है। वह कहता है कि गाँव की सारी ज़मीन, घर सब बेच दे और शहर उनके साथ रहने आए। वह गाँव में अकेले रहे। माँ बिचारी ख़ुशी-ख़ुशी आती है। बेटा जो कहता है वह करती है। लेकिन उसे क्या पता था कि बेटे और बहू के बुलाने के पीछे का राज़। कुछ ही दिनों में माँ द्वारा लाई गई संपत्ति, गहनों को बेचकर बेटा गाड़ी ले आता है। साथ ही पत्नी के लिए कंगन, बच्चों के लिए कानों के टॉप्स आदि बनवाता है। बेचारी माँ को इन सबका पता ही नहीं था। वह तो केवल अपने बच्चों को ख़ुश देख ख़ुश थी। कहानी में समाप्त होती मानवीयता का चित्रण हुआ है। जिसके कारण बेटा-बहू माँ की सारी संपत्ति लेकर उसे गाँव भेजने की तैयारी करते हैं। जिसके बारे में माँ को पता ही नहीं होता। अंत में बेटा-बहू की असलियत पता चलती है। वह घर छोड़ चली जाती है। कहानी में माँ इतनी परेशान हो गई कि बेटे का घर छोड़ने को मज़बूर हो गई।

कहानी में दिखाया है कि लोग लालच में कितने अंधे हो जाते हैं। उन्हें यह भी सूझ नहीं होती कि सामने वाला व्यक्ति कौन है। सोनवती (माँ) के घर आने के बाद बेटा और बहू माँ की खातिरदारी करते हैं। शाम को बेटा और बहू एक-एक करके माँ को गाँव, घर, गहनों के बारे में पूछने लगते हैं। बहू माँ को देख सोचने लगती है– “धनदेवी की अन्वेषी निगाहें सोनवती का एक्सरे-सा लेने लगी थीं। बुढ़िया पुराने ज़माने की ठहरी। वह पाँवों में किलो-भर चाँदी के कड़ी-छलकड़े, गले में आधा किलो चाँदी की हँसुली, हाथों में सोने की चार-चार और चाँदी की दो-दो चूड़ियाँ, माथे पर दो-तीन तोले सोने का बोरला, कानों में सोने के भारी-भारी बुन्दे, सूटकेस में रकम और पच्चीस हजार रुपये नकद लिए ऐसे चली आई, मानो शेरशाह सूरी का शासन हो।4 एक बार सोनवती बीमार पड़ती है। वह होश-बेहोश की हालत में रहती है। जब उसका बुखार ठीक हुआ तो वह देखती है कि उसके शरीर से सारे गहने गायब हैं- “दो दिन बाद सोनवती का बुखार उतरा। जी ठीक हुआ। उसने देखा उसका बिस्तर बाथरूम से सटे कमरे में लगे हैं। अपना तन-बदन संभालते उसकी साँसें उठ गई थी। नाक में काँटा और हाथों में चाँदी की एक-एक चूड़ी के अलावा उसके तन पर एक भी गहना नहीं था।5 कहानी में दिखाया गया है कि आज मनुष्य से भी ज़्यादा लोग उनकी संपत्ति पर ध्यान देते हैं। संपत्ति हड़पने की कोशिश करते हैं। आधुनिकता ने लोगों को इतना जकड़ लिया है कि मानवीयता रही ही नहीं। बच्चे अपने माता-पिता तक को साथ रखना नहीं चाहते। रहते भी है, तो सिर्फ़ उनकी संपत्ति के लालच में। अंत मे सोनवती को जब बेटे की असलियत पता चलती है तो वह दुखी होती है। वह सोचने लगती है- “इतना बड़ा धोखा। इतनी बड़ी ठगी। पेट जन्मे ने अहाते में बुलाकर माँ का शिकार किया।6 कहानी में वृद्ध जीवन की समस्याओं का यथार्थ चित्रण है।

रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में दलित जीवन का चित्रण भी मिलता है। उन्होंने दलितों की समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया है। उनकी कहानी शर्त में दलित जीवन का मार्मिक रूप देखने को मिलता है। कहानी में जमींदार द्वारा दलितों पर किए गए शोषण का चित्रण हुआ है। कहानी के पात्र पानाराम की लड़की का शारीरिक शोषण होता है। दरअसल गाँव के मुखिया का बेटा, पानाराम की लड़की की इज़्ज़त लूट लेता है। पानाराम मुखिया के पास न्याय माँगने जाता है। मुखिया अपने बेटे को सज़ा देने की बजाए पानाराम की बेटी की ग़लती थी कहता है। मुखिया लड़की को ही दोषी ठहराता है। वह कहता है- “क्या बताऊँ? वह दिन ही मनहूस था, पानिया। रिश्तेदारी की शादी में हम सबका जाना हुआ और मेरे लड़के का तेरी लड़की के साथ... अगर उसकी परीक्षा नहीं होती और तेरी लड़की उस दिन झाड़ू बुहारी को नहीं आती, तो आज का दिन नहीं दिखता।7 कहानी में मुखिया लड़की के साथ न्याय करने के बजाए अपने बेटे को बचाने की कोशिश करता है। अंत में पानाराम एक शर्त रखता है कि- मुखिया साब, इज़्ज़त का सवाल है यह। आपकी इज़्ज़त सो मेरी इज़्ज़त। आपकी लड़की मेरे लड़के के साथ रात रहेगी।8 यह शर्त सुनकर मुखिया (जसवीर) ग़ुस्से से आग बबूला हो जाता है। उसे दिल का दौरा पड़ने लगता है। ग़ुस्से में आकर मुखिया पानाराम को गोली मार देता है। वह ख़ुद भी मर जाता है। दलितों के साथ बुरा होने पर भी किस तरह बात को दबाने की कोशिश की जाती है। किस तरह उन्हें बहलाने की कोशिश की जाती है उसका यथार्थ वर्णन है। कहानी में पानाराम द्वारा यह शर्त रखना उसे विद्रोही बनाता है।

रत्नकुमार सांभरिया ने दिव्यांग पर भी अपनी कहानी लिखी है। उनकी कहानियों के पात्र दिव्यांग हैं पर वे आत्मनिर्भर है। वह जीने के लिए दूसरों का सहारा नहीं लेते। वह दिव्यांग तो हैं, पर अपने पर हो रहे शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत भी रखते हैं। वे अन्याय को चुपचाप सहते नहीं हैं, बल्कि उसके ख़िलाफ़ लड़ते हैं। दिव्यांग के साथ समाज भी बुरा बरताव करता है। उसे चैन से जीने तक नहीं देते। सवांखें एक ऐसी ही कहानी है। कहानी के पात्र जमन और वीमा दोनों दिव्यांग थे। दोनों ही आँखों से देख नहीं सकते। दोनों शादी करके अपना घर बसाते हैं। वीमा के घर वालों को पता चलते ही उसे जमन की अनुपस्थिति में जबरदस्ती ले जाते हैं। जमन की मदद कोई नहीं करता। वह पुलिस के पास भी जाता है। लेकिन पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करती। इसके बाद जमन अपने दोस्त देवत के कहने पर एक संवाददाता के पास जाता है। संवाददाता भी उसे धोखा देता है। वह वीमा के घर वालों के ख़िलाफ़ लिखने के बजाए जमन को ही फसा देता है। वह जमन के ख़िलाफ़ अख़बार में ख़बर छापता है- “अख़बार के नवे पृष्ठ पर ख़बर थी। ख़बर का शीर्षक था- नेत्रहीन ने जात छुपाकर ब्याह रचाया, पत्नी मैके गई।9

जमन को बहुत दुख होता है। अंत में जमन बेहोश हो जाता है। होश आने के बाद देखता है कि उसका दोस्त देवत और अन्य दिव्यांग सभी धरना दे रहे होते हैं। जमन को आश्चर्य होता है। बड़े-बड़े पद में रहने वालों ने भी उसकी मदद नहीं की। लेकिन सारे दिव्यांग इकट्ठे होकर उसके लिए लड़ रहे थे। देवत जमन से कहता है- “सुनो हमने कल से काका को दफ्तर में घुसने नहीं दिया है। काका अंदर जाने के लिए गिड़गिड़ाते रहे। चिरौरी करते रहे। आश्वासन देते रहे। ज़ोरा-ज़ोरी में उनकी कमीज़ फट गई। चश्मा गिर गया। थानेदार समेत पुलिस बल मौजूद था। ना काका कुछ कर पाए, ना पुलिस कुछ कर पाई। हम पहाड़ से अड़े हैं। हमारी एक ही माँग है, वीमा।10 कहानी में दिखाया है कि कभी किसी को कमज़ोर नहीं सोचना चाहिए। जमन को दिव्यांग सोचकर सभी मिलकर उसे बहुत तंग करते हैं। पत्नी को ले जाकर जमन को किसी और से शादी करने को कहा जाता है। स्वयं नेत्रहीन स्कूल के संस्थापक श्यामा जी की मदद नहीं करता। कहानी में दिव्यांग को कमज़ोर नहीं बल्कि साहस से लड़ता दिखाया है। वे अपनी ढाल खुद बनते हैं। उन्हें किसी की सहायता की जरूरत नहीं।

रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में पारिवारिक विघटन का चित्रण भी हुआ है। आधुनिकता के प्रभाव के कारण पारिवारिक विघटन का रूप अधिक देखने को मिलता है आज के समय में पारिवारिक विघटन सामान्य हो गया है। नौकरी मिलने के बाद बेटा, भाई शहर में ही रहने लगते हैं। वहाँ रहकर शादी भी कर लेते हैं। रत्नकुमार सांभरिया की कहानी धूल भी इसी पर आधारित है। कहानी में हुलसीराम अपने भाई धूल को पढ़ाता-लिखाता है। धूल को नौकरी मिलने के बाद वह गाँव से शहर चला जाता है। वही जाकर शादी भी कर लेता है। वह गाँव अपने भाई को देखने तक नहीं आता। धूल की शादी में धूल के कहने पर हुलसीराम ने खेत गिरवी रखे थे। धूल ने कहा था- “खेत गिरवी रख देते हैं। मेरी अच्छी नौकरी लग गई है। सबसे पहले खेत छुड़ाऊँगा।11 शादी के बाद धूल गाँव आया ही नहीं और पैसे भी नहीं दिए। हुलसीराम अपने ही गिरवी के खेत में ब्याज के बदले काम कर रहा था।

हुलसीराम एक दिन धूल के पास शहर जाता है। धूल उससे अच्छे से बात तक नहीं करता। हुलसीराम उससे अपने खेत छुड़ाने को कहता है। मगर धूल कुछ नहीं कहता। अंत में हुलसीराम कहता है कि कम से कम उसके हिस्से के छुड़वा दे।हुलसीराम ने आँसू भरी आँखों रुँधे कंठ कहा- भाई अगर सब नहीं, मेरे हिस्से के ही खेत छुड़ा दो, उस दुष्ट से। उसने सिर का पग्गड़ उतारकर धूलसिंह के पैरों में रख दिया था।12 इतना कहने पर भी धूल बस इतना ही कहता है- “मुझे आने में देर हो जाएगी, आज ही घर चले जाना। हाँ, अगर किराया-भाड़ा हो, माला से ले जाना।13 यहाँ ठंडे पड़ते रिश्ते का चित्रण हुआ है। एक भाई जो अपने छोटे भाई के लिए खेत तक गिरवी रख देता है। वही छोटे भाई के पास भाई के साथ बैठकर हाल-चाल पूछने का भी समय नहीं होता। आधुनिकता के कारण आज लोगों में तनाव, अकेलापन, समय का अभाव आदि देखने को मिलता है। इससे रिश्तों में दरार पड़ जाती है।

रत्नकुमार सांभरिया की झुनझुना कहानी सरकारी दफ्तरों में होने वाले भ्रष्टाचार का चित्रण करती है। साथ ही यहाँ भ्रष्ट नेताओं का चित्रण भी हुआ है। कहानी में दिखाया गया है कि एक ही काम को करवाने के लिए कितनी विनती करनी पड़ती है। एक आम आदमी को अपना काम करवाने के लिए कितना कुछ करना पड़ता है। कितना कुछ सहना पड़ता है। कहानी का पात्र देशराज दिव्यांग होते हुए भी अपनी नौकरी की तबादले के लिए काफ़ी मेहनत करता है। वह अपने माता-पिता से दूर गाँव के स्कूल में चपरासी की नौकरी करता था। वह अपने माता-पिता के साथ रहने के लिए तबादले के लिए आवेदन लिखता है। वह अपने आवेदन को स्कूल के टाइपिस्ट के पास ले जाता है। टाइपिस्ट स्कूल देर से तो आता ही है साथ ही वह देशराज के आवेदन पर कोई ध्यान नहीं देता। देशराज परेशान होकर घर जाता है। और टाइपिस्ट के लिए चाय लाता है। चाय पीते ही टाइपिस्ट देशराज का आवेदन टाइप करने लगता है। कहानी में इसका ज़िक्र है- “कप और चाय का लोटा लेकर वह स्कूल की ओर चल पड़ा था। मन-मन मगन हुआ। बाबू जी को मानो चाय की ही चाहत थी। उसने चाय पीकर माथे पर रखा चश्मा आँखों पर चढ़ाया। वह टाइप करने जुट गया था।14  यहाँ गाँव के स्कूल की कर्मचारियों की स्थिति का वर्णन है। स्कूल के कर्मचारी भी किसी का काम बिना कुछ लिए नहीं करते। साथ ही वह स्कूल भी देर से आता है। देशराज द्वारा चाय पीलाने पर ही उसका काम करता है। जबकि उसको स्कूल में टाइप के लिए ही नियुक्त किया गया है।

कहानी में देशराज को स्कूल से जिला शिक्षा अधिकारी, अंत में मंत्री के घर तक जाना पड़ता है। फिर भी उसका काम नहीं होता। उसका तबादला नहीं हो पाता। वह अपने माता-पिता को लेकर मंत्री के पास जाता है। माता-पिता को गोद में उठा ले जाता देख सभी हँसने लगते हैं। लेकिन देशराज का दर्द कोई नहीं देखता। मंत्री उसका आवेदन लेता है और साथ ही उससे पैसे भी लेता है। फिर भी देशराज का काम नहीं हो पाता। वह खाली हाथ लौटता है : “मंत्री जी ने आवेदन टेबल पर रख कर मुँह फेर लिया था। बड़ा आदमी छोटी-सी चीज को भी ख़तरा मान बैठता है। वे एक बार डरे ज़रूर लेकिन देशराज की दयनीयता देखकर जिज्ञासा और जुगुप्सा से पोटली की गाँठ खोलने लग गए थे। धन देख वे चौंके और सहज होते गए। सोचने लगे- पार्टी का कोई नेता, इसके साथ है, उनका कोई सगा-संबंधी-बिचौलिया या दलाल है। पांगला-पगला भी है। सरकारी नौकरी में मरा है। देशराज मंत्री जी के चैंबर से बाहर निकल आया था, ख़ुशी-ख़ुशी। फूला हुआ। बंगले से निकलते ही उसने दोनों झुनझुने अपने हाथों में लिए और ज़ोर-ज़ोर से बजाने लगा था, बाग़-बाग़ हुआ। मंत्री जी ने पोटली रख ली थी और देशराज का आवेदन फाड़ कर डस्टबिन में पटक दिया था।15

कहानीकार ने यहाँ भ्रष्ट नेता का चित्रण किया है। साथ ही दिखाया है कि आम जनता से रिश्वत लेकर भी उनका काम नहीं किया जाता। कहानी में मंत्री देशराज से पैसा लेता है पर उसका काम नहीं करता। मंत्री को इस बात का भी खेद है कि बिना किसी की सहायता के देशराज सरकारी नौकरी करता है। कहानी के अंत में देशराज दोनों झुनझुने ज़ोर-ज़ोर से बजाता है। अर्थात वह सोए हुए लोगों को जागरूक करना चाहता है। मंत्री जैसे लोगों की आँखें खोलना चाहता है। उनके कानों तक आम जनता की आवाज़ पहुँचाना चाहता है। साथ ही मंत्री जैसे भ्रष्ट सरकारी तंत्र को चुनौती देता है।    

रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में अख़बारखानों में होने वाले घोटालों का भी स्पष्ट चित्रण मिलता है। उनकी कहानी ख़बर इसका उदाहरण है। कहानी में स्पष्ट दिखाया है कि भ्रष्टाचार के कारण बड़ी से बड़ी ख़बर भी दबा दी जाती है। संवाददाता प्रजीता सरकारी कार्यालयों में होने वाले घोटालों की ख़बर इकट्ठा करके छपवाने के लिए देती है। उस ख़बर को संपादक रिश्वत लेकर दबा देता है। स्वयं प्रजीता के मुँह से यह बात निकलती है- “दौलत और खिदमत के सामने कर्तव्य की आँखों का पानी मर गया है। संवेदनाएँ सूखती जा रही हैं। पत्रकारिता भी धन, दगा और दबाव की चपेट में आती जा रही है, सर।16 कहानी में दिखाया है कि अख़बारखानों जैसी जगह भी आज भ्रष्टाचार की चपेट में रहे हैं। ईमानदार व्यक्ति भी इनके सामने कुछ नहीं कर सकता। कहानी में इसका ज़िक्र है- “मैं उत्तरदायित्व और निष्ठा के बीच आत्मद्वंद्व से दुहरा हुआ जाता था। मेरे पास जो सूचना है, डिक्टेटर करा दूँ या विभाग के प्रति अपनी वफ़ादारी का पल्लू और मज़बूती से पकड़ लूँ। कॉफ़ी के कप से उठते धुएँ को मैं निगाह बाँधकर देख रहा था। भाप है, धुआँ दिखाई देता है। ठंडा होते ही धुआँ विलीन हो जाता है। मैंने पेन उठा लिया था और टेबल पर धीरे-धीरे ठकठक करने लगा था, सोच से, अफसोस से। यह ठक-ठक मेरे मानस-पटल पर भी हो रही थी।17  कहानी में दिया है कि नौकरी बचाने के लिए कभी-कभी ईमानदार व्यक्ति भी चुप रह जाता है। कहानी में लायजन ऑफिसर स्वयं यह बात सोचता है- “मेरे माथे की नसें तड़कने लगी थीं। लायजन ऑफिसर का काम विभाग का भोंपू बना रहने तक है? मेरा यह कृत्य सरकार के प्रति वफ़ादारी है, जनता के प्रति सदाचारी। बड़ा घोटाला हुआ। लाखों का चुना लग गया। मैं मुँह सिए हूँ, विभाग से तनखा पाता हूँ। मेरा दायित्व नहीं, प्रेस नोट जारी करके आवाम को अवगत करा दूँ। असहाय का खून करके भागने वाला इतना बड़ा कायर नहीं होता, जितना वह, खून देखकर भी जिसका खून नहीं खौलता।18 संवाददाता प्रजीता घोटाले की बात सबके समक्ष लाने की पूरी कोशिश करती है। लेकिन वह इसमें विफल रहती है। प्रजीता का मानना था कि जहाँ सच्चाई को दबाया जाता हो वह नौकरी किस काम की। अंततः प्रजीता अपनी नौकरी ही छोड़ देती है।

निष्कर्ष : रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में सामाजिक चेतना की व्यापकता है। उनकी अधिकतर कहानियाँ सामाजिकता पर आधारित हैं। उनकी कहानियाँ समाज का सजीव चित्रण अंकित करती हैं। उन्होंने समाज में व्याप्त हर एक विषय को अपनी कहानी का विषय बनाया है। उनकी कहानियाँ समाज के यथार्थ रूप को दर्शाती हैं। रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में स्त्री चेतना, दलित चेतना, पारिवारिक विघटन आदि का चित्रण हुआ है। उनकी कहानियों के पात्र ग़रीब, दिव्यांग, शोषित हैं, परंतु वे कभी किसी के सामने झुकते नहीं। वे शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत रखते हैं। उनके समक्ष कैसी भी परिस्थिति आए वे डर कर भागते नहीं। बल्कि उसका निडर होकर सामना करते हैं। रत्नकुमार सांभरिया की कहानियों में समाज का हर रूप मुखरित हुआ है। उनकी कहानियाँ लोगों में प्रेरणा भरती हैं। जागरूकता लाती हैं। उनकी कहानियाँ शोषितों के अधिकार की माँग करती हैं। रत्नकुमार सांभरिया की कहानियाँ समाज को एक नवीन पथ की ओर अग्रसर करती हैं।

संदर्भ :
1. एयरगन का घोड़ा , रत्नकुमार सांभरिया, अनामिका पब्लिशर्स- नई दिल्ली, प्रथम संस्कारण : 2016, पृ. 121
2. वही, पृ. 125
3. वही, पृ. 127
4. वही, (कील),  पृ. 166
5. वही, पृ. 169
6. वही, पृ. 172
7. दलित समाज की कहानियाँ, रत्नकुमार सांभरिया, अनामिका पब्लिशर्स- नई दिल्ली, संस्करण : 2017, पृ. 89
8. वही, पृ. 92
9. वही (सवांखें), पृ. 207
10. वही, पृ. 211
11. एयरगन का घोड़ा , रत्नकुमार सांभरिया, अनामिका पब्लिशर्स- नई दिल्ली, प्रथम संस्कारण : 2016, पृ. 152
12. वही, पृ. 160
13. वही, पृ. 160  
14. वही (झुनझुना), पृ. 89-90
15. वही, पृ. 101
16. वही (ख़बर), पृ. 238
17. वही, पृ. 235
18. वही, पृ. 236   

 

बर्णाली गोगोई
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, मिज़ोरम विश्वविद्यालय, आइजोल - 796004,
bornaligogoi733@gmail.com,
 
प्रो. सुशील कुमार शर्मा,सीनियर प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष,
मिज़ोरम विश्वविद्यालय, आइजोल - 796004

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

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