शोध आलेख : सामाजिक विज्ञान की विद्यालयी पाठ्यपुस्तकें, आदिवासी मुद्दे और ‘पोलिटिकल करेक्टेडनेस’ / डॉ. कविता सिंह एवं लवली शॉ

सामाजिक विज्ञान की विद्यालयी पाठ्यपुस्तकें, आदिवासी मुद्दे औरपोलिटिकल करेक्टेडनेस
- डॉ. कविता सिंह एवं लवली शॉ

शोध सार : इतिहास समेत पूरे सामाजिक विज्ञान को बोझिल एवं अनुपयोगी अनुशासन समझने की सामाजिक अवधारणा  रही है। साल 2005 में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा आई, जिसने इतिहास सहित संपूर्ण सामाजिक विज्ञान विषय के शिक्षण और सीखने के दृष्टिकोण से सम्बंधित इन समस्याओं को रेखांकित किया, एवं उसमें आमूल-चूल परिवर्तन की पेशकश की। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा द्वारा प्रस्तावित परिवर्तनों को मद्देनज़र रखते हुए राष्ट्रीय अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् एवं राज्य अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषदों द्वारा पुस्तकें तैयार करवाई गयीं। पुस्तकों में वंचित समुदायों  यथा आदिवासी, दलित, महिलाओं से सम्बंधित मुद्दे एवं अनुभव केंद्र में रखने की बात कही गयी। पुस्तकों की इसी पक्षधरता को मद्देनज़र रखते हुए शोधकर्ताओं ने सामाजिक विज्ञान की एन.सी..आर.टी. एवं जे.सी..आर.टी. की पुस्तकों में आदिवासी प्रतिनिधित्व का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया है। पुस्तकों के विश्लेषणात्मक अध्ययन में यह उद्घाटित होता है कि सामान्यतः पुस्तकें वंचितों के मुद्दों को लेकर संवेदनशील हैं तथापि आदिवासी शोषण एवं संघर्ष को लेकर इनमें कही-कहीं पोलिटिकल करेक्टेडनेस दिखती है।

बीज शब्द : आदिवासी, एन.सी..आर.टी., जे.सी..आर.टी., सामाजिक विज्ञान, पाठ्यपुस्तकें।

मूल आलेख : हिस्ट्री जियोग्राफी बड़ी बेवफा, रात को याद सुबह को सफा। स्कूली जीवन में इतिहास पढ़ते समय हमारी उम्र के अधिकांश विद्यार्थियों की इस विषय को लेकर यही शिकायत रहती थी इसका कारण इतिहास शिक्षण के उद्देश्यों और विधियों में समझ की कमी। परीक्षा में लिखने के लिए भी बीत चुके व्यक्तियों, घटनाओं, स्थानों और तारीखों को याद रखना ही सफल होने का एकमात्र सूत्र था। स्कूल में इतिहास पढ़ाते समय हमारे शिक्षकों का मुख्य उद्देश्य तथ्यों को याद करवाना होता था और मुख्य तरीका किताब पढ़ना होता था। विज्ञान की तुलना में सामाजिक विज्ञान के अनुशासनों को दोयम माना जाता था। विद्यार्थियों सहित शिक्षकों तक का मानना था कि यही एक विषय है जिसका आगे की जिंदगी में कोई उपयोग नहीं होने वाला। फिर 2005 में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा आई, जिसने इतिहास सहित संपूर्ण सामाजिक विज्ञान विषय के शिक्षण और सीखने के दृष्टिकोण से सम्बंधित इन समस्याओं को रेखांकित किया, एवं उसमें आमूल-चूल परिवर्तन की पेशकश की

सामाजिक विज्ञान के शिक्षण-अधिगम में परिवर्तन की पेशकश -

            राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा ने यशपाल समिति और साथ ही एनसीएफटीई-2000 द्वारा उठाए गए बिंदु का समर्थन किया और पाठ्यक्रम निर्माताओं एवं पाठ्यपुस्तक लेखकों को निर्देश दिया कि पुस्तकों में तथ्यों की अधिकता के स्थान पर संप्रतत्यों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए एवं सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकताओं का विश्लेषण करने की क्षमता पर जोर दिया जाना चाहिए।1 प्रासंगिक स्थानीय सामग्री को शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए जो आदर्श रूप से स्थानीय शिक्षण-अधिगम संसाधनों पर आधारित गतिविधियों के माध्यम से संचालित किया जाना चाहिए।2 वैज्ञानिकता पर बल देने के सन्दर्भ में यह रेखांकित किया कि समाज विज्ञान का अध्ययन उतना ही वैज्ञानिक है जितना की अन्य प्रकृति विज्ञानों का  मगर सामाजिक विज्ञानों की विधियाँ प्राकृतिक विज्ञानों से अलग एवं विशिष्ट हैं मगर कमतर नहीं।3

            रूपरेखा ने यह भी कहा कि सामाजिक विज्ञान पाठ्यक्रम ने अब तक विकासात्मक मुद्दों पर जोर दिया है। जैसे समाज केविकासमें व्यक्ति की क्या भूमिका है? इस नज़रिए से देखने पर गरीब, विकलांग, स्त्रियाँविकासमें बाधक दिखने लगते हैं समाज और राजनीति में समानता, न्याय और गरिमा के मुद्दे महत्वहीन हो जाते हैं। सामाजिक विज्ञान को इस उपयोगितावादी नजरिये से समतावादी नजरिये की तरफ प्रस्थान करने की आवश्यकता है।4

            सामाजिक विज्ञान में मुख्यधारा के नज़रिए के वर्चस्व की जगह समाज के सभी वर्गों एवं क्षेत्रों के प्रतिनिधित्व की आवश्यकता है, यथा इतिहास के पाठ्यक्रमों ने अक्सर समाज के कई वर्गों और भारत के कई क्षेत्रों की उपेक्षा की है, इसे ठीक करने की आवश्यकता है।5

            ‘सिविक्सएक विषय के तौर पर उपनिवेश काल में अंग्रजों द्वारा प्रस्तावित किया गया, जिसका उद्देश्य था राज के प्रति भारतीयों में बढ़ती 'अनिष्ठा' को दूर कर राज के प्रति निष्ठावान नागरिक तैयार करना। क्योंकि एक आज़ाद और लोकतान्त्रिक देश में नागरिकता का प्रत्यय एक गुलाम देश के नागरिक के सामान नहीं हो सकता अतः पाठ्यचर्या की रूपरेखा ने नागरिकशास्त्र के स्थान पर राजनीती विज्ञान को विषय के तौर पर प्रस्तावित किया जिसका उद्देश्य संवेदनशील, पूछताछ करने वाले, विचारशील और परिवर्तनकारी नागरिक पैदा करना है।6

            इसके लिए यह स्पष्ट किया गया कि सामाजिक विज्ञान शिक्षण को एक संवादात्मक वातावरण में समस्या समाधान, नाटकीकरण और भूमिका निर्वाह जैसी रणनीतियाँ का उपयोग करते हुए पढाया जाय। शिक्षण को श्रव्य-दृश्य सामग्री के अधिक से अधिक संसाधनों का उपयोग करना चाहिए, जिसमें तस्वीरें, चार्ट और नक्शे, और पुरातात्विक और भौतिक संस्कृतियों की प्रतिकृतियां शामिल हों। सीखने का यह तरीका शिक्षार्थी और शिक्षक दोनों को सामाजिक वास्तविकताओं के प्रति जीवित रखेगा। अवधारणाओं को व्यक्तियों और समुदायों के सजीव अनुभवों के माध्यम से विद्यार्थियों को स्पष्ट किया जाना चाहिए। सामाजिक पूर्वाग्रहों से निपटने के लिए शिक्षकों को कक्षा में सामाजिक वास्तविकता के विभिन्न आयामों पर चर्चा करनी चाहिए, और आपस में और शिक्षार्थियों में आत्म-जागरूकता बढ़ाने की दिशा में काम करना चाहिए। सामाजिक विज्ञान के शिक्षण में ऐसे तरीकों को अपनाना चाहिए जो रचनात्मकता, सौंदर्यशास्त्र और आलोचनात्मक दृष्टिकोण को बढ़ावा दें इतिहास के पठन-पाठन के विषय में इतिहास चिंतन पर जोर दिया गया, और इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण आयाम सातत्य एवं परिवर्तन की अवधारणा के विकास पर जोर देते हुए कहा गया कि समाज विज्ञान ऐसे पढ़ाया जाए जो बच्चों को अतीत और वर्तमान के बीच के सम्बन्ध एवं इनके मध्य होने वाले परिवर्तनों को समझने की दृष्टि प्रदान करे।7

            राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा द्वारा प्रस्तावित परिवर्तनों को मद्देनज़र रखते हुए राष्ट्रीय अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् एवं राज्य अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषदों द्वारा पुस्तकें तैयार करवाई गयीं। पुस्तकों में वंचित समुदायों यथा आदिवासी, दलित, महिलाओं से सम्बंधित मुद्दे एवं अनुभव केंद्र में रखने की बात कही गयी। किताबों को इस तरह से तैयार करने की बात की गई है जो विद्यार्थियों आलोचनात्मक, विश्लेषणात्मक, विवेचनात्मक, एवं रचनात्मक चिंतन की योग्यता का विकास करे।

आदिवासी प्रतिनिधित्व सम्बन्धित अवलोकन -

            भारत में आदिवासी वंचित समुदायों के अंदर आते हैं। विविध आंकड़ें उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और अन्य सरकारी सेवाओं से वंचन की पुष्टि करते हैं। आधिकारिक जनगणना, 2011  के अनुसार, आदिवासी देश की कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत, और झारखंड की 26.3 प्रतिशत आबादी का गठन करते हैं। इसलिए, जनसंख्या के इतने महत्वपूर्ण अनुपात के लिए सीखने के संदर्भीकरण के संबंध में पाठ्यपुस्तकों पर गौर करने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ मेंसामाजिक विज्ञान की पुस्तकों में आदिवासी प्रतिनिधित्व की क्या स्थिति है?’ प्रश्न को केंद्र में रखकर हमने राष्ट्रीय अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् एवं झारखण्ड अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् की 2005 के बाद आयी कक्षा छः से लेकर आठ तक की सामाजिक विज्ञान की अठारह किताबों का विश्लेषण किया।

विश्लेषण के बाद जो कुछ बिंदु सामने आये वह यह कि सामान्यतः दोनों परिषदों की किताबें वंचित वर्ग की समस्याएं, उनके संघर्ष और उनके अनुभवों को स्थान देती हैं। यह जेंडर (केवल स्त्री), एवं जाति जैसे मुद्दों के ऐतिहासिक विकासक्रम में सातत्यता एवं परिवर्तन को रेखांकित करते हुए भूत और वर्तमान का तुलनात्मक चित्र प्रस्तुत करती हैं। क्योंकि पाठ्यचर्या की रूपरेखा स्थानीयता की बात करती है अतः यह पाया गया कि राष्ट्रीय अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद्  की किताबों की तुलना में झारखण्ड अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् द्वारा तैयार की गई किताबें आदिवासी संस्कृति एवं जीवनशैली के बारे में विस्तार से बात करती है। इसी स्थानीयता के मद्देनज़र जहाँ आदिवासी नायकों का उल्लेख करते हुए राष्ट्रीय अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् बिरसा मुंडा का ज़िक्र करती हैं वहीँ झारखण्ड अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् की किताबें भारतीय इतिहास, राजनीति एवं खेल जगत के कई आदिवासी नायकों का उल्लेख करती हैं।

            राष्ट्रीय अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् की सातवीं और आठवीं की सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन की किताबों में कहीं-कहीं नए वन्य कानूनों की चर्चा, तवा मत्स्य संघ के बहाने आदिवासी लोगों द्वारा झेले जा रहे विस्थापन की समस्या नियमगिरी पहाड़ी से आदिवासियों के विस्थापन की कोशिश और उसमें न्यायालय के हस्तक्षेप की चर्चा की गई है। इसी तरह झारखण्ड अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् की किताबों में भी आदिवासी लोगों द्वारा झेली जा रही समस्याओं का सामना कहीं-कहीं हुआ है। यह देखने वाली बात है कि राज्य परिषद् की किताबें राष्ट्रीय परिषद् की किताबों की तुलना में आदिवासी संस्कृति और जीवनशैली पर विस्तार से बात करती हैं मगर उनके द्वारा झेली जा रही समस्याओं पर उसी अनुपात में ज़िक्र नहीं करती हैं। इसके अलावा कुछ महत्वपूर्ण अवलोकन सामने आए जो राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 से कुछ कुछ विरोधाभासी दिखते हैं।

            आदिवासी लोगों की समस्याएं, उनके विद्रोह और संघर्षों का ज़िक्र करते हुए राष्ट्रीय अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् की इतिहास की पुस्तक यह तो इंगित करती है कि कैसे ब्रिटिश शासन ने औपनिवेशिक वन कानून लाकर आदिवासी लोगों को वनक्षेत्र एवं वनोपज से बेदखल कर दिया, उन्हें अपनी जमीने छोडनी पड़ीं, वे किसान से मजदूर बन गये एवं उन्हें बेहद कम मजदूरी पर दयनीय स्थिति में गुजर करनी पड़ी। पुस्तक यह भी रेखांकित करती है कि ब्रिटिश काल में बाहरी व्यापारियों एवं साहूकारों के हस्तक्षेप ने आदिवासी लोगों की जीवन में समस्याएं पैदा की, एवं आदिवासी समुदायों ने इनके खिलाफ कई संगठित विद्रोह किये।8 यहाँ तक तो ठीक है मगर यह पुस्तक यहाँ यह रेखांकित करना भूल जाती है कि स्वतंत्र भारत में आदिवासी इलाकों में सरकारी और गैर सरकारी हस्तक्षेप किस प्रकार का रहा है? वर्तमान में इसकी क्या स्थिति है? क्या स्वतंत्रता के उपरांत सब ठीक हो गया? क्या आज भी आदिवासी लोगों को सरकारी और सरकार पोषित गैर सरकारी विकास के प्रोजेक्ट के नाम पर विस्थापन नहीं झेलना पड़ रहा है? क्या उसके बाद कोई विद्रोह या संगठित संघर्ष नहीं हुआ? वर्तमान में इसकी स्थिति क्या है? पुस्तकें स्वतंत्रता के उपरांत के वर्षों में हुए शोषण, भूमि अधिग्रहण, विस्थापन एवं आदिवासी संघर्षों एवं आंदोलनों की बात करना भूल जाती है।

            इन सब बिन्दुओ पर सीधे-सीधे कोई बात किये बिना एक्टिविटी के बॉक्स में यहाँ इस सन्दर्भ में एक सवाल छोड़ा गया हैपता करें कि क्या अब खानों में कामगारों की स्थितियां बेहतर हुई हैं? पता करें कि हर साल खानों में मरने वालों की संख्या क्या है और किस वज़ह से उनकी मौत होती है?’9 जो कुछ हद तक इस कमी की भरपाई करने की कोशिश सा जान पड़ता है और इस मुद्दे को सातत्य और परिवर्तन के आयाम से जोड़ने की कोशिश करता है मगर यह कोशिश अनमनी और अपर्याप्त लगती है।

            देखा जाए तो आजादी के बाद से विकास के नाम पर विभिन्न परियोजनाओं के लिए 22 लाख एकड़ से अधिक वन भूमि का अधिग्रहण किया गया है। शहरीकरण के लिए हर साल आदिवासी समुदाय से लाखों एकड़ जमीन छीन ली जाती है। सरकारों ने 1894 के औपनिवेशिक भूमि अधिग्रहण अधिनियम का उपयोग लाखों लोगों को उनकी पैतृक भूमि से जबरन विस्थापित करने के लिए किया है। राज्य में लाखों भूमि मालिक अब दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने को मजबूर हैं। इन चुनौतियों को हाल के वर्षों में वैश्विक खनन दिग्गजों के आगमन से जटिल बना दिया गया है। भारत में आज 4000 से अधिक बांध हैं; उनमें से 3000 से अधिक 1947 में स्वतंत्रता के बाद बनाए गए। कम से कम 500 और बांध निर्माणाधीन हैं। भारत सरकार के एक कार्यकारी समूह के अनुसार, विकास परियोजनाओं से विस्थापित होने वालों में पचास प्रतिशत आदिवासी हैं, जिन्हें जीविका के किसी साधन के बिना ही छोड़ दिया गया है।10

            तथ्य कुछ और कहानी कहते हैं मगर किताबों में स्वतंत्रता के बाद आदिवासी जनता की स्थितियों को लेकर एक प्रकार की पूंजीवादी, राजनितिक चुप्पी है। तथ्य इस प्रकार प्रस्तुत किये गये हैं ज्यों आदिवासियों पर सारा अत्याचार केवल अंग्रेजी शासन में हुआ हो। सातत्य एवं परिवर्तन की समझ के लिए आवश्यक है कि ब्रिटिश सरकार द्वारा किये जा रहे अत्याचारों के क्रम में ही स्वतंत्रता के बाद की स्थितियों पर प्रकाश डालते हुए वर्तमान पर थोड़ी चर्चा कर ली गई होती, जिससे विद्यार्थियों को एक तुलनात्मक दृष्टि मिलती।

आदिवासी मुद्दे एवं भाषा की राजनीति -

            दूसरी समस्या भाषा के इस्तेमाल को लेकर है। किताबें स्वंतत्रता के पूर्व की स्थितियों में ब्रिटिश सरकार द्वारा किये जा रहे शोषण का ज़िक्र करते वक़्त कर्ता वाचक वाक्यों का इस्तेमाल करती हैं जैसे :

अंग्रेजों ने सारे जंगलों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था और जंगलों को राज्य की संपत्ति घोषित कर दिया था11

जैसे ही अंग्रेजों ने जंगलों के भीतर आदिवासियों के रहने पर पाबन्दी लगा दी, उनके सामने एक समस्या पैदा हो गई12

            मगर स्वतंत्रता के पश्चात के शोषण के लिए सामान्यतः कर्ता के बिना ही काम चला लिया गया है। कर्मवाचक  वाक्यों का प्रयोग हुआ है जैसे :

आदिवासियों को खेतों, बागानों, निर्माण स्थलों एवं और घरों में नौकरी करने को विवश किया गया13

आदिवासी इलाकों में खनन, फैक्टरियों आदि के खुलने से आदिवासियों में विस्थापन की समस्या उत्पन्न हुई है14

कई बार उनकी जमीने छीनी गईं, निर्धारित प्रक्रियाओं का पालन नहीं हुआ15

इस तरह कीपोलिटिकल करेक्टभाषा का इस्तेमाल कर स्वतंत्रता पश्चात आदिवासी जनता के गुनहगारों की पहचान छुपा ली गयी है। यदि आप गुनाहगारों की पहचान जानने के आग्रह के साथ आगे बढ़ते हैं तो किताबों में उत्तर मिलता हैताकतवर लोगों’ ‘बाहरी लोगोंने, यथा: ‘जनजातीय भूमि पर कब्ज़ा करने के लिए ताकतवर गुटों ने हमेशा मिलकर काम किया16

ये ताकतवर गुट कौन हैं? इसके बारे में कुछ स्पष्ट नहीं है। 

            इसके कारणों को समझने के प्रयास में यह खुलता है कि और यह कोई नया ट्रेंड नहीं है ऐसा होता ही रहा है गुइचार्ड (2012) कहती हैं किहालाँकि विभिन्न विद्वान यह बात रेखांकित करते हैं कि पाठ्यपुस्तकों के आख्यान सामाजिक संघर्ष के विषय को दरकिनार करते हैं और हिंसा के चित्रण से बचते हैं, लेकिन इस विचार को और बारीकी से देखे जाने की ज़रुरत है। जब पाठ्यपुस्तकों को मुख्य रूप से राष्ट्र निर्माण उपकरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो उनमें मौजूद ऐतिहासिक आख्यान राष्ट्र के भीतर सामाजिक संघर्ष के उल्लेख को छोड़ देते हैं संघर्ष और हिंसा का उल्लेख केवल तब किया जाता है, जब वे राष्ट्र के 'अन्य' के खिलाफ हो17 और ये अन्य कौन होंगे? हिन्दू, मुस्लिम, ब्रिटिश, यहूदी, जर्मन, रशियन, नीग्रो या कोई और यह निर्भर करता है सत्ता पर, उसके राजनितिक विचार पर और उसके राष्ट्र की अवधारणा पर।इसके अलावा, हिंसा के प्रकरणों का उल्लेख तब किया जाता है जब उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है लेकिन स्वयं हिंसा का वर्णन किए बिना।18 अतः किताबों में तथ्यों एवं भाषा की यह चयनात्मकता के राजनीतिक कारण हो सकते हैं।

            इसके अलावा एपल (1993) का कहना है कि पाठ्यचर्या जो किताबों और कक्षाओं में दिखाई देती है वह ज्ञान का एक तटस्थ संचय नहीं है, बल्कि इसके द्वारा प्रभुत्वशाली समूहों के ज्ञान और हितों को  शक्तिहीन और हाशिए पर पड़े लोगों के ज्ञान एवं हितों के ऊपर अधिक मान्य स्थापित किया जाता है। जिसके परिणामस्वरूप पाठ्यचर्या अंततः प्रभुत्वशाली समूहों की हितसाधक बनकर रहती है।19

         वर्तमान में आदिवासी शोषण के पीछे के जो सबसे बड़े हितसाधक हैं वह अधिकांशतः ब्राह्मणवादी, पितृसत्तात्मक पूंजीवादी वैचारिकी वाले मुख्यधारा के लोग हैं, जिनका सत्ता और शिक्षण-अधिगम की नीतियों के निर्माण में मज़बूत प्रतिनिधित्व रहता है। पूंजीवाद के दिनों-दिन मज़बूत होते विचार ने आदिवासियों की जमीनों, वन्य और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को और भी अधिक अरक्षित बना दिया है कि राज्य भी आर्थिक विकास के पूंजीवादी बहाने नाम पर इनके शोषण में बराबर का सहभागी बना हुआ है। अतः पाठ्यपुस्तकों में  यह चयनात्मकता सत्ता में पूंजीपतियों के वर्चस्व, विकास की पूंजीवादी अवधारणा, और शिक्षा पर बढ़ती पूंजीवादी पकड़ शोषण की इस पर्दादारी, चुप्पी या भाषा की चयनात्मकता का कारण हो सकता है।

            निष्कर्षात्मक रूप से कहें तो यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के बाद आयी सामाजिक विज्ञान की कक्षा छठीं से आठवीं तक की पुस्तकें रूपरेखा द्वारा प्रस्तावित शिक्षण एवं अधिगम में आमूल चूल परिवर्तन को दृष्टिगत रखती हैं, पहले की पुस्तकों की तुलना में यथासंभव समतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए वंचित समुदायों  से सम्बंधित मुद्दे एवं अनुभव केंद्र में रखने का प्रयास करती हैं, मगर मुख्यधारा के पूंजीवादी स्वार्थों के दवाब में आदिवासी मुद्दों की प्रस्तुति में कहीं-कहींपोलिटिकल करेक्टेडनेसका शिकार हो गयीं हैं।

संदर्भ :

  1. एन.सी..आर.टी.(2006a). पोजीशन पेपर नेशनल फोकस ग्रुप ऑन टीचिंग ऑफ़ सोशल साइंसेज.पृष्ठ संख्या-2. एन.सी..आर.टी. दिल्ली
  2. वही. पृष्ठ संख्या 2
  3. वही. पृष्ठ संख्या 2
  4. वही. पृष्ठ संख्या 3
  5. वही. पृष्ठ संख्या 4
  6. वही. पृष्ठ संख्या 4
  7. वही.
  8. एन.सी..आर.टी.(2019). आवर पास्ट-III. एन.सी..आर.टी.,नयी दिल्ली. पृष्ठ संख्या 45-47.
  9. वही. पृष्ठ संख्या 47
  10. नेगी, एन.सिंह. और गांगुली, एस. (2011). डेवलपमेंटल प्रोजेक्ट्स वर्सेज इंटरनली डिसप्लेसड पापुलेशन इन इंडिया: लिटरेचर बेस्ड अप्रैज़ल. (COMCAD Working Paper No. 103), सेंटर ओं माइग्रेशन, सिटीजनशिप एंड डेवलपमेंट, यूनिवर्सिटी ऑफ़ बीलेफेल्ड. https://nbnresolving.org/urn:nbn:de:0168-ssoar-422011
  11. एन.सी..आर.टी.(2019). आवर पास्ट-III. एन.सी..आर.टी.,नयी दिल्ली. पृष्ठ संख्या 45.
  12. वही. पृष्ठ संख्या 45
  13. जे.सी..आर.टी.(2018).सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था-III. जे.सी..आर.टी.,रांची. पृष्ठ संख्या 48
  14. वही. पृष्ठ संख्या 48
  15. वही. पृष्ठ संख्या 48
  16. वही. पृष्ठ संख्या 48
  17. गुइचार्ड, एस. (2012). इंडियन नेशनल एंड सेलेक्टिव अम्नेसिया: रेप्रेजेंटिंग कांफ्लिक्ट्स एंड वायलेंस इन इंडियन हिस्ट्री टेक्स्टबुक्स. नेशन एंड नेशनलिज्म, 19(1).pp 68-66.
  18. वही.
  19. एप्पल,एम.डब्ल्यू.(1993). पॉलिटिक्स ऑफ़ ऑफिसियल नॉलेज : डज नेशनल करिकुलम मेक सेन्स?,95(2). टीचर्स कॉलेज, कोलंबिया यूनिवर्सिटी.

 

डॉ. कविता सिंह
सहायक प्रोफेसर, शिक्षाशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
singhkavita.bhu@gmail.com
 
लवली शॉ
सहायक प्रोफेसर, अमलतास कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, देहरी

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

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