शोध आलेख : भारतीय वेद और पर्यावरण संरक्षण / डॉ. दयाशंकर सिंह यादव

भारतीय वेद और पर्यावरण संरक्षण
- डॉ. दयाशंकर सिंह यादव

शोध सार : मानव जाति का आदि ग्रंथ भेजा है वेद का अर्थ ज्ञान होता है वेदों में पर्यावरण से सम्बन्धित अधिकतम ऋचाएँ यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में प्राप्त होती हैं। ऋग्वेद में भी पर्यावरण से सम्बन्धित सूक्तों की व्याख्या उपलब्ध है। अथर्ववेद में सभी पंचमहाभूतों की प्राकृतिक विशेषताओं और उनकी क्रियाशीलता का विशद् वर्णन है। आधुनिक विज्ञान भी प्रकृति के उन रहस्यों तक बहुत बाद में पहुँच सका है जिसे वैदिक ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व अनुभूत कर लिया था। इतना ही नहीं, वेदों में प्राकृतिक तत्वों से अनावश्यक और अमर्यादित छेड़छाड़ करने के दुष्परिणामों की ओर भी संकेत किया गया है तथा मानव को सीख भी दी गई है कि पर्यावरण सन्तुलन को नष्ट करने के दुष्परिणाम समस्त सृष्टि के लिए हानिकारक होंगे।वेदों में जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, वनस्पति, अन्तरिक्ष, आकाश आदि के प्रति असीम श्रद्धा प्रकट करने पर बल दिया गया है। ऋषियों के निर्देशों के अनुसार जीवन व्यतीत करने पर पर्यावरण असन्तुलन की समस्या उत्पन्न नहीं हो सकती। इनमें हुए अवांछनीय परिवर्तनों के कारण आज जल-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण की समस्याएँ चारों ओर व्याप्त हैं।

बीज शब्द : वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद।

मूल आलेख : वेद चार प्रमुख वेदों से मिलकर बने हुए हैं। इन चार वेदों का नाम इस प्रकार है:ऋग्वेद: यह वेद सबसे प्राचीन वेद में से एक है। इसमें मन्त्रों का संग्रह होता है, जो ईश्वर के प्रति समर्पण और प्रकृति की महत्ता के विषय में होते हैं।यजुर्वेद: इस वेद में वैदिक समीक्षा, वेदों के अनुष्टुभ छंद के साथ संबंधित सूक्त, मंत्र और ब्राह्मण होते हैं।सामवेद: इस वेद में वैदिक संगीत के मंत्र होते हैं जो संगीत, ताल, राग और उनके विविध रूपों को अध्ययन करते हैं।अथर्ववेद: इस वेद में भारतीय ज्योतिष, आयुर्वेद, तंत्र और भूत विज्ञान से संबंधित मंत्र होते हैं।वेद का शुभारम्भ ही अग्नितथवके स्तवन से होता है, जो सफल जीवन का निर्माता अग्रणी नेता है। उसे स्वयं आगे आकर समस्त परिवेश का हित करनेवाला, सामाजिक संगठन का सच्चा संचालक तथा शुभदायक माना गया है।

अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देव ऋत्विजम्। [i]
होतारं रत्नघातमम्।।’ (ऋग्वेद, 1.1.1.)

कल्याणकारी संकल्पना, शुद्ध आचरण, निर्मल वाणी एवं सुनिश्चित गति क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की मूल विशेषताएँ मानी जाती हैं वेदों में जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, वनस्पति, अन्तरिक्ष, आकाश आदि के प्रति असीम श्रद्धा प्रकट करने पर अत्यधिक बल दिया गया है। तत्त्वदर्शी ऋषियों के निर्देशों के अनुसार जीवन व्यतीत करने पर पर्यावरण-असन्तुलन की समस्या ही उत्पन्न नहीं हो सकती। इनमें हुए अवांछनीय परिवर्तनों के कारण आज जल-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण की समस्याएँ चारों ओर व्याप्त हैं।
 
वेदों में प्राकृतिक संरक्षण पर कई श्लोक हैं। वेदों के चार विभागों में से प्रत्येक विभाग में प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को बताने वाले कई श्लोक हैं। इन श्लोकों में वेदों के ऋषियों ने प्रकृति के महत्व को बताया है और इसे संरक्षित रखने के उपायों का भी जिक्र किया है। वेदों में पर्यावरण संरक्षण की चर्चा कई स्थानों पर की गई है। वेदों के अनुसार पृथ्वी एक स्वर्ग है जो हमें दिया गया है, इसलिए हमें इसकी रक्षा करनी चाहिए।

वेदों में पर्यावरण-सन्तुलन का महत्त्व अनेक प्रसंगों में व्यंजित है। महावेदश महर्षि यास्क ने अग्नि को पृथ्वी-स्थानीय, वायु को अन्तरिक्ष स्थानीय एवं सूर्य को द्युस्थानीय देवता के रूप में महत्त्वपूर्ण मानकर सम्पूर्ण पर्यावरण को स्वच्छ, विस्तृत तथा सन्तुलित रखने का भाव व्यक्त किया है।इन्द्र भी वायु का ही एक रूप है। इन दोनों का स्थान अन्तरिक्ष में अर्थात् पृथ्वी तथा अकाश के बीच है। द्युलोक से अभिप्राय आकाश से ही है। अन्तरिक्ष से ही वर्षा होती है और आँधी-तूफान भी वहीं से आते हैं। सूर्य आकाश से प्रकाश देता है पृथ्वी और औषधियों के जल को वाष्प बनाता है, मेघ का निर्माण करता है। उद्देश्य होता है पृथ्वी को जीवों के अनुकूल बनाकर रखना। परन्तु, अग्नि केवल पृथ्वी पर नहीं है, वह अन्तरिक्ष और आकाश में भी है। अन्तरिक्ष में विद्युत के रूप में और द्युलोक-आकाश से सूर्य-रूप में भी अग्नि ही है। पृथ्वी पर तो वह है ही। अभिप्राय यह कि ये सब एकसूत्र में सम्बद्ध हैं- यही प्राकृतिक अनुकूलताहै पर्यावरण-सन्तुलन का अन्यतम निदर्शन है।

1.    ऋग्वेद - ऋग्वेद में अग्नि को पिता के समान कल्याण करनेवाला कहा गया है।ऋग्वेद में प्रकृति का उल्लेख किया गया है और इसमें पृथ्वी, वायु, जल और आकाश जैसे प्राकृतिक तत्वों का वर्णन भी किया गया है। वेदों में उल्लेखित एक और महत्वपूर्ण बात है कि प्रकृति और मनुष्य एक दूसरे से गहरी तरह संबद्ध हैं।ऋग्वेद में प्रकृति की चर्चा कई स्थानों पर की गई है। प्रकृति को वेदों में देवी और माता के रूप में समझा गया है।ऋग्वेद के प्रथम मंत्र में ही पृथ्वी माता का उल्लेख होता है और उसके बाद भी कई मंत्रों में पृथ्वी की महिमा का वर्णन किया गया है। वेदों में जल, हवा, वायु और आकाश जैसे प्राकृतिक तत्वों के बारे में भी बताया गया है।ऋग्वेद में प्रकृति के साथ हमारे संबंध को भी बताया गया है। हमारी आत्मा और प्रकृति एक दूसरे से गहरी तरह संबद्ध होती हैं। ऋग्वेद में वेदना, दुःख, रोग और अन्य समस्याओं के लिए प्रकृति को जड़ से जड़ नहीं माना गया है। उसे एक चेतन और सशक्त शक्ति के रूप में देखा गया है जो हमारी सेवा के लिए हमेशा तैयार रहती है। ऋग्वेद में वन, वृक्ष, जल, आकाश और अन्य प्राकृतिक तत्वों की महत्ता को भी बताया गया है। वृक्षों को अपने परिवार के सदस्यों के रूप में समझा गया है जो हमें ऑक्सीजन प्राण वायु प्रदान करते है। ऋग्वेद में पर्यावरण संरक्षण पर निम्नलिखित श्लोक हैं :

यत्किं दृश्यते तत्सर्वं जगदेकं देवेश्वरैः। [ii]
एतस्माद्विरजं विश्वं परितः पश्यते नरः॥

इस श्लोक में कहा गया है कि प्रकृति के समस्त तत्व देवताओं द्वारा निर्मित हुए हैं और सभी मनुष्य इसे देखते हैं। श्लोक में विश्व का विराट स्वरूप बताया गया है और इससे इस बात का संदेश दिया गया है कि प्रकृति अत्यंत महत्वपूर्ण है और सभी लोगों को इसे संरक्षित रखना चाहिए।इस श्लोक का व्याख्यान करते हुए, हम यह समझ सकते हैं कि ऋषियों ने प्रकृति के संरक्षण के महत्त्व को समझा था और वे इसे अपने धर्म का महत्त्वपूर्ण हिस्सा मानते थे। इस श्लोक में प्रकृति को देवताओं के रूप में दिखाया गया है और इससे इस बात का संदेश दिया गया है कि हमें प्रकृति का सम्मान करना चाहिए।

"पृथिवीमध्ये विश्वानि देव एको अद्भुतो बिभर्ति।" [iii]

 जो एक देवता पृथ्वी में सभी अद्भुत प्राणियों को धारण करता है।पृथ्वी के मध्य में एक अद्भुत देव विश्व को संभालता हुआ है।"इस मंत्र में पृथ्वी के मध्य में एक अद्भुत देव या परमेश्वर की स्तुति की गई है। इस श्लोक से यह संदेश मिलता है कि समस्त विश्व का संरक्षण एक देवता द्वारा होता है और हमें इसका सम्मान करना चाहिए।

"विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव यद्भद्रं तन्म। असुव " [iv]

"देवों के सभी दुर्गम कार्यों को दूर करने वाले सूर्य सविता के विश्वास से वह भद्र कार्य करें जो उसके अधीन हो। इसमें "सविता" यानी सूर्य देवता की स्तुति की गई है। इसमें दुरितों से मुक्ति के लिए भी प्रार्थना की गई है। इस श्लोक से हमें यह संदेश मिलता है कि सूर्य देवता दुरितों से हमेशा हमें सुरक्षित रखती हैं और हमें उसे सम्मान देना चाहिए।

समुद्रादर्शं दीवि सूर्यं दृश्यमानं तत्र विश्वमस्य भेषजम्। [v]

वेदों में प्रकृति का बहुत महत्व है जो हमारी सेहत और संतुलित विकास के लिए आवश्यक होता है। यह श्लोक प्रकृति के विशालता और उसके उपयोग को दर्शाता है। इसमें समुद्र, दिवा और सूर्य की तारीफ की गई है। इस श्लोक से हमें यह संदेश मिलता है कि समुद्र, दिवा और सूर्य देवता विश्व का भेषज हैं। इनका दर्शन करने से हमारी दृष्टि शुद्ध होती है और हमें नई ऊर्जा की प्राप्ति होती है।

यतो विश्वं भुवनानि सज्जन्ते स्वभावेन नित्यमस्ति यत्र। [vi]
तत्र सत्यं विज्ञायते कश्चित् राजा तं देवमभिमन्यते॥"

इस श्लोक का अर्थ है कि वह स्थान जहां सभी भूत एवं भविष्य के समस्त सृष्टि कार्य होते हैं और जहां सत्य होता है, वह स्थान सबसे महत्वपूर्ण होता है। इस श्लोक में सत्य की महत्ता को बताया गया है। यह सत्य हमेशा अनुभव किया जाता है और वहां कोई राजा भी उस देवता को अभिमान करता है। इस श्लोक में प्रकृति की अनन्तता और उसकी स्वाभाविक गुणों के बारे में बताया गया है। ऋषि यहां प्रकृति को अनन्त और आश्रयदाता के रूप में बताते हैं जो हमें संरक्षित रखना चाहिए। जल जीवन का प्रमुख तत्त्व है। इसलिए, वेदों में अनेक सन्दर्भों में उसके महत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।

ऋग्वेद (1.23.248) में 'अप्सु अन्तः अमृतं, अप्सु भेषजं' [vii] के रूप में जल का वैशिष्ट्य बताया गया है। अर्थात्, जल में अमृत है, जल में औषधि-गुण विद्यमान रहते हैं। अस्तु, आवश्यकता है जल की शुद्धता-स्वच्छता को बनाए रखने की। ऋग्वेद में स्पष्टतया व्यंजितउतो मह्यं इदुंभिः युक्तान् षट् सेषिधत्।
वायु में जीवनदायिनी शक्ति है। इसलिए, इसकी स्वच्छता पर्यावरण की अनुकूलता के लिए परम अपेक्षित है। इसका अर्थ है कि जल मानवता के लिए अमृत की तरह महत्वपूर्ण है और जल में चिकित्सा की शक्ति होती है। जल हमारे शरीर के लिए आवश्यक है और इसे उपयोग में लाने से हम अपने शरीर को शुद्ध और स्वस्थ रख सकते हैं। यह मंत्र हमें जल की महत्त्वपूर्णता और उपयोगिता को याद दिलाता है।

2.    अथर्ववेद - अथर्ववेद में प्रकृति के संरक्षण के लिए उपायों का वर्णन किया गया है। इसमें वृक्षारोपण, जल संचय, और अन्य प्रकृतिक उपायों के बारे में बताया गया है। अथर्ववेद में प्रकृति के संरक्षण पर निम्नलिखित श्लोक हैं:

पृथिवीं दुहितरं कृष्णमध्यमा वसूनां विश्वरूपाणि द्यावापृथिवी देवीरुपस्थे। [viii]
उत संगच्छ यथासुखं गातुं यत्र नो अन्यः कस्यचित् प्रभूतोऽवताति॥

यह श्लोक ऋग्वेद के मण्डल १० सूक्त १३१ में है। इसमें पृथ्वी को दुहितर (पुत्री) और कृष्ण रंग का बताया गया है। यह श्लोक पृथ्वी की स्थिति के बारे में बताता है। द्यु और पृथ्वी को देवी की रूप में उपस्थित बताया गया है। यह श्लोक अन्य श्लोकों के साथ मिलकर पृथ्वी के महत्व को बताता है और संसार की एकता का संदेश देता है।इसका अनुवाद है:"पृथ्वी माता है जो वसुओं के बीच मध्य में है, जो देवी हैं, द्यु और पृथ्वी इनके साथ होते हुए। हम सभी वहाँ जाते हैं और जो कुछ होता है, उसमें कोई बदलाव नहीं होता। यहाँ कोई अन्य प्रभुता नहीं है।"

इस श्लोक में पृथ्वी देवी के रूप में उपस्थिति का उल्लेख किया गया है। पृथ्वी देवी हमारे परमेश्वर के समक्ष अपना सिर झुकाती है और हमें जीवन की देन में मदद करती है। इस श्लोक में इस बात का संदेश दिया गया है कि हमें प्रकृति को सम्मान देना चाहिए और उसे संरक्षित रखना चाहिए।श्लोक में विश्व के विविध रूपों का उल्लेख है और यह संदेश देता है कि प्रकृति हमें अनेक रूपों में दिखती है और हमें इसे संरक्षित रखना चाहिए। श्लोक में इस बात का भी संदेश है कि हमें अपने संगीत और वाद्य से एक दूसरे के साथ मिलकर बैठना चाहिए और साथ ही प्रकृति की संरक्षा करनी चाहिए।

"धर्ता पृथिवी रजसा समुद्रं रजो विवर्तते।" [ix]

(अथर्ववेद १२..) अर्थात् "पृथ्वी के धारण करने वाले धर्ता से समुद्र की रज बह जाती है और समुद्र की रज पृथ्वी में विस्फोट का कारण बनती है।"

ये वनस्पतयो वृक्षासो जहि शून्येषु तदभ्ययाम्यहम्। [x]
इमां दुहानो अनु यातु स्वस्ति नो वस्तु वेदा इन्द्रियेषु।

यह श्लोक वनस्पतियों और वृक्षों के महत्व को दर्शाता है और उन्हें संरक्षित रखने की अपील करता है।शुद्धा आपस्तन्वे क्षरन्तु-(अथर्ववेद, 12.1.30) अथर्ववेदीय पृथ्वीसूक्त में जलतत्त्व पर विचार करते हुए उसकी शुद्धता को स्वस्थ जीवन के लिए नितान्त आवश्यक माना गया है।निस्सन्देह, जल-सन्तुलन से ही भूमि में अपेक्षित सरसता रहती है, पृथ्वी पर हरीतिमा छायी रहती है, वातावरण में स्वाभाविक उत्साह दिखाई पड़ता है एवं समस्त प्राणियों का जीवन सुखमय तथा आनन्दमय बना रहता हैःवर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता सानो दधातु भद्रया प्रिये धामनि धामनि’-(अथर्ववेद, 12.1.52) जल के साथ-साथ सभी ऋतुओं को अनुकूल रखने का वर्णन भी वेदों में मिलता है।

3.    यजुर्वेद - यजुर्वेद में पृथ्वी को ऊर्जा (उर्वरता) देने वाली तप्तायनी तथा धन-सम्पदा देने वाली वित्तायनी कहकर प्रार्थना की गई है कि वह हमें साधनहीनता/दीनता की व्यथा और पीड़ा से बचाए तप्तायनी मेसि वित्तायनी मेस्यनतान्मा नाथितादवतान्मा व्यथितात्।’ (यजुर्वेद 5/9) अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त में क्षिति-पृथ्वी तत्व का मानव जीवन में क्या महत्व है तथा वह किस प्रकार अन्य चार प्रकृति तत्वों के संग, समायोजनपूर्वक क्रियाशील रहकर, उन समस्त जड़-चेतन को जीवनी शक्ति प्रदान करती है, जिनको वह धारण किए हुए है, की विशद व्याख्या उपलब्ध है। अथर्ववेद में पृथ्वी को, अपने में सम्पूर्ण सम्पदा प्रतिष्ठित कर, विश्व के समस्त जीवों का भरण-पोषण करने वाली कहा गया है। जब हम पृथ्वी की सम्पदा (अन्न, वनस्पति, औषधि, खनिज आदि) प्राप्त करने हेतु प्रवास करें तो प्रार्थना की गई है कि हमें कई गुना फल प्राप्त हो परन्तु चेतावनी भी दी गई है कि हमारे अनुसंधान और पृथ्वी को क्षत-विक्षत (खोदने) करने के कारण पृथ्वी के मर्मस्थलों को चोट पहुँचे। अथर्ववेद में पृथ्वी से प्रार्थना की गई है- वतते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदति रोहतु। मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम।।’ - (अथर्ववेद 12/1/35) इसके गम्भीर घातक परिणाम हो सकते हैं। आधुनिक उत्पादन और उपभोग एवं अधिकतम धनार्जन की तकनीक ने पृथ्वी के वनों-पर्वतों को नष्ट कर दिया है। खनिज पदार्थों को प्राप्त करने हेतु अमर्यादित विच्छेदन कर पृथ्वी के मर्मस्थलों पर चोट पहुँचाने के कारण पृथ्वी से जलप्लावन और अग्नि प्रज्ज्वलन, धरती के जगह-जगह फटने और दरारें पड़ने के समाचार हमें प्राप्त होते रहते हैं। खानों में खनन करते समय इसी प्रकार की दुर्घटनाओं ने जाने कितने लोगों की जानें ही नहीं ली अपितु उन क्षेत्रों के सम्पूर्ण पर्यावरण का विनाश कर उसे बंजर ही बना दिया है। हाल ही में मेघालय की संकरी लगभग 1200 फुट गहरी खदान में अचानक पानी जाने की घटना विश्व में घटित इसी प्रकार की तमाम त्रासदियों में से एक है।

यजुर्वेद में वनों की महत्वता और उनकी रक्षा के लिए उपायों के बारे में विस्तार से बताया गया है। यहां वन अपने आप में एक पूरा विश्व है जो हमें शांति, संतुलन और शक्ति प्रदान करता है। इसलिए हमें वनों को रक्षा करना चाहिए। अथर्ववेद में प्रकृति के संरक्षण के लिए कुछ उपायों का उल्लेख है। इनमें से कुछ उपाय निम्नलिखित हैं :

वनों की रक्षा करना : अथर्ववेद में वनों की महत्ता का वर्णन किया गया है। वनों को बचाने और उनकी संरक्षा करने के लिए उपाय बताए गए हैं। वनों के लिए प्रार्थनाएं करने और उन्हें संरक्षित रखने का संदेश दिया गया है।

जल संरक्षण : अथर्ववेद में जल की महत्ता का वर्णन किया गया है। जल को संरक्षित रखने और जल संबंधी समस्याओं को दूर करने के लिए उपाय बताए गए हैं। जल के उपयोग को संतुलित रखने के लिए भी अथर्ववेद में संदेश दिया गया है।

प्रदूषण कम करना : अथर्ववेद में प्रदूषण के विषय में बताया गया है। जल, वायु, मिट्टी और अन्य प्राकृतिक तत्वों के प्रदूषण से बचने के उपाय बताए गए हैं।

वृक्षारोपण : अथर्ववेद में वृक्षारोपण के महत्त्व का वर्णन किया गया है। वृक्षारोपण करने के उपाय बताए गए है 'मित्रस्याहं भक्षुसा सर्वाणि भूतानि समीक्षे[xi] का संकल्प व्यक्त है। इस मंत्र के अनुसार, संकल्पकर्ता कहता है, "मैं मित्र के द्वारा सभी प्राणियों को भोजन के रूप में देखता हूँ।" इस संकल्प का अर्थ है कि संकल्पकर्ता सभी प्राणियों के भोजन की दृष्टि से समझने की इच्छा व्यक्त कर रहा है। इस संकल्प के माध्यम से व्यक्त किया जाता है कि सभी प्राणी एक-दूसरे के साथ सहयोग और भोजन के रूप में सम्बन्ध रखते हैं। यह संकल्प हमें प्राणियों के साथ सम्पर्क में आने और सहयोग करने की प्रेरणा देता है। अर्थात्, सभी प्राणियों के प्रति सहृदयता का परिचय देना ही जीवन का सही लक्षण है। आज जिसे पारिस्थितिकी-तन्त्र कहते हैं, उसमें भी तो रचना तथा कार्य की दृष्टि से विभिन्न जीवों और वातावरण की मिली-जुली इकाई का ही स्वरूप-विश्लेषण किया जाता है।लोकोक्ति है कि ‘जब तक सांस, तब तक आस।’ परन्तु जब सांस ही जहरीली हो जाए, तब उससे जीवन की आशा क्या की जा सकती है? वस्तुतः सांस की सार्थकता वातावरण की मुक्तता में निहित है। चूँकि पादप एवं जन्तु दोनों ही वातावरण-सन्तुलन के प्रमुख घटक हैं, इसलिए दोनों ही का सन्तुलित अनुपात में रहना परमावश्यक है। वेदों में वृक्ष-पूजन का विज्ञान है।

4.    सामवेद - सामवेद में भी प्रकृति की महत्ता को बताया गया है। सामवेद वैदिक साहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग है जो रचनात्मक और धार्मिक संगीत को सम्मिलित करता है। सामवेद में प्रकृति को देवताओं के रूप में भी देखा जाता है।सामवेद में विभिन्न प्रकृति तत्वों जैसे वायु, जल, पृथ्वी आदि की महत्ता को बताया गया है। इन तत्वों को देवताओं के रूप में पूजा जाता है और उनसे संबंधित गीत और मंत्रों का वर्णन किया गया है।सामवेद में प्रकृति की महत्ता को समझाने के लिए ध्यान देने की आवश्यकता बताई गई है। प्रकृति का सम्मान करने के लिए सामवेद में भक्ति और संगीत का महत्त्व बताया गया है। सामवेद में उत्तरदायित्व की बात भी कही गई है जिससे प्रकृति को संरक्षित रखने की जिम्मेदारी सभी व्यक्तियों को संभालनी चाहिए।सामवेद में प्रकृति के संरक्षण पर श्लोक की ब्याख्या

द्यौः पृथिवी अन्तरिक्षं त्रयस्त्रयस्ते नाभिर्व्युच्छन्ति बहुधा जगतीरपो जाता उत यज्ञं [xii]
चक्रतुमस्मभ्यं देवा जुष्टाः स्वर्गं लोकं विश्वा रूपाणि व्यचस्थिरे॥

इस श्लोक में द्यौः (आकाश), पृथ्वी और अन्तरिक्ष के उल्लेख के साथ-साथ पृथ्वी के उत्पत्ति का उल्लेख है। श्लोक में यह संदेश दिया जाता है कि इन तीनों महत्त्वपूर्ण प्रकृति तत्वों को संरक्षित रखना चाहिए।श्लोक में यह भी संदेश दिया गया है कि यज्ञ को एक तरह से प्रकृति की संरक्षा का एक माध्यम माना जा सकता है। यज्ञ अनुष्ठान के दौरान देवताओं को प्रसन्न करने के लिए प्राकृतिक तत्वों का उपयोग किया जाता है।इस श्लोक में विश्व के विभिन्न रूपों के उल्लेख के साथ-साथ देवताओं को स्वर्ग लोक में जुड़ा हुआ उल्लेख है। यह संदेश देता है कि प्रकृति और देवताओं का संरक्षण हमारे जीवन के लिए महत्वपूर्ण है

निष्कर्ष : आज विश्वपर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, उससे कर्म में असन्तुलन उपस्थित हो गया है। इससे बचने के लिए वेद-प्रतिपादित सात्त्विक भाव अपनाना पड़ेगा।पर्यावरण को स्वच्छ-सुन्दर रखने का आग्रह सिर्फ भावनात्मक स्तर पर किया गया हो, ऐसी बात नहीं है।वैज्ञानिक अनुसन्धान के सन्दर्भ में भी सात्विकता की भावना से अनुप्राणित होकर गहरे मानवीय सम्बन्ध की स्थापना पर पर्याप्त बल दिया गया है। वेद का स्पष्ट निर्देश है कि लोग प्रकृति के प्रति सदा पूर्ण श्रद्धा रखें और आनन्दमय जीवन व्यतीत करने के निमित्त उससे पर्यावरण की अनुकूलता प्राप्त करते रहें। शुक्ल यजुर्वेद का शाश्वत सन्देश है पवन मधुर, सरस शुद्ध तथा गतिशील रहे, सागर मधुर वर्षण करे। ओज प्रदान करने वाली अन्नादि वस्तुएँ भोजन के बाद मधु के समान सुकोमल बन जाएँ। रात के साथ-साथ दिन भी मधुर रहे। पृथ्वी की धूल से लेकर अन्तरिक्ष तक मधुर हों। केवल जीवित मनुष्यों का, अपितु पितरों का जीवन भी मधुमय रहे। सूर्य मधुमय रहें, गायें मधुर दूध देने वाली हों। निखिल ब्रह्माण्ड मधुमय रहे। यह श्लोक प्रकृति की सुंदरता और सामरस्य को बयान करता है और सभी प्राणियों के जीवन में मधुरता, प्रेम और सम्पूर्णता की आवश्यकता को संकेत करता है। यह हमें प्रकृति के संरक्षण, सजीवता की एकता और प्रेम के महत्त्व को समझने के लिए प्रेरित करता है।

संदर्भ :
[i] यह पद ऋग्वेद के पहले मंडल, प्रथम सूक्त, प्रथम मंत्र से लिया गया है।
[ii] यह पद श्रीमद् भगवद् गीता के योगशास्त्र अध्याय के बीसवें श्लोक से लिया गया है।
[iii] यह पद ऋग्वेद के द्वितीय मंडल, द्वितीय सूक्त, द्वितीय मंत्र से लिया गया है।
[iv] यह पद ऋग्वेद के पांचवें मंडल, पञ्चम सूक्त, पञ्चम मंत्र से लिया गया है।
[v] यह पद ऋग्वेद के द्वादश मंडल, प्रथम सूक्त, सप्तम मंत्र से लिया गया है।
[vi] यह पद श्रीमद् भगवद् गीता के योगशास्त्र अध्याय के पच्चीसवें श्लोक से लिया गया है।
[vii] ऋग्वेद के मण्डल 1, सूक्त 23, मंत्र 248 में पाया जाता है। इसमें जल के गुणों का वर्णन किया गया है।
[viii] यह पद ऋग्वेद के द्वितीय मंडल, प्रथम सूक्त, तृतीय मंत्र से लिया गया है।
[ix] यह पद ऋग्वेद के द्वितीय मंडल, पञ्चम सूक्त, पञ्चम मंत्र से लिया गया है।
[x] यह पद ऋग्वेद के पञ्चम मंडल, पञ्चम सूक्त, द्वादश मंत्र से लिया गया है। इस पद में कहा गया है कि इन वृक्षों को जो शून्य स्थानों में हूँडे हैं, मैं उन्हें बहुतायत से लदूंगा। यहां तक कि ये वेद वस्त्र मेरे इंद्रियों में व्याप्त हों और हमारे लिए भगवान् इन्द्रियों में सुखदायक वस्तुएं लेकर आएँ। यह पद प्रकृति की संबंधितता, पृथ्वी की महत्त्वपूर्णता, और प्रकृति के साथ एकता को प्रशंसा करता है। इसके माध्यम से हमें प्रकृति की रक्षा और संरक्षण की आवश्यकता का संकेत मिलता है।
[xi] यजुर्वेद के अध्याय 36, मंत्र 18 में पाया जाता है। इस मंत्र में एक संकल्प (संकल्पना) व्यक्त किया गया है।
[xii] सामवेद के प्रथम प्रपाठक में वर्णित यह श्लोक प्रकृति के संरक्षण की महत्त्वपूर्ण बातों को संक्षेप में व्यक्त करता है। इस श्लोक में कहा गया है कि द्यु (आकाश), पृथ्वी, अन्तरिक्ष और नाभि (ब्रह्मांड) विभिन्न तरीकों से व्युच्छित होते हैं और जगती (प्रकृति) उनके विभिन्न रूपों को प्रकट करती है।
डॉ. दयाशंकर सिंह यादव
एसोसिएट प्रोफेसर समाजशात्र, सकलडीहा पी. जी. कालेज चन्दौली
sambadindia@gmail.com9452302015

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

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