शोध आलेख : हिंदी सिनेमा और वेश्यावृति : विशेष संदर्भ ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ / ज्योति यादव

हिंदी सिनेमा और वेश्यावृति : विशेष संदर्भ ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’
- ज्योति यादव

शोध सार : हिन्दी सिनेमा अपने आरंभिक समय से सामाजिक संदर्भों से जुड़ी फ़िल्में प्रस्तुत करता रहा है। वेश्यावृत्ति हमारे समाज का ऐसा मुद्दा रहा जिससे हिन्दी सिनेमा भी अप्रभावित नहीं रहा। हिन्दी फ़िल्म निर्माण के पहले दशक से ही वेश्यावृत्ति को स्थान मिलता रहा है। प्रस्तुत आलेख में ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ फ़िल्म में वर्णित वेश्यावृत्ति की समस्या का विवेचन किया गया है। यह फ़िल्म उक्त विषय पर पूर्ववर्ती फिल्मों के मुक़ाबले नूतन विमर्श रचती है। यहाँ केवल सहानुभूति पाने का प्रयास नहीं है बल्कि गरिमापूर्ण जीवन पाने की जद्दोजहद है।  इस आलेख में वेश्यावृत्ति और इस पेशे   से जुड़ी महिलाओं के प्रति भारतीय समाज की मानसिकता, उनके आग्रह-दुराग्रह तथा यौनिकता की उनकी समझ को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

बीज शब्द : वेश्यावृत्ति, हिन्दी सिनेमा, स्त्रियाँ, यौन शुचिता, प्रेम, स्त्री छवि, बॉलीवुड, गंगूबाई, गंगूबाई काठियाबाड़ी, संवाद।

मूल आलेख : सिनेमा को प्रथम दृष्टया मनोरंजन का एक माध्यम मान लिया जाता है लेकिन हम देखते हैं कि अपने विस्तार के साथ इसके सामाजिक प्रभाव भी स्पष्ट दिखते हैं। “सिनेमा मात्र मनोरंजन और व्यवसाय नहीं है उसकी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी है।”1 एक ओर सिनेमा के लिए कहानी का संदर्भ समाज से ही बनता है यानी सिनेमा अपना मूल समाज से ग्रहण करता है। दूसरी ओर सिनेमा एक कहानी के रूप में पर्दे पर अपनी प्रस्तुति के साथ समाज को भी गहराई से प्रभावित करता है। समाज में अक्सर ऐसे चलन भी आम होते रहे हैं जो सिनेमा के प्रभाव से पैदा होते हैं। सामाजिक मुद्दों पर बनी कई फिल्में विमर्श का विषय बनती रही हैं और फिल्मों के कारण समाज में कई स्तर पर बदलाव भी दर्ज किये गए हैं। समाज में सिनेमा की भूमिका को रेखांकित करते हुए राजेश कुमार लिखते हैं, “परंपरावादी और रूढ़िवादी समाज में सुधार, परिवर्तन और जागरूकता लाने का महत्वपूर्ण काम भी सिनेमा ने किया।”2  मुख्यधारा के प्रचलित फार्मूले और ढांचे से हट कर सामाजिक सरोकार के किसी मुद्दे पर केंद्रित फिल्में समय समाज को सकारात्मक दिशा भी दिखाती रही है।गंभीर विषय-वस्तु पर केंद्रित फिल्मों ने जब कभी सामाजिक बहस या विमर्श को एक आकार दिया तब उससे एक संवेदनशील समाज की संरचना के मजबूत होने में भी मदद मिली। इस दृष्टि से सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर बनी फिल्मों की सामाजिक भूमिका समझी जा सकती है। विशेष रूप से ऐसे कई संदर्भ सर्वविदित हैं जब समाज में हाशिये पर पड़े किसी वर्ग या समुदाय के जीवन पर केंद्रित फिल्मों ने एक बड़े विमर्श को जन्म दिया और समाज के सोचने-समझने की दिशा पर भी प्रभाव डाला। समाज में वेश्यावृत्ति एक ऐसा ही व्यवसाय रहा है जिसकी छवि सामान्य तौर पर नकारात्मक रही है। इस व्यवसाय से जुड़ी स्त्रियों को लेकर समाज की दृष्टि कई बार तिरस्कार तक पहुंचती है। हालांकि इस व्यवसाय का उपभोक्ता वर्ग भी इसी समाज से आता है। “भारतीय समाज में वेश्या का चरित्र हमेशा से लोगों को लुभाता रहा है, उनके रहन-सहन से लेकर बात व्यवहार से लेकर उनके जीवन की परतों को देखने समझने की आकांक्षा जनमानस में होती है।”3 सिनेमा ने वेश्यावृत्ति को स्थान दिया लेकिन इसमें इसने सामाजिक दृष्टिकोण के विपरीत इस व्यवसाय तथा इससे जुड़ी स्त्रियों के जीवन की प्रस्तुति सकारात्मक और सहानुभूतिपरक की  जिसके कारण इस विषय पर बहुत सारे लोगों के सोचने का तरीका बदला।

        दरअसल, सिनेमा ने केवल वेश्यावृत्ति के प्रचलित रूप के ऊपरी सतह को प्रदर्शित करने के बजाय उसके स्रोत को भी साथ-साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया। यानी वेश्यावृत्ति की दुनिया की प्रस्तुति के साथ-साथ उसमें किसी स्त्री के प्रवेश के कारण को भी प्रदर्शित किया गया। यह एक कठोर सच्चाई रही है कि जब कोई स्त्री वेश्यावृत्ति के व्यवसाय में जुड़ती है तो उसके पीछे कई बार दुख, त्रासदी और विवशता की एक अंतहीन गाथा होती है। जवरीमल्ल पारख इस त्रासदी का रेखांकन करते हैं, "लड़कियां जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी इज्ज़त दांव पर लगाकर सस्ते बार में नाचने, गाने तथा अपनी इज्जत तक बेचने के लिए मजबूर होती हैं।"4 सिनेमा के माध्यम से इस बिंदु से परिचित होने वाले लोगों के सामने वेश्यावृत्ति के अन्य पहलू खुले और इस मुद्दे पर उनके पूर्वाग्रहों में संवेदनशीलता का विकास हुआ। इसके साथ-साथ लोगों को वेश्यावृत्ति के व्यवसाय के भीतर इसके अलग- अलग स्वरूपों से परिचित होने का अवसर मिला, जिसमें केवल गीत-संगीत और नृत्य की प्रस्तुति से लेकर देह व्यापार तक अलग-अलग स्तर थे।

          कला की दुनिया में यौनकर्मियों के जीवन की समस्या को प्रदर्शित करना सैकड़ों वर्ष पहले ही शुरू कर दिया गया था। रजनी बाला अपने एक लेख में इसका हवाला देते हुये बताती हैं-“Prostitution, has been a theme in Indian literature and arts for centuries, Mrichakatika a tenact Sanskrit play, was written by Śhudraka in the 2nd century BC. It entails the story of a courtesan Vasantsena.”5 वेश्यावृत्ति से संलग्न स्त्रियों के जीवन से जुड़ी कठोर सच्चाइयों और चुनौतियों को केंद्रित करके बनी फिल्मों का एक लंबा सिलसिला रहा है। मुख्यधारा और समांतर फिल्मों में प्यासा, देवदास, उमराव जान, मंडी, चांदनी बार, चमेली, चोरी चोरी चुपके चुपके, तलाश, जूली, लागा चुनरी में दाग, देव डी, लक्ष्मी, बेगम जान, द डर्टी पिक्चर से लेकर अनारकली ऑफ आरा जैसी अनेक फिल्मों में इस पेशे की अनेक छवियां उभर कर आईं। ऐसी अधिकतर फिल्मों में विषयों को काफी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया, जिसने सामाजिक स्तर पर एक तरह की संवेदनशीलता का भी विकास किया। इस संदर्भ में जवरीमल्ल पारख लिखते हैं, "साधना, अदालत, पाकीज़ा आदि फिल्मों के द्वारा फिल्मकारों ने यह संदेश पहुंचाने की कोशिश की कि वेश्या भी इंसान है।"6 वास्तव में ऐसी फिल्में और उनमें कहानी की प्रस्तुति के तरीके समाज में पारंपरिक तौर पर घृणित समझे जाने वाले किसी समुदाय के प्रति भावनात्मक जुड़ाव के साथ-साथ उनकी परिस्थितियों को उनकी तरह समझने की दृष्टि पैदा करती है। इसके समानांतर इस विषय-वस्तु पर बनी अनेक  फिल्मों में कुछ तीखी सच्चाइयों को दिखाते हुए इस समाज में वेश्यावृत्ति से जुड़ी स्त्रियों के प्रति घृणा से भरी मानसिकता को आईना भी दिखाया गया। यह वही मानसिकता रही है  जिसकी वजह से किसी स्त्री को हाशिये पर धकेल दिया जाता है और जब वह विवशता में इस व्यवसाय का हिस्सा बन जाती है तब उसे आम इंसान को मिलने वाले अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता रहा है। इस विषय पर बनी मुख्यधारा की फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी' में वेश्यावृत्ति के दलदल में ही धकेली गई स्त्रियों की त्रासदी को प्रस्तुत किया गया और इसके साथ-साथ इस व्यवसाय से जुड़ी स्त्रियों के जीवन को भी गरिमापूर्ण बनाने की मांग की गई है। वेश्यावृति पर फिल्मायी गयीपहले की अधिकतर फिल्मों पाकीज़ा(1971), उमराव जान(1881) , मुकद्दर का सिकंदर 1978), देवदास (2002) की तरह गंगूबाई किसी की प्रतीक्षा में नहीं दिखती। ना ही फिल्म का अंत घर बसाने की इच्छा के साथ होता है। बल्कि इस स्टीरियोटाइप को खंडित करती हुई यह फिल्म दिखती है। वह संकटग्रस्त यौनकर्मी की तरह ' संकटमोचन' नायक द्वारा उद्धार नहीं चाहती बल्कि खुद मोर्चा संभालती है। वह अपनी रक्षक स्वयं बनती है। तथा समय- समय पर ऐसे जीवन जीने वाली महिलाओं की मुसीबतों का हल भी ढूंढती नजर आती है। यह फ़िल्म एस. हुसैन जैदी की किताब 'माफिया क्वींस ऑफ मुंबई' के अध्याय 'द मैट्रिआर्क ऑफ कमाठीपुरा' पर आधारित है।  गंगूबाई की भूमिका में अभिनेत्री आलिया भट्ट हैं एवं सहायक भूमिकाओं में शांतनु माहेश्वरी, अजय देवगन व सीमा पाहवा सरीखे कलाकार नजर आते हैं। इस फिल्म में एक और वेश्या चरित्र अपनी ओर ध्यानाकर्षित करती है। इस चरित्र का नाम राजिया है और इसका किरदार विजय राज ने निभाया है जो मंझे हुए अभिनेता हैं।

          फिल्म की शुरुवात बैकग्राउंड में बज रहे बेगम अख्तर की सुरमयी आवाज़ और मिर्ज़ा गालिब की पुरकशिश ग़ज़ल से होती है “तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता”7  और एक 14 साल की बच्ची मधु को वेश्यावृत्ति लिए जबरदस्ती तैयार करते हुए दर्शाया जाता है। खाना- पीना छोड़ जब वह वेश्यावृत्ति के लिए इनकार कर देती है तो उसे मनाने के लिए गंगूबाई को बुलाया जाता है। इसी क्रम में कहानी फ्लेसबैक में जाती है और गंगूबाई अपनी कहानी सुनाती है।  यह कहानी शिक्षित, संपन्न गुजराती परिवार की सोलह साल की नवीं पास लड़की के गंगा से गंगू और  गंगू से गंगूबाई काठियावाड़ी बनने की है। गंगा का प्रेमी उसे अभिनेत्री बनाने का झांसा दे कर मुंबई ले जाता है और हजार रुपये में मुंबई के रेड लाईट एरिया कमाठीपुरा में बेच देता है। गंगा जिसे प्रेम करती थी, वह उसके विश्वास को हजार रुपये लेकर तोड़ जाता है। इस दगेबाजी पर यकीन कर पाना मुश्किल था पर कुछ समय बाद गंगा इसे अपनी नियति मान लेती है और वेश्यावृति के लिए तैयार हो जाती है। आगे चलकर गंगूबाई कमाठीपुरा के सेक्स-वर्कर्स के लिए लड़ती है और कई क्रांतिकारी कदम भी उठाती है।  वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान करने तथा कमाठीपुरा के वेश्याओं को बेघर होने से बचाने के लिए 4000 यौनकर्मियों का प्रतिनिधित्व करती है।

            देखा जाए तो बॉलीवुड में वेश्यावृति पर बनी लगभग सभी फिल्मों में कहानी और पात्र की प्रस्तुति ऐसी रही है, जिसे देखते हुए दर्शक वेश्या का किरदार निभाती पात्र के प्रति सहानुभूति से भर जाते हैं। उन्हें सकारात्मक नजरिए से देखने लगते हैं। वेश्यावृत्ति में धकेली गई महिलाओ के जीवन के लिए उनके साथ होने वाले धोखे और अन्य कारणों को जिम्मेदार मानना शुरु का कर देते हैं। चूकी यह प्रक्रिया फिल्म से शुरू होकर फिल्म तक ही सीमित रह जाती है और वास्तविकता में आकार नहीं ले पाती  इसलिए दर्शकों के भीतर अस्थायी तौर पर उपजे सकारात्मक भाव फिर से परंपरागत सोच के बोझ से दब जाते हैं। 'गंगूबाई काठियावाड़ी' फिल्म में रूप में गंगूबाई दर्शकों की उसी जड़ सोच पर हर थोड़ी-थोड़ी देर बाद प्रहार करती है। उसके प्रति भावुक होने वाले अन्य पात्र हों या फिर वह खुद अपने संवादों और प्रस्तुतियों के जरिए यह फिल्म वेश्यावृत्ति में झोंकी गई स्त्रियों के प्रति संकीर्ण और कुंठित दृष्टि रखने वाले दर्शकों के अंतस को झकझोरती है। आज़ाद मैदान में भाषण देते वक्त गंगुबाई कहती है, "आदमी लोग आते हैं आपके मोहल्ले से हमारे मोहल्ले में फिर भी हमारा ही मोहल्ला बदनाम क्यों?"8 यह संवाद इसी समाज से आने वाले इस व्यवसाय के उपभोगता वर्ग को प्रश्नांकित करता है। "आपसे ज्यादा इज्जत है हमारे पास। आपकी इज्जत गई तो गई, हम तो रोज़ रात को इज्जत बेचती हैं, साली, खत्मइच नहीं होती!"9 समाज में घृणित समझे जाने वाले इस समुदाय के दुःख को दर्शाता यह संवाद अंदर तक झकझोर देता है। इस फिल्म के संवाद सरल और स्वाभाविक होने के कारण दर्शक पर अमिट छाप छोडते हैं। इस संदर्भ में  राजेश कुमार की संवाद पर की गई टिप्पणी याद आती है- "एक अच्छे संवाद की सबसे बड़ी खूबी है कि वह स्वाभाविक हो"10 स्वाभाविकता के कारण भी संवाद इस फ़िल्म का उज्जवल पक्ष बनता दिखायी देता है यह फिल्म अपने मुख्य विषय-वस्तु में यह दिखाना चाहती है कि वेश्यावृत्ति की दुनिया में जो महिलाएं अपना जीवन गुजारती हैं, वह उनकी जिंदगी में किन-किन धोखों और वंचनाओं का नतीजा होता है, उन्हें किस-किस भयावह यातनाओं से गुजर कर अपनी त्रासदी के साथ पहले अभ्यस्त और फिर बाद में सहज होना पड़ता है। एक भयावह यातना और अपने खिलाफ क्रूरता की पराकाष्ठा से भरा जीवन जीने के बावजूद उसे समाज के मर्दों का मनोरंजन और उसकी यौनिक भूख को शांत करना पड़ता है, जिसके बदले उसकी आजीविका चलती है। लेकिन इसके प्रतिदान में एक वेश्या को समाज से क्या मिलता है, उसके अस्तित्व तक से घृणा, उपेक्षा और तिरस्कार के सिवा ? यहाँ तक यह फिल्म वेश्यावृत्ति पर बनाई गई अन्य फिल्मों की तरह ही चलती है। लेकिन इसमें खास पहलू तब जुड़ता है, जब गंगूबाई काठियावाड़ी कई बाधाओं को पार करने के बाद देश के प्रधानमंत्री से मिलती है। दरअसल, गंगूबाई को यही दंश बर्दाश्त नहीं हो पाता है और वह अपने साथ और आसपास की अपनी तरह की महिलाओं के न केवल हक के लिए लड़ती है,  “इसमें दिखाया गया है कि एक लड़की को जब धोखे से कोठे पर बेच दिया जाता है, तो वो वहाँ अपनी किस्मत पर रोने की बजाए, कुछ नया और बड़ा करने की सोचती है. वो रेडलाइट एरिया में रहने वाली लड़कियों और औरतों की दुर्दशा दूर करने की कोशिश करती है।“11 वह प्रधानमंत्री से अपनी मुलाकात में मुख्य मांग यही करती है कि वेश्यावृत्ति के व्यवसाय को कानूनी दर्जा दिया जाए।

          वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा की मांग के पीछे मजबूत तर्क यही है कि चूंकि समाज वेश्यावृत्ति को पहले ही एक हेय पेशे के तौर पर देखता है, दूसरे इसमें इसका गैरकानूनी होना समाज की धारणाओं को और पुख्ता आधार दे देता है। वहीं, कानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त कई ऐसी चीजों को लेकर भी समाज नरम रवैया अख्तियार करता है, जिसे वह अपने अनुकूल नहीं मानता है। शायद यही वजह है कि वेश्यावृत्ति के पेशे में लगी महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी यह मांग थी कि इस व्यवसाय को गैरकानूनी दर्जे से हटाया जाए, ताकि इसमें लगी महिलाओं को भी समाज उनकी गरिमा के साथ देख सके।

'गंगूबाई काठियावाड़ी' फिल्म की मुख्य थीम भी यही है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा दिया जाए। स्वाभाविक ही इस फिल्म को स्त्री सशक्तीकरण का एक महत्त्वपूर्ण फ़िल्म माना गया। फिल्म में वेश्यावृत्ति को गैरकानूनी मानने और उससे उपजे सामाजिक दृष्टिकोण की समस्या को भी बखूबी दर्शाया गया।  दिलचस्प बात यह रही कि इस फिल्म के प्रदर्शन के कुछ समय बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने वेश्यावृत्ति व्यवसाय को कानूनी रूप से वैध करार दिया। स्वाभाविक तौर पर  सुप्रीम कोर्ट के इस रुख से उन तमाम लोगों की जीत हुई जो वेश्यावृत्ति के प्रति कानून के रुख को बदलने की मांग कर रहे थे। साथ ही इस त्रासद पेशे में झोंकी गई स्त्रियों के जीवन में बदलाव आने की उम्मीद जगी जो सदियों से समाज की कुंठित जरूरतों को पूरा करने के बदले हर पल अपमान और दुख का जीवन काटती रहीं।

हालांकि अब भी यह  बहस का विषय है कि कानूनी बना दिए जाने के बाद भी क्या वेश्यावृत्ति से किसी भी रूप में जुड़ी स्त्रियों को एक सामान्य स्त्री के समांतर गरिमा के साथ यह समाज देख सकेगा! यह भी फिलहाल एक सवाल ही है कि क्या कानूनी दर्जा मिलने के बाद एक यौनकर्मी स्त्री समाज में सामान्य स्त्रियों की तरह सामान्य जीवन जी पाएगी! हालांकि प्रथम दृष्टया 'गंगूबाई काठियावाड़ी' फिल्म की मांग से मानवीय आधार पर इसलिए सहमत हुआ जा सकता है कि व्यापक पैमाने पर देह- व्यापार चलने के बावजूद नियमन के अभाव में इस पेशे में लगी महिलाओं को आए दिन कई तरह की प्रताड़नाएं, वंचनाएं और त्रासदी झेलनी पड़ती हैं। उसके साथ ऐसा बर्ताव करने वाला समाज होता है और वह शासन भी, जिसके पास विधिवत रूप से पीड़ितों का दुख सुनने और उसे राहत दिलाने की जिम्मेदारी होती है। लेकिन 'गंगूबाई काठियावाड़ी' की इस मांग और सुप्रीम कोर्ट के इस मसले पर सकारात्मक रुख के बावजूद इस समस्या की अपनी जटिलताएं हैं।

यह छिपा नहीं है कि कुछ जनजातीय समुदायों के अपवादों को छोड़ दें तो लगभग सभी धर्म के समाज की बुनियाद ही पितृसत्तात्मक मूल्यों पर टिकी है। पितृसत्तात्मक ग्रंथियों से उपजा मनोविज्ञान एक तरह से पुरुषवादी समाज बनाता है जिसमें स्त्री की स्थिति दोयम ही रहती है। कुछ समाजों में धार्मिक आख्यानों के आधार पर यह तो बताया जाता है कि उनकी संस्कृति में स्त्रियों को पूजनीय और सम्माननीय का दर्जा प्राप्त है लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि धार्मिक कसौटी पर इस धारणा पर गर्व करने वाला समाज और व्यक्ति भी पितृसत्तात्मक मनोविज्ञान से पीड़ित होता है और आखिरकार स्त्री को पुरुष के बराबर दर्जा देने को तैयार नहीं होता। हालांकि ऐसी भी तमाम रचनाएं मिल जाएंगी, जिसे एक धार्मिक किताब का हिस्सा ही कहा जाएगा, लेकिन उसमें स्त्रियों को दास भाव तक में रखने और किसी भी स्थिति में उनकी स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की सलाह दी गई है।

सवाल है कि स्त्री के प्रति समाज की इस धारणा की जड़ क्या है? आखिर वह कौन-सी वजह है, जिससे प्रभावित होकर कोई समाज स्त्री को शासित की हैसियत में बनाए रखने के सिद्धांत में ही जीता है? क्या यह सच नहीं है कि सभ्यता और समाज के विकास के साथ-साथ स्त्रियों के प्रति जिस सामाजिक मानस का निर्माण हुआ, उसमें उस पर नियंत्रण के लिए उसके शरीर या स्पष्ट कहा जाए तो उसकी यौनिकता को सबसे बड़ा हथियार बनाया गया? स्त्री के शरीर पर पहले कब्जा, कब्जे के लिए एक व्यवस्थागत प्रक्रिया और फिर उसे आम धारणा का सामान्य हिस्सा बनाना। जब यह सुनिश्चित हो गया तब स्त्री की स्वतंत्रता की कोई भी गुंजाइश नहीं बचने देने के लिए उसके शरीर को कथित यौनिक पवित्रता और शुचिता से परिभाषित कर दिया गया। स्त्री की कथित यौन-शुचिता या पवित्रता एक ऐसा हथियार साबित हुई जिसके स्त्री की सामाजिक हैसियत का निर्धारण कर दिया गया। यानी कि अगर कोई स्त्री यौन रूप से कथित पवित्र है तो वह सम्माननीय है। और इसके अलावा उसे समाज के मठाधीशों की ओर से शरीर के उपयोग की व्याख्या और परिभाषा के तहत जीना है, तभी वह स्वीकार्य है। लेकिन  किन्हीं मजबूर हालात में भी उसकी सेक्शुअलिटी का हनन होता है तो भी सामाजिक धारणा उसके पक्ष में नहीं होगी और उसका 'सब कुछ लूट गया' माना जाएगा। स्त्री की इज्जत के रूप में उसकी यौनिकता के निर्धारण की प्रक्रिया भी यही रही।

            गंगूबाई काठियावाड़ी फ़िल्म के द्वारा यह स्पष्ट होता है कि स्त्री शरीर और यौनिकता से समाज की स्त्री के प्रति धारणा का निर्माण होता है और खासतौर पर देह व्यापार में लगी स्त्रियों को समाज कोई जगह देने को तैयार नहीं होता है। यह समाज का पक्ष है। समाज में यह व्याप्ति है कि अगर कोई वस्तु मूल्य चुकाकर खरीदी जाती है तो उसे खरीदने वाला उस वस्तु को अपनी संपत्ति मानता है। यहाँ यह सवाल उठता है कि अगर स्त्री के शरीर को मूल्य चुका कर हासिल किया जाता है तो एक तरह से स्त्री को शरीर में रिड्यूस किया जाता है, डिग्रेड या कमतर किया जाता है। यदि किसी व्यवसाय से स्त्री का व्यक्तित्व खरीदने लायक होता है तो उस व्यवसाय को कानूनी दर्जा दिया जाना भी उसके प्रति सम्मान और समानता का भाव कैसे पैदा कर सकेगा? 'गंगूबाई काठियावाड़ी' फिल्म के संदेश और उसके बाद इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी यह उम्मीद बाकी रहेगी कि वेश्यावृत्ति के पेशे में लगी महिलाओं को कब आत्म सम्मान और मानवीय गरिमा के साथ जीवन-यापन करने की सहज स्वीकृति समाज से मिलेगी!

सन्दर्भ :

  1. हिन्दी सिनेमा तथा उसका अध्ययन: डॉ. रमा, हंस प्रकाशन, संस्करण- 2020, पृष्ठ - 37
  2. हिन्दी सिनेमा का अध्ययन: राजेश कुमार, तक्षशिला प्रकाशन, संस्करण-2017, पृष्ठ -108
  3. http://haahaakar.blogspot.com/2018/04/blog-post_23.html
  4. हिन्दी सिनेमा का समाजशास्त्र-जवरीमल्ल पारख, ग्रंथ शिल्पी प्राइवेट लिमिटेड, संस्करण-2006, पृष्ठ -95
  5. Scholarly Research journal for interdisciplinary studies, www.srjis.com, JAN-FEB 2016, VOL-3/22 Page 1822
  6. वही, पृष्ठ -136
  7. https://www.rekhta.org/couplets/ye-masaail-e-tasavvuf-ye-tiraa-bayaan gaalib-mirza-ghalib-couplets-1?lang=hi
  8. https://youtu.be/Sdaf6sE74dQ
  9. https://youtu.be/Sdaf6sE74dQ
  10. हिन्दी सिनेमा का अध्ययन: राजेश कुमार, तक्षशिला प्रकाशन, संस्करण-2017, पृष्ठ -37
  11. https://www.ichowk.in/cinema/gangubai-kathiawadi-movie-is-about-prostitution-in-india-alia-bhatt-sanjay-leela-bhansali/story/1/23291.html

 

ज्योति यादव
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय 

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-48, जुलाई-सितम्बर 2023 UGC Care Listed Issueसम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : सौमिक नन्दी

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