शोध आलेख : महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव और भारतीय जनमानस / डॉ. चयनिका सैकिया


शोध सार
:
श्रीमंत शंकरदेव को छोड़कर असमिया भाषा-साहित्य-संस्कृति की हम कल्पना ही नहीं कर सकते हैंमध्ययुगीन भारतीय भक्ति-आन्दोलन के नेताओं में से अन्यतम एक हैं महापुरुष श्रीमंत शंकरदेवअसम के नव-वैष्णव आन्दोलन के जनक शंकरदेव ने न केवल पतनोन्मुखी असमिया समाज का उद्धार किया,बल्कि पहली बार असम को भारत के साथ जोड़ने का प्रयत्त्न भी कियादो बार लम्बी अवधि तक भारत भ्रमण करनेवाले, सत-संगति का फायदा उठाने वाले शंकरदेव ने न सिर्फ असम या पूर्वांचल के,बल्कि पूरे भारतवर्ष के लोगों के साथ असमिया लोगों के लिए एक मिलन सेतु तैयार किया समाज के कल्याण हेतु अपने जीवन को न्यौछावर किया दरअसल,जनकल्याण ही उनका मूख्य उद्देश्य रहा है

      शंकरदेव में तथाकथित आंचलिकतावाद नहीं है, जातियतावाद है और उनका जातियतावाद राष्ट्रीयतावाद में समाहित हो गये हैं नदी जैसे समुद्र में,समुद्र जैसे महासमुद्र में विलीन हो जाता है,वैसे ही शंकर की जातीय प्रेम-सरिता भी राष्ट्रीय प्रेमधारा में समाहित हैअपने अंदर समाये विशेष विचारधाराओं ने शंकरदेव को जातीय नायक से उन्नीत कर राष्ट्रीय महानायक के रूप में प्रतिष्ठित किया

बीज शब्द : शंकरदेव,असम,समाज,राष्ट्रीयता,भक्ति-आन्दोलन,कल्याण,भारत,जातियतावाद,जातीय-प्रेम

मूल आलेख महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव [1449-1568] भारतीय मध्यकालीन भक्ति-आन्दोलन की महान विभूतियों में से एक हैंवे वैष्णव भक्त, विचारक और कवि थे उनकी विचारधाराओं ने न केवल तत्कालीन समाज में नयी चेतना दी, बल्कि जिस विचार-आलोक को उन्होंने प्रकट किया, वह किसी न किसी रूप में आज भी करोड़ों व्यक्तिओं के अंधकारमय मार्ग को आलोकित कर रहा हैभारतवर्ष के आध्यात्मिक जगत में आदिशंकराचार्य के उपरांत इतिहास के मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन खड़ा हुआ{1} चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में भक्ति की अलख जगानेवाले स्वामी रामानंद, कबीर, रैदास, नामदेव, गुरु नानकदेव, नरसी मेहता, वल्लभाचार्य, सूरदास, तुलसी, मीरा आदि संतों के समकालीन ही पूर्वोत्तर दिशा में भी सूर्य की भांति जाज्वल्यमान एक संत शिरोमणि ने जन्म लिया,जिसका नाम है- महापुरुष शंकरदेव

           शंकरदेव का जन्म मध्य असम के नगाँव जिले के आलिपुखुरी गाँव में हुआ था इनके पिता का नाम कुसुम्वर भुइयां और माँ का नाम सत्यसंध्या थाजाति में कायस्थ उनके पूर्वज ई.की तेरहवीं सदी तक कन्नौज साम्राज्य के निवासी थे.की चौदहवीं सदी से कमता नरेश के अधीन उनके पूर्वज सामंत बनकर रहेंऐसे सामंत कायस्थों को भूआँ कहा जाता थासीमांत में प्रशासनिक व्यवस्था ठीक रखना और आक्रमणकारियों से राज्य को सुरक्षा प्रदान करना भुआँओं का काम थाकभी-कभी भुआँओं को स्वतन्त्र शासक बन जाने का मौका भी मिलाबार भुआँ नाम से परिचित ऐसे बहुत से सामंत थेदो एक भुआँ अन्य जाति के भी होते थे,किन्तु अधिकांश भुआँ जाति में कायस्थ ही थे शंकरदेव के पूर्वज इन भुआँओं के मुखिया शिरोमणि भुआँ थे{2}  शंकरदेव को भी शिरोमणि पद पर रहना पड़ा थावे चाहते तो तत्कालीन सामाजिक,राजनैतिक स्थिति में सभी भुआँओं को संगठित कर बड़े विजेता राजा भी बन सकते थेपर उन्होंने भुआँ पद छोड़ कर सांस्कृतिक संगठन में जीवन बिताने का ही आदर्श ग्रहण कियासामाजिक,सांस्कृतिक संगठन के लिए दर्शन,साहित्य ,संगीत,अभिनय आदि कलाओं की चर्चा में भी संलग्न रहना पड़ाइन विषयों की चर्चा के दौरान उनको भारतीय जनमानस से भी निकट सम्बन्ध जोड़ना पड़ा अपने प्रदेश के जन-मानस और भारतीय जनमानस के बीच उन्होंने इन विषयों के उपकरणों को नव वैष्णव जागरण के रूपमें एक वृहत सेतु निर्माण किया{3}

          काव्य,व्याकरण आदि संस्कृत भाषा-साहित्य विषयक अध्ययन के अतिरिक्त उन्होंने हठयोग का अभ्यास भी किया थाबाद में भागवत,पुराण मिलने पर योगमार्ग छोड़कर भक्तिमार्ग को अपनायापत्नी वियोग के बाद बेटी की व्याह कर शिरोमणि भुआँ पद छोड़ कुछ मित्रों सहित तीर्थभ्रमण को निकले चरित ग्रन्थ के अनुसार बारह वर्ष लगातार तीर्थ भ्रमण कियातीर्थो से वापस आकर ही भारत और असमिया जनमानस के लिए सांस्कृतिक सेतु निर्माण का काम वे करने लगे ।’’{4} तत्कालीन असम की राजनैतिक स्थिति संघातपूर्ण थीइसलिए वे अपने जन्मस्थान मध्य असम से क्रमशः पूर्व और पश्चिम की तरफ जाकर अन्त में आजकल के उत्तरी बंगाल के कोचविहार में वैकुंथगामी हुए

          शंकरदेव बचपन से ही तेज बुद्धिवाले तथा चमत्कार बलशाली थेहठयोग की साधना से भी इस दिशा में कुछ मदद मिली होगीतीर्थ भ्रमण के बाद भागवत महापुराण के विचार तथा आदर्श से प्रभावित होकर समाज के सभी वर्गो के लिए उपयोगी बनाकर उसका प्रचार करना उचित समझातब से योग मार्ग छोड़ा शंकरदेव की पूर्वकालीन साधकों में गोरखनाथ ऐसे व्यक्ति थे जिनका भारतवर्ष के सभी क्षेत्रों के सभी वर्गो के लोगों पर कुछ न कुछ प्रभाव पड़ा था ।’’{5} कामरूप में शैव और शाक्त साधन मार्ग तबतक भारतीय दार्शनिक सिद्धांतों पर आधारित न होकर अधिकतर स्थानीय जनगोष्ठियो के लोकविश्वास पर निर्भरशील थेदार्शनिक आधारहीन लोकविश्वास अधिक से अधिक अंधविश्वास की तरफ आगे बढने लगता हैशंकरदेव ने कामरूप के ऐसे जन-मानस के संस्कार को बदलने के लिए भागवत धर्म के माध्यम से वेदान्त तथा सांख्य दर्शन के आधार पर नये आदर्श से लोगों को प्रभावित करना चाहाउसके लिए उन्होंने रामानुज आदि आचार्यो की भांति ब्रह्मसूत्र, गीता और उपनिषदों की टीका लिखना अपरिहार्य नहीं समझाउन्होंने समझा की समाज के सभी वर्गो के लिए भागवत पुराण के दार्शनिक विचार और साधन मार्ग के कुछ चुने हुए अंश ही काफी हैं{6}

            कामरूप के जन मानस को शंकरदेव ने भागवत पुराण के साधन मार्ग के माध्यम से भारतीय जन मानस के अधिक पास पहुँचाने के लिए जो उपाय निकाले उनके दो प्रमुख भाग हैं 1) लोग भागवत पुराण के विचार और विधान स्वयं समझ सकें तो उसका बहुत अच्छा फल मिलेगाइसलिए उन्होंने लोक भाषा में भागवत के बहुत से अंशों के और अन्यान्य पुराणों के भी कुछ अंशों के आधार पर गीत,काव्य,नाटक और भक्ति प्रतिपादक ग्रन्थ लिखे

2) भागवत के दार्शनिक आदर्श और उनके अनुकूल साधन मार्ग के लिए क्रियात्मक संगठन की आवश्यकता का अनुभव उन्होंने कियाजन-मानस को सुरुचिपूर्ण बनाने के लिए लोककला की परिमार्जित शास्त्रीय स्तर से सम्बन्धित तथा धर्मीय समाज को नये ढंग से संगठित करना आवश्यक समझाइन क्षेत्रों में शंकरदेव को जो सफलता मिली वहीं उनके व्यक्तित्व का सच्चा परिचय उपस्थित करती है

            भारतीय जनमानस के लिए शंकरदेव की देन : शंकरदेव के व्यक्तित्व के निर्माण में जो आदर्श काम कर रहा था, उसपर भारतीय जन-मानस का प्रभाव कैसा था,यह विषय विचारणीय हैइसके लिए ऐतिहासिक पृष्टभूमि तथा भौगोलिक स्थिति की और भी ध्यान रखना आवयश्क है असम के सामाजिक इतिहास भारतवर्ष के सामाजिक इतिहास से कुछ भिन्न हैअब तक प्राप्त ऐतिहासिक साधनों के आधार पर बताया जाये तो ई० की चौथी शती से ही ब्रह्मपुत्र घाटी यानी वर्तमान असम की मूल भूमि भारतीय समाज के सम्पर्क में आने लगी थीसमुद्रगुप्त के दिग्विजय-काल से गुप्त शासकों के सम्पर्क में आकर उत्तर-भारतीय समाज व्यवस्था से यह भू-खंड प्रभावित होने लगा{7}

          भारत के उत्तर-पश्चिम के भू-भाग के मुसलमानों का आक्रमण तथा शासन शुरू होने के कारण ई० की सातवीं-आठवीं शती से इतिहास की धारा में दिकपरिवर्तन होने लगा थाभारतीय समाज-व्यवस्था ने प्राचीन युग से मध्य युग की ओर कदम बढ़ायामुसलमानों के सम्पर्क में आकर धर्म, समाज, और राजनीति के रूपों में कुछ परिवर्तन आने लगे समभूमि में बसे हुए जनगोष्ठियों के लोगों में भारतीय जीवन दर्शन तथा समाज व्यवस्था का प्रचार तबतक उत्तर या पश्चिम भारत से आये आर्य प्रधान समाज के लोग करते रहे थे इसलिए ई० की चौथी शती से बारहवीं शती तक असम के इतिहास का युग आर्य भारतीयकरण का युग थाइस युग के असम के जनसमूह एक नवीन चेतना और आदर्श का अनुभव करने लगे थेसमाज का संगठन भी उस आदर्श का तथा चेतना के अनुरूप हुआ करता थासंस्कृत मूल की भारतीय भाषा को संगठन के माध्यम के रूप में ग्रहण करना तत्कालीन समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण कार्य थाभारतीयकरण के साथ-साथ ब्रह्मपुत्र घाटी में एक प्रादेशिकीकरण का कार्य भी शुरू होने लगाभारतीयकरण का अंशभूत इस प्रादेशिकीकरण के परिणाम में भाषा और धर्म के साथ साहित्य, कला, शिल्प, कृषि, वाणिज्य, आदि आर्थिक और सांस्कृतिक कार्यों के अतिरिक्त राजनैतिक तथा प्रशासनिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन आने लगा{8} इस प्रकार ब्रह्मपुत्र घाटी का जन-मानस भारतीय जन-मानस का अंश बनता जा रहा था।      

            स्थान काल और  समाज की योग्यता की ओर ध्यान रखकर ही धर्म गुरु तथा समाज के नेतागण सामाजिक व्यवस्था तथा उपदेश देते हैं इस प्रसंग में तत्कालीन समाज की स्थिति से सम्बन्धित शंकरदेव की कृति तथा व्यवस्था के दो उदाहरण दिए जा रहे हैं

1 ) शंकरदेव के लिखे नाटकों के शास्त्रीय गीतों, कुछ लघु गीतों की भाषा स्थानीय लोक भाषा नहीं किन्तु काव्य और भक्तितत्व प्रतिपादक ग्रन्थों की भाषा स्थानीय लोक भाषा रहीं इसका कारण विचारणीय हैशंकरदेव का उपदेश तथा आदर्श केवल असम भूमि के लोगों के लिए नहीं था वे चाहते थे की उनका आदर्श तथा उपदेश असम के बाहर के लोगों के लिए भी हो दूसरी बात यह थी की भारत के अन्यान्य राज्यों से विशेषकर उत्तर और पश्चिम की तरफ से विविध वर्गों के लोगों का प्रव्रजन हो रहा था असम के लोगों को उससे भी सम्पर्क रखना था इसलिए उत्तर और पश्चिम भारत के सम्पर्क रक्षी भाषा के रूप में ब्रजावली का उपयोग आवश्यक समझा गया था दक्षिण भारत के तीर्थों तथा राजाओं के दरबारों में भी हिंदी से मिलती गोसाँई भाषा का प्रयोग उस समय होता था {9} संस्कृत भाषा के बाद सारे भारतवर्ष में उत्तर भारत की एक लोकभाषा बुद्धिजीवी और श्रमजीवी लोगों के बीच भावप्रकाश के माध्यम के रूप में काम कर रही थीसंस्कृत भाषा से सवार्धिक निकट सम्बन्धी शौरसेनी प्राकृत के क्षेत्र की भाषा इस माध्यम का प्रमुख आधार थी उत्तर भारत की तत्कालीन साहित्यिक बोली ब्रजभाषा और असम की तत्कालीन साहित्यिक भाषा के साथ उत्तर भारतीय अन्यान्य बोलियों तथा अपभ्रंशों के मेल से बनी ब्रजावली का उपयोग शंकरदेव ने असम प्रांत में की{ 10} तीर्थ भ्रमण के काल का अनुभव इस काम के लिए उनको प्रेरणा देता था केवल बुद्धिजीवी विद्वानों के लिए उन्होंने कुछ स्थानों में संस्कृत का भी उपयोग किया था संस्कृत के अच्छे विद्वान होते हुए भी वे जन-मानस की योग्यता की और ध्यान रखकर ही विषयानुकुल प्रयोग करते थे अत: सुर ,तुलसी और मीरा से पहले ही वे शास्त्रीय संगीत बरगीत और अंकीया नाटकों में सर्व भारतीय भाषा को कला त्तथा प्रचार माध्यम के रूप में अपनाया था {11} ब्रजावली में रचे बरगीतों ने सुर ,तुलसी ,मीरा और नरसीं मेहता की भी असम के जन मानस के पास पहुंचने में मदद की

2) शंकरदेव के समाज व्यवस्थाओं का एक उदाहरण सत्र व्यवस्था हैरामानन्दजी के स्थापित अखाड़े या मठों से इसका कुछ सादृश्य है सत्रों का आदर्श देवालय, पुस्तकालय, विद्यालय और चिकित्सालय सहित चतुरालय का था उनकी परम्परा के सभी सत्रों में ये चार आलय न मिलने पर भी कार्यों में वह आदर्श जीवित है देवालय असम में नामघर बन गया नामघर में मूर्ति का होना अपरिहार्य नहीं माना जाता मूर्ति के बदले या मूर्ती के साथ भी नामघरों में भागवत की स्थापना अपरिहार्य है . की सोलहवीं शती के शुरु से ही ग्रन्थ को मूर्ती के बदले गुरु और देव के प्रतीक रूप में बिठाने का काम शंकरदेव ने शुरू किया {12}

        शंकरदेव के धर्म को माननेवाले लोगों के गावों में नाम-घर होते हैंवे नाम-घर सत्रों की व्यवस्था के अनुकूल सामाजिक अनुशासन के केंद्र होते हैंउनमें नाम-कीर्तन और अभिनय भी होता हैविभिन्न जाति के लोग भगवान की लीला के अभिनय में भाग लेते हैं वैष्णव शील-शिक्षा-युक्त अन्य जाति के लोग भी नाम-घर में भागवत के सामने पूजा के नैवेद्य की भांति नैवेद्य अर्पण करते हैं पूजा का स्थान यहाँ कीर्तन को मिला हैएक व्यक्ति भी कीर्तन कर सकता है और सैंकड़ों लोग मिलकर भी कीर्तन कर सकते हैं कीर्तन के समय विभिन्न जातियों या सम्प्रदायों के लोगों में क्रियात्मक तथा भावात्मक एकता की उपलब्धि होती हैसमाज में बौद्धिक तथा आवेगिक एकता की सृष्टि और विकास के लिए यह एक अच्छा साधन बना हैकीर्तन का सांगीतिक-पक्ष समाज के सभी वर्गो के बोद्धिक तथा आवेगिक विकास का माध्यम इसलिए बन सका है की उसमें लोक-संगीत की सरलता और राष्ट्रीय संगीत की आध्यात्मिक उपलब्धि का समन्वय हुआ है {13} भगवान के नाम या लीला-गान ही इस उपलब्धि का माध्यम बनने के कारण शंकरदेव द्वारा प्रचारित वैष्णव धर्म को नाम-धर्म भी कहते हैंनाम का श्रवण-कीर्तन नवधा-भक्ति में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है

      ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि श्रेष्ठ जातियों से लेकर शुद्र,कैवर्त्त तथा वैदिक परम्परा से अपरिचित पहाड़ी इलाकों की जनगोष्ठियों तक का नाम-कीर्तन पर समान अधिकार है {14} दरअसल में नाम केवल इन्द्रिय ग्राह्य शब्द ही नहीं बल्कि बौद्धिक विकास और आध्यात्मिक उपलब्धि का प्रतीक भी हैवह जाति पर निर्भर नहीं करता, साधन पर ही निर्भर करता है {15} साधकों की रूचि और योग्यता के अनुसार उसका स्वरूप भिन्न होता हैसत्रों का या नाम घरों का सामाजिक अनुशासन इस रूचि और योग्यता की और ध्यान रखता हैसमाज में समता की स्थापना भक्ति धर्म का एक पक्ष है ,किन्तु इस समता के लिए ऊँचे स्तर के लोगों को आचार, रूचि, तथा योग्यता की दृष्टि से नीचे उतरने की आवश्यकता नहीं {16}  अविकसित रूचि और योग्यता के लोगों को ऊपर चढ़ाने की व्यवस्था पर ही समता निर्भर करती है इसलिए गरीब तथा पिछड़े वर्गो के श्रमजीवी लोगों के लिए शंकरदेव का धर्म बहुत लाभप्रद हुआपिछड़े हुए जनगोष्ठियों के तथा पहाड़ी इलाके के बहुत से लोगों ने नाम-धर्म को इसीलिए अपनाया    

निष्कर्ष : इस युग के सर्वोदय के सामाजिक विकास का लक्ष्य बहुत मिलता-जुलता हैमादक द्रवों का निषेध, सफाई, कला-शिल्प की और आकर्षण तथा शिक्षा ग्रहण के प्रति प्रेरणा आदि सामाजिक विकास के बहुत से पक्ष शंकरदेव की सत्र व्यवस्था में दिखाई पड़ते हैंकेवल आर्थिक उन्नयन से सुखी जीवन की आशा नहीं की जा सकतीबुद्धि के सदुपयोग कर आध्यात्मिक उपलब्धि के स्तर को उठाने का तरीका सुखमय और शांतिपूर्ण सामाजिक परिवेश जीवन के लिए जरूरी हैआज से पांच सौ वर्षों से भी पहले शंकरदेव के विचार में यह बात आई थीउन्होंने कहीं भी कामरूप के या अपने प्रदेश के लिए अपना उपदेश नहीं दिया, भारतीय-जनों के लिए ही अपना उपदेश दियारचनाओं के बीच में भारत शब्द का उल्लेख भी किया हैसंस्कृत में लिखे भक्ति-रत्नाकर नामक ग्रन्थ में भागवत आदि ग्रन्थों से श्लोक उद्धृत कर भारत-भू-प्रशंसानाम से एक अध्याय भी लिखा है आज हमारे देश में भावात्मक एकता पर अधिक महत्व दिया जा रहा हैइसके लिए आवश्यक है हम इस देश के हर प्रांतीय साहित्य एवं संस्कृति से परिचित होकर आपसी सद्भावना को सुदृढ़ बनाएँ महापुरुष शंकरदेव के जीवनादर्श से हमें यहीं संदेश प्राप्त होता है असम में राष्ट्रीय एकात्मकताकी भावना मध्ययुग में सर्वप्रथम उन्होंने ही पनपायीउनकी रचना में संकीर्ण प्रादेशिकता सर्वथा अभाव है

धन्य धन्य कलिकाल  धन्य नरतनु भाल
 धन्य धन्य भारत वरिषे {17}

वस्तुतः शंकरदेव ने ही मध्ययुग में असम के निवासियों को नयी चेतना प्रदान की थीकामरूप से कन्याकुमारी तक भ्रमण करके असम को भाषिक,सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से शेष भारतवर्ष के साथ जोड़ने का श्रेय शंकरदेव को ही है

सन्दर्भ :

1. गोपाल कलिता : कहय माधव दासे, अपूर्व प्रकाशन, बरपेटा, 2010, पृष्ठ- 21
2. ज्योतिष चन्द्र कलिता, इतिहासर सुरूंगारे दुजन गुरु, महेश प्रकाशन, जोरहाट, 2014, पृष्ठ- 52
3. रजनीकान्त कलिता, महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव, शंकरदेव सेवाधाम, नलवारी, 2007, पृष्ठ-8
4. जीवन चन्द्र कोच, श्रीमंत शंकरदेव लीला रहस्य, वाणी मन्दिर, गुवाहाटी, 2009, पृष्ठ-23
5. वहीं, पृष्ठ---34
6. उपेन्द्रनाथ गोस्वामी, वैष्णव भक्ति धारा, बरुआ एजेंसी, गुवाहाटी, 1996, पृष्ठ-24
7. वहीं, पृष्ठ-65
8. वहीं, पृष्ठ-45
9. गोलोकेश्वर गोस्वामी, गुरुचरित कथा अध्ययन, चन्द्र प्रकाश, गुवाहाटी, 2011, पृष्ठ-89
10.वहीं, पृष्ठ-37
11. सुरेश बोरा, शंकरी युग, अथर्व बुक स्टाल, शिवसागर, 1982, पृष्ठ-74
12.वहीं, पृष्ठ-27
13. भवप्रसाद चलिहा, शंकरी संस्कृति, असम साहित्य सभा, जोरहाट, 1999, पृष्ठ-68
14. वहीं, पृष्ठ-32
15. वहीं, पृष्ठ-62
16. पारुल चौधरी, शंकरदेवर दृष्टि और दर्शन, चन्द्र प्रकाश, गुवाहाटी, 2002, पृष्ठ-97
17. वहीं, पृष्ठ- 17

डॉ. चयनिका सैकिया
सहायक अध्यापक, मोरीगांव महाविद्यालयमोरीगांव (असम)
saikiachayanika504@gmail.com  
 
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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