शोध आलेख : प्रतिबंधित सिंधी पत्रकारिता / प्रो. गजेन्द्र पाठक एवं विनीत पाण्डेय

प्रतिबंधित सिंधी पत्रकारिता
- प्रो. गजेन्द्र पाठक एवं विनीत पाण्डेय 

            भारतीय आर्यभाषाओं में भारोपीय परिवार की सिन्धी अविभाजित भारत के सिंध प्रांत में रहने वाले हिन्दू या मुस्लिम आबादी की भाषा थी . लंबे समय  तक इस्लामानुयायी अरबों का शासन होने के कारण वहां अरबी का बोलबाला रहा जिस वजह से सिन्धी पर अरबी का काफी प्रभाव दिखाई देता है। सिंध और सिन्धी भाषा के इतिहास पर अगर ध्यान डालें तो बहुत कम सामग्री मिल पाती है. उसका मुख्य कारण सिंध पर शासन करने वाले शासकों के धार्मिक पूर्वाग्रह थे . यह भी अलग तरीके का प्रतिबंधन ही था जिसमें उस कृति के संरक्षण का ध्यान नही दिया जाएगा जो शासक की धार्मिक भावना को सन्तुष्ट न करती हो।  सुप्रसिद्ध सिंधी चिन्तक हरीश वासवाणी ने  अपने शोध पत्र सिन्धी जाति ऐतिहासिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में डॉ. एच. टी. सोर्ले का उद्धरण देते हुए लिखा  है कि – “शाह लतीफ पर अपनी पुस्तक में सोर्ले ने सिंध की जिन बाधाओं का उल्लेख किया है उनमें इतिहास ग्रंथों, दस्तावेजों, शिलालेखों, शिल्प मुद्राओं, अभिलेखों, रचनात्मक साहित्य की अपूर्णता, ग्रंथकारों, शासकीय स्मारक, रक्षास्थलों की कमी और मुस्लिम शासकों की इतिहास के प्रति उदासीनता के साथ-साथ सिंध की जलवायु और दिशा बदलती सिंधु नदी शामिल है। जिस कारण सिंध की ऐतिहासिक स्मृतियाँ काल कवलित हो गयीं”। 

        सिंध को 1843 ई. में तमाम साजिशों और षड्यंत्रों के तहत ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल कर लिया गया। सिंधियों के साथ एक महत्वपूर्ण बात यह रही कि अंग्रेजों द्वारा किये जाने वाले अन्य प्रदेशों में लूट-खसोट और शोषण को सिन्धी अवाम देख रही थी, इसलिए अंग्रेजों का स्वागत सिंध में उस तरह से नहीं किया गया, जैसे अन्य जगहों पर कहीं-कहीं हुआ। फिर भी एक नई जाति के सम्पर्क से सिंध में कुछ प्रभाव में और कुछ प्रतिक्रिया स्वरूप नई चेतना का विकास देखा जा सकता है। सन 1843 ई. में सिंध को अपने अधिकार क्षेत्र में लेने वाले फौजी कमांडर चार्ल्स नेपियर ने कराची से सन् 1844 ई. में “कराची एडवरटाइजमेंट” नामक समाचार पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया, यह सिंध प्रदेश का सम्भवतः पहला समाचार पत्र था। यह समाचार पत्र अंग्रेजी एवं फ़ारसी में छपता था परंतु कुछ पृष्ठ सिंधी भाषा में भी होते थे। उस समय सिंधी भाषा के लेखन में कई लिपियाँ प्रचलन में थीं, जिसमें देवनागरी, गुरुमुखी, अरबी फ़ारसी लिपि प्रमुख थी। सिन्धी भाषा को व्यवस्थित रूप देने के लिए सन् 1853 ई. में शिक्षा विभाग की ओर से अरबी  लिपि को चुना गया। उन्नीसवीं सदी  के उत्तरार्द्ध में भारत में जिस नई  चेतना का संचार हो रहा था उसका असर यहाँ भी था .  सिंध निवासी बहुत से नौजवान उच्च शिक्षा के लिए बंगाल और मुम्बई की तरफ रुख कर रहे थे। उच्च शिक्षा के लिए बंगाल गए साधु हीरानन्द जी भी बंगाल की नई चेतना से परिचित हुए और रामकृष्ण मिशन संस्था से प्रभावित हुए। सिंध आकर हीरानंद जी ने  सिन्धी समाज के शिक्षा और सामाजिक-धार्मिक सुधार के लिए कार्य करना प्रारम्भ किया। सिंध की आत्मा (soul of Sindh) की उपाधि से मशहूर साधु हीरानन्द आडवाणी ने सिंध में सामाजिक-राजनैतिक जन-जागृति के लिए 1884 में ‘सिंध सुधार’ नामक पत्र सिन्धी में और ‘सिंध टाइम्स’ नामक अंग्रेजी समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया।  आडवाणी जी सिंध की सामाजिक कुरीतियों पर लिखने के साथ-साथ अंग्रेजों के शोषण और अत्याचार के खिलाफ भी अभियान शुरू किया । ब्रिटिश साम्राज्य के शोषण  पर सिंध टाइम्स  ने 20 मई 1884 ई. को अंग्रेजी सरकार की कटु आलोचना करते हुए लिखा कि , - “नादिरशाह ने तो भारत को एक बार लुटा, पर अंग्रेज सरकार हर साल उससे कई गुना ज्यादा धन इस देश से लूटकर बाहर भेंज  रही है”।

          “NADIR SHAH looted the country only once. But the British loot us every day. Every year wealth to the tune of 4.5 million dollars is being drained out sucking our very blood. Britain should immediately quit India.”

            महात्मा गांधी ने भारत की आज़ादी के लिए 1942 ई. में नारा दिया “अंग्रेजों भारत छोड़ो” ठीक उसके 58 साल पहले सिंध में प्रकाशित समाचार पत्र  ‘सिंध टाइम्स’ अंग्रेजों को आक्रांता नादिरशाह से भी खतरनाक कहा  था और अंग्रेजों द्वारा हर साल हमारा खून चूसते हुए 45 लाख डॉलर की दौलत ब्रिटेन जा रही है, इस तरफ ध्यान आकर्षित किया।

            ब्रिटेन को तुरंत भारत छोड़ देना चाहिए” उस समय यह कहना एक क्रांतिकारी कदम था। ब्रिटिश शोषण नीति का पर्दाफाश करते हुए सिंध टाइम्स में एक तल्ख रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी। अंग्रेजों के इस शोषण पर हिंदी के कवि भारतेंदु ने भी लिखा -

सर्वसु धन लिए जात हैं अंग्रेज,
 हम भारतीय केवल लैक्चर में तेज।।”
या फिर ,
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।”

 

           सिंध प्रांत स्थित शिकारपुर में 1888 ई. में ‘प्रीतम धर्म सभा’ की स्थापना की गयी। यह सभा धार्मिक-सामाजिक सुधार केंद्रित थी। इस सभा के सदस्यों के द्वारा सुधार कार्य के साथ-साथ राजनैतिक व जातीय चेतना को जागृत करने का भी कार्य चल रहा था ।  अपने देश में निर्मित साबुन, कपड़ों व अन्य वस्तुओं को अपनाने का आह्वान किया जा रहा था। स्वदेशी की यह चेतना आगे चलकर अंग्रेजी साम्राज्य के लिए और अधिक संकट की स्थिति खड़ा करने वाली थी जिससे लंबे समय तक भारत पर शासन कर पाना मुश्किल होता । इन चुनौतियों से घबराकर अंग्रेज हर उस आवाज को बंद करने के लिए खड़े हो गए जहां से उन्हें अपने साम्राज्य के लिए खतरा समझ आता था। स्वदेशी वस्तुओं के अपनाने का यह स्वर हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में भी खूब सुनाई देता है। भारतमित्र में स्वदेशी आंदोलन पर एक कविता ‘स्वदेशी आंदोलन’ नाम से प्रकाशित हुई जिसमें बंग भंग के दंश को महसूस किया जा सकता है, और स्वदेशी वस्तुओं के अपनाने पर जोर देते हुए साम्राज्यवाद का विरोध किया गया है -

देख देश को अपने ख्वार, बंगनिवासी उठे पुकार ।
आँगन में दीवार बनाई, अलग किये भाई से भाई ।
भाई से भाई किये दूर, बिना बिचारे बिना कुसूर।
आओ एक प्रतिज्ञा करें, एक साथ सब जीवें मरें।
चाहे बंग होय सौ भाग, पर न छूटे अपना अनुराग।
भोग विलास सभी को छोड़, बाबूपन से मुँह लो मोड़।
छोड़ो सभी विदेशी माल, अपने घर का करो ख्याल।
अपनी चीजें आप बनाओ, उनसे अपना अंग सजाओ।
भजो बंग माता का नाम, जिससे भला होय अंजाम”।


            बंग-भंग की सिंध में भी तीखी प्रतिक्रिया हुई। सिंधी समुदाय राष्ट्रीय और जातीय चेतना से अनुप्राणित होकर फिरंगियों के खिलाफ आंदोलित हो उठा। सिंध प्रदेश के सक्खर जिले के वीरूमल बेगराज ने 1905 ई. में ‘सिन्धी’ नामक पत्रिका के माध्यम से स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार-प्रसार  व विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की आवाज बुलंद की। इसी वर्ष तोलाराम मेधराज बालानी ने भी ‘माता’ और ‘सदा – ए- सिंध’ नामक पत्रिका निकालना प्रारम्भ किया, जिसके कारण जेल जाना पड़ा। इनमें से ‘सेठ चेटुमल’, ‘वीरूमल बेगराज’ और ‘गोविंद शर्मा’ का सम्बंध प्रीतम धर्म सभा से भी जुड़ा हुआ था। ब्रिटिश शासन के खिलाफ आपत्तिजनक गीत और लेख छापने के आरोप में 1909 ई. में तीनों महानुभावों को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया गया जहां उन्हें 5 वर्ष के कारावास का आदेश हुआ । न्यायालय की कार्यवाही में ब्रिटिश जज boyde ने अपने आदेश में कहा कि -

        “These young men are members of a religious organization. Their influence on the people, therefore, will be great. Their writings and activities are so seditious that they deserve death. But in view of their tender age I am handing out a lesser punishment.”

            एक न्यायाधीश के इस आदेश से यह स्पष्ट समझ आ रहा है कि सरकार कितना डरी हुई थी। इस तरह के एक और प्रसंग से न्याय और सभ्यता के सबसे उच्च सोपान पर पहुँचने का दावा करने वाली ब्रिटिश सरकार के न्यायतंत्र और शासन प्रणाली को बखूबी समझा जा सकता है। ब्रिटिश शासन द्वारा “भारत में अंगरेजी राज” पुस्तक को प्रतिबंधित किया गया। पुस्तक की जब्ती के खिलाफ जब इलाहाबाद हाईकोर्ट में सुनवाई चल रही थी उस दौरान पुस्तक के लेखक सर सुंदरलाल के वकील ने अपना पक्ष रखा कि इस पुस्तक में ऐसी कोई घटनाएं और जानकारी नहीं है, जो गलत हो। पुस्तक की भूमिका में सुंदरलाल ने लिखा है कि- सरकारी वकील श्री बाजपेयी ने सर तेजबहादुर सप्रू के इस कथन की सच्चाई को स्वीकार किया और अदालत से कहा कि- “चूंकि इस पुस्तक की सारी बातें सच्ची हैं, इसलिये यह अधिक खतरनाक है”। भारतीय नागरिकों के जीवन का यह वह काल था जब तमाम आर्ष चिंतन में सच के प्रतिपादन पर कई वर्ष और कई सौ पृष्ठ खर्च किये गए हों वहां सच बोलना व लिखना ही अपराध हो गया था। भारतीय नागरिक अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों के प्रति सचेत हो रहा था और देश का नेतृत्व करने को एक वर्ग तैयार हो रहा था, उसी समय सरकार ने मार्च 1919 में भारतीय सदस्यों के विरोध के बावजूद रौलट एक्ट पास कर दिया। रौलट एक्ट सरकार को किसी भी व्यक्ति पर बिना अदालत में मुकदमा चलाये और दंड दिए जेल में बंद रख सकती थी। सरकार के इस कानून एवं दमन से क्षुब्ध होकर सिन्धी साहित्यकार जेठमल परसराम गुलराजाणी अपने साप्ताहिक पत्र ‘हिंदीवासी’ में एक सम्पादकीय लेख लिखा, जिसका शीर्षक शाह अब्दुल लतीफ के बैत की अंतिम पंक्ति थी।

अगियां अडिनी वटि, पोयनि सिर संबाहिया,
काटि त पवीं कबूल में, मछणु भाईं घटि
मथा मुहयनि जा, पिया न डिसीं पटि,
कलालके हटि, कुसण जो कोपु वहे।


            इस सम्पादकीय लेख (कलालके हटि, कुसण जो कोपु वहे) के कारण जेठमल परसराम को गिरफ्तार कर लिया गया और सोर्ले नामक अंग्रेज न्यायाधीश की अदालत में मुकदमा चलाया गया। न्यायालय की कार्यवाही के दौरान विभिन्न जानकारों को बुलाया गया परन्तु हर एक व्यक्ति ने अलग-अलग अर्थ लगाया। सरकार ने इसका अर्थ लोगों को हत्याएं करने के लिए उकसाने से लगाया, अतः इस प्रेम एवं सद्भाव फैलाने वाली साधारण सी पंक्ति को शासन को उड़ाने वाले भयंकर-सा बम मानकर न्यायाधीश सोर्ले ने जेठमल परसराम को चार वर्ष के सश्रम कैद की सजा सुनाई, जिसे बाद में कम करके 2 वर्ष की गयी। इस पूरे घटना प्रसंग में एक रोचक बात यह रही कि सोर्ले शाह अब्दुल लतीफ की रचनाओं से इतना प्रभावित हुआ कि उसने सिन्धी भाषा सीखा और शाह अब्दुल लतीफ जी के “शाह जो रिसालों” का अनुसन्धानपूर्ण अध्ययन करते हुए उसका अंग्रेजी में अनुवाद करके सिन्धी भाषा को विश्वस्तरीय पहचान दिलाई। जेठमल परसराम की रिहाई के बाद हैदराबाद सिंध में जनता ने भव्य रूप से स्वागत किया, अपने जेल के अनुभव को जेठमल परसराम जी ने ‘तुरंग जो तीर्थ’ (कारागार तीर्थ) नामक शीर्षक से सर्वप्रथम अपने साप्ताहिक पत्र (भारतवासी) में कई किस्तों में प्रकाशित किया, जिसे लोग शौक से पढ़ते थे। इसी कारागार के अनुभव को बाद में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित कराया। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के समर्थन में सिंध में भी सर्वव्यापी बंद का आह्वान विभिन्न पत्रों के माध्यम से किया गया, जिससे समाचार पत्रों के जब्त करने की संभावना को देखते हुए जेठमल परसराम द्वारा संपादित ‘हिंदीवासी’ दैनिक का नाम परिवर्तित करके “भारतवासी” कर दिया गया, जिसके सम्पादक श्री जयरामदास दौलतराम बने। जेठमल परसराम के पुत्र श्री राम ने अपने पिता की  जन्म शताब्दी पर ‘रचना पत्रिका’ में एक संस्मरण लिखा, जिससे अंग्रेजी सरकार के रवैये के साथ-साथ कांग्रेस का दोहरा राजनीतिक चरित्र भी स्पष्ट होता है -

            किसी समय 1932 में एक ईसाई फादर ने, फ्रिंटीयर के लोगों पर अंग्रेजों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों पर एक रपट लिखी थी। सरकार ने उसके प्रकाशन पर रोक लगा दी थी। ‘हिन्दुस्तान’ तथा अन्य प्रेस बंद हो चुके थे। एक दिन आचार्य आसुदोमल गिदवाणि पिताजी आये और उन्हें वह रपट प्रकाशित करने के पास के लिए कहा, पिता जी ने उसी समय हाँ कह दी। आगा-पीछा कुछ सोचा नही। रात को ही लोगों को बैठाकर वह रपट छापकर समाचार पत्र प्रकाशित कर दिया गया। प्रेस पर सरकार ने अधिकार कर लिया। प्रेस, सिंध प्राविन्शल मार्कंटाइल बैंक के पास बंधक था। नीलामी होने की बात उठी, पिताजी ने एक बहुत बड़ा लेख लिखा, परन्तु हाथ कुछ नही लगा। बापू किशनचंद कांग्रेसी, साधारण से दाम देकर प्रेस क्रय कर पुस्तकों का प्रकाशन करने के लिए हैदराबाद ले गए।

            हमारे पल्ले कुछ नही पड़ा। कष्ट पर कष्ट, घर चलाने के लिए पैसा नहीं। कांग्रेसियों ने कोई सहायता नही की, क्योंकि वे समझते थे कि पिताजी कांग्रेसी नहीं हैं। जब उन्होंने इसकी आवश्यकता समझी तब आचार्य आसुदोमल गिदवाणि जी को भेज दिया कि वे रोक लगी रपट को प्रकाशित कर, अंग्रेजों के अत्याचारों को उजागर करें”।

            1921-22 के असहयोग आंदोलन के दौरान भी  सिन्धी पत्रिका ‘हिन्दू’ अंग्रेजों के खिलाफ मुखर रही अतः इसके सम्पादक को गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय सिन्धी अवाम में जोश और जुनून इस कदर था कि एक सम्पादक गिरफ़्तार होता तो दूसरा संपादक तुरन्त नियुक्त कर दिया जाता। तंग आकर सरकार ने मुद्रणालय को जब्त करने का प्रयास किया, एक मुद्रणालय के बंद करने पर दूसरे छापेखाने से अखबार का प्रकाशन जारी रखा जाता था। इस दौरान ‘हिन्दू’ के सात सम्पादकों को जेल में बंद किया गया। गिरफ्तार सम्पादकों में विष्णु शर्मा (तीन साल कैद), जयरामदास दौलतराम (दो साल कैद ), लोकराम शर्मा (डेढ़ साल कैद), चोइथराम गिदवानी (एक साल कैद), घनश्याम शिवदासाणी (दो साल कैद), चोइथ वलेछा ( एक साल कैद) और हीरानन्द करमचंद (एक साल कैद) कारागार में बंद रहें। हिन्दू पत्र पर सरकार की भृकुटि तनी देखकर सन 1926 में पत्र का संचालन ‘सिंध स्वराज्य आश्रम’ को सौंप दिया गया। सन् 1930 में नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान भी सरकार की कटु आलोचना के कारण तीन सम्पादक गिरफ्तार कर लिए गए, जिसमें किशनदास शिवदासाणी और हासोमल ईसरदास थे, इस तरह की गिरफ्तारी ब्रिटिश शासन की कमजोरी का प्रतीक थी। सरकार के मुद्रणालय जब्त कर लेने के आदेश के बाद यह अखबार अलग- अलग नामों से प्रकाशित किया जाता था।

            भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आदेशानुसार सन् 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कुछ महीनों के लिए यह पत्र बंद कर दिया गया था, नवम्बर 1943 में इस पत्र का पुनः प्रकाशन आरम्भ किया गया और कांग्रेस के कुछ नेताओं के आदेश पर 1 अगस्त 1946 से इसका नाम बदलकर ‘हिंदुस्तान’ रख दिया गया । सरकार के खिलाफ लिखने में सिंध के ‘प्रभात’ समाचार पत्र का नाम अग्रणी है। सिंध में कुल 200 के आस-पास पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन की जानकारी मिलती है। 15 अगस्त 1947 को देश को विभाजन की बुनियाद पर स्वतंत्रता मिली। हिंदुस्तान और पाकिस्तान का यह विभाजन धार्मिक उन्माद आधारित था। दोनों देशों से बड़े स्तर पर विस्थापन शुरू हुआ, सिंध को पाकिस्तान को सौंप दिया गया, भारत से गये मुसलमान जब सिंध पहुँचे तो खूब कत्लेआम मचाया, जिससे सिन्धी समुदाय में हिन्दू सिन्धी भारत आये और शरणार्थी शिविरों में जगह मिली। विभाजन की  विभीषिका का दंश सहते हुए भी आज सिन्धी सम्पन्न स्थिति में हैं और अपने सिन्धी अस्मिता के प्रति जागरूक हैं, जन्मभूमि छोड़ने का दर्द उनकी  फिल्मों,कहानियों और अन्य विधाओं में प्रमुखता से दिखाई देता है।

संदर्भ :

1. सतीश रोहरा, सिन्धी इतिहास, संस्कृति, भाषा एवं साहित्य,इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ सिंधालाजी आदिपुर कच्छ, प्रथम संस्करण 2006, पृष्ठ संख्या.  3
2. K.R Malkani, the Sindh story, Sindhi Academy Delhi, second edition 1997, page no.88
3. कृष्णविहारी मिश्र, हिंदी पत्रकारिता, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, आठवां संस्करण 2011, पृष्ठ संख्या. 271
4. K.R Malkani, the Sindh story, Sindhi Academy Delhi, second edition 1997, page no.88-89

 

 प्रो. गजेन्द्र पाठक 
विभागाध्यक्ष, हिंदी विभागहैदराबाद विश्वविद्यालय
gkpsh@uohyd.ac.in, 8374701410 

विनीत पाण्डेय 
हिंदी विभाग ,हैदराबाद विश्वविद्यालय
   
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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