शोध आलेख : दलित साहित्य में प्रतिनिधित्व का सवाल / दिनेश कुमार वर्मा

दलित साहित्य में प्रतिनिधित्व का सवाल
- दिनेश कुमार वर्मा


शोध सार : दलित साहित्य लेखन इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण परिघटना है। दलित लेखकों ने गैर-दलितों के दलित-विषयक लेखन को भोगे हुए यथार्थ से परे होने के कारण अप्रामाणिक माना है। वह मानते हैं कि एक दलित ही दलित जीवन पर प्रामाणिक ढंग से लिख सकता है, क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति भोगे हुए अनुभवों पर आधारित होती हैं। दलित ही दलित जीवन पर साहित्य लिखेगा का विचार साहित्य में स्वानुभूति और सहानुभूति के विवाद व प्रकारांतर से प्रतिनिधित्व के सवाल को सामने लाता है। दलित लेखक दलित समाज को समरूपी घोषित करते हुए, मैंके द्वारा सामुदायिक हमके प्रतिनिधित्व की बात करते हैं। मगर, प्रश्न है कि क्या दलित समाज वाकई समरूपी है? क्या यहाँ लिंग, जाति व वर्ग के भेद मौजूद नहीं है? और क्या लेखक मैं के द्वारा सम्पूर्ण दलित के हमका प्रतिनिधित्व संभव है? दलित साहित्य से जुड़े यह ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न है जिन पर शोध-आलेख में गंभीरता से विचार किया गया है।

बीज शब्द दलित, आत्मकथा, प्रतिनिधित्व, स्वानुभूति, जाति, लिंग, वर्ग, स्व, अन्य, यथार्थ

मूल आलेख : दलित साहित्य लेखन का मुख्य सरोकार दलित समाज से रहा है। इसे साहित्यिक अभिव्यक्ति से ज्यादा सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति माना गया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि जब यह दलितशब्द साहित्य के साथ जुड़ता है, तो ऐसी साहित्यिक धारा की ओर संकेत करता है, जो मानवीय सरोकारों और संवेदनाओं की यथार्थवादी अभिव्यक्ति है। ऐसा साहित्य जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा और शोषण के विरुद्ध साहित्यिक अभिव्यक्ति दी है। जो सिर्फ कला के लिए कलानहीं है, बल्कि सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, विद्वेष मुक्ति की आकांक्षा बनकर उभरा है।[1] इसके सौंदर्य को छंद, अलंकार, ध्वनि, प्रतीक आदि से परिभाषित नहीं किया जा सकता। दलित साहित्य का सौंदर्य गरीबी, भूख, जातीय अपमान व शोषण के खिलाफ प्रतिकार में निहित है, दलित साहित्य का शब्द सौंदर्य प्रहार में है, सम्मोहन में नहीं।[2] इस प्रतिकार और प्रहार का सबसे सशक्त रूप दलित साहित्यकारों के अनुसार आत्मकथाओं में देखने को मिलता है। दलित आत्मकथाओं को साहित्य के भीतर क्रांति का सूत्रपात करने वाली बतलाते हुए, जयप्रकाश कर्दम दलित आत्मकथा: अस्मिता के आयामकी भूमिका में लिखते हैं कि दलित आत्मकथाओं में समाज द्वारा दलितों के साथ किए जाने वाले सामाजिक अन्याय, असमानता, जातिगत भेदभाव, शोषण और अस्पृश्यता आदि का यथार्थ रूप देखने को मिलता है। दलित आत्मकथाओं में दर्ज यथार्थ भारतीय समाज की उस अमानवीयता और असहिष्णुता का यथार्थ है, जिसका उल्लेख इतिहास ग्रन्थों में नहीं है। इस दृष्टिकोण को देखें तो दलित आत्मकथाओं ने एक नयी इतिहास दृष्टि प्रदान करने के साथ-साथ साहित्य के माध्यम से मानवीय चेतना और क्रांति का सूत्रपात किया है।[3]

आत्मकथा संबंधी इस प्रकार का नजरिया दलित साहित्यकारों को आत्मकथा लेखन की ओर प्रवृत्त करता है। यही कारण है कि दलित साहित्य में आत्मकथा अधिक संख्या में लिखी गयी है। दलित आत्मकथाओं के बारे में कहा गया है कि इनमें जीवन के वीभत्स और क्रूर यथार्थ को छिपाया नहीं गया बल्कि यथार्थ को उसके नग्न रूप में समग्रता से प्रस्तुत करने की कोशिश हुई है। हिंदी दलित साहित्य में अनेक आत्मकथाएँ लिखी जा चुकी है, जिसमें मोहनदास नैमिशराय की अपने-अपने पिंजरे, ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन, सूरजपाल चौहान की तिरस्कृत और संतप्त, श्यौराज सिंह की मेरा बचपन मेरे कन्धों पर, कौसल्या बैसंत्र्यी की दोहरा अभिशाप, सुशीला टाकभौरे की शिकंजे का दर्द, तुलसीराम की मुर्दहियाऔर मणिकर्णिकाआदि  महत्त्वपूर्ण आत्मकथाएँ मानी गई हैं।

हिंदी दलित साहित्य लेखन में आत्मकथा के एक स्वतन्त्र विधा होने के बावजूद दलित साहित्यकारों ने अन्य विधाओं (उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक आदि) के लिए प्राय: आत्मकथात्मक शैली का प्रयोग किया है। दलित लेखक व चिन्तक ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं, “दलित साहित्य का एक बड़ा हिस्सा आत्मकथात्मक है। चाहे वह दलित कविता हो या उपन्यास।[4]दलित साहित्य के आत्मकथात्मक होने का कारण दलित लेखकों का भोगे हुए यथार्थ व स्वानुभूतिके विचार को महत्त्व देना रहा है। दलित चिन्तक डॉ. धर्मवीर कहते हैं कि दलित साहित्य वह है जिसे दलित लिखता है।[5] दलित लेखक ही दलित साहित्य लिखेगा, के संबंध में अजय नावरिया का मत भी उल्लेखनीय है, सच्चा दलित साहित्य वही होगा, जो दलितों के बारे में स्वयं दलित लिखेंगे।[6]

दलित साहित्य का स्वानुभूतिपरक होना एक ऐसा प्रस्थान बिंदु बनता है, जिसके चलते सहानुभूतिपरक साहित्य को ख़ारिज किया गया है। स्वानुभूति के माध्यम से दलित लेखक दलित समाज की संवेदनाओं को साहित्यिक प्रतिनिधित्व देने का तर्क गढ़ते हैं। दलित लेखक व चिन्तक ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी पुस्तक दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रमें लिखते हैं कि दलित रचनाकार अपने परिवेश और समाज के गहरे सरोकारों से जुड़ा रहता है वह अपने निजी दुःख से ज्यादा समाज की पीड़ा को महत्त्व देता है। जब वह मैंशब्द का प्रयोग कर रहा होता है तो उसका अर्थ हमही होता है। सामाजिक चेतना उसके लिए सर्वोपरि है। अपने समाज के दुःख दर्द उसे ज्यादा पीड़ा देते हैं। उनके उन्मूलन के लिए ही उसने लेखन का रास्ता चुना है। अपनी अभिव्यक्ति में वह समाज की पीड़ा उकेर रहा है।[7] दलित लेखकों का मानना है कि जातीय-भेदभाव, छुआछूत, गरीबी का जो दंश वह झेलता है, वैसा ही दंश दलित समाज भी झेलता है; इसलिए दोनों की अनुभूतियाँ और अनुभव अलग-अलग नहीं बल्कि एक समान है।

स्वानुभूति के जरिए लेखक दलित हमके प्रतिनिधित्व का दावा ही नहीं करता बल्कि वह मैंऔर हमको एक एकात्मक-आत्म (Unitary-Self) के रूप में भी प्रस्तुत करता है। यहाँ लेखक स्वका अनुभव दलित हममें तब्दील हो जाता है और इस तौर पर यह पूरे समाज का नृःवंश वैज्ञानिक (Ethnographic) अध्ययन भी है। यहाँ लेखक मैंऔर समाज के हमयानी कर्त्ताऔर वस्तुका रिश्ता और गहरा होता हुआ प्रतीत होता है। मैं का स्वसमाज के हममें समाहित है और समाज के हम का स्वअध्ययन के लिए मैंके सामने प्रस्तुत है। यहाँ कर्त्ता और वस्तु एक एकल स्वका निर्माण करते हैं और दोनों में कोई तात्विक-भेद नहीं है। लेकिन, क्या वाकई लेखक मैंऔर दलित हमके बीच कोई तात्विक भेद नहीं है? और वास्तव में  क्या दलित समुदाय लिंग, जाति और वर्गगत अंतर्विरोधों से रहित एक समरूपी समुदाय है? जिसकी पड़ताल हम लेख के अग्रिम अंश में करेंगे।

दलित साहित्य में दलित स्त्री लेखिकाओं के स्वर उभरे हैं। उनका कहना है कि दलित साहित्य में हमारा प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है, इसलिए हम अपना साहित्य खुद लिखेंगी। दलित स्त्री लेखिकाएँ दलित साहित्य को पुरुषवादी दलित साहित्य कहती हैं। दलित आत्मकथाओं में स्त्री प्रश्नों को तरजीह न देने के बारे में प्रियंका शाह अपनी किताब दलित आत्मकथा: अस्मिता के आयाममें लिखती हैं कि पुरुषों द्वारा लिखी गई आत्मकथाएँ पति-पत्नी संबंधों पर प्रकाश नहीं डालती। अब तक हिंदी में 8-10 पुरुष लेखकों की आत्मकथाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं, इनमें स्त्री-पुरुष संबंधों को तरजीह देना तो दूर, स्त्री आत्मकथा में फटकने तक नहीं पाती।[8]

दलित स्त्रियों के बारे में हमें व्यापक जानकारी दलित स्त्री आत्मकथाओं से मिलती है। जहाँ पाठक इस बात से अवगत होता है कि दलित स्त्रियाँ न केवल जाति का दंश झेलती है बल्कि वह पितृसत्ता की मार भी झेलती है। समाज का विकास स्त्री-पुरुष दोनों की सहभागिता से होता है। किन्तु, समाज में स्त्री को दोयम दर्जा दिया गया है। उसे मनुष्य नहीं बल्कि संपत्ति के तौर पर देखा-समझा गया है। पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं पर प्रतिबंध लगाता है। वह महिलाओं के स्वतंत्रता व समानता के अधिकारों को नकारता है; उसके पढ़ने, लिखने, बोलने, हँसने तक पर रोक लगाता है। यह स्थिति केवल सवर्ण जातियों में देखने को मिलती है, ऐसा कहना अधूरा सच होगा। दलित चिन्तक भले ही दलित नियम-कानूनों को जनतांत्रिक बतलाये या दलित समाज में महिलाओं की स्वतंत्रता का दावा करें, लेकिन सच्चाई यह है कि दलित समाज में महिलाएँ पितृसत्ता से त्रस्त हैं। महिलाओं के साथ होने वाले शोषण के बारे में कौसल्या बैसंत्री अपनी आत्मकथा दोहरा अभिशापमें लिखती हैं,मेरी और देवेन्द्र कुमार की नहीं बनी। देवेन्द्र कुमार सिर्फ अपने ही घेरे में रहने वाला आदमी है गर्म मिजाज और जिद्दी। अपने मुँह से कहता है कि मैं बहुत शैतान आदमी हूँ। उसने मेरी इच्छा, भावना, ख़ुशी की कभी कद्र नहीं की। बात-बात पर गाली, वह भी गंदी-गंदी और हाथ उठाना। मारता भी था बहुत क्रूर तरीके से। उसकी बहनों ने मुझे बताया कि वह माँ-बाप, पहली पत्नी को भी पीटता था।[9]

समाज में पति द्वारा पत्नी की पिटाई बहुत सामान्य घटना मानी जाती है। दलित परिवारों में भी महिला की पिटाई होना कोई बड़ी बात नहीं है। बेबी काम्बले अपनी आत्मकथा में लिखती हैं कि आदमी अपनी औरत को जानवरों की तरह पीटता। किसी औरत का सिर फूट जाता तो कोई बेहोश हो जाती। किसी की कमर टूट जाती। इतनी मार खाने पर किसी को तरस नहीं आता।[10] इसी कारण विमल थोरात दलित महिलाओं को तिहरे शोषण का शिकार मानते हुए कहती हैं कि वहस्त्री होने के कारण लिंग आधारित, दलित होने के कारण जाति आधारित और गरीबी के कारण वर्गगत शोषण[11] यानी तिहरे शोषण को सहती है।

लेखिका कावेरी पति से मिले अनुभवों को साझा करते हुए कहती हैं, पन्द्रह वर्ष की उम्र में स्वच्छंद उड़ान भरने की चाह की जगह जबरन शरीर रौंदा जाना। मेरे अंदर पति की पाश्विक प्रवृत्ति ही झलकी, जो अभी तक मानस पटल पर छायी रही।[12] कावेरी की तरह बेबी हालदार को भी पति से वैवाहिक बलात्कार का शिकार होना पड़ा, “वह (पति) अपना शरीर मेरे शरीर से लगाने की कोशिश करने लगा। मैं भय से चिल्ला पड़ी, लेकिन फिर, यह सोचकर कि इस तरह चिल्लाने से इतनी रात को सब जाग जाएँगे, मैंने आँख मुँह बंद कर लिए और वह सब सहती रही जो वह कर रहा था।[13]

ऐसा नहीं है कि दलित पुरुषों ने स्त्रियों के जीवन पर न लिखा हो। मगर,पुरुष आत्मकथाओं में स्त्री-जीवन का विवरण बहुत सीमित व घटना विशेष तक सिमटा हुआ है। तुलसीराम अपने आत्मकथ्य में पिता द्वारा माँ के चरित्र पर शक किये जाने और उन्हें गालियाँ देने का जिक्र करते हैं, “मेरी माँ बस्ती में किसी भी व्यक्ति से बात करती, पिता जी तुरंत उसके चरित्र पर उँगली उठाना शुरू कर देते थे। वे माँ को भद्दी-भद्दी गालियाँ भी देने लगते थे।[14] मोहनदास नैमिशराय भी एक बार पिता द्वारा माँ को रंडी कहने की बात कहते हैं, और वह बताते हैं कि आस-पड़ोस के लोग भी अपनी-अपनी लुगाइयों को अकसर रंडी कहते थे।[15] पुरुष आत्मकथाकारों में सूरजपाल और धर्मवीर ने स्त्री पर विस्तार से लिखा है, लेकिन उनका यह लेखन स्त्री-प्रश्न को सामने रखने के बजाय पारिवारिक उठा-पटक के लिए स्त्री को कुसूरवार ठहराने से अधिक जुड़ा हुआ है। पुरुष आत्मकथाओं में स्त्री को स्थान न देने और उनकी उपेक्षा को प्रियंका शाह स्त्री प्रश्न को छुपाए जाने से जोड़कर देखती है। वह लिखती हैं, वरिष्ठ लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि से लेकर किसी भी लेखक ने पति-पत्नी संबंध का उल्लेख करना उचित नहीं समझा। यहाँ तक कि अपने माँ-पिता के संबंध पर भी चुप्पी साधे रहे हैं। किसी ने भी परिवार के अंतर्गत माँ-पिता, भइया-भाभी, बहन-जीजा के संबंधों पर लिखना अनिवार्य नहीं समझा। अपने परिवार में स्त्री के दमन को इन्होंने छिपाया है। समुदाय चर्चा में तो थोड़े बहुत रूपों में स्त्री-दमन ये दिखाते हैं, पर जब बात परिवार की आती है, तब वहाँ हमें सब कुछ अच्छा दिखता है। इस मायने में ये स्त्री की उपेक्षा ही नहीं करते, अपितु स्त्री को छुपाने की भी कोशिश करते हैं, उसे केंद्र में आने नहीं देते हैं।[16]

दलितों के बीच लिंग संबंधी विभेद के साथ-साथ आपसी जातिगत विभेद भी मौजूद हैं। यह कहना सही नहीं होगा कि जातीय भेदभाव मात्र सवर्ण और दलित के बीच की परिघटना है, बल्कि दलितों में भी आपसी ऊँच-नीच, छुआछूत व भेदभाव मौजूद हैं। इस संबंध में सूरजपाल चौहान की आत्मकथा में वर्णित अम्बेडकर सदनका प्रसंग उल्लेखनीय है, गाँव के भंगी और चमारों में इसी बात को लेकर ठन गई कि अम्बेडकर सदन कहाँ बने? ...गाँव के भंगी समुदाय के लोगों को शिकायत थी कि चमार मोहल्ले में सदन बन जाने पर वे उसका उपयोग नहीं कर सकेंगे।[17]

दलितों में जाटव, वाल्मीकि, धानक, खटीक, ढोली आदि जातियों में आपसी भेदभाव व छुआछूत मौजूद है। यह भेदभाव व छुआछूत गैर-दलितों से किसी भी मायने में कम नहीं है। चमार जाति खुद को वाल्मीकि जाति से ऊँचा मानती है और उनसे छूआछूत का व्यवहार करती है। मोहनदास नैमिशराय लिखते हैं, “हमारी जाति के घरों में भी सफाई करने वाले/सफाई करने वाली आती थी जिन्हें अन्य की तरह हम भी अबे ओ भंगी के, अरी ओ भंगन... आदि आदि नामों से पुकारने में अपना बड़प्पन समझते थे।[18] दलितों के आपसी जातिगत विभेद के उदाहरण हमें जूठनमें भी देखने को मिलते हैं। लेखक देहरादून शहर की जिस बस्ती में रहता था वहाँ भंगी और चमार समुदाय के बीच के झगड़ों के बारे में कहता है कि –“इंद्रेश नगर वैसे तो एक ही मोहल्ला था। लेकिन अंदरूनी तौर पर दो हिस्सों में था। एक और वाल्मीकि रहते थे, तो दूसरी और जाटवआपस में संबंध तनावपूर्ण थे। अकसर मारपीट, लड़ाई-झगड़े होते रहते थे।[19] प्रो. श्यामलाल जाति व्यवस्था की क्रूर विद्रूपता को उजागर करते हैं कि समाज की सबसे अछूत जाति भंगीभी अपने को ढोलियों से श्रेष्ठ समझ जातीय अहम का ढकोसला पाले रहती है, “राजस्थान में हमारी अपेक्षा ढोलियों को अछूत समझते हैं। हम उन लोगों के साथ संबंध नहीं करते तथा न ही उनके हाथ का जल एवं भोजन ग्रहण करते है।[20]

विडम्बना यह है कि एक जाति विशेष के भीतर भी कई उप-जातियाँ और प्रवर्ग बने हुए हैं और यह भी एक-दूसरे से भेदभाव और छुआछूत का व्यवहार करते हैं। जाटवों के बीच मौजूद उप-जातियों के बारे में श्यौराज सिंह बेचैन अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “पाली के जाटवों में दो फाड़ थे। एक हिस्सा रंगइया चर्मकारों का, दूसरा उन लोगों का जो न तो मुर्दा-मवेशी उठाते थे और न चमड़ा रंगने का काम करते थे।[21] श्यौराज सिंह बताते हैं कि गाँव में जो लोग चमड़े का काम करते थे उन लोगों से जाटव संबंध नहीं रखते थे, “हम दो घरों के अलावा बाकी चमार मुर्दा मवेशी उठाने का काम छोड़ चुके थे। उन्होंने चमार के बजाय अपने आपको जाटव घोषित कर दिया था और हमारा घर छेक दिया गया था। हमारे शादी-विवाह और तीज-त्योंहार के भोज में उनमें से कोई शामिल नहीं होता था।[22] एक जाति के भीतर विभिन्न उप-जातियों के बीच के आपसी विभेद का महत्त्वपूर्ण उदाहरण हमें सूरजपाल चौहान की आत्मकथा तिरस्कृतमें भी देखने को मिलता है, ऑफिस जाते हुए एक रोज मेरी मुलाकात ओ.पी. पंवार से हुई। जब मैंने उन्हें अपने पड़ोस में रह रहे सोनकर जी के विषय में बताया और कहा कि वह भी आपके खटीक समुदाय के हैं, तो पंवार ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा था- अरे, आप भी अजीब बात करते हो, सोनकर और हमारी जाति में जमीन आसमान का अंतर है...वह सूअर खटीक है और हम बकर खटीक।[23]

दलित जातियों के भीतर ऊँच-नीच और भेदभाव की यह स्थिति ग्रामीण परिवेश या अनपढ़ लोगों के बीच ही नहीं दिखती, बल्कि शिक्षित लोगों और यहाँ तक कि दलित चिंतकों और लेखकों में भी देखने को मिलती है। सूरजपाल चौहान लिखते है, “मैं पहले ही कह चुका हूँ कि हिंदी के कई दलित-लेखक दिन-रात छुआछूत और ऊँच-नीच से सराबोर हैं। शोषण के विरोध में भी खूब लिखते हैं, लेकिन अवसर पाते ही दूसरे का शोषण करने में तनिक भी नहीं हिचकते।[24] दलितों में गुटबंदी को डॉ. माता प्रसाद दलित साहित्य के लिए चुनौती मानते हैं, दलित साहित्य की सबसे बड़ी चुनौती उनकी अपनी गुटबंदी है। दूसरा, दलित समाज के कुछ लेखक समग्र दलित समाज पर नहीं बल्कि जाति विशेष को प्रोत्साहन दे रहे हैं और दूसरे जातियों पर फब्तियाँ भी कसते हैं।[25] ऐसा ही प्रश्न जब डॉ. यशवंत वीरोदय दलित साहित्यकार रूपनारायण सोनकर से पूछते है तो वह बेहिचक दलित साहित्यकारों में गुटबंदी को स्वीकारते हैं, दलित साहित्य में आंतरिक चुनौतियाँ बहुत है। आजकल चमारवाद, वाल्मीकिवाद, खटीकवाद चल रहा है।[26]

दलित आत्मकथाओं के यह अंश बताते हैं कि दलित-जातियों में आपसी ऊँच-नीच और छुआछूत मौजूद है। दलितों में जातीय विभेद के संबंध में शरण कुमार लिम्बाले लिखते हैं कि सभी अछूत जातियों में एकता नहीं है। इतना ही नहीं इन जातियों तक में जातीयता मिलती है। जाति-उपजातियों तक में ईर्ष्या, मत्सर और स्पर्धा पाई जाती है।[27]

दलित समुदाय में मौजूद लिंग व जातिगत विभाजन इसके समरूपी होने का निषेध करते हैं। इस वास्तविकता को जानने-समझने के बाद दलित लेखकों की मैंके द्वारा दलित हमकी अभिव्यक्ति और प्रतिनिधित्व का दावा संदेहास्पद हो जाता है। प्रतिनिधित्व का सवाल साहित्य के स्तर पर ही नहीं, बल्कि दर्शन के स्तर पर भी महत्त्वपूर्ण रहा है। प्रतिनिधित्व का सवाल वास्तव में एक जटिल सवाल है। जिस समूह का प्रतिनिधित्व किया जाना है या किये जाने का दावा किया जा रहा है, वह विभिन्नता-युक्त जटिल समूह है। इस संबंध में ऐनी फिलिप्स अपने प्रतिनिधित्व संबंधी अध्ययन में लिखती हैं कि समाज के किसी भी समूह के भीतर अनेक विभिन्नताएँ होती है और इसीलिए प्रतिनिधित्व का सवाल हमेशा जटिल बना रहता है। [28] जब समूह में बहुत सारे विभाजन और विभिन्नताएँ हैं तो ऐसे में किसी एक व्यक्ति को समूह का प्रतिनिधि घोषित नहीं किया जा सकता है। यहाँ समूह के प्रतिनिधित्व के लिए विभिन्न प्रतिनिधियों की जरूरत होगी। समूह के भीतर की जटिलता और विभिन्नता के मद्देनज़र आई.एम. यंग ने एक महत्त्वपूर्ण विचार प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि समूह के अंदर विभिन्न तरह के प्रतिनिधित्व की जरूरत होती है। जिससे प्रतिनिधित्व ज्यादा-से-ज्यादा जनतांत्रिक हो सके। [29]

विभिन्न तरह के प्रतिनिधित्व और अधिक-से-अधिक जनतंत्रीकरण के तर्क के आधार पर कहा जा सकता है कि दलित साहित्य में महिलाओं और अन्य निम्न जातियों के अनुभवों के आने की जरूरत है। मगर, हाशिये पर मौजूद समूहों (महिला और अन्य निम्न जाति) में भी अपने अंदरूनी वर्गीय अंतर्विरोध मौजूद हैं, इसलिए इस चीज़ को जाँचा जाना भी जरूरी है कि हाशिये के समूह के भीतर जो सबसे अधिक हाशिये पर है और जो सबसे अधिक शोषित है, का कितना प्रतिनिधित्व हो रहा है? यही वजह है कि दार्शनिक सुजैन डोवी ने प्रतिनिधित्व के वास्तविक सवाल को शोषण और उत्पीड़न के मूर्त स्वरूप से उसके सतत् रिश्ते से जोड़कर देखा है। इसके साथ ही उन्होंने इस महत्त्वपूर्ण विचार को भी उद्घाटित किया कि प्रतिनिधित्व बहुत बार, प्रतिनिधित्व के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, अपने सबसे उत्पीड़ित उपसमूहों के अनुभवों से दूरी बना लेता है। [30]

वास्तव में, प्रतिनिधित्व का सवाल जितना जटिल है उससे कहीं अधिक जटिल व्यावहारिक रूप में इसका निष्पादन होना भी है, क्योंकि एक समूह के भीतर विभिन्न उपसमूह, वर्ग, लिंग, स्थान, विचार के भेद मौजूद हैं जो उन्हें परस्पर अलगाते हैं। यहाँ पर बाबा साहेब अम्बेडकर का कथन, जो उन्होंने 1944 में मद्रास प्रेसीडेंसी चुनावों में जस्टिस पार्टी की हार पर कहा था, का उल्लेख महत्त्वपूर्ण हो जाता है, “मेरी राय में इसकी दो वजहें थीं। अव्वल तो ये लोग ठीक-ठाक यह नहीं तय कर पाए कि ब्राह्मण तबकों से उनके मतभेद क्या थे। हालाँकि इन लोगों ने ब्राह्मणों की तीखी आलोचना की लेकिन क्या इनमें से कोई भी यह कह सकता है कि उनके मतभेद सैद्धान्तिक थे? खुद इनमें कितना ब्राह्मणवाद था? उन्होंने ब्राह्मण नामों को धारण करके खुद को दूसरे दर्जे का ब्राह्मण समझना शुरू कर दिया था। ब्राह्मणवाद का परित्याग करने के बजाय वे उसे आदर्श मानकर उससे चिपके रहे। ब्राह्मणवाद के खिलाफ उनका गुस्सा महज इसलिए था कि ब्राह्मणों ने उन्हें केवल दोयम दर्जा ही दिया था। ...पार्टी के पतन की दूसरी वजह इसका बेहद संकीर्ण राजनैतिक कार्यक्रम था। गैर-ब्राह्मण पार्टी के राजनैतिक कार्यक्रम में एक खामी यह थी कि पार्टी ने अपने युवा कार्यकर्त्ताओं के लिए कुछ नौकरियाँ सुरक्षित करने को ही मुख्य मुद्दा बना लिया था। वैसे यह मुद्दा पूरी तरह जायज था लेकिन जिन गैर-ब्राह्मण नौजवानों को सरकारी नौकरी दिलाने के लिए पार्टी बीस साल तक लड़ी, क्या उन्होंने नौकरी के फायदे उठाने के बाद पार्टी को याद रखा? बीस साल की सत्ता के दौरान पार्टी गाँवों में रहने वाले उन नब्बे प्रतिशत गैर-ब्राह्मणों को भूल गयी जो गरीबी की जिंदगी जी रहे थे और महाजनों के शिंकजे में फँसे हुए थे। ’’[31] निम्न जाति के मध्यमवर्गीय लोगों के ब्राह्मणवादी रवैये व इन लोगों के दरिद्र-निम्न आबादी से दूर हो जाने, को डॉ. अम्बेडकर जस्टिस पार्टी की हार का मुख्य कारण मानते हैं। डॉ. अम्बेडकर का निम्न जाति के मध्यमवर्गीय लोगों के बारे में यह कथन जितना प्रासंगिक तत्कालीन समय में रहा, उतना ही समीचीन वर्तमान में भी है।

वर्तमान समय में जाति, जाति के स्वरूप, जातिगत स्थितियों, जातिगत भेदभाव आदि में बदलाव हुआ है। ऐतिहासिक रूप से दलित गरीब और संसाधन विहीन रहे हैं, लेकिन आज इस आबादी का एक हिस्सा गरीबी से निकलकर ऊपर बढ़ा है। दलितों के एक हिस्से का संपन्न होना और बहुसंख्यक दलित का दरिद्र-दलित स्थितियों में जीवनयापन करना; दलित समाज में मौजूद वर्ग विभेद को उजागर करता है।

दलित चिंतकों ने लेखन के अन्य साहित्यिक रुपों की तुलना में आत्मकथा को अधिक महत्त्व दिया है। श्यौराज सिंह बेचैनलिखते हैं, “जो लोग सच में दलितों की समस्याएँ समझना चाहते हैं, कुछ समाधान देना चाहते हैं। उनके लिए आत्मवृत्तों से बढ़कर कोई माध्यम नहीं हो सकता।[32] लेकिन आत्मकथाकार अपनी जीवनकथा को आत्मकथा में समग्रता से अभिव्यक्त नहीं करता है। वह आत्मकथा में जीवन के कुछ प्रसंगों को जोड़ता है, तो कुछ को छोड़ता है। इस तरह आत्मकथाकार स्वत्व के क्षणों’ (Moment of Being) को तैयार करता है। इस संबंध में प्रो. राजकुमार कहते हैं कि आत्मकथाकार अपने अतीत को पुनःसृजित करने के लिए उन स्मृतियों को एकत्र करने का प्रयास करता है जो उसकी आत्मकथा के विषय के अनुकूल होती हैं। ...यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है कि आत्मकथाकार अपने जीवन की असंख्य घटनाओं में से किन-किन घटनाओं का चयन करता है या सभी घटनाओं का, यह उसकी अपनी पसंद होती है। नि:संदेह, यह स्वाभाविक ही है कि लेखक उन्हीं प्रकरणों का चयन करता है जो उसके जीवन को प्रभावित करते हैं और जिनके उल्लेख करने से प्रतिपादित विषय का विकास होता है।[33] आत्मकथाकार सोच-समझ कर स्मृतियों का चुनाव करता है। ऐसे में यह समझना जरूरी हो जाता है कि लेखक आत्मकथा में जीवन-स्मृतियों को क्या रूप देगा? दरअसल, जब एक लेखक स्मृतियों या स्वत्व के क्षणों का चुनाव करता है तब वह मध्यमवर्ग की स्थिति में होता है। लेखक की वर्तमान मध्यवर्गीय स्थिति, उसकी मध्यवर्गीय चेतना का निर्माण करती है और क्षणों को एकत्र करने में मध्यस्थता करती है। बकौल जवरीमल्ल पारख,आमतौर पर लेखक समुदाय मध्यवर्ग से ही आते हैं। ...दलित समाज का यह बुद्धिजीवी वर्ग भी मध्यवर्ग से आया है और इसलिए इसमें मध्यवर्गीय चेतना के प्रभाव का होना अत्यंत स्वाभाविक है।[34]

लेखक की मध्यवर्गीय स्थिति उसकी मध्यवर्गीय चेतना का निर्माण करती है। जिसके अनेक उदाहरण हमें दलित आत्मकथाओं में देखने को मिलते हैं। सूरजपाल चौहान की आत्मकथा में आया एक प्रसंग लेखक के वर्ग परिवर्तन के साथ उसकी चेतना, खान-पान, व्यवहार में आये परिवर्तन को प्रकट करता है, हम मौहल्ले के छोटे-बड़े बच्चे भीड़ लगाकर सूअर की कटनई देखा करते थे। बच्चों का वहाँ खड़ा रहने में अपना स्वार्थ था। सूअर के माँस के छोटे-छोटे टुकड़े करते समय माँस काटने वाले बच्चों को सूअर की चर्बी-युक्त खाल, जिन्हें तिक्काकहते हैं, पकड़ा दिया करते थे। मौहल्ले के सभी बच्चे उन तिक्कों को गचर-गचर चबाते। ... दोनों हाथ और मुँह चर्बी से सने रहते थे। मुँह और हाथों पर असंख्य मक्खियाँ भिनभिनाती रहती थीं। छी...अब सोच-सोचकर उबकाई आ रही है।[35]

लेखक की चेतना में हुए परिवर्तन का ऐसा ही मिलता जुलता उदहारण हमें जूठनमें भी देखने को मिलता है, “शादी-ब्याह के मौकों पर, जब मेहमान या बाराती खाना खा रहे होते थे तो चूहड़े दरवाजों के बाहर बड़े-बड़े टोकरे लेकर बैठे रहते थे। बारात के खाना खा चुकने पर जूठी पत्तले उन टोकरों में डाल दी जाती थीं, जिन्हें घर ले जाकर वे जूठन इकट्ठी कर लेते थे। पूरी के बचे-खुचे टुकड़ें, एक आध मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी-बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बाछें खिल जाती थीं। ... आज जब सोचता हूँ तो जी मितलाने लगता है।[36] दया पवार की  आत्मकथा अछूतमें पत्नी की कल्पना को लेकर आये उदाहरण लेखक की मध्यवर्गीय चेतना का परिचय देते हैं। दया पवार लिखते हैं, “ऐसी काली पत्नी मेरे विचारों के बाहरी थी। गोरी लड़कियों के सपने आते। एक ही सपना था कि बच्चे बनिये-ब्राह्मणों से हो।[37] एक अन्य उदाहरण कि गोल साड़ी में सई कैसी ब्राह्मणों, सवर्णों सी दिखेगी, यह मेरी कल्पना होती।[38]

लेखक का वर्गीय परिवर्तन उसे बहुसंख्यक दरिद्र-दलित समाज से अलग करता है। दलित समाज के दुःख-दर्द, श्रम के शोषण व जातीय उत्पीड़न से दूर होने के कारण लेखक की आत्मकथा में इनकी प्रस्तुति क्रमशः कम होती जाती है; और जब कभी दलित समाज का जिक्र आता भी है तो उसका विवरण गुणात्मक और मात्रात्मक रूप से वैसा नहीं होता, जैसा लेखक के अतीत के मैंमें होता है। इसे श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा में आये भट्टे पर काम करने के प्रसंग के माध्यम से समझा जा सकता है। श्यौराज के सौतेले पिता ईंट-भट्ठे के ठेकेदार से एडवांस लेकर, श्यौराज और उसकी बहन को भट्ठे पर काम के लिए भेजना तय कर देते है। यहाँ श्यौराज ईंट-भट्ठों पर बाल-श्रम के उपयोग और इस काम से बच्चों के जीवन पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का बड़ा मार्मिक चित्र प्रस्तुत करते हैं। लेखक लिखता है, “भट्ठे पर मिट्टी के लोंदे बनाने, मिट्टी काटने, सुखाने, चट्टा लगाने, ईंट के ऊपर ईंट एक पंक्ति से लगाने के लिए बच्चों के श्रम का बहुत उपयोग होता था। ठेकेदारों का फ़ायदा था। आधी-मजदूरी देनी पड़ती थी इससे बच्चों का स्वास्थ्य चौपट हो जाता था। भारी श्रम और दौड़-भाग करने से बच्चे थक कर चूर हो जाते थे।[39] लेकिन, जब लेखकश्यौराज अपने निकट अतीत में एक साहित्यिक कार्यक्रम में शामिल होने के बाद पाली का दौरा करते हैं तो वहाँ भट्ठे पर कार्यरत लोगों का आँकड़ा भर इकट्ठा करते हैं, “18-19 नवम्बर2007 को फ़ोर्ड फाउण्डेशन की ओर से दलित प्रचारक ए॰ के॰ अकेला के सम्मान में अलीगढ़ में आयोजन किया था। शिमला एडवांस स्टडी से मुझे बुलाया गया था। बीस को मैंने पाली का दौरा किया। यहाँ से भट्ठे पर गये लोगों की सूची तैयार की। एक सौ चार जाटव सदस्य हैं।[40] यहाँ लेखक के अतीत मैंऔर वर्तमान मैंकी अनुभूतियों में अंतर को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। श्यौराज अपने बचपन में ईंट-भट्ठों पर काम की दशा, बच्चों के श्रम, ठेकेदारी आदि का व्यापक विवरण देते हैं लेकिन लेखक अपने समकाल में भट्ठों, जहाँ श्रमिकों का शोषण आज भी अत्यधिक है, पर श्रम-कार्य करने वाले दलितों की कार्य-दशाओं, श्रम के शोषण, ईंट बनाने में बच्चों के श्रम के इस्तेमाल के बारे में चुप रहते हैं। दरअसल, मध्यवर्गीय लेखक के लिए अब दरिद्र-दलित अब उसका अन्य हो गया है, जिसके कारण दरिद्र-दलित अनुभूति का विषय न होकर, केवल आँकड़ा भर रह गया है।

आत्मकथाकार स्वत्व के क्षणोंके लिए अतीत में लौटता है। वह जब अपने अतीत के मैंया बचपन के जीवनानुभवों को अभिव्यक्त करता है तो वहाँ दलित पात्रों और समाज का विवरण अधिक रहता है,लेकिन जैसे-जैसे लेखक मध्यमवर्ग की ओर बढ़ने लगता है वैसे-वैसे उसके जीवन में दलित पात्रों व दलित समुदाय का अंकन कम होने लगता है। अब दलित समुदाय व उसके जातीय शोषण का जिक्र अकसर तभी होता है जब मध्यवर्गीय दलित लेखक को सवर्ण मध्यमवर्ग द्वारा अपमानित या उत्पीड़ित होना पड़ता है। क्या इसका कारण दलित मध्यवर्गीय लेखकों का गरीबी और जातीय शोषण की शारीरिक यातना से बाहर निकलना और शहरों में बसना नहीं है? सूरजपाल चौहान लिखते हैं किदिल्ली में रहकर मैं भूल ही गया था कि मैं नीच जाति से हूँ।[41]

प्राय: दलित लेखक मध्यवर्ग का हिस्सा रहे हैं जो जाति व परम्परागत काम-संबंधों से मुक्त हो चुके है, जो शहरों की मध्यवर्गीय जीवन शैली से जीने के आदी हो चुके है, जो बड़े दफ्तरों में अधिकारी हैं या सरकारी कर्मचारी हैं, जिनके पास पेट भरने के स्थायी साधन हैं और जो तमाम शारीरिक शोषण से मुक्त हैं। इस संबंध में ब्रिटिश लेखिका साराह बेथ हंट लिखती हैं कि गरीबी और ग्रामीण पृष्ठभूमि से जीवन का आरम्भ करने वाले, दलित आत्मकथाकारों ने वर्तमान में मध्यवर्ग में अपना स्थान स्थापित कर लिया है। शहरी मध्यवर्ग का हिस्सा बन जाने के बाद उन्होंने मध्यवर्गीय आदतों, सांस्कृतिक प्रथाओं और मूल्यों को अपनाना शुरू कर दिया है। वह मध्यवर्गीय मोहल्लो में रहने लगे हैं, उनके पास अपना टीवी है, उनके बच्चे जीन्स पहनते हैं, मैकडोनल्ड जाते हैं और अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं।[42] संभवतयही वजह है कि जो लेखक अतीत में अस्तित्वके संकट को प्राथमिकता देता है, वही लेखक वर्गांतरण और मध्यवर्ग का हिस्स्सा बन जाने के बाद अस्तित्व से ज्यादा अस्मिता और सम्मान के सवाल पर जोर देता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि दलित अस्मिता का सवाल जरूरी है। जो दलित की प्राथमिकताओं में है।[43] रूपनारायण सोनकर तो दलित अस्मिता को साहित्य की आत्मा बतलाते हैं। उनका कहना है, दलित साहित्य की आत्मा दलित अस्मिता ही है। दलित अस्मिता और चेतना के ही कारण दलित साहित्य का अस्तित्व है।[44] अस्मिता और सम्मान से मिलता-जुलता तर्क सुशीला टाकभौरे का भी है। उनके लिए मानसिक संताप शारीरिक पीड़ा से अधिक बढ़कर है, “शारीरिक पीड़ा से मानसिक पीड़ा ज्यादा दुखदायी होती है। मैं मानसिक पीड़ा को भोग रही हूँ। मेरी पीड़ा शिक्षित अछूत की है- जो सम्मान का सपना देखते हैं।[45] लेकिन, मध्यवर्गीय दलित लेखकों के विपरीत बहुसंख्यक दरिद्र-दलितों के लिए जीविका और अस्तित्व का सवाल अस्मिता से पहले आता है। उनके लिए जाति और जातिवाद से मुक्ति का सवाल प्राथमिक है। आलो-आंधारिकी लेखिका बेबी हालदार एक दरिद्र-दलित का जीवन व्यतीत करती है। वह घरेलू सहायिका बनने में इसलिए संकोच करती है क्योंकि वह घर-परिवार की नाक और सम्मान को ज्यादा महत्त्व देती हैं, “मैं सोच में पड़ गई कि उसकी तरह मैं दूसरों के घरों में कैसे काम कर सकती हूँ।[46] लेकिन बाद में बेबी के सामने खड़ा अस्तित्व का संकट अस्मिता और सम्मान के प्रश्न को गौण बना देता है। इसी तरह मनोरंजन ब्यापारी अपने अधिकारों के लिए प्रत्यक्ष संघर्ष की बात करते हैं, “हमको इस समाज में बराबरी का अधिकार है। हमारी इतनी ही माँग है। अगर कोई रुकावट आएगी तो उसको तोड़ने के लिए हम मार्क्सवाद, अंबेडकरवाद जरूरत पड़ने पर और किसी वाद जो हम नाम नहीं लेना चाहते, वह सब हम कर सकते हैं और करेंगे।[47]

स्पष्ट है कि मध्यवर्गीय दलित लेखक के मुद्दे, विचार, अनुभव व प्राथमिकता दरिद्र-दलितों से अलग हैं। वर्ग परिवर्तन के बाद मध्यवर्गीय लेखक अब स्वानुभूतिक प्रत्यय के आधार पर बहुसंख्यक दरिद्र-दलितों के प्रतिनिधित्व का दावा नहीं कर सकता क्योंकि वर्गांतरण के बाद दरिद्र-दलित अब लेखक केस्वका अंग न रहकर दलित अन्यहो गया है। ऐसे में जब कभी मध्यवर्गीय लेखक इस दरिद्र-दलित अन्यकी अभिव्यक्ति का प्रयास करेगा तो वह उन अन्यकी जिंदगी को परकाया प्रवेश यानी सहानुभूति के माध्यम से ही समझेगा। दलित समाज के वर्गीय और अन्य विभेद, दलित जीवन की न केवल जटिलताओं को रेखांकित करते हैं बल्कि प्रतिनिधित्व के सवाल और इसकी एकनिष्ठ सरलीकृत अभिव्यक्ति को भी प्रश्नीय बनाते हैं।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दलित समुदाय समरूपी नहीं है, उसमें अनेक अंतर्विरोध मौजूद हैं इसलिए महज लेखकीय अनुभूति को महत्त्व देने से अनेक स्वर साहित्य की अभिव्यक्ति बनने से चूक जाते हैं। लेखक की अनुभूति और अनुभव उसकी यथार्थ स्थिति से निर्मित हैं। लेखक का यथार्थ बहुसंख्यक दलित के यथार्थ से भिन्न है, ऐसे में उनके यथार्थ को स्वानुभूति के सहारे अभिव्यक्त करने का दावा तर्क संगत नहीं जान पड़ता है। यही नहीं दलित समुदाय के समरूपी न होने और बहुतेरे अंतर्विरोधों से भरे होने के कारण दलित लेखक के सार्वभौम प्रतिनिधित्व का दावा भी संदिग्ध लगता है। ऐसे में जरूरत बहुसंख्यक दलित की जिंदगी के विभिन्न पहलुओं को एकांगी अनुभवों से नहीं, बल्कि समग्रता (Totality) और यथार्थ के तमाम अंतर्विरोधों के साथ अभिव्यक्ति देने की है, जिसके लिए दलित साहित्य को प्रतिनिधित्व (Representation)की जद्दोजहद से बाहर निकलकर दलित जीवन के मूर्त यथार्थ के समग्र प्रस्तुतीकरण (Presentation) को अपना लक्ष्य बनाना होगा।

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47. मनोरंजन ब्यापारी से साक्षात्कार, दिनेश कुमार वर्मा, 3/11/19


दिनेश कुमार वर्मा 
शोधार्थी, पीएच.डी. (हिंदी), डॉ. बी.आर.अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली (एयूडी)
dkverma.pp@gmail.com9313343753

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : .................
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