शोध आलेख : “निर्गुण काव्य में जीवन एवं मृत्यु की दार्शनिक अवधारणा” / आदित्य रंजन यादव

निर्गुण काव्य में जीवन एवं मृत्यु की दार्शनिक अवधारणा
आदित्य रंजन यादव


शोध सार : भारतीय चिंतन परंपरा में चिंतन का केंद्र बिंदु यह है कि कैसे मुक्ति या मोक्ष पाया जाए। यहां की चिंतन परंपरा मुख्यतः जीवन पर केंद्रित है। उसके चिंतन का सबसे बड़ा भाग जीवन को समर्पित है।  यहां ऐसा माना गया है कि जीवन दुखमय है। इन दुखों से बाहर निकलना है और जिसे हम सामान्य बोलचाल में मृत्यु कह देते हैं वह एक तरह से इस जीवन के इन अपार दुखों से मुक्ति का रास्ता है। इसे दुखवादी दृष्टिकोण नहीं कह सकते हैं बल्कि एक तरह से मृत्यु संबंधित चिंतन को भारतीय परंपरा ने जीवनधारा से संबंधी चिंतन की ओर मोड़ दिया। इस शोध आलेख में यह देखने की कोशिश की गई है कि भक्ति काल की निर्गुण धारा किस प्रकार जीवन और मृत्यु की अवधारणा पर अपने साहित्य में उतरती है। साथ ही निर्गुण कवियों के इस दार्शनिक चिंतन पर किसका प्रभाव सर्वाधिक देखा जा सकता है, इसे इस आलेख में देखने का प्रयास किया जाएगा।

बीज शब्द : पँचमहाभूत, मोक्ष, वेदांत , उपनिषद्, आत्मा, जीवन, मृत्यु, मोक्ष , कठोपनिषद्, द्वैतभाव, आत्म-संस्कार, बौद्

मूल आलेख : जन्म और मृत्यु के मध्यकाल का नाम ही जीवन है। जीवन अनिश्चित अवधि में बद्ध होता है और इस अवधि की कोई निश्चित सीमा निर्धारित नहीं है। जब मनुष्य मरता है तब यही कहा जाता है कि व्यक्ति की जीवन- गति समाप्त हो गई।  वास्तविकता यही है मृत्यु जीवन की प्रत्यक्ष अंतिम सीमा है। यह कोई नहीं जानता कि किसके जीवन की सीमा कहाँ है ? अर्थात् वह कब मृत्यु को प्राप्त होगा। यह जीवन का ऐसा रहस्य है जिसमें जीवन के गूढ़ रहस्य का स्पष्टीकरण भी निहित है। यहां रहस्य एवं स्पष्टीकरण का चिन्तन, मनन जीवन की विस्तृतता का द्योतक है। भारतीय चिंतन धारा में मृत्यु को किसी दुखद पड़ाव की तरह देखते हुए इसे सिर्फ आत्मा का शरीर परिवर्तन बताया गया है। भक्तिकाल की निर्गुण धारा में भी यह चिंतन मुख्य रूप से देखा जा सकता है। ज्ञानमार्गी कबीर भी इस संबंध में चिंतन करते देखे जा सकते हैं और प्रेममार्गी कवि भी जीवन-मृत्य के चक्र की दार्शनिक अवधारणा से प्रभावित देखे जा सकते हैं। इस आलेख में निर्गुण कवियों के इस दार्शनिक चिंतन का स्वरूप और उसके स्रोत पर विचार किया जाएगा।

भारतीय मान्यता है कि जो कुछ भी मूल नहीं है अवश्य ही समाप्त होगा। हमारा शरीर मूल नहीं है यह तो हमें ज्ञात ही है। पँन्चमहाभूत अर्थात पाँच अवयवों से मिलकर बनने वाला यह शरीर एक दिन अवश्य खत्म होगा। स्थानीय कहावतों के सहारे कहें तो माटी का यह देह माटी में ही मिल जायेगा। हमारा जन्म अलग अलग अवयवों से मिलकर बना हुआ है जिनका अलग होना तय है। इस संदर्भ में श्रीमद्भागवात में कहा गया है कि, हे महान वीर, जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है, क्योंकि मृत्यु शरीर के साथ जन्म लेती है। कोई आज या सैकड़ों वर्षों के बाद मर सकता है, लेकिन हर जीव की मृत्यु निश्चित है।

मृत्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते  अद्य वाब्दशतान्ते वा मृत्युर्वै प्राणिनां ध्रुव:।। [1]

प्रो० हिरियाना लिखते हैं कि  "पाश्चात्य दर्शन की भाँति भारतीय दर्शन का आरम्भ आश्चर्य एवं उत्सुकता से होकर जीवन की नैतिक एवं भौतिक बुराइयों के शमन के निमित्त हुआ था। दार्शनिक प्रयत्नों का मूल उद्देश्य था जीवन के दुःखों का अन्त ढूँढ़ना और तात्त्विक प्रश्नों का प्रादुर्भाव इसी सिलसिले में हुआ।"[2] भारत में दर्शन की चर्चा ज्ञान के लिए होकर मोक्षानुभूति के लिए हुई है। अतः भारत में दर्शन का अनुशीलन मोक्ष के लिए ही किया गया है। दर्शन का आरम्भ आध्यात्मिक असन्तोष से हुआ है। भारत के दार्शनिकों ने विश्व में विभिन्न प्रकार के दुःखों को पाकर उनके उन्मूलन के लिए दर्शन की शरण ली है। प्रो मैक्समूलर की ये पंक्तियों इस कथन की पुष्टि करती है-" भारत में दर्शन का अध्ययन मात्र ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं, वरन् जीवन के चरम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता था।'[3]

इस प्रकार भारतीय चिंतन धारा ध्यान,योग, निष्काम कर्म एवं ज्ञान आदि तत्वों के संयोजन से संसार के इन आकस्मिक उलझनों तथा माया के बंधनों से मुक्ति की सफल व्याख्या देती है। जिसकी कालातीतता इसकी वैज्ञानिकता को भी परिभाषित करती है।  समग्रतः कहें तो ऐसा माना जा सकता है कि यहां जीवन में जन्म एवं मृत्यु को सिर्फ दो बिंदुओं के रूप में देखकर इसके बीच की बात की गई है यहां जन्म के बाद एवं मृत्यु के पहले जीवन के तौर-तरीकों एवं व्यवस्थाओं पर सुगठित एवं सार्थक चिंतन उपरांत जीवन में मृत्यु के विभिन्न मार्गो का रास्ता खोला गया है। यह हमारे मस्तिष्क को जीवन पर एकाग्र चित्त करते हुए सांसारिक बंधनों से मुक्ति एवं सकारात्मक कामनाओं की पूर्ति तथा नकारात्मक कामनाओं की त्याज्यता की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त कर रही है।

जीवन और मृत्यु के चक्रों की तुलना सोने और जागने की वैकल्पिक अवधियों से की जा सकती है। जिस तरह नींद हमें अगले दिन की गतिविधि के लिए तैयार करती है, उसी तरह मृत्यु को एक ऐसी अवस्था के रूप में देखा जा सकता है जिसमें हम आराम करते हैं और नए जीवन के लिए खुद को भरते हैं। इस ब्रह्मांड में अगर एक कोई चीज निश्चित है तो वह है मृत्यु। जीवन के आरंभ के दिन ही मृत्यु निश्चित हो जाती है, फूल के खिलने के साथ ही यह तय हो जाता है कि  एक दिन यह मुरझा जाएगा। लेकिन फिर भी भारतीय चिंतन धारा में आरंभ से ही मृत्यु एक महत्वपूर्ण विषय बनकर सामने आता है। मृत्यु के भय से उबरना हो या जीवन में जीवन मरण के चक्र से मुक्त होकर जीवन यापन करना यह सब दार्शनिक चिंतन का विषय रहा है और भारतीय साहित्य का भक्तिकाल जो कि जीवन से जुड़ा हुआ साहित्य है, इसमें सायास अनायास जीवन और मृत्यु की दार्शनिक अवधारणा देखी जा सकती है। 

रैदास कहते हैं कि जन्म के समय कैसा हर्ष और मृत्यु पर कैसा दुःखयह तो ईश्वर की लीला है। संसार इसे नहीं समझ पाता। जिस प्रकार लोग बाज़ीगर के तमाशे को देखकर हर्षित और दुःखी होते हैंउसी प्रकार ईश्वर भी संसार में जन्ममृत्यु की लीला दिखाता है। अतः ईश्वर के इस विधान पर हर्षित अथवा दुःखी नहीं होना चाहिए।[4] इसे ही कबीर के एक दोहे में देखें तो वे कहते हैं किमृत्यु रूपी माली को आता देखकरजीव कहता है कि जो पुष्पित थे अर्थात् पूर्ण विकसित हो चुके थेउन्हें काल चुन ले गया। कल हमारी भी बारी  जाएगी। अन्य पुष्पों की तरह मुझे भी काल कवलित होना पड़ेगा। अर्थात इस जीवन मरण चक्र से कोई बच नहीं पाया है, कोई धर्म कोई दर्शन इस विषय में नहीं बताता की किस प्रकार मृत्य से विजय पाई जा सकती है, बल्कि भारतीय दर्शन और निर्गुण साहित्य में भी जीवन में मृत्यु के भय से बचते हुए जीवन के सद्मार्ग की बात की गई है।

माली आवत देखि के, कलियाँ करैं पुकार।  फूली-फूली चुनि गई, कालि हमारी बार॥

            निर्गुण धारा में संत साहित्य के पीछे जो दार्शनिक प्रेरणा रही है उसके संबंध में विद्वानों ने वेदांत और उपनिषद् में प्रतिपादित निर्गुण ब्रह्मवादी विचारधारा को मुख्य प्रेरक शक्ति के रूप में निरूपित किया है। संत साधक और उनके अग्रणी कबीर को लोगों ने यही समझा है कि वे जीव, आत्मा और प्रकृति संबंधी अपनी मान्यताओं को व्यक्त करने में मुख्य रूप से प्राचीन हिंदी परंपराओं  और विशेष रूप से निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाले ग्रंथों और महात्माओं से प्रभावित हुए थे। निर्गुण ब्रह्म की इसी मान्यता के आधार पर कबीर में अद्वैत दर्शन के प्रति दृढ़ आस्था दिखलाई देती है। किंतु कबीर का अद्वैतवाद सगुण और निर्गुण के परंपरागत भेद पर आधारित नहीं दिखता है। प्राचीन वैदिक और उपनिषद् काल की परंपरा में तो निर्गुण ब्रह्म के प्रतिपादन के साथ ही अद्वैतवाद का प्रतिपादन समझा जाता है।कबीर के सूक्ष्म दार्शनिक विचारों को पूर्णरूप से समझने के लिये हमें उनकी एक ही दो उक्तियों पर नहीं, बल्कि उनकी सब रचनाओं पर एक साथ विचार करना होगा ऐसा करने से इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि वे पूर्ण अद्वैत थे।'”[5]

उपनिषदों में स्पष्ट ऐसा वर्णित है कि जिसकी संपूर्ण कामनाएँ नष्ट हो जाती है और ज्ञान और विद्या के द्वारा उपलब्ध आत्म लाभ और ब्रह्म भाव के होने पर अविद्या और मायाके सभी रूप नष्ट हो जाते हैं वही अमरत्व है संपूर्ण वेदांतों का बस इतना ही अनुशासन बतलाया गया है। उनके अनुसार वास्तव में कामनाओं का अभाव ही मोक्ष है।

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः , अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते

"यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह प्रन्थयः अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध चनुशासनम् [6]

निर्गुण संत शिरोमणि कबीरदास भी इन्हीं विचारों का समर्थन और प्रतिपादन करते हैं। उनकी वाणी तथा उपनिषद् के वचनों में यहाँ अपूर्व समानता देखी जा सकती है। कबीरदास मुक्ति की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि मुक्ति की उपलब्धि तो जीवित अवस्था में ही होनी चाहिए। जो लोग जीवन काल में ही अपने कर्म के बंधन को काट नहीं सके, उन्हें मरने के उपरांत मोक्ष की आशा करना सर्वथा व्यर्थ है। कबीरदास तो प्रत्यक्ष सत्य और अनुभूत सत्य पर विश्वास करनेवाले थे।[7] उनकी उक्ति है कि,-

साधो भाई, जीवत ही करो आसा जीवत समझे जीवत बूझे, जीवत मुक्तिनिवासा                                    

जीवत करम की फांसन काटी, मुए मुक्ति की श्रासा तन छूटे जिव मिलन कहत है, सो सब झूठी यासा |[8]

संत कवि कबीरदास जी का यह मत स्पष्ट रूप से उनके साहित्य में आता है कि मृत्यु के पश्चात मोक्ष पाने का प्रयत्न श्रेयस्कर नहीं है। उचित तो यह है कि इसी जीवन में मुक्त होने का प्रयत्न किया जाय। मनुष्य को इसी जीवन में अपनी आत्मा को सांसारिक बन्धनों से छुटकारा दिलाना चाहिए। कबीर के शब्दों में उसे 'मरजीवा' अर्थात् "जीवन्मृत' बनने का प्रयत्न करना चाहिए। अतः उन्होंने इसी जीवन में इन्द्रियों को पूर्णतः अपने वश में करके माया के जंजाल से निकलने की रीति बतलाई है। माया का प्रभाव मन पर पड़ता है। मन ही माया के अस्त्र काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि का लक्ष्य बनता है- 'मन पांचों के बस परा, मन के बस नहिं पांचऔर इसी कारण जीव व्यथित रहता है।

कबीर के ईश्वरवादी विचार वेदांत से प्रभावित एवं अत्यंत निकट हैं। कबीर के दोहों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि कबीर जीव एवं ब्रह्म की पूर्ण एकता में अटूट विश्वास रखते थे:-“हेरत- हेरत हेरिया, रहा कबीर हिराय बूंद समानी समुंद्र में, सो कत हेरी जाय।[9] कबीर कवि के रूप में जीवन के जितने निकट हैं, उतने ही एक वेदज्ञ के रूप में ब्रह्म के निकट देखे जा सकते हैं।  यदि वेदांत की दृष्टि से देखें तो जीव और ब्रह्म समन्वित प्राप्त नहीं होते। उपनिषद की भी श्रुति यही कहती है कि जीव और ब्रह्म दोनों शरीर रूपी वृक्ष पर निवास करते हैं, इनमें एक संसार बृक्ष के फलों का भोग करता है और दूसरा भाग देखता है :-  

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति [10]   

मोक्ष शरीर के बाहर अन्यत्र नहीं है उसका वास शरीर के भीतर है। बाहर ढूंढ़ने का प्रयास उसी प्रकार भ्रमात्मक है, जिस प्रकार मृग अपने ही भीतर स्थित कस्तूरी को नहीं पहचानता और बार बार घूमकर घास में उसे ढूँढ़ता है। वास्तव में मनुष्य के हृदय में जब तक ममता, मोह और श्रासक्ति बनी हुई है तब तक मोक्ष प्राप्ति की सफलता कभी संभव नहीं जब मनुष्य ममता और मोह पर विजय प्राप्त कर लेता है तब प्रभु स्वयं उसकी सफलता के साधन प्रस्तुत करते हैं। ममता के नाश होने पर ही सच्चे ज्ञान का उदय होता है। सच्चा ज्ञान होने पर कर्मों का नाश हो जाता है। उससे प्रणीत सब बंधन नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य के सभी कर्म फूल के समान हैं। उनका उद्देश्य फल रूपी मोक्ष की प्राप्ति, कर्म के बंधन से मुक्त होना है जब मोक्ष की सिद्धि हो जाती है तो फूल रूपी कर्म अपने आप नष्ट हो जाते हैं कबीर ने सदैव आत्मा को परमात्मा का अंश स्वीकार किया है। अद्वैतवादियों की तरह ब्रह्म और आत्मा में एकता स्थापित की है, और उनको अंश अंशी के रूप में सर्वत्र अवस्थिति मानी है। इसीलिये उनका प्रिय के लिये संदेश प्रेषण का प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि वह तो प्रतिक्षण उनके पास ही विद्यमान रहता है।[11]

"प्रियतम को पतियाँ लिखूं, जो कहि होय बिदेस

तन में, मन में, नैन में, ताकों कहा संदेस

जैसा की शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन में हम देखते हैं  ब्रह्म के साक्षात्कार के लिये आत्मा रूपी प्रियतमा विकल है, मिलन नहीं होता। क्षण-क्षण युग-युग-सम बीत रहे हैं। यह विरह यद्यपि क्षणिक ही है। कबीर ने शरीर में व्याप्त आत्मा को दो रूपों प्राप्त और प्राप्तव्य के रूप में स्वीकार किया है। कबीर के अनुसार आत्मा-परमात्मा अभिन्न हैं। केवल माया के आवरण के कारण ये दोनो भिन्न प्रतिभासित होते हैं। जब यह शरीर जो माया महल है, नष्ट हो जाता है, तो आत्मा फिर अपने उसी स्वरूप में जा मिलती है जिसका कि अंश है।

"जल में कुंभ, कुंभ में जल है। बाहर-भीतर पानी ।फूट्यो कुंभ जल जलह समाना यह तथ्य कथ्यौ गियानी |"

            शंकराचार्य के वेदान्त का भी यही मत है। अगर हम कुछ विषयांतर होकर सगुण धारा से उदाहरण लें तो गोस्वामी तुलसीदास भी ने इसे स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है-"ईश्वर अंश जीव अविनासी ।चेतन अमल सहज सुख रासी सो माया बस परेड गुसाईं बँधेउ कीर मरकट की नाई [12] अतएव आत्मा को परमात्मा में ढूंढने की कोई आवश्यकता नहीं, वह तो सदैव आत्मा के पास रहता है। प्रकृति के कण-कण में समाया हुआ है। आत्मा रूपी प्रियतमा जब उसे प्रेम-विभोर हो देखती है, तो वह सर्वत्र में उसे देख पड़ता है। जैसा कि कबीर लिखते हैं कि -

"लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल ।लाली देखन मैं गयी, मैं भी हूं गयी लाल || "

मृग के नाभि में जिस प्रकार कस्तूरी विद्यमान रहती है, परन्तु वह उसे अज्ञान के कारण जान नहीं पाता, इधर-उधर ढूंढ़ता रहता है, उसी प्रकार आत्मा-परमात्मा अलग-अलग नहीं हैं, परन्तु मायावरण के कारण आत्मा का परिचय परमात्मा से नहीं हो पाता। शरीर के सम्बन्ध में कबीर का मत है, जो कुछ पिंड में है, उसी का रूप ब्रह्मांड में है तथा उस सबकी सत्ता मानव-काया ही है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ब्रह्मांड का लघु रूप शरीर या जिसे कबीर की भाषा में कहें तो पिंड है तथा शरीर का बृहत् रूप ब्रह्मांड है। परन्तु मानव मात्र का शरीर अस्थायी,क्षण-भंगुर एवं नश्वर है। उसका विनाश निश्चित है। कबीर के शब्दों में इसे देखें तो -
                  "पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जाति देखत ही छिप जायेगा, ज्यों तारा परभात ||"

गीता' में भगवान कृष्ण ने कहा है कि जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र को छोड़कर नया धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा जीर्ण शरीर को त्यागकर नवीन शरीर धारण करता है।[13] इसी प्रकार 'वृहदारण्यक' उपनिषद् में बताया गया है कि जोंक जिस प्रकार एक तृण से दूसरे पर जाते समय पहले अपने शरीर का अगला हिस्सा रखती है और फिर बाकी हिस्से को खींच लेती है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर में प्रवेश करता है।[14] इसमें केवल इतना ही जाना जा सकता है कि आत्मा स्वयं ही दूसरे शरीर में प्रवेश करता है। निर्गुण काव्य में भी वेदान्त की ही भांति माया को जीवन मरण के चक्र में फंसे रहने का कारण माना गया है। इस संदर्भ में हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि, “कबीरदास ने माया के संबंध में जो कुछ कहा है, वह वस्तुतः वेदांत द्वारा निर्धारित अर्थ में ही। खूब संभव है कि कबीरदास ने भक्ति-सिद्धांत के साथ ही माया संबंधी उपदेश भी रामानंदाचार्य से ही पाया था, इसीलिए वे बराबर भक्त को माया जाल से अतीत समझते हैं। यहाँ इतना और कह रखा जाए कि कबीरदास के 'निर्गुण ब्रह्म' में 'गुण' का अर्थ सत्त्व, रज आदि गुण हैं, इसलिए 'निर्गुण ब्रह्म' का अर्थ वे निराकार निस्सीम आदि समझते हैंनिर्विषय नहीं [15]

            “निर्गुणी संतों ने ब्रह्म और जीव की एकता का प्रतिपादन निश्चित रूप से अपनी विशेष शैली में किया है। निर्गुनी संतों के इस अद्वैतवाद को हम ज्ञानमूलक अद्वैतवाद नहीं कह सकते, जिसका प्रतिपादन शंकराचार्य सहित उनके परवर्ती दूसरे दार्शनिकों ने किया है। उनके अद्वैतवाद को हम भावमूलक अद्वैतवाद कह सकते हैं। क्योंकि संत कवि साधक शुष्क तर्क अथवा ज्ञान के भरोसे उस ब्रह्म और जीव की अभिन्नता का अनुभव नहीं करते थे वरन् भक्तिभावना के सहज आवेग में उस परम सत्ता का अनुभव सभी अणु परमाणु में करते थे। ब्रह्म के साथ एकात्म होने की व्याकुलता में वे इस सत्य की उपलब्धि करते थे।[16] कबीरदास ने जिस निर्गुण राम के साथ अपने अद्वैत संबंध को स्वीकार किया था, उसको उन्होंने दार्शनिक वाद और ऊहापोह के मार्ग से नहीं पाया था। बल्कि उन्होंने इसे अपनी परंपरा और सामाजिक ज्ञान से ग्रहण किया था।

निर्गुण की दूसरी शाखा प्रेमाश्रयी धारा को देखें तो हिन्दी सूफी कवियों ने ब्रह्म का जो निरूपण किया है उसमें इस्लाम धर्म सूफी-दर्शन एवं उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म के रूपों की छाप दिखाई पड़ती है। जैसा की शुक्ल जी ने भी माना है कि सूफी कवि भारतीय जनमानस की चेतना में अवस्थित सूत्रों को अपने अनुसार ढालकर प्रस्तुत किया है। इसी कारण सूफी काव्य की इस्लामी दर्शन में भी सगुण ब्रह्म का रूप हमें मिलता है। कुरान में भी उसे सृष्टि का निर्माता, पालक और संहारक कहा गया है। वह संसार की सभी वस्तुओं का स्रष्टा है। कुरान में कहा गया है कि 'वह (ईश्वर) जिसने, भूमि में जो कुछ है वह सब कुछ तुम्हारे लिए बनाया। वहाँ ब्रह्म के लिए कहा गया है कि 'वह आदि है, अंत है, बाहर है, भीतर है, वह सब चीजों का जानकार है। इसी संदर्भ को भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो माण्डूक्य उपनिषद् में कहा गया है कि ब्रह्म हमारे सामने, बाईं ओर, दाई ओर है। वही एक ब्रह्म ऊपर और नीचे है तथा वही श्रेष्ठातिश्रेष्ठ है। इस प्रकार सगुण ब्रह्म का यह रूप हिन्दू और इस्लाम दर्शन में अविरोधी रूप में मिलता है

हिन्दी के सूफी कवियों ने फारसी काव्य-परम्परा से प्रेमतत्व को ग्रहण किया और उसी को सांसारिक कल्याण का साधन माना।  “फारसी के सूफी कवियों ने संसार की नश्वरता पर विचार किया है। लौकिक सौन्दर्य को विद्रुपता, यौवन को वृद्धत्व एवं जीवन को मृत्यु में परिवर्तित होते हुए उन्होंने देखा हर पीढ़ी मृत्यु को देखती है। अपने पूर्ण पुरुषों की नश्वरता को समझती हैं, पर इस मृत्यु और नश्वरता से मुक्ति पाने का मार्ग ग्रहण नहीं करती। इसी के लिए सूफियों ने जीवन में ही  मृत्यु की साधना करने का आग्रह किया है।[17] उन्होंने कहा है कि जीवन सांसारिक वासनाओं, इन्द्रिय सुखों, रागद्वेषों एव आत्म-पर के भावों के समुच्चय का नाम है। यदि जीव ब्रह्म के प्रेम में इतना तल्लीन हो जाय कि उसे संसार का ध्यान ही रहे तो वह जीवन रहते हो जीवन के बंधनों से मुक्त हो जाता है। उसकी विषय-वासना भोग लालसाएं, तथा अपने-पराये का भेद-भाव मर जाता है। इस प्रकार जो व्यक्ति सांसारिक प्रलोभनों को मारकर प्रेम मार्ग ग्रहण करता है उसके पास मृत्यु नहीं आती और ही वह मृत्यु से डरता है

            सूफियों और समकालीन सन्तों में समान रूप से इस मरण-साधना के सन्दर्भ का विद्यमान होना तथा पूर्ववर्ती भारतीय दर्शन और साहित्य में इसके मूल तत्व का उपस्थित होना इन बात को प्रमाणित करता है कि इस दिशा में जायसी आदि सूफी कवि तथा कबीर आदि सन्त कवि मूलतः एक ही स्रोत से प्रभावित हुए हैं।जायसी की रचनाओं के अध्ययन से पता चलता है कि भगवान बुद्ध की भांति उन्हें जरा और मरण के कारण संसार में असारता का भान होता है। उनके अनुसार नश्वर जीवन की सार्थकता प्रेम करने में है। उस परम शक्ति का प्रेम प्राप्त करना बड़ा कठिन है। इसके लिए जीवन सभी कामनाओं पर विजय प्राप्त करना आवश्यक होता है।[18] भारतीय ऋषियों की जीवन्मुक्तावस्था तथा सूफी सन्तों को 'फल' की अवस्था की भांति हिन्दी के सूफी कवियों ने जीवन में मृत्यु को साधने का सन्देश दिया है। इसके बिना प्रेम के मार्ग पर अग्रसर होना कठिन है। 'पद्मावती' में जब रत्नसेन पदमावती के प्रेम में सिल के मार्ग में समुद्र-तट पर पहुंचता है और समुद्र के राजा गजपति से उसकी भेंट होती है तब गजपति समुद्रमार्ग की बीहढ़ता का उससे वर्णन करता है। उत्तर में रत्नसेन अपनी जोवन्मुक्तता या मरजीया दशा का संकेत करते हुए कहता है-

गजपति यह मन सकती सीऊ पै जेहि पेम कहाँ तेहि ओऊ लौ पहिले सिर दे पगु धरई मुप फेर मधुहि का करई[19]

जायसी के काव्य में यथास्थान मृत्यु संबंधी दृष्टि देखी जा सकती है। बच्चन सिंह ने तो पद्मावत का प्रतिपाद्य ही मृत्युबोध तक ले जाने के मार्ग को माना है। जायसी की मृत्युबोध संबंधी दृष्टि में आध्यात्मिकता और भौतिकता का समन्वय है। जहाँ संत काव्य में मृत्यु संबंधी दर्शन उपदेशात्मक जैसे कि मुक्ति और मोक्ष के सहारे देखा जाता है वहीं जायसी के पास ऐसा नहीं है। जायसी की मृत्यु सबंधी दृष्टि इसी जीवन और उनके आख्यानों से जुड़ी हुई है। बच्चन सिंह लिखते हैं कि , “सभी भक्त मौत के उस पार देखना चाहते हैं किन्तु जायसी उसे इसी पार देखते हैं- ‘ मानुस प्रेम भयहु बैकुंठी, नाहित काह छार भई मूँठी।’... जीवन के विरुद्ध मृत्यु और मृत्यु के विरुद्ध जीवन के संघर्ष का नाम है 'पद्मावत' जीवन प्रेम है। अनेक परिस्थितियों में उसे अनेक रूप-रंगों में देखा जा सकता है-सौन्दर्य में, संयोग में, वियोग में, सामाजिक दायित्व में और मृत्यु में भी।[20]


            जिस प्रकार हम सूफी काव्य धारा में बौद्ध धारा का प्रभाव देखते हैं उसी प्रकार कुछ विद्वान कबीर पर बौद्ध दर्शन के चार सत्यों का यथेष्ट प्रभाव देखते हैं। रहस्यवाद के संबंध में वैसे भी कबीर पर बौद्ध प्रभाव सत्यापित हो चुका है।  वे संसार को दुखमय तो मानते ही हैं, साथ ही साथ उन्हें हिन्दू धर्म का जन्मान्तरवाद भी मान्य है, धावत जोनि जनमि श्रमि थाक्यो, अब दुख करि हम हार्यो रे  कबीर के काव्य में द्वितीय आर्य सत्य से सम्बन्धित उक्तियों को देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं में स्थान-स्थान पर सांसारिक दुखों के कारण भूत-मूल तत्वों जैसे कि कामना और तृष्णा का निर्देश मिलता है। इसी प्रकार तृतीय आर्य सत्य "निरोध" की भी उनमें सम्यक् अभिव्यक्ति मिलती है ।बौद्ध धर्म के अनुरूप कबीर ने भी दुख निरोधात्मक मार्ग के रूप में विस्तृत साधना पद्धतियों का वर्णन किया है। कबीर पर देश की समस्त तत्कालीन विचारधाराओं और साधना पद्धतियों का प्रभाव पड़ा था, जिनके कारण उनके द्वारा निर्देशित साधना क्रम एक जैसा नहीं है। उसमें साधना की कई धाराओं का सम्मिश्रण हुआ है। उन्होंने दुःख निवारण के लिए कई मार्ग निर्देशित किए हैं। महत्वपूर्ण यह है कि कबीर का अन्तिम लक्ष्य सिर्फ वैराग्य की प्राप्ति करना बिल्कुल भी नहीं था। वे वासना-क्षय और आत्म-संस्कार में विशेष विश्वास रखते थे। यदि कोई वैराग्य के बिना ही अपने लक्ष्य पर पहुँच सकता है तो उसके लिये वैराग्य की कोई आवश्यकता नहीं वे स्पष्ट कहते हैं कि :- "वनह बसे का कीजिये जे मन नहीं तर्ज विकार।

कबीर ने अपनी रचनाओं में मुक्ति के लिये मुक्त, निर्वाण, परम पद और अभयपद आदि विविध पर्याय प्रयुक्त किए हैं। यह सभी शब्द अधिकतर वेदांत में प्रचलित हैं। कबीर की मोक्ष सम्बन्धी धारणा इनसे बहुत मिलती-जुलती है इसके ऊपर बौद्धों के निर्वाण और योगियों के कैवल्य की भी छाया दृष्टिगत होती है। कबीर नें मोक्ष को पूर्ण मुक्तावस्था माना है। उनका विश्वास है कि मोक्ष की दशा में सब प्रकार के बन्धन, यहाँ तक जन्म-मरण के बन्धन भी मुक्त आत्मा को अभिभूत नहीं कर पाते हैं। मुक्त आत्मा के सम्बन्ध में उनकी यह धारणा है कि सब प्रकार के बन्धनों से निर्बन्ध होकर मुक्त आत्मा अविनाशी स्वरूप अर्थात् शुद्ध, बुद्ध मुक्त ब्रह्म स्वरूप हो जाती है यह परम पद की अवस्था है इस अवस्था का वर्णन कबीर ने अधिकतर अद्वैतवाद के अनुरूप ही किया है। किन्तु कहीं-कहीं पर उनके अद्वैत वर्णनों में बौद्धों के निर्वाण की भी छाया दिखाई पड़ती है


            जिसे वेदान्त में मुक्ति कहा गया है, उसी को बौद्ध दर्शन में निर्वाण कहते हैं निर्वाण का सीधा साधा अर्थ हैबुझ जाना  बुझ जाने से अभिप्राय है, वासना का अन्त हो जाना। बौद्ध शब्दावली में कहें तो यह एक प्रकार की निष्काम एवं शान्त तथागत होने की परिस्थिति है। प्रो० डेविड्स ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'बुद्धिज्म' में निर्वाण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, “यह मन और हृदय की पूर्ण शांति की अवस्था है। इस अवस्था के अभाव में शरीर को पुनर्जन्म लेना पड़ता है वह शान्ति की अवस्था प्रयत्न करने पर सिद्ध होती है और मन तथा हृदय की विरोधात्मक स्थिति के समानान्तर चलती है। जब यह विरोधी स्थिति पूर्ण हो जाती है तभी वह अवस्था भी पूर्ण हो जाती है। इस प्रकार निर्वाण मन की निश्चेष्ट और पाप विहीनता की अवस्था कही जा सकती है "[21]

मोक्ष के सम्बन्ध में कबीर की धारणा पूर्ण अद्वैत दर्शन से प्रभावित है। उनका निश्चित मत है. कि आत्मा कहीं आती-जाती नहीं है। कबीर के अनुसार द्वैतभाव का नष्ट हो जाना ही मोक्ष है। कबीर की यह धारणा वृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णित मुक्ति विवेचन से बहुत मिलती- जुलती है। उसमें भी इसी को मुक्ति की दशा कहा है [22] कबीर ने मुक्ति को अवस्था की ब्रह्मकारता की अवस्था माना है। उनका मत यह है कि जीव ब्रह्मस्वरूप होकर उसी के समान सत, चित्त और आनन्द रूप हो जाता है। उनकी बहुत सी उक्तियों में जीव की मुक्ति की दशा में सत्स्वरूप हो जाना स्पष्ट ध्वनित मिलता है। जैसा कि एक स्थल पर वे कहते हैं :-'अमर भए सुख सागर पावा"[23] यहाँ पर उन्होंने मुक्ति की अवस्था में जीव का सत् और आनन्द स्वरूप होना स्पष्ट ध्वनित किया है। चित् की बात भी कई स्थलों पर संकेतित की गई है। निम्नलिखित पंक्तियों में पूर्ण ब्रह्मकारता की अवस्था दिखलाई गई है :-

होय मगन राम रंगि रामै आवागमन मिटै धाप तिनहि उछाह शोक नहि व्यापै, कहैं कबीर करता आप [24]

डॉ राधाकृष्णन ने मोक्ष का वर्णन करते हुए लिखा है "मुक्ति की उच्चतम स्थिति के सम्बन्ध में चाहे कितना मतभेद क्यों हो, किन्तु इतना निर्विवाद है कि का जीव की सक्रिय, स्वतन्त्र और पूर्णावस्था है। वास्तव में इस स्थिति का वर्णन नहीं किया जा सकता है। यदि इसका वर्णन आपेक्षित है तो उसे दिव्य जीवन की स्थिति कह सकते हैं। आत्मा का ब्रह्म से उसी प्रकार तादात्म्य समझना चाहिए, जैसा सूर्य की किरणों का सूर्य से व्यष्टि संगीत का विश्व संगीत से होता है।"[25] निर्गुण संतों ने मोक्ष का जो वर्णन किया है वह डॉ राधाकृष्णन् द्वारा व्याख्यायित मुक्ति के स्वरूप से पूर्ण रूप से मेल खाता है। यहाँ पर यह भी संकेत करना महत्वपूर्ण हैं कि कबीर आदि संतों की मुक्ति सम्बन्धी धारणा वेदान्त सूत्र में वर्णित मुक्ति धारणा से अगर कहीं थोड़ी भिन्न है तो वह है वेदान्त सूत्र की अना- वृत्ति और ब्रह्मकारता वाली बातें तो कबीर को पूर्ण मान्य हैं। किन्तु उन्होंने कहीं पर भी ब्रह्म लोक की यात्रा तथा मोक्ष में भी आत्मा का सूक्ष्म शरीर बना रहता है, इन दोनों बातों का वर्णन नहीं किया है।

मुख्यतः कबीर और जायसी के सहारे निर्गुण काव्य की जीवन मृत्यु की दार्शनिक अवधारणा को देखने से जो सबसे बड़ी बात सामने आती है वह है कि उनकी दार्शनिक चिंतन की धारा पूर्णतः भारतीय है, तत्कालीन परिस्थिति में भी निर्गुण धारा अपने लोक से जिस प्रकार सामना कर रही थी उसमें एक सुंदर समन्वय है। जायसी आदि सूफी कवि जहाँ इस्लाम के एकेश्वरवाद और भारतीय उपनिषदों की मिश्रित चेतना से संचालित हो रहे थे वही कबीर आदि निर्गुण संत शंकराचार्य के वेदान्त एवं लोकप्रचालित भारतीय चिंतन पद्धति से अनुप्राणित थे। उनमें भारतीय जनमानस के अंदर व्याप्त भावनाओं का आभास होने से साथ-साथ प्राचीन भारतीय मुक्ति एवं मोक्ष की अवधारणा का भी ज्ञान था जिसे उन्होंने जन सामान्य के सामने एक सहज स्वरूप में प्रस्तुत किया। निर्गुण संतों नें गीता केवासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।को सरल भाषा में माली आवत देखि के, कलियाँ करैं पुकार जैसी शब्दावली में प्रस्तुत किया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि निर्गुणकाव्य की जीवन मृत्यु की धारणा पूर्णतः भारतीय दर्शन विशेषतः बौद्ध एवं वेदान्त से प्रभावित है।

 संदर्भ :
[1] श्रीमद्भागवत १०.१.३८ 
[2] Philosophy in India did not take its rise in wonder or curiosity as it seems to have done in the West, rather it originated under the pressure of practical need arising from the presence of moral and physical evil in life... Philosophic endeavour was directed primarily to find a remedy for the ills of life, and the consideration of metaphysical questions camo in as a matter of course -Outlines of Indian Philosophy (pg 18-19)
[3] Philosophy was recommended in India not for the sake of knowledge but for the highest purpose that man can strive after in this life. Six Systems of Indian Philosophy (p. 370)
[4] रैदास जन्मे कउ हरस का, मरने कउ का सोक।; रैदास
[5] डा० बडथवाल : हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय, पृ० १३७ ।
[6] कठोपनिषद् २-३-१४,
[7] निर्गुण साहित्य सांस्कृतिक पृष्टभूमि; मोती सिंह , नगरी प्रचारिणी सभा वाराणसी
[8] डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी : कबीर, पृ० २२६ ।
[9] सन्त कबीर और वेदान्त ,शिव प्रसाद क्षोत्रिय , नवयुग ग्रन्थागार, लखनऊ
[10] मुण्डकोपनिषद, प्रथम खण्ड ,श्लोक 1
[11] कबीर : एक नव्य बोध , बैजनाथ प्रसाद शुक्ल , पृष्ठ 40
[12] कबीर:एक नव्य बोध ; बैजनाथ प्रसाद शुक्ल , पृष्ठ 42
[13] 'गीता', अध्याय 2, श्लोक 22
[14] वृहदारण्यक उपनिषद , (4-43)
[15] कबीर; आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी , राजकमल प्रकाशन , पेज 93
[16] निर्गुण साहित्य सांस्कृतिक पृष्टभूमि; मोती सिंह , नगरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी
[17] मलिक मुहम्मद जायसी:डॉ कन्हैया सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पेज 136
[18] मलिक मुहम्मद जायसी:डॉ कन्हैया सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी , पेज 138
[19] पद्मावत,(राजा-गजपति संवाद) मलिक मुहम्मद जायसी
[20] हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास; बच्चन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन , पेज 107
[21] कबीर की विचारधारा : गोविन्द त्रिगुणायत
[22] वृहदारण्यक उपनिषद  4/5/15
[23] कबीर ग्रंथावली, सं श्यामसुंदर दास पृ० 102
[24] कबीर ग्रंथावली , सं श्यामसुंदर दास ,पृ० 150
[25] भारतीय दर्शन :भाग 1 , डॉ राधाकृष्णन


आदित्य रंजन यादव
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय (तेलंगाना)
 aaditya8418@gmail.com9455694270

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
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