शोध आलेख : हिंदी आलोचकों की निगाह में जायसी / समीक्षा सिंह

हिंदी आलोचकों की निगाह में जायसी
समीक्षा सिंह


शोध सार : प्रस्तुत शोध आलेख भक्तिकालीन कवि जायसी को लेकर प्रमुख आलोचकों के मतों पर आधारित है। इसके अंतर्गत यह विश्लेषण किया जाएगा कि इन प्रमुख आलोचकों ने जायसी की रचनात्मक उपलब्धि को किन-किन दृष्टियों  से समझने का प्रयास किया है एवं  उनकी रचनाओं का ध्येय क्या है ?

बीज शब्द : भक्ति, सूफी, मसनवी, निर्गुण, प्रेमाख्यानक काव्य-परम्परा, लोक, पैगम्बर

मूल आलेख : भक्ति साहित्य भक्ति आंदोलन से उपजा है। यह साहित्य कई मायने में महत्वपूर्ण रहा है। इसमें मानव जीवन की संपूर्णता है, जहाॅं ज्ञान, कर्म, प्रेम आदि का संतुलित रूप में वर्णन मिलता है। इसमें लोक से जुड़ने एवं लोक समस्याओं को दर्ज करने की प्रतिबद्धता रही है। जनमानस में अलग-अलग मतों का प्रचलन था, जिसके प्रभाव से निर्गुण और सगुण भक्ति का स्वरूप दिखाई पड़ता है। निर्गुण भक्ति की दो धाराएॅं संतकाव्य और सूफी काव्य हैं, जिसमें जायसी का संबंध प्रायः सूफी काव्य से रहा है। इस भक्ति मार्ग के अधिकांश कवि इस्लाम धर्म से जुड़े थे, उन्होंने धार्मिक रूढ़ियों पर विचार करते हुए हिंदू-मुसलमान के मत-मतांतर को त्याग कर समन्वय की भावना पर बल दिया। जहाॅं संतकाव्य में ज्ञान की गूढ़ बातें की गईं, वहीं सूफी काव्य में प्रेम की। संतकवि और सूफीकवि असमानताओं के बावजूद सामंत-विरोधी, मानवीय समता, एकेश्वरवाद आदि मान्यताओं पर समान मत रखते हैं। 

जायसी भक्तिकाल के शीर्षस्थ कवि हैं। उनकी सांस्कृतिक चेतना स्पष्ट और समृद्ध थी। उनकी रचनाओं में एक ओर लोक के प्रति गहरी प्रतिबद्धता की छाप मौजूद है तो दूसरी ओर भारतीयता के प्रति असीम जुड़ाव। यही कारण है कि इनकी रचनाओं में मज़हबी संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानवता के स्वर को उत्कर्ष पर ले जाने की आकाॅंक्षा रही है, जिसमें वे काफ़ी हद तक सफल भी रहे हैं। इनपर सर्वप्रथम समृद्ध एवं व्यवस्थित आलोचना लिखने का कार्य आचार्य शुक्ल करते हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक  ‘जायसी ग्रंथावलीमें विस्तार से इनकी रचनाओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है जिसमें वह जन्म स्थान, जन्मकाल से लेकर सूफी परंपरा के विकास आदि विषयों को महत्वपूर्ण स्थान देते हैं।आखिरी कलामकी पंक्तियों को उनके जन्मकाल के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है -

भा अवतार मोर नव सदी
तीस बरस ऊपर कवि बदी ।।”1


            इसी पंक्ति के आधार पर शुक्ल जी इनका जन्म 900 हिजरी अर्थात 1492 . मानते हैं. वे अपने जन्म के तीस वर्ष बाद कविता करने लगे। इन्होंने जायसी के व्यक्तित्व की तुलना कबीर के व्यक्तित्व से करते हुए बताया कि कबीर में सामाजिक-व्यवस्था के प्रति अक्रोशपूर्ण विरोध था। कबीर ने धार्मिक रूढ़ियों के प्रति हिंदू-मुस्लिम दोनों की कड़ी शब्दों में निंदा की, लेकिन जायसी इसके विपरीत प्रेम एवं निष्ठा को अपनाते हैं। अपने इस मत की पुष्टि करते हुए वे लिखते हैं, “कबीर विधि विरोधी थे और वे विधि पर आस्था रखने वाले, कबीर लोकव्यवस्था का तिरस्कार करनेवाले थे और वे सम्मान करनेवाले।”2

            इस तरह जायसी के हृदय को इन्होंने कोमल माना है। इनका संबंध प्रेमाख्यानक काव्य-परंपरा से रहा है। इस काव्य में लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम तक की राह का वर्णन मिलता है। प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा के पहली रचनाचंदायनहै। जिसके रचनाकार मुल्ला दाऊद हैं। इस परम्परा को उच्चतम सोपान पर जायसी ने पहुॅंचाया है। प्रेम वर्णन के लिए हिंदू घराने की प्रचलित कथा को आधार बनाया गया है। आचार्य शुक्ल का मानना है कि इस काव्य की रचना फ़ारसी की मसनवी शैली में हुई है। इस शैली पर विचार करते हुए वो लिखते हैं , “मसनवी के लिए साहित्यिक नियम तो केवल इतना ही समझा जाता है कि सारा काव्य एक ही मसनवी छंद में हो पर परंपरा के अनुसार उसमें कथा आरंभ के पहले ईश्वरस्तुति ,पैगंबर की वंदना और उस समय के राजा की प्रशंसा होनी चाहिए यह बातें पद्मावत, इंद्रावती आदि सभी में पायी जाती हैं”3 इस तरह वे सभी प्रेमाख्यानक काव्यों की रचना मसनवी शैली अंतर्गत रखते हैं। इस कथा के दो उद्देश्य थे पहला प्रेम का संचार करना और दूसरा सूफियों की उदारता से लोगों को परिचित कराना ताकि हिंदू-मुस्लिम की मजहबी संकीर्णता को पटा जा सके।

             आचार्य शुक्ल जायसी को साधारण सूफी मानकर एक सिद्ध पुरुष के रूप में देखते हैं इनकी कृपा से पुत्र की प्राप्ति होती थीआदि जनश्रुतियों के आधार पर लिखते हैं, “ वे अपने समय के समय सिद्ध फकीर माने जाते थे और चारों ओर उनका बड़ा मान था। जीवन के अंतिम दिनों में जायसी अमेठी सेकुछ दूर एक घने जंगल में रहा करते थे ” 4 इनका संबंध सूफी के अलावा कई संप्रदाय के साधुओं से भी था जिनसे उन्होंने बहुत सी बातों की जानकारी प्राप्त की थी, जिसमें वेदांत, हठयोग , रसायन आदि का ज्ञान भी था। जिसका परिचय इनकी रचनाओं में हमें देखने को मिलता है। पौराणिक बातों की जानकारी के अभाव की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए शुक्ल जी बताते हैं कि जानकारी के अभाव के कारण ही इन्होंने चंदा को स्त्री के रूप में संबोधित किया है। जबकि हमारे यहां लोक कथाओं में चंदा को मामा कहकर संबोधित किया गया है अर्थात चांद पुरुष है।

             जायसी पर संपूर्णता से विचार करते हुए शुक्ल जी लिखते हैं - “जायसी कवि थे और भारतवर्ष के कवि थे।” 5 इस  कथन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य शुक्ल ने भी उन्हें कवि माना है लेकिन सूफी परंपरा में दीक्षित कवि।

             जायसी पर विचार करने वाले प्रमुख आलोचकों के रूप में विजयदेव नारायण साही ने कई नए तथ्यों की ओर पाठकों का ध्यान खींचा है। इनकी एक प्रमुख मान्यता है कि सूफी परंपरा के कवियों से जायसी अलग दिखाई देते हैं। इस मान्यता को उन्होंने कई तरह के साक्ष्यों के आधार पर स्थापित किया है। अपने अध्ययन के दौरान इन्होंने पाया कि उस समय में सूफी फकीरों के नाम धार्मिक ग्रंथो में थे लेकिन जायसी का नाम आईने-अकबरी, मुतखाबुल तवारीख में नहीं है। साही इस सत्यता की पड़ताल करते हुए लिखते हैं ,”सूफी पीरों और मुर्शिदों के बारे में तो मध्यकाल की धार्मिक और ऐतिहासिक पुस्तकों में काफी जानकारी मिल जाती है। यहाॅं तक कि पर्याप्त श्रम करके चिश्तिया संप्रदाय और उसकी विभिन्न शाखाओं के दरगाहों के फकीरों की लंबी सूचियाॅं भी विद्वानों ने तैयार कर ली हैं। लेकिन इन सूचियों में खुद जायसी का जिक्र एक फकीर या सिद्ध पुरुष की तरह कहीं नहीं आता है।”6  इस कथन से एक बात तो साफ जाहिर है कि जायसी कोई सिद्ध पुरुष नहीं थे। उनके पास कोई ऐसी शक्ति नहीं थी जो सिद्ध पुरुष के पास होती है। जैसे आशीर्वाद से संतान प्राप्त करना या परकाया में प्रवेश करना.. यह सब मात्र एक किंवदंती है जो जायसी के विख्यात हो जाने पर उनके चरित्र को विशेष बनाने के लिए रची गयी था।

             हमारा काम यह देखना नहीं है कि जायसी सूफी है या नहीं, बल्कि यह है कि उनकी रचनाओं से हिंदी साहित्य कितना समृद्ध हुआ है क्योंकि किसी कवि का मूल्यांकन उसकी रचनाओं के आधार पर करते हैं ना कि धर्म या संप्रदाय विशेष द्वारा उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना पद्मावत है जिसको लेकर तरह-तरह की मान्यताएॅं आलोचकों के बीच प्रचलित हैं। साही ने इस रचना में मसनवी शैली पर अपनी बात रखते हुए यह बताना चाहा है कि फारसी या उर्दू में मसनवी नाम की कोई भी प्रबंध काव्य की शैली नहीं दिखाई पड़ती है बल्कि मसनवी का अर्थ केवल इतना है कि कविता में दो-दो मिसरों वाले परस्पर तुकों से जुड़े हुए छंद अपने इस विचार को ठोस प्रमाण के द्वारा पुष्ट करते हुए लिखते हैं ,“जैसा डॉ.माता प्रसाद गुप्त ने दिखाया है, ईश्वर वंदना, देवस्तुति या राजप्रशंसा संस्कृत तथा अन्य भारतीय काव्य में भी मिल जाती है। इसमें मसनवी की कोई अलग विशेषता नहीं है।”7 इससे जाहिर होता है कि मसनवी कोई शैली नहीं है बल्कि वह एक छंद है और उसे उसी रूप में देखना उचित होगा।

             कोई भी बड़ा रचनाकार अपनी रचनाओं में युगीन परिवेश को समग्रता के साथ जगह देता है। भक्ति काल के लगभग सभी बड़े कवियों ने अपनी रचनाओं में अपने परिवेश को जगह दी है l निर्गुण संप्रदाय के कवियों ने विशेषकर भक्ति की चासनी में डुबोकर अपनी अभिव्यक्ति को ईश्वरीय प्रेम के माध्यम से लौकिक जगत के लोगों में जागृति लाने का भरपूर प्रयास किया है। भक्ति के माध्यम से इन्होंने जगत के दुखों, जातिगत  एवं अपने व्यक्तिगत संघर्षों को भी सामने रखा है। भक्ति केवल ईश्वर के प्रति नहीं है बल्कि संपूर्ण जगत के प्राणियों के लिए उपस्थित हैl  कबीर के कई ऐसे पद हैं जिनमें कि जातिगत संघर्ष एवं लोक चेतना को जाग्रत करने वाले संदर्भ आते हैं इसी प्रकार मीरा की भक्तिमाधुर्य भावकी मानी जाती है लेकिन भक्ति के अलावा वह स्त्री जीवन के दर्द को उजागर करते हुए विशेषकर अपने देवर राणा को संबोधित करते हुए पद लिखती हैं। पदों में अपने व्यक्तिगत जीवन के संघर्षों को और स्त्री होने के दर्द को उजागर करती हैं। रैदासबेगमपुराकी स्थापना ईश्वर के लिए नहीं बल्कि समाज के लोगों के लिए करना चाहते थे। तुलसीदासरामराज्यकी स्थापना इस लौकिक जगत के लिए ही करना चाहते थे। जायसी भी अपनी रचनाओं में पीर ,अल्लाह, कृष्ण तथा अनेक पात्रों जैसे पद्मावती, रतनसेन, नागमती ,अलाउद्दीन, आदि के द्वारा जगत् में व्याप्त भयावह परिस्थितियों को अनुकूल बनाने का प्रयास करते नजर आते हैं। इस बात पर विचार करें तो उनकी रचना के केंद्र में हमें कोई और नहीं बल्कि प्रेम और मानवता दिखती है, इससे आगे बढ़कर कहीं मानवीय करुणा की स्थापना करते नज़र आते हैं इसी की ओर इशारा करते हुए साही लिखते हैं ,”लेकिन जायसी का प्रस्थान बिंदु ना तो ईश्वर है ना कोई नया अध्यात्म है। उनकी चिंता का मुख्य ध्येय मनुष्य है।”8  अर्थात वे सभी धर्मों के बीच सरस समन्वय स्थापित करते हुए मानव-मानव के बीच प्रेम की उत्पत्ति करते हुए सांस्कृतिक समन्वय की दृष्टि को लेकर अपनी रचनाओं में उपस्थित हुए हैं।

             जायसी पर विचार करने वाले आलोचक रघुवंश की मान्यता है कि मत-मतांतर, सत्ता-संघर्ष आदि को बेहतरीन तरीके से समझते हुए जायसी जानते हैं कि अंततः एक दिन ऐसा आएगा कि सब कुछ राख में बदल जाएगा इसलिए मानव को अपने हृदय में मानवता के लिए जगह देना एक अनिवार्य ज़रूरत है। उनकी रचनाओं में अपने युग के इतिहासबोध के साथ-साथ उसकी मूल्यहीनता, विडंबना और व्यवस्था की क्रूरता सभी को उजागर किया गया है क्योंकि उस समय भारतीय संस्कृति पर आक्रमण हो रहे थे और इस्लाम राजसत्ता के प्रसार की लालसा प्रत्येक बादशाह की आकाॅंक्षा बन चुकी थी ऐसे में जायसी उन सभी परिस्थितियों को प्रेम की सघन अभिव्यक्ति के द्वारा मिटाने की चाहत रखते हैं इसी परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर जायसी पद्मावत में तो मुसलमान की विजय से खुश हैं ना हिंदू रतनसेन की हार से। वे तटस्थ होकर मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए प्रयासरत हैं। जायसी की रचना के उद्देश पर बात करते हुए रघुवंश लिखते हैं ,”जायसी जिस स्तर पर रचनाशील हैं, वहां अनेक विचार-धाराएॅं तथा दार्शनिक विचार युग के संदर्भ में प्रस्तुत होकर सघन अनुभूति के रूप में व्यंजित होते हैं, उनका सिद्धांत पक्ष या मतवाद का रूप तिरोहित रहता है।”9 इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इनकी रचनाओं में धार्मिकता का भाव ढक जाता है और तत्कालीन युग की विभिन्न विचार और परिस्थितियाॅं मुख्य रूप में रचना का हिस्सा बन जाती हैं।

            जायसी की प्रेमदृष्टि सघन और व्यापक है। इनके द्वारा लिखे गए कन्हावत, कहरानामा, पद्मावत, चित्रलेखा में प्रेम को विशेष स्थान है। प्रेम के कई प्रकार होते हैं जैसे वत्सल प्रेम, परिवार प्रेम, आध्यात्मिक प्रेम, माता-पिता के प्रति प्रेम इत्यादि उनके लिए प्रेम विरह-मिलन का खेल नहीं है बल्कि वह एक कठोर साधना है और इसमें वासना के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने प्रेम को तीनों लोकों और चौदह भुवनो में सबसे अधिक सुंदर वस्तु माना है तथा प्रेम को परम धर्म मानते हैं। उनके प्रेम दृष्टि पर विचार करते हुए रघुवंश लिखते हैं ,”जायसी ने अपनी प्रबंध योजना में मानवीय प्रेम की व्यापकता, सघनता तथा आंतरिकता की अभिव्यक्ति की है। यह प्रेम अपनी गंभीरता तथा विशदता में मानवीय संदर्भ के अंतर्गत अनंत की ओर उन्मुख रहा है।” 10 अर्थात इनका मुख्य उद्देश मानवीय प्रेम की व्यापकता ,विशालता और सघनता को स्थापित करने का रहा है

             आचार्य शुक्ल जायसी के प्रेमतत्त्व संबंधी चिंतन पर विचार करते हुए लिखते हैं ,”प्रेम के स्वरूप का दिग्दर्शन जायसी ने स्थान - स्थान पर किया है। कहीं तो यह स्वरूप लौकिक ही दिखाई पड़ता है और कहीं लोक बंधन से परे।”11  इन्हें जायसी के प्रेम में लोक तथा लोक से परे परमात्मा दोनों के प्रति प्रेम दिखाई देता है। जायसी की प्रेम को कठोर साधना बताते हुए डॉ.रामचंद्र बिल्लौर लिखते हैं,”जायसी प्रेम को विरह- मिलन का खेल मात्रा नहीं समझते। उनके अनुसार वह साधना है, जिसमें तन की क्रियाओं और मन की वृत्तियों की एकता आवश्यक है। यदि दोनों विपरीत दिशाओं में उन्मुख हो,तो यह प्रेम का तथा साथ ही प्रेम - साधक का कच्चापन है।”12  इससे पता चलता है कि प्रेमी को अपने लक्ष्य तक पहुॅंचाने के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपने शरीर और मन को एक दिशा की ओर अग्रसर करे।

            जायसी ने अपनी रचनाओं में लोक को विशेष महत्त्व दिया है। लोक के प्रति गहरी प्रतिबद्धता की छाप होने के कारण इन्होंने रीति-रिवाज, संस्कार आदि लोक मूल्यों को महत्त्व दिया है। साथ ही पर्व, नक्षत्र जिस पर लोग विश्वास रखते हैं उन पर भी विचार किया है। भारतीय समाज में पर्वों का प्रचलन रहा है ये पर्व व्यक्ति को अंदर नयी ऊर्जा का संचार करने में सहायक है, साथ ही सामूहिक मेल-मिलाप और ख़ुशी के क्षण को सॅंजोए रहते हैं। जायसी के लोक के प्रति गहरे जुड़ाव को देखते हुए शिवकुमार मिश्र लिखते हैं ,“जायसी सच्चे अर्थों में लोक जीवन के गायक हैं उनकी कथा भी मानस की परंपरा में व्याप्त है, जिसे उन्होंने बड़ी तन्मयता और मस्ती के साथ कहा है उनकी भाषा, उनकी कल्पना, उनकी अभिव्यक्ति शैली इन सबसे लोक जीवन का सीधा संबंध है।”13  इस तरह इन्होंने लोक से जुड़े प्रत्येक पक्ष को अपनी रचनाओं में प्रमुखता से जगह दी है। इक़बाल अहमद लिखते हैं ,”मलिक मोहम्मद जायसी आध्यात्मिक प्रकृति के ईश्वर प्रेमी व्यक्ति थे और लौकिक जीवन से सर्वदा अनासक्त रहते थे किंतु उन्होंने लव की कथा सामाजिक जीवन और विशेष रूप से राजनीतिक जीवन पद्धति का सूक्ष्म चित्रण किया है।” 14

निष्कर्ष : निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि इनके रचनाकर्म का प्रमुख उद्देश्य मानवीय करुणा का प्रसार करना है। इसी मानवीय करुणा के कारण ही मनुष्य अपने अंदर की मनुष्यता को बचाने में समर्थ होता है। आज उत्तर आधुनिक युग में लगातार मनुष्य अपने परिवेश और समाज के प्रति करुणा खोता जा रहा है। रिश्तों के मूल्यों को पैसे से मापा जा रहा है। ऐसे में जायसी के प्रेम संबंधी मूल्यों की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। वो मनुष्य के बीच प्रेम का बीज बोना चाहते हैं। लौकिक जीवन का चित्रण करते हुए इन्होंने तत्कालीन सामंती परिवेश में बादशाहों की चाहत, हवस, महत्वाकाॅंक्षा आदि का चित्रण किया है, तो वहीं आम आदमी की विवशता को भी चित्रित करते हैं। प्रेम के श्रेष्ठ रूप पर गहराई से विचार करते हुए बताते हैं कि एकनिष्ठ प्रेम में अपने प्रेमी के अलावा किसी और सुंदर वस्तु की अपेक्षा नहीं रहती है। उन्होंने कबीर की तरह ही जीव और ब्रह्म की अभेद सत्ता को स्वीकार किया है एवं एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहाॅं किसी को कोई कष्ट हो और प्रत्येक व्यक्ति सुखी हो। साथ ही उन्होंने मनुष्य के जीवन में कर्म के महत्त्व एवं संघर्ष को दिखलाया है। उनकी काव्य-दृष्टि के केंद्र में मुख्य रूप से मनुष्य रहा है। वे अपनी रचनाओं में सामाजिक संकीर्णता को पाट कर उदार समाज के निर्माण पर बल देते नज़र आते हैं। उनके लिए मानवता का धर्म सभी धर्मो में श्रेष्ठ है।

संदर्भ :

1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, जायसी ग्रंथावली, विनय प्रकाशन, कानपुर, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ संख्या -477
2.वही, पृष्ठ संख्या- 23
3.वही, पृष्ठ संख्या -17
4. वही , पृष्ठ संख्या -19
5. वही ,पृष्ठ संख्या- 135
6. विजयदेवनारायण साही ,जायसी, हिंदुस्तानी एकेडमी ,इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, पृष्ठ संख्या -4   
7. वही,83
8. वही,62
9. रघुवंश, जायसी एक नई दृष्टि,लोकभारती प्रकाशन तृतीय संस्करण,पृष्ठ संख्या -61
10. वही, पृष्ठ संख्या -91
11. वही, पृष्ठ संख्या - 62
12. डॉ. रामचंद्र बिल्लौर,जायसी की प्रेम साधना,सामयिक प्रकाशन,दरियागंज,नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या -52
13. डॉ. सुरेश चंद्र, भक्ति आंदोलन और मध्यकालीन हिंदी भक्ति कविता, अमन प्रकाशन, रामबाग कानपुर
पृष्ठ संख्या -43
14. डॉ. इकबाल अहमद, महाकवि जायसी और उनका काव्य एक अनुशीलन, लोक भारती प्रकाशन,
इलाहाबाद , पृष्ठ संख्या - 231


समीक्षा सिंह
शोधार्थी (पीएचडी), हैदराबाद विश्वविद्यालय,
7352239851

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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