शोध आलेख : पुष्टिमार्ग के भक्त-कवि, वार्त्ता साहित्य और इतिहास / कुमुद रंजन मिश्र

पुष्टिमार्ग के भक्त-कवि, वार्त्ता साहित्य और इतिहास
- कुमुद रंजन मिश्र

भक्ति-कालीन कवियों के संदर्भ में प्रायः बहुत कम ऐतिहासिक तथ्य मिलते हैं। ऐसे में विभिन्न संप्रदायों के जो दस्तावेज मिले अथवा उन कवियों के जो संकलन मिले वही हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल संबंधी तथ्यों के लिए महत्वपूर्ण स्रोत साबित हुए। चौरासी वैष्णवन की वार्ता तथा दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता इसी प्रकार के महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। यह वल्लभाचार्य प्रवर्तित पुष्टि संप्रदाय के भक्त-कवियों के गुणगान संग्रह हैं। भक्तिकाल के संबंध में जितने स्रोत ग्रंथ हिन्दी साहित्य के इतिहास में उपयोग किए गए हैं उनमें से बहुत कम ऐसे ग्रंथ हैं जो कवियों के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध कराते हैं। ज्यादातर ग्रंथ काव्य संकलन के रूप में हैं। यह दोनों वार्ता-ग्रंथ उन विलक्षण दस्तावेजों में हैं जो कविता की जगह कवियों की जानकारियां उपलब्ध कराते हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास पढ़ते हुए हम केवल उपर्युक्त दो वार्ता ग्रंथों के बारे में जानते हैं किंतु पुष्टि संप्रदाय में वार्ता ग्रंथों की एक विस्तृत परंपरा है। इस परंपरा में लगभग दस वार्ता ग्रंथ हैं जो अब तक हमें ज्ञात हैं। यह जानकारियाँ समय-समय पर विभिन्न शोध-कार्यों के माध्यम से हमारे सम्मुख आती रही हैं। किंतु अब भक्तिकाल चूंकि हमारे लिए बीते जमाने की बात है अतः उस पर होने वाले शोध हमें बहुत आकर्षित नहीं करते हैं।

 हाल ही में श्री उपेन्द्र नाथ राय द्वारा लिखित पुस्तक वार्ता साहित्य और इतिहास(2022), जो राजमंगल प्रकाशन, अलीगढ़ से प्रकाशित हुई है, भक्तिकाल संबंधी तथ्यों की ओर हमारा ध्यान पुनः आकर्षित करती है। उपेन्द्र नाथ राय वैसे तो लंबे समय तक बंगाल के एक उच्च माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक रहे। किंतु विद्यालयी शिक्षण की व्यस्तताएं इनकी शोधी प्रवृत्ति को बांध नहीं पाई। सामाजिक एवं प्राचीन इतिहास इनकी विशेष रुचि के क्षेत्र हैं। इन्होंने पालि और प्राकृत साहित्य का भी पर्याप्त अध्ययन किया है। वार्ता ग्रंथों पर केंद्रित यह पुस्तक इतिहास के नज़रिए से वार्ता ग्रंथों के तथ्यों की पड़ताल करती है। इस किताब की शुरुआत वार्ता साहित्य की भूमिका से होती है जिसमें उसके संबंधन, औचित्य, लेखक और व्याख्याकार संबंधी जानकारी दी गयी है। इसके उपरांत वल्लभाचार्य का जीवन-वृत्त पर विचार किया गया है। आचार्य वल्लभ के जन्म के संबंध में कई दंत कथाएं एवं संप्रदाय की मान्यताएं प्रचलित हैं जो भ्रांतियां पैदा करती हैं। इस किताब में लेखक ने उन भ्रांत दंत कथाओं और मान्यताओं के बरअक्स विभिन्न स्रोतों का सहारा लेते हुए बेहद तार्किक ढंग से उनके जन्म स्थान, उपनयन संस्कार की तिथियाँ और कनकाभिषेक संबंधी मान्यताओं पर विचार किया है। इसी क्रम में उन्होंने महाप्रभु द्वारा पुष्टि संप्रदाय की स्थापना संबंधी विवरण दिया है। संप्रदाय के अनुसार सिद्धांत रहस्य में संप्रदाय की स्थापना के सूत्र मिलते हैं। इसमें ब्रह्म संबंध संस्कार तथा उसके सूत्र अथवा मंत्रों की जानकारी मिलती है जो मनुष्य को अध्यात्म भाव से दिव्यभाव की ओर ले जाता है। आगे यह किताब पुष्टि संप्रदाय के इष्ट श्रीनाथ जी की स्थापना संबंधी तथ्यों की चर्चा करती हैं। इसमें प्रो. केशवराम काशीराम शास्त्री का संदर्भ देकर बताया गया कि वल्लभाचार्य से पूर्व संवत 1535 में माध्वानन्द अथवा माधवेन्द्र पूरी ने श्रीनाथ जी की स्थापना की थी। बाद में जब पूर्णमल्ल खत्री द्वारा एक बड़ा भव्य मंदिर बनवा दिया गया तब संवत 1576 में वल्लभाचार्य श्रीनाथ जी को पुनःस्थापित किया और विग्रह यहाँ पूजित होने लगा।[1] ये माध्वानंद जिन्हें प्रायः गोस्वामी माधवेन्द्र पुरी के रूप में जाना जाता है वही हैं जिनका उल्लेख चैतन्य चरितामृत में मिलता है। ये वस्तुतः गौड़ीय संप्रदाय के पूज्य पुरुषों में बड़े प्रसिद्ध हैं। बहरहाल संवत 1576 में वल्लभाचार्य द्वारा श्रीनाथ जी की पुनःस्थापना तक वहाँ बंगाली पुजारियों की उपस्थिति भी थी। किंतु बाद में किन्हीं वजहों से बंगाली पुजारियों को विग्रह पूजन से वंचित कर दिया गया। इसका स्पष्ट उल्लेख किताब में नहीं मिलता है, किंतु लेखक का अनुमान है कि गुजराती सेठों के वैभव और उनके प्रभाव ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई होगी। संवत 1576 के बाद आचार्य वल्लभ और उनके वंश को और नौ विग्रह प्राप्त हुए। विग्रह का तात्पर्य यहाँ मूर्ति से है। इस क्रम में वे विभिन्न मंदिरों में गए और उनकी सेवा हुई, कई पुजारी उनके सेवक बने और पुष्टि संप्रदाय विकसित हुआ। लेखक बताते हैं कि इन्हीं सेवकों में चौरासी सेवक प्रसिद्ध हुए। चौरासी वैष्णवन की वार्ता में संभवतः वल्लभाचार्य के इन्हीं चौरासी सेवकों का गुणगान है।  

वल्लभाचार्य के उत्तराधिकारियों में गोपीनाथ (16वीं सदी), गोस्वामी विट्ठलनाथ (संवत 1572), गोकुलनाथ (संवत 1608) और हरिराय (संवत 1647) जी का उल्लेख किया गया है। इनमें से गोपीनाथ और विट्ठलनाथ आचार्य वल्लभ के पुत्र थे, जिन्हें क्रमशः संप्रदाय की गद्दी मिली। गोकुलनाथ जी, गोस्वामी विट्ठलनाथ के चतुर्थ पुत्र थे जो अपने भाइयों में सर्वाधिक विद्वान थे। गोकुलनाथ जी के देहांत के बाद उनके ज्येष्ठ भ्राता गोविंदनाथ के पौत्र हरिराय जी को संप्रदाय की जिम्मेदारी दी गयी। पुष्टि संप्रदाय की व्याख्या करते हुए लेखक ने बताया कि गोस्वामी विट्ठलनाथ के शुद्ध ब्रह्मवाद के विचार से ही संप्रदाय के मत को शुद्धाद्वैतवाद के नाम से जाना गया। इस मत के प्रचार में जिन दो ग्रंथों का प्रमुख योगदान है, वे हैं - पुरषोत्तम कृत तत्व दीप निबंध की टीका तथा शुद्धाद्वैत – मार्तण्ड। ‘पुष्टिमार्ग के सिद्धांत’ शीर्षक के अंतर्गत लेखक ने वल्लभाचार्य की मान्यताओं, उसकी व्याख्या का भी उल्लेख किया है –

“वल्लभ सृष्टि और विनाश में विश्वास नहीं करते, न वे जगत को माया की सृष्टि मानते हैं। ब्रह्म अपनी लीला के लिए जगत को प्रगत करता है और समेट लेता है। ईश्वर की दो शक्तियों के कारण केवल प्रकाश और अप्रकाश होता है। जब वह अपने गुणों को प्रकट करना चाहता है तब भिन्न भिन्न नाम - रूप वाले विविध पदार्थ प्रगट होते हैं। जब उसकी इच्छा होती है, तब सब कुछ अपने में समेट लेता है भिन्नता में भी अच्छी - बुरी सभी चीजें सत्य और ब्रह्म से अभिन्न है इसलिए किस्मत को शुद्धा-द्वैत कहते हैं।”[2]

वल्लभाचार्य के अनुसार जगत रूप में भी ब्रह्म की सत्ता है और तिरोहित रूप में भी। भ्रांति कहीं है ही नहीं। भ्रांति की व्याख्या आचार्य दूसरे दार्शनिकों से इतर करते हैं जिसे ख्यातिवाद कहा गया है। इस मत का एक नाम अविकृत परिणाम वाद भी है। बहरहाल पुष्टि संप्रदाय के मत और उसकी व्याख्या के बहुत से संदर्भ हमारे पास हैं अतः वार्ता साहित्य और उसकी ऐतिहासिकता पर केंद्रित होना उचित होगा।

किताब की अनुक्रमणिका में लेखक ने भूमिका सहित किताब के ग्यारह विभाग किए हैं। जिसके पहले शीर्षक- भूमिका में लेखक ने इस पाठ को तैयार करने की प्रेरणा, तैयारी, यात्रा और अपनी ऐतिहासिक मान्यताओं का उल्लेख किया है। दूसरा शीर्षक ‘वार्ता साहित्य की भूमिका’ है। इसके भीतर की ज्यादातर बातों का उल्लेख ऊपर के दो अनुच्छेदों में किया जा चुका है। इसी शीर्षक के अंतर्गत लेखक ने संप्रदाय के दस वार्ता ग्रंथों का उल्लेख किया है जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं – 1)चौरासी वैष्णवन की वार्ता, 2) दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, 3) श्रीनाथ जी की प्राकट्य वार्ता, 4) महा प्रभु जी की प्रकट्य वार्ता, 5) श्री आचार्य जी की निजी वार्ता, 6) श्री आचार्य जी की घरुवार्ता, 7) श्री गुसाई जी की निजवार्ता, 8) चौरासी बैठक चरित्र, 9) भाव सिंधु 10) खट ऋतु वार्ता। प्रथम दो वार्ता ग्रंथों के बारे में हम प्रायः जानते ही हैं। इन दोनों ग्रंथों के जो आरंभिक संस्करण प्राप्त होते हैं, वे डाकोर और बंबई से छपे मिलते हैं। इन संस्करणों की पाठ्य सामग्री को संप्रदाय के विद्वान भी संदेह की दृष्टि से देखते हैं। बाद में दोनों ग्रंथों के तीन-तीन संस्करण इंदौर से निकले, जिसके पीछे वैष्णव मित्र मण्डल का सहयोग था। तीसरे और चौथे वार्ता ग्रंथ क्रमशः श्रीनाथ जी और महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्राकट्य से संबंधित है। श्रीनाथ जी की प्राकट्य वार्ता में उनकी मूर्ति स्थापना का इतिहास है, जिसे हरिराय कृत माना जाता है। महा प्रभु जी की प्रकट्य वार्ता में आचार्य वल्लभ के जीवन की कुछ घटनाओं का उल्लेख है, जो संवत 2001 में प्रकाशित बताया जाता है, किंतु अब अप्राप्त है। पाँचवें और छठे वार्ता ग्रंथ भी मूलतः आचार्य वल्लभ पर केंद्रित हैं, जिसमें उनके निजी एवं व्यक्तिगत जीवन के कुछ विवरण मिलते हैं। ये दोनों भी अब अप्राप्त हो चुके हैं। सातवां वार्ता ग्रंथ गोस्वामी विट्ठलनाथ के जीवन प्रसंगों पर केंद्रित है एवं अप्रकाशित है। आठवां वार्ता ग्रंथ चौरासी बैठक चरित्र में वल्लभाचार्य के चौरासी तथा गोस्वामी विट्ठलनाथ के अट्ठाईस बैठकों की कथा है, जिसका संग्रह गोकुलनाथ द्वारा किया बताया जाता है, जो संवत 2024 में बजरंग पुस्तकालय, मथुरा से प्रकाशित हुआ किंतु लेखक उपेन्द्र नाथ जी के अनुसार अब अप्राप्त है। नवां ग्रंथ भाव सिंधु पूर्व के दो ग्रंथों पर आधारित है। इसका प्रकाशन भी मथुरा के बजरंग पुस्तकालय से हुआ बताया जाता है। दसवें ग्रंथ खट ऋतु वार्ता में श्री कृष्ण का राधा और सखियों के साथ विभिन्न ऋतुओं में विहार का वर्णन है जैसा कि ग्रंथ के शीर्षक में संकेत किया गया है। इसके रचनाकार के रूप में गोकुलनाथ एवं चतुर्भुजदास के मध्य मतभेद है।

तीसरा शीर्षक ‘हिन्दी साहित्य के इतिहासकार, आलोचक व वार्ताएँ’ हैं। प्रस्तुत शीर्षक के भीतर लेखक ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में वार्ता संबंधी तथ्यों का अन्वेषण किया है, जिसमें वे बताते हैं कि तासी से लेकर डॉ. रामकुमार वर्मा तक सभी इतिहासकारों ने वार्ता साहित्य का उल्लेख अपने ग्रंथ में किया है। किंतु तासी के यहाँ केवल दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता का उल्लेख मिलता है। लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय कृत हिंदुई साहित्य के इतिहास में गोकुलनाथ के पाँच ग्रंथों का उल्लेख है, जिसमें चौरासी वैष्णवन की वार्ता का उल्लेख नहीं मिलता। आगे लेखक के अन्वेषण में मिश्रबंधुओं के यहाँ चौरासी वैष्णवन की वार्ता और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता दोनों का उल्लेख मिलता है। किंतु जिस तरह चौरासी वैष्णवन की वार्ता का संदर्भ लेते मिश्रबंधुओं ने सूरदास के पिता, गाँव, जाति आदि का उल्लेख किया है, लेखक के अनुसार ये सूचनाएं भ्रामक हैं चूंकि स ग्रंथ में यह सूचनाएं हैं ही नहीं। लेखक ने बताया है कि मिश्रबंधु वार्ताओं की टीका के संबंध में, नन्ददास के संदर्भ में कई भ्रामक सूचनाएं उपलब्ध कराते हैं। इन संदर्भों पर लेखक ने संदर्भ सहित अपना मत प्रस्तुत किया है। लेखक के अनुसार डॉ. रामकुमार वर्मा एवं डॉ. रसाल आदि ने भी इन वार्ता ग्रंथों को प्रामाणिक बताते हुए कई भ्रामक सूचनाओं को अपने इतिहास-ग्रंथ में दर्ज करने का काम किया है। वे बताते हैं कि वार्ता ग्रंथों पर आलोचनात्मक ढंग से पहली बार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने विचार किया। वे वार्ता पर आचार्य शुक्ल टिप्पणियों को उद्धृत कर उसे पुष्ट करते हैं।

इतिहास से इतर जिन आलोचकों ने वार्ता ग्रंथ पर विचार किया है अथवा उन पर टीकाएँ लिखीं हैं, उनके विचारों के आधार पर उन्हें तीन वर्गों में बाँटा गया है। पहले वर्ग में उन विद्वानों को रखा गया है जिनका संबंध संप्रदाय से है और जो वार्ता ग्रंथों पूर्णतः विश्वास करते हैं। इनमें पं. कंठमणि शास्त्री, श्री द्वारिका दास पारेख, श्री प्रभु दयाल मित्तल और डॉ. दीन दयाल गुप्त हैं। दूसरा वर्ग डॉ. धीरेन्द्र वर्मा और डॉ. हरिहर नाथ टंडन का है। इन्हें वार्ता ग्रंथों पर आंशिक संदेह है मसलन ये चौरासी वैष्णवन की वार्ता पर तो विश्वास करते हैं किंतु दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता के तथ्यों पर संदेह करते हैं। तीसरा वर्ग डॉ. श्री कृष्णलाल, डॉ. बेजेश्वर वर्मा, डॉ. मुंशिराम शर्मा, डॉ. माता प्रसाद गुप्त और डॉ. चंद्रबली पाण्डेय का है। इन्होंने वार्ता ग्रंथों पर पूर्णतः संदेह किया एवं समीक्षात्मक ढंग से उसका मूल्यांकन किया। इन आलोचकों ने इन वार्ता ग्रंथों को अपने मूल्यांकन में पुष्टिमार्ग के धार्मिक ग्रंथ अथवा पुराण के रूप में पाया, जिसकी उपयोगिता इतिहास की दृष्टि से संशयात्मक है। लेखक ने इस अध्याय में बहुत विस्तार से इन तीनों वर्गों के मतों एवं उनके तथ्यों की चर्चा की है।

चौथा शीर्षक ‘वार्ताओं की ऐतिहासिकता’ है। इस शीर्षक के अंतर्गत लेखक इतिहास के आईने से वार्ता ग्रंथों की पड़ताल की है। सभी दस वार्ता ग्रंथों पर पृथक रूप में उनकी विभिन्न टीकाओं और संस्करणों में तथ्यों की भिन्नता एवं समरूपता पर विचार किया गया है। प्राप्त वार्ता-ग्रंथों के विभिन्न संस्करणों में वार्ताओं की जो सूची लेखक को प्राप्त है, उसे लेखक ने हम सबके सामने रखा है। ‘वार्ता साहित्य में गौड़ीय वैष्णव’ शीर्षक के भीतर जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि उन भक्तों का विवरण है, जिनका संबंध चैतन्य महाप्रभु के गौड़ीय संप्रदाय से था और वार्ता साहित्य में भी उनकी चर्चा आयी है। दरअसल पूर्व में हमने चर्चा की थी कि श्रीनाथ जी की स्थापना पहली बार स्वामी माध्वानन्द अथवा माधवेन्द्र पुरी ने की थी। इन स्वामी का संबंध गौड़ीय संप्रदाय से ही था। ये संभवतः चैतन्य महाप्रभु से भी पहले बंगाल क्षेत्र में कृष्ण उपासना का प्रचार करने वाले भक्तों में हैं। प्राकट्य वार्ता में चैतन्य महाप्रभु को स्वामी जी का शिष्य बताया गया है। इसी शीर्षक में गौड़ीय संप्रदाय के बंगाली पुजारियों एवं वल्लभाचार्य के बीच मतभेद पर भी विस्तार से चर्चा मिलती है।

छठे शीर्षक ‘वार्ता साहित्य में उल्लिखित विशिष्ट व्यक्ति’ के भीतर उन कवियों, धर्माचार्यों एवं शासक वर्ग के व्यक्तियों का उल्लेख है, जो आचार्य वल्लभ अथवा गोस्वामी विट्ठलनाथ के समकालीन थे तथा किसी न किसी रूप में इनके संपर्क में आए थे। इसी क्रम में इनका उल्लेख वार्ता ग्रंथों में भी आया है। कवियों में ताज, रसखान, भगवान दास, रामराय, पुरोहित, पृथ्वी सिंह, तानसेन, बीरबल, गोविंद स्वामी, तुलसीदास, नंद दास, गंगाबाई, कृष्ण दास और कुंभन दास का उल्लेख मिलता है।[3] धर्माचार्यों में केशव भट्ट कश्मीरी, हित हरिवंश, व्यास तीर्थ, हरिराम व्यास, स्वामी रामानंद का उल्लेख मिलता है।[4] शासक वर्ग के लोगों में मधुकर शाह, सिकंदर लोदी, हुमायूँ, अकबर, मानसिंह, टोडरमल, दाऊद, राज बहादुर/बाज बहादुर, राजा आश करण, रानी दुर्गावती का उल्लेख मिलता है।[5] इन सभी कवियों, आचार्यों एवं राज पुरुषों पर विस्तृत चर्चा मिलती है, जिससे हम इतिहास का कुछ फ्रेम बना सकते हैं। प्रायः इस तरह के ग्रंथ संप्रदाय तक सीमित रह जाते हैं एवं सामान्य अध्येताओं तक नहीं पहुँच पाते अतः कई सारे तथ्य अध्ययन के दायरे में नहीं आ पाते। भारतीय इतिहास की यह सबसे बड़ी समस्या रही है।

शेष पाँच शीर्षकों में वार्ता साहित्य में वर्णित समाज, पुष्टिमार्गीय साहित्य, उसकी भाषा, उसके लेखक एवं जन भगवान दास की वार्ता पर विचार किया गया है। वार्ता में वर्णित समाज में  जाति का वर्गीकरण, विवाह, मृत्यु आदि संस्कारों की पद्धति का जो वर्णन मिलता है, उसपर विस्तृत चर्चा की गयी है। इसके उपरांत पुष्टि संप्रदाय के आचार्यों की रचनाओं का उल्लेख है। फिर वार्ताओं की भाषा का उल्लेख है, जिसमें मुख्यतः चौरासी वैष्णवन की वार्ता और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता की भाषा की चर्चा की गयी है। इन दोनों की भाषा वैसे तो ब्रजभाषा ही है किंतु क्रिया रूपों में अंतर है।[6] अंत में लेखक ने वार्ता के रचनाकार पर तार्किक ढंग से विचार किया एवं इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि “वार्ताओं के रचयिता अनेक थे, आज उनके नाम और परिचय का पता लगाना संभव नहीं लगता। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि साधारण प्रति की अधिकांश वार्ताएं पहले रची गयीं और फिर उनमें परिवर्तन का काम हरिराय जी की आड़ लेकर संपन्न किया गया।”[7] ‘जन भगवान दास की वार्ता’ शीर्षक के अंतर्गत भी वार्ता-ग्रंथों के भावनात्मक संस्करण के संपादन संबंधी भ्रांति को दूर करने का प्रयास किया गया है। लेखक उपेन्द्रनाथ राय तीन बिंदुओं में निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं – पहला कि वार्ता के भावनात्मक संस्करण और भावप्रकाश दोनों के वार्ताकार एक ही हैं। दूसरा इन दोनों से हरिराय जी का कोई संबंध नहीं है, इनका नाम केवल सम्प्रदाय की मान्यता तथा प्रचार पाने के लिए जोड़ा गया। तीसरा गोकुलनाथ जी के नाम से प्रचारित होते हुए भी संख्यात्मक संस्करण अर्थात वार्ता की साधारण प्रतियाँ उनकी अपनी कृति नहीं हैं।[8] 

इस किताब की कुछ सीमाएं भी हैं मसलन वर्तनी की अशुद्धियाँ बहुत ज्यादा हैं। प्रूफ की कमी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। सैद्धांतिक रूप से इतिहास की जो धारणा लेखक ने अपनायी है, तटस्थ है। वे इतिहास को विज्ञान के रूप में देखने का प्रयास करते हैं, जबकि इतिहास विज्ञान नहीं हैं। वर्तमान युग इतिहास की धारणा को सापेक्षिक रूप में अपनाता है। बहरहाल संक्षेप में कहा जा सकता कि तमाम सीमाओं के बावजूद यह किताब बेहद महत्वपूर्ण है। मध्यकाल के वैष्णव भक्तों पर शोध करने वाले शोधार्थियों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण सामग्री है। इसमें लेखक ने बेहद सूझ-बूझ और तार्किक ढंग से तथ्यों का विवेचन विश्लेषण किया है। उनकी दृष्टि में धार्मिक तथ्य और ऐतिहासिक तथ्यों में अंतर है। यह किताब लेखक के 12 वर्षों के शोध और अध्ययन का परिणाम है। इन तमाम बिंदुओं पर विचार करते हुए इस किताब को पढ़ा जा सकता है।

संदर्भ :

[1] राय, उपेन्द्र नाथ; वार्ता साहित्य और इतिहास; राजमंगल प्रकाशन, अलीगढ़; 2022; पृष्ठ संख्या : 37-38
[2] वही; पृष्ठ संख्या : 46
[3] वही; पृष्ठ संख्या : 213-274 
[4] वही; पृष्ठ संख्या : 309-325
[5] वही; पृष्ठ संख्या : 275-309
[6] वही; पृष्ठ संख्या : 392
[7] वही; पृष्ठ संख्या : 411
[8] वही; पृष्ठ संख्या : 419 


कुमुद रंजन मिश्र
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालयवाराणसी,
(डॉक्टोरल फ़ेलो, आई. सी. एस. एस.आर. नई दिल्ली)
kranajan@bhu.ac.in


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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