शोध आलेख : शंकरदेव तथा उनके समकालीन कवियों का हिंदी साहित्य / डॉ. दिगंत बोरा

शंकरदेव तथा उनके समकालीन कवियों का हिंदी साहित्य
डॉ. दिगंत बोरा


शोध सार : हिंदी भाषा तथा साहित्य के विकास में हिंदी प्रदेशों के साथ-साथ हिंदीतर प्रदेशों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। असम के संत कवियों की रचनाएँ असमिया के साथ-साथ ब्रजबुलि भाषा में भी हैं। शंकरदेव तथा उनके समकालीन कवियों ने जिस ब्रजबुलि भाषा का प्रयोग किया हैं। वह जितनी असमिया की है, उतनी ही हिंदी की है। ब्रजबुलि भाषा का हिंदी से अभिन्न संबंध है। उस भाषा में मगही, बांगला, असमिया भाषा का प्रयोग देखने को मिलते हैं। असम की संस्कृति तथा समाज सुधारक महान कवि शंकरदेव ने अपनी रचनाएँ असमिया के साथ ब्रजबुलि में भी की है। उन्होंने बरगीत तथा नाटकों की रचना ब्रजबुलि में की है। उन्होंने अपनी रचनाओं की सहायता से असमिया समाज में फैली असमानता, जाति-भेद को दूर करके नाम धर्म का प्रचलन किया है। शंकरदेव के शिष्य माधवदेव ने भी असमिया भाषा के साथ-साथ ब्रजबुलि में रचनाएँ की है। उन्होंने नाटक और बरगीतों की रचना ब्रजबुलि में की है। उनकी रचनाओं में भक्ति की प्रधानता है। उनकी रचनाओं में दास्य भाव, सख्य भाव, वात्सल्य भाव की झलक देखने को मिलती है। माधवदेव के साथ-साथ उनके समकालीन सभी कवियों ने भी अपनी रचनाएँ असमिया भाषा के साथ-साथ ब्रजबुलि में भी की हैं। जिनमें से भूषण द्विज, गोपाल आता, रामचरण ठाकुर, दैत्यारि ठाकुर, श्रीराम आता आदि प्रमुख कवि हैं। सभी कवियों की रचनाओं में भक्ति भावना की प्रधानता हैं। असम में भक्ति के प्रचार तथा प्रसार के लिए इन कवियों में भागवत को आधार बनाकर अपनी लेखनी चलायी है।

बीज शब्द : ब्रजबुलि, असमिया, संस्कृति, बरगीत, नाम धर्म

प्रस्तावना : डॉ. मलिक मोहम्मद ने लिखा है कि – “यह (हिंदी) किसी संप्रदाय विशेष अथवा प्रदेश विशेष की भाषा न होकर संपूर्ण राष्ट्र की भाषा है और इस पर सबका समान अधिकार है। भारतीय सामाजिक संस्कृति की जितनी स्पष्ट अभिव्यक्ति हिंदी भाषा और साहित्य के माध्यम से हुई है, उतनी किसी दूसरी भारतीय भाषा से नहीं। प्रारंभ से ही इसका विकास अखिल भारतीय भाषा माध्यम के रूप में हुआ है। हिंदी का जो विपुल साहित्य हमें उपलब्ध है, उसके निर्माण में अनगिनत अहिंदी भाषी साहित्यकारों ने अमूल्य कार्य किया है।”[1] मलिक मोहम्मद का यह कथन असम में हिंदी भाषा तथा साहित्य के विकास के बारे में अपवाद नहीं है। असमिया समाज और संस्कृति में भी प्राचीन काल से ही हिंदी भाषा का प्रयोग देखने को मिलता है। जिसका प्रमाण हमें नाथ तथा सिद्ध साहित्य में मिलता है। डॉ. सी. इ. जीनी अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि – “हिंदी साहित्य के लेखक हिंदी के प्रारंभिक साहित्यकारों में सिद्धों और नाथों का भी उल्लेख करते हैं और इस दृष्टि से सरहपा को हिंदी का पहला कवि स्वीकार करते हैं। जिन्हें असम के बहुत से विद्वान कामरूप जिले के रानी(राज्ञी) गाँव का निवासी मानते हैं।”[2] इस दृष्टि से असम में हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल से ही हिंदी भाषा में साहित्य की रचना हुई है। असम में भी अनेक संत कवियों ने हिंदी भाषा में अपने विचारों को जनता सामने अभिव्यक्त किया है। मध्यकालीन असम में नववैष्णव धर्म का प्रवर्तक महापुरुष श्री मंत शंकरदेव ने असमिया के साथ-साथ ब्रजबुलि भाषा में भी रचना की हैं। परेशचंद देववर्मा लिखते हैं कि – असम और बंगाल में ब्रजभाषा के ही एक रूप ब्रजबुलि में अनेक कवियों कविताएँ लिखी थी। श्रीमंत शंकरदेव की कविता इसका प्रमाण है।”[3] असम में प्राचीन काल से ही हिंदी भाषा लोकप्रिय थी। जिसके कारण मध्यकालीन असमिया भक्त कवियों ने हिंदी भाषा का ही एक रूप ब्रजबुलि में साहित्य रचना की। डॉ. कृष्ण नारायण प्रसाद मागध ने श्रीमंत शंकरदेव की भाषा ब्रजबुलि के बारे में लिखते हैं कि – “वह आधुनिक अर्थ में हिंदी नहीं है। साथ ही असमी, बंगला और उड़िया भी नहीं है। दूसरी और वह जितनी हिंदी की है, उतनी ही असमी की भी। उसमें प्राचीन असमी के प्रयोग खोजे-पाए जा सकते हैं पर उसे असमी नहीं कहा जा सकता। असल में यह पूर्वज भाषा है-पूर्वजा है। हिंदी पर उनका आधिपत्य है, वह हिंदी की है। कदाचित इसी कारण डॉ. भोलानाथ तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी भाषा’ में ब्रजबुलि को हिंदी की एक बोली के रूप में स्वीकार किया है। उसमें ब्रज का प्रायः अधिकांश रूप सुरक्षित है। ब्रजी में रचित रचनाएँ जिन अर्थों में हिंदी के अंतर्गत स्वीकृत और मान्य होती रही है, उन अर्थों में ब्रजावली को भी हिंदी कह सकते है। ब्रजावली उत्तरी भारत की भाषिक और साहित्यिक एकता की विधायी परिणति है।”[4] श्रीमंत शंकरदेव तथा उनके शिष्यों द्वारा ब्रजबुलि में रचित साहित्य तत्कालीन उत्तरी भारत के साहित्यकार द्वारा रचित साहित्य के अधिक निकट है। मध्यकालीन असमिया कवियों ने ब्रजबुलि भाषा अनेक रचनाएँ लिखी हैं। उनके द्वारा रचित नाटक, काव्य की भाषा ब्रजबुलि है। जो हिंदी की उपभाषा ब्रजावली के निकट है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मगही, मैथिली, भोजपुरी आदि बोली के ज्ञाताओं के लिए ब्रजबुलि सहज संप्रेषणीय हैं।

मूल आलेख : असम में हिंदी साहित्य का विकास मध्यकालीन भक्त तथा संत कवियों की रचना से हुआ। श्रीमंत शंकरदेव तथा उनके शिष्यों ने असमिया भाषा के साथ-साथ ब्रजबुलि भाषा में भी साहित्य रचना की हैं। महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव का साहित्य असमिया समाज और संस्कृति के लिए युगानतकारी सिद्ध हुआ है। उन्होंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा से न केवल असमिया संस्कृति और साहित्य में विपुल अवदान दिया है, बल्कि असमिया समाज को नयी दिशा भी प्रदान की है। उन्होंने असमिया समाज से जाति-भेद, वर्ण-वैषम्य को दूर करके एकशरणीया भागवती नाम धर्म का प्रचार किया। प्रो. भुपेंद्र राय चौधरी लिखता है कि – “शंकरी यानी शंकरदेवकालीन युग असमिया साहित्य का स्वर्ण युग है। असम में नववैष्णव धर्म के प्रवर्तक शंकरदेव(सन् 1449-1568 ई.) ने पन्द्रहवीं शती में भारतवर्ष में व्याप्त भक्ति-आंदोलन को देखते हुए इसके महत्व को समझा। उन्होंने ‘एकशरणीया भागवती नाम-धर्म’ के माध्यम से असम में नववैष्णव आंदोलन को चलाया। ‘गीता’ से ‘एकशरण तत्व’ और भागवत से ‘ भक्ति तत्व’ को लेकर नाम-धर्म का प्रचार-प्रसार कराया।”[5] महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव ने उत्तरी भारत में तीर्थ यात्रा पर जाकर भक्ति आंदोलन की भूमिका को समझ गये थे कि भक्ति के माध्यम से ही समाज में एकता लायी जा सकती है। असमिया समाज में व्याप्त जाति-भेद, अस्पृश्यता को समाप्त कर एकता की स्थापना केवल भक्ति की सहायता से हो सकती है। जिसके लिए उन्होंने असमिया समाज और संस्कृति में एकता की स्थापना के लिए नाम धर्म का प्रचार किया। इसलिए नामघर की स्थापना करके एकता लाने का प्रयास किया। श्रीमंत शंकरदेव ने अपनी रचनाओं के द्वारा असमिया समाज और संस्कृति में भक्ति धारा का प्रचार किया। समाज में व्याप्त अनेकता को दूर करके एकता स्थापित करने का प्रयास किया। जिस कार्य में उन्हें सफलता भी मिली।

            शंकरदेव की रचनाएँ संस्कृत, असमिया और ब्रजबुलि तीनों भाषाओं में मिलती हैं। श्रीमंत शंकरदेव ने ब्रजबुलि भाषा में बरगीत और नाटकों की रचना की है। “बरगीत(गीत संख्या 47), नाटक जिनकी संख्या छः है और वे इस प्रकार हैं – कालियदमन नाट, केलिगोपाल नाट, रुक्मिणी हरण नाट, पारिजात हरण नाट, राम विजय नाट, पत्नी प्रसाद। इनके अतिरिक्त भटिमा(चपय) ब्रजबुलि की रचना ठहरती है।”[6]

बरगीत : श्रीमंत शंकरदेव और माधव देव द्वारा विरचित भक्ति प्रधान गीत समूह को बरगीत की संज्ञा दी जाती है। बरगीत और भटिमा ने असमिया समाज और संस्कृति में भक्ति आंदोलन की धारा प्रबल करने में महत्वपुर्ण योगदान दिया। महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव तथा माधवदेव द्वारा विरचित भक्ति प्रधान गीत समूह का नामकरण बाद के वैष्णव भक्तों ने बरगीत रखा। “डॉ. महेश्वर नेउग ने विषयवस्तु की गंभीरता, सूर, भाषा तथा चौदह प्रसंग(दिन में चौदह बार कीर्तन, नाम स्मरण करना) के अंघीभूत रूप पर विचार करते हुए वरगीत की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है। कालिराम मेधी ने इसे ‘महान गीत’, देवेंद्र नाथ बेजबरुआ ने पवित्र गीत की संज्ञा दी है।”[7] डॉ. सत्येंद्र नाथ शर्मा ने वरगीत नामकरण के बारे में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि – “दर असलते विषयवस्तुर महत्व, रचनागंभीर सौष्ठव आरु शास्त्रीय सूरर गांभीर्य आरु कल्पनार संयमे महापुरुष द्वारा रचित गीतिसमूहक समसामयिक आन शास्त्रीय सूरयुक्त गीतर परा पृथक करिछे आरु एइ कारणेइ इयाक साधारण गीतर विपरीते बरगीत बोला हल।”[8] अर्थात असमिया साहित्य के विद्वान डॉ. सत्येंद्र नाथ शर्मा ने बरगीत के नामकरण पर अपना मत व्यक्त करते हुए कहते हैं कि शंकरदेव द्वारा विरचित इन गीतों को तत्कालीन दूसरे रचनाकार द्वारा रचित शास्त्रीय गीतों से पृथक करने के लिए ही इन गीतों को बरगीत नाम दिया गया। क्योंकि शंकरदेव द्वारा विरचित गीतों की महत्ता दूसरे रचनाकार द्वारा रचित शास्त्रीय गीतों से भिन्न हैं। तथा विषयवस्तु की दृष्टि से भी ये गीत दूसरे रचनाकार द्वारा विरचित गीतों से भिन्न ठहरते हैं।

            श्रीमंत शंकरदेव ने अपनी तीर्थ यात्रा के दौरान वरगीत की रचना की होगी। ‘मन मेरी राम चरनेहु लागे’ शंकरदेव द्वारा विरचित पहला बरगीत है। इसके पश्चात शंकरदेव ने समय-समय पर अनेक बरगीत रचते गए। गुरुचरित में जिनकी संख्या 240 बताई गयी है। जिसकी भाषा ब्रज है। बरगीत में भक्ति भावना की प्रधानता है। इन गीतों में ईश्वर की महिमा का वर्णन होने के साथ-साथ संसार की क्षणभंगूरता, जगत में माया की प्रधानता आदि का वर्णन हैं। शंकरदेव द्वारा रचित बरगीतों में दास्य भाव की प्रधानता है। एक उदाहरण निम्नलिखित है –

“मन मेरि राम चरणहि लागु।

तइ देखना अंतक आगु॥

मन आयु क्षणे क्षणे टूटे।

देखू प्राण कोन दिने छूटे॥

********************

मन जानिया शंकरे कहे।

देखा राम बिने गति नहे॥”[9]

इस बरगीत में शंकरदेव ने राम की महिमा तथा जगत की क्षणभंगूरता को रूप प्रदान किया है। कवि ने अपनी दास्य भाव की भक्ति को दर्शाते हुए कहते हैं कि राम के बिना इस संसार से मुक्ति असंभव है। राम की कृपा ही हमें इस मायामय जगत से मुक्ति दिला सकती है। सभी जीव क्षणभंगूर हैं। सभी की उम्र हर पल कम हो रही है। पता नहीं किस वक्त यह प्राण इस दुनिया से चली जाय। बरगीत के माध्यम से कवि शंकरदेव ने संसार की क्षणभंगूरता को रूप प्रदान किया है।

कमलनारायण देव बरगीत के बारे में अपना मत अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं कि – “वरगीत के कवि पहले धर्म प्रचारक है, पीछे कवि। वरगीतों की कविता भावात्मक और व्यक्तित्व प्रधान हो गयी। वरगीत की भक्ति शुद्ध भक्ति नहीं है। उसमें समंवित है- गंभीर निर्वेद और्र शांत रस की आध्यात्मिक मनोवृत्ति।”[10]

शंकरदेव ने भटिमा की रचना भी ब्रजबुलि भाषा की है। प्रशंसामूलक गीतों को भटिमा कहा जाता है। शंकरदेव की भटिमा को तीन श्रेणियों में बाँटा जाता है – नाटकीय भटिमा या नाट भटिमा, देव भटिमा और राज भटिमा। नाटकों के प्रारंभ तथा अंत में प्रस्तुत भटिमा को नाट भटिमा कहा जाता है। देव भटिमा में देवता की स्तुति की जाती है। राज भटिमा में राजाओं के गुणगान प्रस्तुत किया जाता है। “कालि दमन का ‘जय जय जगत महेश्वर’ पारिजात हरण का ‘जय जय यादव देव’ जैसे गीतों को भटिमा कहा जाता है।”[11]

शंकरदेव ने नाटकों की रचना ब्रजबुलि में की है। उनके द्वारा रचित नाटकों की संख्या छः हैं। जो निम्नलिखित हैं- पत्नी प्रसाद, कालियदमन नाट, केलिगोपाल नाट, रुक्मिणी हरण, पारिजात हरण, राम विजय हैं। उनके नाटकों का आधार भागवत है। पत्नी प्रसाद नाटक भागवत के दशम स्कंध के 23वें अध्याय पर आधारित है। कालीयदमन नाट की कथा भागवत पर आधारित है। इस नाट शंकरदेव ने कृष्ण द्वारा काली नाग के दमन की कथा को नाटक का रूप प्रदान किया है। रुक्मिणी हरण नाट का कथावस्तु भी भागवत है। इसमें शंकरदेव ने कृष्ण-रुक्मिणी विवाह का वर्णन किया है। “उनकी बहुज्ञता, कलाप्रियता, भारतीय जीवन की समग्रता और एकात्मकता, समंवयात्मक बुद्धि, लोकमंगलकारिणी, दृष्टि इत्यादि के विचार से तदयुगीन अद्वितीय उपलब्धि है। वे उनकी युग प्रवर्तक प्रतिभा के परिचायक है। नाटकों में जीवन की तिक्तता, कसैलापन और मिठास सभी कुछ  है। शंकरदेव का भावुक कवि जैसे नाटकों में जीवन को वास्तविक धरातल पर उतर लाने में सफल हो गया है।”[12]

शंकरदेव के समान उनके शिष्य माधवदेव ने भी असमिया और ब्रजबुलि दोनों भाषाओं में रचना की थी। उन्होंने ब्रजबुलि भाषा में नाटक और बरगीत की रचना की है। ब्रजबुलि भाषा में रचित उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं – 1. बरगीत, 2. भटिमा, 3. अर्जुन मंजन, 4. चोर धरा झुमुरा, 5. भूमि लेटोवा झुमुरा 6. पिप्मरा गुचोवा, 7. भोजन व्यवहार झुमुरा, 8. ब्रह्म विमोहन झुमुरा, 9. भूषण हेरोवा झुमुरा, 10. कोटोरा खेलोवा झुमुरा, 11. रास झुमुरा

उक्त सभी रचनाओं का आधार पुराण, भागवत, रामायण और महाभारत है। माधवदेव द्वारा विरचित बरगीतों में बाल कृष्ण की विविध लीलाओं का वर्णन मिलता है। उदाहरण –

 “गोविंद दुध पिउ दुध पिउ बोलेरे यशोवा।

दुध ना खाया हरि कांदे ओवा ओवा॥

अरुण अधर मुरि कांदे यदुमणि।

चांद मुखे बलाई लओ बोलेरे जननी॥

                                                                    *****************

          कहय माधव दास बर अगियान।

           ओहि भाव सुमरि छुटोक मेरि प्राण॥”[13]

            माधवदेव द्वारा रचित गीतिकाव्य की विशेषताओं को बताते हुए डॉ. कृष्णनारायण प्रसाद मागध कहते हैं कि – “गीतिकाव्य का संपूर्ण माधुर्य माधवदेव के गीतों में प्राप्त है। दैन्य और आत्म निवेदन के गीत जहाँ ह्रदय को बेधते है, वही कृष्ण की बाल क्रीड़ा से संबंधित पद्य नवीन रूप में उल्लसित भी करते हैं। कृष्ण की चतुराई, ढिठाईन बतकटइ, बहाने-बाजी, छेड़छाड़,जिद, होडा-होडी आदि ऐसी अनेक मनोहारी चेष्टाए हैं। .......... भाषिक दृष्टि से भी इनके साहित्य का अधिक महत्व है।”[14]

            गोपाल आता ने ब्रजावली भाषा में दो नाटकों की रचना की है- जन्म यात्रा और गोपी उद्धव संवाद नाट। जन्म यात्रा में भागवत के आधार पर श्रीकृष्ण के जन्म की कथा का वर्णन है। गोपी उद्धव संवाद में गोपी और उद्धव के संवादों को नाटक का रूप दिया है। “गोपी उद्धव संवाद की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि कवि ने जो कुछ एक दो पदों में कह दिया है, उसे अनेक कवि बीसियों पदों तक नहीं कह पाये। यह समास शैली सचमुच स्तुत्य है।”[15]

            डॉ. कृष्णनारायण प्रसाद मागध गोपाल आता के बारे में लिखते हैं – “ ‘जन्म यात्रा’ में श्री कृष्ण के जन्म से लेकर नंद द्वारा पुत्रजन्मोत्सव मनाए जाने की भागवतीय कथा को कथावस्तु का रूप दिया गया है। ....... इनके नाटकों में भी भाषा प्रायः शंकरदेव के समान ही सार्वदेशिक प्रवृत्तियों से ओत-प्रोत है।”[16]

            रामचरण ठाकुर ने कंस वध नाटक की रचना ब्रजावली भाषा में की है। इस नाटक का आधार भी भागवत ही है। उनके नाटकों में प्रयुक्त भाषा का एक उदाहरण प्रस्तुत है –

“जय जय कृष्ण पूर्ण अवतारी।

जय जय कृष्ण भक्त भय हारी॥

जय जय कृष्ण ब्रह्म अविकारी।

जय जय कृष्ण कृष्ण वन आधारी॥”[17]

            भूषण द्विज शंकरयुगीन कवि है। भूषण द्विज का एक ही नाटक उपलब्ध है। जिसकी भाषा ब्रजावली है। उनके नाटक का नाम ‘अजामिल उपाख्यान नाट’ है। उनके इस नाटक का आधार भागवत है। परंतु नाटककार ने कथावस्तु में कई परिवर्तन किए हैं। उन्होंने इस नाटक में लेखकीय स्वतंत्रता का अनेक स्थानों पर प्रयोग किए हैं।

“हरि हरि मोर गति, कांदे बिप्र भूमि लुटि

सोके आति परि दुख मने

मोर महा उपकारि, कैक दिला बांध छारि

आगे देखा दिया एतिक्षणे।”[18]

            डॉ. सी. इ. जीनी दैत्यारि ठाकुर के बारे में लिखते है - “अब तक कि जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि दैत्यारि ठाकुर ने ‘नृसिंह यात्रा’ और ‘स्थमंतकहरण’ नाम के दो नाटकों की ब्रजबुलि में रचना की थी। ये दोनों ही नाटक प्राचीन भाषा नाटक संग्रह में देखे जा सकते हैं।”[19] डॉ. दशरथ ओझा ने दैत्यारि ठाकुर को शंकरदेव की नाट्य परंपरा का अंतिम प्रभावशाली नाटककार प्रतिपादित किया है। परंतु यह कथन वैज्ञानिक तथा तर्क सम्मत नहीं है, क्योंकि उनके पश्चात भी असम भूमि में ब्रजबुलि भाषा में नाटकों की रचना परंपरा विद्यमान रही। अनेक उत्तम तथा प्रभावशाली नाट्यकार भी हुआ। जिनकी रचनाओं में ब्रजबुलि भाषा असम प्रदेश में जीवित रही।

            इनके नाटकों में ब्रजबुलि भाषा के साथ-साथ संस्कृत श्लोकों का भी प्रयोग हुआ है। नाटकों की कथा का आधार भागवत है।

            श्रीराम आता भी शंकरदेव की नाट्य परंपरा का ही नाटककार है। उन्होंने फुटकल पद्य और अंकिया नाट की रचना ब्रजबुलि भाषा में की है। उनके नाटकों में शंकरदेव की रचनाओं का प्रभाव देखने को मिलता है। उनके द्वारा रचित पद्य में दास्य भाव की भक्ति की प्रधानता है। साथ ही इनके गीतों में बाल कृष्ण तथा माता यशोदा का भी वर्णन मिलता है। इस प्रकार के गीतों में कृष्ण की बाल लीला का वर्णन है। इनके फुटकल गीत विषयवस्तु की दृष्टि से नाटकों से अधिक महत्वपूर्ण हैं। उदाहरणार्थ :

           

“आकुले पुछत चले जसोवा जननी

काहा गैयो किवा जाने ओर यदुमणि।”[20]

            इन साहित्यकारों के अतिरिक्त रामानंद द्विज, केवल्यानंद, हरिकांत आदि ने अपने नाटकों की रचना ब्रजबुलि में किए हैं। इन साहित्यकारों ने असम भूमि पर हिंदी साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनकी रचनाओं से ही असम प्रदेश में हिंदी भाषा तथा साहित्य प्रचार, प्रसार होता है। असम में हिंदी भाषा में लेखन कार्य आदिकाल से प्रारंभ होता है। हिंदी के आदिकालीन कवि सरहपाद का जन्मस्थान बहुत से विद्वान ने असम स्वीकार किए हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि असम में हिंदी साहित्य का विकास सरहपाद की रचनाओं से शुरुआत होती है। शंकरदेव तथा उनकी परंपराओं के संत कवियों ने असमिया भाषा के साथ ब्रजावली में अपनी लेखनी चलायी है। उन रचनाकारों की रचनाओं में भक्ति भाव की प्रधानता रही हैं। ब्रजावली रचित सभी रचनाओं का आधार भागवत, पुराण हैं। जिसके आधार पर असमिया संत कवियों में असमिया समाज तथा संस्कृति में भक्ति के दीप को जलाये रखा। माधवदेव के बरगीत में कृष्ण की बाल लीलाओं का सजीव वर्णन मिलता है। असमिया संत कवियों ने बरगीत, फुटकल पद्य आदि ब्रजावली भाषा में हैं। हिंदी साहित्य के संत कवियों की तरह ही असम के संत कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से असम में भक्ति की धारा प्रवाहित की हैं।

संदर्भ :

[1] डॉ. सी. इ. जीनी, पूर्वांचल प्रदेश में हिंदी भाषा और साहित्य, वाणी प्रकाशन, संस्करण : 2007, पृष्ठ – 189

[2] वही, पृष्ठ- 189

[3] वही, पृष्ठ – 189

[4] डॉ. मलिक मोहम्मद, हिंदी साहित्य को हिंदीतर प्रदेशों की देन, पृष्ठ – 175

[5] प्रो. भूपेंद्र राय चौधरी, असमिया साहित्य निकष, गौहाटी विश्वविद्यालय प्रेस, संस्करण : 2021, पृष्ठ – 21

[6] डॉ. सी. इ. जीनी, पूर्वांचल प्रदेश में हिंदी भाषा और साहित्य, वाणी प्रकाशन, संस्करण : 2007, पृष्ठ –191

[7] डॉ. अलख निरंजन सहाय, असमिया साहित्य का परिचयात्मक इतिहास, महावीर पब्लिकेशंस, प्रथम संस्करण : 2014, पृष्ठ – 109-110

[8] वही, पृष्ठ – 110

[9] प्रो. भूपेंद्र राय चौधरी, असमिया साहित्य निकष, गौहाटी विश्वविद्यालय प्रेस, संस्करण : 2021, पृष्ठ –56

[10] डॉ. अलख निरंजन सहाय, असमिया साहित्य का परिचयात्मक इतिहास, महावीर पब्लिकेशंस, प्रथम संस्करण : 2014, पृष्ठ – 111

[11] वही, पृष्ठ -112

[12] डॉ. मलिक मोहम्मद, हिंदी साहित्य को हिंदीतर प्रदेशों की देन, पृष्ठ –176

[13] प्रो. भूपेंद्र राय चौधरी, असमिया साहित्य निकष, गौहाटी विश्वविद्यालय प्रेस, संस्करण : 2021, पृष्ठ –60

[14] डॉ. मलिक मोहम्मद, हिंदी साहित्य को हिंदीतर प्रदेशों की देन, पृष्ठ –177

[15] डॉ. सी. इ. जीनी, पूर्वांचल प्रदेश में हिंदी भाषा और साहित्य, वाणी प्रकाशन, संस्करण : 2007, पृष्ठ –196

[16] हिंदी साहित्य को हिंदीतर प्रदेशों की देन, डॉ. मल्लिक मोहम्मद, पृष्ठ – 177

[17] डॉ. सी. इ. जीनी, पूर्वांचल प्रदेश में हिंदी भाषा और साहित्य, वाणी प्रकाशन, संस्करण : 2007,  पृष्ठ – 197

[18] वही, पृ – 198

[19] वही, पृ – 199

[20] डॉ. सी. इ. जीनी, पूर्वांचल प्रदेश में हिंदी भाषा और साहित्य, वाणी प्रकाशन, संस्करण : 2007, पृष्ठ –200

 

डॉ. दिगंत बोरा
सहायक प्राध्यापक (हिंदी), जे.डी.एस.जी. महाविद्यालय, बोकखात, असम


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
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