आलेख : चेरुश्शेरी-एष़ुत्तच्छन-पूंतानम (केरल के भक्ति आंदोलन के पुरोधा) / प्रो. प्रभाकरन हेब्बार इल्लत

चेरुश्शेरी-एष़ुत्तच्छन-पूंतानम
(केरल के भक्ति आंदोलन के पुरोधा)
- प्रो. प्रभाकरन हेब्बार इल्लत

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            मलयालम भाषा एवं साहित्य के अध्ययन किए जाने पर लगता है कि पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में जिस नवीन जागरण की चेतना की लहर दौड़ रही थी, उसका नेतृत्व मुख्य रूप से चेरुश्शेरी नंपूतिरि, तुंचत्त रामानुजन एष़ुत्तच्छन और पूंतानम नंपूतिरि ने किया था। किस सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति में इन पुरोधाओं का आविर्भाव हुआ था, यह जानने के लिए इतिहास के पन्ने पलटने पडेंगे। इतिहास में यह दर्ज है कि बारहवीं शताब्दी तक आते-आते चेर राजाओं के विपुल साम्राज्य का पतन हो गया था और इसके परिणामस्वरूप छोटी-छोटी रियासतों का उदय हुआ था। तद्पश्चात् इस काल में सामंतों तथा खास प्रभुवर्ग का वर्चस्व सांस्कृतिक जीवन में रहा था। ‘वेणाड’, ‘ओडनाड’, ‘पेरुंपडप्पु स्वरूपम’ (कोच्ची), ‘नेडियिरिप्पु स्वरूपम्’ (कोषिक्कोड़), ‘कोलत्तिरि’, ‘मुन्नाड’, ‘पोलनाड’, ‘कुरम पुरुयूर नाड’ जैसे करीब चौदह रियासतें चौदहवीं शताब्दी में केरल में थीं और पंद्रहवीं शताब्दी तक आते-आते इन रियासतों की संख्या करीब पैंतीस तक पहुंच गई। इन रियासतों के बीच सत्ता-संपत्ति आदि के नाम युद्ध, हस्तक्षेप आदि हुआ करते थे। इनसे समाज में संघर्ष, अशांति, नैतिक अधःपतन, अराजकता आदि छा जाने लगे। ऐतिहासिक दृष्टि से इसी काल में केरल में विदेशी पुर्तगाली उपनिवेशकों का आगमन का भी प्रारंभ होता है। हम जानते हैं कि 1498 में केरल के कोष़िक्कोड जिले के काप्पाड में वास्कोडगामा ने अपने वाणिज्य और व्यापार के लिए पैर रखे। उपनिवेशी शक्तियां अपनी उपनिवेशवादी नीति का अनुसरण करते हुए व्यापार-वाणिज्य कारोबारों के साथ अपनी सांस्कृतिक योजना के तहत केरल के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप कर रही थीं, यहां की जनता को धर्मांतरित करने की कोशिशें भी की जा रही थीं। विविधात्मक संकट के काल में आर्थिक मंदी फैलती गई, सामाजिक विषमताएं परसती गईं, खेती का भ्रंश हुआ। इस काल में समाज में जाति-व्यवस्था भी अपने ज़ोरों पर थी। इस कारण समाज में नंपूतिरि ब्राह्मणों का आधिपत्य रहा है। वे विविधात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक उपकरणों के माध्यम से जाति व्यवस्था को तवज्जो देते रहे। साथ ही सामंत वर्ग-प्रभु वर्ग-देवदासी की धुरी तत्कालीन केरलीय समाज के विभिन्न जीवन परिवेशों को नियंत्रित कर रही थी। तत्कालीन समाज की अनेक रचनाएं इस तथ्य के प्रमाण हैं। ‘उण्णियाड़ी चरितम्’, ‘उण्णिच्चिरुतेवी चरितम्’, ‘उण्णियच्ची चरितम्’ आदि कृतियों की नायिकाएं देवदासियां ही रही हैं और इनमें सामंती विलासिता का भरपूर अंकन हुआ है। इन रचनाओं को साहित्यिक आलोचना की शब्दावली में ‘मणिप्रवाल साहित्य’ कहा जाता है।

मणिप्रवाल साहित्य मध्यकालीन केरलीय साहित्य का प्रमुख साहित्यिक आंदोलन रहा है। साहित्यिक भाषा, वस्तु, शैली, सौंदर्यात्मक स्तर पर यह आंदोलन अनुपम रहा है। दसवीं व ग्यारहवीं शताब्दी में इस काव्य लेखन पद्धति का प्रारंभ हुआ था, पर तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी तक आते-आते यह समृद्ध होकर विकास के पथ पर अग्रसर होता दिखाई देता है। साहित्य का अध्येता इस बात से परिचित है कि इस काल तक आते-आते ‘चेन्तमिल भाषा एवं साहित्य’ के प्रति एक प्रकार की वितृष्णा का भाव केरल के नंपूतिरि ब्राह्मण में देखने को मिलता है। द्रविड़ संस्कृति एवं सभ्यता तथा भाषिक संस्कृति केरल के नंपूतिरि ब्राह्मणों की संस्कृति के अनुकूल नहीं थी। प्रबल रूप से चलती आ रही तमिल साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा के साथ उन्हें संघर्ष करना पड़ा। अपनी संस्कृति एवं सभ्यता के विकास को लक्षित करते हुए उन्होंने संस्कृत साहित्य, व्याकरण, मीमांसा, ज्योतिष आदि का प्रचार करना चाहा। इसलिए स्वाभाविक रूप से तत्कालीन केरलीय समाज में प्रचलित मलयालम व संस्कृत भाषा का मिश्रण करके एक नवीन भाषा को विकसित करने का प्रयास उन लोगों ने किया, वही ‘मणिप्रवालम्’ है, उसी में लिखा गया साहित्य ‘मणिप्रवाल साहित्य’ कहा जाने लगा। पहले से ही समाज में स्थित जातिगत वर्चस्व के तले अपने लक्ष्य को साकार करने हेतु नवीन भाषा व साहित्यिक आंदोलन को विकसित करना एकदम असंभव भी नहीं था। संस्कृत व तमिल भाषा के प्रभाव से परिपूर्ण मलयालम भाषा के सम्मिश्रण को सूक्ष्म रूप में आर्य-द्रविड़ संस्कृति के सम्मिलन के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। इसी काल में अपने साहित्यिक और सांस्कृतिक अभियान को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से नूतन कलात्मक विधाओं का विकास भी किया गया। ‘कूत्तु’, ‘कूडियाट्ट्म’ जैसी मंदिर केंद्रित कला के रूप इसके उत्तम उदाहरण हैं। इनके माध्यम से केरल की सांस्कृतिक धमनियों में वेद-पौराणिक धार्मिक कहानियों का काव्यात्मक-कलात्मक पुनरुत्पादन बड़ी तादाद में किया जाने लगा था। तत्कालीन जन-समाज में प्रचलित जनसाधारण की भाषा व उसके काव्य-रूप इस उद्देश्य के लिए अनुरूप नहीं थे। इसमें मतभेद नहीं है कि हर एक ‘विचारधारा’ की अपनी अलग भाषा अवश्य होती है। इसलिए इतना कहना पर्याप्त है कि ब्राह्मण लोगों ने संस्कृत भाषा के अभ्युदय की आकांक्षी जनता, विशेषकर समाज के उच्च वर्ग के सहकार-सहयोग से केरल में विशिष्ट मणिप्रवाल साहित्य लेखन की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि सृजित की। इस साहित्य आंदोलन के सैंद्धांतिक ग्रंथ के रूप में ‘लीलातिलकम्’ की गिनती की जाती है। इस रचना में मणिप्रवाल साहित्य की कथ्य-शिल्पपरक विशेषताओं के साथ साहित्य में प्रयुक्त किए जाने वाले अलंकार-छंद आदि का भी विस्तृत प्रतिपादन किया गया है। एक प्रकार से यह कृति मलयालम भाषा का प्रथम व्याकरणिक ग्रंथ माना जाता है। लीलातिलकम के अनुसार ‘भाषासंस्कृतयोगो मणिप्रवालम है।’ कहने का मतलब यह है कि मणिप्रवालम् में मलयालम शब्दों के साथ संस्कृत भाषा के शब्दों का मणिकांचन संयोग हुआ है। इस दृष्टि से देखने पर लगता है कि ‘मणिप्रावलम्’ में प्रयुक्त ‘मणि’ शब्द मलयालम भाषा को सूचित करता है तो ‘प्रवाल’ शब्द संस्कृत भाषा का प्रतिनिधान करता है। इस शैली के व्यापक प्रचार-प्रचार से ऐसी स्थिति केरल की सांस्कृतिक परिस्थिति में कायम हुई कि मणिप्रवाल शैली में लिखी गई नवीन भाषा में यह पहचानना तक असंभव हो गया है कि कौन सा शब्द मलयालम का है और कौन सा संस्कृत का है।

मणिप्रवाल साहित्य में इस काल के नैतिक अधःपतन का पर्याप्त अंकन हुआ है। ‘चंद्रोत्सव’ शीर्षक रचना इसका उत्तम उदाहरण है। इस प्रकार की रचनाओं में घोर कामुकता, अश्लीलता, श्रृंगारिकता आदि का दर्शन हम देख सकते हैं। मेदिनी वेण्णिलावु द्वारा संचालित इस साहित्यिक परंपरा के आश्रयदाता तो मणिक्कुलम सामंत जैसे लोग रहे हैं। इसका प्रभाव चित्रकला, मूर्तिकला आदि तक में देखा जा सकता है। इस कारण सदाचार, नैतिकता, धार्मिकता, शिक्षा आदि के माध्यम से समाज के उद्धार की भावना का विकास इस समाज में होना आश्चर्य की बात नहीं हो सकती है। केरल साहित्य का मध्यकालीन साहित्य इसका उदात्त नमूना हमारे सामने पेश करता है। एष़ुत्तच्छन ने इस कार्य में केंद्रीय भूमिका निभाई। एष़ुत्तच्छन के पूर्व ‘कण्णश्शरामायणम्’ (कण्णश्शन), ‘कृष्णगाथा’ (चेरुश्शेरी) आदि ने भक्ति के लिए उपयुक्त वातावरण निर्मित किया था। चेरुश्शेरी केरल के कोलत्तिरि राजा उदयवर्मन के आश्रित थे। आपने खुद लिखा है कि आज्ञयाकोलभूपस्य/प्रज्ञस्योदयवर्मणाः/कृतायाम कृष्णगाथायां/ कृष्णोत्पत्तिस्समीरिता। इसपर किसी केरल के साहित्य के इतिहासकारों ने आपत्ति नहीं लगाई है। इसका भी उल्लेख केरल के सांस्कृतिक इतिहास में देखने को मिलता है कि मानविक्रमन (1466-1471) के राजदरबार में ‘साढ़े अट्ठारह कवि’ (पतिनेट्टरा कवि) थे। इनमें काक्कश्शेरी दामोदरन भट्टतिरि, काक्कश्शेरी परमेश्वर भट्टतिरि, मुल्लप्पल्लि भट्टतिरि, चेन्नास नारायणन भट्टतिरि, पुनम नंपूतिरि, उद्दंड शास्त्री आदि शामिल हैं। केरल के कोष़िक्कोड सामूतिरि राजा की अध्यक्षता में ‘आश्विन’ महीने के ‘रेवती नक्षत्र’ के दिन ‘तलि मंदिर’ में संवाद सभा चलती थी। इसे ‘रेवती पट्टत्तानम’ कहा जाता था। इन कवियों को बख्शिश (किषि) दी जाती थी। इसका उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं कि तत्कालीन समाज की सांस्कृतिक गतिविधियां कितनी सक्रिय रही थीं। इसी काल में शिक्षा-दीक्षा को ध्यान में रखते हुए व्यापक पैमाने पर केरल में ‘मठों’, ‘शालाओं’, ‘ग्रंथप्पुरकल’ (ग्रंथशालाएं) आदि की स्थापना हुई थी। उपर्युक्त संस्थाओं में वेद-उपनिषद, पुराण, मीमांसा, व्याकरण आदि का अध्ययन-अध्यापन चलता था, संवाद होते थे, तर्क-सभाएं चलती थीं। यह भी उल्लेखनीय है कि जाति-व्यवस्था के कड़े बंधनों के तहत इन संस्थाओं पर केवल उच्चजाति वालों को मात्र शिक्षा प्रदान की जाती थी। निम्नजाति के लोगों की शिक्षा को ध्यान में रखते हुए ‘एष़ुत्तुपल्लिकल’ (पाठशालाएं) की स्थापना केरल भर में हुई थी। यहां पढ़ानेवाले अध्यापकों को ‘एष़ुत्तच्छन’ या ‘आशान’ पुकारा जाता था। यहां गैर-ब्राह्मण लोग वेद-शास्त्रादि की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करते थे। इस काल में ‘कलरी’ नामक संस्थाएं भी केरल में चलती थीं। उसमें आयोधन कला का अभ्यास कराया जाता था, लेकिन बारूद, तोप आदि के आविष्कार से कलरी का क्षय होने लगा। संक्षेप में इतना बताना चाहता हूं कि पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में केरल में नवीन सांस्कृतिक परिवेश का पल्लवन हुआ। इसका अनुरणन साहित्य जगत में प्रतिफलित होना एकदम स्वाभाविक है। साहित्य के जगत में यह काल युगांतकारी परिवर्तन का रहा है। इस काल में भाषिक दृष्टि से प्रादेशिक भाषा-भेदों का विकास एक ओर हुआ है, साथ ही विभिन्न साहित्यिक शैलियों का भी। इस सांस्कृतिक वातावरण में चेरुश्शेरी-एष़ुत्तच्छन-पूंतानम का आगमन होता है। आगे इनके साहित्यिक योगदान पर सार रूप में विचार किया जाएगा।

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‘कृष्णगाथा’ चेरुश्शेरी नंपूतिरि की अमर रचना है। भागवत के दशमस्कंध के आधार पर इसकी रचना हुई है। इसमें कृष्ण के जन्म से लेकर स्वर्गारोहण तक की कहानी कही गई है। कुल मिलाकर कृष्णगाथा में भागवत की सैंतालीस कहानियों का काव्यात्मक प्रतिपादन हुआ है। इसमें दो पंक्तियों में लिखी गई आठ हज़ार चार सौ काव्य-रसात्मक उक्तियां हैं। इनमें दो सौ तीस के करीब रसात्मक उक्तियों में भिन्न-भिन्न छंदों का प्रयोग किया हुआ है। काव्य-शैली में नूतनता, सूक्ष्मता, दिशा-बोध लाने में चेरुश्शेरी योगदान अतुलनीय रहा है। आधुनिक मलयालम साहित्य तक को आपकी शैली ने प्रभावित किया है। कृष्णगाथा में चेरुश्शेरी ने लिखा है कि “कालिंदी पुलिन के कानन निकुंजों को/निहार-निहारते आंखें भर जाती हैं।” आधुनिक केरल के रूमानी कवि चंगम्पुष़ा कृष्णपिल्ला ने भी समान भाव वाली पंक्तियां लिखी हैं। वह इस प्रकार है- “कालिंदी पुलिनों के कावों1 को देखते वक्त/दर्द की लहरें लहलहाती हैं दिल भर में।” दोनों कवियों में भाव की अद्भुत समानता देखने को मिलती है। काव्य प्रसंग के अनुरूप नवीन भावनाओं की उद्भावना हेतु अपने सर्जनात्मक वैभव के बल पर नवीन शब्दों का सृजन करना तो महान कवि का करिश्मा होता है। चेरुश्शेरी इस बात पर खरे उतरते हैं। कवि चेरुश्शेरी कृष्णगाथा में कहते हैं कि “चेंचेम्मेयुल्लोरु पुंचिरी काणुम्बोल/किंचना काणायी वन्नुकूडी।” (कन्हैया लाल-लाल हंसी बरसते वक्त/लाल मसूड़ा सुशोभित होता दिखाई देता है।) यहां तो ‘किंचना’ का मतलब लाल मसूड़ा होता है। बात यह है कि मसूड़ा के लिए ‘किंचना’ शब्द का प्रयोग पहली बार कवि ने अपनी रचना में किया है। इसकी अर्थवत्ता को संदर्भ के अनुरूप बिना किसी कठिनाई के पाठक आराम से ग्रहण कर पाता है, जो रसानुभूति किसी भी प्रकार की बाधा खड़ी नहीं करती है। इसके साथ ही आपने अनगिनत आम मलयालम भाषा के शब्दों को साहित्यिक दर्जा प्रदान किया है। उदाहरण के लिए ‘चेंचेम्मे’, ‘तंब’, ‘कच्चकम’, ‘मातर’, ‘तेन्नल’, ‘वारु’, ‘उण्मा’, ‘अरडी’, ‘चेवडी’ आदि। अतः आलोचक यहां तक बताते हैं कि मलयालम भाषा की सुंदरता का प्रस्फुटन पहली बार कृष्णगाथा में हुआ है। भाषा एवं भावों का मणिकांचन संयोग के साथ लोकगीतों का सुंदरतम मिश्रण आपने किया है, जो अतुलनीय रहा है। आपकी रचना में पौराणिक कथाओं का नूतन आख्यान हुआ है। इसका अनुसरण करते हुए महाकाव्यात्मकता, संगीतात्मकता, अर्थालंकार की श्रेष्ठता, छंद की उपयुक्तता, संवादात्मकता, संस्कृतनिष्ठ पदावली, महाप्राणयुक्त शब्द आदि रचना में आते हैं। ‘किलिप्पाट्टु’, ‘वंचिप्पाट्टु’ जैसे गीतों में प्रयुक्त भाषा शैलियों को स्वीकार कर उत्कृष्ट भाषा का प्रयोग चेरुश्शेरी ने किया है। उनकी रचनाओं के अध्ययन से यह भी विदित होता है कि ‘केरलीय लोरी’ (ताराट्टु पाट्टु), ‘संघमकलिप्पाट्टु’, ‘भरणिप्पाट्टु’ आदि का संगम है। इस काल की यह भी विशेषता रही है कि उदात्त काव्य-रचना पद्धति विकसित होने के कारण कवियों को पूर्ववर्ती साहित्यिक परंपरा की कथ्य-शिल्पगत पक्षों की सीमा नज़र आई। इसको सुधारने के अनेक प्रयास मध्यकालीन केरल के भक्ति साहित्य में हुए। उदाहरण के लिए अल्पप्राण का महाप्राण होना, ह्रस्व का दीर्घ होना, (सत्यवति-सत्यवती) नूतन वर्ण संयोग (राजसूय-राजस्सूय), संधि-समासयुक्त प्रयोग (अंबालिकासुत, देवकीतनय) मिश्रण (पुरूरवस्स-पुरूरवन) जैसी अनेकानेक प्रवृत्तियां इस काल की साहित्यिक सर्जनाओं में देखने को मिलती हैं। इससे यह बात साफ हो जाती है कि यह काल भाषिक प्रयोग में विपुल परिवर्तनशीलता का काल रहा है।

पौराणिक कथाओं से प्रश्रय लेते हुए इस काल के कवि अपनी मौलकिता को दर्शाते हैं। कृष्णगीताकार अपनी रचना में कृष्ण की स्तुति-वंदना के अवसर पर मायाजनित ब्रह्म तथा यथार्थ ब्रह्म के बीच के संवाद के माध्यम से ब्रह्म के अहंकार को दिखाते हैं और उसके अहंकार के नाश से माया-ब्रह्म के तिरोभाव को दर्शाते हैं। इस प्रकार कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन करते समय चेरुश्शेरी अत्यधिक स्वाभाविकता के साथ अपनी रसात्मक उक्ति के बल पर भावों की अभिव्यंजना करते हैं। दार्शनिक धरातल पर वेदांत दर्शन का अनुसरण करते हुए कवि का कहना है कि सांसारिक बंधन से मुक्ति का एकमात्र रास्ता तो वैराग्य ही है (संसारमोक्षत्तिन कारणमायतो/वैराग्यमेन्नल्ले चोल्लि केलप्पू)। चेरुश्शेरी में व्यंग्य-परिहास वृत्ति भी कम नहीं रही है। अपनी काव्यप्रतिभा की उत्कृष्टता से पूर्ण रूप से परिचित कवि अपनी रचना को गुणहीन (निर्गुण) बताकर अपनी रसिकता का परिचय इस प्रकार पेश करते हैं- “ईश्वर निर्गुण होने के कारण ही/निर्गुण (कवि का तात्पर्य गुणहीन कवि की रचना) ईश से मिलती है।” रसिकता की छोर कभी श्रृंगारिकता से जा मिलती है, पर कभी वह सामाजिक मर्यादा की सीमा लांघकर नहीं जाती है। भक्ति की आड़ में सामाजिक जीवन की उपेक्षा भी कवि नहीं करता है। भक्ति एवं मुक्ति की साधना को अपने काव्यप्रणयन की आधारशिला के रूप में स्वीकार करने वाले कवि ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण में मानवीय चेतना का आरोप करते हुए जन-मन में उसको प्रतिष्ठित किया। इस दृष्टि से चेरुश्शेरी को ‘निरणम कवि’ (माधवप्पणिक्कर, शंकरनप्पणिक्कर, रामप्पणिक्कर) की अगली कड़ी के रूप में मलयालम साहित्य के इतिहासकार स्वीकार करते हैं। जो भी हो आपकी कृतियों में सौंदर्य-भाव-संगीतात्मकता का विलयन होते हुए भी भक्ति की जो गहनता एष़ुत्तच्छन में दिखाई देती है, वह चेरुश्शेरी में नहीं आ पाई है। लोक प्रसिद्ध इतिवृत्त के आधार पर काव्य-प्रसंगों का अंकन सौंदर्यात्मक धरातल पर किए जाने पर भी छंद की एकरसता से पाठक के ऊब जाने की संभावना रहती है। लेकिन सगुण भक्त कवि चेरुश्शेरी के लिए कान्ह की सुंदर रूप ही एकमात्र आसरा है। वे लिखते हैं कि ‘कान्ह की लीला रूपधाम मन में थिरकते वक्त/और न चाह बालक-पुत्र की न रही कभी।’ आपकी रचना वैभव के प्रति केरलीय जनता हमेशा आकृष्ट रही है, इसलिए ही कृष्णगाथा का परायण ‘चिंगम’ महीने (भाद्र) में केरल के हिंदू घर-घर में किया जाता है।

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एष़ुत्तच्छन मलयालम भाषा एवं साहित्य को नवीन रूप-दिशा दर्शाने वाले कवि रहे हैं। इसलिए एष़ुत्तच्छन को ‘मलयालम भाषा के पिता’ का स्थान प्राप्त है। तुंचनपरंपु (कवि का जन्म स्थान) स्मारक भवन के फलक में यह लिखा हुआ है कि “सानंदरूपम्  सकलप्रबोधम्/आनंदगानामृत पारिजातम्/मनुष्य पद्मेषु रविस्वरूपम्/प्रणौमित्तुंचत्तेषुमार्यपादम्।” यह कथन इसका प्रमाण है कि वे केरल के अचंचल, उदार, धार्मिक कवि आचार्य रहे हैं। किलि (शुक) के माध्यम से राम की प्रशस्ति का गायन करवाकर आपने तत्कालीन समाज के उत्थान की संकल्पना की है। कवि अध्यात्मरामायणम किलिप्पाट्टु में कहते हैं कि “श्रीरामनाम का गायन करते हुए आने वाले हे तोते!/श्रीरामचरित कह दो बिना किसी अलसता के” (श्रीरामनामम् पाडिवन्ना पैंकिलिपेन्ने/श्रीरामचरितम नी चोल्लीड़ुमडियाते)। आलोचकों की राय यही रही कि ‘श्रीशुक ब्रह्मर्षि’ का पुण्य स्मरण करते हुए आपने ‘शुक’ से राम की कहानी कहलवाई है। कुछ विद्वानों का कहना है कि अपनी रचना पर किसी की आंख न लग जाए, इस उद्देश्य से अप्रत्यक्ष कथन की शैली का प्रयोग आपने किया है। मिथकीय आख्यान में यह भी मत प्रचलित है कि किलिप्पाट्टु का ‘किली’ या ‘तोता’ सरस्वती देवी के हाथ का प्रतीकात्मक तोता हो सकता है। संभावना यह भी बनती है कि कभी कवि ने ‘कथासरित्सागर’ या ‘विक्रमादित्य कथा’ या तमिल की ‘वैष्णव-शैव रचनाओं’ की रूढ़ि का अनुकरण किया है। जो भी हो ‘किली’ के माध्यम से साहित्यिक वस्तु को प्रस्तुत करने की परंपरा को कवि ने लोकप्रिय बनाया है। विषय वैविध्य के अनुकूल आपने अपने अध्यात्म रामायण किलिप्पाट्ट में ‘केका’, ‘काकली’, ‘कलकांची’, ‘अन्ननड़ा’, ‘मणिकांची’ आदि छंदों का प्रयोग किया है। यह भी हम जानते हैं कि एष़ुत्तच्छन ने अध्यात्म रामायण का अनुकरण करते हुए अनुसृजन किया है। इसलिए ही इसे स्वतंत्र साहित्य रचना का स्थान प्राप्त है। अध्यात्मरामायणम किलिप्पाट्टु का अध्ययन किए जाने पर लगता है कि मूल से बढ़कर अनेक स्थानों पर उन्होंने अपनी मौलिक उद्भावनाओं का परिचय दिया है। रामायण के सीता स्वयंवर के ‘धनुर्भंग प्रसंग’ में धनुष के भंग हो जाने का वर्णन करते समय कवि का भावना विलास इतना मनोरम बन पड़ा है कि वे कहते हैं- ‘धनुर्भंग होते ही सभा में उपस्थित राज-महाराजा उरगों की भांति डर के मारे कांप उठे।’ मूल संस्कृत श्लोक में इस प्रकार की बिंब-प्रतीकावली का इस्तेमाल नहीं किया गया है। इस मौलिकता के प्रति आम पाठक या श्रोता बलात् खिंच जाते हैं। इसलिए व्यापक परायण और श्रवण के माध्यम से कुटि से लेकर दरबार तक आपकी रचना ने प्रविष्टि पाई है। इससे केरलीय समाज में एष़ुत्तच्छन की भावनाओं का वैचारिक-सांस्कृतिक विस्तार हुआ, भाषा स्वीकृत हुई।

भक्त कवि एष़ुत्तच्छन अपनी रचना के प्रमुख उद्देश्य के रूप में अज्ञानता के निराकरण को स्वीकार करते हैं। उनकी प्रार्थना यही रही है कि ‘अंतस्थल में ज्ञानापचय रहने वालों की/अज्ञानता का निवारण कर दे बुध-लोग।’ मधुर मणिप्रवाल शैली के साथ लोकगीतों की पद-कोमलता को एष़ुत्तच्छन ने भी कविता में बिठाया। किलिप्पाट्टु के नैतिक उद्बोधन से प्रभावित होकर केरल के हिंदू घरों में कर्कटक महीने (आषाढ़) में रामायण का पारायण आज भी अत्यधिक भक्ति-भावातिरेक के साथ किया जाता है। मानव को नैतिक-आध्यात्मिक बल प्रदान करना रामायण का उद्देश्य रहा है। एष़ुत्तच्छन बिना किसी संदेह के मानव राशि को यह याद दिलाते हैं कि ‘अपने किए का फल हर किसी को खुद भुगतना पड़ता है’ (तानतान निरंतरम चेय्युन्न कर्मंगल/तान-तान अनुभविच्चीडुकेन्ने वरू।), ‘आफत काल के पास आने पर कभी सुभाषित शोभा नहीं देता है’ (आपत्तु वन्नडुत्तीडुन्न कालत्तु/शोभिक्कयिल्लेडो सज्जनभाषितम्)।

अपनी काव्य-सपर्या के माध्यम से एष़ुत्तच्छन ने नूतन काव्यशैली का विकास किया है। इसके लिए हर मलयालम भाषा-भाषी उनके प्रति ऋणी है। साहित्यिक भाषा और जनता के बीच की भाषा की दूरी आपकी साहित्यिक सपर्या से मिट गई। संस्कृत के बहुत सारे शब्द जनता की सामान्य बोल-चाल की भाषा में मिल गए। जनता की भाषा में संस्कृत शब्दों के मिलन से विकसित मणिप्रवाल शैली के माध्यम से जनता को आपने ज्ञान से विभोर कर दिया है। एष़ुत्तच्छन के भाषिक प्रयोग से मलयालम भाषा के शैली और व्याकरण निश्चित हुए। इसलिए ही कुञ्ञिक्कुट्टन तंपुरान ने लिखा है कि ‘हमारे लिए एष़ुत्तच्छन की भाषा का गणित ही एकमात्र आसरा है।’ (नमुक्कु एषुत्तच्चनेडुत्त भाषा कणक्के शरणम्)। एक विशिष्ट प्रकार की साहित्यिक समग्रता एष़ुत्तच्छन में देखने को मिलती है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रबंधात्मकता, प्रसादात्मकता, भावसांद्रता, मानवीयता, सांस्कृतिक गहनता, जीवन की समग्रता, समाज की समस्याओं का प्रतिपादन व भावात्मक विश्लेषण आदि कवि की रचनाओं में पाठक अनुभूत कर सकता है।

अध्यात्म रामायणम् किलिप्पाट्टु के अलावा ‘महाभारतम् किलिप्पाट्टु’, ‘रामायणम् इरुपत्तिनालु वृत्तम’, ‘हरिनाम कीर्तनम्’ आदि के माध्यम से केरलीय जनता के मनोमुकुर में आपने चिर प्रतिष्ठा प्राप्त की है। साहित्य, संस्कृति और मलयालम भाषा के सुंदर समागम के पर्याय के रूप में एष़ुत्तच्छन की गिनती की जाती है। संस्कृत के शब्द-रत्नों को पिरोकर आपने अपनी उदात्त व अनूठी शैली विकसित की है, जैसे- ‘चंद्रचूड़ारविंदमहेंद्रादि वृंदारकेंद्रमुनिवृंद वंदितन देवन’, ‘नीलोत्पलदलश्यामल निग्रहन नीलोत्पलदल लोल विलोचनन।’ अपनी रचना के माध्यम से संकीर्णता के बंधन से मानव को मुक्त करते हुए विशाल मानवीय धरातल पर सबको प्रतिष्ठापित करने का स्तुत्य कार्य उन्होंने किया है। आपने घोषणा की है कि ‘जाति नामों का नहीं, गुणगणादि का महत्व होता है’ (जातिनामादिकल्कल्ला गुणगुण भेदमेन्नत्रे बुधन्मारुडे मतम)। इसके साथ ही उन्होंने सभी को वेदाध्ययन के अधिकारी के रूप में घोषित करते हुए ज्ञान के जनतांत्रीकरण की चेतना को सुलगा दिया। इससे प्रतीत होता है कि साहित्यिक दृष्टि से मानव जीवन की समग्रता उनकी वाणी में रहती है। एष़ुत्तच्छन वेद-उपनिषद दर्शन से खूब प्रभावित हुए थे। भक्ति के साथ निष्काम कर्म करने की प्रेरणा आपकी पंक्तियां देती हैं। अहंकार की भावना को अज्ञानता के मूल कारण के रूप में मानने वाले एष़ुत्तच्छन ने भक्ति को वैयक्तिकता के घेरे से निकालकर सामाजिक मूल्य के रूप में परिवर्तित किया है। सार इतना ही कि गुरु, ज्ञानी, कवि, दार्शनिक, भाषा सुधारक, समाजोद्धारक आदि के रूप में आपकी देन अप्रतिम रही है।

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काव्यात्मक भाषा में कहा जाए तो सूरज के बाद चांदनी के रूप में कवि पूंतनानम् का आगमन केरल के मध्याकालीन भाक्ति साहित्य के प्रांगण में होता है। मलयालम साहित्य के प्रथम जन कवि के रूप में उसे स्वीकृत किया जा सकता है। गुरुवायूर देवस्वम (केरल का प्रसिद्ध मंदिर) द्वारा प्रकाशित ‘पूंतानम सर्वस्वम’ के अनुसार पूंतानम की ओर से इक्कावन संकीर्तन तथा पांच लघु काव्य विरचित हैं। इससे व्यक्त होता है कि लघुकाव्य और कीर्तन आपकी रचनाओं के अंतर्गत आते हैं। ‘पाना’ नामक साहित्य-विधा को कवि ने अपनी लेखनी के माध्यम से साहित्य का दर्जा प्रदान किया है। ‘ज्ञानप्पाना’, ‘संतानगोपालम पाना’, ‘कुमारहरणम पाना’ आदि पूंतानम की प्रमुख रचनाएं हैं। ज्ञानप्पाना को एक दार्शनिक रचना के रूप में हम स्वीकार कर सकते हैं। भक्ति की महिमा के साथ सांसारिक जीवन की गति-विगतियां, मानव जन्म के महत्व आदि को अत्यधिक परिपक्वता के साथ आपने तीन सौ बासठ पंक्तियों में अभिव्यक्त किया है। इनके अलावा जीवन के दर्द के साथ भक्ति की मंदाकिनी आपकी रचनाओं में बह चली आई है। ‘जीर्ण-शीर्ण विलासपूर्ण जीवन बिताने वाले लोगों’ का वर्णन, ‘निंदनीय काम’ करने वाले लोगों का चित्रण, ईश्वर के नाम पर ‘पेट’ भरने वाले लोगों का जिक्र, ‘कुंकुम’ के बोरे लेकर चलने वाले ‘गर्दभों’ का वर्णन, ज्ञानी समझे जाने वाले लोगों की अज्ञानता का प्रतिपादन उनके ज्ञानप्पाना में देखने को मिलता है। मानव समुदाय को ‘षड़रिपुओं’ से मुक्त करते हुए शांति भरी जिंदगी जीने तथा जीवन के सच्चे-कच्चे स्वरूप को सामने रखते हुए धार्मिक मूल्यों से संचालित जीवन जीने लायक परिसर निर्मित करने का स्तुत्य कार्य आपने किया है। उनका कहना है कि ‘अतीत की स्थिति क्या है और आगे की स्थिति क्या है, मानव नहीं जानता है,’ ‘आज जिस वपु का धारण कर हम जीवन यापन कर रहे हैं, उसका नाश कब होगा, किसी को उसका अता-पता नहीं रहता है’ (इन्नलेयोलमेंदेन्नरीञ्ञीला/इनि नालेयु मेंदेन्नरीञ्ञीला/इन्निक्कंडा तडिक्कु विनाशवु/ मिन्ननेरेमेन्नेतुमरीञ्ञीला)। इसलिए क्षणिक जीवन को सार्थक और प्रेममय बनाना ही उत्तम जीवन का प्रमाण हो सकता है। इस प्रकार जीवन की गंध को लेकर चलने वाले, जन-भाषा में काव्य-रचना करनेवाले चेरुश्शेरी-एष़ुत्तच्छन-पूंतानम केरल की सांस्कृतिक विरासत के पुरोधा है, जीवन को आगे ले जाने वाले ‘मशाल’ हैं।

टिप्पणियां

  1. कवि- पवित्र वन जो मंदिरों-पवित्र स्थानों में केरल में दिखाई देता है। काव में हर कोई प्रवेश नहीं करता है। शरीर शुद्धि करके पवित्र भक्ति भाव से विशेष नियोजित व्यक्ति मात्र उस पवित्र वन में जाता है। वर्तमान काल में पर्यावरणीय विध्वंसकता के काल में इस प्रकार के स्थानों का खास महत्व है। यह काव वास्तव में प्रकृति की जैविक विविधता को अपने भीतर धरता है।

सहायक ग्रंथ

  1. के. एम. जॉर्ज, साहित्य प्रस्थानंङलिलूड़े, साहित्य प्रवर्तक सहकरण संघम, कोट्टयम, 1998.
  2. एन. कृष्णपिल्ला, कैरलियुडे कथा, डीसी बुक्स, कोट्टयम, 2002.
  3. एरुमेली परमेश्वरन पिल्ला, मलयाल साहित्यम कालघंटङलिलूडे, करंट बुक्स, कोट्टयम, 2006.
  4. पन्मना रामचंद्रन नायर, संपूर्ण मलयाल साहित्य चरित्रम, करंट बुक्स, कोट्टयम, 2008.

 

प्रो. प्रभाकरन हेब्बार इल्लत
9446661250

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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