शोध आलेख : कबीर : पाश्चात्य हिंदी साहित्येतिहासों में / अजीत आर्या

कबीर : पाश्चात्य हिंदी साहित्येतिहासों में
- अजीत आर्या


कबीर विषयक पश्चिमी आलोचना -

पश्चिम के देशों में कबीर को जानने का सबसे पहला काम इटैलियन भाषा मेंमार्को डेला टोंबा’ -(1726-1803) ने किया था।  कबीर के ज्ञान सागर का अनुवाद उन्होंने सन् 1758 ईसवी में करने का काम किया था।मार्को डेला टोंबाका अधिकांश जीवन बिहार के बेतिया और पटना में बीता था।  इसके बाद कबीर के अध्ययन के क्रम में इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी के विद्वान आए। कैप्टन डब्लू प्राइस -(1780-1830) ने बीजक में पाये जाने वाले गोरखनाथ-कबीर वार्त्तालाप को अपनी पुस्तक हिंदू एंड हिंदुस्तानी सिलेक्शन में संकलित किया था। वहींजनरल हैरियटने मेंबार ऑन दी कबीर पंथ में कबीर की कुछ कविताओं का अनुवाद फ्रेंच भाषा में किया था।  हैरियट (1786-1860) ब्रिटिश सेना में अफसर थे। उन्होंने सन् 1832 में कबीर का अनुवाद फ्रेंच भाषा में किया था।

            कबीर के व्यक्तित्त्व  और कृतित्त्व पर पहला वैज्ञानिक अनुशीलन करने का श्रेय एच एच विल्सन को जाता है। विल्सन प्राच्यविद् तथा मूल रूप से सर्जन थे। कोलब्रुक के कहने पर वह सन् 1811 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगालके सचिव बनाए गए। उनका अध्ययन पहली बारहिंदू सेक्टस नाम सेएशियाटिक रिसर्चमें सन् 1828 तथा 1832 में छपा था।

            सुभाष चंद्र कुशवाह की पुस्तक कबीर हैं कि मरते नहीं में कबीर से जुड़ी अनेक गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास किया है – (कबीर का जन्म-मृत्यु वर्ष, माता-पिता, गुरु आदि सवालों पर) सुसंगत विचार किया गया है। वहीं पर संदर्भ प्राप्त होता है कि सन् 1841 ईसवी से कबीर के बारे में ब्रिटिश अखबारों में लेख और समाचार छपने लगे थे। उन्होंने इस संदर्भ में ब्राडफोर्ड ऑब्ज़र्वर का उदाहरण दिया है, जिसमेंलांगलेज’  का लंबा लेख है औरलांगलेजने इस लेख में कबीर को भारत का महान सुधारक और15 वीं सदी का नायककहा है।

            इसके बाद इस पुस्तक में इस बात के लिए कई संदर्भ दिए गए हैं, जिसमें कबीर पर पश्चिम के अखबारों में लेखों के माध्यम से चर्चा होती रही। और लगभग दो दर्जन अखबार जिनमें-

1. एलेंज इंडियन मेल (2 नवंबर 1848)

2. गार्जियन (1जनवरी1853)

3. मॉर्निंग एडवरटाइजर (10 मार्च 1835)

4. एस्कॉर्ट मैन (5 जुलाई 1872)

5. बर्मिंघम डेली पोस्ट (15 अगस्त 1879)

6. ईडी एडवरटाइजर (30 नवंबर 188)

7.  होमवर्ड मेल (23 जनवरी 1882)

8. लंदन दिल्ली न्यूज़ (24 मार्च 1883)

9. यार्कशायर गजट (17 जून 1893)[1]

            प्रमुख रूप से इनमें कबीर से संबंधित लेख, छवि और कबीर पर चर्चा-परिचर्चा होती रही, लेकिन यह सब वह प्रस्थान बिंदु थे जहाँ अनुवाद या कबीर के किसी एक पक्ष को लेकर संक्षेप में लेख लिखे गए हैं।

कहीं कबीर पंथ की जानकारी है, कहीं किसी अनुवाद की समीक्षा है और इससे पश्चिम में कबीर पर अध्ययन के द्वार खुले।

तासी का इतिहास-

            19 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में गार्सा दा तासी फ्रेंच भाषा में हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास लिख रहे थे। वह फ्रांस में पूर्वी भाषाओं के प्रोफेसर थे। तासी ने कबीर पर लिखने के लिए जिन अध्येताओं से अपने इतिहास में आधार सामग्री ग्रहण की उनमें मार्का डेला टोम्बा, हैरियट, विलियम प्राइस, एच. एच. विल्सन  प्रमुख थे। तासी ने अपनी पुस्तक के  प्रथम भाग को सन् 1839 ईसवी में और द्वितीय भाग सन् 1847 ईसवी में प्रकाशित किया था।

            आचार्य रामचन्द्र  शुक्ल के कबीर विषयक लेखन को अगर तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो कबीर पर तासी ने आचार्य शुक्ल से डेढ़ गुना ज्यादा लिखा है।  यह इसलिए आश्चर्यजनक है क्योंकि भारत में रहकर 90 साल बाद जब शुक्ल जी कबीर का मूल्यांकन करते हैं तो, कम स्थान अपनी आलोचना में देते हैं और तासी ज्यादा स्थान देते हैं। जबकि तासी, भारत से दूर उनका मूल्यांकन कर रहे थे।

            तासी कबीर के समय-समाज को आधुनिक संप्रदायों के प्राचीन संस्थापकों का समय मानते हैं।  और उन में विशेष रुप से कबीर का उल्लेख करते हैं। कबीर के संबंध में जब तासी लिखते हैंजिन्होंने संस्कृत का साहस पूर्वक विरोध किया, उनके शिष्य सूरत गोपालदास सुख निधान के संकलनकर्त्ता और धर्मदास अमरपाल के रचयिता नानक और भागोदास जो अत्यंत प्रसिद्ध हैं।

            कबीर को तासी प्रमुख रूप से स्थान देते हैं। उनके भाषाई तेवर को इंगित करते हैं। भाषा की विशेषता के बाद तासी, कबीर के अन्य पक्षों उपासना, नाम का अर्थ, गुरु, जन्म की किंवदंतियाँ और पंथ के संबंध में संक्षिप्त चर्चा करते हैं। इस विश्लेषण में ऊपर लिखी गई प्रमुख पश्चिमी विचारकों की पुस्तकों के अलावा तासी, अबुल फजल कीआईने अकबरी और नाभादास केभक्तमाल की सामग्री का उपयोग करते हैं। कबीर के संबंध मेंभक्तमालकी प्रसिद्ध उक्ति का उदाहरण तासी देते हैं कबीर कान राखी नहीं वर्णाश्रम सटदर्शनी की आलोचना दृष्टि पर इसका प्रभाव भी लक्षित होता है। उन्होनें अपने ग्रंथ में कबीर को एकेश्वरवादी माना है। इसी को दोहराते हुए तासी मानते हैं जिन्हें अबुल फजल ने एकेश्वरवादी बोला है, एक प्रसिद्ध सुधारक और अत्यंत प्राचीन हिंदी के लेखकों में से एक हैं जिस भाषा में उन्होंने हमें महत्त्वपूर्ण रचनाएं दी हैं। इस पौराणिक व्यक्ति के संबंध में भक्तमाल में भी मिलता है”[2] कबीर का नाम क्या था? तासी इस पर विचार करते हैं क्योंकि नाम से ही उनकी धर्मगत, पंथगत जो स्थापना हैं उसका मूल्यांकन सही से करने में आसानी होती है।  वह लिखते हैं प्रायः कबीर हृस्वके साथ किंतु विकृत रूप में लिखा मिलता है।  यह अरबी भाषा का एक विशेषण शब्द है जिसका अर्थ है- ‘बड़ाऔर जो नाम अल्लाह को जो सबसे बड़ा है दिया जाता है।कभी अपने को कबीरदास जी कहते हैं, जो अरबी और भारतीय मिश्रित है, जिसका अर्थ हैईश्वर का दास’”[3] तासी हिंदी की अपेक्षा उर्दू और अरबी साहित्य से ज्यादा परिचित थे। इसीलिए उनके इतिहास में उन स्थापनाओं की ज्यादा झलक मिलती है, जो उर्दू में या फारसी में उपलब्ध हैं। चाहे वह अबुल फजल काआइन--अकबरीहो या अरबी शब्दकोश।

            तासी का कबीर के व्यक्तित्त्व और जीवन संबंधी अधिकतम वर्णन किंवदंतियों पर आश्रित हैं, उसमें जन्म से संबंधित वह किंवदंती जिसमें एक ब्राह्मण अपनी बाल विधवा पुत्री को रामानंद का दर्शन कराने ले जाता है और वहीं पर रामानंद द्वारा एक आशीर्वाद दिया गयातेरे गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न होगा इसका पुत्र मानवता की रक्षा करेगाकबीर जन्म से संबंधित है। कबीर का कपड़े बुनने वाले जाति से होना या स्वयं विष्णु ने उनसे वैष्णव रूप में भिक्षा माँगी और विष्णु द्वारा कबीर की मदद किए जाना, विष्णु द्वारा इतना धन प्रदान किया गया कि अपने घर पर इतना सामान पाकर उन्होनें अपना रोजगार छोड़ दिया और राम की भक्ति में पूर्णता तल्लीन हो गए। यह किंवदंतियाँ कबीर को रोजगार या पैतृक कार्य के बीच में ही छोड़ देने वाला साबित कर रही हैं जिनको तासी ने अपने इतिहास में स्थान दिया है।

            सिकंदर लोदी को कहाँ जानता, मैं तो राम को जानता हूँ।  सलाम से मेरा क्या काम?”[4] यह किंवदंती कबीर कोकट्टर वैष्णव संतघोषित करती है, जबकि जब हम कबीर की कविता को देखते हैं तो पाते हैं कि कबीर के राम और राम में बहुत ज्यादा अंतर ही नहीं पूर्णतः अलगाव है।  किंवदंतियों के आधार पर कबीर की जाति को ब्राह्मण, विष्णु से भेंट और राम की पक्षधरता से ऐसा लगता है कि तासी कबीर को वैष्णव रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।  लेकिन ग्राहम की पुस्तक ऑन सूफिज्म की स्थापना को भी वह उद्धृत करते हैं, जिसमें स्थापित किया गया हैकबीर मूलतः मुसलमान थे”[5] तासी अपनी आलोचना में प्रचलित कबीर विषयक किंवदंतियों को ज्यादा स्थान देते हैं। वह उनकी प्रामाणिकता या सत्यता की जांच करने का प्रयास नहीं करते हैं।

            तासी कबीर की रचना के संबंध में उन्हें प्राचीन मानते हुए उनमें मौजूद विविधता को रेखांकित करते हैं।कबीर की कुछ खास रचनाओं का नाम तासी द्वारा लक्षित किया गया है -

1. रेख्तस- कबीर की कविताएँ जिनका नाम हिंदुस्तानी कविताओं के लिए प्रयोग शब्द रेख़्ता (मिश्रित) से लिया गया है। 

2. साखी- सखी और बहुवचन में सत्य कबीर की कुछ कविताओं का विशेष नाम कृष्ण और गोपियों से संबंधित एक गीत को सखी संबंध कहते हैं”[6] इस प्रकार तासी सबद, शब्द और साखी जिसका संबंध साक्ष्य से नहीं बल्कि कृष्ण काव्य में आएसखीशब्द से सामीप्य स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं और कबीर के भजनों का दूसरा विशेष नाम।

3. समय- देते हैं।

तासी उस मानक पर बात करते हैं, जहां पहचानने का प्रयास किया गया है कि, क्या कबीर का है? और क्या कबीर के अनुयायियों द्वारा रचित है? इन संग्रहों में कहहिं कबीर  शब्दों से जो कुछ वास्तव में है, उनका है कहे कबीरजो कुछ उनकी वाणियों का सार है औरकहिए दास कबीरशब्दों से जो कुछ उनके शिष्यों (दासों) में से किसी एक का है, भेद किया जाता है”[7]

            तासी, कबीर के छंदों और उनके प्रभावों का वर्णन करते हैं। कबीर की कविता मेंआगमवाणीअनेक प्रकार के छंद भी हैं जो उन लोगों के लिए जो इस संप्रदाय की थाह लेना चाहते हैं। तासी, कबीर की रचनाओं के प्रभाव को निष्कर्ष रूप में इस प्रकार स्पष्ट करते हैं- इन सब रचनाओं की शैली अकृत्रिम, सरलता से विभूषित है, जो मोहित और प्रभावित करती है। उसमें एक शक्ति और एक विशेष रमणीयता है”[8] जनश्रुतियों के आधार पर तासी अनुमान लगाते हुए कहते हैंलोगों का कहना है कि कबीर की कविताओं में चार भिन्न अर्थ हैमाया, आत्मा, मन और वेदों का सिद्धांतमहत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि, कविता के किसी भी पक्ष में तासी,कबीर में समाज सुधारक जैसा शब्द कम लाते हैं। बल्कि वह व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व का चित्रण करते हैं तो कबीर के संदर्भ में वैष्णव शब्दावली का प्रयोग ज्यादा करते हैं।

            तासी, कबीर को ईश्वर की एकता में विश्वास व्यक्त करने वाला और मूर्ति पूजा के विरोधी के रूप में अपने इतिहास में स्थान देते हैं। सुधारक के संबंध में अंत में लिखते हैं कबीर ब्राह्मण भारत के लिए वैसे ही सुधारक थे जिस प्रकार बहुत दिनों बाद मुस्लिम भारत के लिए सैयद अहमद हुए”[9]

जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन -

            कबीर जिस समय में अपनी वाणी कह रहे थे, ग्रियर्सन ने उस समय को अपने इतिहास में 15वीं शती का धार्मिक पुनर्जागरण कहा है। वह पुनर्जागरण के युग में पहला नाम रामानंद का मानते हैं। अब हम चारण काल को पीछे छोड़ते हैं और प्राचीनता के कुहासे से निकलकर 15वीं सदी के प्रारंभ में प्रवेश करते हैं। इस संबंध में जो पहला नाम हमें मिलता है वह है,रामानंद का”[10] इन्हें ग्रियर्सन धार्मिक सुधारक के रूप में स्थान प्रदान करते हैं। ग्रियर्सन ने संदर्भ ग्रंथ के रूप में नाभादास के भक्तमाल को उपयोग में  लिया है और कबीर के संबंध में जो व्याख्या की गई है उस पर भी इसका प्रभाव लक्षित होता है। ग्रियर्सन, कबीर को बनारस का जुलाहा कहते हैं और रामानंद के सबसे ज्यादा प्रसिद्ध शिष्य के रूप में स्थान देते हैं।

            कबीर के जन्म और जीवन विषयक किंवदंतियों को स्थान देने के बाद उनके जीवनकाल को ग्रियर्सन लगभग 300 वर्ष का मानते हैं जो लगभग अविश्वसनीय सा है।  एक जुलाहे की स्त्री नीमा अपने पति नूरी के साथ एक बारात में जा रही थी। उसने बनारस के निकट लहरतारा नामक तालाब में एक कमल के ऊपर इन्हें पाया।  यह सन् 1149 ईसवी से 1449 तक लगभग 300 वर्ष जीवित रहे”[11] ग्रियर्सन जैसे अध्येता कबीर के जीवन काल की सीमा 300 वर्ष कैसे मान रहे हैं? यह तथ्य समझ से परे है।

            ग्रियर्सन इतिहास में कबीर की 14 रचनाओं का उल्लेख करते हैं। उसमें वर्णित विषय सामग्री के संबंध में कथ्य को नैतिक और धार्मिक बताते हैं। कबीरपंथ  के सिद्धांतों और कबीर के संबंध में अध्ययन करने वालों के लिए इतिहास में एक दृष्टि दी गई है और कहा गया- जो लोग इस संप्रदाय के सिद्धांतों का गंभीर अध्ययन करना चाहते हैं,उनके लिए आगाम, बानी आदि पदों की विविधता है जिसमें अध्ययन के लिए प्रचुर सामग्री है”[12] कबीर के पुत्र कमाल के संदर्भ में प्रचलित है बूड़ा वंश कबीर का उपजा पुत्र कमाल जिसकी सामान्यतः व्याख्या यह की जाती है कि,कमाल ने किसी भी प्रकार के पंथ के संगठन के लिए मना कर दिया था। लेकिन ग्रियर्सन अपने इतिहास में इस संदर्भ में व्याख्या प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं- यह अपने पिता के कथनों के विरुद्ध दोहे बनाया करते थे, इसलिए यह कहावत है बूड़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल”[13] मुख्य प्रश्न यहाँ यह है कि किसी भी परवर्त्ती  इतिहासकार नेकमालको कवि के रूप में उद्धृत नहीं किया और ही उनके कविता संग्रह का ही कोई प्रमाण मिला, जो कबीर की काव्य-मान्यताओं के उलट हो। क्योंकि अगर ऐसा हुआ होता तो अनुमान लगाया जा सकता है कि, कबीर की कविता जिस कट्टरता और पाखंड के ख़िलाफ़ मुखर थी, उसके झंडाबरदार कमाल की कविता का प्रचार अवश्य करते।

            कबीर पंथ की 12 शाखाओं का उल्लेख ग्रियर्सन अपने इतिहास में करते हैं। जिसका वर्णन  ‘डॉ ग्रियर्सन के[14] साहित्य इतिहासपुस्तक में मिलता है इस में कबीर पंथ के प्रभाव को भी लक्षित किया है- बाह्य समन्वय भाव तथा उपास्य के किसी स्थूल एवं प्रत्यक्ष स्वरूप के अभाव में कबीरपंथ भारत के सब प्रांतों एवं वर्गों में अधिक लोकप्रिय नहीं हो सका, इसीलिए वह विभाजित हो गया। उन्हें कदाचित ऐसी 12 शाखाओं का पता लगा था14 कबीर पंथ की अधिक लोकप्रियता हो पाने के कारण ग्रियर्सन, कबीर की वाणी में समन्वय का अभाव और अप्रत्यक्ष रूप में किसी ईश्वर का होना मानते हैं। इसी कारण एक केंद्रीय कबीरपंथ तथा उसका समस्त भारत में विस्तार नहीं हो सका।

            कबीर के सिद्धांतों के संबंध में ग्रियर्सन की धारणा थी कि- कबीर के सिद्धांत यहाँ तक कि किसी सीमा तक भाषा भी दक्षिण भारत के नेस्टोरियन ईसाई धर्म से प्रभावित थी”[15] ग्रियर्सन कबीर के सिद्धांतों में ईसाइयत का प्रभाव किस आधार पर खोजते हैं, यह उनके उपनिवेश के शासक के रूप में सोची गई एक परिकल्पना मात्र है। क्योंकि किसी भी प्रकार से कबीर पर दक्षिण के नेस्टोरियन ईसाईयों का प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता। बल्कि वह भारतीय चिंतन की अवैदिक और  अपौराणिक परंपरा धारा थी जिसके कबीर वाहक थे।

            ग्रियर्सन, कबीर और दादू का तुलनात्मक अध्ययन अपने इतिहास में करते हैं और एक सिरे पर दोनों को अलगाते भी हैं। यों तो दोनों के सिद्धांत एक से हैं किंतु दादू की वाणियों में ईश्वर संबंधी मुसलमानी धारणा का सर्वथा बहिष्कार कर दिया गया है दादू की वाणी में मुसलमान संबंधी धारणायें नहीं मिलती हैं। इसके अलावा अन्यत्र भी कबीर, दादू तथा नानक का आकलन करते हुए कहते हैं- तीनों संतों की वाणियाँ यद्यपि रामानुजाचार्य के उपदेशों से निसृत हुईं, किंतु उनमें मूलभूत साम्य रहा। ये राम को अवतार नहीं अपितु स्वयं परमेश्वर मानते रहे, उनके धर्म की नींव ऐसी विभूति के प्रेम के स्पर्श की आकांक्षा पर आधारित थी। उन्होंने निष्कर्ष दिया कि ये तीनों धर्म गिनी-चुनी आत्माओं को आकृष्ट कर पाए और अपनी समर्थक एवं अनुयायी जनता के लिए आचरण के ऊसर सिद्धांत बनकर रह गए थे”[16]  निर्गुण कविता के