आलेख : उत्तर औपनिवेशिक विमर्श और भक्ति कविता : एक पुनर्पाठ / प्रोफेसर प्रभाकर सिंह

उत्तर औपनिवेशिक विमर्श और भक्ति कविता : एक पुनर्पाठ
- प्रोफेसर प्रभाकर सिंह

        उत्तर समय विमर्शऔर विचार की गतिकी का समय है। उत्तर औपनिवेशिक विमर्श के इस दौर में उत्तर संरचनावाद, उत्तर आधुनिकता, सबाल्टर्न विमर्श, नव इतिहासशास्त्र ने साहित्य और इतिहास के पढ़ने और समझने के मायने बदल दिए हैं। धर्म और भक्ति की सेकुलर अवधारणाएं उत्तर समय में शिफ्ट करके बाजार और विज्ञापन के हवाले हो गई  हैं। ' भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति है' आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह  कथन अब अपनी प्रासंगिकता खोज रहा है। अब भक्ति दिखावे, कट्टरता और संकीर्ण धार्मिकता में बदल गई है। मध्यकालीन इतिहास में हुए भक्ति आंदोलन के समावेशी और लोकजागरण के तेज को उन्मादी भक्ति और संकीर्ण  विचारों के रूपांतरण ने धारण कर लिया है। एक तरफ उत्तर पूंजी और नव साम्राज्य  के इस दौर ने भक्ति और धर्म को बाजार  और पूंजी की वस्तु बनाकर रख दिया है तो विचारों की नई गतिकी ने भक्ति के पुनर्पाठ के रास्ते भी खोले हैं।

            उत्तर औपनिवेशिक विमर्श के इस दौर में उत्तर आधुनिक विचारों में भक्ति और धर्म के पारंपरिक एकरेखीय अध्ययन की जगह उसके बहुलतावादी और बहुसमावेशी पाठ की वकालत है। मसलन अब उत्तर आधुनिकता में मेगा नैरेटिब्स  की  जगह छोटे-छोटे नैरेटिव को महत्व दिया जाने लगा है। भक्ति के मायने और भक्त कविता को देखने की  नव्य इतिहासशास्त्र की नई सैद्धांतिकी ने इतिहास के बंद कोने अंतरों को जिन्हें हाशिया समझकर उपेक्षित किया गया उनके दरवाजे खोल दिए ।उत्तर आधुनिक विमर्श इतिहास या साहित्य के इतिहास को किसी एक परंपरा या सात्यता में देखने का आग्रह नहीं करता।  वह बहुलतावादी दृष्टिकोण के बीच साहित्य और इतिहास की व्याख्या करता है। इतिहास के आलोक में साहित्यिक कृतियों को देखने की जगह अब साहित्यिक कृति को ही इतिहास की कृति मानकर साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार किया जा रहा है। साहित्य के इतिहास पुनर्लेखन की नई इतिहास दृष्टियां बन रही है। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में भक्तिकाल सदैव से विचार और विमर्श के केंद्र में रहा है। नव इतिहासशास्त्र और उत्तर औपनिवेशिक विमर्श के आलोक में भक्ति साहित्य के इतिहास लेखन पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।

            भारतीय इतिहास में भक्ति आंदोलन और भक्ति साहित्य आज भी हमारे समय और समाज को प्रभावित करने वाला आंदोलन रहा है भक्ति आंदोलन की  अखिल भारतीय बहुल तावादी संस्कृति और लोकजागरण की चेतना ने इस आंदोलन को विरल बनाया। उस दौर के भक्त कवियों का ईश्वर धर्मनिरपेक्ष है। वह बैरागी नहीं दुनिया में रहते हुए लौकिक जीवन को सुखमय बनाने का मार्ग प्रशस्त करता है। संसार की वास्तविकता और मनुष्य की महत्ता को स्वीकार करना जीवन को सुंदर बनाना ,स्थानीय भाषा से प्रेम करना, पोथी में कैद ज्ञान की जगह जीवन में बसे हुए ज्ञान को महत्व देना, छुआछूत से दूर कर्मकांड से रहित एक सुंदर समाज की परिकल्पना भक्ति  कविता की  केंद्रीय चेतना रही।   यों भक्ति आंदोलन एक आध्यात्मिक क्रांति की तरह था जिस का रूपांतरण 19वीं सदी में आधुनिक नवजागरण के रूप में होता है ।भक्ति आंदोलन को रामविलास शर्मा लोक जागरण कहते हैं तो ठीक ही है क्योंकि लोकभाषाओं में लोक जन चेतना के साथ भक्ति  कविता का ऐसा रूपांतरण अखिल विश्व में नहीं दिखाई देता। भक्त कवि मतों , पंथो और जीवन के भीतर रहकर सुधार करना चाहते थे। एक तरह से इनसाइड  क्रिटिक की तरह। अखिल भारतीय स्तर पर कवि नामदेव ,रामानंद, ज्ञानेश्वर ,तुकाराम, शंकरदेव, कबीर, गुरु नानक, सूर ,तुलसी, जायसी और मीरा सभी भक्त कवियों ने  पाखंड और संकीर्णता का विरोध किया। भक्ति आंदोलन के अखिल भारतीय स्वरूप पर के  दामोदरन अपनी पुस्तक 'भारतीय चिंतन परंपरा 'में  सही लिखते हैं कि,"भक्ति आंदोलन ने देश के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न मात्राओं में तीव्रता और वेग ग्रहण किया। यह आंदोलन विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ किंतु कुछ मूलभूत सिद्धांत ऐसे थे जो समग्र रूप से पूरे आंदोलन पर लागू होते थे। पहले धार्मिक विचारों के बावजूद जनता की एकता को स्वीकार करना। दूसरा  ईश्वर के सामने सब की समानता ,तीसरे जाति प्रथा का विरोध, चौथे यह विश्वास की मनुष्य और ईश्वर के बीच तादात्म्य में प्रत्येक मनुष्य के सद्गुणों पर निर्भर करता है की उसकी ऊंची जाति अथवा धन संपत्ति पर पांचवे में इस विचार पर जोर कि भक्ति  ही आराधना का उच्चतम स्वरूप है और अंत में कर्मकांड  और मूर्ति पूजा, तीर्थाटन और अपने को दी जाने वाली यंत्रणाओं की निंदा। भक्ति आंदोलन मनुष्य की सत्ता को सर्वश्रेष्ठ मानता था और सभी वर्गगत एवं जातिगत भेदभाव तथा धर्म के नाम पर किए जाने वाले सामाजिक उत्पीड़न का विरोध करता था... "

            भक्ति आंदोलन की अखिल भारतीय व्याप्ति और भक्ति कविता के अंतः सूत्र को लेकर इतिहासकार और आलोचकों में मत मतांतर है। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा का सूत्रपात करने वाले औपनिवेशिक इतिहास लेखक गार्सा तासी,जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन  ने औपनिवेशिक नजरिए से भक्ति आंदोलन और भक्ति साहित्य का पाठ किया। ग्रियर्सन ने तो भक्ति कविता के उदय को ईसाई धर्म से ही जोड़ कर विवेचित किया है। विक्टोरियन नैतिकता और मर्यादा को वह भक्ति कविता विशेष रुप से तुलसीदास की कविता से जोड़ते हैं ।भक्ति का औपनिवेशिक  पाठ प्रस्तुत करते हैं। राष्ट्रवादी अथवा नवजागरण कालीन इतिहासकारों की इतिहास दृष्टि जिसमें मिश्र बंधु ,आचार्य शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम लिया जाता है। उन्होंने भक्ति आंदोलन और भक्ति कविता को विभिन्न परिस्थितियों और परंपरा के प्रवाह से जोड़कर विवेचित विश्लेषित  किया। मार्क्सवादी इतिहासकार रामविलास शर्मा, इरफान हबीब, सतीश चंद्र भक्ति आंदोलन के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं की गहरी छानबीन करते हुए भक्ति को सामाजिक और आर्थिक  सन्दर्भों में प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रक्रिया में उत्तर समय में भक्ति आंदोलन और भक्ति कविता पर पुरानी मान्यताओं को   प्रश्नांकित किया गया और नए समय के साथ भक्ति कविता के पुनर्पाठ  की बात की उत्तर आधुनिक विमर्श और सबाल्टर्न इतिहास दृष्टि एवं  नव्य इतिहासशास्त्र के दृष्टिकोण से भक्ति कविता को देखने और परखने  के लिए इतिहासकारों और चिंतकों ने विमर्श के नए सन्दर्भों  से जोड़कर जो सवाल खड़े किए वह कुछ इस तरह हैं :

भक्ति आंदोलन की अखिल भारतीयता को एक ही तरीके से देखना क्या इसे  सरलीकृत कर देना नहीं है।

            औपनिवेशिक आधारित आधुनिकता या जिसे इकहरी आधुनिकता कहा जाता है उसके दायरे से भक्ति की अखिल भारतीय बहुरंगी आधुनिकता को कैसे परखा जा सकता है?

            भारतीय आधुनिकता ,लोकजागरण और देशज आधुनिकता के आईने में  भक्ति कविता को देखते हुए परवर्ती कविता में उसके विकास को किस तरह से देखा जा सकता है?

            क्या भक्ति साहित्य को आधुनिक सबाल्टर्नवादी मानदंडों से परखना चाहिए क्योंकि पूर्ववर्ती इतिहास लेखन में हाशिये के साहित्य को महत्त्व नहीं दिया गया?

            भक्तिआंदोलन का अखिल भारतीय स्वरूप मसलन दक्षिण भारत, बंगाल ,महाराष्ट्र  में  इस कविता की प्रतिरोधी चेतना को आधुनिक समय में सामाजिक रूपांतरण के रूप में विकसित होते हुए देखा जा सकता है जबकि हिंदी प्रदेश में एक समृद्ध भक्ति परंपरा होते हुए भी जिसमें कबीर ,तुलसी जायसी, सूरदास, मीरा जैसे भक्त कवि उपस्थित रहे पर उनकी  कविताई और चेतना का प्रगतिशील संचरण हिंदी समाज में कमतर क्यों रहा?

            हिन्दी समाज प्राय: भक्त कवियों को मठों, महंतों और परंपरावादी सांस्कृतिक रूपांतरण में ही क्यों देखता परखता रह गया?

            नव्य इतिहासशास्त्र की नजर से जो इतिहास की  सातत्यता पर सवाल उठाए गए हैं उस सिद्धांत  के साथ भक्ति कविता को देखने से कौन से नए मूल्य उपस्थित हो रहे हैं?...

            भक्ति आंदोलन एवं भक्ति कविता पर साहित्य के इतिहास लेखन और आलोचना की परंपरा में कई आलोचकों ने नवाचारी ढंग से विचार किया जिसमें मुक्तिबोध का नाम प्रमुख है 'मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन का एक पहलू' जैसा उनका निबंध इस बात की ताकीद करता है जिसमें वह भक्ति आंदोलन की व्याप्ति पर बेहद तार्किक सवाल उठाते हैं। उन्हीं के शब्दों में... "भक्ति आंदोलन जनसाधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपंथ के विरुद्ध जनसाधारण की सांस्कृतिक आशा आकांक्षाएं बोलती थी ,उसका मनुष्य सत्य बोलता था, उसी भक्ति आंदोलन को उच्च वर्गों ने आगे चलकर अपनी तरह बना लिया और उससे समझौता करके फिर उस पर अपना प्रभाव कायम करके और  अनंतर जनता के अपने तत्वों को उनमें से निकालकर उन्होंने उस पर अपना पूरा प्रभुत्व स्थापित कर लिया... "

            भक्ति आंदोलन और भक्ति कविता के संदर्भ में मुक्तिबोध द्वारा उठाए गए इन सवालों पर हिंदी आलोचना पर बहस  कम ही हुई क्योंकि हिंदी का मानस संत कविता या भक्ति आंदोलन की क्रांतिकारी कविता से अधिक अपने को सगुण भक्ति कविता से जोड़ता रहा है जबकि संत कविता की एक व्यापक और क्रांतिकारी परंपरा आधुनिक काल तक मौजूद रही। इसे जानबूझकर हाशिये पर रखा गया। अब जबकि हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में नई इतिहास दृष्टियों के उभार के साथ उनको प्रस्तावित किया जा रहा है और इतिहास लेखन की नई सबाल्टर्न दृष्टियों की बात की जा रही है तब मुक्तिबोध के यह सवाल हमारे लिए पुनः प्रासंगिक से लगते हैं। मसलन दलित चिंतक धर्मवीर, कंवल भारती ने कबीर और संत कविता का जो पुनर्पाठ  तैयार किया उसमें वह उस आलोचना को खारिज करते हैं जो संत कवियों विशेष रूप से कबीर की कविता की क्रांतिकारी और  तेजस्वी स्वरूप को  बेबाकी से प्रस्तुत नहीं करती...

            इस बीच भक्ति कविता पर पश्चिमी आलोचना और पश्चिम के भक्ति काव्य के प्रेमी आलोचकों ने  भी नए सिरे से विचार  किया  है। डेविड एंड लारेंज, जान स्टेटन होली जैसे महत्वपूर्ण चिंतकों और विचारको ने भक्ति साहित्य की कविता, मध्यकालीन संतों के स्वर उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति का भक्ति से संबंध, कला, साहित्य और संगीत से भक्त कवियों की कविताओं के अंतर्संबंध जैसे विषयों को लेकर नई व्याख्या प्रस्तुत की। भक्ति कविता को देखने का एक पहलू भक्ति काल और भक्ति आंदोलन में विकसित जनक्षेत्र जो भक्ति का जनक्षेत्र है जिसे है  'पब्लिक स्फीयर' के रूप में देखते हैं वह हेबरमास के 'पब्लिक स्फेयर' की अवधारणा जो यूरोप में 18वीं सदी के बाद विकसित बुर्जुआ समाज के साथ जुड़ी है उससे अलग है। भक्ति आंदोलन में जो जन क्षेत्र विकसित हुआ वह हाशिए के समाज जिसमें शिल्पकार ,दस्तकार ,श्रमजीवी समाज की आर्थिक स्वायत्तता के साथ एक नए जनक्षेत्र के उभार की बात देखी जा सकती है यह जन क्षेत्र भक्ति कविता में संत साहित्य में विशेष रुप से दिखाई देता है। कबीर, रैदास जैसे  भक्त कवि अपनी कविता में उस समय हिंदू और मुसलमान के पाखण्डियो  पर तंज कसते हैं तो इसके पीछे उस जनक्षेत्र या उस जन समाज की ताकत है जो इन संत कवियों के साथ जुड़ा हुआ था।  आर्थिक रूप से मजबूत  और स्वावलंबी समाज। यह भक्ति के बहाने एक संवादी और सामूहिक भूमिका में भी था।

            मध्यकालीन इतिहासकारों में सतीश चंद्रा और इरफान हबीब भक्ति काल में विशिष्ट एकेश्वरवाद और पर्सनल गॉड की बात करते हैं जो एक तरह से उस दौर में धर्म के सेकुलराइजेशन  की खूबसूरत बात है। इन इतिहासकारों ने स्पष्ट रूप से यह बताया है कि कबीर, रैदास, तुलसी, सूर ,मीरा, जायसी जो भक्त कवि हैं इन सबका अपना पर्सनल गॉड है। भक्ति कविता में धर्म ,ईश्वर का यह निजीपन और समाज के सुंदर होने का स्वप्न हर कवि की अपनी मौलिक  चेतना का हिस्सा है। यह अनोखा रूप कविता और भक्ति में रिश्ता बनाता है...

            भक्ति काल को राष्ट्रीय भाषाओं के विकास और आवाजाही के संदर्भ में और संवाद के दृष्टिकोण से भी देखा परखा जा सकता है।व्यापारिक पूंजीवाद के विकास के साथ नगरीकरण की प्रक्रिया बाजारों के निर्माण के साथ जातीय निर्माण की प्रक्रिया भी विकसित होती है और इसी प्रक्रिया में लोक भाषाओं का प्रसार प्रचार होता है। घुमक्कड़ प्रवृति के कारण संतों की भाषाओं में तमाम जनपदीय भाषाओं की आवाजाही होती है। इस तरह से लोक भाषाओं के विकास  की  एक मिली जुली संस्कृति भक्तिकाल की कविता में विकसित होती है।   कला और संगीत के द्वारा उस दौर में जहां भक्ति और कविता  का एक अखिल भारतीय आंदोलन अपना रूप ग्रहण कर रहा था तो उसी समय और साहित्य संगीत का एक अनूठा संगमन भी हो रहा था। प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा 'भारतीय साहित्य की भूमिका' पुस्तक में भक्ति आंदोलन के अखिल भारतीय स्वरूप को और उसके संगीत के अखिल भारतीय व्याप्ति  को कुछ  यूं दर्ज करते हैं..., "कितना शानदार युग था एक  ओर मानसिंह का दरबारी संगीत दूसरी और सूर और तुलसी का गैर दरबारी संगीत। दक्षिण में संगीत का क्षेत्र बना कर्नाटक ।इस केंद्र के संचालक थे पुरंदर दास और वह दरबारी गायक नहीं थे। इस तरह वह सूर ,तुलसी की परंपरा से जुड़ जाते हैं। यह सब गायक लोक भाषा में रचनाएं करते थे। उनकी भक्ति का आधार था प्रेम और उसका परिणाम था लोकहित..।संगीत और साहित्य के इस अनूठे संगम का ही प्रभाव था कि एक ही किस्म की राग रागिनी या देश के विभिन्न कोनों में मिल जाती। दक्षिण का राग उत्तर के राग से संम्पृक्त होता है। दक्षिण कान्हरा विभिन्न नामों से उत्तर भारत में गायन का आधार बनता है। मालवा और गौड प्रदेश के राग मिलकर मालव गौड हो जाते हैं..."

            भक्ति आंदोलन के संदर्भ में एक बात यह भी खास है कि हिंदी के  नवजागरण कालीन आलोचना में उसे भारतीय चिंता का स्वाभाविक विकास कहा गया अथवा युगीन परिवेश में इस्लामी संस्कृति के प्रभाव से उसका आकलन किया गया। उत्तर समय में भक्ति आंदोलन और भक्ति को देखने का नया नजरिया हमें यह बताता है कि भक्ति आंदोलन को विवेचित करते हुए  कई आचार्य संस्कृत और उसकी शास्त्रीय परंपरा से भक्ति को  जोड़ते हैं जबकि भक्ति की कविता और उसकी लोक चेतना  भारतीय कविता की  वह जनधर्मी परंपरा है जिसे मौखिक परंपरा कहा जाता है वह उससे अधिक जुड़ती है। यह परंपरा किसी शास्त्र से नहीं लोक  की विविध मौखिक परंपराओं से अपना जुड़ाव बनाती रही। पशुपालन संस्कृति, ग्रामीण गीत और लोक संस्कृति के बहुत से रुपों में इस परंपरा को देखा और परखा जा सकता है। हिंदी आलोचना में 'भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य' जैसा महत्वपूर्ण शोध करने वाले प्रोफेसर मैनेजर पांडे ने कृष्ण कविता को पशुपालन संस्कृति के साथ जोड़कर देखा परखा। इसी पुस्तक में भक्ति काल को मौखिक परंपरा से जोड़ते हुए वह लिखते हैंभक्ति की अंतर्वस्तु जन संस्कृति और जनजीवन के अनुभवों से निर्मित है। इसके काव्य रूप संस्कृत के प्रचलित काव्य रूपों से भिन्न भक्ति काल की प्रगट आत्मकथात्मक ग्राम गीतों की मौखिक परंपरा की देन है।"

            हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में उसका लोकवृत्त मुख्य धारा की अपेक्षा  हाशिये के समाज के साथ निर्मित होता है जिसकी इतिहास लेखन में प्राय उपेक्षा हुई है। भक्ति आंदोलन का आधार  संत और सूफी कविता में विशेष रूप से व्याप्त है। साहित्य इतिहास लेखन की परंपरा में या आलोचना में प्राय इस मत की उपेक्षा हुई। औपनिवेशिक इतिहास लेखन के प्रतिरोध में नवजागरण कालीन राष्ट्रवादी इतिहास लेखन लिखा गया लेकिन उसमें भी इतिहास निर्माण की संस्थाएं और इतिहास लेखकों ने शास्त्रीय मर्यादा और काव्यशास्त्रीय मर्यादा और कविता की शास्त्रीय भूमि को ज्यादा तवज्जो दिया। दिलचस्प यह कि इस कैनन का विरोध करते हुए भी  आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेई भी इतिहास निर्माण की प्रक्रिया में संत सूफ़ी  भक्ति कविता को दृढ़ता  से स्थापित नहीं कर पाते। प्रगतिशील इतिहास लेखन में  रामविलास शर्मा जैसे इतिहासकार राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की भक्ति विषयक के इतिहास दृष्टि की  संकीर्णता बहुत उजागर नहीं कर पाते।

            इतिहास लेखन और इतिहास दृष्टियों की इसी निर्माण प्रक्रिया को प्रश्नांकित करते हुए फ्रांचेस्काअर्सिनी  ने अपने महत्वपूर्ण शोध 'हिंदी का लोकवृत्त' में इसको रेखांकित करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि इतिहास लेखन की एकमतपसंद और बहुमतपसंद दृष्टि का द्वंद है। प्राय: हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में एकमत पसंद इतिहास दृष्टि का दबदबा रहा, लिहाजा बहुमतपसंद इतिहास दृष्टियां उपेक्षित रहीं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है ,"किसी विषय पर अपना ही नजरिया सही क्यों लगे और नजरिया भी होते है, संभव होते हैं। नजरिया, विश्वास, नियम कुछ हद तक नम्र लचीले शशंक मालूम होने लगते हैं। पर कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिनको यह बात मंजूर नहीं होती है। इनको मैंने एकमतपसंद कहा है। हिंदी में एकमतपसंद की विरोधी स्थिति बहुमत पसंद है।.. हिंदी में एकमत पसंद धारा का वर्चस्व रहा है।"

            हिंदी साहित्य इतिहास लेखन की परंपरा में सबाल्टर्न  इतिहास दृष्टि के विकास के साथ बहुमतपसंद और बहुजन साहित्य इतिहास लेखन की परंपरा का विकास होता है। रंणजीत गुहा, ज्ञानेंद्र पांडे, गायत्री चक्रवती जैसे इतिहास लेखकों ने इतिहास को देखने की एक नई दृष्टि दी।  खासकर हिंदी साहित्य इतिहास लेखन पर इसका गहरा असर हुआ दलितवादी, स्त्रीवादी इतिहास लेखन को इस इतिहास दृष्टि ने एक नया नजरिया दिया। यह दिलचस्प है कि सबाल्टर्न इतिहास दृष्टि का  यह नजरिया हिंदी साहित्य इतिहास लेखन में मुक्तिबोध के उन प्रश्नों के साथ जुड़ता है जिसे वह 'मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन का एक पहलू' जैसे निबंध में बहुत पहले उठा चुके थे। देखा जाए तो मध्य युग में विशेष रूप से भक्ति काल को लेकर उनकी यह स्थापना काबिले गौर है कि 'किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन-किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है अर्थात वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है। किन सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अंग है। दूसरे यह कि उसका  आंतरिक स्वरूप क्या है किसका परिणाम है और किन भावनाओं ने उसके आंतरिक तत्व  रूपायित किए हैं। तीसरे उसके प्रभाव क्या है? किन सामाजिक शक्तियों ने उनका उपयोग या दुरुपयोग किया है और क्यों ?साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है।"

            हिंदी साहित्य में भक्ति काव्य को देखने का एक और नया भाषाई नजरिया  हमें उत्तर औपनिवेशिक इतिहास दृष्टि ने मुहैया कराया है कि साहित्य के इतिहास में  युगीन परिवेश में भाषाओं के उदय और उनके विकास के समानांतर साहित्य की रचनात्मकता कैसे विकसित होती है। खासकर यह बात भक्ति काल के ऊपर और भी अधिक लागू होती है। भक्ति काल जिसे रामविलास शर्मा 'लोक जागरण' का काव्य कहते हैं और हिंदी आधुनिकता का आरंभ वहीं  से मानते हैं। भक्ति काल की संत कविता के अध्येता पुरुषोत्तम अग्रवाल ने 'कबीर और उनका समय' जैसी पुस्तक में भक्ति काव्य के लिए विशेष कर संत कविता के लिए 'देशज आधुनिकता' जैसा शब्द प्रयोग करते हैं तो यह भक्ति काल  को देखने  का भारतीय आधुनिकता का नजरिया है।

            भक्तिकाल को देखने के लिए हमें उस समय की जन भाषाओं के विकास की गतिकी को समझना बहुत जरूरी है। प्रसिद्ध चिंतक शेल्डन पोलोक ने साहित्य के इतिहास में और उसके पुनर्लेखन में भाषाओं के उदय की पड़ताल की आवश्यकता की ओर संकेत करते हुए लिखा है," साहित्य इतिहास को दोबारा कैसे सोचा जाए खासकर क्यों और कैसे साहित्यिक भाषाओं का उदय हुआ, किस तरह से कॉस्मोपॉलिटन और वर्नाकुलर पहचानो ने एक दूसरे को प्रभावित किया। इस प्रक्रिया में कैसे उनमे बदलाव आया तथा भारतीय उपमहाद्वीप के साहित्य और उनके इतिहास पर सोचने का मतलब क्या है यह अब तक कैसे सोचा गया है।" स्पष्ट है कि भक्ति काल में भक्त कवियों ने अपनी स्थानीय बोली वाणी में अपनी कविताओं को कहा या रचा तो इसलिए  भक्ति काल की हिंदी कविता को समझने के लिए भाषिक संरचना के लिहाज से उसे देखना परखना होगा। उत्तर औपनिवेशिक दृष्टिकोण से भाषा की संरचना साहित्य के इतिहास को समझने का एक महत्वपूर्ण कैनन है। हिंदी क्षेत्र में अनेक देसी भाषाएं साहित्य में उपस्थित होकर कैसे उनके विकास में काम कर रही थी इसे समझना जरूरी है। हिंदी का भक्ति आंदोलन बहुभाषी समाज की बहुभाषिक अभिव्यक्ति है तो जाहिर है साहित्य इतिहास लेखन में  उसकी बहुभाषाई  सृजनात्मकता और उसके  सर्जनात्मक शक्ति की पड़ताल भी जरूरी है।

            कह सकते हैं कि भक्ति आंदोलन और भक्ति कविता को उत्तर समय में देखने के कई नजरिये हो सकते हैं जिसमें एक ओर इतिहास लेखन और इतिहास दृष्टियों की पड़ताल करते हुए उत्तर आधुनिक विमर्श के साथ भक्ति कविता को देखना होगा  तो दूसरी ओर भाषा, कला, संगीत और अन्य माध्यमों में भक्ति आंदोलन और भक्ति कविता की पुनः पड़ताल करना भी आवश्यक है। हमारे समय में धर्म की संकीर्ण  चेतना  और दिखावे के बीच भक्त कवियों की उन्मुक्त और समन्वयवादी और जनधर्मी भक्ति संवेदना से हम बहुत कुछ सीख और  ग्रहण कर सकते हैं।


प्रभाकर सिंह
प्रोफेसर, हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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