शोध आलेख : दर्शन और जीवन के मर्म को तलाशता मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन / डॉ. संगीता कुमारी

दर्शन और जीवन के मर्म को तलाशता मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन
डॉ. संगीता कुमारी

शोध सार : भक्ति आंदोलन एक धार्मिक आंदोलन नहीं था। यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन था जिसका अभीष्ट था समाज में समरसता और आदर्श की स्थापना। एक ऐसे समाज का निर्माण जहां रहने वाले सदस्य विभिन्न धर्म, क्षेत्र, भाषा एवं संस्कृति से संबंद्ध होने के बावजूद सह-अस्तित्व की भावना से जुड़े रहते हैं। मध्यकाल में विषयों की विविधता के साथ-साथ लेखन की विविधता भी प्रचुर मात्रा में विद्यमान थी। ऐसे में भाषा और अनुशासन एवं दर्शन की ऊंचाई से देखें तब इसेस्वर्ण कालभी कहा जा सकता है। यह एक अखिल भारतीय आंदोलन था जहां ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, दार्शनिक समृद्धि के साथ-साथ लोक संस्कृति और लोक भाषा भी अपना योगदान दे रहे थे। भक्ति ने धर्म के स्वरूप के रूप में ईश्वरीय सत्ता और सृष्टि के बीच वह संतुलन बनाया जहां जनसामान्य भी ईश्वर के आगे स्वयं को समर्पित कर अपना आत्म विस्तार कर सके। इसी संदर्भ में यह शोध आलेख मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के दार्शनिक आधार की व्याख्या करते हुए भक्ति काव्य में दर्शन और जीवन का संयोजन किस प्रकार हुआ है इसे देखने का प्रयास है।

बीज-शब्द : भक्ति, दर्शन, धर्म, कर्म, ज्ञान, मध्यक़ालीन भक्ति-आंदोलन, आध्यात्मिक परम्परा, सहिष्णुता, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, मोक्ष।

मूल आलेख : भक्ति आंदोलन ऐतिहासिक रूप से मध्यकाल की एक विशिष्ट घटना है। यह एक अखिल भारतीय आंदोलन है जिसकी नवजागरणपरक चेतना ने न सिर्फ तत्कालीन समय को प्रभावित किया वरन आज के समय की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक गतिविधियों से भी किसी न किसी रूप में जुड़ी रही है। यह एक समग्र आंदोलन था जिसका संबंध मानव जीवन की पूर्णता से था। इसकी भूमिका में इतिहास, दर्शन, साहित्य और समाज का समायोजन था जिसने उस समय भौगोलिक रूप से पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण सभी दिशाओं का भेद मिटाकर सवर्ण-अवर्ण, हिंदू-मुसलमान सभी को एक समान भूमि पर ला खड़ा किया। इसमें उस समय के किसान, कारीगर, दस्तकार, जुलाहे सब सम्मिलित हुए। इसने एक अखिल भारतीय आंदोलन का रूप ले लिया। “इसने देश को उत्तर-दक्षिण, पूर्व और पश्चिम सभी ओर स्पंदित किया। सारे राष्ट्र की समग्र अभिव्यक्ति के रूप में सामने आया। ...चाहे पूर्व हो या पश्चिम, उत्तर हो या दक्षिण भक्ति-आंदोलन का मुख्य नेतृत्व नीची कही जाने वाली जातियों के हाथों में ही रहा। इन संतों ने साधारण जनता को वर्ग, धर्म, जाति और संप्रदाय की संकीर्णता से मुक्त करते हुए परस्पर घूलने-मिलने की प्रेरणा दी और इस प्रकार सामंतवाद की जड़ों पर कड़ा प्रहार किया।”[1]

मूल रूप से मध्ययुगीन भक्ति-आंदोलन की शुरुआत दक्षिण में हुई परंतु दक्षिण से चलकर यह पूरे देश का जनआंदोलन बन गया। तभी गुरु रामानंद ने कहा कि- “भक्ति उपजै द्रविड़ में ल्यायै रामानंद” भक्ति के दक्षिण के आलवारों और उत्तर में रामानुजाचार्य ने अपने “विशिष्टाद्वैतवाद” के जरिए एक ठोस आधार प्रदान किया। इसी समय निम्बारकाचार्य, माध्वाचार्य, विष्णुस्वामी लगभग सभी आचार्यों ने अपने दार्शनिक मतों में जगत के मिथ्यावाद का खंडन किया। इन दर्शनों के आलोक में भक्ति-चेतना क्षेत्र-भेद, भाषा-भेद मिटाती हुई देश के कोने-कोने में पहुंची। महाराष्ट्र के वारकरसंप्रदाय, उड़ीसा की पंचशाखाएं, आसाम के शंकरदेव की वाणी हो या बंगाल के चैतन्य महाप्रभु, गुजरात से नरसिंह मेहता, पंजाब से गुरु नानक सभी ने कमोबेश अपनी-अपनी भाषाओं में एक ही बात कही। सांस्कृतिक रूप से नवजागरण का रूप धारण करने वाले इस आंदोलन के केंद्र में थी ‘मानवता’। मानवीय मूल्यों को स्थापित करने वाला यह आंदोलन सह अस्तित्व और सहिष्णुता पर आधारित था। सनातन काल से भारतीय संस्कृति नैतिक मूल्य और संयम को धारण करती है। परंतु मध्य काल भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में ऐसा काल है जिसने कई सारे आक्रमण एवं संस्कृतियों की टकराहट को देखा था। भारतीय सांस्कृतिक, सामाजिक समरसता के समक्ष अस्तित्व का संकट एक चुनौती के रूप में प्रस्तुत हुआ। फलतः, इस दौर  में भक्ति-आंदोलन जैसे सांस्कृतिक, साहित्यिक, दार्शनिक आंदोलन की शुरुआत हुई।

भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति पर प्रारंभिक रूप से विचार करने वाले हिंदी साहित्य के इतिहासकारों में महत्वपूर्ण नाम जॉर्ज ग्रियर्सन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी का है। वहीं भक्ति साहित्य, और विशेषकर भक्त कवि कबीर को हिंदी साहित्य में स्थापित करने का श्रेय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को जाता है। हिंदी साहित्य के इतिहास को काल-खंडों में विभाजित करने का कार्य निश्चित रूप से जॉर्ज ग्रियर्सन ने किया लेकिन भक्ति आंदोलन के उद्भव के पीछे उन्होंने ईसाई धर्म की बात कही जो तर्क सम्मत नहीं है। आचार्य शुक्ल ने भक्ति आंदोलन के उद्भव के पीछे का कारण इस्लाम के आगमन को दिया है। वह लिखते हैं- “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देव मंदिर गिराए जाते थे, देव मूर्तियां तोड़ी जाती थी और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वह कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत ना तो वे गा ही सकते थे ना बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलट-फेर के पीछे हिंदू जन समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?”[2] आचार्य शुक्ल की यह व्याख्या भक्तिकाल पर पूर्ण रूप से सटीक नहीं बैठती। इसका एक उदाहरण मलिक मोहम्मद जायसी की रचनाएं हैं जो हिंदू घरों की लोक कथाओं को आधार बनाकर लिखा गया है। यही नहीं संत काव्यधारा के पुरोधा रचनाकार कबीर और अन्य कई निम्न जाति से आने वाले भक्त कवि मुसलमान जाति से आए थे और सूफी मतों पर भी निर्गुण भक्ति का प्रभाव था। ऐसे में इस्लाम के आगमन से भक्ति आंदोलन की शुरुआत कहना तर्कसंगत नहीं है परंतु महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने भक्ति काव्य की महत्ता को विषय का हिस्सा बनाया। बाद में द्विवेदी जी ने ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में लिखा है कि “ये लोग गृहस्थ थे और इनका पेशा जुलाहे और धुनिए का था। इनमें जो साधु हुआ करते, वे भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करते थे। ब्राह्मण धर्म में इनका कोई स्थान न था। मुसलमानों के आने के बाद वे लोग धीरे-धीरे मुसलमान हो गए और आज भी हो रहे हैं। परंतु मुसलमान होने पर भी यह अपनी साधनाओं से विरक्त नहीं हुए।”[3] हालांकि द्विवेदी जी कहते हैं “ऐसा करके मैं इस्लाम के महत्व को भूल नहीं रहा हूं, लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूं कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।”[4]

स्पष्ट है की भक्ति आंदोलन भारतीय चिंता की सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इस कालखंड के कोई भी ‘कवि’ हो, यहां उन्हें कवि कहना भी भ्रामक है, इनकी रचनाएं रचना करने के उद्देश्य से नहीं थे बल्कि यह उनका अनुभूत सत्य था जिसने स्वयं सर्जना का रूप ले लिया। इसलिए इनकी रचनाओं में काव्य भी है, सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार भी है और उपदेशात्मकता भी। यह तो संत काव्यधारा के कवि हैं जिनमें से ज्यादातर अक्षर ज्ञान से परिचित नहीं हैं। परंतु यहां उल्लेखनीय यह है कि सगुण धारा के वे कवि भी जो संस्कृत के विद्वान हैं, कवि हैं वह भी अपने को कवि से ज्यादा भक्त कहलाना पसंद करते हैं अर्थात सगुण धारा के रचनाकार हो या निर्गुण धारा के उनका अभीष्ट यहां भक्ति है। “यद्यपि यह सत्य है कि भक्ति का सर्वोत्तम एवं मुख्य रूप वैष्णव मत में ही मिलता है। परंतु भक्ति की अवधारणा का मूल रूप अन्य संप्रदायों में भी विकसित हुआ है, ऐसा इस लेखक का विचार है। शैव, शाक्त, बौद्ध, संत, स्मार्त, जैन, वैष्णव इन सभी संप्रदायों में इसका प्रकाशन हुआ है। वैष्णव-मत के साथ संबंद्ध करने पर हमें भक्ति के प्रारंभिक विकास को दिखाकर फिर उसे, सुदूर दक्षिण में पहुंचाकर तमिल प्रदेश के आलवारों में दिखाना पड़ता है। यदि भक्ति की भावना को अन्य साधनाओं में भी देखा जाए तो मेरे द्वारा कही गई बात अधिक स्पष्ट होगी। पर इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि भक्ति की जिस भावुकता को हम वैष्णवों में पाते हैं, आलवारों में पाते हैं अन्यत्र उसकी कमी है।”[5]

अब यदि ‘भक्ति’ शब्द की प्राचीनता को देखें तब ‘भक्ति’ शब्द की व्याख्या सर्वप्रथम श्वेताश्वर उपनिषद में की गयी है वहीं कठोपनिषद के कुछ मंत्र भक्ति भावना से जुड़े हुए हैं। मुण्डकोपनिषद में भी उपास्य और उपासक के संबंधों की चर्चा है। यह वह समय है जब बौद्ध और जैन धर्म की तरह भागवत धर्म भी नवीन प्रेरणाओं को ग्रहण कर रहा था। भक्ति में बाह्य आडम्बरों का स्थान नहीं था। अंतर साधना पर बल एवं आध्यात्मिकता की चाह ने गुरु के महत्व को सबसे अधिक महत्वपूर्ण बताया। भक्ति शब्द धर्म से संबंधित है। साधारणतः धर्म का प्रवाह कर्म, ज्ञान और भक्ति की तीन धाराओं में निहित है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपने को स्थापित करता है। धर्म की भावात्मक अनुभूति या अभिव्यक्ति प्राचीन काल से ही किसी न किसी रूप में चली आ रही है। यही नहीं धर्म समाज की नियामक है। समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए धर्म का ही सहारा लिया जाता है। साथ ही धर्म सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी संलग्न होती है।

भारतीय दर्शन, दर्शन की एक प्राचीन परंपरा की देन है। भारत शुरू से ही कई धर्मों, विचारों, संप्रदायों एवं संस्कृतियों को प्रश्रय देने वाला देश रहा है। धर्म-संबंधी गहन चिंतन की मूल-धारा के पर्याय के रूप में ही वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक आदि की उत्पत्ति हुई और इनके साथ-साथ बौद्ध, जैन, न्याय, सांख्य एवं विभिन्न भौतिकवादी मत एवं संप्रदाय ने भी समानांतर रूप से हमारे मानस को परिष्कृत किया। भारतीय दार्शनिक चिंतन को हम साधारण वेदांत-दर्शन और बौद्ध-दर्शन के आलोक में ही व्याख्यायित करते हैं। वैदिक दर्शन आस्तिक और नास्तिक विभागों में बँटे हुए हैं। सांख्य और योग, न्याय और वैशेषिक, तथा मीमांसा (पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा) दर्शन आस्तिक हैं क्योंकि यह वेदों का विरोध नहीं करते। इसके विपरीत जैन, बौद्ध और चार्वाक ये तीन दर्शन नास्तिक हैं क्योंकि यह वेदों का विरोध करते हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि बेशक हमारे दर्शन विभिन्न मतों और विचारों को प्रकट करते रहे हैं परंतु उनका मूल उत्पाद सदा से जीवन में त्याग, आध्यात्मिक परंपरा और मोक्ष रहा है। चार्वाक को छोड़कर किसी भी दर्शन ने निरे भोगवाद को प्रोत्साहित नहीं किया। किसी न किसी रूप में हमने कर्म को ही प्राथमिकता दी और उसे ही प्रतिष्ठित किया।

दरअसल किसी भी दर्शन को जब हम समझने की कोशिश करते हैं तब कुछ सामान्य प्रश्न हर जगह उपस्थित होते हैं। जैसे- मनुष्य कहां से आया है और मृत्यु के उपरांत वह कहां जाएगा?; इस सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ?; मोक्ष क्या है?; निर्वाण क्या है? क्या मृत्यु जीवन की अंतिम परिणति है या इससे आगे भी कुछ है?; आत्मा नश्वर है?; आत्मा का क्षय नहीं होता? आदि। भारतीय समाज की यह विशेषता है कि इस तरह के प्रश्न आपको कहीं भी मिल जाएंगे। इसके लिए किसी विशेष वर्ग, वर्ण या पढ़े-लिखे विद्वानों की कोई आवश्यकता नहीं। जीवन, मृत्यु, मोक्ष, आत्मा और परमात्मा का द्वंद्व, ईश्वर की सत्ता आदि प्रश्न से उलझे बिना हम भारतीय चिंतन को नहीं समझ सकते। बुद्ध ने ईश्वर है या नहीं इससे ऊपर व्यक्ति के कर्म को रखा। इसलिए उन्होंने न किसी ईश्वर का नाम लिया, ना किसी देवता की भक्ति का उपदेश दिया, ना प्रार्थना की प्रथा चलाई। महात्मा बुद्ध के जन्मान्तरवाद और कर्मफलवाद की स्वीकृति में वैदिक धर्म का ही प्रभाव दिखता है। उपनिषद में वेद का अनादर नहीं है लेकिन उपनिषदों में यही निहित है कि जीवन का सच्चा उद्देश्य मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति है। मोक्ष अर्थात जीवन-मरण के बंधन से छुटकारा। बुद्ध के यहां जो निर्वाण है वह मोक्ष या मुक्ति का ही अन्य नाम है। और कर्म के जिस सिद्धांत पर बौद्धों ने अपनी असीम आस्था प्रकट की कमोवेश वही स्थिति उपनिषदों और भगवत गीता की भी है। वैदिक धर्म और बौद्ध दर्शन में सबसे बड़ा फ़र्क़ था वह आत्मा की अस्वीकृति को लेकर था। इसने तत्कालीन समय में एक क्रांति का रूप ले लिया था क्योंकि आत्मा पारम्परिक हिन्दू व्यवस्था में निराकार ही मानी जाती है उसका एक शरीर से दूसरे शरीर तक गमन करना, असल में हमारे संस्कारों की ही मात्रा है। बुद्ध ने आत्मा की सत्ता को नहीं स्वीकार किया परंतु बिना आत्मा पर विश्वास किए पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास और कुछ हद तक कर्म पर आस्था भी प्रभावित हुई। क्योंकि अगर हम निष्काम कर्म की बात करते हैं तब कहीं-न-कहीं इस जन्म से इतर भी कोई सत्ता है जहां से हमें फल पुण्य के रूप में मिल सकता है यही भाव छिपा होता है। पश्चिम के कुछ विद्वानों ने इस आधार पर बौद्ध धर्म/दर्शन को नास्तिक भी करार दिया।

दरअसल यह कुछ ऐसे कारण है जो बौद्ध धर्म के अवसान और बाद में वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के कारक बने। “जो लोग इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि कैसे शक्तिशाली बौद्धधर्म इस देश से अचानक गायब हो गया, उन्हें पुराणों के व्यापक कोलाहल शून्य पर गंभीर प्रभाव को ध्यान में रखना चाहिए। इन पुराणों ने लाक्षणिक प्रणाली से यथार्थ जीवन के उदाहरणों के माध्यमों से भक्ति-मार्ग एवं सगुणोपासना को बहुत अधिक प्रचारित किया। इन पुराणों के गहरे प्रभाव का परिचारक यह तथ्य भी है कि हिंदू पुराणों के अनुकरण पर जैनों के चौबीस तथा बौद्धों के नौ पुराण बने।”[6]

यह सच है कि पुराणों में निहित यथार्थ जीवन के उदाहरण और मिथकों के माध्यम से भक्ति-मार्ग का रास्ता और भी प्रशस्त हुआ। इसलिए भागवत पुराण को भक्ति आंदोलन का मूल ग्रंथ भी समझा जाता रहा है परंतु इन पुराणों के अतिरिक्त अंशतः वेद में और गीता एवं उपनिषदों में भी ‘भक्ति’ किसी न किसी रूप में विद्यमान है। यहां महत्वपूर्ण यह है इन भक्त कवियों की रचनाओं पर उसे समय के दार्शनिकों के मतों का प्रभाव किस प्रकार पड़ा और उसने उनके जीवन को कैसे प्रभावित किया। “बारहवीं शताब्दी के आसपास दक्षिण में सुप्रसिद्ध शंकराचार्य के दार्शनिक मत अद्वैतवाद की प्रतिक्रिया शुरू हो गई थी। अद्वैतवाद में, जिसे वाद के विरोधी आचार्यों ने मायावद भी कहा है, जीव और ब्रह्म की एकता भक्ति के लिए उपयुक्त ना थी, क्योंकि भक्ति के लिए दो चीजों की उपस्थिति आवश्यक है, जीव की और भगवान की। प्राचीन भागवत धर्म इसे स्वीकार करता था। दक्षिण के आलवार भक्त इस बात को मानते थे। इसलिए बारहवीं शताब्दी में जब भागवत धर्म ने नया रूप ग्रहण किया तो सबसे अधिक विरोध मायावद का किया गया। चार प्रबल संप्रदाय अद्वैतवाद के विरोध में आविर्भूत हुए जो आगे चलकर संपूर्ण भारतीय साधना के रूप को बदल देने में समर्थ हुए। चार संप्रदाय हैं: रामानुजाचार्य का श्री-संप्रदाय, माधवाचार्य का ब्राह्म संप्रदाय, विष्णु स्वामी का रुद्र-संप्रदाय और निम्बार्काचार्य (निम्बादित्य) का सनकादि-संप्रदाय। इन चारों संप्रदायों के दार्शनिक मत में भेद है, परंतु एक बात में वे सब सहमत हैं। वह बात मायावद का विरोध है। दूसरी बात जो इन सब में एक है वह भगवान का अवतार धारण करना है। जीवात्मा सबके मत से भिन्न-भिन्न हैं। वह अद्वैतवादियों की धारणा के अनुसार भगवान में लीन कभी नहीं होता। इन संप्रदायों का हिंदी के भक्ति काल के साहित्य के साथ सीधा संबंध है।”[7]

आदिगुरु शंकराचार्य के ‘ब्रह्म’ और ‘माया’ संबंधी विचारों ने भक्ति की अवधारणा को नया संकल्प दिया। रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में “शंकर के अद्वैतवादी सिद्धांतों से सबसे अधिक निराशा, दक्षिण की भक्ति-विभोर जनता को हुई और इसी जनता की प्रतिक्रिया ने रामानुज, निंबार्क आदि वैष्णवाचार्यों को उत्पन्न किया। इन वैष्णवाचार्यों को द्वैत अथवा विशिष्टाद्वैत के सिद्धांतों की खोज क्यों अच्छी लगी, इसका भी समाधान यही है कि ये सभी आचार्य आलवारों की भक्ति-भावनाओं से, उनके पदों और रचनाओं से पूर्ण रूप से ओत-प्रोत थे।”[8]

शंकराचार्य के अद्वैतवाद का खंडन असल में माया सिद्धांत के खंडन से जुड़ा था। शंकराचार्य के दर्शन पर उपनिषदों का भी प्रभाव था और बौद्धों के महायान दर्शन का भी। शंकराचार्य के दर्शन ने वैदिक धर्म के उत्थान के लिए तो अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया परंतु इन्होंने अपने दर्शन में ‘ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या’ कहा जो गृहस्थों के अनुकूल नहीं था। रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के अद्वैतवाद का खंडन किया। गीता पर उन्होंने टीका लिखा और वेदांत सूत्र पर श्रीभाष्य। वेदांत सूत्रों की ईश्वरवादी व्याख्या करके रामानुजाचार्य ने वैष्णव धर्म कहें या भक्ति का दर्शन निर्मित किया। रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत तत्कालीन संत कवियों, जनों को ज्यादा लोकप्रिय लगा क्योंकि यहां ‘ब्रह्म’ की जगह ‘ईश्वर’ को स्थापित कर दिया। “रामानुज की विशेषता यह है कि ईश्वरवाद पर से उन्होंने भक्ति का दर्शन प्रस्तुत किया और यह सिद्ध किया कि भक्ति की शिक्षा केवल तमिल-प्रबंधम से ही नहीं, प्रत्युत, प्रस्थानत्रयी (वेदांत सूत्र, उपनिषद और गीता) से भी मिलती है। रामानुज वैदिक धर्म और आलवार दोनों की परंपराओं के प्रति आस्थावान थे और दोनों के तत्वों को एकाकार करके ही उन्होंने अपने मार्ग का प्रवर्तन किया।”[9]

भारतीय दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपरा में जीवन का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। यहां तक कि वेदांत दर्शन में जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति की बात की गई है। जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में भी मोक्ष की प्रमुखता की बात की गई है। अब यदि मोक्ष प्राप्ति के साधनों की बात करें तो विभिन्न दर्शन में इसके ऊपर मतभिन्नता है परंतु मोक्ष प्राप्ति के अलग-अलग मार्ग अवश्य बताए गए हैं। इनमें चार मार्ग हैं: ज्ञान, भक्ति ,कर्म और योग मार्ग। सामाजिक संरचना, संसाधनों का आसमान वितरण आदि कुछ ऐसे कारण थे जहां सामान्य जन के लिए मोक्ष की प्राप्ति का प्रयास एक कठिन कार्य था। और इसी कारण भक्ति मार्ग की जनसुलभता ने संभवतः भक्ति आंदोलन के प्रचार और प्रसार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

दरअसल भारतीय परिप्रेक्ष्य में समाज एकांगी नहीं है यहाँ धर्म एवं आध्यात्म की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। पश्चिम में भी धर्म की अतार्किक परिणीति समाज के विभिन्न वर्गों और समुदायों में असहिष्णुता, असमानता और अराजकता की कारक रही है। कई चिंतक भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी यह मानते हैं कि धर्म, आध्यात्म और कर्मकांड की प्रमुखता ने वर्ण व्यवस्था को शोषणमूलक जाति व्यवस्था के रूप में परिणत किया जो भारतीय समाज के लिए आज तक अभिशाप है। ऐसे में भक्ति का स्वरूप कैसा हो? क्या भक्त और भगवान के बीच आडंबर, कर्मकांड और किसी तीसरे व्यक्ति जिसे हम पंडित, पुजारी, तांत्रिक इत्यादि कह सकते हैं की भी कोई भूमिका हो सकती है? मध्यकाल से पहले तक तथाकथित निम्न वर्ग के लोगों के लिए भगवान की आसक्ति भी इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं थी और ऐसे में दक्षिण से दर्शन की ठोस आधारभूमि पर आ रहे भक्ति, उपासक और उपास्य के बीच के सीधे संबंध का प्रस्फुटन भक्ति काव्य में दिखता है।

अगर हम भक्ति काल को भक्ति-आंदोलन के रूप में स्वीकार करते हैं तब इसके पीछे बड़ी संख्या में भक्त कवियों तक सिर्फ भक्ति में लीन होना नहीं है, बल्कि इसके साथ-साथ उनकी ऐसी रचनाएं हैं जो सामाजिक समरसता और लोकचिंता से जुड़ी हुई हैं। ऐसा नहीं है कि मध्य काल से पहले हम साहित्यिक व सांस्कृतिक रूप से विपन्न थे परंतु हमारी समृद्धि संस्कृत साहित्य और एक खास वर्ग से जुड़ी हुई थी।

मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियां, चरक और सुश्रुत की संहिताएँ, न्यायादि छहों दर्शन-सूत्र, प्रसिद्ध पुराण, रामायण और महाभारत के वर्तमान रूप, नाट्यशास्त्र, पतंजलि का महाभाष्य आदि रचनाएं सन ईसवी के दो-ढाई सौ वर्ष इधर-उधर तक हो चुकी थी । अश्वघोष, कालिदास, भद्रबाहु, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, कुमारिल, शंकर, आदि संस्कृत के बड़े आचार्य भारतीय साहित्य और नाटकों को अभिनव समृद्धि प्रदान कर चुके थे । लेकिन मध्यकालीन समाज की संरचना अलग थी। समाज मुख्य रूप से हिंदू, मुसलमान और जैन संप्रदाय में बंटा था । बौद्धों की स्थिति अपेक्षाकृत अलग थी। हिंदू समाज में ब्राह्मण सर्वोपरि था, इसके बाद क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ग आते थे। शूद्रों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। इन्हें मंदिरों में प्रवेश की अनुमति नहीं थी और इनके लिए अलग सामाजिक नियम थे। “यह भी ध्यान देने की बात है कि द्विजों के साथ शूद्रों को भी वैष्णव-धर्म में आने का अधिकार, सबसे पहले, रामानुज ने ही प्रदान किया। इसका कारण यह था कि आलवारों  में से अनेक शूद्र-वंश के थे और शूद्र-कुलोत्पन्न होने पर भी जनता, उन्हें पूज रही थी। ऐसे में, रामानुज यह कैसे कह सकते थे कि शूद्रों को वैष्णव होने का अधिकार नहीं है? अधिकार तो उन्होंने दिया, किंतु प्रपत्ति को उन्होंने शूद्र भक्तों के लिए, विशेष रूप से विहित बताया। यह वर्णाश्रम-धर्म और वृहत मानवतावाद के बीच एक प्रकार का समझौता था, जिसका पालन रामानुज-परंपरा के अन्य संतों- विशेषतः रामानंद और तुलसी- ने भी किया है।”[10] इसी प्रकार अधिकांश भारतीय मुसलमान वह लोग थे जिन्होंने धर्म परिवर्तन करके इस्लाम ग्रहण किया था। यहां महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि इन धर्मांतरित मुसलमानों में अधिकांश निम्न वर्गीय हिंदू धर्म से परिवर्तित जातियां थी। सामान्यत: इस्लाम ने जातिगत भेदभाव का खंडन किया है लेकिन इन्होंने भी हिंदुओं से जातिगत भेदभाव को ही अपनाया। कुल मिलाकर सामाजिक स्थिति जस की तस बनी रही। चाहे सगुण धारा के कवि हों या निर्गुण धारा के सब ने सामाजिक विषमता, कुरीतियों और बाह्य आडंबरों के विरुद्ध आवाज उठाया। कह सकते हैं कि भक्ति काव्य पलायन का काव्य नहीं है। जीवन-संघर्ष और कर्म-सौंदर्य का काव्य है। सुंदरता यहां रूप में नहीं गुण और कर्म में है। इन्होंने अनुभव रचित अपने संसार को सार्वजनिक बनाया। भक्ति काव्य सामाजिक प्रयोजनों का काव्य है और इसी कारण आगे चलकर आधुनिक काल में जितने भी समाज सुधारक आए चाहे वह बाबा साहब भीमराव अंबेडकर हो या ज्योतिबा फुले सबने संत कवि जैसे- कबीर, रैदास, दादू, नानक, धन्ना, पीपा आदि में अपना आधार ढूंढा और जीवन-संघर्ष की प्रेरणा इन्हीं से ग्रहण की। अर्थात भक्ति-आंदोलन सिर्फ तत्कालीन समाज को दिशा दिखाने वाला आंदोलन नहीं था, यह एक नवजागरण था जिसकी अखंड दृष्टि और सामाजिक समरसता के हम आज भी ऋणी हैं।

निष्कर्ष भक्ति आंदोलन एक काल विशेष में हुई। यह बहुत से घटकों की वजह से उपजा हुआ एक आंदोलन था। परंतु इसके पीछे एक ठोस दार्शनिक आधार भी था। रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, निंबार्काचार्य आदि जैसे दार्शनिकों ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दर्शन एक विषय के रूप में और संस्कृत का एक भाषा के रूप में सीमाएँ थीं जो आम जन की भाषा में उपलब्ध नहीं थी। भक्ति काल के कवियों ने इन दार्शनिक मंतव्यों को ग्रहण किया और आमजन की बोली और भाषा में इसका प्रस्फुटन इनकी रचनाओं में दिखता है।

        जब हम किसी चिंतन, विशेष रुप से नॉर्मेटिव (Normative) चिंतन, करते हैं तो उसकी कार्यशीलता (Practicality) भी एक चुनौती होती है। दर्शन एक अलग स्तर पर, जिसे हम ‘जागृत’ स्तर कह सकते हैं, पर कार्य करता है। परंतु जनमानस एक सामाजिक ढांचे के भीतर अपने जीवन को तलाशता और सँवारता  है। मध्य काल का समाज वर्ग, वर्ण, जाति इत्यादि रूपों में बंटा हुआ था और उस काल का साहित्य इससे अछूता नहीं था। इस काल के रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में भारतीय संस्कृति के साथ-साथ सामाजिक रूढ़ियों, कुरीतियों, इत्यादि को प्रमुखता से उठाया है। यहाँ यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि इस काल के ज्यादातर कवि निम्न जाति व वर्ग से आते थे। इसलिए उस काल में सामान्य जन और उसका समाज किस प्रकार का था और तथाकथित बुद्धिजीवी समाज का प्रभाव उस पर किस प्रकार था यह इन कवियों के लेखन से पता चलता है। इतना ही नहीं इस काल के साहित्य व दर्शन ने आगे आने वाले समय में, विशेष रूप से आधुनिक काल में, सामाजिक सुधार आंदोलन व इसके प्रणेता/विचारकों को एक ऐसी आधारभूमि दी जिसके ऊपर एक समतामूलक समाज की स्थापना की जा सकती है। विशेष रुप से राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, महात्मा गांधी, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर इत्यादि पर संत कवियों, उनके विचारों और भारतीय चिंतन के मनीषियों का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

संदर्भ :

[1] शिवकुमार मिश्र, भक्तिकाव्य और लोकजीवन, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृ. 18
[2] आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, जयभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2006, पृ. 53
[3] आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ. 41
[4] वही, पृ. 16
[5] देवीशंकर अवस्थी, भक्ति का संदर्भ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2005, पृ. 28
[6] वही, पृ. 21
[7] आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ. 54
[8] रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ. 274
[9] वही, पृ. 275
[10] वही, पृ. 274-275

 

डॉसंगीता कुमारी
सहायक आचार्यहिंदी विभाग, जगजीवन महाविद्यालय, (मगध विश्वविद्यालय), गया, बिहार
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चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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