शोध आलेख : भक्ति आंदोलन में आलवार और नयनार भक्तों का योगदान / डॉ. पूजा गुप्ता

 भक्ति आंदोलन में आलवार और नयनार भक्तों  का योगदान
डॉ. पूजा गुप्ता


            हिंदी प्रदेश में यह बहुत ही प्रचलित उक्ति रही है कि भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानन्द। भक्ति के उद्भव और विकास पर तो अनेक विद्वानों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए हैं किंतु किसी भी विद्वान द्वारा दक्षिण भारत में विकसित भक्ति परंपरा पर विचार नहीं किया गया। जब उत्तर भारत में वैदिक युग में भक्ति परंपरा विकसित हो रही थी तब द्रविड़ संस्कृति में एक अलग ही भक्ति परंपरा विकसित हो रही थी। यहां आलवार भक्तों नें पांचवी शताब्दी से ही भक्ति मार्ग पर चलना शुरू कर दिया था। इस तथ्य के प्रमाण प्राचीन ‘संगम साहित्य’ में प्राप्त होते हैं। छठी शताब्दी के लगभग आलवार (विष्णु भक्त) और नायनार (शैव भक्त) के नेतृत्व में प्रारंभिक भक्ति आन्दोलन हुआ। ये संत एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल में अपने आराध्य की स्तुति में भजन गाते थे। वे अपनी यात्राओं के द्वौरान कुछ पवित्र स्थलों को अपने आराध्य का निवास स्थल घोषित कर देते थे और बाद में वहाँ विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ। इन्हीं मंदिरों में गाये जाने वाले गीतों के संग्रह भक्ति आन्दोलन के आदि ग्रंथ के रूप में निर्मित हुए। नयनारों के गीतों का संग्रह ‘थेवरम’ तो आलवारों के गीतों का संग्रह ‘प्रबन्धम’ भक्ति आंदोलन का मूल ग्रंथ है। अन्य किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा के साहित्य में 10 वीं शताब्दी तक भक्तिपरक रचनाएँ प्राप्त नहीं होतीं।

तमिल साहित्य के इतिहास में सामान्यतः छठी शताब्दी से लेकर नौवीं शताब्दी तक का काल भक्ति काल के नाम से जाना जाता है। इसी काल में वैष्णव भक्त कवि आलवार और शिव भक्त नयनार  कहलाए। इन भक्तों की वाणियों से परिपूर्ण तमिल भक्ति साहित्य छठवीं शताब्दी से ही प्राप्त होने लगता है जबकि आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य में 15 वीं शताब्दी तक के लगभग ही भक्ति  साहित्य की रचना होती है। 

किसी भी युग की मूल प्रवृत्तियां अपने पूर्ववर्ती युग की प्रतिक्रिया होती हैं। तमिल प्रदेश में  भक्ति आंदोलन का जो चरमोत्कर्ष छठी शताब्दी से लेकर नौवीं शताब्दी तक दिखाई देता है देखा जाए तो वह भी अपने पूर्ववर्ती युग की प्रतिक्रिया है। ईसा की तीसरी, चौथी, पांचवी शताब्दी के तमिल साहित्य के इतिहास को  संघोत्तर काल कहा जाता है। जो कि प्रायः बौद्ध और जैन संतों द्वारा लिखा गया है। प्रारंभ में  इनका उद्देश्य अपने धर्म का प्रचार प्रसार था किंतु कालांतर में इन्होंने खंडन-मंडन की प्रक्रिया अपनाते हुए शैव और वैष्णव धर्म का खंडन करके बौद्ध एवं जैन धर्म का महिमामंडन करना शुरू कर दिया। यद्यपि इन प्रदेशों में जैन एवं बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार काफी पहले ही शुरू हो चुका था। संघ साहित्य में जैनों के भारतीय प्रदेशों में बसने के संबंध में अनेक प्रमाण मिलते हैं। मणिमेखलै नामक ग्रन्थ में अनेक विहारों का वर्णन मिलता है। इससे भी ज्ञात होता है कि उससे पूर्व ही यहां जैन और बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू हो चुका था। इसके अलावा अशोक के कई शिलालेखों में तमिल के चेर, चोल और पांड्य राजाओं का उल्लेख मिलता है। इन धर्मों के प्रचारक संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने एक ओर तो अपने ग्रंथों का प्रणयन ‘संस्कृत’ और ‘पालि’ भाषाओं में किया।  साथ ही तमिल भाषी जनता को आकर्षित करने के लिए ‘तमिल’ भाषा में भी साहित्य रचना आरंभ कर दिया।  उनके ग्रंथ मूलतः नीति प्रधान होते थे। जिनमें वे तत्कालीन धार्मिक विचारों, विश्वासों, रुढियों  आदि का वर्णन किया करते थे। कुछ कवियों ने रामायण, महाभारत के  पात्रों का भी उल्लेख किया है। परंतु उनका उद्देश्य अपने धर्म का प्रचार करना था इस कारण उनका वर्णन भी वे अपने अनुकूल ही करते हैं। साहित्य रचना के अलावा जैनों और बौद्धों ने अनेक विहारों  की स्थापना कर जनता के हित के लिए भी कई कार्य किए। इस कारण वह जनता जो स्वयं को समाज में उपेक्षित महसूस करती थी वह इनसे आसानी से जुड़ती गई। यहां तक कि वे योद्धा जो निरंतर युद्ध करते थक चुके थे उन्हें भी इन विहारों में शांति प्राप्त होने लगी। अतः वह भी इनकी ओर आकृष्ट हुए। परंतु कालांतर में बौद्धों ने इनका दुरुपयोग किया और उन्होंने समस्त तमिल प्रदेश को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करने के उद्देश्य से अन्य धर्मों का खंडन शुरू कर दिया। अब तक कई बौद्ध विहार दुराचार के केंद्र बन गए थे।

इसी प्रकार जैनों ने राज्याश्रय प्राप्त  कर अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। जिनमें जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां होती थी। कालांतर में इन्होंने भी राज्याश्रय  का दुरुपयोग कर शैव और वैष्णो मतानुयायियों  का विरोध करना शुरू कर दिया। इसी समय समाज में पाशुपत, कापालिक, कलामुख जैसे कई संप्रदायों का भी उदय हुआ। अपने विचित्र आचरण से उन्होंने जनता में भक्ति का नहीं बल्कि भय का संचार किया। इनमें नरबलि और पशुबलि की भी परिपाटी थी। बौद्ध और जैन धर्म के इस अतिचार भरे वातावरण के बीच पांचवी-छठी शताब्दी के लगभग जनता को एक ऐसे भक्तिमार्ग की आवश्यकता थी जिस पर चल कर सभी मनुष्य समान रूप से शांति प्राप्त कर सकें। ऐसे में उस वैदिक धर्म को (जिसमें यज्ञादि  के कड़े नियमों और पुरोहित वाद के कारण आम जनता उस से कट गई थी) सरल और सर्वजन सुलभ बना कर आम जन को उससे एक बार पुनः जोड़ने का प्रयास अलवार और नयनार  भक्तों ने किया। 

 छठी शताब्दी से लेकर नौवीं शताब्दी तक वैष्णव आलवारों और शैव नयनारों ने द्रविड़ प्रदेश की स्थानीय भाषाओं में वेद इत्यादि के क्लिष्ट पदों का सार ग्रहण करके भक्ति के मूल रूप को सर्वजन सुलभ बनाया। इन दोनों का मूल उद्देश्य एक ही था ‘सर्वजन को भक्ति के मूल स्वरूप से परिचित कराना’। इसके लिए उन्होंने स्थानीय भाषाओं में ऐसे साहित्य का निर्माण किया जो उच्च कोटि की भक्ति भावना से ओतप्रोत था। उन्होंने अपनी बातों को जनता के बीच रखने के लिए गायन शैली का प्रयोग किया। दोनों जगह जगह अपने गीतों को गाकर जनता को मंत्र मुग्ध कर देते थे। देखा जाए तो दोनों के गीतों का मूल भाव एक ही होता था केवल इनके आराध्य देव शिव और विष्णु का ही अंतर होता था। बहुत कुछ साम्य के अतिरिक्त कुछ एक बातों में अंतर भी दिखाई देता है जैसे कि आलवार अवतारवाद को मान्यता देते थे जबकि नयनार  ऐसा नहीं मानते थे। 

उन्होंने ईश्वर से भय का नहीं प्रेम का संबंध स्थापित किया। ईश्वर को प्रेम, करुणा और स्नेह का प्रतिरूप बताया। सभी प्रकार के कर्मकांड का विरोध करके केवल नाम स्मरण मात्र से ईश्वर की कृपा प्राप्त करने का मार्ग बताया। उनका मानना था भक्ति पर सभी का समान अधिकार है इसमें जाति, लिंग आदि के स्तर पर कोई भेद नहीं है। आलवारों और नयनारों के इन विचारों से आम जनता ही नहीं बल्कि तत्कालीन शासक वर्ग भी प्रभावित हुआ। धीरे-धीरे जो राज्याश्रय  जैन और बौद्ध धर्म को प्राप्त था। अब वह इन आलवारों और नयनारों को प्राप्त होने लगा। इन को प्रोत्साहन देने के लिए अनेक राजाओं ने मंदिरों का निर्माण करवाया। चीनी यात्री ह्वेनसांग (जो 640 ईसवी के लगभग कांचीपुरम आया था) ने लिखा है कि कांचीपुरम में बौद्ध  विहारों के अतिरिक्त अनेक शिव मंदिर भी थे।  साथ ही बहुत से विहार जीर्णावस्था में थे। अतः स्पष्ट होता है कि सातवीं शताब्दी तक बौद्धों और जैनों की शक्ति द्रविड़ प्रदेशों में क्षीण होने लगी थी। शैव एवं वैष्णो धर्म का प्रभाव बढ़ता जा रहा था।

 इस दृष्टि से महेंद्रवर्मन पल्लव प्रथम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह पहले जैन धर्म के अनुयायी थे कालांतर में शैव धर्म को अपना लिया था। इनके समय में साहित्य समेत तमाम कलाओं  जैसे नृत्य,संगीत, मूर्ति कला, वास्तु कला आदि की उन्नति हुई। इस काल में अनेक मंदिरों का भी निर्माण हुआ। जिनमें आलवार और नयनार  भक्त भजन- कीर्तन करते, नृत्य करते हुए एक उत्कृष्ट भक्तिमय वातावरण का निर्माण कर रहे थे। जिससे आम जनता आसानी से जुड़ रही थी। इनकी रचनाओं का मूल स्वर बौद्ध और जैन धर्म के प्रति उनका विरोध है। विरोध का स्वर नयनार संतों की रचनाओं में विशेष रूप से उभर कर आता है। कुछ विद्वानों के अनुसार यह विरोध मूलतः राजकीय अनुदान राशि को लेकर होता था। स्पष्ट है कि शक्तिशाली चोल सम्राटों ने ब्रम्हाणी भक्ति परंपरा को समर्थन दिया तथा शिव और विष्णु के मंदिरों के निर्माण के लिए भूमि अनुदान दिए। तंजावुर, चिदंबरम्, गंगैकोंड चोलपुरम के विशाल शिव मंदिर चोल सम्राटों द्वारा निर्मित किये गए। इसी काल में नयनार संतों का दर्शन शिल्पकारों के लिए प्रेरणा बना जिनका उदहारण कांसे में ढाली गयी शिव की प्रतिमाएँ हैं। चोल सम्राटों के मंदिरों में उन जनप्रिय कवियों की भी प्रतिमाएँ होती थीं जो लोकभाषा में अपनी बात को आमजन तक पहुँचाते थे। 945ई.के एक अभिलेख से पता चलता है कि चोल सम्राटों ने तमिल भाषा के शैव भजनों का संकलन एक ग्रंथ ‘थेवरम’ अथवा ‘तेवरम’ के रूप में करवाया।

‘थेवरम’ शैव भक्ति कविता ‘तिरुमुरई’ के संग्रह का महत्वपूर्ण अंश है जिसकी व्याख्या ‘निजी अनुष्ठान पूजा’ के रूप में की जाती है। इसमें सातवीं आठवीं शताब्दी के तीन प्रमुख कवि संबंदर, अप्पार और सुन्दरार की रचनाएँ संकलित हैं। ये तीनों 63 नयनारों में से हैं आज भी शुभकार्यों में थेवरम की प्रस्तुति तमिल संस्कृति का अभिन्न अंग है। आरंभिक दक्षिण भारतीय भक्ति आन्दोलन को समझने के लिए इनका कार्य महत्त्वपूर्ण है। इन तीनों ने दक्षिण भारत की यात्रा करके मंदिरों में अनुष्ठानिक गायन के माध्यम से शिव के प्रति भावनात्मक भक्ति की परम्परा को आगे बढ़ाया। उदाहरणस्वरुप संबंदर का यह पद नयनार संतों की विशेषता को उद्धृत करता है-

“उस मंदिर में जहां वह सिंहासन पर बैठा है,

जो हमसे कहता है कि हिम्मत मत हारो

उस समय जब हमारी इंद्रियां भ्रमित हो जाती हैं,

रास्ता धुंधला हो जाता है,

हमारी बुद्धि विफल हो जाती है, और बलगम

 हमारी संघर्षपूर्ण सांसों को रोक देता है,

तिरुवैयार में, जहां लड़कियां चारों ओर नृत्य

करती हैं, और ढोल की थाप बजती है,

बंदर बारिश से डरते हैं, पेड़ों पर चढ़ जाते हैं

और बादलों को छान मारते हैं।।” 

इसी प्रकार अप्पार बिना डरे आत्मस्वतंत्रता की बात करते हैं-

“हम किसी के अधीन नहीं हैं! मौत से हम नहीं डरते!

हम नरक में शोक नहीं मनाते।

कोई कंपकंपी हमें नहीं जानती, और कोई बीमारी नहीं ।

यह हमारे लिए खुशी है, दिन-ब-दिन खुशी, क्योंकि हम उसके हैं।

सदैव उसका, उसका; जो शासन करता है, हमारे शंकर, आनंद में।”

आलवार संख्या में 12 थे। ये चौथी शताब्दी से लेकर नौवीं शताब्दी के बीच आविर्भूत हुए। वे सच्चे समाज सुधारक, संत और भावुक कवि थे। यद्यपि द्रविड़ प्रदेश में भक्ति एक आंदोलन के रूप में छठवीं शताब्दी से दिखाई पड़ती है किंतु प्रथम तीन आलवार संतों का जन्म इससे काफी पहले हो चुका था। फिर भी इनकी विचारधारा लगभग एक जैसी ही थी। दक्षिण भारत की तत्कालीन धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों ने इन्हें जन्म दिया था। एक ओर वैदिक धर्म की कठोर मान्यताएं यथा यज्ञादि के कठोर नियम, पुरोहितवाद जनता के लिए भक्ति का मार्ग अवरुद्ध कर रहे थे तो वहीं दूसरी ओर जैनों और बौद्धों के नास्तिक विचार और अतिचार जनता को कुमार्ग पर ले जा रहे थे ऐसे में युग की आवश्यकता अनुसार आलवारों और नयनारों ने वैदिक भक्ति के स्वरूप को सुधार कर सर्वजन सुलभ बनाने का कार्य किया। उन्होंने वेद, उपनिषद, गीता आदि के मूल भावों को सरल शब्दों में आम जनता तक पहुंचाने का कार्य किया।  गीता में मुक्ति के तीन मार्ग बताए गए हैं ज्ञान, कर्म और भक्ति। आलवारों ने तीनों में भक्ति मार्ग को श्रेष्ठ बताया उनके अनुसार भगवान विष्णु ही ऐसे हैं जो भक्तों की पुकार सुनकर उन्हें अपनी शरण में ले लेते हैं और मुक्ति प्रदान करते हैं। 

ऐसे वातावरण में जब बलि प्रथा का बोलबाला था तब इन्होंने अहिंसा पर बल दिया। इनका मानना था कि ईश्वर किसी प्रकार की बलि नहीं चाहता बल्कि भगवान का नाम स्मरण मात्र करने से ही उसे ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त हो सकता है। वैष्णो मत में इसे ‘प्रपत्ति’ अथवा ‘शरणागति’ कहते हैं। आलवारों  ने सगुण साकार ईश्वर की आराधना की जो सर्वसाधारण के लिए आसानी से ग्राह्य है। उन्होंने ईश्वर को परम ब्रह्म के रूप में कल्पित किया है।  जो अलग-अलग युगों में कभी राम, कभी कृष्ण के रूप में अवतार लेता रहता है। मंदिरों में भजन -कीर्तन के माध्यम से भगवान की मूर्तियों का पूजन -अर्चन करते हुए आम जन आत्म विभोर हो जाते थे। इन्होंने नवधा भक्ति के द्वारा ईश्वर भक्ति का मार्ग और भी सरल बना दिया। मंदिरों में जाकर भगवान के दर्शन करना, भगवान की सेवा करना, भजन आदि करना, भगवान के अनुग्रह पर विश्वास करना, ईश्वर की लीला कथा को निरंतर सुनना यह सब तत्कालीन युग को आलवारों  की देन है। आज भी यह परंपराएं हमारे समाज में यथावत जीवित है। इस प्रकार पूरे समाज को कुमार्ग पर जाने से बचा कर सदैव  ईश्वर भक्ति में लीन रहने की प्रेरणा देकर इन आलवार और नयनार  संतों ने बहुत बड़ा कार्य किया। इससे पूरे दक्षिण भारत में भक्तिमय धार्मिक वातावरण की सृष्टि हुई।

उन्होंने स्वयं के जीवन को जनता के समक्ष एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। उनका उद्देश्य कोरा सिद्धांत निरूपण नहीं था। भगवत भक्ति और आत्मोन्नति  ही उनका चरम लक्ष्य था। उनका जीवन अपनी रचनाओं में व्यक्त विचारों का साक्षात स्वरूप था। सांसारिक वैभव उन्हें तनिक भी आकृष्ट नहीं करते थे। उनकी भक्ति अपने आराध्य के प्रति निरंतर बनी रहती। उन्होंने ईश्वर को नित्य, अनंत और अखंड मानकर भक्ति में प्रपत्ति अर्थात शरणागति पर जोर दिया। यही कारण है कि उनके भक्त उन्हें ईश्वर के अवतार स्वरूप मानने लगे थे। यहां तक कि कई मंदिरों में उनकी मूर्तियां स्थापित की  गई थी। 

आलवार और नयनार  संत समाज के विविध समुदायों जैसे- किसान, शिल्पकार, कुम्हार, चर्मकार आदि जातियों से थे। इन्होंने जातिप्रथा व ब्राह्मणों की प्रभुता का मुखर विरोध कर सभी जाति और वर्ग के लोगों को अपनाया। साथ ही भक्ति के द्वार समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए खोल दिए। लिंग या जाति के आधार पर भी कोई भेदभाव नहीं रह गया। ‘मधुकर कवि’ आलवार जो स्वयं ब्राह्मण थे एक शूद्र युवक नम्मालवार के शिष्य बन गए। गुरु की महिमा का गान करते हुए मधुकर कवि आलवार ने अपने गुरु नम्मालवार को ईश्वर सदृश्य माना और अपना संपूर्ण जीवन उनकी सेवा में समर्पित कर दिया। आलवार तेरुप्पन भी निम्न जाति के थे।

इस परंपरा की सबसे बड़ी विशेषता इसमें स्त्रियों की उपस्थिति थी। बारह आलवारों  में अंडाल नामक एक महिला संत भी थीं। जिनके भक्तिपरक गीत व्यापक स्तर पर गाये जाते थे और आज भी गाये जाते हैं। अंडाल ने स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपनी प्रेम भावना को छंदों में व्यक्त किया और बाह्यचारों और आडंबरों  का खुल कर विरोध किया। इसी प्रकार नयनार  परम्परा में स्त्री शिवभक्त करइक्काल अम्मइयार के पद पाये जाते हैं।  इन्होंने अपने उद्देश्य प्राप्ति हेतु घोर तपस्या का मार्ग अपनाया। उदाहरण स्वरूप-

“राक्षसी, फूली हुई नाड़ियों वाली

बाहर निकली आँखें, सफेद दाँत और भीतर धँसा उदर लाल केश और आगे निकले दाँत,

लंबी पिंडली की नली जो टखनों तक फैली हुई है।

वन में विचरते समय चीखना और

चंदन यह अलंकटु का वन है.

 हमारे पिता (शिव) का घर है।

वह नृत्य करते हैं..... उनके जटाजूट आठों ओर बिखर जाते हैं।

उनके अंग शांत हैं।”

इस प्रकार इन स्त्री संतों ने किसी वैकल्पिक व्यवस्था अथवा भिक्षुणी समुदाय की सदस्या न बनकर समाज द्वारा निर्मित तथाकथित कर्तव्यों का परित्याग करके पितृसत्तात्मक आदर्शों को खुली चुनौती दी। 

आलवार समाज सुधारक ही नहीं बल्कि श्रेष्ठ कवि भी थे। तत्कालीन द्रविड़ समाज की उन्नति के लिए उन्होंने जो कुछ किया वह महत्वपूर्ण है। उनके भक्ति गीतों का  संग्रह ‘प्रबन्धम’ तमिल साहित्य के लिए एक ऐसा अमूल्य धरोहर है जिस पर आगे आने वाली न जाने कितनी पीढियां गर्व करेंगी। इन भक्ति गीतों में समस्त मानव जाति को अपार शांति प्रदान करने की अद्भुत शक्ति है। इन गीतों को गाते हुए भक्त अपने समस्त सांसारिक दुखों को भूल जाते थे। इनमें उच्च कोटि के रहस्यवादी विचार भी हैं। जिन्हें विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से इन संतों ने आम जन के लिए सुलभ बना दिया है। आगे कई आचार्यों ने इनके विचारों का शास्त्रीय विवेचन भी किया। श्री रामानुजाचार्य की विशिष्टाद्वैतवादी विचारधारा का निर्माण तो आलवारों की वैचारिक पृष्ठभूमि पर ही हुआ है। ज्ञातव्य है कि इनके द्वारा प्रज्जवलित भक्ति रुपी दीपक को कालांतर में अनेक आचार्य उत्तर भारत की ओर ले गए। 

निष्कर्ष : अंत में भारतीय भक्ति आन्दोलन में आलवार संतों और उनके गीतों के संग्रहप्रबन्धमके महत्व को रेखांकित करते हुए रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तकसंस्कृति के चार अध्यायमें लिखा है-

“गीता और भागवत तथा गीता और रामानुज के बीच की कड़ी यह आलवार संत हैं। भक्ति का दर्शन आलवारों के तमिल-प्रबन्धम से आया है और कदाचित भागवत भी उसी “प्रबन्धम” से प्रेरित है। .....अभी तक भागवत पुराण ही भक्ति आन्दोलन का मूल ग्रन्थ समझा जाता है। किन्तु हमारा अनुमान है कि इस आन्दोलन का मूल ग्रन्थ भागवत नहीं, “प्रबन्धम” है। यह इस कारण कि यद्यपि भागवत और “प्रबन्धम”- ये दोनों ग्रन्थ एक ही समय में लिखे गए,फिर भी “प्रबन्धम” की बहुत सी कविताएँ दूसरी- तीसरी सदी से प्रचलित चली आ रही हैं। साथ ही यह भी विचारणीय है कि “प्रबन्धम” की कविताएँ जनता की भक्ति साधना की सीधी अभिव्यक्ति हैं। किन्तु भागवत की रचना पांडित्य के स्तर पर की गई हैं। “प्रबन्धम” भक्ति आन्दोलन का मूल ग्रन्थ क्यों माना जाये? इसका  संकेत भी भागवत ही देता है,क्योंकि उसका भी मत है कि भक्ति का जन्म दक्षिण भारत में हुआ था।”

सन्दर्भ 
1.      दिनकर,रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय,लोकभारती प्रकाशन,2016 
2.      द्विवेदी,हजारी प्रसाद,हिंदी साहित्य की भूमिका ,राजकमल प्रकाशन ,2019 
3.      शर्मा,डॉ हरवंश लाल,सूर और उनका साहित्य,भारत प्रकाशन मंदिर,अलीगढ, पांचवां संस्करण 1982
4.      Iyenger, Dr. S.Krishnaswamy, Some Contribution Of  South India To Indian Culture, Asian Educational Services,1995 
5.      Smith,V.A., Oxford History Of India, Gyan Publication House, 2021
6.      रिचर्ड एम. ऐटन (संपा.) 2003 इंडियाज़ इसलामिक ट्रेडिशन्स, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस न्यू दिल्ली
7.      थ्री भक्ति वाइसिस मीराबाई, सूरदास एंड कबीर इन देयर टाइम्स एंड अवर्स, ऑक्सफोर्ड यूनिवसिटी प्रेसन्यू दिल्ली
8.      डेविड एन. लोरेंज (संपा.), रिलिजियस मूवमेंट्स इन साउथ एशिया 600-1800, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस न्यू दिल्ली-2004
9.      ए.के. रामानुजन, हाइम्स फॉर दि ड्राउनिंग, पेंगुइन, न्यू दिल्ली-1981
10.   द डांस ऑफ शिवाः रिलिजन आर्ट एंड पोइट्री इन साउथ इंडिया कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यू दिल्ली
11.   कारलोटे वोडेविले, ए बीवर नेम्ड कबीर, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस न्यू दिल्ली- 1997
12.   https://en.m.wikipedia.org/wiki/Sambandar


डॉ.पूजा गुप्ता

सहायक प्राध्यापक-हिंदी विभाग, भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा, बिहार


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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