शोध आलेख : भक्ति आंदोलन और चाँद पत्रिका / अमित कुमार

भक्ति आंदोलन और चाँद पत्रिका
- अमित कुमार


प्रस्तावना : इस्लाम के आगमन ने भारत के राजनीतिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक जीवन पर गहरा प्रभाव डाला।मध्यकालीन भारत का इतिहास दो शक्तियों के बीच हुए संघर्ष और उसकी सहमति और असहमति में विभाजित रहा। जहाँ इस्लाम के समाजिक आदर्शों के अनुसार सभी मनुष्य भगवान की दृष्टि में बराबर हैं, वहीं हिन्दू धर्म में सामाजिक बुराइयों को दुरुस्त करने के बजाय जातीय विभिन्नताएँ जारी रहीं[1] हिन्दू धर्म के विभिन्न मतों और धर्म के उच्च आदर्शों को इस्लाम ने स्वीकार किया। इस प्रकार दोनों धर्मों ने अपने-अपने धार्मिक विश्वासों और आदर्शों को स्थापित करने के लिए, बिना किसी विशेष परिवर्तन के धार्मिक सौहार्दता और स्वरेक्य की प्रष्ठभूमि तैयार की | जो मध्यकालीन परिवेश में धार्मिक समरसता का समालोचन कर रही थी। यह आंदोलन केवल एक धार्मिक आंदोलन था, अपितु एक सामाजिक और वैचारिक परिवर्तन की एक नई धारा भी थी।भक्ति आन्दोलन के सन्दर्भ में कई आधुनिक लेखकों ने अपने विचार प्रस्तुत किए जिनकी चर्चा इस लेख में की गयी है।


            भक्ति आन्दोलन पर चर्चा करते हुए लेखक शिव कुमार ने अपनी पुस्तकभक्ति काव्य और लोक जीवनमें भक्ति आंदोलन का अवलोकन करते हुए इस आन्दोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, प्रमुख संतो और दार्शनिकों की अवधारणाओं का अनुरेखण किया है।[2] इसी प्रकार अपनी पुस्तकभक्ति आंदोलन और उत्तर-धार्मिक संकटमें शंभुनाथ ने बताया कि 7वीं सदी से द्रविड़ क्षेत्र में शुरू हुआ भक्ति आंदोलन इस्लाम के विरुद्ध प्रतिक्रिया होकर धार्मिक जड़ता, जाति-भेदभाव, वैभव प्रदर्शन और जीवन की कई अन्य बड़ी समस्याओं को उठाता है। भक्ति कवि एक ऐसे ईश्वर का द्वार खोलते हैं जिसमें मानवता का सौंदर्य प्रवेश और धर्म उच्च मूल्यों का स्रोत बने। इस पुस्तक में यह भी बताया  गया कि कई भक्तों-सूफियों को इस प्रक्रिया में उत्पीड़न का सामना भी करना पड़ा था। शंभुनाथ आगे लिखते हैं, भक्ति काव्य को समझने की एक नई दृष्टि चाहिए जो शुद्धतावाद से भिन्न समावेशी आलोचनात्मकता पर आधारित है।[3] सुज़ान बेली ने भी अपनी पुस्तक ‘Caste, Society and Politics in India from the Eighteenth Century to the Modern Age’ में भक्ति आंदोलन के सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव के बारे में सामाजिक दृष्टिकोण प्रदान किया है। इन्होंने समाजिक संघर्षों को विस्तारपूर्वक समझाया और मध्यकालीन समय की भारतीय राजनीति पर भक्ति आन्दोलन  का विश्लेषण किया।[4] मोनिका बोहम-टेटलबैक और जॉन . कॉर्ट ने अपनी पुस्तकआरंभिक आधुनिक उत्तर भारत में साहित्य और परंपरा’ (Text and Tradition in Early Modern North India) में कई विद्वानों द्वाराभक्तिसंतो के आधुनिक मत और अनुसंधानों पर जोर दिया गया। इसमें भक्ति आंदोलन की क्षेत्रीय विविधता अन्य धार्मिक परंपराओं के साथ संबंध और भारतीय संस्कृति को आकार देने में भक्ति आन्दोलन की भूमिका जैसे विषयों को शामिल किया गया[5] इसी प्रकार डॉ धर्मवीर ने अपनी पुस्तककबीर के आलोचकमें कबीर के ब्राह्मणवादी समीक्षकों के विचार कबीर दर्शन और सामाजिक सन्देश व्यक्त किये हैं जहाँ वह यह मानते है कि ब्राह्मणवादी समीक्षकों ने कबीर के प्रति कोई भी सम्मान अभिव्यक्त नहीं किया है इन्होंने कबीर के भीतर रामनंद को बैठाकर उनकी प्रशंसा की है।इस पुस्तक का मुख्य सार यह है कि हिन्दू धर्म को छोड़कर भारत में दलितों का कोई नया या अलग धर्म भी हो सकता है।[6]

 

भक्ति आंदोलन का उदय भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति का महत्वपूर्ण कारण वेदांत दर्शन का विकास था। भक्ति और भगवान के प्रति व्यक्त और पारम्परिक धार्मिक प्रथाओं के खिलाफ खड़े होना इस आन्दोलन की प्रमुख विशेषता थी।भक्ति आंदोलन की जड़ें भारत के प्राचीन धार्मिक ग्रंथो, विशेषकर वेदों और उपनिषदों में मिलती हैं। हालांकि, इसका विशिष्ट उद्भव भक्ति और संत परंपराओं के विकास से जोड़ा जा सकता है, जो वेदांतों द्वारा प्रभावित हुआ। भक्ति आन्दोलन के संतो ने विभिन्न क्षेत्रों और क्षेत्रीय भाषा के द्वारा परमात्मा के प्रति गहरी भक्ति और प्रेम का एक समान रवैया और दिव्य प्रेम का संदेश फैलाने की इच्छा रखी।

 

भक्ति आंदोलन के चरण अल्वार-नयानार भक्ति आंदोलन की शुरुआत सांख्यिकीय धार्मिक प्रथाओं के विरुद्ध अल्वार और नयानार के संतों द्वारा की गयी। ये भगवान विष्णु और शिव के प्रति अपनी अद्वितीय भक्ति का प्रचार करते थे। भक्ति आंदोलन ने भारतीय समाज को वैष्णव धर्म के प्रति प्रेरित किया और इन संतो की काव्य और संगीत के रूप में भक्ति को एक नई दिशा दी। इन संतो के आने के बाद कई भक्ति संतों का आगमन मध्यकाल में हुआ, जिनमें कबीर, गुरु नानक, मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास, नामदेव, चैतन्य महाप्रभु आदि शामिल थे। इन भक्ति संतों ने समाज में सामाजिक सुधार के बजाय धार्मिक एकता और जातिवाद और वर्णव्यवस्था पर अपने विचार प्रकट किये।भारतीय साहित्य में पहली बार लोक भाषा का प्रयोग हुआ जो एक जनवादी साहित्य बनकर आम जन तक पंहुचा। इसका परिणाम यह हुआ कि भक्ति संतों की शिक्षाएं समाज के हर वर्ग के लोगों तक पहुँच सकी और वे सभी लोगों को एक साथ जोड़ने का काम कर रही थी। कबीर एक प्रसिद्ध भक्ति संत थे जिन्होंने अपनी भक्ति के माध्यम से समाज को धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से सुधारने का प्रयास किया। उनके दोहों और पदों में भगवान के प्रति अद्वितीय भक्ति का वर्णन है। राजपूत राजकुमारी मीराबाई ने अपनी कविता और भक्तिगीतों के माध्यम से भगवान कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति को व्यक्त किया। उन्होंने जातिवाद और सामाजिक असमानता के खिलाफ आवाज उठाई और समाज को धार्मिक एकता की ओर प्रवृत्त किया। भक्ति आन्दोलन के माध्यम से अपनी उपस्थिति समाज में दर्ज करने का मीराबाई का प्रयास और समाज में व्याप्त पितृसत्ता के साथ समझौता की खिलाफत में उनका यह एक बहुत बड़ा कदम था।उन्होंने ईश्वर के प्रति अनवरत प्रेम और समाजिक मान्यताओं को तर्क के रूप में प्रस्तुत किया और परमात्मा से सीधा सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। भक्ति आंदोलन ने शास्त्रीय संस्कृत से क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में धार्मिक अभिव्यक्ति का स्थानीयकरण किया। संतों ने तमिल, हिंदी, मराठी, पंजाबी, और बंगाली जैसी भाषाओं में भक्तिगीत और कवितायें लिखी, जिससे आम लोगों को आध्यात्मिक शिक्षा को पहुँचाने में मदद मिली।

 

भक्ति संत और चाँद पत्रिका में बुद्धिजीवी वर्ग


            इसका प्रभाव भारतीय औपनिवेशिक काल की पत्रिकाचाँदमें दिखा। इस पत्रिका ने अपनेचन्द्रहारकॉलम में लिखा किदेवी मीरा के ह्रदय में विश्व प्रेम हिलोरे ले रहा था उनके लिए क्या  ब्रम्ह-ब्राह्मण क्या शुद्र सब बराबर थे वह सभी को सामान भाव से उपदेश देती थी मीरा का कहना था किभगवान को आत्मा की आँखों से देखो आपके ह्रदय में ही ईश्वर का वास है और ह्रदय ही उसे पहचान सकता है।तुम जिस भाव से उसे देखोगे उस भाव से वह तुम्हे मिलेगा[7] इसी प्रकार सूरदास की भक्ति और  उनके भजन काव्य ने समाज को भक्ति की ओर प्रेरित किया और उन्होंने जाति के सन्दर्भ में अपनी टिप्पणी दी।


यह आन्दोलन सिर्फ धार्मिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह एक समग्र सामाजिक और मानसिक परिवर्तन का आरंभ भी था। भक्ति संतों ने धर्म को व्यक्तिगत अनुभवों का हिस्सा बनाकर जनाधार तक अपनी आवाज पहुंचाई। भक्ति संत मानव समाजिक समानता को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय रूप से काम किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से धर्म, जाति और लिंग के विभिन्नताओं को पार किया। इस आंदोलन ने समाज में स्त्रियों की भूमिका के बारे में भी बात की | मीराबाई और आण्डल (तमिल वैष्णव संत) जैसे स्त्री संतों ने समाज की रूढ़िवादिता के खिलाफ खड़ा होने का इरादा किया और भक्ति मार्ग द्वारा आध्यात्मिक कवियों के रूप में सक्षम होने की संभावना की ओर इशारा किया।


चाँद के 1928 अप्रैल अंक में एक लेखक श्री व्योहार राजेंद्रसिंह जी एम. एल. सी ने अपने लेखस्त्री समाज पर कालिदास और तुलसीदासमें स्त्रियों पर अपने विचारों को व्यक्त किया।उन्होंने कालिदास के ग्रन्थकुमारसंभवका हवाला देते हुए इस विषय पर टिप्पणी और स्त्री पुरुष सम्बन्ध, स्त्रियों के अधिकार, उनके धर्म और योग्यता के बारे बताया। लेखक राजेन्द्रसिंह के अनुसार कालिदास पुत्र और कन्या में कोई भेदभाव नहीं समझते थे। इस सन्दर्भ में वह हिमालय के पुत्रों का हवाला देते हुए कहते थे किहिमालय के पुत्र कई थे तथापि सबसे अधिक वे अपनी कन्या पार्वती को चाहते थे। इसी प्रकार शकुंतला से कालिदास अपने साहित्य में पूज्य पति के लिये लम्पट और चोर जैसे शब्दों का प्रयोग कराया है। लेकिन दूसरी तरफ कालिदास ने स्त्रियों की धर्मपरायणता और उनके पतिव्रत तथा आदर्श भाव को भी अपने काव्य में केन्द्रित किया। कालिदास के अनुसार उत्तम पुरुष वह है जो सबका आदर एक सा करता है उनकी दृष्टि में स्त्री पुरुष का दर्जा बराबर हो। इस सन्दर्भ में वह ऋषि वशिष्ठ के बारे में कहते हैं कि जब वह शंकर जी से मिलने अपनी पत्नी अरुंधित के साथ गये तो उनका सत्कार शंकर जी ने अन्य आगन्तुक ऋषियों के सामान ही किया। अरुंधित को ऋषि के साथ देखकर शंकर जी को समझ में गया किपतिव्रता स्त्रियाँ धर्म पालन में साधक हैं बाधक नहीं। इस प्रकार शंकर जी ने पार्वती से धर्म साधना के लिए विवाह करना निश्चित किया क्योंकि धर्म कार्यों का साधन उत्तम स्त्रियाँ ही हैं। तो क्या यह कहा जा सकता है की कर्मकांड में निपुण स्त्री ही केवल विवाह करने योग्य होती है।[8] कालिदास ने स्त्रियों के लिए आदर तो प्रकट किया है लेकिन उन्होंनेत्रिया-चरित्रके लिए अनादर तथा उपेक्षा की है। उसका उदाहरण देते हुए कालिदास बताते हैं किस्त्रिपुमानित्थं नास्थैवा व्रतम हि माहेतं सताम, उनके अनुसार जो भी उत्तम पुरुष हैं वह सबका आदर करते हैं उनकी दृष्टि में स्त्री पुरुष का दर्जा बराबर है। तुसलीदास स्त्री सन्दर्भ में अपनी सम्मति देते हुए कहते हैंजानि जाय नारि-गति भाई। विधिहु नारि-ह्रदय-गति जानी। नारि-चरित अति अगम दुराऊ।। इनके अनुसार स्त्री की कोई स्वतंत्र सम्मति नहीं हो सकती केवल एक-दो स्थानों पर ही वह स्त्रियों प्रति के स्वतंत्र सम्मति रखते थे। तुलसीदास ने सदा स्त्रियों को अपवित्र और भक्ति में बाधक समझा है। उन्होंने स्त्रियों कोअवगुणों की खानतथाछल-कपट की मूर्तिकहा है। जड़ता तथा अज्ञान के लिए उन्होंने स्त्रियों की निंदा की है। जहाँ उन्होंने सीता और पार्वती जैसी स्त्रियों के प्रति भक्ति प्रकट की वहीं साधारण स्त्रीजाति के लिए उनके ह्रदय में उच्च स्थान था। उनकी राय में साधारण स्त्री जाति नीचता का आधार है। लेकिन पतिव्रता स्त्रियों के लिए दोनों कवियों के ह्रदय में आदर भाव थे। अंत में श्री व्योहार राजेंद्रसिंह जी कहते हैं किमुसलमानों के आगमन से स्त्रियों में स्वतंत्रता हरणकारी बातों का प्रचार हो गया जो कालीदास के समय थी।जिसकी वजह से स्त्रियों का आदर कम हो गया गया और ये सामाजिक स्थितियां उस समय के कवियों के विचारों पर प्रभाव डाले बिना रह सकी।श्री रजनीकांत जी शास्त्री, बी. . ने चाँद में अपने लेखगोस्वामी तुलसीदास और स्त्री-जातिमें तुलसीदास के रामचरित मानस में स्त्री जाति के प्रति अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं किउन (तुलसीदास) को स्त्रियों से खास चिढ़ थी  और उन्होंने स्त्रियों की निंदा की हैं।[9] इसी प्रकार एक अन्य लेखगोस्वामी तुलसीदास और स्त्रीजातिमें सोभारामजीधनुसेवकजी ने रजनीकांत जी के जवाब में टिप्पणी करते हुए कहा कि उन्होंने तुलसीदास जी की इस खास चिढ़ को जानने का प्रयास नहीं किया। इनका मत है कियदि रामायण मेंढोल गंवार शुद्र पशु नारि। यह सब ताड़न के अधिकारी मिलता है तोअनुज वधु भगिनी सुत नारी। सुन शुठ ये कन्या सम चारी। भी मिलता है | जिस प्रकार का दंड और दुराचार का प्रावधान नारियों के लिए किया गया है उसी प्रकार का दंड पुरुषों के लिए भी है इस प्रकार के कई उदाहरण दिए गए हैं जिसमें तुलसीदास जी ने गृह्देवियों की उत्कृष्टता का परिचय दिया है।[10] इसके जवाब में पुनः रजनीकान्त जी टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि तुलसीदास जी का कोई खास दोष नहीं, ‘मध्यकाल में भारत की शिक्षा और नीति ही ऐसी हो गयी थी की साधू संत और धर्मात्मा लोग स्त्री को तपस्या और मुक्ति मार्ग में बाधा समझते थे और इसलिए अपने अनुयाइयों को उनसे बचाने के लिए जोरदार शब्दों में उपदेश देते थे। इन महात्मा लोगों ने उनको (स्त्री) अपने मार्ग का कंटक जानकर और भी पतित बना डाला। इस प्रकार भक्ति संतों ने अपनी कविताओं, गीतों, और काव्य रचनाओं के माध्यम से साहित्य क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके ग्रंथों और भजनों का महत्व सिर्फ धर्मिक दृष्टिकोण में ही नहीं था, बल्कि यह साहित्यिक और सामाजिक चेतना का संदेश बनकर फैला।[11]

 

निष्कर्ष: भक्ति आंदोलन एक गहरा आध्यात्मिक और सामाजिक जागरूकता का समावेश था। आंदोलन की विरासत एक ओर अधिक न्याय, समानता, और समाज के लिए प्रयासरत थी तो वहीं दूसरी और लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई थी।चाँद पत्रिका के बुद्धिजीवी वर्ग ने भक्ति कवियों  की राय लिंग समानता और सामाजिक चेतना पर रखी | उन्होंने महिला वर्ग की पतित अवस्था का कारण साधू महात्माओं को बताया | वे सुझाव देते हैं कि भक्ति आंदोलन कोई एक विभिन्न क्षेत्रीय और व्यक्तिगत आंदोलनों का संग्रह था जिसने जाति और सामाजिक व्यवस्था की आलोचना का सामना किया है। भक्ति आंदोलन और अन्य धार्मिक परंपराओं, खासकर इस्लाम, के बीच के संबंध में विवाद है परन्तु यह कुछ मामलों में यह सामाजिक सौहार्द की बात करता है। जिसकी चर्चा विद्वानों द्वारा भक्ति के समर्थन में अस्थिर दिशाओं पर हुई है | विभिन्न धर्मों के साथ सहमति की गहराई इस आन्दोलन का हिस्सा है जो चाँद में लिखने वाले रजनीकांत के मत द्वारा समर्थित माना जा सकता है


संदर्भ :

 [1] Pande, Rekha. Divine sounds from the heart—singing unfettered in their own voices: the Bhakti movement and its women saints (12th to 17th Century). Cambridge Scholars Publishing, 2010.
[2]  कुमार शिव, भक्ति काव्य और लोक जीवन, वाणी प्रकाशन, 2013.
[3] शंभुनाथ, ‘भक्ति आंदोलन और उत्तर-धार्मिक संकट’, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, फरवरी 2023.
[4] Bayly, Susan. Caste, society and politics in India from the eighteenth century to the modern age. Vol.3. Cambridge University Press, 2001.
[5] Harder, Hans. Williams, Tyler/Malhotra, Anshu/Hawley, John Stratton (Hg.): Text and Tradition in Early Modern North India. New Delhi: Oxford University Press 2018.
[6] डॉ धर्मवीर, कबीर के अलोचक, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015.
[7] चाँद, अप्रैल 1927, चन्द्रहार, पृष्ठ 634-637
[8]  व्योहार राजेंद्र सिंह जी, एम् एल सी, ‘स्त्री समाज पर कालिदास और तुलसीदास’, चाँद, अप्रैल 1928, प्रष्ठ: 722-727.
[9]  शास्त्री जी, रजनीकांत, गोस्वामी तुलसीदास जी और स्त्री जाति, चाँद, जनवरी 1929, पृष्ठ: 468-472.
[10]धनुसेवक, शोभाराम जी, ‘गोस्वामी तुलसीदास जी और स्त्री जाति’ (आलोचना), चाँद, अप्रैल 1929, पृष्ठ: 851-856
[11]शास्त्री जी, रजनीकांत, गोस्वामी तुलसीदास जी और स्त्री जाति, (आलोचना की आलोचना) चाँद, सितम्बर 1929, पृष्ठ: 590-593

 

अमित कुमार
पी.एच.डी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
Amit.kumar6799@gmail.com9718206799


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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