शोध आलेख : महामना मालवीय : धर्म और भक्ति पर चिंतन / भुवन कुमार झा

महामना मालवीय : धर्म और भक्ति पर चिंतन
- भुवन कुमार झा

            पंडित मदन मोहन मालवीय (1861-1946)  भारतीय स्वंत्रता आंदोलन के अग्रणी श्रेणी के नेता थे। उनके विशिष्ट राष्ट्रवादी चिंतन में सनातनी परंपरा के तत्त्व अभिन्न रूप से मौजूद थे। संस्कृत-हिंदी साहित्य में विशेष रूचि, और धार्मिक ग्रंथों पर मजबूत पकड़ ने, औपनिवेशिक युग में धर्म के मौलिक तत्त्वों को सुरक्षित करने की उनकी लालसा को बढ़ाया। पत्रकारिता के माध्यम से भी इन्होंने अपने इन विचारों को प्रसारित किया। भारतधर्म महामण्डल, सनातनधर्म महासभा, हिन्दू महासभा आदि संस्थानों में भाषण, विभिन्न पुस्तकों और पत्रिकाओं में उत्कृष्ट लेख; काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवचन इत्यादि के माध्यम से धर्म के मूल तत्त्व और ईश्वर-भक्ति पर इनके चिंतन के व्यापक धरातल का आभास होता है। मालवीयजी उस विशिष्ट श्रेणी के चिंतकों में थे जिन्होंने सनातनधर्म के ह्रास पर चिंता जताने के साथ-साथ ऐसे अनेक सफल प्रयास किये जिससे आधुनिक औपनिवेशिक परिदृश्य में धर्म की मर्यादा पुनर्स्थापित हो। वह धर्म और संस्कृति के अवयवों को सृष्टि के केंद्र में देखते थे। वेद, शास्त्र, भागवत, महाभारत जैसे ग्रंथों से सदैव प्रेरणा लेते थे। जब 1907 ईसवी में अभ्युदय साप्ताहिक पत्रिका शुरू किया तो इसके मुखपृष्ठ पर वेद व्यास की इस पंक्ति को अंकित किया'उत्थातव्यं जागृतव्यं योक्तव्यं भूति कर्मसु। भविष्यतीत्येव मनः कृत्वा सततमव्यथैः।।' प्रस्तुत लेख में धर्म और भक्ति पर उनके उद्दात्त विचारों के कुछ विशिष्ट आयामों की चर्चा के साथ-साथ तत्कालीन समयास्थिति के सन्दर्भ में इस चिंतन का विश्लेषण भी प्रस्तुत है।

            प्रारंभिक काल से ही मालवीयजी का जीवन पारम्परिक और संस्कृतनिष्ठ परिवेश में बीता। उनकी प्राथमिक शिक्षा पहले धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला और तत्पश्चात विद्या धर्मवर्धिनी सभा में हुयी। उनके पिता पंडित ब्रजनाथ मालवीय जी भागवत-वाचन में सिद्धि हेतु व्यास के रूप में प्रसिद्ध थे। बाद के वर्षों में, अपने दादा-दादी एवं माता-पिता के सदाचार, धर्मनिष्ठता और निःस्वार्थ की बात करते हुए मालवीयजी ने उन्हीं के प्रभाव और आशीर्वाद को अपने जीवन-कार्य का आधार बताया।[1] धीरे-धीरे उनका यह विश्वास अटल होता गया कि धर्म सभी महानता और अच्छाई की नींव है। और धर्म में आस्था के बगैर मनुष्य का कार्य सफल नहीं हो सकता।[2] मालवीयजी के धर्म पर गहन अध्ययन को उनके समकालीन मनीषियों ने भी स्वीकार किया। महात्मा गाँधी ने भागवत के गुजराती अनुवाद को पढ़ा था। लेकिन जब इक्कीस दिनों के लम्बे उपवास के दौरान उनको मालवीयजी ने भागवत के अंश को संस्कृत में सुनाया तो उनपर गहरा प्रभाव पड़ा। तब उन्होंने महसूस किया कि भागवत ऐसा ग्रन्थ है कि जिसे पढ़कर धर्म-रस उत्पन्न किया जा सकता है।[3]  

वेद, शास्त्र और पुराणों में निरंतरता के तत्त्व -

            मालवीयजी जिस सनातनी परंपरा के पुरोधा थे उसपर चहुँओर से प्रहार हो रहा था। जिस समय वह म्योर सेंट्रल कॉलेज के छात्र थे, तभी से उन्होंने लिखने और बोलने की कला पर महारत हासिल करना शुरू कर दिया था। उनके संस्कृत के गुरु आदित्यरामजी भट्टाचार्य थे, जिन्होंने 1880 में इलाहबाद में मध्य हिन्दू समाजकी स्थापना की। यह संस्था सुधार कार्यक्रम में मध्य मार्ग का अनुसरण करना चाहता था। वेद और पुराण, दोनों ही को समान महत्व देता था। 1934 ईसवी में मालवीयजी द्वारा प्रकाशित इमानेंस ऑफ़ गॉड इस दृष्टिकोण को बड़े स्पष्ट रूप में अंकित करता है। इस संक्षिप्त पुस्तक में उन्होंने ऋग वेद से शुरू कर पुराणों और उसके बाद के ग्रंथों में ईश्वर के अस्तित्व को अलग अलग रूपों में रेखांकित करने का प्रयास किया। वेद, स्मृति और पुराणों में ईश्वर को लेकर विचारों की जो समानता दिखाई देती है, इस बात को समझाने के लिए उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास के इन शब्दों को उद्धृत किया[4]


ब्यापक एक ब्रह्म अबिनासी। सच-चेतन-घन आनंद-रासी।।

आदि-अंत कोउ जासु पावा। मति-अनुमान निगम जसु गावा।।

बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना। कर बिनु करम करै बिधि नाना।।

आननरहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।

 

            मालवीय जी वेदों को हिन्दू धर्म के अमूल्य निधि के रूप में देखते थे। उनका मानना था कि इन्ही वेदों से सभी धर्मों के स्रोत निकले हैं। वेद मानव-जाति के उत्कृष्ट चिंतन को रेखांकित करते हैं। और जब इस परम्परा में कालांतर में अन्य ग्रन्थ जुड़ते गए तो इसका फलक और विस्तृत होता गया:

            'इन श्रुतियों से वह स्रोत बहा है किसने अन्य धर्मों को प्रभावित कर दिया है। वे वेद ही यदि यहाँ होते, तो आप को अपना मत्था ऊँचा करने का अवसर था किन्तु श्रुति के साथ स्मृति, पुराण, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र का बहुत बड़ा समूह है। ऋग्वेद की प्रथम रचना से लेकर आज तक के कुल लेख बड़े पवित्र और उच्च भावों से भरे हैं।... मेरा उद्देश्य केवल वेद के महत्व और धर्म के सिद्धांतों की ओर ध्यान दिलाने का है। वह सिद्धांत लोक और वेद से जैसे बराबर चले आए हैं उनका विस्तार से वर्णन करने में बहुत समय लगेगा, इस अवसर पर यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि वैदिक समय से चलता हुआ यह धर्म स्मृतियों तथा पुराणों के समय तक और अब तक बराबर स्थिर धर्म है। उसके मूल सिद्धांतों में कोई भेद नहीं पड़ा, और मेरा विचार है कि कल्प के अंत तक बराबर ऐसा ही रहेगा, कल्प के आगे भी फिर "यथा पूर्वमकल्पयत" के अनुसार उसी रूप में हम को मिलेगा।'[5] 

सनातन धर्म की विशेषता

            उपनिषद को उद्धृत करते हुए मालवीयजी ने इस बात पर विशेष बल दिया कि समस्त जगत धर्म के मूल पर स्थित है। इसीलिए इस समाज में जो धर्मिष्ठ हैं, उनके पास सभी लोग जाते हैं। चूँकि धर्म के भीतर सब प्रतिष्ठित है, इसीलिए इसको सबसे बड़ा मानते हैं: 'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, धर्म जिनका सब समय में पालन करना सब प्राणियों के लिए विहित है और जिनके उल्लङ्घन करने से आदमी नीचे गिरता है, इन्हीं सिद्धांतो पर वेदों में गृहस्थों के लिए पञ्चमहायज्ञ का विधान किया गया है कि जो भूल से भी किसी निर्दोष जीव की हिंसा हो जाय तो हम उसका प्रायश्चित करें।'[6] उनका मानना था कि धर्म यही है कि प्राणी को प्राणी के साथ सहानुभूति हो, एक दूसरे को अच्छी अवस्था में देख कर प्रसन्न हों, और गिरी हुई अवस्था में सहायता दें।[7]

            1923 ईसवी में हिन्दू महासभा के वार्षिक अधिवेशन में सनातनधर्म की विशेषता के पक्ष में उन्होंने दो प्रमुख बातों को रखा। प्रथम कि किसी भी जीव में एक ही ब्रह्म का वास है, और यही कलह की भावना को नहीं आने देता: 'कीट पतंग में, हाथी से चीटीं तक सब में एक ब्रह्म का अंश है, एक ही अंतर्यामी घाट घाट में व्यापक है। यह विशेषता है तभी तो कलह का भाव नहीं होता' इसी भाव को उन्होंने हिन्दुओं की सहनशीलता के जड़ में देखा: 'हिन्दू किसी को आघात नहीं पहुँचाते, इतने सहनशील होते हैं।' दूसरी बात, और जो उतनी ही महत्वपूर्ण है, वह, यह कि धर्म को लेकर संघर्ष हो। इस प्रकार मिलजुलकर रहने के भाव को उन्होंने अलग-अलग पंथों के बीच भाईचारा के रूप में देखा। उदारहरणस्वरुप उन्होंने याद दिलाया कि बौद्ध समय में विद्रोह हुए, परन्तु थोड़े समय के बाद वैदिक धर्म और बौद्ध धर्म के अनुयायी मिल कर रहने लगे: 'कश्मीर, देहली, बिहार, पंजाब और बनारस आदि स्थानों में बौद्ध, ब्राह्मण, जैन आदि साथ साथ आदर भाव और प्रेम से रहते थेभाई का आदर करते थे। मुसलमान भाई जब आये तब भी हमारा यह भाव बना रहा कि प्रत्येक भाई अपने-अपने धर्म पर रहें और एक भाई का दूसरे से प्रेम जारी रहा।'[8]

            मालवीयजी सनातनधर्म की प्राचीनता पर बल देते थे। इसको इस धरती का सबसे प्राचीन और पुनीत धर्म बताते थे क्योंकि यह वेद, स्मृति और पुराण से प्रतिपादित है: 'संसार के सब धर्मों से यह इस बात में विशिष्ट है कि यह सिखाता है कि इस जगत का सृजन, पालन और संहार करने वाला आदि, सनातन, आज, अविनाशी, सत-चित-आनंद-स्वरूप, पूर्ण प्रकाशमय परब्रह्म परमात्मा है।उनका मानना था की यह परमात्मा सभी जीवों में सामान रूपों से बसता है:

            'यह धर्म बड़े-बड़े गुणों का समूह है। दान, जीवमात्र पर दया, ब्रह्मचर्य, सत्य, दयालुता, धैर्य और क्षमा, इन गुणों का योग सनातनधर्म का सनातन मूल है। इन गुणों के कारण भी सनातनधर्म अन्य धर्मों से विशिष्ट है।'[9]

भक्ति की अविरल धारा

            धर्म से ही भक्ति की धारा निकलती है। भक्ति की महिमा का बखान करने के लिए मालवीयजी बार-बार श्रीकृष्ण और भगवद्गीता में उनके उपदेशों को उद्धृत करते थे। श्रीकृष्ण का यह निमंत्रण कि 'सब और धर्मों को छोड़कर तुम मुझ एककी शरणमें आओ। मैं तुमको सब पापोंसे छुड़ा लूँगा।', उनके मर्म को छूता था। गीता में अर्जुन को दिया गया हुआ यह सन्देश तो भक्ति की ताकत को समुचित स्थापित करता है -

समोऽहं सर्वभूतेषु मे द्वेष्योऽस्ति प्रियः |

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।

अपि चेत्सुदुराचारी भजते मामनन्यभाक्।

साधुरेव मन्तधव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।

कौन्तेय प्रतिजानीहि मे भक्तः प्रणश्यति।।

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय: |

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || 

(गीता 9/29-32)

मालवीय जी इस सन्देश की व्याख्या भक्ति की प्रतिष्ठा बढ़ाने हेतु करते हैं:

'मैं सब प्राणियों के लिए समान हूँ। मैं किसी से द्वेष करता हूँ, कोई मेरा प्यारा है। जो मुझको भक्ति से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ। पापी-से-पापी भी क्यों हो यदि वह और सबको छोड़कर मेरा ही भजन करता है तो उसको भी साधू ही मानना चाहिए। थोड़े ही समय में वह धर्मात्मा हो जायेगा और उसको शाश्वती शांति मिल जाएगी। हे अर्जुन! मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, जो कोई मेरा भक्त है, उसका बुरा नहीं होगा।

भक्ति को वह लोक-प्रेम के पवित्र रूप में देखते थे, जिसके सहारे समस्त धर्म का उपदेश प्राप्त होता है। लेकिन इसमें लीन होने के साथ-साथ, जो धर्मशील हैं वह इसकी शक्ति का सहारा लेकर इसका प्रचार भी करें और मानव समाज को और बेहतर बनाएँ

'मेरी यह प्रार्थना है कि इस ब्रह्मज्योति की सहायतासे सब धर्मशील जन अपने ज्ञान को विशुद्ध और अविचल कर और अपने उत्साह को नूतन और प्रबल कर सारे संसार में इस धर्म के सिद्धाँतों का प्रचार करें और समस्त जगत को यह विश्वास करा दें कि सबका ईश्वर एक ही है.... और उसकी सबसे उत्तम पूजा यही है कि हम प्राणीमात्र में ईश्वर का भाव देखें, सबसे मित्रता का भाव रक्खें और सबका हित चाहें।... जगत से अज्ञान को दूर करें, अन्याय और अत्याचार को रोकें और सत्य, न्याय और दया का प्रचार कर मनुष्यों में परस्पर प्रीति, सुख और शांति बढ़ाएँ।'[10]

 

सनातनधर्म और प्राणिमात्र में समता

            मालवीयजी सनातन धर्म और इससे जुड़े भक्तिभाव की एक अन्य शक्ति का भी उल्लेख करते हैंइसके द्वारा समता के भाव की दीक्षा। भक्ति और करुणा एक दूसरे को बल देते हैं और इसीसे भेदभाव समाप्त होता है: 'सनातनधर्म केवल मनुष्यमात्र में ही भाईपन का भाव नहीं समझता, बल्कि वह मानता है कि सृष्टि में जितने जीव-जंतु आदि प्राणी हैं सबमें एक परमात्मा की ज्योति प्रकाश कर रही है।छोटा और बड़ा, यह भेद मनुष्य में नहीं। सनातनधर्म प्राणिमात्र में समता का भाव सिखाता है।' इसी भाव को रेखांकित करने के लिए वह भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के इस श्लोक को उद्धृत करते हैं और फिर उसकी व्याख्या करते हैं

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।  

            'हे अर्जुन! जो पुरुष अपनी उपमा करके सुख और दुःख को सभी प्राणियों में समझता है, यह समझता है कि जिस तरह से मुझको दुःख की बातों से दुःख और सुख की बातों से सुख होता है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी सुख-दुःख होता है। अतएव हमें चाहिए कि दूसरों के प्रति हम उन बातों को करें जिनसे हमें दुःख होता है, बल्कि उन बातों को करें जिनसे हमें सुख होता है।

            इसी भाव, जिसमें सत्य, दया और न्याय निहित है, को वह सनातनधर्म के मूल में देखते हैं, और इसीको समाज में शांति का वाहक भी। जब ह्रदय में करुणा का संचार होगा तब भेदभाव भी नष्ट हो जाएगा। यही वह धर्म है जो भूल से भी हिंसा हो जाने पर प्रायश्चित्त का विधान रखता है।[11]

 

श्रीकृष्ण में भक्ति की महिमा

            मालवीयजी की भक्तिधारा में श्रीकृष्ण का सर्वोच्च स्थान है। पूरी मानव-जाति में जितने भी महापुरुषों की कथा विदित है, उन सबमें सबसे बड़ा वह भगवान कृष्ण को मानते थे क्योंकि 'मनुष्यकी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियोंका जितना ऊँचा विकास उनमें हुआ, उतना किसी दूसरे पुरुषमें नहीं हुआ। जैसे विमल ज्ञान और जैसी सात्विक नीति का उन्होंने उपदेश दिया, वैसा किसी और ने नहीं किया।'

उनकी महिमा का बखान उन्होंने इन दो श्लोकों में रच दिया[12]:

सत्यवती महात्मानी भीष्मव्यासी सुविश्रुतौ।

उभाभ्याम्पूजितः कृष्णः साक्षाद्विष्णुरिति हालम।।

माहात्म्यं वासुदेवस्य हरेरद्भुतकर्मणः।

तमेव शरणं गच्छ यदिश्रेयोऽभिवामच्छति।।     

            अर्थात् जिन भगवान् कृष्ण ने अपने प्रकट होनेके समय से अंतर्धान होने के समय तक साधुओं की रक्षा, दुष्टों का दमन, पाप और धर्म की स्थापना आदि अनेक अद्भुत कर्म किये, उनका माहात्म्य केवल इसी बात से भलीभाँति विदित है की महाभारत के रचयिता श्रीवेदव्यास और भीष्मपितामह, जिनका सत्य का व्रत प्रसिद्ध है और जो दोनों श्रीकृष्ण के समकालीन थे और इसलिए जो उनके गुणों से भलीभाँति परिचित थे, दोनों ही महात्माओं ने भगवान् कृष्ण को साक्षात् विष्णु मानकर पूजा है।

            इस भक्ति धारा में श्रीकृष्ण में अटूट विश्वास भी द्रष्टव्य है। उद्योगपर्व में उनके उपदेश को उद्धृत करते हुए मालवीयजी ने अपनी इस आस्था को स्पष्ट किया:

चलेद्धि हिमवाञ्छैलो मेदिनी शतधा भवेत्

द्यौः पतेत्सनक्षत्रा मे मोघं वचो भवेत् ।। 

            हिमवान् पर्वत चल जाय तो चल जाय, पृत्वी सौ टूक हो जाय तो हो जाय, आकाश नक्षत्रों के साथ गिरे तो गिरे, परन्तु मेरा वचन निष्फल नहीं हो सकता।जिस अनुपात में वह भगवान् कृष्ण का मनन करते, उसी अनुपात में उनका विश्वास दृढ़ होता गया और ह्रदय में यह लालसा और भी गहरी होती गयी कि श्रीकृष्ण के पवित्र उपदेशों से जनित ज्ञान को सभी प्राणियों में प्रसारित कर दें। श्रीकृष्ण के दिव्य चरित्र और अमृतमय उपदेश का ज्ञान जितनी तीव्रता से फैलेगा संसार का उतना ही मंगल होगा। यह कामना बार-बार उनके लेखों और प्रवचन में दिखाई देती है:

            'जितना ही मैं कृष्ण-चरित्र का मनन करता हूँ उतना ही यह दृढ़ विश्वास होता जाता है और मेरे ह्रदय में यही उत्कंठा होती है कि किस प्रकार से भगवान् के गुणों और उनके पवित्र उपदेशों का ज्ञान समस्त प्राणियों में फैला दूँ। जैसे मनुष्य कितनी ही बार अमृत का पान कर फिर अमृत के पीने के लिए ही इक्षा करता है, वैसे ही भगवान् कृष्ण के दिव्य चरित्र को बार-बार स्मरण करने पर भी फिर उसके रस का जाननेवाला भक्त उनके नाम और गुणों के कीर्तन करने से तृप्त नहीं होता।'

            श्रीकृष्ण में भक्ति की चर्चा में मालवीयजी इस बात को उत्कृष्ट मानते हैं कि भीष्मपितामह जैसे महापुरुष भी उनकी भक्ति में लीन थे। यह बात  'भीष्मस्तवराज' के श्लोकों से पूर्ण विदित है जहाँ भीष्म ने अपनी मृत्यु के समय श्रीकृष्ण की स्तुति की। मृत्यु को स्वीकार करने के समय जिस प्रकार वह श्रीकृष्ण को याद करते हैं, वह वर्णन संसारभर की भक्ति परंपरा में दुर्लभ है। मालवीयजी ने इस बात को स्पष्ट करने के लिए 'भीष्मस्तवराज' से दो श्लोकों को उद्धृत कर उसकी व्याख्या की--

अतसीपुष्पसंकाशं पीतवाससमच्युतम्

ये नमस्यन्ति गोविन्दं तेषां विद्यते भयम्

नमो ब्रह्मणदेवाय गो ब्राह्मणहिताय च। 

जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमोनमः।।

            तीसी के फूल के समान जिसका वर्ण है, जो पीताम्भर को धारण किये हुए हैं, ऐसे अच्युत गोविन्द को जो नमस्कार करते हैं, उनको किसी प्रकार का भय नहीं रहता। जो ब्रह्मणदेव हैं और गौ और ब्राह्मण की हित की रक्षा और उपकार करनेवाले हैं और सारे जगत् के प्राणियों का हित करनेवाले हैं, ऐसे कृष्ण को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ।[13]

 

हिन्दू विश्वविद्यालय और धार्मिक शिक्षा

            महामना मालवीय सनातनधर्म के उन पहलुओं को विद्यार्थियों के जीवन में पिरोना चाहते थे जो उनको बेहतर मनुष्य बनाने में मददगार साबित हो। वह धर्म को जीवंत-शक्ति के रूप में देखते थे। वह भारत की प्राचीन संस्कृति से युवा मन का लगातार साक्षात्कार कराना चाहते थे। उनका मानना था की औपनिवेशिक परिवेश  में सनातनधर्म के मूल तत्वों का ह्रास हुआ था और प्राचीन संस्कृति की जानकारी में कमी भी आयी थी। हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा वह इन कमियों को पूरा करना चाहते थे। विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए कहा कि वह वहाँ मिलने वाली धर्मशिक्षा से लाभ उठायें, भय से नहीं बल्कि प्रेम से धर्म-कार्य करें: 'हिन्दू विश्वविद्यालय माता है। इस माता को डेढ़ घंटा भेंट कर दो और इस संस्था के धार्मिक उत्सवों से, और गीता प्रवचन से शिक्षा लो, और देख लो कि इससे जीवन में कितना परिवर्तन हो गया।'

            विद्यार्थियों को बताया कि काशी विश्वविद्यालय में शरीर-शिक्षा और धर्म-शिक्षा दोनों अनिवार्य हैं जिनका मेल या समन्वय गंगा-जमुना की तरह होना जरूरी है। अन्य जीवों की तुलना में मनुष्य में विचार और विवेक अधिक है, उनमें धर्म की विशेषता है। इस विशेषता का फल यह होता है कि अधर्म के मार्ग पर चलते ही शांति नष्ट हो जाती है:

        'मनुष्य जीवन अन्य जीवों के जीवन से विशेषता रखता है। दूसरे प्राणी, पशु-पक्षी, हाथीघोड़ा, कुत्ते, आदि इन्द्रियों का सुख पाते हैं। वे हम लोगों की तरह भोजन-प्रेमी हैं, वे सोते हैं, आराम करते हैं, किन्तु उनमें विवेक बुद्धि नहीं है। मछली मछली को  खाती है। एक पशु दूसरे पशु का शिकार करता है। उन प्राणियों में विचार नहीं है। ... मनुष्य में आहार, निद्रा, आदि विषय सब प्राणियों की तरह होते हैं, किन्तु  धर्म की विशेषता मनुष्य में अधिक है। मनुष्य में विवेक है जो उसे उच्च बना देता है। थोड़े ही व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हें देखा जाता है अधर्म से सांसारिक सुख पा रहे हैं, परन्तु उनका परिचय अच्छा नहीं होता। उन्हें अधर्म से शांति नहीं मिलती। उनकी आत्मा टूट जाती है। वे पाप का बुरा फल अवश्य पाते हैं।'[14]

वाल्मीकि रामायण और महाभारत में धर्म का स्वरुप

            धर्म के स्वरुप की सम्यक समझ विकसित करने के लिए महामना मालवीय वाल्मीकि रामायण और महाभारत को श्रेष्ठ काव्य मानते हैं। उनका कहना था कि इन दोनों महान ग्रंथों ने धर्म के सही स्वरुप को खींच दिया है। इसीलिए जीवन का सही लाभ उसी को मिलेगा जिसने इन दोनों ग्रंथों को पढ़ा है। व्यास ने महाभारत के द्वारा मनुष्य मात्र को इस प्रकार अमृत सौंप दिया 'जैसे माता बच्चों को दूध देती है।' महाभारत-पाठ के पुण्य को वह वेद-पाठ से मिले पुण्य के सामान आँकते हैं: 'मनुष्य का धर्म है कि गंगास्नान, हर या हरि की पूजा और महाभारत का पाठ अवश्य करें। इन तीन कामों को जो करता है वह अपने जीवन को सफल करता है। पूरा ज्ञान या मोक्षज्ञान महाभारत में भर दिया है।'

            दूसरा पक्ष यह कि इस ग्रन्थ में अध्यात्म शक्ति के साथ-साथ सांसारिक व्यवहार भी मिलता है। इस सन्दर्भ में वह भगवद्गीता से अत्यंत प्रभावित हैं:

            'गीता संसार का एक अनमोल रत्न है और उसके एक-एक अध्याय में कितने रत्न भरे पड़े हैं। इसे पद-पद और अक्षर-अक्षर से अमृत की धरा बहती है। गीता पढ़ने का बड़ा माहात्म्य कहा गया है। जो मनुष्य इस पवित्र गीताशास्त्र को शुद्ध और पवित्र होकर पढ़ता है, वह भय और शोकरहित होकर विष्णुलोक को प्राप्त होता है। गीताअध्ययन करने वाले तथा प्राणायाम करने वाले को पूर्वजन्म में किये हुए पापों का फल नहीं लगता है। प्रतिदिन जलस्नान करने वाले मनुष्य का बाहरी मल धुल जाता है, किन्तु गीतारूपी जल में एक बार के ही स्नानमात्र से संसाररूपी मल नष्ट हो जाता है। सब शास्त्रों को छोड़कर गीता का ही भलीभाँति गायन करना चाहिए, जो कि स्वयं भगवान् के मुँह से निकली हुयी है। महाभारतरूपी अमृत का सार गीता विष्णु भगवान् के मुँह से निकला है। यह गीतरूपी अमृत पीने से फिर जन्म नहीं लेना पड़ता है।'[15]

 

एक ही परमात्मा

            मालवीयजी सभी देवी देवताओं के मूल में एक परमात्मा को देखते थे। यह उनके भक्ति-भाव को बल देता था। उन्होंने वेद में व्याप्त इस भाव को रेखांकित किया:

     'एकमेवाद्वितीयम': एक ही परमात्मा है, कोई दूसरा नाम नहीं।

     'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति': एकही को विप्र लोग बहुत-से नामों से वर्णन करते हैं।

     'एकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति': है एक ही, किन्तु उसको बहुत प्रकार से कल्पना करते हैं।

            इसी भाव की तलाश महाभारत में भी होती है। मालवीयजी अपनी बात को समझाने के लिए युधिष्ठिर द्वारा भीष्म पितामह को पूछे गए प्रश्न को दोहराते हैं। युधिष्ठिर ने पूछा कि इस लोक में कौन एक देवता है, या सभी प्राणियों का सबसे बड़ा शरण है, जिसकी स्तुति या पूजा से मनुष्य का कल्याण होता है। भीष्म ने जवाब दिया: "मनुष्य प्रतिदिन उठकर सारे जगत के स्वामी, देवताओं के देवता, अनंत पुरुषोत्तम की सहस्त्र नामोंसे स्तुति करे। सारे लोक के महेश्वर, लोक के अध्यक्ष (अर्थात शासन करनेवाले), सर्वलोक में व्यापक विष्णु की, जो कभी जन्मे हैं, जिनकी कभी मरण होगा, नित्य स्तुति करता हुआ मनुष्य सब दुखों से मुक्त हो जाता है।  जो सबसे बड़े तेज हैं, जो सबसे बड़े तप हैं, सबसे बड़े ब्रह्म हैं और जो सब प्राणियों के सबसे बड़े शरण हैं। जो पवित्रों में सबसे पवित्र, सब मङ्गल बातों के मङ्गल, देवताओं के देवता और सब प्राणीमात्र के अविनाशी पिता हैं।'

            भीष्म के इस उत्तर का आशय है कि जब परमात्मा को कई नामों से बुलाते हैं तो वह मूल रूप से एक ही की स्तुति है। इसलिए मालवीय जी विष्णुसहस्रनाम और शिवसहस्रनाम तथा ऐसे स्तोत्र को एक ही परमात्मा की स्तुति मानते हैं। मनुष्यमात्र से अपेक्षित है कि वह  हरदिन सायंप्रातः उस परमात्मा का ध्यान करे और उसकी स्तुति करे।[16]

            पुनः वेदों की ओर मुड़ते हुए मालवीयजी प्राणी के भीतर एक ही परमात्मा के होने के भाव को रेखांकित करते हैं। 

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः

सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।

कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः

साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।

            अर्थात, एक ही परमात्मा सबमें व्याप रहा है, सब जीवों के भीतर की अंतरात्मा है, सृष्टि में जो भी कार्य  हो रहा है, उसका नियंता है। सभी प्राणियों के भीतर बसनेवाला, चैतन्य केवल एक है, जिसका कोई जोड़ नहीं है। वेदों से आगे चलकर स्मृति में, पुराण में, सबमें यही भाव है कि 'यह देवों का देव अग्निमें, जलमें, वायुमें, सारे भुवनमें, सब औषधियों में, सब वनस्पतियों में, सब जीवधारियों में व्याप रहा है।'[17]

            1930 में प्रकाशित हिन्दू धर्मोपदेशः में हिन्दू धर्म के मूल तत्वों की चर्चा के क्रम में मालवीयजी भगवान विष्णु के सुमिरन की बात करते हैं, क्योंकि घट-घट में बसने के साथ-साथ वह अद्वितीय हैं, दुःख और पाप को हरनेवाले शिव स्वरुप हैं: 'जो सब पवित्र वस्तुओं से अधिक पवित्र, जो सब मङ्गल कर्मों के मङ्गल स्वरूप हैं, जो सब देवताओं के देवता हैं और जो समस्त संसार के आदि सनातन अजन्मा अविनाशी पिता हैं।' [18]

 

सत्य एवं अहिंसा में आस्था

            मालवीयजी सनातनधर्म को अविभाज्य रूप से सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों से जोड़ते थे। अहिंसा के भाव का विस्तार उनको उस नैतिकता में मिलता है जिसका समर्थन ऋषियों और महात्माओं ने किया और जिसमें पूरे मानव समाज के 'अक्षय अस्तित्व' और 'शांतिपूर्ण सहयोग' के गुण समाये हुए हैं। अहिंसा के इस विस्तृत भाव में पशु-पक्षी तक शामिल हैं। 'अहिंसा मनुष्य के सबसे सुन्दर गुणों में से एक समझा गया है और समाज के समस्त मनुष्य इस नियम का यथाविधि पालन करते हैं। जो मनुष्य अपनी वर्तमान अवस्था से ऊँची अवस्था में जाना चाहता था उसे अहिंसा की प्रतिज्ञा लेनी पड़ती थी।' सत्य मनुष्य के सबसे प्रमुख धर्म और कर्त्तव्य के रूप में है 'सत्यन्नास्ति परो धर्मः' श्रुति हो या स्मृति, इतिहास हो फिर पुराण, सब ने मनुष्य का सर्वप्रथम मुख्य धर्म में सत्य को प्रतिष्ठित किया है। इन सबमें मनुष्य को हर पल और हर अवस्था में सत्य जैसे अमूल्य रत्न की रक्षा करने का आदेश है। उन्होंने याद दिलाया कि प्राचीन समय में बालक को सर्वप्रथम गुरु द्वारा यह पाठ पढ़ाया जाता था "सत्यं वद, धर्मं चर" उन्होंने यह भी याद दिलाया कि भारत के साहित्य में हरिश्चंद्र, युधिष्ठिर और दसरथ जैसे कई चरित्र भरे पड़े हैं जिन्होंने सत्य की वेदी पर जीवन की बलि दे दी और जिनके लिए हिन्दुओं में अभी भी असीम सम्मान और श्रद्धा है।[19]

 

समापन टिप्पणी

            महामना मालवीय में धर्म और भक्ति का भाव एक व्यापक मानव-कल्याण के उद्देश्य से जुड़ा है। उन्होंने उन तमाम उद्दात्त विचारों को उठाया जो मानव जाति के विकास के लिए उपयुक्त हो सके। इसी कारण वह बार-बार हिन्दू ग्रंथों को उद्धृत कर बेहतर मनुष्य और समाज के निर्माण की सीख देते हैं: 'हिन्दू शास्त्रों में क्षमा, धैर्य्य, शम, दम, दया, परोपकार अर्थात् वे सब गुण सुन्दर उपदेशों, कथाओं, तथा आख्यायिकाओं द्वारा भली प्रकार निर्देशित किए गए हैं जिनके पालन से मनुष्य का चरित्र अधिक दिव्य, अधिक पवित्र, अधिक उदात्त बनता है, जिनके ऊपर मनुष्यसमाज सधा हुआ है तथा जो मनुष्यमात्र में शांति और कल्याण के बीज बोते हैं।'[20] एक और महत्वपूर्ण बात यह कि वह धर्म और भक्ति की परिधि में जो सोच रहे थे, उसको जी भी रहे थे। यह उनके व्यक्तित्व की मौलिकता और प्रमाणिकता दोनों ही को उजागर करते हैं। यही कारण है कि अपने जीवन काल में और उसके पश्चात भी उनको भारी लोकप्रियता मिली।

            उनके मन में परंपरा-बोध और आधुनिक समय की जरुरत- दोनों के समनव्य बना रहता है। यही कारण है कि चिंतन का फलक व्यापक होता गया। हृदयनाथ कुंजरू ने धार्मिक क्षेत्र में पंडित मालवीय के विचारों को शास्त्रों की प्रमाणिकता और उदारवाद के मिश्रण के रूप में देखा: 'सनातन धर्म के मूलभूत सिद्धांतों की उनकी व्याख्या निश्चय ही बहुत उदार थी। वह मानवता की भावना से, सार्वजनीन प्रेम से तथा मानवहित के प्रति निःस्वार्थ निष्ठा से ओत-प्रोत थी, और इन्हें ही वे सनातन धर्म के मूलभूत सिद्धांत मानते थे।'[21] अपने अंतिम समय में मालवीयजी लगातार हरे राम-हरे राम का जाप करते रहे।[22] उनकी मृत्यु पर, 14 नवम्बर 1946 को हैदराबाद में शोक सभा को सम्बोधित करते हुए, सरोजिनी नायडू ने उन्हें 'अपने समय के सबसे महान हिंदू और युगों के सभी महान हिंदुओं में सबसे महानबताया’: 'पंडित मालवीय ने हिंदू धर्म के महान और सार्वभौमिक आदर्शों को पूरा किया जो मानव वर्गों के बीच विभाजन को मान्यता नहीं देता था। प्राचीन संस्कृति, आदर्शों और हिन्दू धर्म द्वारा प्रचारित आचरण के प्रति अटूट निष्ठा के साथ वह एक महान हिंदू थे, भारत के सबसे पुराने धर्म और सभ्यता के उपयुक्त प्रतिपादक थे।'[23]


संदर्भ :

[1] मुकुट बिहारी लाल, महामना मदन मोहन मालवीय: जीवन और नेतृत्व, मालवीय अध्ययन संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, 1978, पृ. 28
[2] लीडर, 23 दिसंबर 1909
[3] मोहनदास करमचंद गाँधी, सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, सस्ता साहित्य मंडल, नयी दिल्ली, 1948 (नौवां संस्करण), पृ. 34
[4] मदन मोहन मालवीय, द इमानेंस ऑफ़ गॉड, गीता प्रेस, गोरखपुर, 1934, पृष्ठ- 6
[5] हिन्दू महासभा का सातवां अधिवेशन, काशी, 19-21 अगस्त 1923, पंडित मालवीयजी का अध्यक्षीय भाषण, ‘व्याख्यान सार अर्थात हिन्दू संगठन के सम्बन्ध में पंडित मालवीयजी के व्याख्यानों का सार जो उन्होंने 26 दिसंबर 1922 से 27 दिसंबर 1924 तक विविध अवसरों पर दिए’, हिन्दू महासभा कार्यालय, काशी, 1925, पृष्ठ-34-36, हरिहर स्वरुप शर्मा पेपर्स, सब्जेक्ट फाइल्स संख्या-5, नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय
[6] काशी, 14 मई 1932, सीताराम चतुर्वेदी, महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, तृतीय खण्ड, पृष्ठ-10-13
[7] अभ्युदय, 13 सितम्बर 1907
[8] हिन्दू महासभा का सातवां अधिवेशन, काशी, 19-21 अगस्त 1923
[9] सनातन धर्म, साप्ताहिक, 1 (9), सीताराम चतुर्वेदी, महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, तृतीय खण्ड, पृष्ठ-77 में उद्धृत; इसके अतिरिक्त देखें, समीर कुमार पाठक, सम्पादित, मदनमोहन मालवीय: विचार-यात्रा, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली, 2013, पृष्ठ-446-447
[10] काशी, 14 मई 1932, सीताराम चतुर्वेदी, महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, तृतीय खण्ड, पृष्ठ-10-13
[11] 1 जनवरी 1936 को पूना में प्रभात चित्रपट-प्रयोगशाला देखने के अवसर पर मालवीयजी का सन्देश, सीताराम चतुर्वेदी, महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-130-131.
[12] कृष्णाष्टमी, सम्वत 1992, सनातनधर्म, 21 अगस्त 1935, सीताराम चतुर्वेदी, महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, तृतीय खण्ड, पृष्ठ-73-76 में संकलित
[13] कृष्णाष्टमी, सम्वत 1992, सनातनधर्म, 21 अगस्त 1935
[14] सीताराम चतुर्वेदी, महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-1-3
[15] सीताराम चतुर्वेदी, महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-3-5
[16] सीताराम चतुर्वेदी, महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, तृतीय खण्ड, पृष्ठ-5-6
[17] काशी, 14 मई 1932, सीताराम चतुर्वेदी, महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, तृतीय खण्ड, पृष्ठ-8
[18] हिन्दू धर्मोपदेशः, मालवीयकृतः, काशी, 1930, 18-पृष्ठ, हरिहर स्वरुप शर्मा पेपर्स, प्रिंटेड मैटेरियल्स-21, नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय
[19] ‘प्रस्तावित हिन्दू विश्वविद्यालय: प्रथम भाग, इसकी आवश्यकता क्यों हुई?’, सीताराम चतुर्वेदी, महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, तृतीय खण्ड, पृष्ठ-106-113
[20] ‘प्रस्तावित हिन्दू विश्वविद्यालय: प्रथम भाग, इसकी आवश्यकता क्यों हुई?’
[21] हृदयनाथ कुंजरू, ‘प्रस्तावना’, मुकुट बिहारी लाल, महामना मदन मोहन मालवीय: जीवन और नेतृत्व, पृ.i-iv
[22] हिंदुस्तान टाइम्स, 12 नवम्बर 1946
[23] हिंदुस्तान टाइम्स, 15 नवम्बर 1946

 

 

भुवन कुमार झा,
एसोसिएट प्रोफेसर, इतिहास विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
bhuwanjha@gmail.combhuwanjha@history.du.ac.in9810921958 

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
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