आलेख : भील आदिवासी समुदाय में भक्ति, पर्व और मेला / रामजीवन भील

भील आदिवासी समुदाय में भक्ति,पर्व और मेला
रामजीवन भील


भील जाति की उत्पत्ति -

            भील - नाम संबंधी उत्पत्तिशास्त्र :- भील शब्द की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस विषय  में प्रायः सभी लेखकों की मान्यता एवं प्रस्तुति एक समान है। यह माना जाता है कि इस शब्द *की उत्पत्ति मूलतः उच्चारण संबंधी भेद के कारण संस्कृत के मूल शब्द "भिद्से हुई है। भिद् का भावार्थ है विंधना, भेदना, वेधना (लक्ष्य को वेधना) आदि। उच्चारण सम्बन्धी विशिष्टता के 3 कारण भिद् शब्द ही कतिपय परिवर्तनों के पश्चात् अन्ततः भील शब्द में रूपान्तरित हुआ है।

आर. वी. रसल और रायबहादुर हीरालाल का मत पत है कि द्राविड़ भाषा में धनुष के लिये प्रयुक्त

शब्द " बिल " से ही रूपान्तरित होकर भील शब्द अस्तित्व में आया है।

भील शब्द की उत्पत्ति "बिल" से हुई है जिसका द्रविड़ भाषा में शाब्दिक अर्थ "धनुष" होता है। भील जाति दो भागों में विभक्त है -

(1) क्षत्रिय भील तथा (2) उजलिया भील

यह जनजाति मुख्य रूप से गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा राजस्थान के पहाड़ी इलाकों में पाई जाती है। एक अनुमान के अनुसार इनकी जनसंख्या निम्नप्रकार है

1. गुजरात - 3441945           

2. मध्यप्रदेश-4619068

3. महाराष्ट्र -1818792

4. राजस्थान-2805948

            इस प्रकार हम देखते है हल्दी घाटी युद्ध लड़ने वाले , स्वाधीनता आंदोलन में मानगढ़ धाम (राज.) पर शहीद होने वाले तथा टंट्या मामा ( इंडियन रॉबिन हुड) जैसे स्वतंत्र योद्धा पैदा करने वाली योद्धा भील जनजाति वर्तमान में भारत के  मध्यप्रदेश ,राजस्थान,गुजरात, महाराष्ट्र आंध्रप्रदेश में नायक (भील समूह ) त्रिपुरा के उत्तर पूर्वी स्थानों और पाकिस्तान के सिंध प्रांत में  बहुआबादी के रूप में निवासरत जनजाति  है कि भील जाति के लोग मध्यप्रदेश में अधिकतम रूप से पाये जाते हैं। राजस्थान में भील जाति को धर्नुधर के रूप में जाना जाता है। यह सम्पूर्ण भारत में आदिवासी के रूप में बिखरे हुए है। यह जाति पश्चिमी एशिया की सबसे अधिक आदिवासी जाति के रूप में है।

इन्हें कही पर विशुद्ध भील कहते हैं तथा कहीं पर क्षत्रिय भील भी कह कर पुकारते हैं।

मरदुम शुमारी राज मारवाड़ 1891 . जो रायबहादुर मुन्शी हरदयाल सिंह द्वारा लिखित और प्रो. जहूर खां मेहर द्वारा लिखी प्रस्तावना में उल्लेख है -"

"भील अपनी पैदायश मेणों के माफिक भगवान के मैल से बताते हैं। उनकी कई पीढ़ी जिनमें ये 8 कदीम होने का दावा करती हैराबर्ट शेफर ने "निषादों" को भीलों का पुरखा प्रतिपादित किया है। उनके अनुसार 'भील' निशाद माधव (मधु) मूलक हैं।

भीलों की उत्पत्ति के बारे में कर्नल टॉड में लिखा है कि - "भील जाति भारतवर्ष में लम्बे समय में रहती रही है। इस कौम के गुण, स्वभाव और रहन-सहन से यही प्रकट होता है कि ये देश के आदिम निवासी है।

वेंकटाचार (1933) ने कहा कि भील आर्यों और द्रविड़ों से पहले भारत में रहते थे। भील मुण्डा आदिवासी समूह का एक भाग है। इस बात का समर्थन शम्भुलाल दोषी (1971) भी करते है।

वर्तमान में प्रयुक्त भील शब्द वस्तुतः अतीत के "निषाद" शब्द का ही पर्याय है, इसे प्राय सभी लेखक और अन्वेषक स्वीकार करते हैं। निषाद शब्द का प्रयोग प्राचीन  वाङ्ङ्गमय, वैदिक साहित्य में व्यापक रूप में हुआ है। इस प्रकार के उल्लेख से यह विदित होता है कि निषाद

हिन्दू समाज के अंग थे तथा उनके शेष हिन्दुओं के बीच सतत् संपर्क सहयोग रहा

            भील (निषाद्) धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण हैं। इनके धनुष्य से निकला हुआ तीर लक्ष्य तक पहुंचे यह संभव ही नहीं है। धनुर्विद्या में उनकी यह निपुणता अतीत से चली रही है। यह उन्हें विरासत में प्राप्त नैसर्गिक विशेषता है। यह इसी तथ्य से प्रमाणित होता है कि  आदिकवि वाल्मीकि के रामायण भील मुख से प्रस्फुटित प्रथम काव्य रूपी निम्नांकित पंक्तियां एक निषाद को ही संबोधित हैं जिसने कि अपने बाण से कामातुर क्रौंच पक्षी का वध किया था -

"मा निषाद ! प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वतीः समाः

यतक्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ।।

 

            रामायण में और भी प्रसंग हैं जिनसे ज्ञात होता है कि शबरी नामक भीलनी ने भगवान राम की भूख शांत  करने के लिए मीठे  बेरों का चुनाव खुद स्वाद चखकर किया और उन्हीं शबरी के झूँठे बेरों को बड़े आनंद लेते हुए खाकर अपनी  क्षुधा को शांत किया था वनवास के दौरान | तुलसीदास  जी भी रामचरित मानस  के अरण्य काण्ड में लिखते हैं कि शबरी ने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कंद,मूल और फल लाकर श्री राम जी को दिए प्रभु राम ने बार बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।।

प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।


            निषादराज ने भगवान राम की  सहायता की, भगवान राम ने उसे मित्र की स्थिति प्रदान की, अपने राज्याभिषेक में उसे आमंत्रित किया आदि। इन सब प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि भील (निषाद) शेष समाज के अंग थे केवल इस अन्तर के साथ कि वे वनवासी थे।

भील में अतीत में अनेक ऐसे पुरुष हुए हैं जिन्होंने इस जनजाति का गौरव

बढ़ाया है। मान्यता है कि ऋषि वाल्मीकि स्वयं भील थे तथा उनका मूल नाम वालिया था।

 महाभरत में एक आदिवासी तिरंदाज एकलव्य भील के प्रसंग से परिचित हैं। राम का अनुग्रह प्राप्त शबरी भी निषाद् ही थी। एक मिथ यह भी है कि भगवान कृष्ण का वध एक भील के बाण से ही हुआ था।

            भीलों की प्राचीनता के विषय में डॉ. शोभनाथ पाठक का मत है कि उनकी प्राचीनता - की परख, भागवतपुराण, अग्निपुराण, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, शिवपुराण सत्यनारायण भगवान आदि से की जा सकती है। इनकी तो यह भी प्राकल्पना है कि ऋग्वेद (5/29/10) में प्रयुक्त अनास शब्द भी भीलों से ही सम्बद्ध है क्योंकि इस नाम की एक नदी आज भी भील बहुल झाबुआ (. प्र.) में प्रवाहमान।

भीलों का इतिहास

            प्राचीन काल से ही भीलों का इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है। छठी सदी में 'कथा सरित सागर' में भील शब्द का उल्लेख भील मुखिया द्वारा विंध्याचल के शासक से कड़ा मुकाबला करने के संदर्भ में मिलता है।

            डॉ. देव कोठारी ने लिखा है कि 'मेवाड़ कभी घने वृक्षों से आच्छादित पहाड़ी प्रदेश था। उस समय इस भू भाग का नाम मेवाड़ नही था। 'शिबि' जनपद के बाद का नाम है। तब यहां पर भील जाति का ही बाहुल्य था। इस जाति द्वारा यह क्षेत्र शासित था। शासक और शासित दोनों भील थे। अन्य जातियों का आश्रय स्थल यह क्षेत्र बाद में बना। कालान्तर में जब उत्तरी भारत में विदेशी आक्रमण हुए, तब पंजाब से शिबि और मालव-गणों का दक्षिण की ओर पलायन हुआ, तब यह अरण्य क्षेत्र भी इसके प्रभाव से बच सका। शनैः शनैः शिबियों ने यहां पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। उस समय शिबियों की राजधानी मध्यमिका नगरी रही। मालव गणों ने मध्यप्रदेश के मालव क्षेत्र को अपना आश्रय स्थल बनाया। शिबियों के आधिपत्य के बाद यह प्रदेश शिबि जनपद के नाम से जाना गया। शिबि लोग भीलों से ज्यादा साधन सम्पन्न हो गये। अतः भीलों को घने पहाड़ी क्षेत्र से बाहर निकलना संभव नहीं था। फलस्वरूप उनकी शासन व्यवस्था चरमराने लगी। वे बाहरी प्रभावों से कटते गये और अपनी संस्कृति और विश्वास में सिमटते गये।

            छठी शताब्दी में ईडर राज्य पर भीलों का शासन था। उस समय भील मण्डलीक नाम का राजा शासन कर रहा था।" इसी तरह दक्षिणी राजस्थान में कुशला भील का कुशलगढ़ पर शासन था।" बांसवाड़ा का बांसिया भील था तथा डूंगरिया भील का डूंगरपुर पर तथा कोटिया भील का कोटा पर शासन था।

             कर्नल टॉड ने भी राजपूताने का इतिहास तीन जिल्दों में लिखा है। टॉड का मानना है कि भारत में भील बहुत दूर से आये। वे इस देश के सबसे पुराने निवासी है। ईसा के कई वर्षों पहिले ये उत्तर-पूर्वी देशों से यहाँ आये। इन्हें आर्य आक्रमण कर्ताओं ने जंगलों में खदेड़ दिया जंगलों में रहने के कारण टॉड इन्हें वनपुत्र भी कहते हैं।

: . 1190 में भीलों का मुखिया राजा तेजसी था। उसने गुजरात के राजा के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस प्रस्ताव में राजा भीमदेव द्वितीय अपनी पुत्री का विवाह राजा तेजसी के साथ करना चाहता था। इस बात को राजा भीमदेव ने अपना अपमान समझा और राजा तेजसी पर हमला कर दिया इस लड़ाई में तेजसी हार गया। आज भी मेवाड़ में तेजसी के वंशज रहते हैं जिन्हें परमार कहते हैं। एक और घटना . 1300 की है। झाबुआ का भील राजा शुकनायक था। जिसने धोलिता के राजपूत सरदार को साथ लेकर गुजरात के एक शासक के पूरे परिवार को मार दिया अकबर से हारे राणा प्रताप की सुरक्षा भील आदिवासियों ने अरावली की पहाड़ियों में की। प्रताप के परिवार को जंगलों में बचाने का काम भीलों ने किया। . 1661 में राजपूतों ने भीलों के सहयोग से ही औरंगजेब की विशाल सेना को हराया। अहिल्याबाई ने भीलों पर काफी अत्याचार किया। लेकिन बहादुर भील जाति ने अहिल्या बाई को सफल नहीं होने दिया। शुरू से ही भीलों और मराठों के सम्बन्ध अच्छे नहीं रहें पिण्डारी जो लुटेरे थे, उन्होंने भीलों के कई गाँव नष्ट कर दिये। भीलों को बहुत लुटा। पिण्डारियों के अत्याचार से तंग आकर भील अपने खेत खलिहान छोड़कर जंगलों में भाग गये।

            मराठों के द्वारा भीलों पर किये गये अत्याचार का वर्णन विलियम हंटर (Willium Hunter) ने बहुत ही मार्मिक रूप से किया है। उन्होंने लिखा है कि - "18वीं शताब्दी में भीलों के साथ राजद्रोहियों का सा बर्ताव किया गया अधिकारियों को यह आदेश था कि वे बिना किसी प्रकार की पड़ताल के भीलों के प्राण तक ले सकते थे। देश के अंशान्तिपूर्ण वातावरण में जो कोई भील मिल जाता, उसकी हंटरों से पिटाई की जाती और जरूरत समझी जाती तो फांसी पर लटका दिया जाता भीलों को कई तरह के कष्ट दिये जाते थे। नाक चीरकर और कान फाड़कर ये लोग कड़ी धूप में तपाये जाते थे। तपे हुए लोहे के पारों पर सांकलों से बांधे जाते थे। कई भीलों को तो पहाड़ पर से लुढ़का दिया जाता था। गिरोह के गिरोह (जिनको रिहा करने का वादा किया गया था) कत्ल कर दिये गये। इन भीलों की औरतों के अंग भंग कर दिये गये। धुएँ में गले घोंट दिये गये और बच्चों को पत्थरों पर पछाड़ कर मार दिया। मराठों द्वारा भीलों पर की गई निर्दयता का इतिहास में कहीं मुकाबला नहीं है।"

            यह एक बड़ी विचित्र बात है कि जिस भील जाति ने महाराणा प्रताप के परिवार को मुगलों से बचाया, प्रताप के बच्चों की जंगली जानवरों से रक्षा की। अपने बच्चों को भूखा रखकर प्रताप के बच्चों को भोजन दिया। उन्हीं प्रताप के वंशजों ने भील जाति पर अनन्य अत्याचार किये और भील जाति ने ये अत्याचार सहे। जब तक भीलों में दम था, वे अन्याय सहते रहे और जब ब्रिटिश लोग भी इन अत्याचारियों में शामिल हो गये, उन्होंने भीलों को दबाने के लिए अपनी सेना में भील कोर (Bhail Corps) और भील एजेन्सी (Bhil Agency) बनाकर भीलों को कुचल दिया। इन सैनिकों ने जानवरों की जगह भीलों का शिकार करना शुरू कर दिया। भीलों पर कई प्रकार के कर लगा दिये गये। मोरिस कारस्टेयर्स (Morris Carstairs) ने उदयपुर के कुछ जगहों पर शोध कर बताया कि राजपूतों द्वारा भीलों पर किये अत्याचारों की सम्भयता में कोई मिसाल नहीं मिलती।

            यह एक कटु सत्य है कि भीलों पर इतने अत्याचार हुए, परन्तु भील जाति ने राजपूत संस्कृति अपनाने का प्रयास किया। भील बदल कर गरासिया बन गये, गरासिया बदलकर मीणा बन गये और मीणा अपने आपको राजपूत कहने लगे। "राजपूतीकरण की यह क्षत्रीयकरण भीलों के सामाजिक परिवर्तन की एक दिशा बन गई।"

            वैदिक और कालान्तर का साहित्य ऐसे अनेक प्रसंगों की हमें जानकारी देता है। आदिवासी भारत-भूमि तथा भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। भारतीय संस्कृति को समृद्ध करने में आदिवासियों का योगदान भी रहा है। उनके शान्त और सरल जीवन में घातक परिवर्तनों का सिलसिला तब शुरू हुआ जबकि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेजों ने वनों के आर्थिक महत्व को समझा। इसके साथ ही अंग्रेजों ने वनों का हस्तगन किया। वहां अपनी प्रशासनिक पकड़ मजबूत की। इसके अतिरिक्त इन्होंने वनों का आर्थिक दोहन भी प्रारंभ किया। इन परिवर्तनों का आदिवासियों पर प्रतिकूल प्रभावं पड़ना सहज ही था।

भील जनजाति के प्रमुख देवी देवता

            भयातुर मानव ने अनेक देवी-देवताओं की कल्पना की है और अपने संतप्त मानस को अनेक रूपों में समझाया है। पर्वतों की उन्नत चोटियों की उसने सिर झुकाकर पूजा की और अपने साथियों को बताया कि इन पर बड़े- बड़े देवता रहते हैं गरजते हुए बादलों को देखकर वह कई बार काँपा और उन्हें आदर भाव से मनाने के लिये पशुओं की बलि दी। कभी-कभी अपने कृतज्ञता-प्रकाशन के लिये भी इस भोले मानव ने कतिपय देवताओं को अपने कल्पना-लोक में बसाया। इस प्रकार विविध देवी-देवताओं के मध्य में यह आदि इंसान जाने कब से रह रहा है और कब तक रहेगा। श्रद्धा एवं विश्वास के सहारे उसकी देवता विषयक कोमल भावनाएँ पत्थर की लकीरों की भाँति आज भी दृढ़ हैं

            भील जनजाति के ये देवी-देवता उनकी चिरकाल से सहायता कर रहे हैं और विपत्तिकाल में प्रार्थनाओं को सुनकर उनके विषाद भरे हृदय को उर्लासत करते हैं। इस प्रगतिशील युग में भील भी यह स्वीकार करने में नहीं हिचकता कि उसके बाघ देवता (सिंह) जंगल में उसे एकाकी देखकर कभी नहीं सताते इनके कुछ देव और देवियाँ ये हैं:-

(1) बड़का देव (2) भिलट देव(3) बाघ देव  (4) दुलहा- देव (5) नागदेव (6) मैगी माता(7) लाल आसमानी माता (8) भैंसासुर () बाबा देव (10) बिजासन माता (11) सावनी माता  (12) कालिका (13) सारदा मैया (14) काली (15) सीतला माता (16)  (17) मरी माता (18) बंदरिया (19) भगवान शंकर (20) चंडी (21) अष्टभुजा (22) फूलमती (23) लोढ़ामाई (24) अलोपन (25) , कुबेर  (26) नेटिया (27) कौरीम (28) खुसरो (29) टेकमा (30) पोया (31) मरपाची (32) मराई (31) नेताम (34) माता काली (35) सोइया (36) ओइका (37) मराली (38) घुरवा (39) सरपाटिया (40) चिचमा इत्यादि

देवी-देवताओं के विषय में इन आदिवासियों (भीलों) का हृदय बड़ा उदार है।

            जिस श्रद्धा से ये धरतीमाता के चरणों में पुष्प चढ़ाते हैं उसी विश्वास से ये भगवान रामचन्द्र अथवा श्रीकृष्णचन्द्र के पाद-पद्मों को पूजते हैं। महालक्ष्मी के मन्दिर को देखकर ये सिर नवाते हैं और ज्वार की समृद्ध फसल के लिये हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगते हैं। भक्ति-भाव से विभोर भील वन के रंग- बिरंगे पुष्पों से जब अपने देवता की पूजा करता है तब उसकी अर्द्ध निमीलित भाँखें एक महान श्रराधक की स्मृति को जगा देती है। विद्वानों का कहना है कि श्रार्यों के देवी-देवताओं में अनेक अनार्य देवताओं की भी गणना हो गई है वस्तुतः वैदिक देवता ये हैं- इन्द्र, अग्नि, वरुण, सोम, सूर्य, उषा और परजन्य अनार्यों के सम्पर्क से प्रभावित होने के कारण आर्यों ने माता काली, भगवान शंकर, विघ्नविनाशक गणेश, हनुमान, कुबेर आदि को अपना आराध्य माना और इनकी पूजा को विशेष महत्व दिया पत्र-पुष्प-फलादि से पूजा करने की विधि को विचारक आार्यतर बताते हैं। उनका कथन है कि होम करना तो आर्य ही जानते थे। इनके देवताओं का आकाश में निवास होने के कारण अग्नि के माध्यम से ये उन्हें अपनी प्रिय वस्तुएँ सर्मापत करते थे पूजा शब्द द्रविड़ भाषा का है। यह पूज धातु से बना हुआ बताया जाता है। "पू" का अर्थ है फूल तथा "जे" का मतलब है करना पुष्प-पूजन विधि आर्यों के लिये प्रारम्भ में नूतन प्रतीत हुई थी

1.भीलटदेव

            भीलटदेव इन आदिवासियों(भीलों) के विशेष लोकप्रिय देवता हैं। पर्वतों की ऊंची-ऊंची चोटियों पर इस आराध्य का निवास माना जाता है। आकाश को स्पर्श करने वाली ये शैलमालाएँ प्रत्येक भील के मस्तक को श्रद्धा से भुका देती हैं सब प्रकार की विपत्तियों को नष्ट करने वाले ये भीलटदेव हैं। साँप इनके वश में हैं इन्द्रदेव इनकी महती शक्ति से सदैव प्रभावित रहते हैं। शेर इनकी सवारी है। प्रचण्ड वायु वेग इनकी क्रोधमयी साँसें हैं

            भीलटदेव के पिता का नाम रूपारेला गावली था और माता का नाम महिन्द्रा राज बचपन में भीलट की बुद्धि विशेष प्रखर नहीं थी युवक होने पर भी यह मूर्ख रहे सब लोग इनकी मूर्खता पर हँसा करते थे हताश होकर भीलट ने घर-त्याग किया और घूमते-घूमते ये गौड़ बंगाल में पहुँचे यहाँ इन्होंने करिन्दा जोगिन से जादू सीखा और पूर्ण पारंगत होकर ये अपनी जन्मभूमि में ग्राये एक दिन की बात है हजारों लोग बैठे हुए थे भीलट महाराज ने वीणा बजाई और एक बड़ा अजगर उनके सामने आकर बैठ गया। यह सर्पराज इतना भयंकर था कि सब लोग उसे देखकर घबराने लगे जब सर्पराज ने भीलट देव के भाई को डस लिया तो उन्होंने ही इस सर्प के जहर से अपने भाई को उबारा

यह सब देखकर हजारों लोगों ने उनकी शक्तियों पर विश्वास   कर   लिया भीलट देव ने हजारों गायों को खरीदा और हजारों

ग्वालों को नौकर रखा श्रौर पर्वतों की ऊँची चोटियों पर उन्हें रहने का आदेश दिया। ग्वालों की देखरेख भीलट बाबा स्वयं करते हैं अतः प्रत्येक पहाड़ की ऊँची-चोटी पर ये रहते हैं। पुत्र-प्राप्ति के लिये भी भील महिलाएँ भीलटदेव की पूजा करती हैं

2.बापदेवजिन्हें भील समुदाय के लोग बूढ़ादेव बड़ादेव या कुलदेवता के नाम से जाना जाता है जिसे भीली बोली में बाबुढा भी कहते हैं यह इनके गावों में लोकदेवता के रूप में अधिकाल से स्थापित हैं

भीलों में विवाह आयोजन पर बापदेव की पूजा की जाती है |

 

3.बाघदेव या बाघबरस देव -

भील समुदाय के लोग बाघ को देवता के रूप में पूजते हैं। इनकी मन्यथा है कि ऐसा करने से जंगली बाघ इनके पशुओं बकरी गाय मुर्गी आदि को नहीं खाता और मनुष्यों पर भी हमला नहीं करता और बाघ का शिकार भी नही करने देते

4.नागदेव - नागदेव की पूजा भाटी देव के रूप में होती है। प्रत्येक ग्राम में इस देव की स्थापना एक पत्थर के माध्यम से करली जाती है। पूजा के समय इस पाषाण को सिन्दूर से रंग दिया जाता है। जिस वृक्ष की जड़ में इस देव को स्थापित करते हैं उसे काटना पाप समझा जाता है। उसकी शाखा में एक श्वेत झंडी लगा दी जाती है। कहते हैं कि इस सर्पदेव की कृपा से नाग-विष भी अपना प्रभाव नहीं दिखा पाता है

पश्चिमी मध्यप्रदेश एवं दक्षिणी राजस्थान में रहने वाले भील समुदाय के लोग नागदेव की पूजा नागाठे (कृष्ण जन्मष्ठमी) के दिन बड़े धूम धाम से करते हैं ।इनकी मान्यता है कि नागाठे के दिन दूध पिलाने से सांप किसी को नहीं कटता (डसना)और यदि काट ( डस) भी ले तो कोई मरता नहीं क्योंकि सांप जहर नहीं छोड़ता डसे हुए अंग पर

5.काली दीवि (चिड़िया ) - पश्चिमी मध्यप्रदेश के भील समुदाय के लोग मकरसंक्रांति उतरन पर्व (मकरसंक्रांति) पर काली दीवि को पड़कर तेल पिलाते हैं उसके बाद उसको छोड़ देते हैं फिर यह काली दीवि (चिड़िया) जिस  पेड़ पर बैठती है वैसा ही साल होता है यानी कि दीवि यदि हरे पेड़ पर बैठती है तो इस वर्ष वर्षा खूब होगी और यदि सूखे पेड़ पर बैठती है तो इस साल वर्षा कम होने वाली है

6.इन्द्रदेव भीलों का जीवन कृषि तथा वनों पर निर्भर है। कृषि तथा वनों का सम्बन्ध वर्षा से है। इसीलिये भील भी वर्षा की प्रतिक्षा आतुरता से करते हैं। इसमें जरा भी विलम्ब होने पर वे आतंकित हो जाते हैं। भरपूर वर्षा की कामना के लिये वे इन्द्र की आराधना करते हैं। इन्द्र की अनुकंपा से पर्याप्त वर्षा होने पर ही फसल और फल-फूल, कन्द-मूल उन्हें मिल जाते हैं। उनकी आराधना, प्रार्थना से यदि भरपूर वर्षा हो जाए तो इन्द्र के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना आवश्यक होता है। इसके लिये निर्धारित दिन ग्राम के किसी प्रशस्त मैदान में ग्राम के सभी स्त्री-पुरूष बच्चे एकत्रित होते हैं। नाते-रिश्तेदारों को भी आमंत्रित किया जाता है। इन्द्र की पूजा-अर्चना की जाती है। बकरों की बली दी जाती है। बली का माँस भोज में प्रयुक्त किया जाता है। भोज का आनंद लेकर, जी भरकर मद्यपान और नृत्य करते हुए सब लोग अपने घरों को लौट जाते हैं। इस पर्व को 'इन्द्र' के अपभ्रंश के रूप में 'इन्दल' कहा जाता है।

देवी-देवताओं की पूजा में ब्राह्मणों की श्रावश्यकता नहीं पड़ती गाँव का बड़वा ही पुजारी का काम करता है

7.हिरकुलियो देव - हिरकुलियो कृषि-देव है। पावस ऋतु में बड़ी धूमधाम से इस देवता की पूजा होती है बड़वा (पुजारी) पुरोहित के रूप में पूजा की सामग्री को एकत्रित करता है और गाँव के स्त्री-पुरुष नाच-गान से देवता को प्रसन्न करते है। देवता की वेदी पर मिट्टी के बने हुए घोड़े और मटके चढ़ाये जाते हैं। बकरे अथवा मुर्गी की बलि भी दी जाती है

8. मौगी माता- यह भील समुदाय की कुलदेवी है जिसकी पूजा फाल्गुल माह में मोगी पर्व पर बहुत धुम- धाम की जाती है विशेषतः पश्चिम मध्यप्रदेश के भील समुदाय के कस्बों में

 इसे धन की देवी या कहे लक्ष्मी माता के रूप में पूजा जाता है

  देवी के प्रसन्न होने पर गरीबी नही रहती और घर में धन दौलत की भी कमी नही  रहती है।

 

भील जनजाति के प्रमुख पर्व एवं मेले

            पर्व और मेले हमारी संस्कृति के विशिष्ट आयोजन हैं। इनका वैयक्तिक पारिवारिक की दृष्टि से तो महत्व है ही सामाजिक सामुदायिक दृष्टि से भी वे अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। यही माध्य कारण है कि हमारे मूलभूत पर्वो पर काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे सदियों से निरंतर अस्तित्व रंजन में बने हुए हैं। भील जनजाति में आज भी उनका महत्व बना हुआ है। इन लोकपर्वों को भील जनजाति में अभी भी  उत्साह के साथ मनाने की परम्परा जारी है। यही स्थिति मेलों की भी है। मेलों और पर्वों में मौलिक अन्तर यह है कि पर्वों का प्रायः कोई आर्थिक लक्ष्य नहीं होता है जबकि मेले क्रय-विक्रय हम के मुख्य आयोजन रहते