मनीष कुमार यादव |
लोकवृत्त की निगाह से भक्तिकाल की पड़ताल करें तब कुछ सन्दर्भों की ओर हमारा ध्यान स्वत: चला जाता है| उद्गम सम्बन्धी अनेकानेक मान्यताओं के बीच एक तथ्य के सिलसिले में विद्वानों की आम सहमति है कि इस आन्दोलन ने एक ख़ास तरह के लोकवृत्त का निर्माण किया| यह लोकवृत्त सामंती दौर में उदारता के जिस संकल्प को रचता है वहाँ मानव जाति की हर तरह की बेड़ियों को तोड़ देने के संकल्प उपस्थित हैं| इन संकल्पों ने जिस लोकवृत्त को हिन्दुस्तान की आत्मा में पिरोया उसी की ज़मीन पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी और आखिरी आदमी की चिंता से लबरेज उस बोध ने आज़ाद भारत के संविधान को रचा, जिसने सर्वसमावेशी समाज निर्माण को अपना लक्ष्य बनाया| यहाँ धर्म, ज़ात, उत्तर-दक्षिण, भाषा-बोली, औरत-मर्द, सवर्ण-अवर्ण, आदिवासी-शहरी या यूँ कहें कि जितनी तरह की खाइयाँ थीं उन सबको पाटकर मनुष्य धर्म की प्रतिष्ठा की गयी| के.दामोदरन ने भक्तिकालीन लोकवृत्त के सिलसिले में छ: प्रस्थान-बिन्दुओं को रेखांकित किया,` भक्ति आन्दोलन ने देश के भिन्न-भिन्न भागों में, भिन्न-भिन्न मात्राओं में तीव्रता और वेग ग्रहण किया| यह आन्दोलन विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ| किन्तु कुछ मूलभूत सिद्धांत ऐसे थे जो समग्र रूप से पूरे आन्दोलन पर लागू होते थे- पहले,धार्मिक विचारों के बावजूद जनता की एकता को स्वीकार करना; दूसरे, ईश्वर के सामने सबकी समानता;तीसरे जाति-प्रथा का विरोध; चौथे, यह विशवास कि मनुष्य और ईश्वर के बीच तादात्म्य प्रत्येक मनुष्य के सद्गुणों पर निर्भर करता है न कि उसकी ऊँची जाति अथवा धन-संपत्ति पर;पाँचवें इस विचार पर जोर कि भक्ति ही आराधना का उच्चतम स्वरूप है; और अंत में, कर्मकांडों, मूर्ति-पूजा, तीर्थाटनों और अपने को दी जाने वाली यंत्रणाओं की निंदा|’[1] कहना न होगा एक नयी तरह की समझदारी निर्मित होने लगी थी जो विशिष्ट किस्म के लोकवृत्त को निर्मित करने में सहायक साबित हुआ | इसी दौर में आक्रान्ता इस्लाम और पराजित हिन्दुत्त्व के नुमाइंदों ने धीरे-धीरे यह व्यवहार अपनाना शुरू कर दिया था कि आपसी फसादों और रंजिशों को दरकिनार कर साथ रहने और मेल-जोल के सिलसिले को बढाया जाय| मेल-जोल के इसी फलसफे ने अब्दुर्रहीम ख़ानेखाना जैसी नायाब शख्सियतों से हिन्दुस्तान को नवाजा| यदि आज भी हिन्दी प्रदेश की ज़बान पर रहीम के दोहों की सुवास मौजूद है तब वाचिक परम्परा के लोकवृत्त की चली आ रही रवायतों की याद आ जाना लाजमी है, जिसकी ओर कभी कृष्णदत्त पालीवाल ने इंगित किया था, भक्ति के इस समाजशास्त्र में आधुनिक मनुष्य के लिए प्रखर बौद्धिक प्रयत्न का मूल्यवान खज़ाना है| कर्मकांड का पक्ष दुर्बल है| लोक संस्कृति का लोकशास्त्र, लोकवेद का पक्ष ही इसका मूलाधार है| यहाँ गीता के कर्मयोग, भावयोग तथा भक्तियोग की महिमा है| पुरोहितवाद और ब्राहमणवाद के दाँत यहाँ कमज़ोर पड़ जाते हैं| भक्ति के कल्पवृक्ष में व्यक्तिवाद, जातिवाद, वर्णवाद, अलगाववाद, ऊँच-नीचवाद का कोई स्थान नहीं है| लोकतत्त्व, लोककथा, लोकभाषा, लोकधर्म, लोकोत्वाव, लोकोक्तियाँ, लोकानुभव सभी से वाचिक परम्परा का तीसरा महाकाव्य निर्मित होता है, जिससे भारतीय सभ्यता, कला, दर्शन, कथा-गाथा का एक नया लोक-सौंदर्यशास्त्र सामने आता है|’[2]1
रहीम हिन्दी के उन विशिष्ट कवियों में हैं जिन्हें अपार लोकप्रियता हासिल हुई| अपने गहरे मित्र तुलसीदास की ही तरह लोगों की ज़बान पर उनकी कविता अनायास ही उतर आती है| आखिर इसका रहस्य क्या है? दरअसल वही कवि अमर होता है जिसकी कविता गाढ़े में साथ निभाती है| बकौल मैनेजर पाण्डेय,`रहीम की सारी लोकप्रियता या तुलसीदास की भी लोकप्रियता का कारण क्या है? मेरा एक अनुमान है असल में जनजीवन में वही कविता लोकप्रिय है जो संकट के समय याद आये और संकट में काम आये। हमारे, आपके, सबके जीवन में कभी-न-कभी समस्या, संकट, परेशानी आती ही है। ऐसे में जो कवि और जो कविता याद आती है जीवन जीने में जो कविता मदद करती है, उसी से हम प्रेम करते हैं। आज की अधिकांश कविता अगर अलोकप्रिय है तो एक कारण यह है कि लोकजीवन के अनुभवों से उसका सम्बन्ध नहीं है। इसलिए संकट आने पर न वह याद आती है और न काम आती है। ऐसी कविता की एक और विशेषता यह है कि कवि की विश्वदृष्टि और आम जनता के बीच जितनी दूर तक सहभागिता होती है, उतनी ही दूर तक लोकप्रियता जाती है। रहीम ऐसे कवि हैं जो सहज रूप से हिन्दी के लोकप्रिय कवि हैं ।[3] रहीम की कविताई का सिरा एक और सन्दर्भ से भी बावस्ता है, वह है राज्य बनाम जन के मोर्चे पर जनप्रतिबद्धता की कटिबद्धता| उनकी इस विशेषता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया गोपीचंद नारंग ने, वे कहते हैं,`रहीम का युग राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक उथल-पुथल का युग था। कदीम कट्टरवादिता ढह रही थी। मूल्य बदल रहे थे। ऐसे संक्रमण काल में नीति का सूत्र देते हुए-अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ-तीन-तीन बादशाहों का शासन काल न सिर्फ देखनेवाले बल्कि उसमें शामिल भी ख़ानेख़ाना चाहते तो राज्य और राजनीति पर पुस्तक लिख सकते थे लेकिन उन्होंने खुद को सामान्य जनजीवन से जोड़े रखा और खुद को 'जनकवि' बना लिया। किसी कवि की इससे बड़ी उपलब्धि और भला क्या हो सकती है!’[4] इस तरह वे राजदरबार में रहने के बावजूद जनकवि की लोकप्रियता हासिल करने में कामयाब होते हैं|
वे अपनी विलक्षणता में अनुपम थे| सच तो यह है कि, "अब्दुर्रहीम ख़ानेखाना (1566-1627) जैसा कवि हिंदी में दूसरा नहीं हुआ। एक ओर तो वे शहंशाह अकबर के दरबार के नवरत्नों में थें और उनके मुख्य सिपहसलार जो अरबी, फारसी और तुर्की भाषाओं में निष्णात थे, और दूसरी ओर साधारण जनजीवन से जुड़े सरस कवि जिनके ब्रज और अवधी में लिखे दोहे और बरवे अब भी अनेक काव्य प्रेमियों को कंठस्थ हैं।"[5] रहीम का नाम सुनते ही मन में सूफिआना तबीयत के एक ऐसे शख्स का अक्स सामने आता है जो धार्मिक सौहार्द का प्रतीक है| जो पैदा तो होता है राजघराने में मगर जीता है एक आम आदमी की ज़िंदगी। अब्दुर्रहीम ख़ानेखाना एक वीर सैनिक, कुशल सेनापति, सफल प्रशासक, बेजोड़ आश्रयदाता, गरीबों के सहायक, विश्वासपात्र दरबारी, नीति कुशल नेता, महान कवि, विविध भाषाविद्, उदार कला पारखी जैसे अनेक गुणों की खान थे जिन पर अलग-अलग बात की जा सकती है। इसीलिए तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने इतिहास में रहीम को तुलसी के बराबर की संज्ञा देते हुए लिखते हैं-"संसार का इन्हें बड़ा अनुभव था ऐसे अनुभव के मार्मिक पक्ष को ग्रहण करने की भावुकता इनमें अव्दितीय थी। अपने उदार और ऊँचे हृदय को संसार के वास्तविक व्यवहारों के बीच रखकर जो संवेदना इन्होंने प्राप्त की है उसी की व्यंजना अपने दोहों में की है। तुलसी के वचनों के समान रहीम के वचन भी हिंदी-भाषी भूभाग में सर्वसाधारण के मुँह पर रहते हैं। इसका कारण है जीवन की सच्ची परिस्थितियों का मार्मिक अनुभव।रहीम के दोहे वृन्द और गिरधर के पधों के समान कोरी नीति के पध नहीं हैं उनमें मार्मिकता है, उनके भीतर से एक सच्चा हृदय झाँक रहा है। जीवन की सच्ची परिस्थिति के मार्मिक रूप को ग्रहण करने की क्षमता जिस कवि में होगी वही जनता का प्यार कवि होगा।"[6]2
रहीम
की
दानशीलता,
लोकप्रियता
और
विनम्रता
की
प्रशंसा
उनके
समकालीन
कवियों,
शायरों
और
इतिहासकारों
ने
मुक्त
कंठ
से
की
है।
इनकी
उदारता
एवं
दानशीलता
केवल
सैनिक
साधुओं
या
सामान्य
जन
तक
सीमित
नहीं
थी,
अपितु
कवियों
कलाकारों
की
भी
दिल
खोलकर
सहायता
किया
करते
थे|
समय-समय
पर
उन्हें
पुरस्कृत
भी
करते
थें। जनश्रुति
है
कि
एक
बार
एक
ब्राह्मण
अपनी
कन्या
के
विवाह
हेतु
धन
के
लिए
गोस्वामी
तुलसीदास
के
पास
आया
और
उनसे
याचना
करने
लगा
गोस्वामी
तुलसीदास
जी
ने
दोहे
की एक
पंक्ति
लिखकर
उसे
रहीम
के
पास
भेज
दिया -
"सुरतिय
नरतिय
नागतिय,
सब
चाहत
अस
कोय।"
रहीम
ने
बहुत
सा
धन
देकर
ब्राह्मण
को
विदा
किया
और
दोहे
की
अगली
पंक्ति
को
इस
प्रकार
पूरा
किया-
"गोद
लिए
हुलसी
फिरे,
तुलसी
सो
सुत
होय।"[7]
इनकी
दानवीरता
देखकर
कवि
गंग
ने
कहा
था
दानवीर
होना
बड़ी
बात
है
लेकिन
दंभ
रहित
दानवीर
होने
का
सबक
रहीम
से
सीखा
जा
सकता
है
दान
देते
समय
रहीम
की
आँखें
हरदम
नीची
रहती
हैं-
सीखे
कहां
नवाबजू,
ऐसी
देनी
देन,
ज्यों-
ज्यों
कर
ऊँचे
कियौ,
त्यों-
त्यों
नीचे
नैन।"[8]
कहा
जाता
है
कि
इसका
उत्तर
रहीम
ने
विनम्र
होकर
इस
प्रकार
दिया
था-
"देनहार
कोउ
और
है,
देत
रहत
दिन
रैन,
लोग
भरम
मौ
पै
करैं,
या
ते
नीचे
नैन।"[9]
दान
देने
वाला
तो
कोई
और
है
जो
दिन-रात
मुझे
कुछ
न
कुछ
दान
देता
रहता
है
जिससे
कि
मैं
दान-धर्म
सुचारु
रूप
से
करता
रहता
हूँ,
लेकिन
लोग
इस
भ्रम
में
पड़े
रहते
हैं
कि
दान
देने
वाला
मैं
हूँ,
इसलिए
दान
देते
समय
मेरी
आँखें
झुक
जातीं
हैं|
रहीम
के
दरबार
से
याचक
कभी
खाली
हाथ
नहीं
लौटता
था
याचक
को
नकारात्मक
जवाब
देने
वाला
व्यक्ति
मृतक
समान
होता
है,
रहीम
ने
इस
संबंध
में
लिखा
है-
"रहिमन
वे
नर
मर
चुके,
जे
कहुं
मांगन
जाहि,
उनसे पहले वे मरे जिन मुख निकसत नाहिं।"[10]
रहीम
की
दानशीलता
देख
चकित
होकर
'आसकरण'
नामक
कवि
जिनका
उपनाम
'जाडा'
था
यूं
कह
उठे
कि
खानखाना
का
मेरु
पर्वत
सा
मन
साढ़े
तीन
हाथ
की
देह
में
कैसे
आ
गया।
"खानखाना
नवाब
हो,
पाहि
अचंभी
एक,
मायो
किमि
गिर
मेरू
मन,
साढ
तिहस्सी
देह।"[11]
ऐसे महादानी के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ठीक ही लिखा है "इनकी दानशीलता हृदय की सच्ची प्रेरणा के रूप में थी। कीर्ति की कामना से उसका कोई संपर्क नहीं था।"[12]
अब्दुर्रहीम
ने
अपनी
जिंदगी
में
काफी
उतार
चढ़ाव
देखे।
कभी
नवाब,
सूबेदार,
वकील
और
सेनापति
तो
कभी
कैद
की
यातना
भोक्ता
हुआ
अपमानित
दरिद्र
व्यक्ति,
कभी
बार-बार
सम्मानित
होते
हुए
तो
कभी
विडम्बनाओं
और
विसंगतियों
से
टूटते
हुए।
उन्होंने
अपने
जीवन
काल
में
सत्ता
की
आंख
के
तारे
से
लेकर,
सत्ता
की
आंख
की
किरकरी
तक
का
सफर
तय
किया।
इसके
बावजूद
उनके
मन
में
कहीं
कड़वाहट
नजर
नही
आती
उनके
जीवन
का
यह
अनुभव
उनके
नीतिपरक
दोहो
में
सहज
ही
देखा
जा
सकता
है।
अपने
नीतिपरक
दोहों
के
कारण
ही
रहीम
को
हिंदी
साहित्य
में
नीति
काव्य
का
सम्राट
कहा
जाता
है।
रहीम
के
नीतिपरक
दोहों
की
विशेषता
रही
है
कि
जीवन
के
हर
पक्ष
पर
उन्होंने
थोड़े
में
ही
बहुत
बड़ी
गूढ़
बातें
कह
दी
हैं-
जो
बड़ेन
को
लघु
कहे
, नहि
रहीम
घटी
जाहिं|
गिरिधर
मुरलीधर
कहे,
कछु
दुख
मानत
नाहिं||
-----------
रहिमन
पानी
राखिए,
बिन
पानी
सब
सून|
पानी
गए
न
ऊबरे,
मोती,
मानुष,
चून||
----------------
रहिमन
चुप
ह्वै
बैठिए
देखि
दिनन
के
फेर|
जब
नीके
दिन
आइहें
बनत
न
लगिहें
बेर
||[13]
रहीम
ने
दोहे
जैसे
छोटे
छंद
में,
मिथकीय
चेतना
का
विलक्षण
प्रयोग
करते
हुए
पाठकों
को
अभिभूत
तो
किया
वहीं
अपनी
लाजवाब
कवित्व
शैली
का
भी
परिचय
दिया
है-
"ओछो
काम
बड़ो
करे, तो
न
बड़ाई
होय।
जो
रहीम
हनुमंत
को, गिरधर
कहे
न
कोय।"[14]
रहीम
कहते
हैं
कि
कोई
बड़ा
आदमी
कोई
छोटा
काम
करे
तो
बड़ाई
नहीं
होती।
जैसे
हनुमान
ने
पूरा
पर्वत
उठा
लिया
था
लेकिन
उन्हें
कोई
गिरिधर
नहीं
कहता|
हनुमान
समर्थ
हैं,
एक
क्या
दस
पर्वत
उठा
लें।
बात
तो
तब
है
जब
कोई
कम
क्षमता
के
बावजूद
बड़ा
काम
करके
दिखा
दे।
तात्पर्य
है
कि
हनुमान
के
लिए
पर्वत
उठाने
सामान्य
बात
थी
लेकिन
बाल
कृष्ण
ने
जब
गोवर्धन
उठाया
तो
सब
उन्हें
गिरधर
के
नाम
से
पुकारने
लगे।
"रहिमन
देखि
बड़ेन
को,
लघु
न
दीजिये
डारि।
जहां
काम
आवे
सुई
,कहां
करे
तलवारि।|"[15]
रहीम
कहते
हैं
की
बड़ी
या
महंगी
वस्तु
हाथ
लगने
पर
छोटी
या
सस्ती
वस्तु
का
मूल्य
कम
नहीं
हो
जाता
हर
वस्तु
का
अपना
महत्व
होता
है
जहां
सुई
का
काम
चाहिए
वहां
सुई
से
ही
काम
सधेगा
तलवार
से
नहीं।
यहां छोटी सी सुई के महत्व को समझाने वाला आदमी तलवार का धनी था।
रहीम
ने
अपने
दोहों
और
सोरठों
में
यत्र-तत्र
नैतिक
जीवन
मूल्यों
को
ऐसा
गूंथा
कि
रहीम
के
दोहे
जनमानस
में
कबीर
और
तुलसी
की
रचनाओं
की
तरह
रच-बस
गए-
"दोनों
रहिमन
एक
से,
जौ
लो
बोलत
नाहिं।
जान
परत
हैं
काल
पिक,
ऋतु
बसंत
के
माँहि||"[16]
यहां
रहीम
कहते
हैं
कि
दो
व्यक्ति
एक
जैसे
लग
सकते
हैं
किंतु
यह
जरूरी
नहीं
है
उनका
व्यवहार
और
वाणी
भी
एक
समान
हो।
उनके
विपरीत
और
भिन्न
स्वभाव
का
पता
तब
चलता
है
जब
वह
बोलते
और
व्यवहार
करते
हैं
जिस
प्रकार
पेड़
की
डाल
पर
बैठे
कौआ
और
कोयल
जब
तक
बोलते
नहीं
एक
जैसे
ही
प्रतीत
होते
हैं
किंतु
जब
वसंत
ऋतु
आती
है
और
वे
बोलने
लगते
हैं
तब
कौए
की
वाणी
कर्कष
होती
है
जो
मन
को
खिन्न
करती
है
वहीं
कोयल
की
मधुर
वाणी
मन
को
आहादित
करती
है।
3
रहीम
प्रेम
के
उदात्त
और
सहज
रूप
के
पक्षधर
कवि
रहे
हैं
बोधा
के
छंद
"प्रेम
को
पंथ
कराल
महा
तलवार
की
धार
पे
धावनो
है"
की
भांति
रहीम
भी
प्रेम
की
अनूठी
कसौटी
को
वह
अपने
दोहे
में
बताते
हैं-
"चढ़िबो
मोम
तुरंग
पर, चलिबो
पावक
माहि।
प्रेम
पंथ
ऐसो
कठिन, सब
कोउ
निबहत
नाहि|।"[17]
प्रेम का मार्ग हर कोई नहीं तय कर सकता है। बड़ा कठिन है उस पर चलना जैसे मोम के बने घोड़े पर सवार होकर आग पर चलना, कवि रहीम के अनुसार प्रेम का पंथ ऐसा कठिन है की हर कोई उसकी मर्यादाओं को निभा नहीं सकता।
अब्दुर्रहीम
ख़ानेखाना
के
काव्य
में
प्रेम
की
पवित्रता,
महानता,
सहजता
और
गहराई
की
अभिव्यक्ति
अत्यंत
सार्थक
ढंग
से
हुई
है,
जिसे
देखकर
कहा
जा सकता
है रहीम
बड़े
भावुक
रहे
होंगे।
निर्मल
और
सहज
प्रेम
के
आगे
तो
रहीम
बैकुंठ
को
भी
नगण्य
मानते
हैं-
"कहां
करौं
बैकुंठ
ले,कल्पवृक्ष
की
छाँह।
रहिमन
दाख
सुहावनो,
जो
गल
पीतम
बाँह||"[18]
रहीम
के
अनेक
पदों
में
तत्कालीन
स्त्रियों
के
रूप-सौन्दर्य
की
छटा
का
वर्णन
उनकी
जातिगत
और
पेशेगत
पृष्ठभूमि
के
अनुकूल
हुआ
है|
यह
वर्णन
अन्य
समकालीनों
से
अलग
है|
मौजूदा
दौर
का
स्त्रीवाद
या
फेमिनिज्म
इसे
स्थूल
पुरुषवादी
या
पुल्लिंगवादी
नज़रिया
ठहरा
सकता
है|
पर
सूक्ष्म
पर्यवेक्षण
सम्पन्न
ये
वर्णन
लोकवृत्त
को
समझने
का
मध्यकालीन
नज़रिया
है,
जो
अनेक
दृष्टियों
से
महत्त्वपूर्ण
है|
कई
बार
उनके
वर्णन
मांसल
सौन्दर्य
को
बेहद
अनोखे
अंदाज़
में
प्रकट
करते
हैं
, जैसे
– `नगर
शोभा’
के
अंतर्गत
एक
काछिनी
यानी
साग-सब्जी
बेचने
वाली
स्त्री
का
वर्णन
है,
ख़ास
यह
भी
है
कि
इसमें
शृंगार और
विनोद
दोनों
घुल-मिल
गए
हैं|
काछिनी
स्त्री
अपने
`जोबन
जल’
से
नित्य
`काम
कियारी’
सींचती
रहती
है-
काम
कियारी
अर्थात
न
केवल
व्यावसायिक
कामकाज
की
क्यारी
बल्कि
कामदेव
की
भी
क्यारी,
फिर
उसका
सौन्दर्य
वर्णन
आता
है -
` कुच भांटा गाजर अधर, मूरा से भुज भाइ ।
बैठी लौका बेचई, लेटी खीरा खाइ ।
उसके सभी अंगों की उपमा यहाँ सामने ढेर लगाई सब्जियों से दी जा रही है जो स्वयं ही विनोद का विषय है: उसके कुच गोल बैंगन हैं, होंठ लाल गाजर है, भुजाएँ मूली की तरह गोरी और पतली हैं। पर जब वह बैठी-बैठी लौकी नहीं बल्कि बड़ा गोल लौका (जो उरोजात्मक बिम्ब है) बेचते-बेचते थक जाती है तो लेट जाती है और खुद ही खीरा खाने लगती है। यह वर्णन दिखलाता है कि इस भोली लड़की का व्यवहार कितना सरल व स्वाभाविक है|’[19] रहीम काव्य संसार में इस तरह के वर्णन अन्य जगहों पर भी है| क्षत्रिय, जौहरी, ब्राह्मणी, कायस्थिन आदि स्त्रियों का वर्णन रहीम अपने अंदाज में करते हैं| उन्होंने इन वर्णनों में अनेक बार दाम्पत्य जीवन के चित्र भी उकेरे हैं-
`कैथनि कथन न पारई, प्रेम कथा मुख बैन।
छाती ही पाती मनों, लिखै मैन की सैन।।
कायस्थ की स्त्री कायस्थिन अपने पति से कितना प्रेम करती है, इसका वर्णन मुँह से बोलकर नहीं किया जा सकता। यह प्रेम तो अनुभव करने से पता चल सकता है। ऐसा लगता है मानो कायस्थिन की छाती एक चिट्ठी है, जिसपर कामदेव अपनी इच्छा से नित नये शब्द लिख रहा है अर्थात् कायस्थिन नित नये प्रकार से अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करके अपने प्रिय को वश में रखती है।
बरुनि बार लेखनि करै, मसि काजरि भरि लेइ।
प्रेमाक्षर लिख नैन ते, पिय बाँचन को देइ ||
कायस्थिन ने अपने भौंहों को लेखनी बना लिया है और काजल को स्याही। वह अपनी भौहों की लेखनी बनाकर काजलरूपी स्याही में डुबोकर अपने नेत्रों से प्रेम के अक्षर लिखती है और इसे बाँचने (पढ़ने) के लिए अपने प्रिय को देती है। इस प्रकार कायस्थिन अपने नेत्रों से ही प्रेम पत्र लिखती है। नेत्रों के आकर्षण से वह अपने पति को अपनी ओर आकर्षित करने में माहिर है।[20] प्रेम और शृंगार मध्यकाल के कवियों का प्रिय विषय है| रहीम की खासियत है सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मितियों के बीच सूक्ष्म पर्यवेक्षण पगे दोहों का सृजन| रहीम की प्रेम विषयक मानसिक निर्मिति के एक और पक्ष को समझने के लिए एक साहित्येतर प्रसंग का ज़िक्र करना मुनासिब होगा| वे अपनी बेगम पर दिलोजान से कुर्बान थे| इस कदर कि उन्होंने शाहजहाँ के भी पहले या यूँ कहें कि मुगलिया सल्तनत में भी सबसे पहले अपनी बेगम के लिए मकबरे का निर्माण कराया| यह मकबरा हज़रत निजामुद्दीन औलिया के मकबरे के पास ही दिल्ली में अवस्थित है| बेगम के मकबरे के बगल में ही रहीम का भी मकबरा है| 2003 में इस मकबरे का जीर्णोद्धार किया गया| इस अभियान का श्रेय जाता है वास्तुकार रतीश नंदा को| गौरतलब है, भारत में किसी विश्व धरोहर स्थल का निजी तौर पर वित्त पोषित यह पहला जीर्णोद्धार था , जिसे आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर और पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा सम्पन्न किया गया| इस मकबरे के जीर्णोद्धार करने वाले वास्तुकार रतीश नंदा ने लिखा है,` सम्राट हुमायूँ के मकबरे की दक्षिण दिशा में एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर एक विशाल मकबरा है जिसे अब्दुर्रहीम खानेख़ाना ने अपनी बेगम-माहबानू के लिए बनवाया था। यह मकबरा मुगल काल में किसी बेगम के लिए बनाया गया पहला मकबरा है, जिसके बाद से मुगल सम्राट शाहजहाँ और औरंगज़ेब दोनों ने इस परम्परा को कायम रखते हुए अपनी-अपनी बेगमों के लिए शानदार मकबरे बनवाये। जिस तरह शाहजहाँ को आगरा के ताजमहल में दफनाया गया था, उसी तरह रहीम को भी बाद में उसी मकबरे में दफनाया गया, जो उन्होंने अपनी बेगम के लिए बनवाया था। माहबानू का मकबरा 14वीं शताब्दी के बाद निज़ामुद्दीन क्षेत्र में बनायी गयी|[21]
4
रहीम
का
जीवन
जिस
परिवेश
में
पला
बढ़ा
वहाँ
कूटनीति,
षड्यंत्र,
सत्ता
संघर्ष
और
परस्पर
कुटिल
चालों
की
भरमार
थी।
राजमहल
से
लेकर
दरबार
तक
कोई
किसी
का
स्थाई
विश्वासपात्र
नही
था।
पिता-पुत्र,
पति-
पत्नी
और
भाई-भाई
संदेह
के
कुहासे
में
जीने
को
विवश
थें।
रहीम
के
दोहों
में
इन
परिस्थितियों
की
स्पष्ट
छाप
देखने
को
मिलती
है।
इस
संबंध
में
एक
घटना
उल्लेखनीय
है
दक्षिण
विजय
की
एक
अभियान
में
जहाँगीर
ने
रहीम
के
साथ
शहजादे
परवेज
को
भी
भेजा।
रहीम
ने
युद्ध
में
विजय
प्राप्त
की
पर
परवेज
की
गलती
के
कारण
विजय
पराजय
में
बदल
गयी।
गलती
शहजादे
की
थी
पर
दोष
रहीम
पर
आ
गया
इस
अपमान
से
क्षुब्ध रहीम
की
पीड़ा
को
निम्न
छंद
में
देखा
जा
सकता
है-
"कुटिलन
संग
रहीम
रहि, साधू
बचते
नाहि।
ज्यों
नैना
सैना
करैं, उरेज
उमेठे
जाहिं।"[22]
कुटिल
का
साथ
करेंगे
तो
कुटिलता
का
दंश
तो
झेलना
ही
पड़ेगा
वहाँ
साधू-असाधू
की
विवेचना
नहीं
होती
अर्थात
कुटिल
का
साथ
देने
से
दंड
सज्जन
को
भी
भुगतना
पड़ता
है|
रहीम
अकबरी
दरबार
की
एक
रत्न
थे
लेकिन
उनकी
कविता
में
ऐसा
बहुत
कुछ
है
जो
की
दरबारीपन
से
एकदम
मुक्त
है।
उन
दोहों
में
दरबारी
संस्कृति
की
अभिव्यक्ति
नहीं
है
बल्कि
उसके
ठीक
विपरीत
भावनाएँ
व्यक्त
हुई
हैं
रहीम
का
एक
दोहा
है-
"चाह
गयी,
चिंता
मिटी,
मनवा
बेपरवाह
जिनको
कछू
न
चाहिए,
वे
शाहन
के
शाह।"[23]
"यह
सूफी
चेतना
है,
यह
फकीराना
अंदाज
है
जिसमें
रहीम
बोल
रहे
हैं,
अपने
देश
के
इतिहास
के
सबसे
बड़े
रत्न
होते
हुए
मेरा
अपना
खयाल
है
कि
अकबर
से
बड़ा
दरबार
हिंदुस्तान
के
इतिहास
में
न
पहले
था
और
न
बाद
में
हुआ
इतना
सुव्यस्थित,
इतना
शक्तिशाली,
इतना
वैभवशाली,
रहीम
ऐसे
दरबार
के
रत्न
थे
फिर
भी
उनको
सब
निरर्थक
लगने
लगता
है।
क्या
है
कि
कभी-कभी
आप
बहुत
सी
ऐसी
चीजों
में
डूबिये
तो
ऊब
पैदा
होने
लगती
है
चाहे
वह
दरबार
ही
क्यों
ना
हो।"[24]
खुद
से
परे
जाकर
वस्तुपरक
आकलन
दुर्लभ
है
और
यह
रहीम
को
विशिष्ट
बनाती
है|
उनका
अनुभव
था
कि
समान
परिस्थितियों
में
जो
अपना
हितैषी
प्रतीत
होते
हैं
वह
विपरीत
परिस्थितियों
में
कब
बदल
जायें
उनका
कोई
भरोसा
नहीं
होता।
इसके
लिए
उन्होंने
एक
कसौटी
भी
तैयार
की-
रहिमन
तीन
प्रकार
ते,
हित
अनहित
पहचान।
परबस
परे,
परोस
बसि
परे
मामला
जान।"[25]
रहीम अपने व्यक्तिगत अनुभवों को सदैव समाज में बाँटते रहे इसीलिए उनकी अपनी अनुभूतियां समाज की लोकोक्तियां बन गयीं।
रहिमन
धागा
प्रेम
का,
मत
तोरो
चटकाय।
टूटे
ते
फिर
न
जुरे,
जुरे
गांठ
परी
जाय।"[26]
वर्षों
पहले
लिखी
गयी
यह
पंक्तियाँ
समय
के
बहाव
में
धुंधली
नहीं
पड़ती
बल्कि
आज
भी
अपनी
प्रासंगिकता
बनाए
हुए
हैं।आज
भी
उपभोक्तावादी
संस्कृति
में
जहाँ
जीवन
मूल्य
और
संस्कार
कहीं
पीछे
छूटते
जा
रहे
हैं
छल
कपट,
धूर्तता
और
अविश्वास
की
गहरी
लकीरें
लोगों
के
दिलों
में
जगह
बना
रही
हैं
वहां
रहीम
का
यह
दोहा
आधुनिक
युग
के
मनुष्य
को
यह
शिक्षा
देने
में
पूर्णतः
समर्थ
है
कि
प्रेम
में
अविश्वास
के
लिए
कोई
जगह
नहीं
होती।
5
यद्यपि
रहीम
ने
लाजवाब
नीतिपरक
और
शृंगारिक
दोहों
की
रचना
की,
बावजूद
इसके
उनका
मन
भक्तिपरक
रचनाओं
में
खूब
रमता
था|
बहुभाषाविद
रहीम
ने
ब्रजभाषा
और
स्नक्स्रुत
में
कृष्ण
भक्तिपरक
दोहों
से
हिन्दी
संसार
को
समृद्ध
किया|
उन्होंने सूर
की
भाँति
लीलामय
कृष्ण
के
प्रति
अपने
भावोद्गार
व्यक्त
किए।
उन्होंने
श्री
कृष्ण
की
भक्ति
को
विषय
बनाकर
अपना
पूरा
काव्य
अर्पित
किया|
रामभक्त
तुलसी
की
ही
तरह
उन्होंने
बड़ी
सहजता
से
कृष्ण
विरह के
मार्मिक
चित्र
वर्णित
किए
जिससे
उनकी
गहरी
आस्था
की
झलक
देखने
को
मिली-
तै
रहीम
मन
आपुनो,कीन्हों
चारू
चकोर।
निसि
बासर
लगा
रहै,कृष्णचंद्र
की
ओर।
रहीम
इस
दोहे
में
कृष्ण
विरह
पीड़ित
जीव
की
उपमा
चकोर
से प्रकट
करते
हैं|
फिर
श्लेष
का
प्रयोग
करते
हुए
कृष्णचन्द्र
पद
में
अद्भुत
अर्थ
की
सृष्टि
करते
हैं|
एक
दोहे
में
तो
उन्होंने
कहा
है
कि
उनकी
आँखों
में
कृष्ण
की
मोहिनी
मूरत
बसी
है।
अपनी
एकनिष्ठ
भक्ति
की
बात
करते
हुए
वे
कहते
हैं कि
उनके
ह्रदय
में
कृष्ण
के
सिवा
किसी
अन्य
देवी
देवता
को
स्थान
नहीं
मिल
सकता-
प्रीतम
छवि
नैननि
बसी, पर
छवि
कहां
समाय।
भरी
सरायै
रहीम
कखि,पथिक
आप
फिरि
जाय।
रहीम
ने
अपने
संस्कृत
के
श्लोक
श्री
कृष्ण,
राम
और
गंगा
को
संबोधित
किए
हैं।
भारतीय
जन
सामान्य
में
यमुना
का
बड़ा
महत्व
रहा
है
क्योंकि
श्री
कृष्ण
ने
उसकी
कछारों
में
पाश्ववर्ती
कुंजन
में
विविध
लीलाएं
रची
थीं
और
क्रीड़ाएं
की
थीं
।कृष्ण
भक्ति
के
अंतर्गत
यमुना
का
विशेष
माहात्म्य
माना
जाता
है
इसलिए
रहीम
ने
कृष्ण
संबंधी
भक्ति
काव्य
में
इसका
उल्लेख
कर
भारतीय
परंपराओं
का
ही
परिचय
दिया
है-
अच्युत-चरन-तरंगिनी,
शिव-सिर
मालती-भाल।
हरि
न
बनायो
सुरसरी
कीजौ इंदव भाल।
रहीम
के
काव्य
की
सबसे
बड़ी
विशेषता
यही
है
कि
उनका
साहित्य
उपदेशात्मक
नही
है,
बल्कि
उसमें
आम
जीवन
की
विसंगतियों
और
अनुभूतियों
का
निचोड़
है,
जो
हमे
जीवन
में
नीति
और
ज्ञान
की
व्यवहारिक
समझ देते
हैं।
'रास
पंचाध्यायी',
'रहीम
रत्नावली',
'रहीम
विकास',
'रहिमन
शतक',
'रहिमन
चंद्रिका',
आदि
उनके
प्रमुख
ग्रंथ
हैं
ज्योतिष
पर
उन्होंने
'खेट
कौतुक
जातकम'
नामक
एक
ग्रंथ
भी
लिखा।
इन
अनुभव
खंडों
से
रू-ब-रू
होने
के
बाद
हम
कह
सकते
हैं,
रहीम
के
काव्य
संसार
का
लोकवृत्त
अपनी
अर्थछवियों
में
बेमिसाल
है|