राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी का अपभ्रंश से बड़ा घनिष्ठ संबंध है। यह घनिष्ठ संबंध भाषा की उत्पत्ति के मूल स्रोत से लेकर प्रवृत्तिगत साहित्यिक विशेषताओं में भी दिखाई देता रहा है। हिन्दी, गुजराती और बांग्ला तीनों भारतीय भाषाओं का उद्भव लगभग एक साथ ही होता है। तीनों भाषाओं के आदिकाल में शामिल कई कवि दूसरी भाषा के आदि कवि के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं। हिन्दी के विद्यापति जितने हिन्दी में समादृत हैं उतने ही बांग्ला में भी। इसी तरह गुजराती और हिन्दी में हेमचन्द्र से लेकर मीराबाई तक हिन्दी-गुजराती की घनिष्ठता और सन्निकटता की एक समृद्ध परंपरा दिखाई पड़ती है। हिन्दी के आदिकाल में शामिल अधिकांश जैन साहित्य गुजराती साहित्य की भी अमूल्य निधि है। माना जाता है कि हिन्दी साहित्य को रास और फागु जैसी काव्य शैली गुजराती साहित्य की देन है। जैन धर्म के बीसवें तीर्थंकर गुजरात के सौराष्ट्र से थे इस कारण गुजरात में जैन धर्म का व्यापक प्रभाव रहा है। अखिल भारतीय भक्ति आंदोलन में गुजरात से जो एक नया अध्याय जुड़ा वह था जैन धर्म का प्रभाव। जैन धर्म उससे पहले भी भारत में फैला हुआ था पर उसकी साहित्यिकता संदिग्ध रही। दक्षिण भारत से लेकर कर्नाटक, महाराष्ट्र समेत समस्त उत्तर भारत तक अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत व भागवत धर्म की रागानुरागी भक्ति से प्रभावित रहा। कालांतर में गुजरात में जैन धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा। गुजराती की आरंभिक साहित्यक रचनाएं जिसका साक्ष्य हैं। लगता है जैन धर्म के प्रभाववश ही भागवतकार को लिखना पड़ा कि “मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई, कर्णाटक में बढ़ी, कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई; किन्तु गुजरात में मुझको बुढ़ापे ने आ घेरा”।
क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ॥ ४८ ॥
इसका अभिप्राय यह बिल्कुल नहीं है कि गुजरात में भागवत और शैव धर्म अथवा संप्रदाय का प्रभाव बिल्कुल नहीं रहा। सोमनाथ और द्वारका आज भी शैव और वैष्णव के बड़े तीर्थस्थल हैं। गुजरात की धार्मिक और राजनीतिक परिस्थिति पर प्रकाश डालते हुए गुजराती साहित्य के इतिहासकार जयंतकृष्ण दवे लिखते हैं “यहाँ के अधिकांश शासक शैव थे तथा प्रमुख मत शैव मत था। भगवान सोमनाथ यहाँ के अधिष्ठातृदेवता थे। वडनगर के सुसभ्य एवं सुशिक्षित नागर ब्राम्हण, जो गुजरात के इतिहास के प्रमुख पात्र हैं। चालुक्यों के राज- पुरोहित वडनगर के एक ब्राम्हण थे। नागर ब्राम्हण पुरोहित, योद्धा और विद्वान थे। लकुलिश का पाशुपत दर्शन गुजरात में ही प्राप्त हुआ था।....शंकराचार्य के गुरु गोविंदपाद का आश्रम नर्मदा के किनारे पर था”। (जयंतकृष्ण हरिकृष्ण दवे, गुजराती साहित्य का इतिहास पृष्ठ सं. 16) इस तरह गुजरात में भक्ति व धर्म साधना की जड़ें गहरे जमी हुई थी। शैव, वैष्णव, जैन, पारसी और सूफियों की धार्मिक- सांस्कृतिक पहचान की एक कड़ी गुजरात से जुड़ती है। मध्वाचार्य से लेकर रामानंद तक हिन्दी-गुजराती भाषी जनता व साहित्य को एक दूसरे से प्रभावित होने के साक्ष्य मिलते हैं। यह परंपरा स्वामी दयानंद सरस्वती से लेकर वर्तमान में प्रसिद्ध रामकथा वाचक मोरारी बापू तक चली आ रही है। आर्थिक क्षेत्र में गुजरात व्यापार आदि के लिए भारत की रीढ़ है तो वहीं राजनीतिक क्षेत्र में भी हिन्दी भाषी जनमानस पर गांधी का प्रभाव सर्वविदित है। हिन्दी भाषा के विकास में गुजराती संत कवियों, महामति प्राणनाथ, स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा गांधी का योगदान स्मरणीय है। गुजराती व्यक्ति गांधी द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की मांग अकारण नहीं थी बल्कि इसकी जड़ें गुजराती भक्ति कविता या कहें आंदोलन से जुड़ी हुई थी।
गुजराती भक्ति कविता का उद्भव व विकास - गुजराती भाषा की प्रारम्भिक रचनाएं अपभ्रंश में मिलती हैं। रचनाओं का अधिकांश स्वरूप पद्यात्मक ही मिलता है। हिन्दी की तरह गुजराती में भी गद्य का प्रचलन आधुनिक काल में ही हुआ। छिटपुट रचनाओं में गद्य का नमूना कहीं-कहीं देखने को मिलता है। विद्वानों का मानना है कि अर्वाचीन गुजराती का स्वरूप मध्यकल में ही अधिक सुव्यवस्थित रूप से निखर कर आता है। यह मध्यकाल ही गुजराती और हिन्दी दोनों भाषाओं में भक्तिकाल है। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों के बीच भक्ति और भक्ति के उद्भव व विकास को लेकर सघन विचार विमर्श देखने को मिलता है। भक्ति और धर्म दोनों को कहीं अलग-अलग तो कहीं समन्वित रूप से देखने का प्रयास दिखाई देता है। हिन्दी और गुजराती दोनों के बीच भक्ति के दक्षिण में उत्पन्न होने की मान्यता सर्वमान्य है। इस भक्ति को अब दक्षिण से उत्तर- भारत में प्रसारित होने के कारणों को लेकर हिन्दी विद्वानों के बीच मतभेद है। आचार्य शुक्ल भक्ति को उत्तर-भारत में प्रसरित होने के मुख्य आधार के रूप में इस्लामिक आक्रमण को रखते हैं तो हजारीप्रसाद द्विवेदी भक्ति आंदोलन को भारतीय चिंतनधारा के स्वाभाविक विकास के रूप में देखते हैं। गुजराती में भक्ति के विकास को लेकर आचार्य शुक्ल की राजनीतिक परिस्थिति वाली विवेचना ही अधिक पुष्ट होती है। गुजराती भक्ति के विकास के संदर्भ में जयंत हरीकृष्ण दवे तत्कालीन परिस्थिति का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि “धर्म-परिवर्तन, लूट-खसोट और मंदिरों को तोड़ने की घटनाएं बराबर होती रहीं। लोग एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने के लिए बाध्य किए गए। जैन साधुओं ने अपने धार्मिक ग्रंथ- भंडार को भू-गर्भ में छिपा दिया। संस्कृत भाषा के सिर से राजाश्रय हट गया। विद्वानों को जनता की शरण लेनी पड़ी। फलतः साहित्यिक ग्रंथों की रचना जनभाषा में होने लगी”। (जयंतकृष्ण हरिकृष्ण दवे, गुजराती साहित्य का इतिहास पृष्ठ सं 17)
विद्वानों का जनता की शरण लेना और जनभाषा में साहित्य की रचना करना ये दोनों उस नैराश्यपूर्ण माहौल में मध्यकाल की रचनात्मक उपलब्धि है। साहित्य की रचना जनभाषा में होने के साथ-साथ ईश्वर को जन नेता, जननायक और गरीब नेवाज के रूप में चित्रित किया जाने लगा। भक्ति का द्वार सभी के लिए खोल दिया गया या कहें की इस परिस्थिति ने खोलने को विवश किया और द्वार सभी के लिए खुल गया। पुरुष नपुंसक नारि अथवा सभी जीवों के लिए भक्ति सुलभ हो गई। उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन को प्रतिष्ठित करने के पुरस्कर्ता रामानंद हैं।
परगट किया कबीर ने सात दीप नव खंड।।
सोलहवीं सदी में गुजराती समाज की भक्ति भावना पर रामानंद के प्रभाव को स्वीकार किया जाता है। रामानंद के आकाशधर्मा विराट व्यक्तित्व से गुजराती जनमानस भी प्रभावित हुआ और भक्ति की लहर से आच्छादित हो गया। गुजराती में भक्ति साहित्य का विकास हिन्दी भक्ति साहित्य के कुछ समय अनंतर होता है। गुजराती भक्ति कविता पर हिन्दी के कई संतों के विचारों और संप्रदायों का प्रभाव रहा है।
गुजरात के प्रमुख संप्रदाय - गुजरात की भक्ति परंपरा को देखें तो कई पंथ व संप्रदाय नजर आते हैं। गुजरात का सौराष्ट्र कभी बौद्ध धर्म का केंद्र रहा फिर गुजरात में जैनधर्म फूला फला। दसवीं से लेकर पंद्रहवीं सदी तक गुजरात में वैष्णव धर्म का जोर रहा। गुजरात में सगुण भक्ति का विकास पहले हुआ। नरसी मेहता, मीराबाई दो मुख्य संत हैं जो गुजरात ही नहीं बाहर भी समादृत हैं। नरसी मेहता का यह वाक्य ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणे रे’ आज भी जन-जन की जुबान पर रहता है। नरसी मेहता एक संत एवं भक्त कवि थे जो भक्ति के क्षेत्र में धर्म और जाति के भेद को नहीं मानते थे। पर-पीड़ा इनके केंद्र में थी। गुजरात में कृष्ण लक्षणा भक्ति की प्रबलता रही है। स्वयं नरसी मेहता से लेकर मीरा तक सबने कृष्ण को आराध्य बनाकर गीत लिखे। गुजरात में कृष्ण भक्ति के साथ-साथ राम भक्ति का भी प्रचलन था। नरसिंह मेहता के समकालीन भालण एक रामभक्त कवि थे। हिन्दी साहित्य में भी राम भक्त परंपरा के पूर्व से ही कृष्ण परंपरा का चलन था ठीक उसी तरह गुजरात में भी। मध्वाचार्य स्वयं गुजराती थे किन्तु गुजरात में उनके संप्रदाय से अधिक अनुयायी वल्लभ संप्रदाय के लोग थे। गुजरात में वल्लभ संप्रदाय के विस्तार के पीछे के कारणों का उल्लेख करते हुए जयंतकृष्ण लिखते हैं “गुजरात तथा सौराष्ट्र में पुष्टिमार्ग के अनेक मंदिर हैं और धनी व्यापारी समाज ने इस संप्रदाय को स्वीकार कर लिया। वल्लभाचार्य एवं उनके पुत्र गोसाईं विठ्ठलनाथ जी अक्सर गुजरात की यात्रा किया करते थे। 17वीं शताब्दी में यह वैष्णवमत गुजरात में अधिकाधिक फैलता रहा। पुष्टिमार्ग में सेवा प्रकार का निदर्शन था जो व्यापारियों के बहुत ही अनुकूल था। संगीत, सजावट, भोग-व्यंजन निर्माण आदि में इस संप्रदाय ने बहुत सिखाया। बहुत थोड़े समय में पुष्टिमार्ग अत्यंत पुष्ट हो गया और छोटे- छोटे गांवों में भी इसके मंदिर बन गए”। इस संप्रदाय की हिन्दी और ब्रजभाषा के विकास में महती भूमिका है। गुजरात में इस संप्रदाय के विस्तार से ब्रजभाषा का भी विकास हुआ। कवि गोपालदास नामक एक भक्त कवि ने गुजराती में ‘वल्लभयाख्यान’ नामक ग्रंथ लिखा जिसकी व्याख्या ब्रजभाषा में है। जिसे गुजरात में एक धर्मग्रंथ की तरह पढ़ा जाता है। गुजरात में ब्रजभाषा का इतना विकास हुआ कि कच्छ में एक ब्रजभाषा की पाठशाला ही स्थापित हो गई। इस पाठशाला से लगभग 200 कवि निकले जिनमें से गुजराती नवजागरण के पुरोधा दलपतराम भी एक थे। गुजरात के मध्यकाल के अंतिम कवि के रूप में विख्यात दयाराम भी वल्लभाचार्य संप्रदाय में दीक्षित थे।
मध्ययुगीन गुजराती भक्ति साहित्य में वैष्णव, शैव और शाक्त तीनों मतों की प्रधानता दिखाई देती है। नरसी मेहता को शैव और वैष्णव दोनों स्वीकार करते हैं, भक्ति के बीच समन्वय की दृष्टि से या फिर एक महान कवि को दोनों संप्रदायों द्वारा अपनाने की भावना से यह बात गुजराती जनमानस में प्रसिद्ध है कि “नरसी मेहता को गोपनाथ महादेव का साक्षात्कार हुआ था, जिन्होंने उन्हें कृष्ण भक्ति की ओर लगाया। इसके पहले अन्य नागर ब्राम्हणों की तरह नरसिंह भी शैव थे”। शैव धर्म को गुजरात में कई राजाओं का राज्याश्रय मिला हुआ था। कवि दयाराम व कुछ वैष्णव मतावलंबी कवियों के अलावा किसी भी अन्य मत के कवि में दूसरे मत को लेकर अनादर की भावना नहीं दिखाई देती है। कवि भालण ने ‘शिव-भीलणी- संवाद लिखा’ तो नाकर ने ‘शिव-विवाह’ नामक ग्रंथ की रचना की। अन्य कई महत्वपूर्ण कवियों ने भी शिव पार्वती को आराध्य मानकर पौराणिक ग्रंथों से कथाएं लेकर विशिष्ट रचनाएं की हैं। शैव और वैष्णव कवियों की सांप्रदायिक भावना की तुलना करते हुए जयंत हरीकृष्ण दवे लिखते हैं कि – “गुजराती साहित्य में वैष्णव मत की अपेक्षा शैवमत का प्रभाव कम दिखता है। इसके अतिरिक्त वैष्णवों में से वल्लभ संप्रदाय तथा स्वामीनारायण के उद्धव संप्रदायवालों ने सांप्रदायिक वैष्णव साहित्य का सृजन किया”। (जयंतकृष्ण हरिकृष्ण दवे, गुजराती साहित्य का इतिहास पृष्ठ सं 56)
गुजराती भक्ति कविता में सगुण के बाद निर्गुण भक्ति का विकास होता है। इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करते हुए विद्वानों का अभिमत है कि गुजरात की राजनैतिक और सामाजिक-धार्मिक पृष्ठभूमि उत्तर भारत से अलग थी, जिसके कारण यहाँ सगुण भक्ति का विकास पहले हुआ बाद में निर्गुण भक्ति का विकास होता है। ज्ञातव्य है कि हिन्दी में पहले निर्गुण भक्ति का विकास होता है। गुजराती के सगुण भक्ति कविता में भी निर्गुण की सत्ता मौजूद दिखाई देती है उसी परोक्ष सत्ता का प्रत्यक्ष अवतार रूप में भक्त साधना करता है। नरसी मेहता लिखते हैं “अखिल ब्रह्माण्डमां एक तूँ श्रीहरि जूजवे रुपे अनंत भासे। (इस सम्पूर्ण सृष्टि में एकमात्र हरि ही है, जो अनंत रूपों में दिखाई दे रहा है। जैसे भिन्न–भिन्न नाम रूप वाले आभूषणों में सोना एक ही रहता है)। इसी ईश्वर के नाना अनंत रूपों को लक्षित करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा कि- “अगुन अरूप अलख अज जोई, भगत प्रेम बस सगुन सो होई”। गुजराती में भी एक धारा से दूसरी अलग धारा के उद्भव अथवा विकास को एक दूसरे की क्रिया प्रतिक्रिया के रूप में देखने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। ज्ञानाश्रयी धारा के विकास के ऊपर अपने शोध प्रबंध में रामकुमार गुप्त लिखते हैं “गुजरात के संतों की ज्ञानामार्गी शाखा यद्यपि वैष्णव धर्म के अनाचारों के विरोध में खड़ी हुई किन्तु वैष्णवी विचारधारा का नितांत परित्याग नहीं कर सकी। अखा और मालण संस्कारों से वैष्णव ही थे”। (हिन्दी साहित्य को गुजराती के संत कवियों की देन)
गुजरात के कई संत संप्रदाय उत्तर भारत के संत परंपरा से जुड़े हुए हैं। गुजराती संत परंपरा पर कबीर का प्रभाव निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है। गुजराती संत परंपरा में -
शैव शाक्त परंपरा एवं गोरख पंथ
महानुभाव अथवा अच्युत परंपरा
रामनन्द संप्रदाय
कबीर पंथ- राम कबीरिया पंथ, संत कबीरिया पंथ, निर्वाण साहब की परंपरा
दादू पंथ
प्रणामी पंथ
सूफी संप्रदाय
दत्त संप्रदाय
रामसनेही संप्रदाय
आदि संप्रदाय अपनी विशिष्ट साधना पद्धति के चलते व्यापक जन समूह से जुड़ा हुआ था। इनमें अखा, प्राणनाथ, मुकुंददास इत्यादि संत कवियों ने विशेष प्रसिद्धि हासिल की। प्राणनाथ हिन्दी, गुजराती के साथ-साथ सिन्धी के भी ज्ञाता थे। अखा जिन्हें कहीं-कहीं अखो से भी संबोधित किया जाता है, गुजराती ज्ञानमार्गी शाखा के सर्वोत्तम कवि के रूप में ख्यात हैं। इनकी ‘अखो गीता’ को गुजराती समाज में वही स्थान हासिल है जो उत्तर -भारत में बीजक को मिला हुआ है। अखो ने छप्पय छंद में अखो गीता की रचना की। अखो की भाषा और तेवर कबीर सा रहा है। अखो के बारे में हरिकृष्ण दवे लिखते हैं कि “अखो ने अपने छप्पयों में अपना सारा ज्ञान भर दिया है। उन्होंने पाखंडियों की घोर भर्त्सना की है और उस समय की सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों का विरोध सशक्त, कटु और व्यंग्यपूर्ण भाषा में किया है। उन्होनें जान- बूझकर स्वेच्छा से सबल और आघात पहुंचाने वाली भाषा का प्रयोग किया है। उन्होंने अनेक कहावतों और घरेलू मुहावरों को भी स्थान दिया”। अखो की भाषिक और सामाजिक चिंतन की विशेषताएं कबीर से मिलती हैं। अखो उत्कृष्ट वेदांती कवि हैं। नरसी मेहता ने परमात्मा की एकता(सगुण-निर्गुण) को परिभाषित करने के लिए जिस आभूषण और सोना(स्वर्ण) को प्रतीक रूप में चुना, उसी स्वर्णकार परिवार में पैदा हुए अखो ने गुजराती ज्ञानमार्गी कविता और भक्त परंपरा को शीर्ष पर पहुंचाया।
सहायक सामग्री -
गुजराती साहित्य का इतिहास – जयंत कृष्ण हरि कृष्ण दवे
हिन्दी साहित्य को गुजराती संतों की देन- डॉ रामकुमार गुप्त
हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक : अजीत आर्या, गौरव सिंह, श्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)