झारखंड के प्रसिद्ध युवा कवि अनुज लुगुन युवा पीढ़ी के बीच आदिवासी सरोकारों के प्रतिनिधि कवि के रूप में पहचाने जाते हैं। उनकी कविताएँ औपनिवेशिक भारत में हाशिये पर पड़े आदिवासी समुदायों के दर्द, संघर्ष और पहचान को उजागर करती हैं। उन्होंने लघु कहानियाँ, उपन्यास, निबंध और अकादमिक और विवेचनात्मक लेख भी लिखे हैं, लेकिन उनकी असली पहचान उनकी कविता में निहित है। वर्तमान में, वे सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ़ साउथ बिहार, गया में सहायक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। उनकी कविताएँ आदिवासी जीवन की विडंबनाओं, त्रासदियों के साथ-साथ उनके दुखों और पीड़ाओं को भी प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करती हैं। 2019 में उनकी लंबी हिंदी कविता 'बाघ और सुगना मुंडा की बेटी' के लिए साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया था। इसके अतिरिक्त, 'अघोषित उलगुलान' कविता के लिए 2011 में उन्हें प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला, जो 'वसुधा' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। हिंदी विभाग, कुसाट की शोधार्थी रम्या कृष्णन ने प्रसिद्ध कवि और सहायक आचार्य अनुज लुगुन के साथ दिलचस्प बातचीत की, जहाँ उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन, आदिवासी जीवन के सामाजिक, संस्कृतिक,आर्थिक,पारिस्थितिक,धार्मिक जैसे आदिवासी जीवन के विभिन्न पहलुओं, विस्थापन के सन्दर्भों सहित विभिन्न विषयों पर विस्तार से चर्चा की। यहाँ प्रस्तुत है उनसे बातचीत के कुछ अंश:
रम्या कृष्णन: वर्तमान विकास राजनीति और विकास बनाम विस्थापन आदिवासी जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं संवेदनात्मक पक्ष पर किस प्रकार नकारात्मक प्रभाव डाला हैं?
अनुज लुगुन - विकास वास्तव में समाज को आगे बढ़ाने की एक प्रक्रिया है। हालाँकि, समस्याएँ तब उत्पन्न होती हैं जब हम एक समुदाय की प्रगति को प्राथमिकता देते हैं, जबकि दूसरों की उपेक्षा करते हैं। नई परियोजनाओं के कारण आदिवासी लोगों को विस्थापित होने के लिए मजबूर होना पड़ा, लेकिन किसी ने भी उनकी ज़रूरतों की ओर ध्यान नहीं दिया और न ही उनकी मदद की। हम स्वतंत्र भारत की बात करेंगे। आज़ादी के बाद हमने भारत में औद्योगीकरण को अपनाया और पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास की नई परिभाषाएँ गढ़ीं। प्रथम प्रधान मंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने इन योजनाओं को "विकास के मंदिर" के रूप में संदर्भित किया, विशेष रूप से बाँध परियोजनाओं के संबंध में। उस समय प्रमुख आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने यह चेतावनी दी कि ये "मंदिर" अंततः आदिवासी समुदायों के विनाश का कारण बनेंगे। लेकिन देश आज़ाद होने के बाद इसमें विकास और सुधार लाने की जरूरत थी। यही कारण है कि जयपाल सिंह मुंडा ने कहा, "हमें नेहरू पर भरोसा है कि जब तक वे रहेंगे, विकास के कारण आदिवासी आबादी के विस्थापन के मुद्दों का उचित समाधान खोज लेंगे।" हालाँकि, ऐसा नहीं हुआ। प्रथम पंचवर्षीय योजना ने इस्पात संयंत्रों, बाँधों, ऊर्जा उत्पादन और खनन जैसी परियोजनाओं के माध्यम से आदिवासी समुदायों को सीधे-सीधे प्रभावित किया।
आदिवासी समुदाय को अपने देश में कारखानों के निर्माण और इससे होने वाले अपेक्षित विकास से बहुत उम्मीदें थीं। हालाँकि, ये उम्मीदें पूरी नहीं हुईं। आदिवासियों को होने वाले संभावित नुकसान की जानकारी के बावजूद जयपाल सिंह मुंडा नेहरू की विकास योजनाओं में विश्वास रखते रहे।
शुरुआत में आदिवासियों ने सहमति जताते हुए कहा, "ठीक है, यह विकास का मामला है और हम विकास के प्रस्ताव को स्वीकार करते हैं। विकास होना देश और हम आदिवासियों के लिए भी ज़रूरी है। अगर देश आगे बढ़ेगा तो आदिवासी भी आगे बढ़ेंगे।" इसलिए उस समय लिखी गई डॉ रामदयाल मुंडा की कविताएँ उन विकास परियोजनाओं का समर्थन करती थीं। शुरुआत में जिन आदिवासियों ने इन विकास परियोजनाओं को स्वीकार कर लिया, बाद में साजिशों का खुलासा होने पर इन्हें खारिज कर दिया गया। राम दयाल मुंडा की कविताएँ इन स्वीकृति, अस्वीकृति और संघर्ष की कहानी कहती हैं।
दुर्भाग्य से, वास्तविकता उसी प्रकार आशाजनक नहीं थी। राउरकेला स्टील प्लांट की स्थापना से उत्पन्न आदिवासियों के विस्थापन ने भयावह रूप धारण कर लिया। आदिवासियों को उनके घरों से जबरन हटाया गया, लेकिन पुनर्वास के वादे कभी पूरा नहीं हुआ। उस समय के दस्तावेज़ों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साक्ष्यों के अनुसार, आदिवासियों को राउरकेला से बहुत दूर कालाहांडी के जंगलों में छोड़ दिया गया था। उनमें से कई लोग भूख और बीमारियों के कारण मर गए। जर्मन कार्यकर्ता जोहान्स के साथ बातचीत के दौरान यह पता चला कि भारत सरकार ने यह झूठा दावा करके जर्मनी को गुमराह किया था कि प्रभावित लोगों को सफलतापूर्वक स्थानांतरित कर दिया गया था। इन इस्पात संयंत्रों के निर्माण के लिए जर्मनी ने वित्तीय सहायता प्रदान की थी। हालाँकि, सच्चाई जानने के बाद, जोहान्स और अन्य लोगों ने जर्मनी को सूचित किया कि यह झूठ है और विस्थापित लोगों का उचित पुनर्वास नहीं किया गया था और वे अभी भी पीड़ित हैं। ये वही आदिवासी थे जिन्होंने नेहरू सरकार पर भरोसा किया था। इस विश्वासघात से आदिवासी समुदाय को बहुत दुःख और निराशा हुई। परिणामस्वरूप, रामदयाल मुंडा ने अपनी बाद की कविताओं में इन सबका स्पष्ट उल्लेख किया और इन राजनीतिक षड्यंत्रों के प्रति अपना विरोध व्यक्त किया।
आदिवासी समुदाय हमेशा एक साथ समूह में रहते हैं। आदिवासी दर्शन सामाजिक जीवन को महत्व देते हैं। हालाँकि, नीति निर्माताओं द्वारा विकसित विकास की अवधारणा, सामुदायिक विकास या सामाजिक विकास पर विचार किए बिना पूरी तरह से व्यक्ति-केंद्रित विकास पर केंद्रित थी। इस उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण का जनजातीय समुदाय और उनकी भावनाओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप उन्हें मनोवैज्ञानिक आघात (psychological trauma) और सदमे का अनुभव हुआ। इस त्रुटिपूर्ण विकास दृष्टिकोण के परिणाम वर्तमान समय में देखे जा सकते हैं। क्योंकि कारखानों, बाँधों, बिजली स्टेशनों, इस्पात संयंत्रों और अन्य परियोजनाओं के निर्माण के कारण आदिवासी आबादी का विस्थापन हो रहा है। इन परियोजनाओं ने अनिवार्य रूप से इन क्षेत्रों को कॉलोनियों में बदल दिया है, जिससे समुदाय के बाहर के लोग (दिकुओं) वहाँ आकर बसने के लिए आकर्षित हुए हैं। परिणामस्वरूप, स्थानीय लोगों के पास कुछ भी नहीं बचा, जबकि आने वाले बाहरी लोग, अक्सर पूर्वाग्रही विचारों के साथ, आदिवासी आबादी को असभ्य और पिछड़ा करार देते थे।
जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी, संस्कृति भी विकृत होती गई। झारखंड और ओडिशा जैसे जनजातीय क्षेत्रों में अब बाहरी लोगों (जिन्हें दिकु कहा जाता है) की संख्या अधिक है। नतीजतन, इन क्षेत्रों के लोकतंत्र में बदलाव आया है। उसमें आदिवासियत नहीं था। इससे जनजातीय लोगों की संवेदनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। विकास ने उन्हें रोज़गार के अवसर या जीवन की बेहतर गुणवत्ता प्रदान नहीं किया। कुछ शिक्षित और नौकरीपेशा लोगों को छोड़कर, अधिकांश आदिवासी समुदाय अभी भी पिछड़ी अवस्था में है। उनकी सहायता के लिए प्रभावी नीतियों का अभाव है और जो नीतियाँ लागू की गई हैं, उनसे उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ है। इसके बजाय नीति निर्माताओं ने केवल औद्योगिक विकास और शोषण पर ध्यान केंद्रित किया। बस्तर के पूर्व डिप्टी कलेक्टर और अनुसूचित जन जाति आयोग के अध्यक्ष डॉ.भ्रह्म देव शर्मा ने अपनी एक किताब में आदिवासी समुदायों के क्रूर विस्थापन का दस्तावेजीकरण किया है। हालाँकि, शेष भारतीय समाज उनकी दुर्दशा से अनजान है। आदिवासी लोगों के संघर्षों और पीड़ाओं को अक्सर एक काले अध्याय की तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है।
आपने अभी-अभी रामदयाल मुंडा की कविताओं के बारे में बात की है। क्या आप विस्तार से बता पाएँगे कि विकास परियोजनाओं ने उनकी कविता के विषयों और शैली को कैसे प्रभावित किया है?
अनुज लुगुन - विकास परियोजनाओं के प्रारंभ में लिखी गई डॉ रामदयाल मुंडा की कविताएँ उन विकास परियोजनाओं का समर्थन करती थीं। रामदयाल मुंडा की कविता 'राउरकेला पत्थर धोने' में उन्होंने राउरकेला की चर्चा की है, वह स्थान जहाँ प्रथम पंचवर्षीय योजना के दौरान स्टील प्लान्ट स्थापित किया गया था। उन्होंने खुद इस कविता को मुंडारी से हिंदी में अनुवाद किया था।
कविता इस प्रकार है-
कारखानों की स्थापना हमारे राष्ट्र की उन्नति और समृद्धि के साथ-साथ हम आदिवासीयों की प्रगति के लिए भी महत्वपूर्ण है। कारखाने होने का एक महत्वपूर्ण लाभ भूख और गरीबी में कमी है। कारखाने स्थापित करने से रोजगार के अवसर पैदा होते हैं, जिससे लोग आजीविका कमाने में सक्षम होते हैं। इसलिए, उन कारखानों के महत्व पर लगातार जोर देना आवश्यक है जो हमारे समुदाय में लाभकारी परिवर्तन लाने की क्षमता रखते हैं। राम दयाल मुंडा की प्रारंभिक विकास विचारधाराएँ इस प्रकार थीं।
उस प्रकार जब एच.पी इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन ने राँची में एच.पी.सी का निर्माण किया, तो आदिवासियों की हजारों एकड़ जमीन भी हड़प ली गई। उन्होंने इसका भी समर्थन किया।
कविता कहती है:
“राँची के पास हटिया शहर
कैसा छिलमिल करता है
उड़ गईं मिट्टी-धूल
प्रिय सुगिया चले
हम कारखाने पर काम करने चले।
थोड़ी-सी ज़मीन पर कितना भी काम करने पर
सिर्फ आँगन बुहारने से भूख नहीं मिटती
प्रिय सुगिया चलो
हम काम करने कारखाना चले।”
प्रारंभ में आदिवासियों ने सभी विकास परियोजनाओं को स्वीकार कर लिया, लेकिन बाद में विकास नीतियों तथा षड्यंत्रों का खुलासा हो जाने पर इन्हें अस्वीकार कर दिया। राम दयाल मुंडा की कविताओं में उस प्रारंभिक स्वीकृति, बाद के अस्वीकृति और आदिवासी संघर्षों की कहानी मौजूद थे।
इन भावनाओं को उन्होंने अपनी कविता 'कथन शालवान के अंतिम शाल का (1988)' में इस प्रकार व्यक्त किया-
यह एक आक्रोशपूर्ण कविता है। इनके अलावा महादेव टोप्पो, ग्रेज़ कुजूर, राम दयाल मुंडा, जूलियस तिग्गा और हाना बुदरा जैसे आदिवासी कवियों ने अपने अनुभवों और विकास के राजनीतिक षड्यंत्रों का खुलासा करते हुए कविताएँ लिखी हैं। आदिवासी विस्थापन का मुद्दा हिंदी कवि नागार्जुन और चंद्रकांत देवताले की रचनाओं में भी हैं।
आपकी कविताओं में व्यक्तिगत अनुभव और संघर्ष देखने को मिलते हैं। विकास के नाम पर आदिवासियों का बड़े पैमाने पर होनेवाले विस्थापन उनके मानवाधिकारों के कठोर उल्लंघन का प्रतिनिधित्व करता है। क्या आपको विस्थापन से सम्बंधित कोई व्यक्तिगत अनुभव हैं?
अनुज लुगुन - खदान और कारखानों से जुड़े मुद्दों के अलावा, विकास नीति की गड़बड़ियाँ और भी हैं। इन नीतियों में अब पशु संरक्षण के लिए विभिन्न प्रावधान शामिल हैं, जैसे बाघ, हाथियों, भेड़ियों और कछुओं के लिए परियोजनाएँ। हम जंगलों में इन जानवरों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से, सरकार इस तथ्य को नहीं पहचानती है कि आदिवासी समुदाय हजारों वर्षों से बाघ, भेड़िये और हाथियों जैसे जानवरों के साथ सह-अस्तित्व में रहे हैं। हम आदिवासी लोग जंगल के सच्चे संरक्षक हैं। हालाँकि, सरकार की नीतियों में आदिवासियत नहीं हैं। वे अक्सर आदिवासियों को विकास विरोधी करार देते हैं और उन्हें उनकी ज़मीनों से जबरन हटा देते हैं। हमारा गाँव सारंडा क्षेत्र में स्थित है, जहाँ पिछले 8-10 वर्षों से जंगली हाथी आने लगी है, जिससे तबाही हुई है और यहाँ तक कि मानव हताहत भी हुए हैं। ये हाथी हमेशा जंगल में रहते हैं, लेकिन कभी भी उसने आदिवासियों को नुकसान नहीं पहूँचाया और न ही घरों में प्रवेश किया। तो, अब ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा इसलिए है क्योंकि लालच से प्रेरित अंधाधुंध खनन और अनावश्यक सड़क निर्माण ने हाथियों के प्राकृतिक आवास और पारिस्थितिक तंत्र को बाधित कर दिया है। इससे इंसानों और हाथियों के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई है। सत्ताधारियों ने हाथियों के संरक्षण के लिए आदिवासी समुदायों के विस्थापन को कीमत पर लगाया। 450 से अधिक गाँवों को 'हाथी गलियारा परियोजना' में शामिल किया गया, जिसके परिणामस्वरूप हमारे अपने गाँव सहित उस गलियारे के सभी निवासियों को जबरन खाली करना पड़ा। उस समय कई लोगों ने इसका विरोध किया था। यदि ये समुदाय हजारों वर्षों से जंगलों में शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रह रहे थे , तो अब संघर्ष क्यों पैदा हो रहे हैं? सत्ताधारी लोगों द्वारा इस कारण को नजरअंदाज किया जा रहा है। वे आदिवासियत के महत्व को स्वीकार करने से इनकार करते हैं, इसके बजाय वे आदिवासी लोगों को जंगली और असभ्य मानते हैं, और इसलिए उनका मानना है कि उन्हें हटा दिया जाना चाहिए।
अपने पूरे जीवनकाल में, मैंने ऐसे कई उदाहरण देखे हैं और व्यक्तिगत रूप से अनुभव भी किया है। मैंने देखा है कि किस प्रकार ज़मीन पर जबरन कब्ज़ा कर लिया गया। वर्तमान में, एक गाँव है जहाँ सामाजिक उत्सव आयोजित किए जाते हैं, और भूमि पर ग्रामीणों का अधिकार है। हालाँकि, सरकार ने यह घोषणा करते हुए एक बोर्ड लगाया कि ज़मीन उनकी है। ग्रामीण समुदाय वर्तमान में अपनी भूमि को पुनः प्राप्त करने की लड़ाई में लगी हुई हैं। कई बार अधिकारियों से शिकायत करने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हुई और परियोजना ठप पड़ी हुई है। ओडिशा में भी ऐसे कई लोग