डायरी : अफ़लातून की डायरी(3) / डॉ. विष्णु कुमार शर्मा

अफ़लातून की डायरी


बोलो
...?...(103 / 30.09.2023)

आज तुम घर आई जबकि इन दिनों तुम्हारे बारे में गहराई से सोचा भी नहीं था. इन दिनों तो मैं अध्यात्म में डूबा हूँ. आचार्य प्रशांत के गीता भाष्य के तीन वॉल्यूम मंगवाएं हैं. उन्हीं में लगा रहता हूँ. यू-ट्यूब पर उनके वीडियोज सुनता हूँ. इस सबके के बीच आज अचानक तुम चली आई. किंडल पर हजारी बाबू काअनामदास का पोथापोथा पढ़ रहा हूँ. जिस तरहबाणभट्ट की आत्मकथाके लिए उन्होंने कैथराइन दीदी का प्रसंग गढ़ा उसी तरह इस उपन्यास के लिए उनके शहर के एक अनाम साहित्यकार का रूपक रचा है. हजारी बाबू हैं पूरे गपोड़ी लेकिन गप्प के बीच जीवन-दर्शन और उसके सूत्रों को इस तरह पिरोते हैं कि लाजवाब. ‘अनामदास का पोथामें उपनिषद् के रैक्व ऋषि की कहानी को आधार बनाया है. रैक्व निरे तपस्वी हैं उन्हें संसार का कोई ज्ञान नहीं होता. उनकी भेंट एक राजकुमारी से होती है. राजकुमारी जाबाला एक झंझावत में घायल है. रैक्व ने पहली बार स्त्री को देखा है. वह उसे छूकर देखता है तो वह उसे बहुत मुलायम प्रतीत होती है. रैक्व उसे अपनी पीठ पर लादकर उसके घर पहुँचा आने प्रस्ताव रखते हैं. राजकुमारी मना कर देती है कि यह प्रस्ताव लोक-व्यवहार के प्रतिकूल है. एक युवा स्त्री का एक अनजान पुरुष की पीठ पर बैठकर जाना उचित नहीं. राजकुमारी चली जाती है और रैक्व की पीठ में एक सनसनाहट बनी रह जाती है. रैक्व वहीं राजकुमारी के टूटे रथ से अपनी पीठ खुजलाते साधना में रत हो जाते हैं. उनकी पीठ में बार-बार खुजली मचती है. इसी प्रसंग को अपनी कल्पना से हजारी बाबू ने विस्तार दिया है. उपन्यास का सार है कि एकांत साधना निरा स्वार्थ है. लोकमंगल के बिना तप व्यर्थ है. ...आज तुम आई. और आश्चर्यजनक बात यह रही कि माँ ने तुमसे बिना तनाव में आये बात की. छोटे भाई ने तुमसे चुहल की. संगिनी घर पर नहीं थी. मैं चाह रहा था कि उसके आने से पहले तुम चली जाओ. तभी वह लौट आई और सपना टूट गया. सपना... हाँ, सपना ही तो था. लेकिन आज तुम सपने में क्यूँ आई? कहते हैं ना कि जिसके बारे में दिन में ज्यादा सोच-विचार करते हैं वही रात को सपने में दिख जाता है. नींद के सपनों पर मैं ज्यादा यकीन नहीं करता. बहुत लोग करते हैं. मैं नहीं करता. मुझे अक्सर ऊलजलूल सपने आते हैं, बे-सिरपैर के और जब सपना टूटता है तो पता चलता है कि गला सूख रहा है या टॉयलेट जाना है. आज गला ही सूख रहा था. पानी पीने के बाद नींद नहीं आई. और भई, तुम मिलती क्यों नहीं हो? हर बार कुछ बहाना? अब तो मैंने तुमसे मिलने की उम्मीद भी छोड़ दी. मैं कहूँगा ही नहीं अब. जाओ, मैं नाराज हूँ तुमसे. हुँह... पता है तुम्हारा जन्मदिन मैं भी तुम्हारे पहले प्रेमी की तरह ही याद रखता हूँ. “दस दिसंबर को आएगा मानवाधिकार दिवस और उससे पाँच दिन पहले तुम्हारा जन्मदिन.” हाहाहा... सब पुरुष एक से होते हैं, निरे भुलक्कड़. पत्नी और प्रेमिकाओं के जन्मदिन भूलने वाले. और तुम लोग हो कि भूलने नहीं देतीं. माया कहीं की... संसार से भागते पुरुष को संसार में खींचकर लाने वाली. सब स्त्रियाँ जाबाला-सी नहीं होती, लोकमंगल चाहने वाली. पत्नी या प्रेमिका का तो समझ में आता है लेकिन तुम लोग माँ होकर अपनी ममता को विस्तारित क्यूँ नहीं कर पाती? क्यूँ तुम्हें सब बच्चों में अपने बच्चे नहीं दिखते? क्यूँ सिर्फ तुम अपने बच्चों का ही भला चाहती हो? क्यूँ अपने बच्चों के दोस्तों का भला भी नहीं सोच पाती? तुम्हारा प्रेम संतान-मोह से आगे क्यूँ नहीं बढ़ पाता? बोलो...?


अपनी केवल धार (105 / 07.10.2023)

अपना क्या है इस जीवन में, सब तो लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार

संगतमें कल एक और शानदार शख्सियत का इंटरव्यू अंजुम ने लिया- अरुण कमल का. अरुण जी की इन पंक्तियों में स्वीकृति है, आभार है. यह आभार देर सबेर हम सबको स्वीकार करना ही चाहिए. यह सच है. हमारा कुछ नहीं, सब तो लिया उधार. हमारे पास कुछ नहीं होते हुए भी कर्म करने की स्वतंत्रता हमारी सबसे बड़ी ताकत है. मनुष्य के पास जो है कर्म स्वातंत्र्य वह ही धार है. कुछ होकर भी सबकुछ मनुष्य के पास है. लेकिन एक अर्थ में अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए मनुष्य ने ईश्वर का अविष्कार कर लिया. हालाँकि ईश्वर मनुष्य की अब तक की सारी कल्पनाओं में सबसे शानदार और जानदार कल्पना है. वह एक बड़ा भरोसा है, आसरा है लेकिन इस आसरे ने कहीं मनुष्य को कमजोर तो नहीं बनाया? कहीं इसी कारण अपने जीवन के चुनावों और निर्णयों को हमने रामजी की मर्जी या किस्मत का तमगा दे दिया? अभी थोड़ा ही सुन पाया हूँ लेकिन अरुण जी ने बाँध लिया है. जल्द पूरा सुनूँगा. ‘बयापत्रिका का डायरी विशेषांक गौरीनाथ जी ने भिजवाया है, वह भी रुक-रुक कर पढ़ रहा हूँ. इन दिनों आचार्य प्रशांत के मार्फ़त गीता समझने में लगा हूँ. उनके गीता पर भाष्य के तीन अंक मंगवाएँ हैं, उन्हीं में ज्यादा लगा रहता हूँ. आजकल लिखने का मन कम होता है. लगता है कितना कुछ तो बचा है जानने को. कितना कुछ तो है पढ़ने को. कितना अच्छा-अच्छा लोग लिख गए हैं और लिख रहे हैं. कच्चा-पक्का मैं लिखकर क्यों भीड़ बढ़ाऊँ? आचार्य प्रशांत का पूरा काम वेदांत पर है. यूट्यूब पर दो हजार से ज्यादा वीडियोज हैं. हर नए समसामयिक विषय पर उनका वीडियो जाता है. वे शानदार शिक्षक और आचार्य हैं.

कभी सगुण-निर्गुण का द्वंद्व बहुत सताता था. मध्यस्थ दर्शन का सात दिवसीय जीवन विद्या शिविर करने के बाद वह जाता रहा. समझ गया कि ब्रह्म तत्वतः निर्गुण, निराकार और अकर्ता है. वह कुछ लेता है, देता है लेकिन मृत्यु, पुनर्जन्म आदि को लेकर सवाल अभी भी बने रहें. तुलसी की मानस में बालकांड में तुलसी एक जगह जोर देकर कहते हैं कि यही नरदेही दशरथ का बेटा राम ही ब्रह्म हैऔर यहीं से मैं कबीर को तुलसी से श्रेष्ठ मानने की भूल कर बैठा कि तुलसी नरदेही राम को ही ब्रह्म कह रहे हैं जबकि कबीर के यहाँ ब्रह्म निर्गुण-निराकार है जो तत्त्वतः है ही निर्गुण और अकर्ता. आचार्य प्रशांत ने समझाया कि तुलसी के यहाँ भी तो जो बालकांड में निर्गुण ब्रह्म की स्तुति है वह वेदांत सम्मत ही तो है और कबीर के समकक्ष है. दोनों में कोई भेद नहीं. कबीर जो चार तरह के राम की बात करते हैं-

एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट-घट में लेटा
एक राम चहूँ ओर पसारा, मेरा राम है सबसे न्यारा.

गौर से देखें तो तुलसी के यहाँ भी यही क्रम है. दृष्टि दोष हमारा ही है. अंजुम ने अरुण जी से पूछा कि आपके यहाँ भक्त कवि तुलसी की उपस्थिति खूब है जबकि आप प्रगतिशील कवि हैं. अरुण जी कहते हैं कि भक्त कवि और प्रगतिशील कवि में कवि हमारा शामिल का है और जो सबमें शामिल है वह है मनुष्य

मध्यस्थ दर्शन का मृत्यु उपरांत सूक्ष्म शरीर के उस घर या गाँव-शहर के आसपास बने रहने और गर्भ का चुनाव करने का तर्क गले नहीं उतरा. कुछ रविवारीय गोष्ठियाँ भी अटेंड की. वहाँ भी प्रबोधकों का कहना यही था किपहले जीवन को समझिए, मृत्यु को छोड़िये. जीवन समझ में गया क्या? नहीं ना? फिर? पहले उसे समझिये.” जिस तरह बुद्ध ने इस तरह के सवालों को अव्याकृत कहकर छोड़ दिया, उसी तरह. लेकिन मेरा मन उन्हीं सवालों से ज्यादा जूझता रहा. आचार्य प्रशांत ने जब गीता और शंकर के अद्वैतवाद के मार्फ़त बताया कि यह शरीर पंचमहाभूत के अतिरिक्त मन, बुद्धि, अहम् से बना है और ये तीनों तत्त्व भी भौतिक ही हैं, जड़ हैं. ये भी प्रकृति की सीमा में ही आते हैं. बस केवल सत्य है जो प्रकृति से परे है. सत्य को ही ब्रह्म या आत्मा या परम तत्त्व कहा गया है. मैं यानी अहम् ही जीवात्मा (देही) है. अहम् कर्ताभाव है. पुनर्जन्म देही यानी जीवात्मा मतलब अहम् भाव का होता है कि किसी व्यक्ति विशेष की आत्मा का. आत्मा निष्कामता से उपजी एक स्थिति विशेष का नाम है. जहाँ सुख है, दुःख है, बस आनंद है. असल में उसे कोई नाम भी नहीं दिया जाना चाहिए मगर हम दे देते हैं. उसे नाम दिए बिना हमारा काम भी नहीं चलता. जैसे ही आचार्य प्रशांत से ये समझा किजीवन एक ही बार होता है. पुनर्जन्म किसी आत्मा का नहीं बल्कि अहम् वृत्ति का होता है. वो भी व्यष्टि विशेष नहीं अपितु समष्टि रूप होती है”, तो बत्ती जल उठी. रोशनी भीतर तक चली गई. मैं उछल पड़ा. क्या शानदार बात कही गयी है? आहा ! अद्भुत ! सोम भैया और विकास दिव्यकीर्ति सर ठीक कहते हैं कि समझने का आनंद अलग ही होता है... गीता की दुर्व्याख्या ही अधिक हुई है... उपनिषद् शानदार हैं. सगुण के कर्मकांड और निर्गुण के ध्यान-मेडिटेशन के घटाटोप में फँसे बगैर सदग्रंथ और सद्गुरु से समझकर भी सत्य तक पहुँचा जा सकता है. आचार्य प्रशांत बेजोड़ हैं.   

नींद रही है, पलकें भारी हो रही हैं... क्या ये संसार भी नींद में देखा एक सपना ही है? या कोई वीडियो गेम?


ईश्वर का पता चाहते हो तो किसी कवि से मिलो (113 / 15.12.2023)

इन दिनों डायरी कम लिख पा रहा हूँ. पिछले दो महिने विधानसभा चुनाव की आचार संहिता के चलते लगभग नहीं लिखा. चाहता तो लिख सकता था, लिखा नहीं. शायद भीतर से कोई भय काम कर रहा हो. शायद कुछ व्यस्तता भी रही हो. शायद इन दिनों लिखने का कम और पढ़ने का मन ज्यादा बना रहा. शायद बात आलस की रही. अक्सर लिखने के तुरंत बाद उसे व्हाट्सअप ब्रॉडकास्ट या फेसबुक पेज पर प्रकाशित करने का मन रहता है. मित्रों संपादकों के आग्रह पर प्रकाशित करने से खुद को रोक रहा हूँ. कुछ डायरियाँ रोकी और पत्रिकाओं के संपादकों को भिजवाई. ‘अपनी माटीके सितम्बर अंक में डायरी छपी. वहाँ से यात्रा आगे बढ़ी औरमधुमतीके अक्टूबर अंक में डॉ. दिनेश चारण ने छापी. ‘बयाका दूसरा डायरी विशेषांक कल डाक से मिला उसमें भीअफ़लातून की डायरीको जगह मिली है. संभवतः जनवरी में दिल्ली की एक साहित्यिक पत्रिका में भी डायरी प्रकाशित हो. ये डायरी की अपनी यात्रा है, मेरी नहीं. मेरी यात्रा डायरियों में दर्ज होती रहती है लेकिन डायरी की यात्रा को भी तो मैं डायरी में ही दर्ज कर रहा हूँ. क्या ये ऐसा ही है जैसे आचार्य शंकर कहते हैं कि ये संसार हमारे मन का प्रक्षेपण है. यही जगत का मिथ्यात्व है. “ब्रह्मं सत्यं जगत मिथ्या.” लेकिन माया के बस हमें यह संसार सत्य आभासित होता है. शंकराचार्य के हवाले से विकास दिव्यकीर्ति कहते हैं कियह संसार विडियो गेम जैसा है. जब तक हम गेम के भीतर हैं यह हमें सत्य आभासित होगा ही, इसका मिथ्यात्व हमें तब पता चलता है, जब हम इस गेम से बाहर आकर इसे देखते हैं.” इसी को गीता में श्रीकृष्णसाक्षी भावकहते हैं.

अद्वैत वेदांत बड़ा शानदार सिद्धांत या कहूँ जीवनचर्या है. यह ज़िन्दगी को देखने, समझने और जीने का अद्भुत तरीका है. इसमें आकर सारे भेद ख़त्म हो जाते हैं. पिछले दो सालों से मैं दक्षिणपंथ वामपंथ को लेकर बड़ा परेशां रहता आया हूँ, यहाँ आकर लगता है- क्या वाहियात चीजें हैं ये सब जिनके चलते सदियों से दुनिया दो हिस्सों में बँटी रही है और कितना खून-ख़राबा इन विचारधाराओं की लड़ाई के नाम पर हुआ. मेरे मित्रों ने मुझ पर वामपंथी स्त्रीवादी होने का टैग लगाया. खुद मैंने कितनों को दक्षिणपंथी और रूढ़िवादी कहकर उनका उपहास उड़ाया. अद्वैत वेदांत में आकर दलित, स्त्री, आदिवासी समेत सारे विमर्श दम तोड़ देते हैं. दुनिया यदि बुद्ध, शंकराचार्य, कबीर, तुलसी, नानक, मीरा... के मार्ग पर चली होती तो किसी दलित का शोषण होता, किसी स्त्री का और आदिवासी का. ये पक्का है कि दलितों, स्त्रियों और आदिवासियों का भला इन सेमिनारों से नहीं होगा और इन उथली सरकारी योजनाओं से.

जीवन को समझे बिना पार नहीं. समझ ही आत्मा है, यही परमात्मा है. इसी को उपनिषद् ब्रह्म कहकर पुकारते हैं. यही अष्टावक्र का सत्य है जिसे पाकर जनक विदेह हो जाते हैं. यही बुद्ध की करुणा है और महावीर का परम धर्म- “अहिंसा परमोधर्म:” सूर का कन्हाई, मीरा का गिरधर गोपाल बस एक वही है- “दूसरो कोई.” दो नहीं एक. यही अद्वैत है. यही आत्मज्ञान है, इसी बोध को पाकर एक राजकुमार बुद्ध कहलाया. यही तुलसी का राम है. इसी ढाई आखर को पढ़ने की बात कबीर साहब करते हैं और कहते हैं- यह किसी बाड़ी में पैदा नहीं होता, इसे आप बाजार से खरीद सकते हैं. ये अपने भीतर उगाने की चीज है-

प्रेम बाड़ी  ऊपजे, प्रेम    हाट  बिकाय.
बिना प्रेम का मानवा, कबीरा जमपुर जाय.”

इसके बिना मनुष्य यमपुर जाता है. यमपुर में दुःख ही दुःख है. इसी से बुद्ध महाराज ने निष्कर्ष दिया- “यह संसार दुखमय है”. यमपुर कहीं कोई दूसरा लोक नहीं, यहीं है. हमारा ही जीवन प्रतिपल यमपुर है और प्रतिपल अमरपुर. इसी को पढ़ने वाला पंडित है. इसी को जानने वाला ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है. इसी से विरहिणी नायिका कह रही है- “नैहरवा हमको भावै... अमरपुर ले चलो सजना”. यमपुर का विपरीत ही अमरपुर है. इस सत्य का विपरीत ही असत्य है. इस ब्रह्म का विपरीत ही जीव कहा गया है. इस ज्ञान का विपरीत ही अज्ञान है. इस समझदारी का विपरीत ही नासमझी है. इस आत्मा का विपरीत ही अहम् है. येमैंका भाव ही कहता है कि दो है. एक मैं हूँ और एक ये संसार है. एक मैं हूँ और एक भगवान है. एक मैं हूँ और एक प्रकृति है. इस प्रकृति से होकर ही अहम् से आत्म की यात्रा संपन्न होती है. यह प्रकृति ही जगदीश की माया है- “श्रुति सेतु पालक राम तुम, जगदीश माया जानकी.” यह झूठा नहीं, सच्चा है क्योंकि यह सियाराममय है- “सियाराममय सब जग जानी, करहुँ प्रनाम जोरी जुग पानी.” कुलमिलाकर ब्रह्म, जीव, जगत और माया सब एक है. चार, दो; बस एक. गीता में