शोध आलेख : हिंदी आलोचना में हिंदी नवजागरण की संकल्पना का विकास / डॉ. जावेद आलम

हिंदी आलोचना में हिंदी नवजागरण की संकल्पना का विकास
- डॉ. जावेद आलम

शोध सार : बीसवीं शती के अंतिम दशक की हिंदी आलोचना मेंहिंदी नवजागरणशब्दबंध सर्वाधिक चर्चित रहाहै। बांग्ला नवजागरण एवं मराठी नवजागरण के समान हिंदी नवजागरण जैसी मान्यता उभरकर सामने आई और इस विषय पर गंभीर बहसें भी हुईं उन बहसों मेंहिंदी नवजागरणशब्दबंध एक संश्लिष्ट एवं बहुवचनीय संकल्पना के रूप में विकसित होता हुआ दिखाई देता है। वस्तुतः हिंदी आलोचना में हिंदी नवजागरण पर गंभीर चर्चाएँ हुई हैं किंतु हिंदी आलोचना  में उसे संकल्पना के रूप में ग्रहण करने का प्रायः अभाव रहा है। प्रस्तुत शोधालेख मेंहिंदी नवजागरणशब्दबंध हिंदी, में आलोचना की एक संकल्पना के रूप में किस प्रकार विस्तार पाता है, इस पर विचार करने का प्रयास किया गया है।

बीज शब्द : हिंदी नवजागरण; हिंदी जाति; ‘अठारह सौ सत्तावनऔर हिंदी साहित्य, भारतेंदु युग।

मूल आलेख : नवजागरण को एक ऐसे व्यापक क्रांतिकारी परिवर्तनकारी प्रक्रिया के रूप में चिह्नित किया जाता है, जो किसी सामाजिक इकाई की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था में अपना रूपाकार ग्रहण करता है। नवजागरण की यह परिवर्तनकारी प्रक्रिया किसी भी नवजागरणकालीन सामाजिक इकाई की प्रत्येक संस्था में सहजता से लक्षित की जा सकती है। इस शब्दबंध का प्रयोग इतने व्यापक स्तर पर किया जाता है कि इससे किसी एक समाज की अस्मिता, राष्ट्रीयता एवं जातीय-बोध की भी पहचान की जाती है। इसके अतिरिक्त एक भौगोलिक क्षेत्र में रहनेवाली कई सामाजिक इकाइयाँ अलग-अलग जातीय-बोध, अस्मिताओं एवं राष्ट्रीयताओं को एक साथ समाहित करते हुए भी एक ही नवजागरण के अर्थ को व्यापक एवं संश्लिष्ट आयामों से युक्त कर सकती हैं। स्पष्ट है किनवजागरणएक बहुस्तरीय एवं बहुआयामी अर्थ व्यंजनाओं एवं जटिलताओं से युक्त बहुवचनीय प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया जिस किसी भी सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई के साथ जुड़ती है, उसे बहुअर्थी भावाभिव्यंजनाओं एवं चेतना से युक्त कर देती है।

     आधुनिक भारत के आरंभिक इतिहास, राजनीति एवं समाज में होनेवाले क्रांतिकारी परिवर्तन को नवजागरण की एक व्यापक प्रक्रिया में रूप में चिह्नित किया जाता है। भारत में नवजागरण की यह प्रक्रिया भिन्न-भिन्न जातीय-बोध एवं भाषायी अस्मितावाली सामाजिक इकाई के रूप में प्रकट हुआ जिन्हें अलग-अलग रूप में चिह्नित किया जाता रहा है; जैसे बांग्ला नवजागरण, मराठी नवजागरण आदि। ये अस्मिताएँ इतनी प्रभावकारी एवं क्रियाशील रही हैं कि इन्हें अलग-अलग संपूर्ण अस्तित्व के रूप में स्वीकृत किया जाता है। भारत के विविध भू-भागों में होनेवाली नवीन जागृति जो क्षेत्रीय विविधताओं से जुड़कर भारतीय नवजागरण के व्यापक अर्थ में समाहित होकर स्वयं तथा क्षेत्रीय नवजागरण के स्वरूप को और भी अधिक विस्तृत कर देते हैं।

     19वीं शती में बांग्ला भाषी प्रदेश एवं मराठी भाषी प्रदेश में जिस प्रकार के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तन हुए तथा उनसे प्रदेशों में जो नव जागृति आई, उन्हें क्रमशः बांग्ला नवजागरणएवंमराठी नवजागरणके रूप में चिह्नित किया गया। कुछ उसी प्रकार के क्रांतिकारी परिवर्तन हिंदी भाषी प्रदेश में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दिखाई पड़े। हिंदी भाषी प्रदेश में होनेवाले इस संश्लिष्ट एवं बहुआयामी परिवर्तन को भी नवजागरण की संज्ञा से अभिहित किया जाता है।

     ध्यान देने की बात है कि हिंदी आलोचना एवं साहित्य में उन्नीसवीं शती के इस नवजागरण पर बीसवीं शती के आठवें और नौवे दशक में अत्यंत तीव्र बहसें हुई। राजनीति, इतिहास और सांस्कृतिक धरातल पर केंद्रित होने के कारण यह सिर्फ़ साहित्यिक संकल्पना अथवा अवधारणा मात्र नहीं है बल्कि, इसका संबंध भारतीय राजनीति में आकार ग्रहण करनेवाली एकविशेष राजनीतिसे भी है, जिसका स्वरूप 1980 ईस्वी के बाद दिखाई पड़ता है।

     डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, हिंदी प्रदेश में होनेवाले परिवर्तन के लिए केवल इसनवजागरणशब्दबंध का प्रयोग किया, बल्कि उस पर गंभीर चिंतन करते हुए उसेहिंदी नवजागरणकी संकल्पना के रूप में विकसित करने का कार्य किया।’’’1

     ध्यान देने की बात है कि यह शब्दबंध संभवतः सबसे पहलेआलोचनात्रैमासिक पत्रिका के माध्यम से ही हिंदी बुद्धिजीवियों एवं पाठकों तक पहुँची थी। डॉ. रामविलास शर्मा कामहावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरणशीर्षक शोधालेख नामवर सिंह के संपादन मेंआलोचनात्रैमासिक के नवांक- 40 जनवरी-मार्च 1977 . में हीआलोचनापत्रिका में एक पाद-टिप्पणी के साथ प्रकाशित है- लेखक की शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाली पुस्तकमहावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरणकी भूमिका तथा प्रथम अध्याय का आरंभिक अंश।

     डॉ. रामविलास शर्मा का दूसरा शोधालेखहिंदी की जातीय पत्रिका : सरस्वतीका भी प्रकाशनआलोचनापत्रिका के नवांक- 41 अप्रैल-जून 1977 . में ही हुआ था। इसी लेख का संशोधित संस्करण उक्त पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है।

     कहा जा सकता है कि हिंदी नवजागरण शब्दबंध से पाठकों एव बुद्धिजीवियों से परिचित कराने मेंआलोचनात्रैमासिक की अग्रणी भूमिका रही है। हिंदी आलोचना में यह शब्दबंध 1980 . के बाद विशेष रूप से चर्चा में रहा है। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध एवं बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध तक का समय इस बहस के केंद्र में है। यह शब्दबंध इतना चर्चा में रहा कि इसने हिंदी आलोचना को बहुस्तरीय संश्लिष्ट संदर्भों से परिचित कराने का काम किया। हिंदी आलोचना इस शब्दबंध से अत्यंत समृद्ध हुई है। यह शब्द मात्र साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन तक ही सीमित नहीं रहा है। बल्कि, उसे सामाजिक-राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक आधारों से युक्त करने हुए पूरे युगीन परिवेश को संकलित करने के साथ-साथ उसके बहुस्तरीय एवं संश्लिष्ट स्वरूप को स्पष्ट करता हुआ दिखाई पड़ता है। इस प्रकार हिंदी आलोचना में प्रयुक्तहिंदी नवजागरणशब्दबंध एक संकल्पना के रूप दिखाई पड़ता है। अतःहिंदी नवजागरणको हिंदी आलोचना में एक संकल्पना के रूप ग्रहण किया जाना चाहिए। यह संकल्पना अतिविस्तृत, गूढ़ एवं बहुस्तरीय जटिलताओं से युक्त है। साहित्यिक चिंतकों, आलोचकों, इतिहासकारों एवं राजनीतिक विश्लेषकों ने इस शब्दबंध को बड़ी गंभीरता से ग्रहण किया और इस पर अपने विचार प्रकट किए जो मतभेदों के साथ-साथ बहुअर्थी एवं वैविध्य धरातल पर आधारित हैं।

     डॉ. रामविलास शर्मा की दृष्टि में 1857 . की महाक्रांति हिंदी नवजागरण का प्रस्थान बिंदु है, यहीं से वह इसे एक संकल्पना का रूप देते हैं-हिंदी प्रदेश में नवजागरण 1857 . के स्वाधीनता-संग्राम से शुरू होता है।’’2

उनका स्पष्ट विचार है कि ‘‘सन् 57 का स्वाधीनता संग्राम हिंदी प्रदेश के नवजागरण की पहली मंज़िल है। दूसरी मंज़िल भारतेंदु हरिश्चंद्र का युग है।’’3 इस संदर्भ को और स्पष्ट करते हुए वह कहते हैं कि ‘‘भारतेंदु युग का साहित्य व्यापक स्तर पर ग़दर से प्रभावित है, इसका पहला प्रमाण यह है कि इस साहित्य में किसानों को लक्ष्य करके उन्हें संगठित और आंदोलित करने की दृष्टि से जितना गद्य-पद्य लिखा गया है, उतना दूसरी भाषाओं में नहीं लिखा गया है।’’4

इस नवजागरण शब्दबंध को संकल्पना के रूप में विस्तार देते हुए कहते हैं कि-हिंदी नवजागरण का तीसरा चरण महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनके सहयोगियों का कार्यकाल है। सन् 1900 मेंसरस्वतीका प्रकाशन आरंभ हुआ और 1920 . में द्विवेदी उससे अलग हुए। इन दो दशकों की अवधि को द्विवेदी युग कहा जा सकता है। इस युग की सही पहचान तभी हो सकती है जब हम एक तरफ ग़दर और भारतेंदु से उनका संबध पहचाने, और दूसरी तरफ छायावादी युग, विशेष रूप से निराला के साहित्य, से उसका संबंध पर ध्यान दें।’’5 रामविलास के मतानुसार ‘‘हिंदी नवजागरण की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं।’’6 ‘‘भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर महावीरप्रसाद द्विवेदी तक हिंदी नवजागरण के नवसूत्रधार पुराने चरखे-करघे वाले भारत का स्वप्न नहीं देखते। वे देश में आधुनिक उद्योग धंधों के विकास के पक्षपाती हैं। गाँधीवादी विचारधारा से हिंदी नवजागरण का यह भेद उल्लेखनीय है।’’7 इसके अतिरिक्त ‘‘हिंदी नवजागरण के सूत्रधारों में महावीरप्रसाद द्विवेदी वैज्ञानिक दृष्टि, वैज्ञानिक प्रशिक्षण की आवश्यकता के प्रति सबसे अधिक सचेत हैं। ...महावीरप्रसाद द्विवेदी इस वैज्ञानिक शिक्षा के साथ प्राचीन भारतीय संस्कृति का संबंध स्थापित करते हैं। रूढ़िवादी दृष्टि का खंडन करते हुए प्राचीन उपलब्धियों का पुनर्मूल्यांकन करते हैं। यह नवजागरण अतीत के प्रति भावुकता पुनरुत्थानवाद और रहस्यवाद की दृष्टि नहीं अपनाता। इसीलिए हिंदी में अद्वैतवाद, उपनिषदों और रवींद्रनाथ के रहस्यवाद की चर्चा 1920 से पहले कम होती है। हिंदी के लिए रहस्यवादी धारणाएँ उस पर हावी होती दिखाई देती हैं; पर पूरी तरह नहीं।’’8 रामविलास जी स्पष्ट करते हैं कि ‘‘हिंदी नवजागरण का महत्व केवल हिंदी प्रदेश के लिए नहीं है। उसकी उपर्युक्त विशेषताएँ सारे देश के लिए महत्वपूर्ण है।’’9 इसके अतिरिक्त ‘‘19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में और 20 वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में समाज सुधार के आंदोलन अनेक प्रदेशों में चालू हुए। इनके समान हिंदी नवजागरण भी समाज का ढाँचा बदलना चाहता है। पुराने रीति-रिवाज़ों, संस्कारों और समाज के पुराने ढाँचे को क़ायम रखने वाले सामंती तत्व थे जिनका संरक्षक अँगरेज़ी राज था। इसीलिए सामंत वर्ग से टक्कर लिए बिना समाज सुधार की योजनाएँ पूरी हो सकती थी। ...हिंदी प्रदेश में समाज सुधार के आंदोलन प्रखर रूप से सामंत विरोधी हैं इसके साथ अँगरेजों की संरक्षक की भूमिका के विरोधी हैं।’’10 और ‘‘हिंदी नवजागरण की अपनी विशेषताएँ उसे बंगाल और गुजरात की स्थितियों से अलग करती हैं।’’11

     इसके अतिरिक्त रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण के संदर्भ में स्पष्ट करते हैं कि नवजागरण की प्रकिया जनजागरणों की देन है और जनजागरणों की ‘‘शुरूआत तब होती है जब यहाँ बोलचाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगता है। जब यहाँ के विभिन्न प्रदेशों में आधुनिक जातियों का गठन होता है, यह सामंत विरोधी जनजागरण है। यह हुआ पहला विशिष्ट दौर।भारत में अँगेरेज़ी राज्य क़ायम करने के सिलसिले में प्लासी की लड़ाई से 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक जो युद्ध हुए वे जनजागरण के दूसरे दौर के अंतर्गत है।यह पहले दौर से भिन्न है। मुख्य लड़ाई विदेशी शत्रु से है यह साम्राज्यवाद विरोधी जनजागरण है, भारतेंदु युग इस जागरण से जुड़ा हुआ है।जिस सामाजिक इकाई में नवजागरण के कार्य संपन्न होते हैं उसे हमजातिकी संज्ञा देते हैं।’’12

     इस प्रकार रामविलास शर्मा के नवजागरण की संकल्पना में हिंदी भाषा, और हिंदी जाति की अवधारणा सम्मिलित है। उनकी यह संकल्पना जातीय चेतना और भाषायी संदर्भों पर अवलंबित है। कहना सही होगा कि हिंदी नवजागरण की संकल्पना हिंदी जाति की जातीय चेतना और भाषायी अस्मिता को लेकर हो रहे निरंतर संघर्षों की परिणति है। ये रामविलास शर्मा के हिंदी नवजागरण संबंधी विशद् चिंतन के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र हैं। हिंदी नवजागरण संबंधी उनकी मान्यताएँ भारतेंदु हरिश्चंद्र पर लिखित पुस्तक-भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ (1984 .), भारतीय नवजागरण और यूरोप (1996 .), भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश (1999 .) और हिंदी जाति का इतिहास (1986 .) में विस्तार पाती है।

     इस प्रकार डॉ. राम विलास शर्मा हिंदी नवजागरण के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए उसे भारतीय नवजागरण के अंग के रूप में भी स्वीकार करते हैं। स्पष्ट है कि डॉ० रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण शब्दबंध 1857 की महाक्रांति का स्रोत बताते हुए उसे महाकवि निराला तक जोड़ते हैं और उसे वैचारिक आधार देते हुए एक संकल्पना के रूप में विकसित करते हैं। हिंदी आलोचना में उद्भूत यह संकल्पना हिंदी आलोचकों एवं विद्वानों के बीच साहित्यिक-सांस्कृतिक मुद्दे के रूप में प्रकट हुआ। इस बहस ने जहाँ हिंदी आलोचना को समृद्ध किया, वहीं हिंदी नवजागरण की संकल्पना, एकअर्थी एवं एकवचनीय नहीं रह गई, बल्कि उसे बहुवचनीय शब्दबंध के रूप में देखा जा सकता है। अतःहिंदी नवजागरणएक बहुअर्थी संकल्पना है।हिंदी नवजागरणकी बहुवचनीयता क्या है तथा उनसे हिंदी साहित्य एवं हिंदी आलोचना कितनी प्रभावित हुई एवं उसके विकास में उनका क्या योगदान है? यह एक गंभीर अध्ययन का विषय है, यहाँ कुछ संक्षिप्त चर्चा की जा रही है।

     ध्यान देने की बात है किहिंदी नवजागरण शब्दबंध को आरंभ में बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया। आरंभिक लेखन एवं आलोचना में इस शब्दबंध के प्रति स्वीकार्यता का भाव लक्षित किया जा सकता है। रामविलास शर्मा कामहावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरणशीर्षक शोधालेखआलोचनात्रैमासिक के नवांक- 40 में प्रकाशित हुआ था। उस अंक में संपादक नामवर सिंह का कोई संपादकीय क्या, कोई संपादकीय टिप्पणी भी प्रकाशित नहीं है।

     यहाँ तक कि नामवर सिंह रामविलास शर्मा की सत्तरवीं वर्षगाँ परआलोचनापत्रिका का एक विशेष अंक (नवांक 60-61 जनवरी-जून 1982 .) संपादित-प्रकाशित कर चुके थे। इस अंक मेंकेवल जलती मशालशीर्षक से नामवरजी ने संपादकीय लिखा। यह विशेषांक हिंदी जाति के प्रतिनिधि समालोचक और प्रगतिशी आलोचना के अग्रदूत डॉ. रामविलास शर्मा परआलोचनापरिवार की ओर से अभिनंदन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

     इस अंक के संपादकीय में भी नामवर सिंह हिंदी नवजागण शब्दबंध को स्वीकृति प्रदान करते हुए देखे जा सकते हैं। इसमें कहीं भी आलोचनात्मक दिखाई नहीं पड़ते हैं, बल्कि स्वीकृति का भाव दिखाई पड़ता है।  

     इस संपादकीय में नामवर जी रामविलास शर्मा के विचारों को आँखें खोलकर रख देने वाला सिद्ध करते हुए स्पष्ट करते हैं-हिंदी के जो विद्वान अभी तक राजा राममोहन राय और बंगाल पुनर्जागरण के विचारों से आधुनिक साहित्य के इतिहास के पन्ने रंगते रहे थे उनकी आँखों में अँगुली डालकर पहली बार बताया कि स्वयं अपने यहाँ वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न नवजागरण की एक महान् पंरपरा है जिससे हिंदी के सर्जनात्मक साहित्य का सीधा संबंध है।’’13 ध्यान देने की बात है कि 1982 . तक के आलेखों में नामवर सिह हिंदी नवजागरण शब्दबंध के प्रति स्वीकार एवं उसके विचारों पर सहमत होते हुए दिखाई पड़ते है। यहाँ तक विवाद का कोई चिह्न दिखाई नहीं पड़ता है।

     नामवर सिंह 1983 . तक इस शब्दबंध को बड़ी सहजता से समर्थन देते हुए दिखाई पड़ते हैं; और उसे स्वीकार करते हुए इस शब्दबंध को पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी से जोड़ते हैं।आलोचनात्रैमासिक के नवांक- 66 जुलाई-सिंतबर- 1983 . मेंचंद्रधर शर्मा गुलेरी और हिंदी नवजागरणशीर्षक संपादकीय लिखते हैं। इस में चंद्रधर शर्मा गुलेरी को लोक और शास्त्र की पंरपरा के संवाहक आचार्य के रूप में मान्यता देते हैं। यहाँ नामवर सिंह हिंदी नवजागरण की संकल्पना मेंलोक और शास्त्रके संगम को जोड़कर देखते हैं। उनकी मान्यता है कि ‘‘लोक और शास्त्र के इसी संगम से पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने हिंदी नवजागरण का शंख फूंका था। साथ देनेवाले स्वर और भी थे- मुखर भी और महत्वपूर्ण भी पर उनमें सबसे दूरगामी, सबसे आकर्षक और सबसे हृद्य स्वर गुलेरी जी का ही था।’’14

     इसी संपादकीय में नामवर सिंह चंद्रधर शर्मा गुलेरी को हिंदी नवजागरण के अग्रदूत रूप में स्थापित करते हैं। कहना सही होगा कि आरंभ में नामवर सिंह हिंदी नवजागरण की संकल्पना को विस्तार देते हुए, स्वीकार करते हुए एवं समृद्ध करते हुए दिखाई पड़ते हैं। नामवर सिंह नागार्जुन, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन मनोहरश्याम जोशी तक को हिंदी नवजागरण की अवधारणा में परिगणित करते हैं। वस्तुतः नामवर सिंह हिंदी नवजागरण की अवधारणा में अपने संदर्भों को जोड़कर उसे समृद्ध करते हुए दिखाई पड़ते हैं। यदि ध्यान दें तो, नामवर जी की विस्तृत स्वीकृति के बाद मैनेजर पांडेय साहित्य और इतिहास-दृष्टि (प्रथम संस्करण-1981 .) में रामविलास शर्मा की हिंदी जाति और हिंदी नवजागरण की अवधारणा की विवेचना करते हुए दिखाई पड़ते हैं। मैनेजर पांडेय हिंदी नवजागरण की विशेषताओं के उल्लेख के बावजूद भी इस संकल्पना पर कुछ प्रश्न करते हुए अवश्य दिखाई पड़ते है।15

     मैनेजर पांडेय अपनी विवेचना में पाते हैं कि ‘‘रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण और उस साहित्य की विशेषताओं का जो विश्लेषण किया है, उसमें भारतीय नवजागरण से हिंदी जागरण की भिन्नता पर जितना ध्यान है उतना एकता पर नहीं हैं।’’16 इसके अतिरिक्त- यह ठीक है, 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम का केंद्र हिंदी प्रदेश था, लेकिन देश की बाक़ी जनता उसके विरूद्ध या उससे उदासीन नहीं थी।’’17 तथा ‘‘हिंदी नवजागरण के स्वरूप और भारतीय नवजागरण से उसके संबंध पर विचार करते समय पृथकता के साथ व्याप्ति, अलगाव के साथ एकता और जातीय विशेषताओं के साथ सामान्य राष्ट्रीय विशेषताओं पर भी ध्यान देना चाहिए।’’18

     मैनेजर पांडेय स्पष्ट करते हैं कि ‘‘रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण की विचारधारा का विवेचन करते समय कहते हैं कि इसमें जो कमज़ोरियाँ हैं वे बाहर से आई हुई हैं। ...यह विचित्र विचार प्रणाली है कि हिंदी नवजागरण और उसके साहित्य की सारी अच्छाइयाँ अपनी हैं और सारी बुराइयाँ बाहर से आई हुई हैं। यही है मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू।’’19 स्पष्ट है कि मैनेजर पांडेय आरं में हीहिंदी नवजागरणसंकल्पना की सीमाओं को उद्घाटित करते हुए दिखाई पड़ते हैं जबकि नामवर सिंह इस संकल्पना को अपनी सगर्व स्वीकृति प्रदान कर चुके थे।

     मैनेजर पांडेय की इन आपत्तियों का रामविलास शर्मा नेभारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँमें प्रतिक्रिया दी है। किंतु ध्यान देने की बात है कि इन आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं के बावजूदहिंदी नवजागरणपर आरंभ में अत्यंत स्वीकृतिपरक आलोचनाएँ एवं सम्मतियाँ ही दिखाई पड़ती हैं। किंतु आश्चर्य तब होता है जब 1985-86 . के बाद नामवर सिंह रामविलास शर्मा कीहिंदी नवजागरणकी संकल्पना का खंडन करते हुए दिखाई पड़ते हैं। इस संकल्पना पर तीव्र प्रहार नामवर सिंहआलोचनापत्रिका में प्रकाशितहिंदी नवजागरण की समस्याएँ, शीर्षक संपादकीय से करते हैं। ज्ञातव्य है कि सन् 1985-86 को दो लेखकों के शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा था। 1985 . भारतेंदु हरिश्चंद्र की सौवीं पुण्यतिथि के रूप में एवं राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जन्मशताब्दी वर्ष के रूप मनाया जा रहा था। रामविलास शर्मा की दृष्टि में भारतेंदुहिंदी नवजागरणके अग्रदूत हैं एवं मैथिलीशरण गुप्त जी को हिंदी नवजागरण एवं महावीरप्रसाद द्विवेदी युग के अप्रतिम उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया जा सकता है।

     नामवर सिंह हिंदी नवजागरण की संकल्पना का विरोध किन कारणों से करते हैं, उनका वह स्पष्टीकरण भी देते हैं। रामविलास शर्मा के जीवित रहते हुए उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि-उन्नीसवीं सदी के जिस नवजागरण की तस्वीर पेश की जा रही थी वह दरअसल हिंदू नवजागरण था। यह बात राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जन्मशती के संदर्भ में अनेक विद्वानों द्वारा दुहराई गई। यह बात बड़ी विचित्र लगी कि इतने वर्षों बाद आज इस माहौल में लेखकों का एक खासा समुदाय उन्नीसवीं सदी के नवजागरण को हिंदू नवजागरण के रूप में स्थापित कर रहा है और यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि प्राचीन हिंदू या वैदिक भारत के पुनरुत्थान के द्वारा ही हम नए युग में प्रवेश कर सकते हैं।’’20

     ‘आलोचनात्रैमासिक- नवांक 79 (अक्टूबर-दिसंबर-1986 .) मेंहिंदी नवजागरण की समस्याएँशीर्षक संपादकीय में नामवर सिंह हिंदी नवजागरण की संकल्पना की पड़ताल करते हुए दिखाई पड़ते हैं। वस्तुतःआलोचनाका नवांक- 79 ही वह अंक है जहाँ से डॉ. रामविलास शर्मा कीहिंदी नवजागरण की संकल्पनासे उनका मतभेद शुरू होते हुए दिखाई पड़ता है। नामवर सिंह अपने वक्तव्य में हिंदी नवजागरण की संकल्पना प्रस्तुत करने का श्रेय डॉ. शर्मा को देते हुए कहते हैं कि ‘‘भारतेंदु हरिश्चंद्र के उदय के साथ हिंदी में एक नए युग का आरंभ हुआ, यह मान्यता तो बहुत पहले से प्रचलित रही है, किंतु इस नए युग कोनवजागरणनाम देने का श्रेय हिंदी में डॉ. रामविलास शर्मा को है... उन्होंनेनवजागरणही नहीं बल्किहिंदी नवजागरणकी संकल्पना प्रस्तुत की।’’21 नामवर सिंह कहते हैं कि शर्मा जी केनवजागरणशब्दबंध का ‘‘तात्पर्य संभवतः रिनेसां से है’’22 और बांग्ला नवजागरण की महान् विभूति बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की दृष्टि को उल्लिखित करते हुए कहते हैं कि उनकी दृष्टि में ‘‘रिनेसांस पंद्रहवीं शताब्दी के भारत का सांस्कृतिक जागरण था।’’23 इस प्रकार ‘‘यूरोप के रिनेसां के समान भारत में भी पंद्रहवीं शताब्दी में नवजागरण की लहर उठी थी। सामान्यतः इसे अपने यहाँ भक्ति आंदोलन कहा जाता है। सवाल यह है किरिनेसांकिसे कहा जाए- पंद्रहवीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन को या उन्नीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक नवजागरण को’’24 इस संदर्भ में नामवर सिंह का यह प्रश्न है कि ‘‘भारत का उन्नीसवीं शताब्दी का सांस्कृतिक नवजागरणरिनेसांथा तो पंद्रहवीं शताब्दी का सांस्कृतिक नवजागरण क्या था?’’25 इस प्रकारनवजागरणशब्दबंध का आशय क्या लिया जाए- क्या उसेरिनेसांकहा जाए जिसकी संभावना नामवर सिंह संपादकीय में व्यक्त करते हैं। या उस शब्दबंध को ‘‘पुनरुज्जीवन, पुनरुन्नयन, पुनर्जीवीकरण, पुनरुत्थान नवप्रभात, पुनरोदय, लोकजागरण, पुनर्जागरण एवं नवजागरण संज्ञाएँ तो प्रचलित हैं ही, रिनेसां, रिजरेक्शन, रिवाइवलिज़्म, अवेकनिंग और एनलाइटमेंट’’26 आदि में किस रूप में ग्रहण किया जाए? इस विषय पर पर्याप्त मतभेद रहे हैं। जबकि रामविलास शर्मानवजागरणशब्दबंध को अँगरेज़ी के किसी शब्द के पर्याय या समानांतर रखकर नहीं देखते हैं। प्रदीप सक्सेना ने पत्राचार द्वारा डॉ. रामविलास शर्मा से यह प्रश्न किया कि आपनवजागरणको अँगरेज़ी के किस शब्द के समानांतर या पर्याय के रूप में रखकर देखते हैं।इसके प्रत्युत्तर में डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- अँगरेज़ी के किसी शब्द के नहीं।27

     इसीलिए नामवर सिंह स्पष्ट करते हैं किउन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय नवजागरण कोरिनेसांकहना ज़्यादा ठीक नहीं, क्योंकि इस काल के नए युग के उत्थान में सक्रिय विचारकों एवं अग्रदूतों के प्रेरणास्रोत पंद्रहवीं शताब्दी के चिंतक एवं रचनाकार होकर, ‘रिनेसांके बाद के एनलाइटेनमेंट का काल था, उसके चिंतक एवं रचनाकार थे। यहाँ भ्रम बना रहे किरिनेसांकिसे कहें, इसलिए डॉ० रामविलास शर्मा नेपंद्रहवीं शती के सांस्कृतिक जागरण के लिएलोक जागरणऔर 19वीं शती के सांस्कृतिक जागरण के लिएनवजागरणशब्द का प्रयोग किया है।’’28 वस्तुतः नामवर सिंह भी पंद्रहवीं शताब्दी के जागरण के लिएलोकजागरणऔर 19वीं सदी के सांस्कृतिक जागरण के लिएनवजागरणशब्द को उसी रूप में स्वीकार करने की बात करते हैं।’’29 इसके स्वीकार करने सेलोकजागरणऔरनवजागरण’ ‘‘की सांस्कृतिक प्रक्रियाओं के बीच परंपरा से संबंध भी बना रहता है और अंतर भी स्पष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त यूरोपीय इतिहास के अनावश्यक अनुषंग से मुक्ति भी मिल जाती है’’30 उन दोनों के बीच का अंतर स्पष्ट करते हुए नामवर सिंह कहते हैं कि ‘‘उन्नीसवीं शताब्दी का नवजागरण भक्तिकालीन लोकजागरण से भिन्न इस बात में है कि यह उपनिवेशवादी दौर की उपज है, इसीलिए ऐतिहासिक अंतर्वस्तु भी भिन्न है... इसके पुरस्कर्ता और विचारक नए शिक्षित मध्यवर्ग के हैं, जिन्हें बांग्ला में भद्रलोक की संज्ञा दी गई है।’’31 इसप्रकार नवजागरण के अग्रदूत मध्यवर्गीय या उच्चवर्गीय समाज से आए। इन मध्यवर्गीय समाज की समस्या ‘‘भारतेंदु के शब्दों मेंस्वत्व निज भारत गहेहै जो कि नामवर सिंह के मतानुसार-भारतीय नवजागरण की मूल समस्या है... यह स्वत्व-प्राप्ति की पहली शर्त है।’’32 इस प्रकार नामवर सिंह की दृष्टि में नवजागरण की पहली समस्याअस्मिताकी समस्या है। इसके लिए राजनीतिक स्वाधीनता का होना अनिवार्य है। जो कि उन्नीसवीं शती के नवजागरण में कम ही दिखाई पड़ता है। नामवर सिंह का विचार है कि-नवजागरणकालीन प्रकाशित साहित्य में राजनीतिक स्वाधीनता का स्पष्ट स्वर कम ही सुनाई पड़ता है। पहले ईस्ट इंडिया कंपनी और फिर महारानी विक्टोरिया के शासन काल में राज के विरुद्ध निश्चय ही किसानों के छिटपुट विद्रोह बराबर होते रहे, जिनमें सबसे संगठित और सशक्त सन् सत्तावन की राजक्रांति है, फिर भी समकालीन शिष्ट साहित्य में उसकी गूँज सुनाई नहीं पड़ती।’’33 इसलिए नामवर सिंह स्पष्ट करते हैं कि- ‘‘हिंदी नवजागरण की विशिष्टता बतलाने के लिए सन् सत्तावन की राजक्रांति को उसका बीज मानना कठिन है भारतेंदु तथा उनके मंडल के लेखक सन् सत्तावन की राजक्रांति की अपेक्षा बंगाल के उस नवजागरण से प्रेरणा प्राप्त कर रहे थे जो उससे पहले शुरू हो चुका था।’’34

     इसके अतिरिक्त ‘‘यदि हिंदी नवजागरण को सन् सत्तावन की राजक्रांति का उत्तराधिकारी कहने का अर्थ यह है कि वह अँगरेज़ी राज का विरोध करने में सबसे आगे था तो इसके भी पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलते।’’35 साथ ही ‘‘सन् सत्तावन की राजक्रांति को हिंदी नवजागरण का गोमुख मानने में एक कठिनाई यह भी है कि राजक्रांति के नितांत असांप्रदायिक पक्ष का संदेश हिंदी नवजागरण तक पूरा-पूरा नहीं पहुँच सका। हिंदी प्रदेश के नवजागरण के सम्मुख यह बहुत गंभीर प्रश्न है कि यहाँ का नवजागरण हिंदू और मुस्लिम दो धाराओं में क्यों विभक्त हो गया।’’36 स्पष्ट है कि उपर्युक्त मान्यताएँ डॉ० रामविलास शर्मा की हिंदी नवजागरण की धारणा के प्रस्थान बिंदु पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं। नामवर सिंह की मान्यता में यह स्पष्ट है कि उन्नीसवीं शती के नवजागरण का प्रस्थान बिंदु 1857 को नहीं माना जा सकता है। प्रदीप सक्सेना, डॉ० रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की मान्यताओं को दो छोरों के रूप में देखते हैं, जिसमें रामविलास शर्मा द्वारा 1857 को ही केंद्रीयता देकर ‘‘भारतेंदु की एक पंक्ति से ही 1857 को नवजागरण से और हिंदी से जोड़ने की प्रेरणा पाकर अकेले हिंदी का नवजागरण’’37 की संकल्पना प्रस्तुत करते हैं, और ‘‘उर्दू जिसमें विपुल साहित्य उपलब्ध था उसे हिंदी जाति की विरासत से बाहर कर’’38 देते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ नामवर सिंह के उपर्युक्त मत को प्रदीप सक्सेना दुर्भाग्यपूर्ण बताते हैं39 कि ‘‘जिस प्रकार रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण में उर्दू साहित्य को बाहर रखते हैं ठीक उसी प्रकार की यह धारणा भीशिष्ट साहित्य में 1857 का उल्लेख नहीं मिलता है कहकर नामवर सिंह उसे संपूर्ण शिष्ट साहित्य से बाहर कर देते हैं।’’40 अर्थात् वह उर्दू साहित्य में उपलब्ध 1857 संबंधी विपुल सामग्री को बिल्कुल ही नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

     डॉ. रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण को ‘‘मूलतः बुद्धिवादी और रहस्यवाद विरोधी’’41 मानते हैं। इसके प्रतिपक्ष में नामवर सिंह का मत है कि-हिंदी नवजागरण में प्रखर बुद्धिवाद की प्रधानता भी संदिग्ध ही दिखाई पड़ती है। इस नवजागरण के अग्रदूत स्वयं भारतेंदु में वैष्णव भावुकता कहीं अधिक है।42 रामविलास शर्माहिंदी नवजागरण में रहस्यवाद विरोध देखते हैंतो नामवर सिंह का इस संदर्भ में मत है कि ‘‘वह रहस्यवाद उस नववेदांत की देन है जिसका एक रूप रवींद्रनाथ में विकसित हुआ तो दूसरा रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद में।’’43

     नामवर सिंह उसेभारतीय नवजागरण की संश्लिष्ट प्रक्रियामानते हुए समूचे भारतीय नवजागरण पर विशेष बल देने की बात करते हैं। स्पष्ट करते हैं किआज उन्नीसवी शताब्दी के भारतीय नवजागरण के इस संश्लिष्ट रूप पर बल देने की आवश्यकता विशेष रूप से पड़ी है’’44 इसकी आवश्यकता इसलिए पड़ी है कि इस हिंदी नवजागरण की संकल्पना को ‘‘इकहरे साँचे में ढालकर तरह-तरह से हस्तगत करने की कोशिश की जा रही है’’45 इसी के साथ इस बहस को जारी रखने के पीछे के मंतव्य को स्पष्ट करते हुए अपने संपादकीय में कहते हैं कि- जिस प्रकार की समस्याएँ उठ रही हैं उससे लगता है कि-आज की समस्त समस्याओं के लिए यदि कोई ज़िम्मेदार है तो उन्नीसवी शताब्दी का नवजागरण। यदि आज के बुद्धिजीवियों में औपनिवेशिक मानसिकता है तो नवजागरण के फलस्वरूप, और अध्यात्मवाद, रहस्यवाद अंधविश्वास आदि में वृद्धि हो रही है तो वह भी उसी के कारण। हिंदू मुस्लिम-सिख सांप्रदायिकता के विष बीज भी वहीं के हैं और भाषायी झगड़ों और क्षेत्रीय अलगाववाद की जड़ें भी ढूँढकर उन्नीसवीं शताब्दी में बताई जा रही है।’’46 और ‘‘ये तमाम बातें उन्नीसवीं शताब्दी के अंतर्गत अँगरेज़ी उपनिवेशवाद और भारतीय सभ्यता के बीच चलनेवाले उस वस्तुगत संघर्ष की जटिलता और संश्लिष्टता की ओर संकेत करती है।’’47 इसी कारण हिंदी नवजागरण की संकल्पना पर बहस होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त नामवर सिंह का मत है कि-नवजागरण पर विचार करना मुझे इसलिए भी ज़रूरी लगता है कि अपनी अस्मिता और अपनी जड़ों की खोज करते हुए परंपरा के प्रति आलोचनात्मक रुख से परिचित होना चाहिए।’’48

     ध्यातव्य है कि नामवर सिंह नेहिंदी नवजागरणकी संकल्पना पर बहस के लिएआलोचनापत्रिका को एक मंच बनाया जहाँ नवजागरण संबंधी मान्यताओं पर विचार-विमर्श हो सके।आलोचनापत्रिका का नवांक- 79 ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र और मैथिलीशरण गुप्तपर केंद्रित है और दोनों विभूतियों को हिंदी नवजागरण के परिप्रेक्ष्य में रखकर ही देखा गया है। यहाँनवजागरणकी प्रक्रिया और परंपरा के प्रगतिशीत पक्षों के प्रति आस्था रखते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र और मैथिलीशरण गुप्त का मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है।आलोचनापत्रिका का यह अंकअपनी परंपरा के प्रति आलोचनात्मक रुख से परिचितकराता है जिससेअपनी अस्मिता और अपनी जड़ों की खोजकी जा सके।

     इन दो विद्वान आलोचकों के अतिरिक्त कुछ विद्वान ऐसे भी है, जो निंरतर हिंदी नवजागरण की संकल्पनाओं पर कार्य कर रहे हैं। विद्वानों का एक वर्ग ऐसा हैं जो रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की मान्यताओं की पड़ताल करते हुए उनसे अपनी स्पष्ट असहमति व्यक्त करता है। यह वर्ग स्पष्ट करता है कि केवल हिंदी नवजागरण बल्कि संपूर्णनवजागरणशब्दबंध की पुनर्समीक्षा करनी होगी तथा उसे अखिल भारतीय नवजागरण के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोड़ना होगा। इस प्रकार की संकल्पना के प्रयोक्ता, मैनेजर पांडेय, पुरुषोतम अग्रवाल, प्रदीप सक्सेना आदि हैं। दूसरी तरफ हिंदी नवजागरण पर काम करनेवाले कुछ विद्वान ऐसे हैं जो डॉ. रामविलास शर्मा की मान्यताओं को नवीन रूपों एवं पद्धतियों से स्पष्ट करते हुए देखे जा सकते हैं, इस वर्ग मे प्रमुख रूप से डॉ. शंभुनाथ और कर्मेन्दु शिशिर जैसे विद्वान आते हैं। इन के अतिरिक्त हिंदी नवजागरण की संकल्पना के एक गंभीर अध्येता डॉ. वीरभारत तलवार है जो हिंदी नवजागरण की एक अत्यंत भिन्न छवि प्रस्तुत करते हैं। इनकी हिंदी नवजागरण की संकल्पना अन्य विद्वानों की संकल्पना से सर्वथा भिन्न एवं नवीन मान्यताओं एवं नूतन निष्कर्षों से युक्त है।

     दलित एवं स्त्री-विमर्श के व्यापक चर्चा के कारण हिंदी नवजागरण की संकल्पना में नवीन अर्थ एवं मान्यताएँ उभर कर रही है जो हिंदी नवजागरण की प्रचलित छवियों का वह सीधा प्रत्याख्यान करते हुए दिखाई पड़ती हैं।

     स्पष्ट है किहिंदी नवजागरणएक संकल्पना रहकर वह एक बहुवचनीय शब्दबंध के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा है। इस संकल्पना का जहाँ हिंदी प्रदेश से अत्यंत गहरा रिश्ता है, वहीं उसका संबंध भारतीय नवजागरण की व्यापक संकल्पना से भी है। इसके अतिरिक्त इसका व्यापक एवं घनिष्ट संबंध राष्ट्रीय जागरण एवं स्वाधीनता आंदोलन से भी है। इस प्रकारहिंदी नवजागरणसंकल्पना का एक व्यापक एवं संश्लिष्ट राष्ट्रीय चरित्र स्पष्ट उभर कर आता है।

     यह संकल्पना गंभीर अध्ययन एवं वस्तुनिष्ठ आकलन की माँग करती है। जिससे इस के वास्तविक अर्थ को उद्घाटित किया जा सके। इसके राष्ट्रीय चरित्र का स्वरूप उद्घाटित किया जा सके तथा इसकाभारतीय नवजागरणके व्यापक परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन और उसके उन सूत्रों की तलाश की जा सके जो राष्ट्रीय आंदोलन की व्यापकतर बनाने में अपनी केंद्रीय भूमिका का निर्वाह करती है।

     हिंदी नवजागरण संबंधी इस बहस का जन्म हिंदी आलोचना में ही हुआ और हिंदी आलोचना में ही इस बहस का स्वरूप एवं संकल्पनात्मक विकास देखा जा सकता है। इस संकल्पना को भारतीय राजनीति, इतिहास, दर्शन, समाज विज्ञान, साहित्य एवं संस्कृति के बहुआयामी संदर्भों के बिना समझा ही नहीं जा सकता। स्पष्ट है कि हिंदी नवजागरण संबंधी इस बहस ने हिंदी आलोचना को अत्यंत समृद्ध किया। इसी बहस ने हिंदी आलोचना कीपरंपरा का मूल्यांकनसंबंधी सूत्र को और भी मज़बूत किया। वहीं यह संकल्पना हिंदी आलोचना की धारा कोसमकालीन रचनाशीलतामें भी उसके संदर्भ सूत्र तलाशने का मार्ग प्रशस्त करती है।

     यह रेखांकित करने योग्य तथ्य है कि हिंदी नवजागरण की संकल्पना एक अंतरानुशासनिक अवधारणा है, जिसका अपना राष्ट्रीय चरित्र एवं महत्व है। इस अवधारणा ने हिंदी आलोचना के स्वरूप को अंतरानुशासनिक अध्ययन पद्धतियों एवं विभिन्न भाषाओं में घटित इस प्रकार की प्रक्रियाओं से जोड़कर उसे अत्यंत व्यापक स्वरूप प्रदान करने का कार्य किया। इसके अतिरिक्त इस संकल्पना ने हिंदी आलोचना को कई प्रमुख आलोचक एवं चिंतकों की प्रतिभा से परिचित करवाया प्रदान किए। हिंदी नवजागरण जैसे व्यापक सांस्कृतिक एवं परिवर्तनकारी घटनाक्रम में ही हिंदी गद्य का प्रवर्तन देखा जा सकता है। इसी गद्य के विकास के अंतर्गत ही हिंदी आलोचना का आविर्भाव होता है। स्पष्ट है हिंदी आलोचना अपनी परंपरा की खोज का सम्यक् मूल्यांकन हिंदी नवजागरण की संकल्पना में करती हैं। इस प्रकार कहना सही होगा कि-हिंदी आलोचना को समृद्ध करने में हिंदी नवजागरण की संकल्पना का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है।

संदर्भ :
1.   सिंह, नामवर, ‘‘हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’, आलोचनात्रैमासिक-नवांक 79 अक्तूबर-दिसंबर 1986 . संपादकीय-पृ-1
2.   शर्मा, रामविलास; महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1977, भूमिका, पृ. 09
3.   वही, पृ. 12
4.   वही, पृ. 12
5.   वही, पृ. 15
6.   वही, पृ. 179
7.   वहीं, पृ. 179
8.   वही, पृ. 179
9.   वही, पृ. 180
10.  वही, पृ. 180
11.  देखें, वही, पृ.179-180
12.  सक्सेना, प्रदीप; अठारह सौ सत्तावन और भारतीय नवजागरण, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 1996, पृ. 111
13.  सिंह, नामवर, केवल जलती मशाल, संपादकीय, आलोचना त्रैमासिक-नवांक 60-61 जनवरी-जून-1982 . पृ. 04
14.  सिंह, नामवर, ‘चंद्रधर शर्मा गुलेरी और हिंदी नवजागरणआलोचनात्रैमासिक, संपा. नामवर सिंह, नवांक-66, जुलाई-सितंबर-1983 ईं. पृ. 6
15.  देखें पांडेय, मैनेजर, साहित्य और इतिहास दृष्टि, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली द्वितीय संस्करण-2000, पृ. 189-193
16.  वहीं, पृ. सं. 191
17.  वही, पृ. सं. 191
18.  वही, पृ. सं. 191
19.  वही, पृ. सं. 191
20.  नामवर सिंह का वक्तव्य-साक्षात्कार कर्ता असद जै़दी और मंगलेश डबराल, जनसत्ता, 03 मई, 1987 ., अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया, संपा. समीक्षा ठाकुर, कहना होगा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1994, पृ. 140 
21.  सिंह, नामवर; संपादकीयहिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ ‘आलोचनानवांक-79 अक्टूबर-दिसंबर, 1986, पृ. 01
22.  वही, पृ. 1
23.  वही, पृ. 1
24.  वही, पृ. 02
25.  वही, पृ. 2
26.  सक्सेना, प्रदीप; अठारह सौ सत्तावन और भारतीय नवजागरण, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 1996, पृ. 95-96
27.  देखें-रामविलास द्वारा प्रदीप सक्सेना के पत्र के प्रत्युत्तर में लिखे गया पत्र संकलन-संपादन; प्रदीप सक्सेना, ‘प्रतिरोध ही सौंदर्य हैं’- रामविलास शर्मा महाविशेषांक-उद्भावना-नवंबर-दिसंबर, 2012 पृ. 710
28.  सिंह, नामवर, ‘हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’, ‘आलोचनात्रैमासिक-नवांक 79 अक्तूबर-दिसंबर 1986 . संपादकीय-पृ-1, पृ. 2
29.  देखें वही, पृ. 2
30.  वही, पृ. 2 
31.  वही, पृ. 3 
32.  वही, पृ. 3 
33.  वही, पृ. 2
34.  वही, पृ. 6 
35.  वही, पृ. 6
36.  वही, पृ. 6
37.  सक्सेना, प्रदीप, अठारह सौ सत्तावन और भारतीय नवजागरण, पृ. 439
38.  वही, पृ. 439
39.  देखें वहीं, पृ. 436
40.  वही, पृ. 436 
41.  शर्मा, रामविलास; महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1977, पृ. 179
42.  सिंह, नामवर, ‘हिंदी नवजागरण की समस्याएं’, ‘आलोचनात्रैमासिक-नवांक 79 अक्तूबर-दिसंबर 1986 . संपादकीय-पृ-सं-7
43.  वही, पृ. 07
44.  वही, पृ. 07
45.  वही, पृ. 08
46.  वही, पृ. 08 
47.  वही, पृ. 08 
48.  नामवर सिंह का साक्षात्कारअब तक क्या किया, जीवन क्या जिया, कहना होगा, में सकलित, पृ. 141

डॉ. जावेद आलम
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,अलीगढ़-202002


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-51, जनवरी-मार्च, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव छायाकार : डॉ. दीपक कुमार
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