शोध सार : बीसवीं शती के अंतिम दशक की हिंदी आलोचना में ‘हिंदी नवजागरण’ शब्दबंध सर्वाधिक चर्चित रहा है। बंगला नवजागरण एवं मराठी नवजागरण के समान हिंदी नवजागरण जैसी मान्यता उभरकर सामने आई और इस विषय पर गंभीर बहसें भी हुईं। उन बहसों में ‘हिंदी नवजागरण’ शब्दबंध एक संश्लिष्ट एवं बहुवचनीय संकल्पना के रूप में विकसित होता हुआ दिखाई देता है। वस्तुतः हिंदी आलोचना में हिंदी नवजागरण पर गंभीर चर्चाएँ हुई हैं किंतु हिंदी आलोचना में उसे संकल्पना के रूप में ग्रहण करने का प्रायः अभाव रहा है। प्रस्तुत शोधालेख में ‘हिंदी नवजागरण’ शब्दबंध हिंदी, में आलोचना की एक संकल्पना के रूप में किस प्रकार विस्तार पाता है, इस पर विचार करने का प्रयास किया गया हैै।
बीज शब्द : हिंदी नवजागरण, हिंदी जाति, ‘अठारह सौ सत्तावन’ और हिंदी साहित्य, भारतेंदु युग।
मूल आलेख : नवजागरण को एक ऐसे व्यापक क्रांतिकारी परिवर्तनकारी प्रक्रिया के रूप में चिह्नित किया जाता है, जो किसी सामाजिक इकाई की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था में अपना रूपाकार ग्रहण करता है। नवजागरण की यह परिवर्तनकारी प्रक्रिया किसी भी नवजागरणकालीन सामाजिक इकाई की प्रत्येक संस्थाओं में सहजता से लक्षित की जा सकती है। इस शब्दबंध का प्रयोग इतने व्यापक स्तर किया जाता है कि इससे किसी एक समाज की अस्मिता, राष्ट्रीयता एवं जातीयता-बोध की भी पहचान की जाती है। इसके अतिरिक्त एक भौगोलिक क्षेत्र में रहनेवाली कई सामाजिक इकाइयाँ अपनी अलग-अलग जातीय-बोध, अस्मिताओं एवं राष्ट्रीयताओं को एक साथ समाहित करते हुए भी एक ही नवजागरण के अर्थ को व्यापक एवं संश्लिष्ट आयामों से युक्त कर सकती हैं। स्पष्ट है कि ‘नवजागरण’ एक बहुस्तरीय एवं बहुआयामी अर्थ व्यंजनाओं एवं जटिलताओं से युक्त बहुवचनीय प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया जिस किसी भी सामाजिक-साँस्कृतिक इकाई के साथ जुड़ता है, उसे बहुअर्थी भावाभिव्यंजनाओं एवं चेतना से युक्त कर देता है।
आधुनिक भारत के आरंभिक इतिहास, राजनीति एवं समाज में होनेवाले क्रांतिकारी परिवर्तन को नवजागरण की एक व्यापक प्रक्रिया में रूप में चिह्नित किया जाता है। भारत में नवजागरण की यह प्रक्रिया भिन्न-भिन्न जातीय-बोध एवं भाषायी अस्मितावाले सामाजिक इकाई में प्रकट हुआ जिन्हें अलग-अलग रूप में चिह्नित किया जाता रहा है। जैसे बंगला नवजागरण, मराठी नवजागरण आदि। ये अस्मिताएँ इतनी प्रभावकारी एवं क्रियाशील रही हैं कि इन्हें अलग-अलग संपूर्ण अस्तित्व के रूप में स्वीकृत किया जाता है। भारत के विविध भू-भागों में होनेवाली नवीन जागृति जो क्षेत्रीय विविधताओं से जुड़कर भारतीय नवजागरण के व्यापक अर्थ में समाहित होकर स्वयं तथा क्षेत्रीय नवजागरण के स्वरूप को और भी अधिक विस्तृत कर देते हैं।
19वीं शती में बंगला भाषी प्रदेश एवं मराठी भाषी प्रदेश में जिस प्रकार के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तन हुए तथा उनसे प्रदेशों में जो नव जागृति आई, उन्हें क्रमशः ‘बंगला नवजागरण’ एवं ‘मराठी नवजागरण’ के रूप में चिह्नित किया गया। कुछ उसी प्रकार के क्रांतिकारी परिवर्तन हिंदी भाषी प्रदेश में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दिखाई पड़े। हिंदी भाषी प्रदेश में होनेवाले इस संश्लिष्ट एवं बहुआयामी परिवर्तन को भी नवजागरण की संज्ञा से अभिहित किया जाता है।
ध्यान देने की बात है कि हिंदी आलोचना एवं साहित्य में उन्नीसवीं शती के इस नवजागरण पर बीसवीं शती के आठवें और नौवे दशक में अत्यंत तीव्र बहसें हुई। राजनीति, इतिहास और साँस्कृतिक धरातल पर केंद्रित होने के कारण यह सिर्फ़ साहित्यिक संकल्पना अथवा अवधारणा मात्र नहीं है बल्कि, इसका संबंध भारतीय राजनीति में आकार ग्रहण करनेवाली एक ‘विशेष राजनीति’ से भी है, जिसका स्वरूप 1980 ईस्वी के बाद दिखाई पड़ता है।
डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, हिंदी प्रदेश में होनेवाले परिवर्तन के लिए न केवल इस ‘नवजागरण’ शब्दबंध का प्रयोग किया, बल्कि उस पर गंभीर चिंतन करते हुए उसे ‘हिंदी नवजागरण’ की संकल्पना के रूप में विकसित करने का कार्य किया।’’’1
ध्यान देने की बात है कि यह शब्दबंध संभवतः सबसे पहले ‘आलोचना’ त्रैमासिक पत्रिका के माध्यम से ही हिंदी बुद्धिजीवियों एवं पाठकों तक पहुँची थी। डॉ. रामविलास शर्मा का ‘महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ शीर्षक शोधालेख नामवर सिंह के संपादन में ‘आलोचना’ त्रैमासिक के नवांक-40 जनवरी-मार्च 1977 ई0 में ही ‘आलोचना’ पत्रिका में एक पाद-टिप्पणी के साथ प्रकाशित है-’लेखक की शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाली पुस्तक ‘महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ की भूमिका तथा प्रथम अध्याय का आरंभिक अंश।’
डॉ. रामविलास शर्मा का दूसरा शोधालेख ‘हिंदी की जातीय पत्रिका: सरस्वती’ का भी प्रकाशन ‘आलोचना’ पत्रिका के नवांक 41 अप्रैल-जून 1977 ई में ही हुआ था। इसी लेख का संशोधित संस्करण उक्त पुस्तक में प्र्रस्तुत किया गया है।
कहा जा सकता है कि हिंदी नवजागरण शब्दबंध से पाठकों एव बुद्धिजीवियों से परिचित कराने में ‘आलोचना’ त्रैमासिक की अग्रणी भूमिका रही है। हिंदी आलोचना में यह शब्दबंध 1980 ईं के बाद विशेष रूप से चर्चा में रहा है। उन्नीसवीं शतीं के उत्तरार्द्ध एवं बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध तक का समय इस बहस के केंद्र में है। यह शब्दबंध इतना चर्चा में रहा कि इसने हिंदी आलोचना को बहुस्तरीय व संश्लिष्ट संदर्भों से परिचित कराने का काम किया। हिंदी आलोचना इस शब्दबंध से अत्यंत समृद्ध हुई है। यह शब्द मात्र साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन तक ही सीमित नहीं रहा है। बल्कि, उसे सामाजिक-राजनीतिक, साँस्कृतिक एवं आर्थिक आधारों से युक्त करने हुए पूरे युगीन परिवेश को संकलित करने के साथ-साथ उसके बहुस्तरीय एवं संश्लिष्ट स्वरूप को स्पष्ट करता हुआ दिखाई पड़ता है। इस प्रकार हिंदी आलोचना में प्रयुक्त ‘हिंदी नवजागरण’ शब्दबंध एक संकल्पना के रूप दिखाई पड़ता है। अतः ‘हिंदी नवजागरण’ को हिंदी आलोचना में एक संकल्पना के रूप ग्रहण किया जाना चाहिए। यह संकल्पना अतिविस्तृत, गूढ़ एवं बहुस्तरीय जटिलताओं से युक्त है। साहित्यिक चिंतकों, आलोचकों, इतिहासकारों एवं राजनीतिक विश्लेषकों ने इस शब्दबंध को बड़ी गंभीरता से ग्रहण किया और इस पर अपने विचार प्रकट किए जो मतभेदों के साथ-साथ बहुअर्थी एवं वैविध्य धरातल पर आधारित हैं।
डॉ0 रामविलास शर्मा की दृष्टि में 1857 ईं. की महाक्रांति हिंदी नवजागरण का प्रस्थान बिंदु है, यहीं से वह इसे एक संकल्पना का रूप देते हैं- “हिंदी प्रदेश में नवजागरण 1857 ईं. के स्वाधीनता-संग्राम से शुरू होता है।’’2
उनका स्पष्ट विचार है कि ‘‘ग़दर सन् 57 का स्वाधीनता संग्राम हिंदी प्रदेश के नवजागरण की पहली मंज़िल है। दूसरी मंज़िल भारतेंदु हरिश्चंद्र का युग है।’’3 इस संदर्भ को और स्पष्ट करते हुए वह कहते हैं कि ‘‘भारतेंदु युग का साहित्य व्यापक स्तर पर ग़दर से प्रभावित है, इसका पहला प्र्रमाण यह है कि इस साहित्य में किसानों को लक्ष्य करके उन्हें संगठित और आंदोलित करने की दृष्टि से जितना गद्य-पद्य लिखा गया है, उतना दूसरी भाषाओं में नहीं लिखा गया है।’’4
इस नवजागरण शब्दबंध को संकल्पना के रूप में विस्तार देते हुए कहते हैं कि-’’हिंदी नवजागरण का तीसरा चरण महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनके सहयोगियों का कार्यकाल है। सन् 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन आरंभ हुआ और 1920 ई. में द्विवेदी उससे अलग हुए। इन दो दशकों की अवधि को द्विवेदी युग कहा जा सकता है। इस युग की सही पहचान तभी हो सकती है जब हम एक तरफ ग़दर और भारतेंदु से उनका संबध पहचाने, और दूसरी तरफ छायावादी युग, विशेष रूप से निराला के साहित्य, से उसका संबंध पर ध्यान दें।’’5 रामविलास के मतानुसार ‘‘हिंदी नवजागरण की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं।’’6 ‘‘भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर महावीरप्रसाद द्विवेदी तक हिंदी नवजागरण के नवसूत्रधार पुराने चर्खे-करद्ये वाले भारत का स्वप्न नहीं देखते। वे देश में आधुनिक उद्योग धंधों के विकास के पक्षपाती हैं। गाँधीवादी विचारधारा से हिंदी नवजागरण का यह भेद उल्लेखनीय है।’’7 इसके अतिरिक्त ‘‘हिंदी नवजागरण के सूत्रधारों में महावीरप्रसाद द्विवेदी वैज्ञानिक दृष्टि, वैज्ञानिक प्रशिक्षण की आवश्यकता के प्रति सबसे अधिक सचेत हैं।...महावीरप्रसाद द्विवेदी इस वैज्ञानिक शिक्षा के साथ प्राचीन भारतीय संस्कृति का संबंध स्थापित करते हैं। रूढ़िवादी दृष्टि का खंडन करते हुए प्राचीन उपलब्धियों का पुनर्मूल्यांकन करते हैं। यह नवजागरण अतीत के प्रति भावुकता पुनरुत्थानवाद और रहस्यवाद की दृष्टि नहीं अपनाता। इसीलिए हिंदी में अद्वैतवाद, उपनिषदों और रवींद्रनाथ के रहस्यवाद की चर्चा 1920 से पहले कम होती है। हिंदी के लिए रहस्यवादी धारणाएँ उस पर हावी होती दिखाई देती है। पर पूरी तरह नहीं।’’8 रामविलास जी स्पष्ट करते हैं कि ‘‘हिंदी नवजागरण का महत्व केवल हिंदी प्रदेश के लिए नहीं है। उसकी उपर्युक्त विशेषताएँ सारे देश के लिए महत्वपूर्ण है।’’9 इसके अतिरिक्त ‘‘19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में और 20वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में समाज सुधार के आंदोलन अनेक प्रदेशों में चालू हुए। इनके समान हिंदी नवजागरण भी समाज का ढाँचा बदलना चाहता है। पुराने रीति-रिवाज़ों, संस्कारों और समाज के पुराने ढाँचे को क़ायम रखने वाले सामंती तत्व थे जिनका संरक्षक अँगरेज़ीराज था। इसीलिए सामंत वर्ग से टक्कर लिए बिना समाज सुधार की योजनाएँ पूरी न हो सकती थी।...हिंदी प्रदेश में समाज सुधार के आंदोलन प्रखर रूप से सामंत विरोधी हैं इसके साथ अँगरेजों की संरक्षक की भूमिका के विरोधी हैं।’’10 और ‘‘हिंदी नवजागरण की अपनी विशेषताएँ उसे बंगाल और गुजरात की स्थितियों से अलग करती हैं।’’11
इसके अतिरिक्त रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण के संदर्भ में स्पष्ट करते हैं कि नवजागरण की प्रकिया जनजागरणों की देन है’ और जनजागरणों की ‘‘शुरूआत तब होती है जब यहाँ बोलचाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगता है। जब यहाँ के विभिन्न प्रदेशों में आधुनिक जातियों का गठन होता है’ यह सामंत विरोधी जनजागरण है। यह हुआ पहला विशिष्ट दौर। ‘भारत में अँगेरेज़ी राज्य क़ायम करने के सिलसिले में प्लासी की लड़ाई से 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक जो युद्ध हुए वे जनजागरण के दूसरे दौर के अंतर्गत है।’ यह पहले दौर से भिन्न है। मुख्य लड़ाई विदेशी शत्रु से है यह साम्राज्यवाद विरोधी जनजागरण है, भारतेंदु युग इस जागरण से जुड़ा हुआ है।’ जिस सामाजिक इकाई में नवजागरण के कार्य संपन्न होते हैं उसे हम ‘जाति’ की संज्ञा देते हैं।’’12
इस प्रकार रामविलास शर्मा के नवजागरण की संकल्पना में हिंदी भाषा, और हिंदी जाति की अवधारणा सम्मिलित है। उनकी यह संकल्पना जातीय चेतना और भाषायी संदर्भों पर अवलंबित है। कहना सही होगा कि हिंदी नवजागरण की संकल्पना हिंदी जाति की जातीय चेतना और भाषायी अस्मिता को लेकर हो रहे निरंतर संघर्षों की परिणति है। ये रामविलास शर्मा के हिंदी नवजागरण संबंधी विशद् चिंतन के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र हैं। हिंदी नवजागरण संबंधी उनकी मान्यताएँ भारतेंदु हरिश्चंद्र पर लिखित पुस्तक-’भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ (1984 ई.), भारतीय नवजागरण और यूरोप (1996 ई.), भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश (1999 ई.) और हिंदी जाति का इतिहास (1986 ई.) में विस्तार पाती है।
इस प्रकार डॉ. राम विलास शर्मा हिंदी नवजागरण के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए उसे भारतीय नवजागरण के अंग के रूप में भी स्वीकार करते हैं। स्पष्ट है कि डॉ० रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण शब्दबंध 1857 की महाक्रांति का स्रोत बताते हुए उसे महाकवि निराला तक जोड़ते हैं और उसे वैचारिक आधार देते हुए एक संकल्पना के रूप में विकसित करते हैं। हिंदी आलोचना में उद्भूत यह संकल्पना हिंदी आलोचकों एवं विद्वानों के बीच साहित्यिक-साँस्कृतिक मुद्दे के रूप में प्रकट हुआ। इस बहस ने जहाँ हिंदी आलोचना को समृद्ध किया, वहीं हिंदी नवजागरण की संकल्पना, एकअर्थी एवं एकवचनीय नहीं रह गई, बल्कि उसे बहुवचनीय शब्दबंध के रूप में देखा जा सकता है। अतः ‘हिंदी नवजागरण’ एक बहुअर्थी संकल्पना है। ‘हिंदी नवजागरण’ की बहुवचनीयता क्या है तथा उनसे हिंदी साहित्य एवं हिंदी आलोचना कितनी प्रभावित हुई एवं उसके विकास में उनका क्या योगदान है? यह एक गंभीर अध्ययन का विषय है, यहाँ कुछ संक्षिप्त चर्चा की जा रही है।
ध्यान देने की बात है कि ‘हिंदी नवजागरण शब्दबंध को आरंभ में बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया। आरंभिक लेखन एवं आलोचना मंे इस शब्दबंध के प्रति स्वीकार्यता का भाव लक्षित किया जा सकता है। रामविलास शर्मा का ‘महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ शीर्षक शोधालेख ‘आलोचना’ त्रैमासिक के नवांक-40 में प्रकाशित हुआ था। उस अंक में संपादक नामवर सिंह का कोई संपादकीय क्या, कोई संपादकीय टिप्पणी भी प्रकाशित नहीं है।
यहाँ तक कि नामवर सिंह रामविलास शर्मा की सत्तरवीं वर्षगाँव पर ‘आलोचना’ पत्रिका का एक विशेष अंक (नवांक 60-61 जनवरी-जून 1982 ई.) संपादित-प्रकाशित कर चुके थे। इस अंक में ‘केवल जलती मशाल’ शीर्षक से नामवरजी ने संपादकीय लिखा। यह विशेषांक हिंदी जाति के प्रतिनिधि समालोचक और प्रगतिश्ील आलोचना के अग्रदूत डॉ. रामविलास शर्मा पर ‘आलोचना’ परिवार की ओर से अभिनंदन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
इस अंक के संपादकीय में भी नामवर सिंह हिंदी नवजागण शब्दबंध को स्वीकृति प्रदान करते हुए देखे जा सकते हैं। इसमें कहीं भी आलोचनात्मक दिखाई नहीं पड़ते हैं, बल्कि स्वीकृति का भाव दिखाई पड़ता है।
इस संपादकीय में नामवर जी रामविलास शर्मा के विचारों को आँखें खोलकर रख देने वाला सिद्ध करते हुए स्पष्ट करते हैं-’’हिंदी के जो विद्वान अभी तक राजा राममोहन राय और बंगाल पुनर्जागरण के विचारों से आधुनिक साहित्य के इतिहास के पन्ने रँगते आ रहे थे उनकी आँखों में अँगुली डालकर पहली बार बताया कि स्वयं अपने यहाँ वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न नवजागरण की एक महान् पंरपरा है जिससे हिंदी के सर्जनात्मक साहित्य का सीधा संबंध है।’’13 ध्यान देने की बात है कि 1982 ई. तक के आलेखों में नामवर सिह हिंदी नवजागरण शब्दबंध के प्रति स्वीकार एवं उसके विचारों पर सहमत होते हुए दिखाई पड़ते है। यहाँ तक विवाद का कोई चिह्न दिखाई नहीं पड़ता है।
नामवर सिंह 1983 ई. तक इस शब्दबंध को बड़ी सहजता से समर्थन देते हुए दिखाई पड़ते हैं; और उसे स्वीकार करते हुए इस शब्दबंध को पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी से जोड़ते हैं। ‘आलोचना’ त्रैमासिक के नवांक-66 जुलाई-सिंतबर-1983 ई. में ‘चंद्रधर शर्मा गुलेरी और हिंदी नवजागरण’ शीर्षक संपादकीय लिखते हैं। इस में चंद्रधर शर्मा गुलेरी को लोक और शास्त्र की पंरपरा के संवाहक आचार्य के रूप में मान्यता देते हैं। यहाँ नामवर सिंह हिंदी नवजागरण की संकल्पना में ‘लोक और शास्त्र’ के संगम को जोड़कर देखते हैं। उन की मान्यता है कि ‘‘लोक और शास्त्र के इसी संगम से पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने हिंदी नवजागरण का शंख फूंका था। साथ देनेवाले स्वर और भी थे-मुखर भी और महत्वपूर्ण भी पर उनमें सबसे दूरगामी, सबसे आकर्षक और सबसे हृद्य स्वर गुलेरी जी का ही था।’’14
इसी संपादकीय में नामवर सिंह चंद्रधर शर्मा गुलेरी को हिंदी नवजागरण के अग्रदूत रूप में स्थापित करते हैं। कहना सही होगा कि आरंभ में नामवर सिंह हिंदी नवजागरण की संकल्पना को विस्तार देते हुए, स्वीकार करते हुए एवं समृद्ध करते हुए दिखाई पड़ते हैं। नामवर सिंह नागार्जुन, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन व मनोहरश्याम जोशी तक को हिंदी नवजागरण की अवधारणा में परिगणित करते हैं। वस्तुतः नामवर सिंह हिंदी नवजागरण की अवधारणा में अपने संदर्भों को जोड़कर उसे समृद्ध करते हुए दिखाई पड़ते हैं। यदि ध्यान दें तो, नामवर जी के विस्तृत स्वीकृति के बाद मैनेजर पांडेय साहित्य और इतिहास-दृष्टि (प्रथम संस्करण-1981 ई.) में रामविलास शर्मा की हिंदी जाति और हिंदी नवजागरण की अवधारणा की विवेचना करते हुए दिखाई पड़ते हैं। मैनेजर पांडेय हिंदी नवजागरण की विशेषताओं के उल्लेख के बावजूद भी इस संकल्पना पर कुछ प्रश्न करते हुए अवश्य दिखाई पड़ते है।’15
मैनेजर पांडेय अपनी विवेचना में पाते हैं कि ‘‘रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण और उस साहित्य की विशेषताओं का जो विश्लेषण किया है, उसमें भारतीय नवजागरण से हिंदी जागरण की भिन्नता पर जितना ध्यान है उतना एकता पर नहीं हैं।’’16 इसके अतिरिक्त-’’यह ठीक है 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम का केंद्र हिंदी प्रदेश था, लेकिन देश की बाक़ी जनता उसके विरूद्ध या उससे उदासीन नहीं थी।’’17 तथा ‘‘हिंदी नवजागरण के स्वरूप और भारतीय नवजागरण से उसके संबंध पर विचार करते समय पृथकता के साथ व्याप्ति, अलगाव के साथ एकता और जातीय विशेषताओं के साथ सामान्य राष्ट्रीय विशेषताओं पर भी ध्यान देना चाहिए।’’18
मैनेजर पांडेय स्पष्ट करते हैं कि ‘‘रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण की विचारधारा का विवेचन करते समय कहते हैं कि इसमें जो कमज़ोरियाँ हैं वे बाहर से आई हुई हैं।...यह विचित्र विचार प्रणाली है कि हिंदी नवजागरण और उसके साहित्य की सारी अच्छाइयाँ अपनी हैं और सारी बुराइयाँ बाहर से आई हुई हैं। यही है मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू।’’19 स्पष्ट है कि मैनेजर पांडेय आरंम में ही ‘हिंदी नवजागरण’ संकल्पना की सीमाओं को उद्घाटित करते हुए दिखाई पड़ते हैं जबकि नामवर सिंह इस संकल्पना को अपनी सगर्व स्वीकृति प्रदान कर चुके थे।
मैनेजर पांडेय की इन आपत्तियों का रामविलास शर्मा ने ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ में प्रतिक्रिया दी है। किंतु ध्यान देने की बात है कि इन आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं के बावजूद ‘हिंदी नवजागरण’ पर आरंभ में अत्यंत स्वीकृतिपरक आलोचनाएँ एवं सम्मतियाँ ही दिखाई पड़ती हैं। किंतु आश्चर्य तब होता है जब 1985-86 ई. के बाद नामवर सिंह रामविलास शर्मा की ‘हिंदी नवजागरण’ की संकल्पना का खंडन करते हुए दिखाई पड़ते हैं। इस संकल्पना पर तीव्र प्रहार नामवर सिंह ‘आलोचना’ पत्रिका में प्रकाशित ‘हिंदी नवजागरण की समस्याएँ, शीर्षक संपादकीय से करते हैं। ज्ञातव्य है कि सन् 1985-86 को दो लेखकों के शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा था। 1985 ई0 भारतेंदु हरिश्चंद्र की सौंवी पुण्यतिथि के रूप में एवं राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जन्मशताब्दी वर्ष के रूप मनाया जा रहा था। रामविलास शर्मा की दृष्टि में भारतेंदु ‘हिंदी नवजागरण’ के अग्रदूत हैं एवं मैथिलीशरण गुप्त जी को हिंदी नवजागरण एवं महावीरप्रसाद द्विवेदी युग के अप्रतिम उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया जा सकता है।
नामवर सिंह हिंदी नवजागरण की संकल्पना का विरोध किन कारणों से करते हैं, उनका वह स्पष्टीकरण भी देते हैं। रामविलास शर्मा के जीवित रहते हुए उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि-’’उन्नीसवीं सदी के जिस नवजागरण की तस्वीर पेश की जा रही थी वह दरअसल हिंदू नवजागरण था। यह बात राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जन्मशती के संदर्भ में अनेक विद्वानों द्वारा दोहराई गई। यह बात बड़ी विचित्र लगी कि इतने वर्षों बाद आज इस माहौल में लेखकों का एक खासा समुदाय उन्नीसवीं सदी के नवजागरण को हिंदू नवजागरण के रूप में स्थापित कर रहा है और यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि प्राचीन हिंदू या वैदिक भारत के पुनरुत्थान के द्वारा ही हम नए युग में प्रवेश कर सकते हैं।’’20
‘आलोचना’ त्रैमासिक-नवांक 79 (अक्टूबर-दिसंबर-1986 ई.) में ‘हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ शीर्षक संपादकीय में नामवर सिंह हिंदी नवजागरण की संकल्पना की पड़ताल करते हुए दिखाई पड़ते हैं। वस्तुतः ‘आलोचना’ का नवांक-79 ही वह अंक है जहाँ से डॉ० रामविलास शर्मा की ‘हिंदी नवजागरण की संकल्पना’ से उनका मतभेद शुरू होते हुए दिखाई पड़ता है। नामवर सिंह अपने वक्तव्य में हिंदी नवजागरण की संकल्पना प्रस्तुत करने का श्रेय डॉ० शर्मा को देते हुए कहते हैं कि ‘‘भारतेंदु हरिश्चंद्र के उदय के साथ हिंदी में एक नए युग का आरंभ हुआ, यह मान्यता तो बहुत पहले से प्रचलित रही है, किंतु इस नए युग को ‘नवजागरण’ नाम देने का श्रेय हिंदी में डॉ० रामविलास शर्मा को है... उन्होंने ‘नवजागरण’ ही नहीं बल्कि ‘हिंदी नवजागरण’ की संकल्पना प्रस्तुत की।’’21 नामवर सिंह कहते हैं कि शर्मा जी के ‘नवजागरण’ शब्दबंध का ‘‘तात्पर्य संभवतः रिनेसांस से है’’22 और बंगला नवजागरण की महान विभूति बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की दृष्टि को उल्लिखित करते हुए कहते हैं कि उनकी दृष्टि में ‘‘रिनेसांस पंद्रहवीं शताब्दी के भारत का साँस्कृतिक जागरण था।’’23 इस प्रकार ‘‘यूरोप के रिनेसांस के समान भारत में भी पंद्रहवीं शताब्दी में नवजागरण की लहर उठी थी। सामान्यतः इसे अपने यहाँ भक्ति आंदोलन कहा जाता है। सवाल यह है कि ‘रिनेसांस’ किसे कहा जाए- पंद्रहवीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन को या उन्नीसवीं शताब्दी के साँस्कृतिक नवजागरण को’’24 इस संदर्भ में नामवर सिंह का यह प्रश्न है कि ‘‘भारत का उन्नीसवीं शताब्दी का साँस्कृतिक नवजागरण ‘रिनेसांस’ था तो पंद्रहवीं शताब्दी का साँस्कृतिक नवजागरण क्या था?’’25 इस प्रकार ‘नवजागरण’ शब्दबंध का आशय क्या लिया जाए- क्या उसे ‘रिनेसांस’ कहा जाए जिसकी संभावना नामवर सिंह संपादकीय में व्यक्त करते हैं। या उस शब्दबंध को ‘‘पुनरूज्जीवन, पुनरून्नयन, पुनर्जीवीकरण, पुनरूत्थान नवप्रभात, पुनरोदय, लोकजागरण, पुनर्जागरण एवं नवजागरण संज्ञाएँ तो प्रचलित हैं ही, रिनेसांस, रिजरेक्शन, रिवाइवलिज़्म, अवेकनिंग और एनलाइटमेंट’’26 आदि में किस रूप में ग्रहण किया जाए? इस विषय पर पर्याप्त मतभेद रहे हैं। जबकि रामविलास शर्मा ‘नवजागरण’ शब्दबंध को अँगरेज़ी के किसी शब्द के पर्याय या समानांतर रखकर नहीं देखते हैं। प्रदीप सक्सेना ने पत्राचार द्वारा डॉ. रामविलास शर्मा से यह प्रश्न किया कि आप ‘नवजागरण’ को अँगरेज़ी के किस शब्द के समानांतर या पर्याय के रूप में रखकर देखते हैं।’ इसके प्रत्युत्तर में डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं कि-अँगरेज़ी के किसी शब्द के नहीं।’27
इसीलिए नामवर सिंह स्पष्ट करते हैं कि ‘उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय नवजागरण को ‘रिनेसांस’ कहना ज़्यादा ठीक नहीं, क्योंकि इस काल के नए युग के उत्थान में सक्रिय विचारकों एवं अग्रदूतों के प्रेरणास्रोत पंद्रहवीं शताब्दी के चिंतक एवं रचनाकार न होकर, ‘रिनेसांस’ के बाद के एनलाइटेनमेंट का काल था, उसके चिंतक एवं रचनाकार थे। यहाँ भ्रम न बना रहे कि ‘रिनेसांस’ किसे कहें, इसलिए डॉ० रामविलास शर्मा ने ‘पंद्रहवीं शती के साँस्कृतिक जागरण के लिए ‘लोक जागरण’ और 19वीं शती के साँस्कृतिक जागरण के लिए ‘नवजागरण’ शब्द का प्रयोग किया है।’’28 वस्तुतः नामवर सिंह भी पंद्रहवीं शताब्दी के जागरण के लिए ‘लोकजागरण’ और 19वीं सदी के साँस्कृतिक जागरण के लिए ‘नवजागरण’ शब्द को उसी रूप में स्वीकार करने की बात करते हैं।’’29 इसके स्वीकार करने से ‘लोकजागरण’ और ‘नवजागरण’ ‘‘की साँस्कृतिक प्रक्रियाओं के बीच परंपरा से संबंध भी बना रहता है और अंतर भी स्पष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त यूरोपीय इतिहास के अनावश्यक अनुषंग से मुक्ति भी मिल जाती है’’30 उन दोनों के बीच का अंतर स्पष्ट करते हुए नामवर सिंह कहते हैं कि ‘‘उन्नीसवीं शताब्दी का नवजागरण भक्तिकालीन लोकजागरण से भिन्न इस बात में है कि यह उपनिवेशवादी दौर की उपज है, इसीलिए ऐतिहासिक अंतर्वस्तु भी भिन्न है...इसके पुरस्कर्ता और विचारक नए शिक्षित मध्यवर्ग के हैं, जिन्हें बंगला में भद्रलोक की संज्ञा दी गई है।’’31 इसप्रकार नवजागरण के अग्रदूत मध्यवर्गीय या उच्चवर्गीय समाज से आए। इन मध्यवर्गीय समाज की समस्या ‘‘भारतेंदु के शब्दों में ‘स्वत्व निज भारत गहे’ है जो कि नामवर सिंह के मतानुसार-’’भारतीय नवजागरण की मूल समस्या है.....यह स्वत्व-प्राप्ति की पहली शर्त है।’’32 इस प्रकार नामवर सिंह की दृष्टि में नवजागरण की पहली समस्या ‘अस्मिता’ की समस्या है। इसके लिए राजनीतिक स्वाधीनता का होना अनिवार्य है। जो कि उन्नीसवीं शती के नवजागरण में कम ही दिखाई पड़ता है। नामवर सिंह का विचार है कि-’’नवजागरणकालीन प्रकाशित साहित्य में राजनीतिक स्वाधीनता का स्पष्ट स्वर कम ही सुनाई पड़ता है। पहले ईस्ट इंडिया कंपनी और फिर महारानी विक्टोरिया के शासन काल में राज के विरुद्ध निश्चय ही किसानों के छिटपुट विद्रोह बराबर होते रहे, जिनमें सबसे संगठित और सशक्त सन् सत्तावन की राजक्रांति है, फिर भी समकालीन शिष्ट साहित्य में उसकी गूँज सुनाई नहीं पड़ती।’’33 इसलिए नामवर सिंह स्पष्ट करते हैं कि- ‘‘हिंदी नवजागरण की विशिष्टता बतलाने के लिए सन् सत्तावन की राजक्रांति को उसका बीज मानना कठिन है भारतेंदु तथा उनके मंडल के लेखक सन् सत्तावन की राजक्रांति की अपेक्षा बंगाल के उस नवजागरण से प्रेरणा प्राप्त कर रहे थे जो उससे पहले शुरू हो चुका था।’’34
इसके अतिरिक्त ‘‘यदि हिंदी नवजागरण को सन् सत्तावन की राजक्रांति का उत्तराधिकारी कहने का अर्थ यह है कि वह अँगरेज़ी राज का विरोध करने में सबसे आगे था तो इसके भी पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलते।’’35 साथ ही ‘‘सन् सत्तावन की राजक्रांति को हिंदी नवजागरण का गोमुख मानने में एक कठिनाई यह भी है कि राजक्रांति के नितांत असांप्रदायिक पक्ष का संदेश हिंदी नवजागरण तक पूरा-पूरा नहीं पहुँच सका। हिंदी प्रदेश के नवजागरण के सम्मुख यह बहुत गंभीर प्रश्न है कि यहाँ का नवजागरण हिंदू और मुस्लिम दो धाराओं में क्यों विभक्त हो गया।’’36 स्पष्ट है कि उपर्युक्त मान्यताएँ डॉ० रामविलास शर्मा की हिंदी नवजागरण की धारणा के प्रस्थान बिंदु पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं। नामवर सिंह की मान्यता में यह स्पष्ट है कि उन्नीसवीं शती के नवजागरण का प्रस्थान बिंदु 1857 को नहीं माना जा सकता है। प्रदीप सक्सेना, डॉ० रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की मान्यताओं को दो छोरों के रूप में देखते हैं, जिसमें रामविलास शर्मा द्वारा 1857 को ही केंद्रीयता देकर ‘‘भारतेंदु की एक पंक्ति से ही 1857 को नवजागरण से और हिंदी से जोड़ने की प्रेरणा पाकर अकेले हिंदी का नवजागरण’’37 की संकल्पना प्रस्तुत करते हैं, और ‘‘उर्दू जिसमें विपुल साहित्य उपलब्ध था उसे हिंदी जाति की विरासत से बाहर कर’’38 देते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ नामवर सिंह के उपर्युक्त मत को प्रदीप सक्सेना दुर्भाग्यपूर्ण बताते हैं’39 कि ‘‘जिस प्रकार रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण में उर्दू साहित्य को बाहर रखते हैं ठीक उसी प्रकार की यह धारणा भी ‘शिष्ट साहित्य में 1857 का उल्लेख नहीं मिलता है कहकर नामवर सिंह उसे संपूर्ण शिष्ट साहित्य से बाहर कर देते हैं।’’40 अर्थात् वह उर्दू साहित्य में उपलब्ध 1857 संबंधी विपुल सामग्री का बिल्कुल ही नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
डॉ. रामविलास शर्मा हिंदी नवजागरण को ‘‘मूलतः बुद्धिवादी और रहस्यवाद विरोधी’’41 मानते हैं। इसके प्रतिपक्ष में नामवर सिंह का मत है कि-’हिंदी नवजागरण में प्रखर बुद्धिवाद की प्रधानता भी संदिग्ध ही दिखाई पड़ती है। इस नवजागरण के अग्रदूत स्वयं भारतेंदु में