शोध आलेख : रामगोपाल विजयवर्गीय की कला में साहित्य व चित्रकला का निरूपण / डॉ. जितेश कुमार जाँगिड़

रामगोपाल विजयवर्गीय की कला में साहित्य व चित्रकला का निरूपण
- डॉ. जितेश कुमार जाँगिड़

शोध सार : साहित्य और कला के क्षेत्र में विजयवर्गीय की लेखनी को तूलिका का स्नेह सम्बल सदैव मिला है तथा उनकी तूलिका को उनकी साहित्यिक समझ सूझ-बूझ और रचना धर्मिता ने अनूठा अवदान दिया है। कवि और चित्रकार इनके तदाकार हो गए है। इसलिए दोनो क्षेत्रों में जो साधना उन्होने की है उसमें ‘मील के स्तम्भ’ कायम किये है। उम्र के 18 वर्ष में मेघदूत, रघुवंश, अभिज्ञानशाकुन्तलम, कादम्बरी, बिहारी सतसई, उमरखैय्याम की रूबाइया, शादी का गुलिस्ता आदि का अध्ययन कर लिया था। इन काव्यों को उन्होंने चित्रों में उतारने का उपक्रम प्रारम्भ किया। इनकी पहली कविता ‘‘सरस्वती’’ में छपी थी तथा पहला चित्र ‘‘मोर्डन रिव्यू’’ में छापा था। इनके द्वारा रचित खण्डकाव्य-अभिसार निशा, वैदेही विरह, काव्य संकलन-अलकावली, चित्रगीतिका, चिनगारिया अथवा शतदल लगभग सभी में हिन्दी की छायावादी कविता की प्रवृत्तियाँ दिखाई पड़ती हैं। पारम्परिक कला शैली के अंकन में निपुण और सिद्धस्थ होने के उपरान्त भी इन्होने आधुनिक कला की विविध विधाओं और प्रयोगों का स्वागत किया तथा अपनी कृत्तियों में उन्हें स्थान दिया है। इनकी चित्र कृत्तियों में प्रयुक्त मोटी और लयपूर्ण रेखाएं, रंगों की गहनता, अंग प्रत्यंगों की आकर्षक भंगिभाए, अण्डाकार मुख व बड़ी-बड़ी आंखे इनकी कृत्तियों की प्रमुख पहचान रही हैं। इनकी कला शैली में इन तत्वों ने आधुनिक कृतियों में भी अपना वर्चस्व रखा है। देश के विभिन्न भागों में इन्होने कृतियां प्रदर्शित की। इनकी कला साधना से वर्तमान में भी कला साधक प्रेरणा लेते हैं।

बीज शब्द : साहित्य, रचनाएं, कविता, भंगिभाए, नारी, जनसाधारण, वॉश, टेम्परा, रेखांकन, यथार्थवादी, रोमांसवादी, प्रयोगवादी, पत्रिकाएँ, काव्य, कला, विचारधारा, अलंकारिकता, चेतना, सौन्दर्य, अभिव्यंजना, मौलिकता, शास्त्रीय, प्रकृति, कवियों, पारम्परिक

मूल आलेख : समकालीन कला व साहित्य के क्षेत्र में असाधारण रूप से विविध वादों और आयामों का प्रादुर्भाव हो चुका है, ये सभी हमारे समय की देन है। समकालीन कला में विविधता आश्चर्यजनक रूप से समृद्ध है यह समृद्धि जिसमें अनेकों विरोधाभास है हमें सोचने को बाध्य करती है कि हमारा समय अनेक सुखी विचारधाराओं का मिला-जुला रूप है। बदलता हुआ प्रबुद्ध समाज आज बड़े मनोयोग से इस व्यक्तिगत भाषा को समझने-परखने की चेष्टा कर रहा है। 20वीं शताब्दी की कला व साहित्य में जहाँ नव प्रयोगों के द्वारा तीखी प्रतिक्रियाएँ की जाने लगी थी वही संचार के माध्यमों द्वारा कला गतिविधियों व कलाकार की भौतिकतावदी सोच ने आज कला को अन्तर्राष्ट्रीय बना दिया। कला में अभिव्यक्ति प्रक्रिया के साथ-साथ माध्यम व फलक का भी विस्तार हुआ जिसमें मशीनीकरण के अतिरिक्त मानवीय क्रिया-कलापों का समावेश हुआ। सामाजिक व सांस्कृतिक विचारधारा राजनैतिक व आर्थिक परिस्थितियों से संचालित होती है, किन्तु समाज का अधिकतर भाग जनसाधारण से ही बनता हैं। उसके दिन-प्रतिदिन की साधारण जीवनचर्या, उसके संघर्ष, उल्लास व दुःख बुद्धिजीवी वर्ग व कलाकारों की सोच का भौतिक माध्यम बनते हैं यह सृजन ही समकालीन जीवन का प्रतिबिम्ब बनता हैं। समाज ही अपने समय की सम्पूर्ण कलात्मक चेतना का निर्माण करता हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद देशव्यापी प्रगतिशील कला आन्दोलनों और पाश्चात्य आधुनिक कला की विचार धाराओं के सम्पर्क से विजयवर्गीय जी अप्रभावित नहीं रहे। उम्र के पांचवें दशक में परम्परागत कला शैलियों से निष्णात हो चुके कलाकार विजयवर्गीय ने आधुनिक धारा के रेखांकन और प्रयोगवादी कलाकृतियों से समकालीन कला जगत को अचम्भित कर दिया था। अक्सर यह धारणा बन चुकी थी की भारतीय शैलियों और परम्परागत तकनीकों में काम करने वाले कलाकार आधुनिक कला की समझ नहीं रखते, न वे उसका मनोविज्ञान जानते है और न बौद्धिक प्रयोगवादिता। किन्तु विजयवर्गीय के सम्पूर्ण कला रचना में सभी प्रवृत्तियों की उपस्थिति देखी जा सकती हैं।

विजयवर्गीय के विभिन्न विषयों का यथार्थवादी रेखांकन और प्रयोगवादी चित्रण में सामयिक प्रभाव है जो कलाकार की सृजन की अबाध गति का प्रतीक भी कहा जा सकता हैं। पारम्परिक कला शैली के अंकन में निपुण और सिद्धस्थ होने के बावजूद भी उन्होने आधुनिक कला की विविध विधाओं और तकनीकी स्तर पर विभिन्न प्रयोगों का भी स्वागत किया। रामगोपाल विजयवर्गीय का कला संसार मुख्यतः तीन शैलियों में वर्गीकृत किया जा सकता हैं - 1. राजस्थानी कला से प्रेरित कला शैली, 2. पुनरूत्थान के अनुरूप शैली, 3. आधुनिक कला बोध से प्रभावित वास्तविकतावादी शैली। समकालीन जीवन के भी अनेक प्रेरक चित्र विजयवर्गीय ने निर्मित किये, जो दैनिक क्रियाकलापों की सजीव झलक प्रस्तुत करते हैं। जीवन की अभिराम झांकी प्रस्तुत करने वाले इनके सैकड़ों चित्र निश्चय ही अपनी गतिमान रेखाओं और आकर्षक रंग योजना के कारण दर्शनीय, प्रेरणास्पद तथा दर्शकों पर सीधी और तीखी प्रतिक्रिया उत्पन्न करने वाले हैं। 

तूलिका और लेखनी के धनी, कला और साहित्य के मनस्वी, कल्पना और यथार्थ के चितेरे, कविता ओर कथा के सृजनधर्मी पद्मश्री रामगोपाल विजयवर्गीय का जन्म सवाई माधोपुर जिले के गांव बालेर में सन् 1905 में हुआ था। बचपन में ही इन्हे कविता की तुतलाहट, रंगों का परिचय व काव्य रचनाओं के परिचय के साथ संस्कृत, अरबी-फारसी तथा उर्दू का अच्छा ज्ञान हो गया था और यह ज्ञान वैविध्य उनके आगे के साहित्यिक जीवन का पाथेय हो गया। सन् 1924 ई. में राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश लिया। यहीं उनका ‘पनिहारिनों’ वाला चित्र रामानन्द चटर्जी ने 1925 ई. में ‘‘मोर्डन रिव्यू’’ में छापा। यहाँ ये शैलेन्द्रनाथ डे के प्रधान शिष्यों में से थे। सर्वप्रथम विजयवर्गीय की नियुक्ति जयपुर की रथखाना स्कूल में ड्राइंग मास्टर के पद पर हुई। इस समय उनके चित्र माधुरी, सरस्वती, विशाल भारत, चांद कलीम आदि पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे। हिन्दी, उर्दू, बंगाली और गुजराती पत्र-पत्रिकाओं में ये चहेते चित्रकार बन गए। इन्होने आधुनिक कला की विविध विधाओं और प्रयोगों का स्वागत किया तथा अपनी कृतियों में उन्हें स्थान दिया है। इनकी ताजा कृतियों में आधुनिक कला शैलियों के प्रवाहों तथा आधुनिक भाव बौध ने एक विलक्षण रस उत्पन्न किया हैं। जिसकी प्रतीति सहज ही दर्शक प्राप्त कर लेता हैं। इनकी चित्रकृतियों में प्रयुक्त मोटी और लयपूर्ण रेखाएं, भारतीय लघुचित्रों में प्राप्त रंगो की गहनता, बंगाल शैली की रंग सुकोमलता, रंगों की अपेक्षा रेखाओं की प्रधानता अण्डाकार मुखों पर अधखुली बड़ी-बड़ी आंखे, लम्बे हाथ, पतली अंगुलिया उनकी कृतियों की प्रमुख पहचान रही हैं। इनकी कला शैली के इन तत्वों ने आधुनिक कृतियों में भी अपना वर्चस्व रखा हें। विजयवर्गीय जी ने सबसे ज्यादा वॉश चित्र बनाए है। इन्होने वॉश चित्रों को एक नई दिशा ही नही दी बल्कि भारतीय चित्रकला में वॉश पद्धति को यथार्थ के धरातल पर प्रतिष्ठित किया। इन्होने टैपरा चित्र भी बनाए जिनमें रंग योजना इतनी कोमल व विषयानुकूल है कि चित्र से दृष्टि नहीं हटती। इनके तेलचित्र भी जलरंगों की तकनीक पर ही बने हैं, इनके तेलचित्रों में तल विभाजन तथा आकृतियों का सांधारी करण और रंगों का सामंजस्य दर्शनीय हैं।

विजयवर्गीय स्वभाव से ही कवि तथा कलाकार दोनों ही हैं, जीवन के प्रारम्भ से ही साहित्य से जो लगाव हुआ वह जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया। साहित्य में कविता के माध्यम से मनुष्य की व्यथायें, कुण्ठाये, विवशताएं अत्यधिक उभरकर प्रकाश में आई और कहानी लेखन में वर्णनात्मक विधा से हटकर मानसिक संवेदनाओं को समाज की रूढ़ियों को प्रकाश में लाया गया साथ ही कला के क्षेत्र में नये मूल्य स्थापित हुए हिन्दी सेवा ओर चित्रकला की इन दो अलग-अलग परम्पराओं के प्रतीक होने के साथ-साथ विजयवर्गीय जी एक तीसरी परम्परा का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। वह है ऐसे कवियों की परम्परा जो स्वयं चित्रकार भी थे या ऐसे चित्रकारों की परम्परा जो स्वयं कवि भी थे। इस देश में यह परम्परा रवि ठाकुर, महादेवी, जगदीश गुप्त आदि कवियों ने वर्षों तक जीवित रखी। कविता लिखने के सम्बन्ध में भी विजयवर्गीय जी का कहना है कि उन्होंने कविता लिखने का प्रयत्न नहीं किया। कविता लिखने में कुछ ऐसे आयाम आये जो प्रेम प्रसंगों से जुड़े थे। उन प्रेम प्रसंगों ने बलात उन्हें कविता की प्रेरणा दे डाली। मन पर कुछ ऐसा दबाव, ऐसा भार प्रतीत हुआ कि वह कविता लिखने पर ही शान्त हुआ और उन्होने अनेकों रचनाएं रच डाली जो कुछ प्रकाशित हुई कुछ अप्रकाशित रह गई। उनके चित्र जितने प्रसिद्ध हुए उनकी कविता भी उतनी ही प्रंशसित रही। अलकावली, चिन्गारियां, अभिसार-निशा, चित्रगीतिका, शतदल, वैदेही विरह काव्य संग्रह इसके प्रमाण हैं। 

विजयवर्गीय जी की पहली कृति ‘शतदल’ है जिसका प्रकाशन 1941 ई. में हुआ। शतदल कमल पुष्प को कहते हैं। इसका कथानक महाभारत की कथा से लिया गया हैं। भीमसेन द्रौपदी के लिए कमल पुष्प लेने के लिए जाते हैं और रास्ते में हनुमान जी वानर रूप में अपनी पूंछ से रास्ता रोककर बैठ जाते है भीमसेन उनकी पूंछ हटा नही सके। अन्त में हनुमान जी ने अपना परिचय दिया ओर भीमसेन कृतार्थ हुए और उनका वरदान लेकर आगे चले गए। ‘‘अलकावली’’ काव्य संग्रह में यक्ष विरह, उड़ते उतरीय, धनीभूत मेघ मण्डल, कलकल नाद करती नदियों, कलरवहीन विहंगो को अपने नजरिये से काव्य के सांचे में ढालकर अश्रुओं का नया दस्तावेज लिखा हैं। इनकी कविताओं के विभिन्न शीर्षक है सभी में जीवन का हास्य विलास, अनुराग-विराग, आशा-निराशा, अन्तर और बाहर को भी वाणी मिली हे, कवि में गहन नैराश्य दिखाई देता है तो कही उसे जीवन का आलोक और बिम्ब भी दृष्टिगत हुआ हैं। काव्य की अन्तिम कविता ‘‘आलोक’’ की कविता है जैसे ‘निराला’ के ‘तुलसीदास’ में मोह की रत्नावली अन्त में तुलसी को ‘ज्ञानालोक’ की प्रतिभा दिखाई देती हैं।

छलक पड़ी आखों में मदिरा

किसी अनिश्चित मधुर मिलन की।

फूट पड़ी अधरो पर रेखा

लिये अरूणिमा हर्ष सुमन की।

अलकावली के बाद विजयवर्गीय जी ने दूसरा काव्य संकलन ‘‘चिंगारिया’’ लिखा, जिसका अभिप्राय है कि कवित अन्तराल में कवि सृजनानुकूल पीड़ा भोगता रहा। प्रसाद जैसे कवि ने भी अपने ‘‘आंसू’’ जैसे विरह काव्य में पीड़ा की अभिव्यक्ति ही प्रकट की हैं। चिंगारिया संकलन की अधिकांश कविताएं लम्बी, वर्णनपरक और कहीं-कहीं भाव स्फुलिंग को तीव्रता से जाग्रत करने वाली हैं। 

इनकी अन्य रचना ‘अभिसार-निशा’ के प्रणयन को साहित्य का गौरव मानते हुए ‘‘राजस्थान साहित्य अकादमी’’ ने 1959-60 ई. में पुरस्कृत किया। विजयवर्गीय जी ने इस रचना में ब्रज का साहित्य और प्रसाद काव्य की प्रांजलता का सुन्दर निर्वाह किया हैं। अभिसार निशा प्रस्तुतः उस प्रेममयी रात्री का अंकन है जिसमें प्रेमी युगल निश्चित स्थान पर अभिसार के लिए उपस्थित होते हैं किन्तु जब संकेत स्थल पर प्रिया को प्रिय की प्राप्ति नहीं होती तो ऐसी नायिका ‘विप्रलब्धा’ कहलाती हैं। 

अब भी द्रुम-दु्रम की छाया में बैठे से दिखते हैं केशव

पूंजों में चारो और उठा करता हैं व्याकुल मुरली रव

वीणा-मृदंग के मधुर बोल जाग्रत कर देते गत अनुभव

आंखों के सम्मुख छा जाता वैसा ही अनुराग विभव

‘‘चित्रगीतिका’’ में ‘‘प्रख्यात चितेरे’’ का ‘‘अख्यात कवि’’ अपने कौशल को प्रदर्शित करने में सफल हो गया हैं। इसमें राजस्थानी कला की कलागत बारीकियों, प्रतिपाद्यो, दृश्यांकनो, शौर्य, रमणीय प्रसंगों का विवेचन जो कविता और संगीत के माध्यम से किया है वह सर्वथा अनूठा हैं। चित्रगीतिका की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं-चितेरे के भीतर विद्यमान कवि, संगीतज्ञ और नाटककार को एक साथ उद्घाटित करना। अपने ‘‘वैदेही विरह’’ खण्ड काव्य की भूमिका में वैदेही के चरित्र की रचना की पुनरावृत्ति का प्रश्न विजयवर्गीय जी स्वयं उठाते है और स्वयं ही उत्तर भी देते हैं- कुछ चरित्र चिर नवीन व सर्वत्र रसात्मक बने रहते हैं। वैदेही के विरह में श्रीराम की यह उक्ति-

इस उपवन में पली सारिकाओं ने सत्वर।

प्रिये तुम्हारे शब्द रट लिए अक्षर-अक्षर।।

इनकी वाणी की सुन्दर अनुकरण कुशलता।

तद्वत मधुर स्वरों की कोमल स्वर चंचलता।।

मृदु वचनों से जब करती है यह सम्बोधन।

मूर्छित हो जाता क्षण भर के लिए विकल मन।।


अनेक ऐसे प्रसंग है जिनमें जीवन की बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी घटनाएं कविता के रूप में प्रस्फुटित हुई हैं जिनमें ‘‘मेहन्दी भरे हाथ और काजल भरी आंखें’’, ‘‘चित्रकला की रूपरेखा’’ तथा अप्रकाशित रचनाओं में उत्पात, अन्धेरे, लूनी नदी की बाढ़, दौपदी, रजनीगंधा, नियति, शोभायात्रा इत्यादि प्रमुख हैं। 

काव्य पर बने चित्रों में उन्होने सर्वप्रथम ‘‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’’ पर पचास चित्र बनाए तत्पश्चात् ‘‘कुमार सम्भव’’ तथा मेघदूत इनका सर्वाधिक प्रिय विषय रहा है इस पर इन्होने तीन  सीरीज तैयार की। बिहारी सतसई पर बनाए चित्रों का एलबम जयपुर से प्रकाशित हुआ। मेघदूत पर बने चित्रों पर बम्बई के नलिनी प्रिन्टर ने एक एलबम प्रकाशित किया। इलाहाबाद से प्रकाशित हुए एलबम में ‘वाल्मिकी रामायण’ और ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ पर बने चित्रों को भी स्थान दिया गया सस्कृत और ब्रजभाषा काव्यों तथा उर्दू की रचनाओं की श्रृंगारिकता का प्रभाव भी इनके काव्य पर पड़ा। यही कारण है कि इनके चित्र अधिक श्रृंगारिकता लिए हुए हैं। किन्तु प्राकृतिक परिवेश ने इनकी श्रृंगारिकता को भी मनोरम बना दिया हें। जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ भी राजस्थानी चित्रकला की भांति इनका प्रिय विषय रहा हैं। राधा का सौन्दर्य उनके चित्रों में साकार हो उठा हैं। विस्तारित नेत्र, सुडौल मुख - मण्डल, घनी और लम्बी केशराशि, पुष्ठ उरोज और लम्बी इकहरी देहयष्टि जयदेव की कल्पना के अनुरूप विजयवर्गीय के कवि हृदय की पहचान कराती हैं। गीतगोविन्द में राधा के विविध रूप जैसे विरहणी, वासक, प्रतीक्षारत इसी प्रकार कृष्ण के चित्रण में विरह भावना की तीव्र अनुभूति का अहसास होता हैं। विजयवर्गीय जी के रेखांकित आकारों में ऐसी चेतनान्मुख उन्मुक्तता है जो हमकों देलाक्रा आदि रोमांसवादी कलाकारों के रंगाकन में दृष्टिगोचर होती है। एक तरफ से यह राजस्थानी कला को आधुनिकता की ओर बढ़ाने का रोमांसवादी कदम हैं, जिसको हम रेखात्मक रोमांसवादी कह सकते हें। पणिहारी, राधाकृष्ण, संगीत, नर्तकिया, गपशप, विरह, हुक्का तथा झूला आदि शीर्षकों से बनाए गए रेखाचित्रों के अलावा सेकड़ो रेखाचित्र इनकी जीवन्त कुंजी के साक्षी हैं। विजयवर्गीय जी ने अपनी कला को प्रयोग के पथ की ओर अग्रसर किया तथा स्केच पेन से पहले मोटी बाह्य रेखा बनाकर उसे प्रयोगात्मक रंगों से ढ़कने और उसमें वांछित प्रभाव उत्पन्न करने वाली अपनी विशिष्ट शैली के अनेक चित्र तब उन्होने निर्मित किये। उनके चित्र एक आनन्दमय वातावरण की सृष्टि करने वाले हैं। विषय वैविध्य, अभिव्यंजना का ओज तथा चित्रण की मौलिकता उनकी अपनी विशेषता हैं। आधुनिक कलाकारों के काम को विजयवर्गीय गौर से देखते थे-वैसे चित्र बनाने की कोशिश भी करते थे।  आधुनिक कला के विषय में अपना स्पष्ट उदार व संयत मत रखने वाले रामगोपाल विजयवर्गीय एक सुलझे हुए विचारशील कलाकार रहे हैं, जो कहते हैं, ‘‘हम भारतीय है और हमारे सृजन में भारतीयता की छाप होनी चाहिए। हम जो चित्रांकन करे, उसकी आत्मा में भारतीयता होनी चाहिए।’’

विजयवर्गीय जी ने नारी सौन्दर्य को जिस कौशल से उकेरा हैं वह अप्रतिम हैं। नारी के विभिन्न रूपों में पत्नी प्रेयसी, अभिसारिका, वधू, विरहिणी, रसिका, वन-कन्या, देव-कन्या, खण्डिता, प्रतीक्षिता और लोक जीवन की मालिन, मजदूरिन, अछूत इत्यादि उनकी कला में अभिव्यक्ति लिए हुए हैं। चित्रण में नारी मांसल बन्धन से युक्त हैं, तो कमनीय हैं, रमणीय, लावण्यमयी अतिमानवीय भी हैं। लय भाव, मुद्राएं रेखा स्पष्ट कर देती हैं। चाहे नारी की कटि हो, लता का झुकाव हो, आंख की फांक हो, आंचल की उडान हो रेखीय विधान बहुमुखी हैं। ‘मेघदूत’ चित्रमाला में क्षीणकाय निर्वासित मेघ को रामगिरी पर्वत पर पुष्पांजलि अर्पित करता यक्ष, विरह-पीड़िता वीणा बजाकर समय काटती यक्षिणी, चन्द्रमीन और मयूर के प्रतीकों में प्रियतमा यक्षिणी की स्मृति करता यक्ष, कदम्ब पुष्प एवं मणि मुक्ताओं से सज्जित कमनीय कलेवर नारिया, इस प्रकार रामगिरि से अलकापुरी तक के रास्ते का विवरण दिया हैं। मेघ को माध्यम बनाकर यक्ष का विरहदग्ध सन्देश मेघदूत में प्रत्यक्षीकरण हुआ हैं। इसी प्रकार, रीतिकालीन कवि घनानन्द की कविता में भी सुजान के प्रति उनका विरह बादल को अपना सन्देश वाहक बनाकर प्रकट किया हैं। 

घन आनन्द जीवनदायक है कुछ मेरिओ पीर हिये परसो।

कब हूँ वा बिसासी सुजान के आंगन मो असुवानि हूल ले बरसो।।

इसी प्रकार कृष्ण के विरह में कमलपत्र शैया पर लुण्ठित राधा, नीलमिश्रित, मरकत वर्ण पीताम्बरधारी, कालिन्दी तट पर राधा की प्रतीक्षारत कृष्ण, उरोज भार से नामित गज गामिनी, कृष्ण से मिलने जाती चकित नैत्रा राधा के चित्रों में व्यंजना लक्षणा की भावमयी रसधारा प्रवाहित होती हैं। इसी प्रकार हिन्दी साहित्य में जयदेव ने गीतगोविन्द में राधा व गोपियों के विरह सन्ताप को निम्न कथन द्वारा प्रकट किया हैं-


उन्मद मदन मनोरथ पथिक वधूजन जनित विलापे,

अलिफुल संकुल कुसुम समूह निराकुल वकुल कलाये।

मृगमद सौरभ रमसवंशवद नवदल माल तमाले,

युवजन हृदय विदारण मनसिज लख रूचि किंशुक जाले।।

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विजयवर्गीय के चित्रों में नारी को असाधारण स्थान दिया गया हैं। जहां शास्त्रीय कृतियों पर आधारित चित्रों में नारी के कमनीय सौन्दर्य का चित्रांकन है वहीं स्फुट चित्रों में अबला जीवन की त्रासदी है जैसे हरिजन महिलाओं, मां बच्चा व कृषक कन्या आदि स्फुट चित्रों में जीवन के यथार्थ से जुड़े भी अनेक चित्र थे।

इन चित्रों में पुष्कर मेले में, मदारी, बस स्टेण्ड, रिक्शा चालक, श्रमिक, पनघट की ओर गांव का कुंआ आदि उल्लेखनीय हैं। ऐसे ही चित्रों से मेल खाती आधुनिक प्रगतिवादी कवि ‘‘सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’’ की कविता वह ‘‘तोड़ती पत्थर’’ मेहनतकश नारी की पक्षधर हैं- 

चढ़ रही थी धूप; गर्मियों के दिन, 

दिवा का तमतमाता रूप; उठी झुलसती हुई लू।

रूई ज्यो जलती हुई भू, गर्द चिनगी गई,

प्रायः हुई दुपहर; वह तोड़ती पत्थर।

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अभिज्ञान शाकुन्तलम् चित्रमाला में राजा दुष्यन्त व शकुन्तला के प्रणय, विरह, प्रत्याख्यान तथा पुनर्मिलन का सुन्दर वर्णन मिलता हैं। शकुन्तला के सौन्दर्य का श्रृंगारिक वर्णन इन चित्रों को मनोरम बनाता हैं। शकुन्तला के समान ही छायावाद के प्रतिनिधि कवि जयशंकर प्रसाद ‘‘कामायनी’’ में नायिका के पावन तन की शोभा निरूपित करते हुए कहते हैं-

चंचल स्नान कर आवे, चन्द्रिका पर्व में जैसी

उस पावन तन की शोभा, आलोक मधुर थी ऐसी।

इस प्रकार नारी चित्रण का केन्द्र बिन्दु है जिसे शकुन्तला, विरहणी, अप्सरा, नृत्यागंना, ग्राम्यबाला, जननी आदि रूप में रेखाबद्ध किया हैं। अलंकारिकता चित्रों का आधार हैं, वहीं वॉश एवं टैम्परा मिश्रित धूमिल रंगतों के प्रयोग में कलाकार ने अद्भुत कौशल का परिचय दिया हैं। 

दृश्य चित्रकारों में भी विजयवर्गीय जी का नाम गिना जाता है प्रकृति के कोमल अवयवों को उसकी हरीतिमा के अंकन में, भावनाओं के कोमल तन्तुओं के तानों-बानों के बुने दृश्यों में इन्होने बेजोड़ कौशल और सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया हैं। इनके चित्रों में प्रकृति का मानवीकरण भी मिलता हैं। आधुनिक हिन्दी साहित्य के कवियों में जयशंकर प्रसाद ने प्रकृति का मानवीकरण किया है तथा प्रकृति के सुकुमार कवि ‘‘सुमित्रानन्दन पन्त’’ ने अपनी जन्मभूमि कूर्मांचल प्रदेश की रूप सुषमा पर मुग्ध होकर नारी सौन्दर्य की भी अवहेलना की हैं-


छोड़ दु्रभो की मृदु छाया,

तोड़ प्रकृति से भी माया।

बाले तेरे बाल जाल में,

कैसे उलझा दू लोचन ?

भूल अभी से इस जग को

प्रकृति व सौन्दर्य के कवि केदारनाथ अग्रवाल को ज्वार के खेत में सौन्दर्य दिखाई पड़ता हैं-

ज्वार खड़ी खेतों में लहराती हैं,

कहती हैं मेरे योवन को बढ़ने देना।

शाम सवेरे के रंगों में रंगने देने,

मस्त हवा के हिलकोरो में हंसने देना।।

इस प्रकार नारी के सौन्दर्य, विरह, पीड़ा, श्रृंगार, चंचलता, संयोग-वियोग आदि रूप को विजयवर्गीय के चित्रों के साथ ही समकालीन हिन्दी साहित्य की कविताओं में भी उपरोक्त कवियों ने स्थान दिया हैं। नारी के साथ प्रकृति की छटाओं और सौन्दर्य को भी हिन्दी साहित्य की कविताओं में स्थान मिला हैं।

विजयवर्गीय ने विभिन्न स्थानों पर अपनी प्रदर्शनियां आयोजित की इनकी अनवरत कला साधना के लिए 1970 ई. में राजस्थान प्रदेश का सर्वोंच्च कला सम्मान ‘कलाविद्’ सन् 1984 ई. में भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ तथा सन् 1989 ई. में राष्ट्रीय ललित कला अकादमी द्वारा ‘रत्न सदस्यता’ से सम्मानित किया गया। केन्द्रीय तथा राजस्थान ल. क. अ. द्वारा आप पर मोनोग्राफ भी छापे गए  हैं।

निष्कर्ष : विजयवर्गीय जी ने पारम्परिक कला शैली के अंकन में निपुण और सिद्धस्थ होने के उपरान्त भी आधुनिक कला की विविध विधाओं और प्रयोगों का स्वागत किया तथा अपनी कृत्तियों में उन्हें स्थान दिया है। इस प्रकार कोई भी कलाकार अपने उद्गारों को चारो दिशाओं में उछालकर मुक्त हो जाने की स्थिति का अनुभव करता हैं। चित्रकार, कहानीकार इसी प्रकार अपने को उछालता रहता हैं। जनता उसे प्रसाद समझकर कभी अपने शीश पर चढ़ा लेती हैं, कभी नकार देती हैं। जीवन की यह आंख मिचौनी जब हमारे सम्मुख कविता बनकर आती हैं कला बनकर आती है।

सन्दर्भ :

  1. व्यौहार राम मनोहर सिन्हा- समकालीन कला के आयाम; समकालीन कला अंक 17, ल.क.अ. नई दिल्ली, 17 मई 1996, पृ.सं. 27
  2. शेफाली भटनागर - भारतीय आधुनिक चित्रकला में सामाजिक संदर्भ, कलादीर्घा, उत्कर्ष प्रतिष्ठान, जयपुर, अप्रेल 2001, पृ.सं. 54
  3.  ए.एल. दमामी-राजस्थान की आधुनिक कला एवं कलाविद्, हिमांशु पब्लिकेशन्, उदयपुर पृ.सं. 29
  4. ए.एल.दमामी-पद्मश्री विजयवर्गीय की कला दृष्टि, सम्पादन-डॉ. हरिमहर्षि, रूपाकंन 1999, पृ.सं. 101
  5. रीता प्रताप, भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, रा.हि.ग्र.अ. जयपुर, 2009, पृ.सं. 407
  6. नीलिमा वशिष्ट-राजस्थान की मूर्तिकला परम्परा रा.हि.ग्र.अ., जयपुर 2001, पृ.सं. 29
  7. अविनाश बहादुर वर्मा, भारतीय चित्रकला का इतिहास, प्रकाश बुक डिप्पो, बरेली, 1968, पृ.सं. 294
  8. प्रेमचन्द गोस्वामी-रामगोपाल विजयवर्गीय, मोनोग्राफ, ल.क.अ. जयपुर, 1979, पृ.सं. 4
  9. प्रेमचन्द गोस्वामी-भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का संक्षिप्त इतिहास, पंचशील प्रकाशन, जयपुर, पृ.सं. 88
  10. विनोद भारद्वाज-बृहद आधुनिक कला कोश, 2006, पृ.सं. 130
  11. प्रेमचन्द गोस्वामी-आधुनिक भारतीय चित्रकला के आधार स्तम्भ, रा.हि.ग्र.अ. जयपुर, 2007, पृ. सं. 66
  12. विद्यासागर उपाध्याय-बहुआयामी चित्रकार-रामगोपाल विजयवर्गीय, राजस्थान पत्रिका, जयपुर, 22 अगस्त 1993
  13. प्रेमचन्द गोस्वामी-आधुनिक भारतीय चित्रकला के आधार स्तम्भ, जयपुर 1995, पृ. सं. 69

डॉ. जितेश कुमार जाँगिड़
सहायक आचार्य, चित्रकला श्री रतनलाल कंवरलाल पाटनीराजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, किशनगढ़
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चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-51, जनवरी-मार्च, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव छायाकार : डॉ. दीपक कुमार

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