शोध आलेख : ‘इला’ नाटक में विविध अस्मितामूलक विमर्श / बी.वी.एन. उमा गायत्री

इलानाटक में विविध अस्मितामूलक विमर्श
- बी.वी.एन. उमा गायत्री


शोध सार :इलानाटक प्रभाकर क्षोत्रिय जी का सुप्रख्यात नाटक है इसकी कथावस्तु श्रीमद्भागवतके नवम स्कंध के पहले अध्याय में वर्णित राजा मनु, श्रद्धा और इला/ सुद्युम्न की कथा पर आधारित है। इस नाटक में राजा मनु द्वारा राजा होने के दर्प में आकर तथा अपने राजत्व के पीछे अपने पितृसत्तात्मक अहंकार को छिपाकर वंशोद्धार के लिए पुत्रप्राप्ति की इच्छा के नाम पर की जाने वाली राजनीति और अमानवीय कृत्यों के कारण कितनी ज़िंदगियों के साथ खिलवाड़ होता है, इन विषयों का अत्यन्त मार्मिक चित्रण हुआ है। साथ ही पद के मद में चूर होकर पुरुष की सत्ता को प्रकृति से भी ऊपर समझने के क्या दुष्परिणाम होते हैं इस बात का भी इस नाटक में बखूबी चित्रण किया गया है। हर अच्छी साहित्यिक कृति की तरह इलाभी एक ऐसा नाटक है जिसको जितनी बार पढ़ा जाए उतनी बार उसमें से चिंतन का एक नया आयाम खुलता है। इस शोध-आलेख में इस नाटक में छिपी अस्मितामूलक विमर्शों की आवाज़ को उजागर करने का प्रयास हुआ है। इस दिशा में इलानाटक में स्त्री-विमर्श, पारिस्थितिक-स्त्रीवाद तथा किन्नर-विमर्श-उत्तराधुनिक काल में उभरे इन तीन अस्मितामूलक विमर्शों को विश्लेषण का आधार बनाया गया है।

बीज शब्द : अस्मिता’, ‘अस्तित्व’, ‘विमर्श’, ‘पितृसत्ता’, ‘पूँजीवाद’, ‘उत्तराधुनिकता’, ‘उत्तर-संरचनावाद’, ‘इको-फेमिनिज़म’, ‘फेमिनिज़म’, ‘पारिस्थितिक-स्त्रीवाद’, ‘ प्रकृति और पुरुष’, ‘किन्नर’, ‘श्रीमद्भागवत्’, ‘पुत्रकामेष्टि यज्ञ, यज्ञ का होता

मूल-आलेख :

प्रस्तावना -साहित्य और समाज के बीच हमेशा से एक द्विआयामी संबंध रहा है। साहित्य समाज में व्याप्त कुरीतियों और कुमानसिकताओं को उजागर करके उनके ख़िलाफ़ जनता में चेतना जागृत करने का काम करता है और इस जनजागृति के कारण समाज सुधार की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार साहित्य में हमेशा से शोषण के ख़िलाफ़ चिंतन-मनन विद्यमान रहा है। मगर हिंदी साहित्य के बौद्धिक जगत् में एक अनुशासन के रूप में अस्मितामूलक विमर्शों की चर्चा उत्तर-आधुनिकता एवं उत्तर-संरचनावाद के युग में सामने आती है। अस्मितामूलक विमर्शकी अवधारणा दो शब्दों को मिलाकर बनी है- अस्मिताएवं विमर्श। विमर्शशब्द का शाब्दिक अर्थ है किसी विषय पर विचार-विनिमय करना। साहित्य के क्षेत्र में इसे अंग्रेज़ी के डिस्कोर्स के स्थानापन्न के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है जो किसी विषय पर व्यवस्थित तरीक़े से एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में विचार-विनिमय करता है। अस्मिताशब्द का शाब्दिक अर्थ है किसी व्यक्ति या वस्तु के होने को या उसके अस्तित्व को स्वीकार करना। यह शब्द हिंदी में संस्कृत से आया है। यह संस्कृत के अस्मिशब्द से बना है जिसका अर्थ हैमैं हूँ किसी के होने को उसका अस्तित्व कहा जाता है। दरअसल अस्मिता और अस्तित्व शब्द एक ही विचार (होने के बोध) के दो छोर  हैं। अस्तित्वशब्द बना है संस्कृत के अस्तिशब्द से जिसका अर्थ है वह है या ऐसा है अतः अस्मिता’(आइडेंटिटी) का अर्थ हुआ मेरा होनातथा अस्तित्व’(एक्सिस्टेंस) का अर्थ हुआ उसका होना इस प्रकार अस्मितामूलक विमर्श उसे कहते हैं जो समाज को अपने होने का तथा अपने अधिकारों का बोध कराता है। समाज के बहुत से ऐसे वर्ग हैं जो किसी किसी रूप में दमनकारी शोषणकारी कुटिलनीति के शिकार बने हैं और अभी भी बनते हैं। अस्मितामूलक विमर्श ऐसा डिस्कोर्स है जो ऐसे वर्गों के हितों की बात करता है। इनमें दलित, आदिवासी, स्त्री, किन्नर, वृद्ध, बाल, किसान आदि वर्ग हैं जिनके हितों के लिए आवाज़ को बुलंद किया गया है।


इन सभी उत्तराधुनिक विमर्शों को लेकर हिंदी-साहित्य की हर विधा में रचनाएँ हुई हैं। साहित्य की अत्यन्त जीवंत विधा- नाटक भी इस दिशा में पीछे रहा। साठ के बाद के दशकों में इन विमर्शों को केंद्र में रखकर रचित कृतियाँ बहुत बड़ी संख्या में देखने को मिलती हैं जिनका विषय चाहे आधुनिक हो या ऐतिहासिक या पौराणिक मगर उनकी मूल संवेदना तो आधुनिक ही रही है। साठोत्तर काल का एक ऐसा बहुचर्चित नाटक है प्रभाकर क्षोत्रिय द्वारा रचित इलाजो श्रीमद्भागवतमें वर्णित महाराज मनु, उनकी पत्नी श्रद्धा, उनकी संतान इला, जिसे बाद में सुद्युम्न बना दिया जाता है, और उनके राजगुरु वशिष्ट की पुराकथा को आधार बनाकर नवीन विमर्शोंकी तीखी अभिव्यक्ति के साथ रचा गया है। इस शोध-आलेख में इलानाटक को एक व्यापक परिदृश्य में समझने के लिए उसमें चित्रित तीन अस्मितामूलक विमर्श- स्त्री-विमर्श, पारिस्थितिक-स्त्रीवाद और किन्नर-विमर्श की दृष्टी से नाटक के मूल सम्प्रेष्य को समझने का प्रयास किया गया है। इन विमर्शों के अलावा यह नाटक इन्सान में बढ़ते अहम् पर भी प्रहार करता है जो अपने को प्रकृति, ज्ञान-विज्ञान और समस्त संसार से ऊँचा समझने लगता है।क्षोत्रिय ने नाटक में मनु के अंदर सबसे पहले इस मनुत्व को तोड़ा जिसमें राजा का अहम् ऋषि-सत्ता से ऊपर जाने की कोशिश करता है। राजा की स्वेच्छाचारी शक्ति, ज्ञान और विज्ञान को निर्देशित कर सकती है, निर्धारित या नियंत्रित नहीं कर सकती, उन्हें दास नहीं बना सकतीएक तरह से अहम को सभी प्रकार के शोषणों की जड़ भी कहा जा सकता है। अतः मूल रूप में इन सभी विमर्शों का विरोध इन्सान के इस अहम् के ख़िलाफ़ ही है।  


इला नाटक में स्त्री-विमर्श -

     प्रभाकर क्षोत्रिय द्वारा रचित इलानाटक आज के समय में स्त्री-अस्मिता तथा उसके अधिकारों से जुडे प्रश्नों को अपने ढंग से उठाता है। यह पौराणिक परिवेश का एक आधुनिक नाटक है जिसमें जनसामान्य के मानस-पटल पर रची-बसी एक पुराकथा को एक नए परिदृश्य में बुना गया है। नाटककार ने इस नाटक में मुख्य रूप से स्त्री-विमर्श के दो आयामों को उजागर किया है। एक तरफ वे एक माँ के रूप में स्त्री के अधिकार तथा इस मुद्दे के सहारे सामान्य रूप से पुरुषसत्ता की नींव पर खड़े घर एवं समाज के फैसलों में स्त्री की इच्छा को दिए जाने वाले महत्त्व पर प्रश्न उठाते हैं, तो दूसरी तरफ कन्या भ्रूण हत्या की गंभीर समस्या, जेंडर भेद  तथा वंश के उद्धार में पुत्री के योगदान की अवहेलना जैसे मुद्दों पर भी अपने पाठकों और दर्शकों को सोचने पर विवश करते हैं। नाटक के आरंभ में ही इस बात का संकेत देते हुए वाचक कहता है- तो देवियों और सज्जनों! राजा ने लड़का चाहा और लड़की हुई! बस यहीं से शुरू होती है हमारी असली कहानी”2 इसी से निकलते हैं एक माँ के रूप में स्त्री के अधिकारों के प्रश्न और एक पुत्री के रूप में स्त्री की अस्मिता तथा उसके अस्तित्व के प्रश्न।


     महाराज मनु पुत्र एवं राज्य के उत्तराधिकारी की इच्छा से गुरु वशिष्ठ से पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराते हैं परंतु अपने पति की बेटियों के प्रति स्नेह को ध्यान में रखकर श्रद्धा यज्ञ के होता से पुत्री की कामना करने को कहती है। पुत्रकामेष्टि के फलस्वरूप प्राप्त पुत्री को देखकर मनु खिन्न हो जाते हैं और किसी भी तरह इस अनर्थ को सुधारने के प्रयासों में लग जाते हैं। पुत्री के जन्म को कुफल मानने वाले मनु गुरु वशिष्ठ से कहते हैं- “अपमान और धिक्कार का जीवन बिताने से तो अच्छा था मेरा संतानहीन रहना3 मनु की इन बातों से नाटककार ने आज के समाज में हो रही भ्रूण हत्याओं पर कटाक्ष किया है। समाज में लोग एक लड़की को पालने से अच्छा उसे मारकर संतानहीन रहना ही पसंद करते हैं। अंतर केवल इतना है कि मनु के लिए पुत्रि के प्रति अनासक्त होने का कारण साम्राज्य का उत्तराधिकारी चाहना था, जो उस समय एक लड़का ही हो सकता था और आज के समाज में इसके अन्य कई कारण हैं। इसलिए तो वह श्रद्धा से कहते भी हैं कि दूसरों की कन्याओं से प्रेम करना और अपने लिए कन्या चाहना दो अलग बातें हैं,देवी!”4 अपने इस दोगलेपन और भेदभावपूर्ण व्यवहार को वे धर्म की आड़ में सही सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। वे गुरु वशिष्ट से कहते है- “पुत्रकामेष्टि का विपरीत परिणाम देखकर लोगों की धर्म-कर्म में आस्था रहेगी? जब धर्म से ही आस्था उठ गई तो मेरा रचा संविधान, मेरी सत्ता कहाँ टिकेगी? रेत के महल की तरह ढह जाएगी वह।5 मनु के इन वाक्यों में उनका अहंकार तथा सत्ता का दर्प भी साफ़ दिखाई देता है। यहाँ पर पुत्रकामेष्टि और पुत्रीकामेष्टि का द्वन्द्व दरअसल एक जेनेटिक-इंजीनियरिंग है।6  


अब अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए मनु प्रकृति को चुनौती देते हुए अत्यंत अमानवीय तरीक़े से गुरु वशिष्ठ से कहते हैं कि वे फूल की तरह कोमल इस बच्ची को पुरुष बना दें और राजगुरु होने के कारण विवश होकर वशिष्ठ को यह मानना ही पड़ता है। मगर जब मनु श्रद्धा से इस विषय पर बात करने जाते हैं तो अपने प्रिय पति को पुत्री के जन्म के बाद निराश और क्रोधित देखकर श्रद्धा कहती हैंहे स्वयंभू ! तू जिस हाथ से स्त्री को सब कुछ देता है उसी हाथ से सब कुछ छीन क्यों लेता है? कैसी विडंबना है यह? मेरी बेटी! यह सृष्टि केवल पुरुषों की है। गर्भ में धारण करने और अपना रक्त पिलाने पर भी माँ, अपनी संतान को, अपनी तक नहीं कह सकती!”7 श्रद्धा के इन शब्दों में एक स्त्री की अस्मिता तथा उसके अधिकारों के साथ-साथ एक माँ की वेदना भी सुनाई देती है। इस तरह पुरुषसत्ता के चलते इला को अमानवीय रासायनिक प्रक्रियाओं से गुज़रना पडता है और अंततः उसे सुद्युम्न बना दिया जाता है।


नाटककार ने केवल समस्या का चित्रण किया है अपितु उसका विरोध भी किया है तथा उसके प्रति विद्रोह की भावना को भी दर्शाया है। मनु जब वशिष्ठ से कहते हैं कि श्रद्धा को यज्ञ में होता से पुत्री की कामना करने की आज्ञा देने से पहले उससे एक बार पूछ लेना चाहिए था, तो वशिष्ठ एक स्त्री के अधिकारों की बात करते हुए कहते हैं कि- “क्यों... वह तो वैसे भी माता का अपना अधिकार है। संतान को गर्भ में धारण करने की पीड़ा को कौन झेलता है? रस-रक्त कौन पिलाता है? प्रसव की प्राणांतक वेदना किसे होती है? केवल पिता होने के कारण पुरुष माँ के सारे अधिकार छीन लेना चाहता है?”8 देवी श्रद्धा भी मनु के इस प्रस्ताव को विवश होकर मान तो लेती हैं मगर उनके इस व्यवहार के विद्रोह में कहती हैं- “परंतु सुन लीजिए आप.... श्रद्धा प्रतिज्ञा करती है कि वह दुबारा माँ नहीं बनेगी; वह राजवंश के छल को अपने रक्त से नहीं पालेगी।”9  इन संवादों से नाटककार इस बात की ओर संकेत करना चाहते हैं कि किसी भी परिस्थिति में बच्चे को जन्म देने वाली स्त्री का ही यह अधिकार होता है कि वह यह निर्णय करें कि उसे बच्चे चाहिए या नहीं, अगर चाहिए तो कब और कितने। कोई पुरुष इस मामले में उससे ज़बर्दस्ती नहीं कर सकता और उसे करना भी नहीं चाहिए।


इला नाटक में पारिस्थितिक-स्त्रीवाद -

     इलानाटक में एक स्तर पर तो एक स्त्री की अस्मिता, उसका अस्तित्व, उसकी इच्छाएँ तथा उसके अधिकारों की बात हुई है मगर यह नाटक एक दूसरे आयाम में प्रकृति की सत्ता पर अपने अहंकार के कारण पुरुष के हावी होने के प्रयास तथा उसके दुष्परिणामों की भी चर्चा करता है। सत्तामद तथा विकास की अंधी होड़ में चूर आज के मानव में लुप्त हो रही मानवता और संवेदनशीलता को मनु की पौराणिक गाथा के माध्यम से नाटककार ने बखूबी रेखांकित किया है। चिंतन की इसी दिशा को सैद्धांतिक रूप में देखा जाए तो हमें इस नाटक में पारिस्थितिक-स्त्रीवाद की झलक साफ़ दिखाई देती है। वास्तव में पारिस्थितिक-स्त्रीवाद एक सिद्धांत के रूप में तो अपेक्षाकृत एक नवीन विमर्श है मगर अपने मूल रूप में कोई भी विमर्श अचानक जन्मा नहीं होता। इस संदर्भ में प्रसिद्ध फेमिनिस्ट मारिया मीज़तथा वंदना शिवाने अपनी पुस्तक  इको फेमिनिज़ममें पारिस्थितिक-स्त्रीवाद की परिभाषा देते हुए लिखा है- इको फेमिनिज़म एक प्राचीन ज्ञान के लिए एक नया पद है। यह 1970 के दशक के अंत और 1980 के दशक की शुरुआत में विभिन्न सामाजिक आंदोलनों- नारीवाद, शांति और पारिस्थितिकी आंदोलन से उभरा। “(a new term for an ancient wisdom’ Grew out of various social movements- the feminist, peace and ecology movements- in the late 1970s and early 1980s.)”10


 पारिस्थितिक-स्त्रीवाद यह मानता है कि स्त्री और पर्यावरण के बीच एक अटूट बंधन है, जो उन्होंने इस पितृसत्तात्मक् व्यवस्था में एक साथ जिया है दोनों के शोषण का इतिहास साझा है।11 इस नाटक में भी नाटककार ने एक स्त्री के रूप में जन्मी इला को उसकी मूल प्रकृति के विपरीत एक पुरुष बनाने के माध्यम से मानव के बढ़ते अहम् की ओर संकेत किया है। गुरु वशिष्ठ मनु के इस हठ (इला को सुद्युम्न बनाने के हठ) का विरोध करते हुए उससे यह प्रश्न करते हैं कि- “स्वाभाविक या अस्वाभाविक किसी भी रीति से अपना महत्त्व बनाए रखना चाहते हो तुम?”12 इसके पश्चात सुद्युम्न के प्रकृति के गोद में आकर पुनः स्त्री बन जाने को प्रकृति के विद्रोह के रूप में दिखाया गया है। इससे उन्होंने इस तथ्य को भी स्पष्ट किया है कि भले ही इन्सान वैज्ञानिक रूप से कितना भी विकास कर लें मगर वह प्रकृति की सत्ता को कभी रौंद नहीं सकता। अगर वह इसका प्रयास करता है तो उसे कितने दुष्परिणामों और उलझनों का सामना करना पड़ेगा इसकी भी बात नाटककार यहाँ करते हैं। पूँजीवादी सत्ता के लोभ में आकर प्रकृति का विनाश कर रहे सभी मनुष्यों के प्रतीक मनु को समझाते हुए गुरु वशिष्ठ कहते हैं- “प्रकृति महाशक्ति है। वह साधना का सम्मान करती है। संसार के कल्याण के लिए अपने अजाने रहस्य तक खोल देती है वह। परंतु विनाश और विकृति वह सहन नहीं कर सकती।.... उसकी प्रतिहिंसा नहीं देखी है तुमने अभी।13 मनु का यह हठआज के वैज्ञानिक युग की अतिप्राकृतिक देन, भीषण सच्चाई, प्रकृति के स्वाभाविक नियम के आगे मनुष्य का निरंकुश, हिंसा और कायर हस्तक्षेप भी है। यह क्रूरता और संवेदनहीनता आज का सबसे बड़ा खतरा है।14 दरअसल यहाँ प्रकृति पर पुरुष-सत्ता का अर्थ मात्र स्त्री का शोषण करने वाली पितृसत्ता तक ही सीमित नहीं है। वंदना शिवा के अनुसार– “पितृसत्तात्मक पूँजीवादी विश्वदृष्टि से इस पृथ्वी के सारे जीवों के विमोचन एवं संरक्षण के लिए स्त्रियों को लड़ना चाहिए इको फेमिनिज़म फेमिनिज़म से भिन्न है। इको फेमिनिज़म पूँजीवाद एवं युद्ध के ख़िलाफ़ है पूँजीवादी संरचना पर आधारित सभी प्रवृत्तियों का विरोध इको-फेमिनिज़म करता है।”15 सतही तौर पर यह नाटक मात्र एक राजा के उत्तराधिकारी की समस्या पर आधारित नाटक नज़र आता है मगर इसके मूल में जाते हैं तो समझ में आता है कि यहपुरुष, सता और शक्ति द्वारा प्रकृति/स्त्री पर अनादि काल से लेकर आज तक विविध रूपों एवं स्तरों पर, किए जाने वाले बलात्कार और अन्याय-अत्याचार की उत्तेजक कहानी है। सत्ता और सत्य के बीच की विसंगतियों का दिलचस्प चित्रण यहाँ हुआ है। यह स्थिति की विडंबना और प्रकृति के प्रतिशोध का नाटक है16        


इला नाटक में किन्नर-विमर्श -

           इला नाटक में सर्वप्रथम हमने स्त्री-विमर्श के स्वर को उजागर किया। इसके बाद अपनी सत्ता के मोह में प्रकृति के ख़िलाफ़ पुरुष के द्वारा किए गए विनाशकारी प्रयास के वर्णन और उसके विरोध के रूप में पारिस्थितिक-स्त्रीवाद के स्वर को भी उजागर किया। अब हम देखेंगे कि किस प्रकार इस लिंग-परिवर्तन (पुत्री इला को पुत्र सुद्युम्न बनाने) के परिणाम स्वरूप सुद्युम्न को, श्रद्धा को, मनु को और राज्य की संपूर्ण प्रजा को क्या-क्या देखना और सहना पड़ता है तथा सुद्युम्न किस तरह अपने  द्विविध व्यक्तित्व वाली ज़िंदगी काटता है इन सबके चित्रण के माध्यम से नाटककार इस नाटक में किन्नर-विमर्श की झाँकियों को उभारते हैं।


     हमारे समाज में आज किन्नरों को क़ानूनी अधिकार मिलने के बाद भी किसी भी घर, परिवार या समाज के दो ही आधार स्तंभ माने जाते हैं- स्त्री एवं पुरुष। समाज में एक व्यक्ति की अस्मिता को इन ही दोनों लिंगों के आधार पर आँका जाता है। जो  इन दोनों अस्तित्वों को अपने अंदर समाए हुए अंदर से कुछ तथा बाहर से कुछ और होने की कोशिश में अपनी पूरी ज़िंदगी निकाल देते हैं ऐसे लोगों के अस्तित्व को समाज सहृद होकर खुली बाहों से आज तक स्वीकार नहीं कर पाया है। इलानाटक की शुरुआत में ही पुरुष वेश में आई स्त्री प्रतिवाचक देवी जीकहकर पुकारे जाने पर इस लिंगगत पहचान का खंडन करते हुए कहती हैं- “लिंगभेद वाले संबोधन करो! मैं मनुष्य हूँ। प्रतिशक्ति हूँ, विद्रोह हूँ, उत्तर हूँ  हर असत्य का।17 राजा मनु द्वारा अपने अहम् को शांत करने के लिए किए गए कुकृत्य के परिणामस्वरूप सुद्युम्न को कितनी यातना झेलनी पड़ी इसे पढ़कर या देखकर सामाजिक का हृदय करुणा से द्रवित हो जाता है। वह तो अपने अंदर के दोनों छोरों को समेट पाता है और ही किसी एक को लेकर आगे बढ़ पाता है। इन दोनों छोरों के बीच झूलते किन्नरों के द्विविध व्यक्तित्व को समाज भी स्वीकार नहीं करता और हर कदम पर उन्हें अपने व्यक्तित्व को लेकर ताने सुनने पड़ते हैं। एक साधारण परिदृश्य मेंसभ्य समाज से निराश्रित, बहिष्कृत एवं तिरस्कृत यह वर्ग दो वक्त की रोटी का मोहताज होने के साथ ही अकेलेपन एवं अजनबीपन की पीड़ा को झेलने के लिए भी बाध्य है।”18 मगर इस नाटक में सुद्युम्न एक राजवंश में जन्मे राजकुमार होने के कारण उसे खान-पान की समस्या तो नहीं होती मगर अकेलेपन और अजनबीपन की व्यथा से तो राजवंश भी उसे नहीं बचा पाता है। वह एक जगह अपनी माता से अपने अस्तित्व की लड़ाई को लेकर खुलकर बात करते हुए कहता है कि- “मेरा मन.... क्या करूँ वह मेरा साथ नहीं देता, माँ। समुद्र-मंथन चलता रहता है मेरे भीतर जो मेरे अस्तित्व को कभी इधर तो कभी उधर... स्थिर नहीं रहने देता मुझे!”19 अपने पुत्र को (पुत्री को) इस हालत में देखकर श्रद्धा जिस मानसिक पीड़ा से गुज़रती हैं वह वर्णनातीत है। एक रानी होने के नाते वह चाहकर भी अपने बच्चे को उसके अस्तित्व की सच्चाई नहीं बता सकती और मनु तो बताना चाहते भी नहीं हैं। अपने अंदर पल रहे इस अकेलेपन और अजनबीपन से अकेले जूझते हुए एवं बाह्य समाज की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश करते हुए सुद्युम्न एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ उसकी पत्नी उसे समझ पाती है, उसके पिता उसे अपने उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार कर पाते हैं और ही उसकी प्रजा उसे अपने योग्य शासक के रूप में अपना पाती है। हर कोई उससे नाख़ुश ही रहता है। उत्तराधिकारी के लोभ में आकर पुत्री को पुत्र बनाने वाले मनु ख़ुद आखिर कह देते हैं- “उस जैसा आधा पुरुष मनु का उत्तराधिकारी नहीं हो सकता।20 इस प्रकार सुद्युम्न को दोहरे स्तर पर- समाज में और घर में अस्वीकृति का सामना करना पड़ता है। यही आज के समाज में किन्नरों की दुर्दशा है जिसके ख़िलाफ़ नाटककार आवाज़ उठाना चाहते हैं।       


 निष्कर्षनिष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि 80 के दशक में लिखा गया उत्तराधुनिक विमर्शों की आवाज़ों से गूँजता यह नाटक- इला’, एक पौराणिक कथानक के कैनवास पर एक नवीन चित्र खींचता है। इस नाटक में नाटककार ने बड़े ही रोचक और प्रभावी ढंग से ऐसे मुद्दों को उठाया जिन पर गहन चिंतन-मनन करना आज के समाज की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। एक स्त्री की अस्मिता को लेकर समाज में लड़ाई तो कई पीढ़ियों से चली रही है मगर आज भी समाज अपने आप को कितना भी आधुनिक सोच वाला दिखा दें परन्तु स्त्री स्वतंत्रता तथा उसके अधिकारों को लेकर उसकी सोच कहीं कहीं दमनकारी शोषणकारी ही है। मानव जाति के अंतर्मन में रची-बसी एवं सालों से चली रही इन पितृसत्तात्मक धारणाओं को तोडने की दिशा में यह नाटक एक सशक्त कदम है। एक व्यक्ति का कल्याण, चाहे वह पुरुष हो, स्त्री हो या किन्नर, उसके आस-पास की प्रकृति पर निर्भर करता है। मनुष्य द्वारा अपने प्रयोजन के लिए प्रकृति को रौंदकर आगे बढने का प्रयास तथा मानवता को रौंदकर खड़ा हो रहा संवेदनहीन समाज आज के सबसे भयानक सत्य हैं। इन्हीं बातों को उजागर करते हुए यह नाटक प्रकृति के गोद में रहकर ही विकास करने को मानवता के लिए श्रेष्ठ बताता है। वरना उसके द्वारा लिया जाने वाला प्रतिशोध कितना भयंकर हो सकता है इसको भी यह नाटक दर्शाता है। इला और सुद्युम्न के व्यक्तित्वों के बीच के द्वन्द्व को यह नाटक अत्यंत मार्मिक और हृदयस्पर्शी रूप में चित्रित करता है। संक्षेप में यह शोषणकारी प्रभुत्व के ख़िलाफ़ शोषित समाजों के लिए अपनी आवाज़ को बुलंद करता है।


संदर्भ :            
1. रमेश देव, सं. डॉ. विभुकुमार, डॉ. रूपाली चौधरी, ‘मिथक पुनर्सृजन इला और प्रभाकर क्षोत्रिय का रंग-संसार’-‘इला : मिथक का नया इतिहास’, किताबघर प्रकाशन, 2001, पृ.सं. 17
2. प्रभाकर क्षोत्रिय, ‘इला’, प्रभाकर प्रकाशन, 2022, प्रृष्ठ सं.- 20   
3. वही पुस्तक, पृ.सं. 28
4. वही पुस्तक, पृ.सं. 38
5. वही पुस्तक पृ.सं. 25
6. रमेश देव, सं. डॉ. विभुकुमार, डॉ. रूपाली चौधरी, ‘मिथक पुनर्सृजन इला और प्रभाकर क्षोत्रिय का रंग-संसार’-‘इला : मिथक का नया इतिहास’, किताबघर प्रकाशन, 2001, पृ.सं. 17
7. प्रभाकर क्षोत्रिय, ‘इला’, प्रभाकर प्रकाशन, 2022, पृ. सं.- 43   
8. वही पुस्तक पृ.सं. 36
9. वही पुस्तक पृ.सं. 42
10. Maria Meis and Vandana Shiva, ‘Ecofeminism’, Rawat Publication, page 13
11. सुप्रिया पाठक, ‘स्त्री और प्रकृति; प्राकृत भारती अकादमी, 2022, पृ.सं. 26
12. प्रभाकर क्षोत्रिय, ‘इला’, प्रभाकर प्रकाशन, 2022, प्रृष्ठ सं.- 28
13. वही पुस्तक, पृ.सं. 27
14. डॉ. गिरीश रस्तोगी, सं. डॉ. विभुकुमार, डॉ. रूपाली चौधरी, ‘मिथक पुनर्सृजन इला और प्रभाकर क्षोत्रिय का रंग-संसार’-‘इला : बडे कैनवेस का नाटक’, किताबघर प्रकाशन, 2001, पृ.सं. 20
15. के वनजा, ‘इको-फेमिनिज़म’, वाणी प्रकाशन, 2013, पृ.सं. 37
 16. मृत्युंजय, सं. डॉ. विभुकुमार, डॉ. रूपाली चौधरी, ‘मिथक पुनर्सृजन इला और प्रभाकर क्षोत्रिय का रंग-संसार’-‘इला : पौराणिक परिवेश का आधुनिक नाटक’, किताबघर प्रकाशन, 2001, पृ.सं. 25
17. प्रभाकर क्षोत्रिय, ‘इला’, प्रभाकर प्रकाशन, 2022, प्रृष्ठ सं.- 20
18. डॉ. इसरार अहमद, ‘किनर विमर्श साहित्य के आईने में’, विकास प्रकाशन, 2017 पृ.सं. 24
19. प्रभाकर क्षोत्रिय, ‘इला’, प्रभाकर प्रकाशन, 2022, प्रृष्ठ सं.- 49
20. वही पुस्तक, पृ.सं. 73

बी.वी.एन. उमा गायत्री
शोधार्थी, हिंदी विभाग, कर्नाटक केंद्रीय विश्वविद्यालय,  कलबुरगी, कर्नाटक


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-51, जनवरी-मार्च, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव छायाकार : डॉ. दीपक चंदवानी

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