समकालीन हिन्दी कविता में एक नए दौर का आगाज़ मिलता है। भूमण्डलीकरण, आधुनिकता और उत्तरआधुनिकता वे प्रस्थान बिन्दु हैं जिन पर समकालीन कविता का आधार निर्मित होता है। कविता नए रूप में ढलते दिखती है। हालांकि कविता में इनकी वजह से सब कुछ परिवर्तित या एकदम नया, अभूतपूर्व कुछ हो गया हो, यह कहना भी ठीक नहीं है। अगर मैं इसे नए दौर का आग़ाज़ कह रहा हूँ तो मेरा तात्पर्य नए भावबोध, परिस्थितियों, विमर्शजन्य वैचारिकी और संवेदना के अस्मितामूलक बोध से है। पाठक एवं उसके बोध का परम्परागत ढाँचा भी टूटता दिखाई देता है। पाठक अब केवल पाठक नहीं, वह आपका फॉलोवर(अनुकरणकर्ता) भी हो सकता है। यह तकनीक आधारित लेखक-पाठक सम्बन्ध है। हाशिए के समाज की चिन्ताओं का दौर है। शालीनता के साथ आवश्यक तीखेपन का दौर है। बाज़ार, परिवार और पारिस्थितिकी तंत्र के व्यूह में उलझे मनुष्य की सूक्ष्म वेदना को समझने का दौर है। कार्पोरेट संस्कृति की वजह से निर्मित ख़ास तरह की आर्थिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार का दौर है। मनुष्यता के ख़त्म होने और जातीय बोध की श्रेष्ठता को प्रस्थापित करने का दौर है। मरती हुई संवेदनाओं का दौर है। इस संदर्भ में आनन्द प्रकाश लिखते हैं- ‘‘अन्तरराष्ट्रीय पूँजी के बढ़ते नियंत्रण, बाज़ार के वर्चस्व, संचार माध्यमों के अभूतपूर्व विस्तार और साम्राज्यवादी देशों की आक्रामक राजनीति ने सामान्य नागरिक की विवेकशीलता लगभग छीन ली है।’’ इतनी नकारात्मक स्थितियों के मध्य कविता अभी भी उम्मीद है। रोशनी है। नए एवं जटिल समाजार्थिक परिदृश्य में वह अपनी चेतना से लगातार धार देने का कार्य कर रही है। सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमानों से विलग वर्तमान कविता अपने जीवंत मुहावरों से ख़ास रिश्ता तय कर रही है। मनुष्य की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावना इससे छिपी हुई नहीं है। इस पृष्ठभूमि के साथ कवियों की एक नई पीढ़ी सृजनरत है जो अपने रचनात्मक अवदान से समकालीन कविता को नया रूप दे रही है। नए भावबोध के साथ भाषिक अभिव्यक्ति को भी बदल रही है। ये कवि मिलकर कविता के नए दौर का आग़ाज़ कर रहे हैं।
अपने सृजन-कर्म की नवीनता को लकर पहचान रखने वालों में एक नाम मनीष का है। जिन्दगी के उत्स के कवि के तौर पर उनका रचनाकर्म विशिष्ट माना जा सकता है। कविता की जानी-पहचानी ज़मीन में उनका योगदान कुछ अलग और विशेष दिखता है। कविता की लम्बी एवं सुदीर्घ परम्परा में उनकी कविताएँ उन बदलावों को इंगित करती है जो इस दौर में हुए है। मनीष अपने अनुभवों की सघनता के बूते पर ताज़गी से परिपूर्ण काव्य-संसार हमारे सामने लाते हैं। परिवर्तित समाज और उसमें हो रहे बदलावों को वे शिद्दत से महसूस करते हैं और उनसे अपनी रचनाभूमि का निर्माण करते हैं। उनके अनुभव के कुछ क्षेत्र नए हैं। प्रसिद्ध कथाकार, कवि एवं आलोचक रामदरश मिश्र उनकी कविताओं पर बात करते हुए लिखते हैं- ‘‘इन कविताओं की द्वन्द्वात्मक भाव-छवियाँ इन्हें संश्लिष्टता प्रदान करती हैं। संश्लिष्टता दुरूहता में भी होती हैं और सादगी में भी।’’ कवि मनीष की भाव-प्रस्तुति भी मानीखेज़ है। समकालीन सूक्ष्म भावनाओं को लेकर प्रतिक्रिया (शाब्दिक) करने का उनका अपना ढंग है। ‘इस बार तुम्हारे शहर में’ काव्य-संग्रह की लोकप्रियता इसकी बानगी है। कुछ नया करते रहना उनके व्यक्तित्व का भी अभिन्न हिस्सा है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उनका नवीनतम काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ है। काव्य संग्रह में कवि एक जगह कहते हैं- ‘‘फिर बचाने हैं/ आँखों में बसे सपने/ जिनके दम पर ही/ बच सकती है/ दुनिया की/ सुन्दरतम होने की उम्मीद।’’ कवि का मन्तव्य स्पष्ट है, साफ़ है। विसंगतियों से भरे समाज में सुन्दरता की तलाश, उसे बचाए रखने की जद्दोजहद। उस सुन्दरतम दुनिया को बनाए रखने की उम्मीद। पाठक कवि के सरल-सहज भाव-प्रवाह से तादात्म्य स्थापित कर लेता है वो भी अनावश्यक बाधा आए बिना। यह कवि की सफलता है कि पूरा संग्रह जिस सहज भाषा में लिखा गया है, प्रतिमानों की अनिवार्यता के बावजूद उन्होंने कविता को सुरक्षित बचा लिया है। मनीष अपनी सहज काव्य-प्रस्तुतियों से दुनिया को सुन्दरतम होने की उम्मीद को साबित करते हैं। इस तलाश में वे पाठक को निराश नहीं करते।
आलोच्य कविताएँ मनीष का आत्मकथ्य है तो वर्तमान दौर के सम्बन्धों की उड़ान को प्रत्यक्ष लाने का प्रयास भी है। वे आत्मीयता और उसके छद्म आवरण को बख़ूबी पहचानते हैं। पहली ही कविता में वे इसका परिचय अपने पाठकों से करा देते हैं। अपने अन्तः की बातों को वे सामने रखते हैं। यह उनका आत्मसाक्षात्कार है। आत्मीयता और षड्यंत्र के मध्य वे स्वयं को चुनौती देते हैं- ‘‘तो आइए/ अपने आत्मीय हथियारों के साथ/ और/ लहूलुहान करके मुझे/ आनन्दित हो जाइए/ और मुझे/ एक और अवसर दीजिए/ आपको/ आनन्द में सराबोर करने/ और ख़ुद को थोड़ा और/ जाँचने-परखने का/ आत्मीयता से भरे आत्मीय मित्रों/ स्वागत है आपका। ‘‘आत्मीय मित्रों के विश्वासघात के बरक्स वे स्वयं को चुनौती देना पसंद करते हैं। मनीष जिन परिस्थितियों को अपनी कविता में अन्तर्युक्त कर रहे हैं, वे वर्तमान समय का आईना है। हर तरफ़ अलगाव, विडम्बना, संदेह का समय। स्वार्थ आधारित रिश्तों का समय। कवि अन्यत्र लिखता है- ‘‘मुझे पहचानती हो ना?/ मैं वही हूँ/ जिसे तुमने/ बनाया अपनी सुविधा/ बिना किसी दुविधा के।’’ समकालीन मानवीय रिश्तों की सच्चाई वे खुलकर सामने लाते हैं। बिना किसी दुराव या रोक-टोक के। यह उनकी भावगत विशेषता ही है कि रिश्तों की स्वार्थपरता को वे बेबाकी से उद्घाटित करते हैं। वे किसी आलौकिक या आदर्श मानक सम्बन्धों को अपना शरण्य नहीं बनाते। इस प्रकार वे तमाम तरह के छद्म और छल से दूर हैं। वे, कविता की ठोस ज़मीन के कवि हैं।
मनीष का यह काव्य संग्रह अपनी विशिष्ट प्रेम संवेदनाओं की वजह से हमारे भीतर उम्मीद जगाता है। आर्थिक संस्कृति की विभीषिका ने ‘प्रेम’ की सूक्ष्म संवेदना पर खतरे उत्पन्न किए हैं। व्यक्ति के मनोजगत का स्फूर्त भाव धीरे-धीरे व्यस्तता का शिकार हो मरता चला जा रहा है। कवि इस झिलमिलाते भाव को रोशनी देते हैं। अवसाद और नाउम्मीदी को प्रेम की शक्ति में रूपांतरित कर देते हैं। यह उनके कवि स्वभाव की भी ख़ास पहचान मानी जा सकती है। प्रेम के सूक्ष्म भावों की प्रस्तुति में उनकी कविता ‘अक्टूबर उस साल’, बेहतरीन है। इसमें ताज़ा सोच है। देवदार के पीले चटक रंगों के पराग को नायिका के गालों पर सजाने का चाक्षुष बिम्ब प्रेम के एहसास और प्यार में जीते हृदयों की स्थिति को पुरअसर रूप में व्यक्त करता है। प्रेम एवं उससे सम्बद्ध मनुष्य भावों के संकट के दौर में इस तरह की कविताएँ शीतल समीर है। भावों के साधारणीकरण की बात है। इस आत्मपरक कविता में वाचक प्रेम-परम्परा का सिलसिला बनाए रखना चाहता है- ‘‘इस साल का/ यह अक्टूबर/ याद रहेगा साल-दर-साल/ यादों का/ एक सिलसिला बनकर।’’ कवि का निश्चय गौरतलब है। यादों का मुखर एहसास वह रीतने नहीं देगा। संकोच बस इतना कि प्रेमिका की स्वीकारोक्ति बिन यह व्यर्थ है। दूर तक साथ निभा पाने की बात करता कवि प्रत्युत्तर चाहता है- ‘‘तुम बोलोगी/ तो ये उमस भरा मौसम/ बदल जाएगा/ कुछ खिल जाएगा/ पिघल जाएगा/ किसी डरी सहमी/ अधूरी कहानी को/ थोड़ा/ हौसला मिल जाएगा।’’ कविता पढ़ते वक़्त पाठक रोमानी दुनिया में खो जाता है। उसके मन में प्रेम के सूक्ष्म कणों की बारिश होने लगती है। कवि की यह भिन्न रचना-प्रणाली और भावों की सूक्ष्म अभिव्यंजना कौशल पद्धति उन्हें विशिष्ट बना देती है।
मनीष के काव्य संग्रह में स्मृतियाँ एक शक्ति के रूप में उपस्थित है। पीड़ा का घोषित अवकाश होने पर भी जिजीविषा और स्नेह-प्रेम सिंचित क्षीण धारा को बरकरार रखती है। उनके यहाँ स्मृतियों का बीज रूप अनुभवों का रूप धरकर आया है। वर्तमान इसमें जुड़ता-सा चला जाता है। इस लिहाज़ से उनकी कई कविताएँ उल्लेखनीय हैं। एक कविता में वे लिखते हैं- ‘भूली-भूली जनश्रुतियों ने/ सुलगाया पीड़ा का/ घोषित अवकाश/ फिर धीमे-धीमे/ सधी हुई झिझकी सिसकियाँ।/ घोषित करती हैं/ दिन, महीना, साल।’’ ऐसा लगता है मानों जीवन का राग महसूस होने लगा है। कवि उसे जी रहा है और वो भी काल की सीमाओं से परे। सभ्यता और सामाजिक खूँटी वाली इस दुनिया में मन टाँगने की जगह कम होती जा रही है। कवि इससे चिन्तित है। सहज स्मृतियाँ कैसे भिगोती हैं, इसकी बानगी उनकी कविता में दिखती है-’’ लेकिन/ वह साँवली उदास लड़की/ धैर्य की पराकाष्ठा करती है/ और/ जैसे ही दरकने लगती हैं/ समय की शिलाएँ/ वह सुनती है/ टिप-टिप बारिश फिर उसकी कनखियों में/ टिमटिमाते हैं सितारे/ और प्रवाहित हो उठता है/ उसके संकल्पों का संगीत।’’ कवि अपनी स्मृतियों में भी संसार की जटिलता ध्यान रखता है। समय और संकल्प का सम्मिश्रण संगीत बनकर प्रवाहित हो रहा है। इस तरह की कई नयी युक्तियों का प्रयोग कवि ने किया है। ‘माँ’ कविता स्मृति और समय के लम्बे अंतराल की कविता है। स्मृतियों का पर्यवसान इस लम्बी कविता में हृदयविदारक स्थितियों में हुआ है। माँ का असमय जाना वक़्त के ठहरने जैसा है। एक दुनिया के खत्म होने समान है। कवि कहता है- ‘‘एक सिर्फ़ एक बार/ तुमसे लिपटकर/ बहुत रोना चाहता था/ और सुनना चाहता हूँ/ वह सब/ जो तुम बताना चाहती थी।’’ माँ को समर्पित यह कविता टूटते सम्बन्धों की दास्तान भी है। शहरीकरण के दौर में दूर होती ममता को चित्रित करने का प्रयास है। यहाँ कवि की स्मृति व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाती है। कवि की अभिव्यक्ति हम सबकी अभिव्यक्ति बन सामने आती है।
संग्रह की ज़्यादातर कविताएँ समकाल की चिन्ताओं को उजागर करती है। सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों का कवि ने आकलन किया है। यह विपरीत समय है जहाँ प्रेम और संवेदना के ख़िलाफ़ साजिशें चल रही हैं। इन भावों को मारा जा रहा है। कवि ऐसे वक़्त में प्रेम व संवेदना को बचाने की कोशिश करने वाले को तपस्वी की संज्ञा देते हैं। ‘स्थगित संवेदनाएँ’ शीर्षक कविता की बुनियाद यही भाव है। यह हमें उन तक ले जाती हैं, जिनके भीतर अभी प्रेम और संवेदना शेष है- ‘‘ऐसे समय में/ संवेदना और प्रेम/ सच में/ बड़ी तपस्या के बाद ही / बची हुई हैं/ जितनी भी बची हों/ जिस किसी भी में/ बची हों/ वह निश्चित रूप से/ तपस्या रत है।’’ इन भावनाओं का रक्षण एवं बचाव हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। इसे हम किसी व्यक्ति विशेष वर्ग या सम्प्रदाय पर थोप नहीं सकते। इन्हें बचाना हमारा उद्देश्य होना चाहिए। प्रो. पवन माथुर भाषा के ऐसे यथार्थ रूप पर बल देते हैं। वे लिखते हैं- ‘‘जब वह ऐसी भाषा में तब्दील होने लगती है जो सिर्फ समाज में नहीं यथार्थ में आबद्ध होती है। भाषा में कल्पना तो होती है किन्तु उसकी अतिरंजना नहीं।’’ प्रो. माथुर की बात से सहमत होते हुए कहा जा सकता है कि यह समकालीन यथार्थ को हमारे अंदर उत्पन्न करने का कवि का ख़ास तरीका है। वे हमें हमारी जिम्मेदारी का एहसास