आलेख : सिनेमा में बाल मनोविज्ञान / तेजस पूनियां

सिनेमा में बाल मनोविज्ञान
- तेजस पूनियां

फ़िल्में कला जगत का वह माध्यम है जो समग्र समाज और उसके परिवेश, संस्कृति इत्यादि को गहराई के साथ चित्रित करने के साथ ही संपोषित भी करती है। अपने सौ वर्षों से अधिक के समयांतराल के बाद से सिनेमा कई दौर से गुजरा है, जिसे सिनेमा के कई इतिहासकारों ने कलमबद्ध किया है। सिनेमा ने बच्चों की भी अपनी एक अलग दुनिया बसाई अपनी कहानियों के माध्यम से, जिसमें उनका बाल मन सामाजिक धरातल की भांति भावुकता और संवेदनशीलता के साथ हमेशा चित्रित किया गया। बालमन की मानसिकता को देखते हुए ही संभवत: बच्चों को मूल्य आधारित मनोरंजन देने के इरादे से हमारे आज़ाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने 11 मई, 1955 को बालचित्र समिति की स्थापना की।

हमारे सिनेमा ने राजकपूर से लेकर आमिर खान तक से बच्चों के मनोविज्ञान को केंद्र में रखकर फिल्मों का निर्माण किया। जिसमें उन फ़िल्मों ने सिर्फ मनोरंजन ही नहीं किया बल्कि उनकी अनेक समस्याओं की तरफ भी समाज का ध्यान आकर्षित करवाने में महती भूमिका अदा की। बालमन को आधार बनाते हुए सबसे पहले साल 1954 में फ़िल्म आई 'जागृति’, जिसमें बच्चों को परम्परागत तरीके से पढ़ाई करने के तरीके से हटाकर व्यवहारिकता के आधार पर पढ़ने की एक नई सोच विकसित करने की प्रेरणा दी गयी। इसके बाद अब दिल्ली दूर नहीं, बूट पॉलिश, नन्हें-मुन्ने, काबुलीवाला, दोस्ती, समय की धारा, पिहू, परिचय, किताब, तूफान और दीया, मासूम, मिस्टर इंडिया, मकड़ी, ब्लू अम्बरेला, बाईसिकलडेज, तारे जमीं पर, भूतनाथ, थैंक्स माँ, पाठशाला, बम बम भोले, चिल्लर पार्टी, स्टेनली का डब्बा, आई एम कलाम, नन्हे जैसलमेर, गुथली लड्डू जैसी फिल्मों ने हमें कई बाल कलाकार दिए जिन्होंने न केवल बच्चों के दिलों के तारों को झनकाया बल्कि साथ ही बड़ों को भी उनके प्रति व्यवहार करने की एक सीख अवश्य प्रदान की।

जहां साल 1954 में आई 'बूट पॉलिश' अनाथ, बेघर बच्चों, गरीबी, बेरोज़गारी, बाल श्रम, शारीरिक शोषण, सामाजिक सुरक्षा और अशिक्षा पर खुलकर बात करती है। फ़िल्म में भेलू और भोला दोनों बहन-भाई अनाथ हैं। परिस्थितियां उन्हें भीख मांगने पर मजबूर कर देती है परन्तु वह भीख ना मांगकर व मेहनत कर खाना पसंद करते हैं। फ़िल्म कई संवेदनात्मक मोड़ देती है, जिसमें एक सीन दिखाई पड़ता है-

चाचा मुझे रोज- रोज भूख क्यों लगती है? फ़िल्म में अबोध बालक का यह कथन बाल-मन के कितने ही संवेगों को उजागर कर जाता है। यह सही है कि भूख और अत्यंत गरीबी इन जैसे बच्चों की समस्याओं को सुधारती नहीं अपितु बढ़ाती है। भूख का यह दर्द कितना गहरा है उसकी छवि 'समाज को बदल डालो' गीत में नज़र आती है-

"अम्मा एक रोटी दे दे
बाबा एक रोटी दे दे
भूखे बच्चे मांग रहे हैं, हाथ पसार के
एक नहीं तो आधी दे दे
रुखी-सुखी रोटी दे दे"

फ़िल्म सन्देश देती है कि भीख मांगना, बेगारी करना एक निंदनीय कर्म है और इनसे मुक्ति पाकर ही व्यक्ति सही मायनों में आजाद हो सकता है। श्रम और सम्मान से कमायी गयी रोटी से अधिक अनमोल इस दुनिया की कोई वस्तु नहीं है। जिस दिन भूख, मुफलिसी, बेगारी से हमारा भारत मुक्त हो जायेगा उस दिन सच्चे मायनों में हम आज़ाद होंगे। दो पैसे आ जाने के बाद भी भोला और भेलू की आसक्ति केवल इतनी है कि वे बेर खा सकें। जीवन की सबसे कठोर स्थितियों में भी अनावश्यक संचय का विचार उनके मन में नहीं आता। ऐसी कोमल कल्पना केवल बाल मन ही कर सकता है। फ़िल्म का लोकप्रिय गीत 'नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है' एक बेहद अर्थ पूर्ण गीत है-

नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?
मुट्ठी में है तक़दीर हमारी, हमने किस्मत को बस में किया है
भोली भाली मतवाली आँखों में क्या है ?
आँखों में झूमे उम्मीदों की दिवाली आनेवाली दुनिया का सपना सजा है।

यह एक हौसला बढ़ाने वाला गीत है। बच्चों की बड़ी-बड़ी आँखों में उदासी नहीं सपने होने चाहिए लेकिन समाज की विषमता और उसका रवैया इन कोमल हाथों को भीख मांगने पर मजबूर कर देता है। किन्तु यहाँ बाल फ़िल्म निर्देशिका देवयानी अनंत, जिनकी पिछले दिनों आई फ़िल्म ‘बाईसिकल डेज’ ने काफी चर्चा बटोरी का एक बातचीत में यह कहना भी उचित है कि- भारत जैसे देश में बाल सिनेमा बहुत ज्यादा सराही जाती हैं लेकिन वे ज्यादातर फ़िल्म फेस्टिवल्स में या फिर किसी बड़े निर्माता, निर्देशक जो किसी नामचीन अभिनेता, अभिनेत्री को लेकर बनाते हैं तभी वे ज्यादा चर्चित हो पाती हैं। छोटे बजट का बाल सिनेमा या स्वतंत्र निर्देशकों द्वारा बनाई गई फ़िल्में कई बार दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती हैं। देवयानी यह भी स्वीकार करती हैं कि बहुत से लोगों द्वारा आज भी बाल सिनेमा को लेकर उदासीन रवैया अपनाया जा रहा है। जब कोई निर्माता, निर्देशक बच्चों के लिहाज से सोचकर फ़िल्म बनाता है तो वह उनके भरपूर मनोरंजन का भी पूरा ख्याल रखता है। यहाँ हमें देवयानी की इस बात को भी समझना होगा कि बाल सिनेमा दो तरह से हमारे सामने आता है- एक जिसमें बच्चा मुख्य भूमिका में होता है। दूसरी वे फ़िल्में होती हैं जिसमें भले बच्चा मुख्या भूमिका में हो किन्तु फिर भी वे अपनी कहानी के चलते बच्चों पर अच्छा प्रभाव डाल पाने में नाकामयाब होती हैं। वे कहती हैं कि दूसरी ओर ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो चाहते हैं बच्चों के लिहाज से अच्छा सिनेमा बने। हालांकि ओटीटी के आने से बहुत से बदलाव भी आये हैं लेकिन हमें उसमें भी देखना होगा कि वे नकारात्मक प्रभाव बच्चों पर ना डालें क्योंकि कोई भी बच्चा हो वह अपने आस-पास से बहुत कुछ सीखता है जिसमें सिनेमा भी एक कारण है। अच्छे बाल सिनेमा के लिए जरूरी है सभी का उनके लिए जागरूक होना। वरना तो बच्चे कार्टून और विदेशी फ़िल्में ही देखते रह जायेंगे। समाज, परिवार, सरकारें सबके साझे प्रयास से ही इसमें सुधार लाया जा सकता है। ऐसी फ़िल्में बच्चों के साथ-साथ बड़ों के लिए भी बहुत अहमियत रखती हैं।

जिस तरह 'नन्हें-मुन्ने' फ़िल्म की छोटी बालिका शकुन्तला अपने छोटे तीनों भाइयों की विषम परिस्थिति में लालन- पालन करती है वह गहराई में सोचने को मजबूर कर जाती है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित 'काबुलीवाला' बाल मनोविज्ञान की एक श्रेष्ठ फ़िल्म कही जा सकती है। 'दोस्ती' के सुनील और सुधीर अंधे और लंगड़े बालक हैं। यह फ़िल्म उनकी प्रगाढ़ दोस्ती के साथ-साथ विकलांगता का गहरा अभिशाप भी दिखलाती है। ठीक इसी तरह मन्नू भंडारी के उपन्यास 'आपका बंटी' की कहानी को आधार बना कर बनी फ़िल्म 'समय की धारा' और सन 2018 में आई 'पिहू' पति-पत्नी की रागात्मक कटुता किस प्रकार बालकों का सुनहरा बचपन छीन लेती है, प्रेम और ममता के इस असंतुलन परिवेश में बालक नितांत अकेला हो जाता है और कुंठा में डूब कभी वह अपने को खत्म कर देता है तो कभी वे कुंठाएं उसे पूरे जीवन सालती रहती हैं।

बच्चों पर बनी फिल्मों को लेकर अगर वाकई भारतीय दृष्टिकोण से खंगालने की कोशिश की जाये तो गुलज़ार की 'परिचय' और 'किताब' में बच्चों का सकारात्मक चित्रण हमें दीखता है। फ़िल्म ‘परिचय’ एक ऐसे परिवार और बच्चों की कहानी पेश करती है जहाँ बच्चों की मन: स्थिति को बिना परखे, बिना घुले-मिले इनके करीब नहीं जाया जा सकता। ऐसा न करने पर खुद परिवार के सदस्य उन्हें समझ पाने में असमर्थ दिखते हैं। फ़िल्म दिखाती है कि उन बच्चों के हाव-भाव, जरूरतों को समझ उनको पढ़ा पाने में सफल होता है। जबकि इसके पूर्व कई शिक्षक बच्चों द्वारा भगाये जा चुके होते हैं। फ़िल्म परिवार और दर्शकों को भी जरुरी सीख देती है, आज जो प्ले स्कूल का कांसेप्ट हमारे सामने दिखता है वह काफी पहले ही इस सिनेमा ने पेश कर दिया था। वहीं 1977 में गुलज़ार के ही निर्देशन में आयी 'किताब' बच्चों की मनोवृत्ति को समझाती एक उम्दा फ़िल्म मानी जाती है। इस फ़िल्म में एक बच्चा अपनी मॉडल बहन के लिए कैसे-कैसे ताने सुनता है, उसके बावजूद वह समाज को समझ रहा है, देख रहा है। वहीं 'मुन्ना' एक ऐसे बच्चे की कहानी है जिसकी विधवा माँ ने आत्महत्या कर ली है और उसके बाद वह भटकता रहता है। इसके अलावा मुन्ना की मासूमियत के चलते कई अन्य लोगों के जीवन में बदलाव फ़िल्म में दिखाया गया है।

एक अनाथ लड़के की संघर्ष कथा के जरिये श्रम की महत्ता का प्रतिपादन, एक सन्यासी और अनाथ बालिका के बीच स्नेह सम्बन्ध को परदे पर उकेरती वी. शांताराम की फ़िल्म 'तूफान और दिया' है। 1960 में बच्चों पर केन्द्रित फ़िल्म 'मासूम' का निर्देशन सत्येन बॉस ने किया। फ़िल्म बच्चों को केंद्र में रखते हुए कई सवालों को उठाते हुए चलती है। सन 1980 के दशक में 'मिस्टर इंडिया' फ़िल्म बनी, जो अदृश्य मानव की संकल्पना को लेकर बनाई गयी थी। इस फ़िल्म के केंद्र में भी बच्चे ही थे। फ़िल्म का नायक एक अनाथ आश्रम चलता है, जिसे निर्धनतावश उन अनाथ बच्चों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा न कर पाने के कारण खेद है। फ़िल्म को व्यावसायिक दृष्टि से सफल बनाने के लिए मनोरंजक बनाया गया है तथापि यक्ष प्रश्न अनाथ आश्रम में अभाव में जीते बच्चों का समाधान क्या है? अधूरा है।

'मिस्टर इंडिया' के बाद विशाल भारद्वाज की फ़िल्म 'मकड़ी' ने बाल फिल्मों को पुनर्जीवित किया। इसमें दो जुड़वां बहनें एवं एक चुड़ैल की कहानी बड़े रोमांचक एवं मनोरंजक ढंग से अभिव्यक्त की गयी है। विशाल भारद्वाज की 2005 में 'ब्लू अम्बरेला' आई जिसने बाल सिनेमा की अवधारणा को बदला। 2007 में आमिर खान फ़िल्म 'तारे जमीं पर' में उपेक्षित और मंद बुद्धि के बच्चे की समस्या को स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं। डिस्लैक्सिया से पीड़ित एक बच्चे के मनोविज्ञान को बड़ी गंभीरता औए सजगता से यह फ़िल्म प्रस्तुत करती है। इसी तरह बी.आर.चोपड़ा की फ़िल्म 'भूतनाथ' में बंकू और भूतनाथ के रिश्ते ने खोती जा रही संयुक्त परिवार की अवधारणा और भारतीय परिवारों में बिखर रहे मूल्यों के प्रति सचेत किया।

इरफ़ान खान की फ़िल्म 'थैंक्स माँ' में मुम्बई की झुग्गी-बस्तियों के आवारा और अनाथ बच्चों के माध्यम से अधूरे बचपन की मार्मिक कथा दर्शाने का प्रयास किया गया है। इस फ़िल्म में एक अनाथ बच्चा है जो दूसरे आवारा और अनाथ बच्चों के साथ पाकेटमारी कर अपना गुजरा करता है। उसकी एक ही इच्छा है कि किसी दिन अपनी माँ से मिले। बाल सुधार गृह से भागते हुए उसे दो दिनों का एक नवजात बच्चा मिलता है। वह उस निरीह बच्चे को ले आता है और उसका लालन-पालन करता है। अपने दोस्तों की मदद से वह उस बच्चे की माँ तक पहुँचने में सफल हो जाता है, लेकिन जब उसे सच्चाई का पता चलता कि उसकी माँ ने ही वहां छोड़ा था तो वह हतप्रभ रह जाता है। फ़िल्म के अनुसार देश में 270 बच्चे प्रतिदिन अनाथ छोड़ दिए जाते हैं। इन बच्चों की ज़िंदगी शहर की गुमनाम गलियों से गुजरती है और कुछ बच्चे आजीविका के लिए अपराध का रास्ता अपना लेते हैं।

पाठशाला' फ़िल्म के माध्यम से समाज और बच्चों के भविष्य के साथ हो रहे खिलवाड़ को दिखने की कोशिश की गयी है। टीचर्स और बच्चों के माता-पिता की ऑंखें खोलने वाली फ़िल्म है। फ़िल्म में उन लोगों को टार्गेट किया गया है, जो पैसे के लिए शिक्षा को माध्यम बना रहे हैं। जिन लोगों के लिए पैसे के आगे बच्चों के करियर का कोई मोल नहीं होता है। 'बम बम भोले' माजिद मजिदी की 1997 में बनी 'चिल्ड्रन ऑफ हेवेन' का भारतीय संस्करण है। इस फ़िल्म में दो छोटे भाई-बहन हैं। एक दिन गलती से भाई अपनी बहन के जुते गुम कर देता है। माँ-बाप गरीब हैं उनसे डांट खाने का डर है। दोनों भाई-बहन एक तरकीब सोचते हैं, बहन सुबह स्कूल जाती है इसलिए भाई उसे अपने जूते दे देता है। उसकी छुट्टी होने के बाद वह जुते पहनकर रोजाना दौड़कर अपने स्कूल जाता है। उसे देरी से पहुँचने पर डांट भी पड़ती है। परिवार और स्कूल के बीच का ये टाइम मनेजमेंट दिलचस्प रंग लता है। भाई इंटर स्कूल मैराथन रेस में पहले नहीं तीसरे नंबर पर आना चाहता है क्योंकि तीसरा पुरस्कार जूते हैं जो उसकी बहन को चाहिए। लेकिन वह मैराथन रेस में प्रथम स्थान पा जाता है, उसे आगे की पढाई के लिए स्कालरशिप मिलती है, लेकिन वह खुश नहीं होता। बल्कि प्रथम स्थान पाकर वह दुखी हो जाता है कि उसे तीसरे नंबर का पुरस्कार 'जूता' जो उसका सपना और जरुरत है, अब नहीं मिल पायेगा।

अभावग्रस्त बच्चे किस तरह बहुत जल्दी परिपक्व हो जाते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से अपने माता-पिता का दुःख- दर्द कम करने की कोशिश करते हैं यह बात इस कहानी में सूक्ष्मता से कही गयी है। शाइनिंग इंडिया की चकाचौंध में खोये लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी करोड़ों ऐसे बच्चे हैं जिनके लिए एक जोड़ी जूते या चप्पल सपना है। बाल समस्या उठाने वाली फिल्मों पर एक नज़र डालें तो शेखर कपूर की 'मासूम', आमिर खान की 'तारे जमीं पर' जैसी फ़िल्में कुछ उम्मीद जगाती है, इनमें बाल मनोविज्ञान का स्पर्श भी है। लेकिन इन फिल्मों की मुख्य चिंता अविभावकों द्वारा बच्चों की जिम्मेदारी सार्थक तरीके से नहीं उठा पाने की अधिक है।

पिछले दो दशक में विविध विषयों पर बनी बाल फिल्मों में 'ब्लू अम्ब्रेला', 'तहान', 'चिल्लर पार्टी', 'लिलकी', 'थैंक्स माँ', 'धनक', 'स्टेनली का डब्बा', 'गट्टू', 'आई एम कलाम' और 'नन्हे जैसलमेर' जैसी फिल्मों में बाल मनोविज्ञान की झलक देखने को मिलती है। लेकिन बाल मन से संवाद कर सकने वाला सिनेमा अभी शैशवावस्था में हैं। हिंदी सिनेमा में बाल फिल्मों की प्रवृत्ति मूल रूप से संदेशपरक अधिक रही है। अधिकांश फिल्मों में बच्चों के स्वाभाव का चंचलता वाला पक्ष अधिक हावी है। बच्चों के मन के खाली कोनों को या उनके कोमल और संवेदनशील मन को ठीक तरह से उघाड़ने की कोशिश कम ही हुई है। यह विडम्बना ही है कि बाल सिनेमा में या तो आभासी के चरित्र हावी रहे हैं या फिर मिथकीय और सन्देश परक। बच्चों के मनोरंजन का मतलब एनिमेशन की आभासी दुनिया हो गया है। मनोरंजन के नाम पर इतने ख़तरनाक गेम परोसे जा रहे हैं कि बच्चे हिंसक होने लगे हैं और आत्महत्या करने लगे हैं। चिल्ड्रन फ़िल्म सोसाइटी ऑफ़ इंडिया (सी.एफ. रस.आई.) की स्थापना के पीछे यह उद्देश्य था की स्वदेशी एवं विशेष सिनेमा के सहयोग से बच्चों की रचनात्मकता, करुणा और विवेकपूर्ण सोच को प्रात्साहित किया जा सके। लेकिन वर्त्तमान में 'लार्जर देन लाइफ' के आकर्षण ने बच्चों के सिनेमा को एनिमेशन या आभासी दुनिया तक सीमित कर दिया है।

देवयानी अनंत की "बाइसिकल डेज" फ़िल्म की समीक्षा लिखते समय मैंने सबलोग पत्रिका के वेबपोर्टल पर लिखा था कि- इस फ़िल्म की कहानी है एक दस साल के बच्चे आशीष की, जो मध्यप्रदेश के एक गांव में मध्यमवर्गीय परिवार के साथ पलता हुआ एक बच्चा आम बच्चों की तरह अपने आसपास के माहौल को देख वैसी ही प्रतिक्रियाएं करता है। वह भी अपने दोस्तों के संग शहर में पढना चाहता है फिर उसका अपना ही परिवार उसे रोकता है। जबकि उसकी बड़ी बहन शहर में पढ़ने जा रही है। और इधर वह बच्चा गांव की पाठशाला में अपनी बहन की पुरानी किताबों से उकता रहा है। स्कूल में एक दिन सबको साइकिल सरकार की तरफ से मिली लेकिन उस बच्चे को नहीं मिलती तब फ़िल्म का यह सीन और अधिक संवेदनात्मक हो उठता है।

खेलकूद में, पढ़ाई में सब काम में अव्वल और भावनाओं से संवेदनशील यह बच्चा जब अपने आसपास हो रहे बदलावों को समझ नहीं पाता तो निराश होने लगता है। उसके भीतर ग्लानि का भाव सा तैर जाता है वह हर उस बात और व्यक्ति से नाराज हो जाता है जिससे अब तक वह खुश होता था।

यह फ़िल्म पूरी तरह से बालमन को छूती नज़र आती है। हर एक क्षण यह आपको बच्चों के करीब ले जाती हुई विपरीत परिस्थिति में धैर्य रखना भी सिखाती है। "धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय।" कबीर की यह पंक्ति दोहराते हुए यह फ़िल्म भी धीरे धीरे आगे बढ़ती है और आप दर्शकों के दिल में बैठ जाती है।

ठीक ऐसे ही दलितों तथा बाल मनोविज्ञान को केंद्र में रखते हुए जब 'गुठली लड्डू' फ़िल्म एक इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में देखी तब बाद में उस फ़िल्म के रिलीज के समय नई दिल्ली फ़िल्म फेस्टिवल के लिए समीक्षा लिखते हुए मैंने लिखा था- भारत देश को आज़ाद हुए एक अरसा बीत गया है। लेकिन क्या वजह है कि अभी भी सिनेमा वालों को दलितों, नीची जातियों के सहारे भेदभाव की, अधिकार की, स्वतंत्रता की, संविधान की बातें करनी पड़ रही हैं। जैसा की फिल्म कहती है- इन महलों का गर्व ना करना एक दिन पाले सूए उड़ जायेंगे। यानी जो तथाकथित बड़ी जाति के लोग अपने महल बनाए बैठे उन पर गर्व से इठला रहे हैं, उन कंगूरों को मजबूत नींव इन्हीं नीची जाति वालों ने ही दी है। लेकिन फिर भी ऊंची जाति के लोग अपने महलों पर गर्व करते नहीं थकते।

इस फ़िल्म के कई मर्मांतक सीन है जिसमें एक सीन में दर्शकों को दिखाई पड़ता है कि- गांव के स्कूल में ऊंची जाति के बच्चे 'सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान' हमारा गा रहे हैं। तो वहीं बाहर खिड़की से ताक रहे हैं नीची जाति के दो दोस्त गुठली और लड्डू। जो स्कूल में दाखिला नहीं ले सकते अपनी नीची जाति के चलते। ऐसे ही एक सीन में जब अध्यापिका पूछती है - आसमान में तारे क्यों टिमटिमाते हैं? तब क्लास के अंदर बैठकर भी बाहर रहने वाले तथकथित उच्च जाति के बच्चों के बरअक्स गुठली क्लास के बाहर खिड़की से पढ़कर पढ़ता ही नहीं सही जबाव भी जानता और बताता है।

ऐसे ही एक सीन में दिखाई पड़ता है कि- एक तरफ आजादी के बाद संविधान का दिन मनाया जा रहा है, जिसमें सबको बराबरी का दर्जा देने की बातें हो रही है। दूसरी ओर कुछ दूर पर ही गुठली के बाप को चाय वाला उसके गिलास पर हाथ लगा देने भर से मारने लगता है।

फ़िल्म के ऐसे कई सीन इन फ़िल्म में एक के बाद एक आते हैं और फ़िल्म गुठली और लड्डू नाम के बच्चों के सहारे भेदभाव की बेड़ियों को अधिकार से तोड़ते नजर आते हैं। फ़िल्म कहती है - इंसान को अपनी इज्ज़त पढ़ाई लिखाई से ही मिलती है। यह सच भी है और उसी सच को फ़िल्म के लेखक, निर्देशक, एक्टर समेत तमाम टीम ईमानदारी से दिखाती, बताती है। इतने पर ही यह नहीं रुकती बल्कि आपको बार-बार बीच में रुलाती भी है, हंसाती भी है।

कुल मिलाकर अभी तक हमारे सिनेमा ने बालमन को सहेजते हुए ऐसी कहानियां परदे पर गाहे-बगाहे परोसी हैं जिन्हें देखते हुए महसूस होता आया है कि हमारे फ़िल्म उद्योग में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने ठान रखा है कि जब तक समाज और देश की सोच असलियत में नहीं बदल जाती तब तक ऐसी कहानियां वे बनाते रहेंगे।

तेजस पूनियां
फ़िल्म समीक्षक एवं शोधार्थी, मुंबई विश्वविद्यालय

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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