शोध आलेख : तेलुगु का बाल साहित्य : एक विवेचन / गाजुला राजू

तेलुगु का बाल साहित्य : एक विवेचन
- गाजुला राजू


बाल साहित्य सामान्य साहित्य से अलग एक विशिष्ट साहित्यिक रूप है। बाल साहित्य में बाल मन के अनुकूल साहित्यिक रचनाएं लिखी जाती हैं। यह बाल मानोविज्ञान को आधार बनाकर लिखा जाने वाला विशेष साहित्य है। भारत में ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर भी इसको महत्वपूर्ण माना गया है। विदेशों में बच्चों के लिए लिखी जाने वाली रचनाएं अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं। इसकी तुलना में भारतीय भूखंड थोड़ा पीछे नज़र आता है इतनी विपुल मात्रा में यहाँ बाल साहित्य उपलब्ध नहीं है।

आरंभ में बाल साहित्य का स्वरूप मौखिक था। सदियों से बच्चों को अनेक कथाएं सुनाई जाती रही हैं। उन कहानियों एवं गीतों को सुनते हुए बच्चे बड़े होते आ रहे हैं और वह उनसे बहुत कुछ सीखते भी हैं। बाल साहित्य बच्चों को मनोरंजन ही नहीं बल्कि उन्हें समाज एवं देश के प्रति अपने कर्तव्यों से अवगत कराता है। विभिन्न विधाओं के माध्यम से उनके ज्ञान का विकास होता रहता है। कहानियाँ, कविताएं, नाटक और चित्र पुस्तकें आदि विधाएं बच्चों को उनकी अपनी दुनिया से परिचित कराती है। जिस दुनिया में वह सबसे अलग, सहज, स्वाभाविक और सरल रूप से जीते हैं। वह हमेशा प्रेरित होते हैं साहसिक पात्रों को पढ़कर। इसीलिए बाल साहित्य सामान्य साहित्य से पूरी तरह भिन्न है। इसे हमें पहचानना चाहिए। बाल्यवस्था में जिस प्रकार से बच्चों की सोच एवं कल्पना शक्ति होती है, हमें उसे पंख देने चाहिए ताकि वह स्वतंत्र सोच का विकास कर सके।

आज विश्व भर में बाल साहित्य का सृजन हो रहा है। बच्चों की दुनिया को उनके अनुरूप बनाने की कोशिश आज का लेखक कर रहा है। भारत में बाल साहित्य का सृजन सभी भाषाओं में होने लगा है। इसमें तेलुगु भाषा साहित्य का नाम उल्लेखनीय है। तेलुगु साहित्य में बाल साहित्य को विशेष स्थान दिया गया है। तेलुगु में बहुत पहले से बाल साहित्य लेखन का कार्य होने लगा है। बालमन के अनुकूल वह पंचतंत्र, काशी मजिली कथलु, तेनाली राम कृष्ण की कथाएँ, अकबर बीरबल कथाएँ और पेदरासी पेद्दम्म कथालु आदि की रचनाएं होने लगी। वैसे बाल साहित्य का पहला रूप मौखिक ही रहा है। विभिन्न कहानियाँ, कविताएँ और गीत आदि बच्चों को लुभाने के लिए सुनाया करते थे। वह सिर्फ मनोरंजन ही नहीं बल्कि उसमें सीख भी होती थी। आज भी इनमें से कई सारी कहानियाँ एवं गीत बच्चों को सुनाया करते हैं। तेलुगु के कवि अन्नमय्य के कीर्तनों में बच्चों के लिए लिखे गये गीत आज भी सुनने को मिलेंगे। जिसमें ‘चंदमामा रावे, जाबिल्लि रावे, कोंडेक्की रावे, गोगि पूलु तेवे’ प्रसिद्ध है।

‘ज्यो अच्चुतानंद जो जो मुकुन्दा, लालि परमानंद राम गोविंदा, जो... जो’ गीत बच्चों को सुनाया जाता है। आज लिखित रूप में बाल साहित्य का विकास हुआ है। बाल साहित्य का आरंभ भारत में ब्रिटिश काल से ही माना जाता है। ‘रवींद्रनाथ टैगोर’, ‘गुरजाड़ अप्पाराव’ आदि ने कहानियाँ, गेय पदों की रचना कर बाल साहित्य का स्वरूप निर्धारित करने में अपना योगदान दिया है।

बाल साहित्य के प्रसिद्ध कवि सोहनलाल द्विवेदी ने बाल साहित्य का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है "सफल बाल साहित्य वही है जिसे बच्चे सरलता से अपना सकें और भाव ऐसे हों, जो बच्चों के मन को भाएँ। यों तो अनेक साहित्यकार बालकों के लिए लिखते रहते हैं, किन्तु सचमुच जो बालकों के मन की बात, बालकों की भाषा में लिख दें, वही सफल बाल साहित्य लेखक हैं।”1 बाल साहित्य लिखने वाले रचनाकार को बच्चों की मनःस्थिति से अच्छे तरह परिचित होना चाहिए। वैसे वह भी उसी अवस्था से गुजकर आते हैं, इसलिए उन्हें बच्चों जैसा सोचने में अधिक कठिनाई नहीं होती है। बावजूद इसके वह अपने अनुभवों को किसी न किसी रूप में लिखने की गलती करता है जो कि वास्तव में बाल साहित्य के अंतर्गत शामिल नहीं हो पाता। इसके लिए उसे स्वयं बालक बनना पड़ता है और उनके जैसा सोचना पढ़ता है। यह कार्य उतना आसान नहीं है जितना सोचते हैं। अमेरिका के लेखक जेम्स एलेन का मानना है – “बाल्यावस्था और यौवन की प्रधानता मानव जाति की विशेषता है।”2 बाल साहित्य| जेम्स के अनुसार “बाल्यावस्था के बाद की अवस्था भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि वह यौवन अवस्था में प्रवेश करने के बाद बाल मन के साथ ही आगे बढ़ता है। समाज वेत्ता हरडेन बर्ट के अनुसार- बच्चे जहाँ रहते हैं वहाँ स्वर्ण युग हो सकता है।”3

तेलुगु लेखक सैमन गुनपर्ति लिखते हैं कि – “हम जिस प्रकार के बीज बोते है वैसे ही वृक्ष बढ़ेंगे। बाल्यावस्था से ही अच्छा साहित्य देने से अच्छे व्यक्तित्व वाले बच्चे बनते है।”4 तेलुगु भाषा में बाल साहित्य का आरंभ 1819 से माना जा सकता है। 1819 में राविपाटि गुरुमूर्ति द्वारा विक्रमार्कुनि कथलु का प्रकाशन हुआ। उसके बाद वे 1834 में पंचतंत्र कथलु का प्रकाशन किया। जो बच्चों के व्यक्तित्व विकास में भी काम आया। तब से लेकर अब तक विभिन्न लेखकों द्वारा भिन्न रचनाएँ प्रकाशित हुई है। बाल साहित्य के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का योगदान महत्वपूर्ण है। चंदमामा, भारती, बाल केसरी, बाल मित्र, बाल प्रभा आदि पत्रिकाओं ने बाल साहित्य को आगे बढ़ाया। इनमें चंदमामा का विशेष स्थान है। इसके साथ-साथ अनेक लेखकों ने बाल साहित्य की रचनाएँ की है। जिनमें कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास आदि विधाओं के माध्यम से बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ उनके मानसिक एवं वैज्ञानिक विकास में समृद्ध करने का काम किये हैं।

इन सबके बावजूद यह प्रश्न उठता है कि आखिर बाल साहित्य कैसे होना चाहिए और कितने प्रकार का होना चाहिए। क्योंकि शैशव दशा से कौमार दशा तक की आयु के आधार पर यह विभाजन करके रचनाएँ होनी चाहिए। यह अधिकार बाल मनोवैज्ञानिकों का मानते है डॉ. वेलग वेंकटप्पय्या। इसके संबंध में निम्न विभाजन को देखा जा सकता है –

दृश्य साहित्य – 0 से 2 वर्ष
श्रव्य साहित्य – 2 से 4 वर्ष
पठनीय साहित्य – 4 से 14 वर्ष

बच्चों को दृश्य माध्यम से सिखाने पर वह अधिक उत्साह से सीखते हैं। क्योंकि उन्हें रंगीन चित्र एवं विभिन्न प्रकार के चित्र आकर्षित हैं। वैसे विभिन्न खेल एवं खिलौनों के माध्यम से भी उन्हें सिखाया जा सकता है जिससे वे साहित्य के प्रति आकर्षित होते है। आरंभिक अवस्था में गीतों के माध्यम से, बाद में जीव जंतुओं की कथाओं के माध्यम से, उसके बाद सामाजिक एवं बाल कथाएँ सुनाना चाहिए। प्लेटो ने बच्चों के मानसिक विकास में प्रकृति के योगदान को महत्वपूर्ण माना है। प्लेटो के अनुसार, "बच्चों का शिक्षण बच्चों की पौराणिक, धार्मिक, नीतिकथाओं, पवित्र गाथाओं से प्रारंभ होना चाहिए। ये कहानियाँ सरल, सुबोध कविताएँ भी हो सकती हैं।"5 वह बच्चों के सर्वांगीण विकास पर जोर देते हैं। जैसे गांधी ने बच्चों के सर्वांगीण विकास पर बल दिया था। मानसिक एवं शारीरिक विकास का होना अनिवार्य होता है। यह घर, समाज और विद्यालय से प्राप्त होता है। विद्यालय इसके लिए उपयुक्त स्थान है। बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक को नए नए माध्यम अपनाने होंगे जिससे बच्चों की रुचि पढ़ने में बढ़ सके। कहानियों एवं कविताओं को बच्चों के द्वारा पढ़ाये जाना और उसके उद्देश्य को शिक्षक द्वारा सुनाये जाने से बच्चों में साहित्य के प्रति रुचि उत्पन्न् होती है। उन्हें छोटी-छोटी कहानियाँ, कविताएँ एवं नाटक लिखने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। इससे उनके अंदर की सृजनात्मकता का विकास होगा। तेलंगाना राज्य में बाल साहित्य को प्रोत्साहन देने का उपक्रम बच्चों द्वारा किया जा रहा है वह भी राज्य सरकार के माध्यम से।

बच्चों को सृजानात्मक लेखन की ओर मोड़ने में शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण है। बच्चों को छोटी-छोटी कहानियाँ, कविताएं लिखने में सहायता करनी चाहिए, जिसके कारण बच्चे स्वयं बाल साहित्य लिखने में सक्षम होने सकें। इस प्रकार के प्रयास बाल साहित्य की एक महत्वपूर्ण कड़ी हो सकती है। इसके लिए बच्चों को ऐतिहासिक विशेषताओं, स्थलों, धरोहरों एवं सामाजिक सरोकारों के प्रति अवगत कराना हमारा कर्तव्य है। इसका नतीजा यह होगा कि बच्चों की कल्पना शक्ति का विकास होगा और व्यक्तित्व निर्माण के अनुकूल रचनाएं आयेंगी। तेलुगु में बच्चों द्वारा लिखा गया बाल साहित्य कविता एवं कहानियों के रूप में प्रकाशित हुआ है। जिनमें 10 वीं कक्षा की छात्रा एम.डी. नस्रीन का ‘मुद्दबंति’ (गेंदा फूल), आई. सौम्या का ‘बंगारु बाल्यम्’ (सुवर्ण बाल्य) पुस्तकें प्रकाशित हुई। 5वीं कक्षा की अनिता का ‘अनिता पदालु’, चौथी कक्षा के रापोलु अद्विक का ‘रामायणम्’ के लिए 9वीं कक्षा की हरिनंदना ने चित्र बनायी थीं।

आज बच्चों की कल्पना शक्ति एवं सृजनात्मकता को देखकर कायल हुए बिना नहीं रहा जा सकता है। उन बच्चों की रचनाओं का विषय वैविद्यपूर्ण दिखाई पड़ता है। जवान, किसान, जल, भ्रूण हत्या, मानवता और हरि सब्जियों की विशेषता जैसे विषयों को केंद्र बनाकर लिखा जा रहा है। जैसे – जल ही जग का जीवन/जल ही जग का मूलाधार कहकर श्रावणी ने जल के महत्व को कविता में बताया, दूसरी ओर न माँ के प्रति प्रेम/न लड़की के प्रति सम्मान/लड़कियों की जान को/क्रूरता से ले रहे हो लिखकर अर्चना ने अपना आक्रोश जताया है। यह केवल आरंभ है, अगर बच्चों को सही मायने में प्रोत्साहन व अवसर मिलते रहेंगे तो बाल साहित्य दिनों दिन विकासित होता नज़र आएगा।

बाल साहित्य की प्रक्रिया में बाल साहित्यिकारों को बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण से संबंधित विषयों पर दृष्टिपात करना चाहिए। बाल कहानियों में मुख्य रूप से अनुशासन, देशभक्ति, माता-पिता और अतिथियों का सम्मान के बारे में लिखना होगा। उन्हें उन्नत जीवन मूल्यों के प्रति जागरूक कर उसकी आवश्यकता को दर्शाना है। मानवता एवं जीवन के प्रति सकारात्मकता आदि का उल्लेख होना चाहिए। डॉ. तोटकूर प्रसाद अपने वक्तव्य में बताते हैं कि – “बाल साहित्य के बिना साहित्य का अस्तित्व नहीं है, संस्कृति, भाषा नहीं है। जिसके कारण तेलुगु जाति को अपना अस्तित्व एवं वैभव खोने का खतरा है। इसलिए बाल साहित्य को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता हम सब पर है।”7 श्री चिरुमल्ल श्रीनिवास का मानना है – “बाल साहित्य एक नदी की तरह है। नदी जीवित रहेगी तो भविष्य उज्ज्वल रहेगा।”8

तेलुगु साहित्य में कई बड़े लेखक हुए है। लेकिन उनमें से कुछ ही रचनाकारों ने बाल साहित्य के प्रति अपनी रुचि दिखाई है। श्री.श्री. तेलुगु के बहुत बड़े कवि थे जिन्होंने अपनी कविताओं में बाल जीवन को भी स्थान दिया है। उनकी दृष्टि में बच्चे जितने सहज और सरल होते हैं उतने निराले कोई नहीं हो सकता। उनकी शैशव गीति कविता में लिखते हैं – “पाप-पुण्य विश्व मार्ग, कष्ट-सुख श्लेषार्थ है, मासूम फूल हो तुम, पाँच छः वर्ष के शिशु हो तुम। बिजली कड़के वर्षा होती, सप्तवर्ण आकाश में फैले, वे हमारे कहकर झूमने वाले नन्हें न्यारे।”9

डॉ. सी. नारायण रेड्डी ने शिशुऊ(1928) नामक गेय पद में शिशु के महत्व के बारे में लिखते हैं – शिशु के आगे पशु भी, शीश झुका रह जायेगा। इन पदों में शिशु की संकल्प शक्ति के बारे में कवि ने सुंदर अभिव्यक्ति की है। नवयुग कवि चक्रवर्ति गुर्रम जाषुआ ने भी शिशुओं के बारे में लिखने से रोक न पाए। शिशु नामक खंडकाव्य में वह लिखते हैं – तर्जनी पर विश्व को देख खुश होने वाला गूंगा योगी। शिशु की मासूमियत को इन पदों में दर्शाते हुए कवि तन्मयता का अनुभव करता है। इनके अलावा अनेक लब्धप्रतिष्ठित कवियों ने बाल साहित्य के लिए अपनी कलम चलाई है। उनमें – दाशरथि, पी. यशोदा रेड्डी, डॉ. कपिलवाई लिंगमूर्ति, गडियाराम् रामकृष्ण शर्मा आदि। इन रचनाकारों ने बाल साहित्य को वास्तव में बच्चों के मनोविज्ञान के आधार पर लिखकर सार्थकता हासिल की है। इसीलिए आज भी इनके बाल साहित्य की रचनाओं को पढ़ने के लिए पाठक उत्सुकता दिखाते हैं। वर्तमान में जो भी बाल साहित्य लिखा जा रहा है वह भी अच्छा है लेकिन बच्चों को उतना आकर्षित नहीं कर पा रहा है जितना की पहले की रचनाओं ने की है। यह स्थिति कमोबेश प्रत्येक समय में दिखाई पड़ती है। ऐसा लगता है कि आज के अधिकतर बाल साहित्यकार केवल नाम कमाने एवं सम्मान प्राप्ति के उद्देश्य से बाल साहित्य लिखने की कोशिश करते हुए नज़र आते हैं। जो कि बाल साहित्य को समृद्ध करने की बजाय उसे कमजोर करने का काम करता है। तेलुगु साहित्य के अंतर्गत ऐसे रचनाकार भी है जो भारतीय बाल साहित्य के अंतर्गत दिखाई पड़ते हैं।

तेलुगु भाषा में लिखने वाला बाल साहित्य आज उस स्थिति से आगे बढ़ चुका है। और वह अपने श्रेष्ठतम रचना कर्म से बाल साहित्य को उचित स्थान दे पा रहे हैं। इसमें अनेक युवा रचनाकार और बाल रचनाकार भी शामिल हैं। यह एक अच्छा संकेत है तेलुगु बाल साहित्य के विकास के लिए। तेलुगु राज्यों में बाल साहित्य को प्रोत्साहन देने का काम राज्य सरकार द्वारा किया जा रहा है। बाद में केंद्र सरकार ने भी बाल साहित्य को विशेष एवं आवश्यक साहित्य स्वीकार कर साहित्य अकादमी बाल साहित्य पुरस्कार देने लगी है। यह विभिन्न भाषाओं में लिखे जा रहे बाल साहित्यकारों को सम्मानित करता है। तेलुगु बाल साहित्य में सर्वप्रथम इस पुरस्कार से सम्मानित लेखक हैं कलुव कोलनु सदानन्द, इनकी कृति है ‘अडवि तल्लि’(वन माता, उपन्यास)। 2011 में एम. भूपाल रेड्डी, ‘उग्गु पालु’(लघु कहानी), 2012 में रेड्डी राघवय्या, ‘चिरु दिव्वेलु’(नन्हें दिये, कविता), 2013- डी. सुजाता देवी, ‘आटलो अरटि पंडु’(खेल में केला, कहाली), 2014 – दासरि वेंकट रमण, ‘आनंदम्’(कहानी), 2015 – चोक्कापु वेंकट रमण, ‘टोटल कॉनट्रिब्यूशन टू चिल्ड्रेन्स लिटेरेचर’, 2016 – अलपर्ति वेंकट सुब्बाराव बालबंधु, ‘स्वर्ण पुष्पालु’(कविता), 2017 – वासाल नरसय्या, ‘टोटल कॉन्ट्रिब्यूशन टू चिल्ड्रेन्स लिटेरेचर’, 2018 – नरम शेट्टि उमा महेश्वर राव, ‘आनंद लोकम्’, 2019 – बेलगाम भीमेश्वर राव, ‘ताता माट वराल मूटा’(लघु कहानी), 2020 – कन्नेगंटी अनसूय, ‘स्नेहितुलु’(मित्र, लघु कहानी), 2021 – देवराजु महाराजु, ‘नेनु अंटे एवरु’(नाटक), 2022 – पत्तिपाक मोहन, ‘बालल ताता बापूजी’(कविता), 2023 – डी. के. चदुवुल बाबू, ‘वज्राल वाना’(हीरों का बारिश, लघु कहानी), 2024 – पी. चंद्र शेखर आजाद, ‘माया लोकम्’(उपन्यास)। जिन लेखकों को पुरस्कार मिला है इनकी रचनाएँ तो श्रेष्ठ हैं ही लेकिन जन्हें नहीं मिला उनकी रचनाएँ भी उत्तम श्रेणी में आती हैं।

तेलुगु साहित्य ने बाल साहित्य को एक नया आयाम प्रदान किया है। भारतीय बाल साहित्य में उसका विशेष स्थान है। तेलुगु साहित्य के साथ-साथ बाल साहित्य भी दिनों दिन विकास के उन्नत शिखर तक पहुँचने का अविराम प्रयास कर रहा है। बच्चों के लिए विशिष्ट साहित्य लिखने का श्रम साध्य कार्य को अपने कंधों पर ले चलने वाले उन तमाम रचनाकारों को सराहा जाना चाहिए और उनके रचना कर्म को अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचाना भी जरूरी है।

संदर्भ :
  1. संपादक राष्ट्र बंधु, बाल साहित्य समीक्षा, मई 1988, बाल कल्याण संस्थान, कानपुर, पृष्ठ-06
  2. डॉ. वेलग वेंकटप्पय्य, सिद्धार्थ पब्लिकेशन्स, एलूरु रोड, विजयवाडा, प्र.सं. जुलाई-1982, पृ.10
  3. हरडेन बर्ड, ईटर; अन्ने, थाक्स्टर, चिल्ड्रेन्स लिटेरेचर इन ओलिवर्स एनसाइक्लोपीडिया, 1976, अंक-6, पृ.239
  4. सैमन गुनपर्ति, बाल साहित्यम् विकासम्-विज्ञानम्, धिम्सा पत्रिका, 10 मई 2023
  5. प्रेम भार्गव, कैसे बने बालक संस्कारी और स्वस्थ, राधाकृष्ण पेपर बैक्स, नई दिल्ली, 2015, पृ.129
  6. कदुकूरि भास्कर, विकसिस्तुन्न बाल साहित्यम्, नमस्ते तेलंगाना दैनिक समाचार पत्र, 09 मई, 2021
  7. बाल साहित्यम्-तेलुगु भावितव्यम्, वेबिनार, ताना विश्व साहित्य मंच, 16.11.2020
  8. बाल साहित्यम्-तेलुगु भावितव्यम्, वेबिनार, ताना विश्व साहित्य मंच, 16.11.2020
  9. डॉ. वेलग वेंकटप्पय्य, सिद्धार्थ पब्लिकेशन्स, एलूरु रोड, विजयवाडा, प्र.सं. जुलाई-1982, पृ.11
गाजुला राजू
सहायक आचार्य, हिंदी एवं भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज।
rajuuoa@gmail.com, 9059379268

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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