शोध आलेख : अपराध कहानी में शोषण और प्रतिरोध का रूप / पवन कुमार

अपराध कहानी में शोषण और प्रतिरोध का रूप 
- पवन कुमार

शोध सार : संजीव की कहानियाँ विशेषकर ‘अपराध’ भारतीय समाज में शोषण और प्रतिरोध की जटिलताओं को उजागर करती है। उनका लेखन नक्सलवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित है, जहाँ वे शोषित वर्ग के संघर्ष को केंद्र में रखते हैं। संजीव का कथानक मध्यवर्गीय पात्रों और शोषित समाज के बीच टकराव और संवाद के रूप में प्रस्तुत होता है। उनका ध्यान शोषण और न्यायिक व्यवस्था के भ्रष्टाचार पर है, साथ ही वे यह सवाल उठाते हैं कि हिंसा से हिंसा का प्रतिकार किया जा सकता है या नहीं। संजीव की कहानियाँ न केवल शोषण के खिलाफ एक आक्रोश हैं, बल्कि वे सामाजिक बदलाव और न्याय की आवश्यकता को भी प्रमुखता से रखते हैं। उनके पात्र, जैसे सिद्धार्थ और शचिन, समाज की विभिन्न वास्तविकताओं और संघर्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

बीज शब्द : शोषण, प्रतिरोध, नक्सलवाद, सामाजिक – असमानता, मध्यवर्ग, न्याय व्यवस्था, संघर्ष, शोषित वर्ग, प्रशासनिक तंत्र, हिंसा, समाज सुधार, सत्ता, यथास्थिति , विद्रोह, सामाजिक परिवर्तन आदि।

मूल आलेख : ‘संजीव की कथा यात्रा पहला पड़ाव में संजीव लिखते हैं “देश के लाखों, दलित, दमित, प्रताड़ित, अवहेलित जनों की जिजीविषा और संघर्ष का मैं ऋणी हूँ जिन्होंने वर्ग, वर्ण, भाषा, संप्रदाय के तंग दायरों को तोड़ते हुए शोषकों, दलालों, कायरों के विरुद्ध मानवीय अस्मिता की लड़ाई लड़ी है और लड़ रहे हैं, मेरा लेखन उनसे ऋणमुक्ति की छटपटाहट भर है।”[i]

संजीव हिंदी कहानी के जिस दौर में कदम रखते हैं, उस दौर में नेहरू का समाजवादी विकास का मॉडल पूंजीवाद में परिवर्तित हो गया था, भारतीय समाज 1975 के आपातकाल को भी झेल चुका था। जो स्थिति-परिस्थिति “आजादी से पूर्व दलित, स्त्री, आदिवासी, किसानों व मजदूरों की थी अभी भी कुछ परिवर्तनों के साथ मूल समस्या वहीं बनी हुई थी। इसी कुव्यवस्था के चलते भारतीय समाज के शोषकों के प्रति जिसमें सरकार, साहूकार और ज़मींदार ये सभी शामिल हैं, उनके खिलाफ 14 मई, 1967 को खुला सशस्त्र विद्रोह पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान से एक आंदोलन के रूप में हुआ। जिसे नक्सलबाड़ी आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन के आरंभकर्ता भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारु मजूमदार व कानू सान्याल हैं। नक्सलबाड़ी आंदोलन का व्यापक प्रभाव भारतीय समाज व राजनीति पर पड़ा “बुद्धिजीवी वर्ग के एक बड़े समूह का भी इस आंदोलन को समर्थन हासिल हुआ। सीधे-सीधे खुलकर हो या प्रकारांतर से नक्सलबाड़ी आंदोलन और नक्सली नेताओं एवं कार्यकर्ताओं के प्रति सहानुभूति पनपने लगी थी। एक ओर व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन आरंभ हुआ तो दूसरी ओर सत्ता द्वारा इस आंदोलन का दमन भी कठोरतापूर्वक हुआ।”[ii]

संजीव की ‘अपराध’ कहानी नक्सलवाद की इसी पृष्ठभूमि पर लिखी गयी है। संजीव स्वयं इस विषय में लिखते हैं “कई वर्षो तक सींझते रहने के बाद सन् 1980 में प्रकाशित नक्सलवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी शोषण और उसके प्रतिकार की यह कहानी उस कालखंड की ही नहीं। उसके आगे और पीछे के द्वंद्व की चेतना को ज़बान देती है।”[iii]

‘अपराध’ कहानी में हम सत्ता के प्रति जिस विद्रोह को देखते हैं उससे पूर्व हमें संजीव की कहानी ‘मैं चोर हूँ, मुझ पर थूको’ को देखना होगा। इस कहानी के पात्र हबीब मियाँ भारतीय आजादी को इस रूप में देखते हैं।

“ हबीब मियाँ ने डब्बा उठाया, तो हल्का लगा, ‘जा स्साला!’

‘क्या हुआ?ʼ

‘सारा पानी चू गया आजादी की तरह!” [iv]

इस कहानी का पात्र हबीब मियाँ भारतीय सत्ता के उन नेताओं के हाथों की कठपुतली मात्र बनकर रह जाता है जो “आजाद भारत की पूरी आपराधिक दुनिया को संचालित और नियंत्रित करने का काम करती है। ठीक इसी बिंदु पर इस कहानी का सूत्र अपराध कहानी से जुड़ता है।”[v]

संजीव की आशा मध्यवर्ग के व्यक्ति से है वे मानते हैं कि मध्यवर्ग का यह व्यक्ति ही शोषण व्यवस्था पर धावा बोलेगा, आरंभिक रूप से अपराध कहानी को देखने में ऐसा ही लगता है। संजीव का यह पात्र ‘सिद्धार्थ ‘शोषक वर्ग के परिवार का हिस्सा है, यही मध्यवर्गीय पात्र सिद्धार्थ अपने परिवार का परिचय कुछ इस प्रकार से देता है “जेहन में धीरे-धीरे आकार ले रही है एक हवेली…….कस्बे में व्यवस्था और सत्ता की प्रतीक मेरी हवेली– कंचनजंघा। धीरे-धीरे कई चेहरे उभर रहे हैं, प्रभुसत्ता रोबीले सेशन जज-पापा, एसपी-बड़े भैया, जिलाधीश-छोटे भैया, गृहविभाग के सचिव– जीजा, उनके प्रभाव का अहसास कराती हुई गर्वीली बहन, सबके अपने-अपने पोस्टेड जिलों में चले जाने पर उदास राजमाता की तरह मम्मी, न जाने कितने मंत्रियों, अफसरों और ऊँचे ओहदे वालो के गड्डमड्ड चेहरे! एक अजीब सा खिंचाव, एक अजीब सा खौफ समाया रहता है यहाँ के लोगों में कंचनजंघा के प्रति।”[vi]

संजीव अपनी कहानियों के माध्यम से मध्यवर्ग व शोषित समाज के व्यक्तियों को आमने-सामने रखते हैं, आमना-सामना होने पर बात वाद-विवाद तक बढ़ती है यही वाद-विवाद सत्ता व समाज का वास्तविक चेहरा हमारे सामने रखता है। सत्ता व शोषण किस प्रकार से आपस में मिले जुले हैं इस विषय में ‘संघामित्रा’ कहती है “सत्ता पा जाने पर तुम भी वैसे ही ढ़ल जाओगे…….. जे जाय लोंका, सेइ होय रावोन!”…… “देखती हूँ, बड़े आये हो खूनी क्रांति करने वाले, समाज और व्यवस्था बदलने वाले, डिस्पेरिटी. मिटाने वाले! अरे, मैं कहती हूँ, चूल्हे में डालों. मार्क्स, लेनिन, माओ, चाओ. को! आदमी अपनी प्रवृत्ति से ही हिंसक होता है, अपराधवृत्ति खत्म करनी है तो जींस बदल डालो….. जींस!”[vii]

सिद्धार्थ का वास्तविक संघर्ष अपने परिवार से है, अपने ही परिवार में शामिल उन सत्ता पक्षों के हाथों से है इसलिए सिद्धार्थ के प्रतिरोध का प्रथम स्वर अपने ही परिवार की शोषण व्यवस्था के प्रति ही होगा। इस विषय में वह अपने कॉलिज के दिनों में संघामित्रा से कहता भी है “देखते जाओ…… मेरा पहला वार होगा मेरी हवेली पर……! “मैं कॉलर हिला दिया करता और इस पर दोनों हँस पड़ते हैं।”[viii]

वहीं शचिन का संघर्ष सत्ता पक्ष से है, शोषकों से है और यहीं लड़ाई उसे नक्सलवादी गतिविधियों से जुड़ने को मजबूर करती है “धीरे-धीरे शचिन की गतिविधियाँ बढ़ती गयी। इस बीच ‘खत्म करो’. अभियान भी चल निकला । दो – एक बार वह मुझे भी उत्तरी बंगाल के गरीब किसानों के बीच व्यवस्था से मोहभंग कराने के उद्देश्य से ले गया। हड्डियों पर मढ़े हुए चाम। धंसी पनीली आँखे, मैले-चिथड़े, शोषण की जड़ तक देखती हुई मेरी दृष्टि पारदर्शी हो उठी।”[ix]

सिद्धार्थ का संघर्ष जहाँ पारिवारिक सत्ता-व्यवस्था से है वहीं शचिन का संघर्ष भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था व राजनीतिक सत्ता पक्ष से है। दोनों के संघर्ष वास्तविक व जटिल हैं” संजीव एक तरह से मध्यवर्ग के व्यक्ति और शोषित व्यक्ति को आमने-सामने रखकर दोनों के संघर्षों की तुलना करते हैं।”[x] संघर्षों की यह तुलना कहीं न कहीं उन्हें शोषण व अत्याचार से पीड़ित शोषितों की ओर ही अधिक झुकाती है इसी बीच “वह शोषण और अत्याचार के खिलाफ चल रही अंतहीन लड़ाई में मध्यवर्ग के नैतिक और सक्रिय सपोर्ट की तलाश करते हैं।”[xi]

संजीव की ‘अपराध’ कहानी का प्रतिरोध का स्वर नक्सलवादी पृष्ठभूमि से संबंधित जरूर है परन्तु नक्सलवादी समूह की वास्तविक गतिविधियों व संघर्षों का वर्णन हमें यहाँ देखने को नहीं मिलता है कहानी में केवल एक स्थान पर ही हमें इनसे जुड़ा संवाद देखने को मिलता है जहाँ सचिन, संघामित्रा से अपने समूह के व्यक्ति के लिये मदद माँगता है।

“दीदी तोमाके जेतेड़ होवे! “सचिन रानी से अनुनय कर रहा था, “और हात टा एक बारेकइ. उड़े गेछे। होय

तो ब्लीडिंग होयेई मारा जाबे। 

आर काउ के पाओ नी? “रानी बोली।

“काउ के नीये गेले सोबी फास होय जाबे जे……….”[xii]

रविभूषण लिखते हैं “नक्सलवाड़ी से संबंधित संजीव की कहानियों में पार्टी से जमीनी स्तर पर जुड़ने वाले कार्यकर्ता कम हैं। सम्भवतः इसी कारण उनकी कहानियों से पार्टी की अंदरूनी वास्तविक स्थिति प्रकट नहीं होती। वहाँ कोई किसान आंदोलन नहीं है और न पार्टी द्वारा चलाये गये किसी संघर्ष और उसके मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन। घटनाएँ कम हैं और विचार और तर्क अधिक हैं।”[xiii]

शोषण और प्रतिरोध के रूप की ये कहानी अब आगे बढ़ती है। संजीव को युवावर्ग से आशा है। यह शोषित युवावर्ग मुख्य रूप से नक्सलवादी आंदोलन से जुड़ा, वहीं अपराध कहानी में भी “बाद के चंद साल संक्रमण के साल रहे। टेररिस्ट शचिन पर तरह-तरह के मुकदमों के फंदे आयेगी लटक गये थे और संघामित्रा का नाम पार्टी के प्रवर संगठनकर्ताओं में गिना जाने लगा था।”[xiv]

शोषण और प्रतिरोध के स्वरूप शचिन को जेल में डाल दिया जाता है। शोषित समाज युवावर्ग से आशा रखने वले संजीव का यह संघर्षशील पात्र शचिन अभी भी कमजोर नहीं पड़ता है। शचिन और दारोगा का संवाद यहाँ देखने योग्य है “उन्होंने नीचे पाँव हिलाते हुए नेतानुमा आदर्शवादिता वाले अंदाज़े – बयां में कहा, “तुम लोग कल के भविष्य हो। मुझे युवा शक्ति का इस प्रकार अपव्यय होना बिल्कुल पसंद नहीं। ये बिलावजह का खून-खराबा और अपराधकर्म छोड़कर आदर्श नागरिक क्यों नहीं बनते?”

फिर नाक का खून बॉंहों से पोंछकर तिरस्कार– भरे स्वर में बोल पड़ा, “आपको यह बात समझ नहीं दारोगा जी, आप अपने लड़के को भेज दीजिए, उसे समझा दूँगा।”[xv]

शचिन जहाँ शोषित युवावर्ग के तहत कहानी में नजर आता है वहीं सिद्धार्थ एक ऐसा मध्यवर्गीय युवा है जो संजीव की दृष्टि में वहीं मध्यवर्गीय स्वप्नदर्शी युवा है जो नक्सलवादी आंदोलन में मुख्य रूप से जुड़ा हुआ मिलता है। यह मध्यवर्गीय स्वप्नदर्शी युवा सिद्धार्थ पुलिस के शोषण के प्रतिरोध स्वरूप इसी पुलिस विभाग से संबंधित व्यक्तियों से कहता है, “मेरा परिचय और रिसर्च का उद्देश्य जानते ही चर्चा उतर पड़ी पुलिस पर…… कि विदेशों में पुलिस को कितना वेतन, अत्याधुनिक उपकरण और सुविधाएँ तथा सम्मान प्राप्त है।

“मगर यहाँ की तरह वहाँ के पुलिस स्टेशन अपराध के ब्रीडिंग स्टेशन तो नहीं है। मैंने हस्तक्षेप किया।”[xvi]

मध्यवर्ग के इन नौजवानों की नक्सलवादी आंदोलन में व्यापक भागीदारी और सर्वोच्च कुर्बानी को तो संजीव ने अपनी रचनाशीलता का एक प्रमुख विषय बनाया ही है, इस जद्दोजहद की अगुवाई करने वाले दलित – उत्पीड़ित तबकों को उनकी सही, नेतृत्वकारी जगह देना भी वे नहीं भूले हैं।”[xvii] संजीव अपनी कहानी ‘अपराध ‘के पात्र सिद्धार्थ के माध्यम से जहाँ एक ओर मध्यवर्गीय युवावर्ग की भागीदारी को दर्ज करते हैं वहीं शोषित पीड़ित वर्ग की उपस्थिति व प्रतिरोध को वह अपने पात्र शचिन के माध्यम से उजागर करते है इसलिए हम कह सकते हैं कि नक्सलवादी विद्रोह वास्तविक सत्ता द्वारा किये जा रहे शोषण के प्रति विद्रोह के रूप में जाना जाता है सत्ता ही वह केंद्रीय शक्ति है जो संपूर्ण प्रशासनिक व न्याय व्यवस्था को अपने अधीन रखती है व जरूरत पड़ने पर कठपुतली की तरह इन्हें अपने इशारों पर नचाती भी है। सत्ता किस प्रकार पुलिस विभाग का शोषण कर उन्हें अपने इशारों पर नचाती है इसे हम कहानी के इस संवाद के माध्यम से समझ सकते हैं, “राइट! अब हमारा ही देखा जाए। एक ओर तो हमारी अक्षमता के लिए हमें कोसा जाता है, दूसरी ओर हमारे काम में टांग अड़ाई जाती है। एक उदाहरण लीजिए – हमने किसी गुंडे को पकड़ा। अब हर गुंड़ा किसी न किसी एम० एल० ए०, एम०पी०, सेक्रेटरी या मिनिस्टर वगैरह का आदमी, या आदमी का आदमी निकल आता है। फोन पर फोन! आखिर वह बेदाग छूट जाता है…… फिर क्या रह गयी हमारी इज्जत! कभी-कभी तो ईमानदारी की कीमत हमें सस्पेंशन में चुकानी पड़ जाती है।”[xviii]

लोकतंत्र के तीन अंगों में से एक प्रमुख अंग के रूप में ‘न्यायपालिका’ को भी जाना जाता है। न्यायपालिका का प्रमुख कार्य, सबको समान न्याय सुनिश्चित करना है यहीं न्यायपालिका किस प्रकार से सत्ता द्वारा शोषण का शिकार हो रही है व तथ्य व सत्य किस प्रकार से सत्ता पक्ष के अधीन घुटने टेक रहे हैं इसे संजीव एक न्यायाधीश पिता के माध्यम से इस पर समझाते है “बेटे, हम जिसे न्याय कहते हैं,व तथ्य – सापेक्ष है, सत्य सापेक्ष नहीं है। तथ्य का प्रमाण स्वयं में सामर्थ्य – सापेक्ष है, अतः निर्णय लचीला होता है। हमारा तो यूँ जान लो, बस, एक दायरा होता है….. पुलिस एफ० आई० आर० प्रस्तुत करती है, चार्जशीट पेश करती है, गवाह होते हैं, अपराध के सबूत, अभियुक्त की सफाई का दौर आता है, वकील होते हैं, कानून की किताबें होती है। इन सबमें से पर्त दर पर्त जो निष्कर्ष छन-छनकर आता है, हम वही निर्णय तो दे सकते हैं……. और फिर तुम जिसकी सिफारिश करने आए हो, उसका तो मुकाबला ही सत्ता से है, जो हमेशा न्यायपालिका पर हावी रहती है!”[xix]

पुलिस विभाग व न्यायपालिका एक प्रकार से सत्ता के केंद्र बनकर रह गये हैं यह केंद्र, सत्ता के द्वारा किये जा रहे शोषण व जनविरोधी कार्यक्रमों में किस प्रकार से अपनी सहायता पहुँचाते हैं इसे हम दिखा चुके हैं, वहीं सत्ता के इस शोषण व न्यायपालिका व प्रशासनिक व्यवस्था की जनविरोधी मानसिकता का संजीव समूल विनाश चाहते हैं व इस ज़नविरोधी व्यवस्था को संजीव, शचिन के माध्यम से प्रतिरोध के रूप में इस प्रकार से उजागर करते हैं “मुझे इस पूँजीवादी, प्रतिक्रियावादी, न्याय- व्यवस्था में विश्वास नहीं है। आम जनता भी जिसे न्याय का मंदिर कहती है, वह लुटेरों, पंडों और जूता-चोरों से भरा पड़ा है।… ये लाल थाने, लाल जेलखाने और लाल कचहरियों… इन पर कितने बेकसूरों का खून पुता है। वकीलों और जजों का काला गाउन न जाने कितने धब्बों को छुपाये हुए! परिवर्तन के महान् रास्ते में एक मुकाम ऐसा भी आयेगा, जिस दिन इन्हें अपना चरित्र बदलना होगा, वरना इनकी रोबीली बुलंदियां धूल चाटती नजर आयेगी।”[xx]

संपूर्ण व्यवस्था से यह मोहभंग संजीव के लेखन का हिस्सा बनता है परंतु संजीव इस बात को जानते हैं कि अभी भी वह मात्र लेखन का हिस्सा मात्र ही है जिस प्रकार संपूर्ण प्रशासनिक व न्याय व्यवस्था के चंगुल में फंस चुकी है उसी प्रकार यह लेखन भी सत्ता पक्ष के अधीन हो चुका है “उन्हें लगता है कि शोषण और अमानवीयता का जाल जहाँ तक फेला हुआ है वहाँ तक कहानीकारों की दृष्टि पहुंचनी चाहिए। उन्हीं के शब्दों में – “कहानियों और कविताओं में हमने भले ही शत्रु का सफाया कर दिया हो, मगर वह शत्रु है और ठीक हमारे सामने सर के ऊपर है, वह हमारी आँखों की पुतलियाँ और दिमाग के गूदे चुपके-चुपके कुतर रहा है, चारों ओर शिकंजे फैले हुए है उसके।(नयी संस्कृति – 3,पृ०59)”[xxi]

. सत्ता के लिये किये जा रहे पुलिस व न्याय – व्यवस्था द्वारा शोषण को किस प्रकार से सत्ता द्वारा ही प्रोत्साहन मिलता है यहाँ भी बदले की राजनीति देखने को मिलती है पुरस्कार के लिए चंद जाने लेना, देवी के समक्ष भेंट चढ़ाने के समान ही माना जाता है, “बाद में सुना, एक पूरे के पूरे नक्सल गाँव को आग लगा देने के पुरस्कार स्वरूप उनकी तरक्की हो गयी थी।”[xxii]

संजीव अपराध की सामाजिक-संरचना को समझना चाहते हैं अपराध की इसी सामाजिक-संरचना को समझने का प्रयास करते हुए वह लिखते हैं “ कि आखिर कौन-सी मजबूरी है कि लोग अपराध में प्रवृत्त हो जाते हैं… और वह कौनसी विभाजन रेखा है, जिसके तहत ये शिनाख्त किये जा सकते हैं। सारा मामला सरसों में भूत जैसा विरोधाभासों से ग्रस्त था।” [xxiii]

संजीव पर नक्सलवादी होने का आरोप बार-बार लगता रहा है कई बार इसका उन्होंने अपने लेखन व साक्षात्कारों के माध्यम से उचित उत्तर भी दिया है इस कहानी में भी स्वयं संजीव अपने पात्र सिद्धार्थ के माध्यम से नक्सलवादी आंदोलन पर प्रश्नचिह्न उठाते है “फाइल खोल कलम निकालकर पूरी गंभीरता से मैंने सवाल किया, “लोग व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये या अत्याचार के खिलाफ अस्त्र उठातें हैं, तुम लोग सामूहिक स्वार्थ और एक्सप्लायटेशन के खिलाफ… मगर करते हो तुम भी अपराध ही। क्या हिंसा से हिंसा को, नफरत से नफरत से नफरत को, दबाया जा सकता है?”[xxiv]

संजीव का यह पात्र शोधार्थी है वह अपराधियों से संबंधित शोध कार्य कर रहा है इस प्रश्न का उत्तर उनका शचिन कुछ इस प्रकार से देता है “तुम्हारी नीयत अपराध मिटाने की नहीं उस पर फलने फूलने की है।”[xxv]

दरअसल, जिस दौर में नक्सलवादी आंदोलन आरंभ हुआ वह दौर प्रश्नचिह्न का दौर रहा समस्त समाज में किसानों, मजदूरों का शोषण हो रहा था इसी के खिलाफ यह नक्सलवादी आंदोलन प्रारम्भ हुआ इसके इसी प्रारंभिक रूप से मुख्यधारा के लोग भी इस आंदोलन से जुड़े व इसके कायल भी हुए इसी प्रकार संजीव भी इसके मानवीय रूप से प्रभावित होते हैं और भटकाव से चिंतित, “मैं आंदोलन के सात्विक और निस्वार्थ विचारों का कायल था। परोक्ष रूप से काफी दिनों तक, और आज भी मुझे ये विचारधारा प्रभावित करती है। यहाँ दुःख, कातरता और सर्वांगीण मुक्ति की कामना मुझे ऐसे आंदोलन से जोड़ती थी… नक्सलवाद के पवित्र मानवीय भाव से मैं अलग नहीं हूँ लेकिन उसके भटकाव पर मैंने अँगुली जरूर रखी है।”[xxvi]

नक्सलवादी आंदोलन के व्यापक प्रभाव व उसके प्रति असहमति को लेकर हमने भले ही कितनी भी परिभाषाएँ व अवधारणाएं क्यों न गढ़ ली हो परंतु फिर भी ये परिभाषाएँ व अवधारणाएं उस समय झूठी व अधूरी साबित होती हैं जब हम इस शोषित समाज पर अत्याचार होते देखते है और ये अत्याचार इसी समाज की प्रशासनिक व न्यायव्यवस्था द्वारा ही किया जाता है। ऐसे ही एक अमानवीय शोषण को संजीव इस प्रकार दिखाते हैं “रानी को पूछ रहे थे न उस दिन?”

“हाँ!” मेरी सारी चेतना सिमट आयी उसके सवाल पर

“शी हेड बीन बूटली बूचर्ड लांग एगो”

“कैसे?” मैं चीख पड़ा।

“उसके गुप्तांग में रूल घुसाकर… मथकर मारा गया।”…

… एक सामान्य पुलिस के हाथों… क्राइम! लगा, अभी-अभी क्रोंचवध हुआ है। फिज़ा में दूर-दूर तक दहशत भरी दर्दनाक चीखें भर उठी है।”[xxvii]

जिस शोषण व प्रतिरोध के रूप की चर्चा अभी तक हम कर रहे थे वहाँ ये यौन हिंसा पूर्ण रूप से हमारी प्रशासनिक राजव्यवस्था व न्यायव्यवस्था को कटघरे में खड़ा करती है परंतु नहीं! कटघरे में खड़ा कौन है शोषित। वह शोषित जिस पर अत्याचार हुआ और जब न्यायव्यवस्था उसे न्याय न दे पायी तो उसने चुना इस शोषण के प्रति ‘प्रतिरोध’ को, हिंसा के उत्तर के लिये हिंसा को, वैसे भी अहिंसा के सिद्धांत देने वाले गांधीजी को भी अपने ही राष्ट्र में हिंसा के द्वारा मुक्ति दी गयी। सर्वत्र परिवर्तन की इच्छा रखने वाले इस प्रतियोगितावादी समाज में “आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में कौन देखना चाहता है कि कौन कुचला गया। शायद रानी ही ठीक कहती थी, अपराध खत्म करना है तो नस्ल ही बदल डालो।”[xxviii]

संजीव की अगाध आस्था अंत तक कहानी के मध्यवर्गीय पात्र के प्रति ही है वह इसी मध्यवर्गीय पात्र के द्वारा सामाजिक परिवर्तन की आशा करते हैं “इसी वज़ह से कथाकार की पक्षधरता भी इसी मध्यवर्ग के प्रति है।” [xxix]यह मध्यवर्गीय पात्र अंत में संशय से बाहर आता है और स्वयं को प्रतिबद्ध पाता है, शोषित वर्ग की मुक्ति के प्रति, “कर सकूँगा मैं सत्ता, व्यवस्था और समाज के तमाम अपराधी पुर्जों को जेल में? शायद नहीं, क्योंकि मैं पैरासाइट हूँ उनका, क्योंकि वे मेरे अपने पिता, भाई, स्वजन, मित्र और औजार हैं। फिर ये शोध…? कितना गंदा मजाक है यह शोध! मेरे हाथ लहराते हैं और शोध की पूरी की पूरी फाइल छपाक से गंगा में जा गिरती है। लगता है, सीने पर पड़ा हुआ अपराध का पहाड़ फिसलकर जा गिरा गंगा में।…

… पूरा भविष्य डूबा दिया मैंने पानी में और विद्रूप में मेरे होंठ टेढ़े हो उठे हैं।”[xxx]

संजीव अपनी इस कहानी के माध्यम से मात्र ‘शोषण और प्रतिरोध के रूप’ को दर्ज मात्र ही करना नहीं चाहते अपितु अपने संपूर्ण साहित्य-सर्जन से वह “इस विश्व से अलग एक समानांतर विश्व, विश्वामित्र की तरह सृजन के सन्दर्भ में मेरा वह आदर्श है उसके सृजनशील आक्रोश का मैं कायल हूँ। मैं अपनी कहानियों के माध्यम से एक उचित समाज, एक सम्भावित समाज गढ़ना चाहता हूँ।”[xxxi]

निष्कर्ष : संजीव की कहानियाँ शोषण, प्रतिरोध और सामाजिक असमानता के मुद्दों को गहरे रूप में प्रस्तुत करती हैं। ‘अपराध’ और अन्य कहानियों में वे नक्सलवादी आंदोलन के संदर्भ में शोषित वर्ग के संघर्ष को सामने लाते हैं, जबकि मध्यवर्गीय युवाओं के दुविधा और संघर्ष को भी प्रमुखता से दिखाते हैं। संजीव के पात्रों के बीच के संवाद और टकराव समाज की वास्तविक स्थिति को उजागर करते हैं, जिसमें न्यायिक और प्रशासनिक तंत्र की भूमिका पर सवाल उठाए जाते हैं। उनका लेखन हिंसा और असमानता के खिलाफ आक्रोश है, साथ ही यह सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता को भी दर्शाता है। संजीव समाज में व्याप्त शोषण की जटिलताओं को स्पष्ट करते हुए एक समान और न्यायपूर्ण समाज की आवश्यकता को प्रतिपादित करते हैं। वे न केवल वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं, बल्कि एक बेहतर भविष्य की ओर भी इशारा करते हैं।

सन्दर्भ :
[i] संजीव, संजीव की कथा यात्रा पहला पड़ाव, संस्करण :2008,वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ०-10
[ii] समय और समाज के ज्वलंत मुद्दों से रचनात्मक मुठभेड़ करती संजीव की कहानियाँ, डॉ. विनय कुमार पटेल, सहयोग – 1, पृ०348
[iii] संजीव, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, छात्र संस्करण:2012, पृ०5
[iv] संजीव , संजीव की कथा यात्रा : दूसरा पड़ाव, वाणी प्रकाशन, संस्करण:2008 पृ०86
[v] वैज्ञानिक एप्रोच का खोजी कथाकार, संजीव राय, सहयोग-1, पृ०336
[vi] संजीव, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, छात्र संस्करण : 2012, पृ०9
[vii] वहीं, पृ० 10
[viii] वहीं, पृ० 11
[ix] वहीं, पृ०11
[x] वैज्ञानिक एप्रोच का खोजी कथाकार, संजीव राय, सहयोग – 1, पृ०338
[xi] वहीं, पृ० 338
[xii] संजीव, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, छात्र संस्करण :2012, पृ०12
[xiii] कला – 4, जनवरी 1996, पृ० 57
[xiv] संजीव, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, छात्र संस्करण :2012, पृ० 12
[xv] वहीं, पृ० 13
[xvi] वहीं, पृ०14
[xvii] मोहन कृष्ण, कहानी समय, शिल्पायन प्रकाशन, संस्करण – 2013, पृ० 186
[xviii] संजीव, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, छात्र संस्करण :2012, पृ० 14
[xix] वहीं पृ० 16-17
[xx] वहीं, पृ० 17
[xxi] कई कहानीकारों से अलग एक कहानीकार, सुधीर सुमन, सहयोग – 1, पृ० 314
[xxii] संजीव, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, छात्र संस्करण – 2012, पृ० 15
[xxiii] वहीं, पृ० 18
[xxiv] वहीं, पृ० 21
[xxv] वहीं, पृ० 22
[xxvi] संजीव, संजीव की कथा यात्रा पहला :पहला पड़ाव, संस्करण :2008, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ०-10
[xxvii] संजीव, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, छात्र संस्करण :2012, पृ० 23
[xxviii] वहीं, पृ० 23
[xxix] समय और समाज के ज्वलंत मुद्दों से रचनात्मक मुठभेड़ करती संजीव की कहानियाँ, डॉ विनय कुमार पटेल, सहयोग – 1,पृ० 357
[xxx] संजीव, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, छात्र संस्करण :2012, पृ० 24
[xxxi] संजीव से गौतम सान्याल की बातचीत, कथाकार संजीव, पृ०-77

पवन कुमार
पीएच.डी (हिन्दी) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

4 टिप्पणियाँ

  1. लेखक द्वारा समाज की वास्तविकता को बहुत ही सुन्दर तरीके से बताया गया है।।

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  2. Bhut hi khubsurat lekh hai aapka aise hai lekh aap aage bhi prakashit kartai rahe bhagwan aapko ko aage badaye

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  3. अपराध जैसी संवेदनशील कहानी का विश्लेषण, एक अलग प्रकार की दुरूहता प्रस्तुत करता है। यहां शोषण के कई रूप हैं, जो समाज में व्याप्त असमानता को विभिन्न स्तरों पर उजागर करते हैं। लेखक ने कहानी में चल रहे शक्ति और संघर्ष के इस इस द्वंद्व को बखूबी पकड़ा है।
    " यहां शोषण और अव्यवस्था का प्रतिरोध बस अपना विरोध दर्ज कराने मात्र के लिए नहीं है, अपितु एक समानांतर शोषणहीन और आदर्श समाज के सृजन की आकांक्षा इसमें निहित है। " - इसे उद्धृत करने के लिए पवन को साधुवाद। आशा है आपके ओर से ऐसे और भी आलेख आते रहेंगे।

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  4. एक कहानी को इतनी गहनता से समझ, उसका विस्तृत वर्णन किया गया है, हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए किसी रचना का इतना स्पष्ट चित्रण बेहद उपयोगी सिद्ध होता है।

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