समीक्षा : ‘मेरा बचपन –मैक्सिम गोर्की’ : बचपन के साथ सीखने का संदर्भ / आदित्य पाण्डेय

‘मेरा बचपन –मैक्सिम गोर्की’ : बचपन के साथ सीखने का संदर्भ
- आदित्य पाण्डेय


महान रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की की आत्मकथा का पहला भाग मेरा बचपन शीर्षक से अनुदित हुआ है गोर्की ने अपने मूल नाम अलेक्सेई के बचपन संसार को दर्शाया है। जो कि जारशाही रूस में क्रमशः एक मध्यमवर्गीय तथा निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के इर्द गिर्द बीतता है। बचपन के लिए दुर्गम परिस्थितियों के बीच बच्चे के मन में वस्तु, व्यक्ति ,परिस्थिति,संबंधों आदि के किस प्रकार के दृश्य उपस्थित होते हैं और उन्हें वह अपने और दूसरों के भीतर या उनके साथ किस प्रकार बरतते ,उलटते-पलटते,जुड़ते, कई बार खंडित होते देखता है। आत्मकथा होने के कारण गोर्की ने फ्लैश्बैक पद्धति का प्रयोग किया है इस पद्धति का प्रयोग करते हुए कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ता है क्योंकि स्मृति पटल से जहां आपको लगातार टटोलने ही जद्दोजहद करनी पड़ती है।तो वहीं बचपन को दर्शाते हुए जहां अपने बड़ेपन और कभी कभी तो लेखकपने से परे रहकर काम करना पड़ता है।

मंगलेश डबराल अपनी कविता में लिखते हैं, “हम तुरंत अपने बचपन में पहुँचना चाहते हैं। लेकिन वहाँ का कोई नक़्शा हमारे पास नहीं है। वह किसी पहेली जैसा बेहद उलझा हुआ रास्ता है अक्सर धुएँ से भरा हुआ। उसके अंत में एक गुफा है जहाँ एक राक्षस रहता है।“ (1)

, लेखक इस आयु में पहुँच कर वही राक्षस है,इस पर भी उसका प्रयास रहता है कि वह उस नज़र को जहां तक हो सके,बचाए रखे। जो कि उसे तब के समय सहज भाव से प्राप्त थी और जिसका उसे यथासंभव उसी साफगोई के साथ अपने लेखन में प्रयोग करना चाहिए उदाहरण के रूप में कई बार बच्चे के पास कई दृश्य बिल्कुल अबूझ रूप से ही आते हैं और बिल्कुल उसी रूप में बने रहते हैं। अबूझ होकर भी अपने जबरदस्त प्रभाव के साथ,उनके बारे में और अधिक की कोई जरूरत नहीं रह जाती। लेखक का काम ऐसे दृश्यों या वृत्तांतों पर अपनी सीमा को पहचानना है और उनके प्रति पुराने ईमान को बचाना एक जिम्मेदारी है इसी कृति में प्योत्र काका की मृत्यु का दृश्य ऐसे ही मौके का नाम है जहां पर गोर्की गुंजाइशों को छोड़ते हुए दिखलाई देंगे; दरअसल यही उनकी सफलता भी है। इसी तरह की एक अन्य चुनौती, बचपन की सहज मन से की गई क्रियाओं का चित्रण है, ऐसे क्रिया कलाप जिनके तब पर्याप्त निजी तर्क और मनोस्थितियां हो सकते थे जैसे शरारत आदि, लेखक ऐसे प्रसंगों में अपनी आज की बनीं दृष्टि के साथ अत्यधिक चुहलबाजी जैसा कुछ प्रयोग कर लुभावना दिखाने की अक्सर कोशिश में लग जाता है ऐसी चीजों से बचने की आवश्यकता होती है गोर्की ऐसे तमाम मौके पर बचाव कर ले जाते हैं इसलिए भी वे सफल होने के करीब दिखते हैं।

अलेक्सेई का त्रासदियों से घिरा हुआ बचपन जो मृत्यु प्रवास मारपीट और शोषण जैसी अमानवीय परिस्थितियों से और रिक्तताओं,संवेदनाओं के दृश्यों से परिपूर्ण था।

गोर्की को लिखे गए एक पत्र में रोम्याँ रोलाँ लिखते हैं…

“आप जब पैदा हुए थे तो सर्दियाँ उतार पर थीं, वसन्त क्रियाशील हो रहा था, और विषुव निकट आ रहा था। यह संयोग आपके समूचे जीवन के लिए प्रतीकात्मक है, एक जीवन जो पुरानी दुनिया के पराभव और झंझावातों से आविर्भूत, नयी दुनिया के जन्म के साथ दृढ़तापूर्वक जुड़ा हुआ है”

कथानक में भी अलेक्सेई और उसके परिवेश से हमारा परिचय झंझावातों के रूप में ही मिलना शुरू होता है। बिल्कुल शुरुआती दृश्यों में पिता की मृत्यु और मां की जचगी फिर नवजात भाई मक्सिम की मृत्यु के साथ यह पुस्तक- यात्रा शुरू होती है,जिसके बाद नाना के घर को प्रवास का दृश्य है यहां पर एक संवाद में नाना द्वारा ये पूछने पर कि ये कौन है का उत्तर, नाना को अपना परिचय वह ठीक उसी वाक्य में देता है जो यात्रा के दौरान डेक पर अपने बारे में उसने औरों से सुना था “यह आस्त्रखान का है केबिन से निकल आया है।“(2) इसे बिल्कुल सामान्य रूप से भी देखा जा सकता है कि बच्चे जो देखते हैं वही दोहराते हैं ;लेकिन प्रवासन बच्चे पर ,उसके अस्तित्व पर जो कुछ प्रभाव छोड़ता है उसके लिहाज से भी यह परिचय-वाक्य महत्वपूर्ण हो जाता है। बचपन की एक ज़रूरी मांग स्थायित्व भी होती है। जगह और लोग बदलने से बच्चे के भीतर अजनबीपन भी जन्मता है नए लोग अपने साथ उनके लिए नए कौतूहल और नए असुरक्षा के भाव भी ले आते हैं जिनसे हमेशा उसको कम से कम कुछ समय तो सामंजस्य बैठाने में लगता है ऐसी परिस्थितियों का अलेकसेई को बार बार सामना करना पड़ता है

मुश्किलों के इसी क्रम में उसे कई बदतोव्याघाती सूत्र वाक्यों से सामना करना पड़ता है,जैसे यह कि बच्चों के बिगड़ने से बचाने के क्रम में या विकास के क्रम में उन्हें मारना पीटना या लोक की भाषा में ठोक बजा के रखना आवश्यक होता है। पहले पहल, इससे पाठ-परिचय उसके नाना करवाते हैं उसे तब तक बेंत से मार कर जब तक वह बीमार होकर कई दिनों के लिए बिस्तर पर नहीं पड़ जाता है। और वही नाना बीमारी के उन दिनों में उसके लिए तोहफ़े लाकर और अपने प्रारंभिक दिनों की बातें सुनाकर ये दिलासा देते है ध्येय वाक्य के साथ कि ‘उन्हें तो इससे भी खतरनाक मार पड़ती थी और ये सब उसके लिए एक सबक है।‘ यहां पर गोर्की लिखते हैं कि “बीमारी के वे दिन मेरी जिंदगी के महत्वपूर्ण दिन थे मुझे ऐसा लगा कि उन थोड़े से दिनों में मैं बड़ा हो गया हूं......हृदय दूसरों के प्रति गहरी संवेदना से परिपूर्ण हो गया ऐसा मालूम हुआ कि किसी ने कलेजे पर की खाल खीच दी अब अपने या दूसरों के दुःख और ह्रदय को लगने वाली ठेस से ऐसा जान पड़ता मानों किसी ने ताजे घाव को छू दिया हो”(3) ये स्पष्ट है कि इस प्रकार मार-पीट या डंडे का भय दिखाने के प्रयास सिर्फ और सिर्फ बच्चे के हिस्से और उसके हक के बचपन को छीनने के उपकरण के रूप में सिद्ध होते हैं अलेक्सेई और अन्य बच्चों के ऊपर ऐसे उपकरण और ऐसी सोच का प्रदर्शन समय समय पर होता रहा यही कारण है कि गोर्की शुरुआत में ही लिखते हैं ही कि “मैं शायद ही कभी कभी रोता था तब जब हृदय को ठेस लगती थी देह की चोट से मुझे कभी रोना नहीं आता था।“(4)

अलेक्सेई नाना के धन संपत्ति को लेकर मामाओं के बीच झगड़े और हाथापाई के दृश्य देखता है जिसके कारण उसकी नानी उन्हें लालची कहतीं और जिसके स्वामित्व का उसके नाना को गर्व रहा और वे सदा अपने बेटों को कोसते रहे। वही संपत्ति जिसके कारण उसके मामाओं ने उसके पिता की जान लेने की कोशिश की थी अलेक्सेई को प्रेम करने वाले इवान की उन्होंने चाहे अनचाहे सलीब के पत्थर से कुचल कर मृत्यु के हवाले कर दिया , अपने पिता (अलेकसेइके नाना) के मारने का तथा उनकी बदनामी का कई बार प्रयास और बाद में उसकी मां और अपनी बहन की मृत्यु के बाद मिखाईल मामा का यह संवाद कि “आज छककर पी जायेगी”(5) अलेक्सेई की राय कुछ ठीक ऐसे रही कि नाना अपने बेटों या किसी से भी इतनी घृणा नहीं करते जितना अपनी संग्रह की गई पूंजी से प्रेम ,और जो कि उनके रूखे व्यवहार और का एक कारण भी रहा इसकी नियति यह रही की उन्हे जीवन के अंतिम दौर में भिखमंगा बन जाने को मजबूर होना पड़ा । गोर्की ने पूंजी - स्वामित्व के विद्रूप स्वरूप को काफी पहले से ही देखा, इसके कथानक और कई भीखारियों के ज़िक्र अनुसार लोगों का बेकार हो जाने पर भिखारी हो जाना एक त्रासद और आमफहम बात मालूम होती है। अलेक्सेई ने खुद रंगरेजी के काम करने वाले श्रमिक नौकर ग्रीगोरी के अंधे होकर दर दर भीख मांगने की दयनीय (जो की उससे देखी भी नहीं जाती थी) स्थिति को देखा था यद्यपि ग्रिगोरी को अपनी स्थिति का पूर्व आकलन था वह उसके मामाओं द्वारा शोषण किए जाने और नाना द्वारा उपेक्षित होने पर कहता भी कि “ अंधा होने पर दर दर की भीख मांगता फिरूंगा और इस जीवन से तो बेहतर होगा।“(6) इस प्रकार लगातार शोषण के कारण बदलते चरित्र , संबंधों और मानवीय मूल्यों की गिरावट भी देखने को मिलती है।

गोर्की की वंचितों हाशिए पर के लोगों के प्रति संवेदनाएं भी शोषण के ऐसे ही स्वरूपों से लगातार रूबरू होने के कारण ही जन्म लीं और जिन्होंने बाद में उनकी पक्षधरता को मजबूती देने का भी काम किया, बाद में ‘बहुत खूब’ की चर्चा करने के क्रम में वे लिखते भी हैं कि “गरीब खतरनाक और डरावने नहीं हुआ करते ,यह मैंने पहले ही समझ लिया था और समझने का ख़ास कारण था कि नानी ऐसे लोगों को दया और नाना तिरस्कार की दृष्टि से देखा करते थे।“(7) इस घरेलू लड़ाई-झगड़े मार-पीट का मूल्यांकन गोर्की उम्र के इस छोर से सामाजिक ढांचे को जोड़ते हुए करते हैं कि “ बहुत दिनों बाद मैने महसूस किया कि रूसी अपनी गरीबी और नीरसता के कारण ऐसा करते हैं व्यथा और रंज उनके मन बहलाने के जरिए हैं। बदनसीबी बच्चों की तरह उनका खिलौना जिससे बदनसीबी पर उन्हें काम ही शर्म आती है।...जब जीवन की धारा एक रस बहती है तो विपत्ति भी मन बहलाने का साधन बन जाती है।घर में आग लग जाना भी नवीनता का रस प्रदान करता है।कहावत भी है सादे चेहरे पर मस्सा भी अलंकार होता है।“(8)

मदर जैसी कृति के लेखक गोर्की को अन्य की अपेक्षा जिस तरह स्त्रियों ने प्रभावित किया जोकि उनके लेखन में भी लगातार दिखता है ‘मेरा बचपन’ में उन्होंने उसे खूबसूरती से उपस्थित किया है अलेक्सेई की पूरी बचपन यात्रा में उससे प्रेम करने वालों में अगर कोई लगातार सम्मुख रहीं, तो वह उसकी नानी वासीली वासिल्योविच थीं और जिन्होंने लगातार बीते वक्त की बातें,भूत प्रेतों परियों की कहानियों को सुनाकर उसकी कल्पना लोक को निर्मित करने का काम किया। उसकी जिज्ञासाओं,जटिल दृश्यों को बाल सुलभता के लिए आसान करने की पूरी की। उन्होंने विपरीत परिस्थिति में न केवल उसका पालन पोषण बल्कि लगातार उसके बचपन को जितना संभव हो बचाने की जिम्मेदारी भी उन्होंने उठाई। उसके दिवंगत पिता के जो भी मनमोहक और सुंदर दृश्य थे वह सब नानी ने ही उसके सामने प्रकट किए थे। एक सामान्य घरेलू स्त्री की असामान्य क्षमता का परिचय उसे अपनी नानी को देखकर ही हुआ। जब कारखाने में आग लगी तो वह उसे बुझाने और सब कुछ को बचाने के प्रयास करती नानी का जौहर देखकर हतप्रभ रह गया था ,“नानी आग ही की तरह आकर्षक लग रहीं थी। लपटे मानों उसी की ओर दौड़ रही थीं। उसके प्रकाश में वह छाया की तरह आँगन में चारों ओर दौड़ रही थी। कोई जगह न थी जहां वह मौजूद न हो।कोई चीज़ उसकी पैनी दृष्टि से बच नहीं पा रही थी। हर आदमी को वह हुक्म दे रही थीं।“(9)

स्त्रियों के घरेलू उत्पीड़न को भी वह लगातार अपनी आंखों से देखता है। ग्रीगोरी ने उसे बताया कि कैसे याकोव मामा ने अपनी पत्नी को पीट पीट कर मार डाला था ,“जानते हो ,वह उसे मारता कैसे था? चारपाई पर उसे सिर से पांव तक रजाई से ढककर मुक्के घूंसे और घुटनों से मारना शुरू करता था । हर रात यही होता था। एक दिन इसी में वह खत्म हो गई।वह ऐसा क्यों करता ? यह तो शायद वह खुद भी नहीं जानता।“(10) उसे पढ़ाने वाली मिखाईल मामा की पत्नी नातल्या मामी जिसका चेहरा उसे बच्चों की तरह भोला-भाला और आंखें इतनी स्वच्छ जिनके आर पार देखा जा सा सकता था,लगती थी; तथा अलेकसेई के शब्दों में ,’जिसके होंठ अक्सर सूजे रहा करते थे और पीली भावशून्य आंखों के नीचे नीले दाग दिखते थे’ क्योंकि मिखाईल उसे मारता था और जिसकी मृत्यु बच्चा जनते हुए हो गई थी।

इस प्रकार की मारपीट समाज में आम बात जान ही पड़ती है, उसकी नानी ने भी बताया कि उसके नाना ने भी कई बार उसे मारा हैं। “एक बार मारते मारते मुझे अधमरा कर दिया और इसके बाद पाँच दिन तक खाना नहीं दिया। उस दफा तो मैं मरते मरते बची फिर एक बार....”(11) जब वह नाना के बरक्स काया में लगभग दुगुनी अपनी नानी से पूछता है कि क्या नाना उससे ताकतवर हैं? तो उसका जवाब होता “वह ताकतवर तो नहीं हैं लेकिन बड़े हैं और मेरे पति हैं, मेरे साथ जो बुरा करते हैं उसका बदला उनसे भगवान लेगा और उसने मुझे उनकी सब बातें सहन करने का हुक्म दिया है। “वही नानी एक जगह उसे यह भी सीख देती हुई मिलती हैं कि “बिना विवाह किसी लड़की के बच्चा होना भयानक बात है।इस बात को बड़े होकर याद रखना किसी कुमारी लड़की को भूलकर भी ऐसी आफत में मत डालना........नानी की इस बात को हरगिज मत भूलना स्त्रियों पर तरस खाना, उन्हें हृदय से प्यार करना केवल क्षणिक सुख का साधन मत समझना।“(12)

इसके अलावा उसने अपनी मां को, जिनकी स्पष्टवादिता और साहसी व्यक्तित्व के कारण वह हमेशा प्रभावित रहा और जिनके भीतर उसने डाकुओं और परियों की कहानियो के फंतासी चरित्रों की कल्पना की। अलेकसेइ ने उसे घर और बाहर दोनों जगह सिर्फ अपने वैधव्य और किसी पुरुष का संरक्षण न होने के कारण अपमान और उपेक्षा झेलते हुए देखा था। जिसमें उसके नाना-नानी का हमेशा दबाव ये रहा कि वह फिर से शादी कर ले और विवाहिता होने पर, समाज में तथाकथित इज्जत के साथ जीवित रहने की स्वीकृति मिल जाएगी ,नाना ने उसके दहेज के लिए अपना घर तक बेच दिया था ,वह दहेज जिसके कारण भी उनकी अपने लड़कों से दुश्मनी रही थी। इस प्रकार अलेक्सेई ,उसके जीवन से ताल्लुक रखने वाली स्त्रियों के बीच रहा जिन्होंने तरह-तरह के शोषण के बीच संघर्ष करते हुए जीवन व्यतीत किया और उसने उन सबके अंत को त्रासद रूप में ही पाया। ग्रिगोरी का अलेक्सेई से यह संवाद महत्वपूर्ण है “ जरा सोचो तो दुनिया में नए जीव को जन्म देना कितना कठिन काम है फिर भी लोग औरत की इज्जत नहीं करते। औरत की पदवी बड़ी ऊंची है वह होती है मां”(13)

अलेक्सेई का बचपन ईश्वर,पिशाच, देवदूतों, संतों आदि में आस्था और उनकी लीला कथाओं को सुनते हुए बीता।

तत्कालीन रूसी समाज में रहते उसके नाना-नानी, जो ईश्वर के सर्वशक्तिमान और नियंता के चरित्र में विश्वास रखते और कर्म उनके लिए उसके सामने अपने को पेश करने के माध्यम रहे थे। इस परिवेश में बच्चे के अंतः मनस में ईश्वर की कल्पना और उसके चरित्र का मूल्यांकन भी लगातार चलता रहता था जिसे अलेक्सेई कुछ इस प्रकार कहता है “उन दिनों मैं सदा ईश्वर के बारे में सोचा करता था। वही मेरे जीवन में एकमात्र सौंदर्य बिंदु था शेष जो था वह इतना कुत्सित और हृदयहीन कि उसके स्मरण मात्र से मन में व्यथा और जुगुप्सा भर जाती।“(14) उसने काफी काम उम्र में यह पहचानने की कोशिश की थी कि ईश्वर की निर्मिति, प्रत्येक अपनी अपनी गुण दुर्गुण अवसर स्थिति और स्वार्थ पर करता है इसीलिए ईश्वर का वस्तुनिष्ठ-चयनित चरित्र प्रत्येक के भीतर भिन्न होता है।

उसने घर के भीतर दो प्रकार के ईश्वर को पाया उसके नाना ईश्वर की दंडाधिकारी और अक्रांत की छवि को उसके सामने रखते हैं ,जिसके बारे में गोर्की लिखते हैं “ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का प्रसंग आने पर वह हमेशा उसकी निर्ममता पर जोर देते थे। उदाहरणार्थ,एक बार जब पाप बहुत बढ़े तो ईश्वर ने ऐसी बाढ़ पैदा की कि सभी डूब गए एक बार ऐसी आग लगाई कि पूरा नगर जलकर नष्ट हो गया। एक दफा अकाल और महामारी ने लोगों का सफाया कर दिया।उनका ईश्वर नंगी तलवार या तना हुआ कोड़ा था,जो सदा गुनहगारों की पीठ पर बरसने को प्रस्तुत रहा करता था।“(15) गोर्की लिखते हैं कि इस प्रकार की ईश्वर की क्रूरता पर उन्हें कभी विश्वास नहीं आया और उनका आकलन यही होता जो कमोबोश सही भी था की नाना का ईश्वर और कुछ नहीं वे खुद ही हैं जो उनकी अनिच्छाओं और इच्छाओं का लबादा ओढ़े मूर्तिमान है और जिस प्रकार स्वयं का भय वो बच्चे के मन में कायम करना चाहते हैं उसी प्रकार का भयावह और निर्मम स्वरूप उन्होंने अपने ईश्वर को भी दे रखा था ,वह कहता है कि “यह प्रश्न मुझे परेशान करता रहता था कि नाना भगवान की सहृदयता के प्रति क्यों इतने अंधे हैं?”(16) वास्तव में यह वही ईश्वर था जो धर्म और पवित्रता की रक्षा की आड़ में शोषण करने का यंत्र होता है। आगे वह कहता है इसके विपरीत नानी का ईश्वर उसे आसान ,सौम्य,सहज, करुणा से भरा हुआ जान पड़ता था वह ईश्वर जो रूदन ,प्रार्थना से भाव व्याकुल हो उठता हो , जो भी पुण्य है उसकी रक्षा करने कोआतुर और जो अपने बच्चों को हमेशा प्रेम करता था, उसमें बिल्कुल वैसे ही गुणों का समावेश था, जो उसकी नानी में थे। इसी कारण बचपन में वह उस ईश्वर से अधिक जुड़ाव महसूस कर सकता था। “ नानी के भगवान को मैं समझ सकता था। मुझे उससे डर नहीं लगता था साथ ही उसके सामने झूठ बोलने की मेरी हिम्मत नहीं होती थी। इसी लाज के कारण मैं नानी से कभी झूठ नहीं बोला । ऐसे सहृदय भगवान से कुछ भी नहीं छिपाना असंभव था और जहाँ तक मुझे याद है मेरी इच्छा भी नहीं हुई कि कुछ छिपाऊं।“(17)

जैसे जैसे हमारे भीतर खुद को और औरों को सोचने समझने या विश्लेषण करने की बौद्धिक गतिविधि शुरू है ( काफी हद तक जिसको सीखाने का पुरजोर प्रयास शुरुआत से ही चालू हो जाता है।) उसके साथ हमारे भीतर एक प्रकार का एकाकीपन या पृथक्करित होने का ख्याल विकसित होना शुरू होता है वह असुरक्षा का भाव जो बच्चे के भीतर उपजते हैं और वहां से शुरू होता है एक दायरे का निर्माण, बच्चे शुरुआत से ही घुल मिल जाने के अवसर देने को तैयार रहते हैं लेकिन बाहरी परिवेश की सीखों और उनके नैसर्गिक दबाव और उसके द्वारा अंतः मनस में उपजता सशंकित होने का भाव,जिसको समाज ने काफी प्रतिष्ठा के साथ बच्चे के भीतर गुण के रूप में भी स्वीकार किया है और जिसको तथा कथित अवेयरनेस के प्रकार के रूप में देखा गया है इसको शांत और गंभीर होना कहा गया है ये सबसे खतरनाक होता है एक बने बनाए फ्रेम के कारण कि बच्चे को तो ऐसा होना या ऐसे बिहेव करना चाहिए, धीरे धीरे ये चुप्पी एकाकीपन में तब्दील होना शुरू हो जाती है और उसका दायरा छोटा होना। पहले वो कुछ करीबी घर के सदस्यों से बात करना चाहता है फिर कुछ मित्रों से( यदि इस चुप्पी के साथ मित्रता के अवसर पनपे तो) धीरे धीरेइसी क्रम में एक दिन यह दायरा सिर्फ़ खुद तक ही सीमित हो जाता है कई बार यह चुप्पी बहुत ही बातूनी बच्चों में भी होती है जो दुनिया जहान की बातों पर बात तो करते हैं लेकिन जो बात उनको सबसे व्यथित करती रहती है उसपर वो बात नहीं कर पाते। बहुत बार शर्म , मार डांट या औरों की नज़र में उसके अच्छे बच्चे बने रहने या पर्सनैलिटी मेंटेनेंस का डर आदि की वजह से। कई बार तो इस सुपरफास्ट जीवन शैली में कोई सुनने वाला ही उनके पास नहीं होता यह तथ्य भी ध्यातव्य है की चूंकि वयस्कों में यह एकाकीपन और छिपाऊपना तो और अधिक होता है। उनमें भी ट्रांसफॉर्म होता है ।बच्चे का रहन तो उन्हीं के बीच है वे सदा उपदेश से ज्यादा परिवेश को महती मानते और सीखते है। 

Michel Gondry द्वारा निर्देशित मूवी Eternal Sunshine of the spotless mind में clementine ( kate winslate) के किरदार का संवाद कहता है कि “ I was a kid, I thought I was. I can’t believe I’m crying already. Sometimes I think people don’t understand how lonely it is to be a kid, like you don’t matter.”(18) देखते ही यह समझ आ सकता है की कितने प्रभावशाली शब्दों से उस एकाकीपन की पीड़ा को व्यक्त किया गया है। गोर्की के लिए, विपरीत परिस्थितियों के बीच और भी उभरकर यह पहलू सामने आता है अलेक्सेई के कुछ संवाद जैसे “धीरे धीरे नींद भरी थकान सड़क को लीलने लगी। उसने मेरे वक्ष को भी दाब लिया और आकर बैठ गई मेरी पलकों पर। काश नानी भी आ जाती इस समय बरसाती में और नानी नहीं तो नाना ही सही।कैसे आदमी रहे होगें मेरे पिताजी कि मामा और नाना ही सही कैसे आदमी रहे होंगे मेरे पिताजी कि मामा और नाना उनसे इतनी घृणा करते थे तथा नानी ,ग्रिगोरी और येवगेनिया धाई इतनी बड़ाई किया करते हैं? मां कहां चली गई?”(19)

दर’असल अलेक्सेई ने अपने पिता, इवान, नातल्या मामी,प्योत्र काका आदि के जीवन का त्रासद अंत तथा अंतिम में उसकी मां जिसकी मूर्ति उसने, सामने से ज्यादा फंतासी दुनिया में कुछ अलग से तैयार की थी। उसकी भी उसने उसी असहाय दशा में मृत्यु को महसूसा या उसने जो इर्द गिर्द के जीवन को भी देखा उन्हें भी मौके बेमौके स्वयं को ईश्वर के समक्ष अपराधियों की तरह धिक्कारते हुए ही। बाद के कुछ संगी मित्रों के अपवाद को छोड़कर, ऐसे लोग जिसे उसने उनके कुछ भिन्न जीवन शैली और नजरिए, सरल शब्दों में उस मुर्दे परिवेश में जीवंतता के लिए प्रेम किया और जो समाजिक स्तर पर इन्हीं सब के लिए हमेशा धिक्कारे भी गए ,वो भी दूर कर दिए या हो गए;जैसे रसायनज्ञ, कलाप्रेमी और क्रांतिचेत्ता सोशलिस्ट ‘बहुत खूब’ जिसको नाना के द्वारा निकाल दिये जाने पर अलेक्सेई को अपार दुःख हुआ था ।

लिखते हुए कुछेक जगह मार्मिक दृश्यों पर गोर्की ने अपनी भावुकता को थोड़ा-बहुत ही स्थान दिया है जैसे इवान या मां की मृत्यु होने पर (शायद ये जरुरी और असहनीय हों तो उनका रिएक्शन नैसर्गिक रूप से उभर आया हो ) लेकिन अधिकांश ऐसी जगहें जहां वो अपने भीतर को कहानी में रखने से बचते हैं; या औपचारिक रूप से छू कर निकल आते है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि गोर्की स्मृतियों के उस जोन में दोबारा न जाना चाहते हों या यह पाठक की सुविधा के लिए अतिशय भावुकता से बच जाने का लेखकीय तरीका हो। इसके समानांतर यह भी संभव है विशेष तौर पर बच्चे अलेक्सेई के लिए कि संभवतः उसने जीवन की कुरूप त्रासदियों (यद्यपि महसूसा तो हो )पर तब उसे कोई रिएक्शन देना ही न आया हो या वो कभी न दे पाया हो और संभवतः, ‘गोर्की’ हो जाने पर भी नहीं।

इन तमाम रिक्तिताओं,खीझ से भरी और कठिन दिनों की यात्रा में भी यदि अलेक्सेई के बचपन को जीवंत रखने की बार-बार जिद्द किसी ने ठानी , उसमें सख़्त जरूरी ऊष्मा भरने का भरकस काम किसी ने किया तो वह था खुद अलेक्सेई और हो भी क्यों न? यह दृश्य गोर्की लिखते हैं “ल से लकड़ी जैसा क्या पिल्लू जैसा जान पड़ता था। फ से फकीर बिल्कुल कुबड़े ग्रिगोरी की तरह था। पेट फूल हुए ब को देखकर मुझे लगता था जैसे मैं ही नानी की गोद में बैठा होऊं और लगभग सभी अक्षरों में कुछ ऐसा कि उससे नाना के चेहरे की याद आ जाती थी”(20) या फिर पिता के ताबूत को गाड़ते हुए देखते वक्त नन्हे अलेक्सेई की उसमें कूदते मेंढकों को लेकर कौतूहल और उनके न निकल पाने को चिंता का दृश्य और भोजन के पैसों खातिर लकड़ी के गट्ठे निकालने या कबाड़ इकट्ठा करने को चोरी न मानना। क्या ये दृश्य जीवन को सुंदर और जिजीविषा को वृहत्तर नहीं बनाते?

क्या यह सही नहीं ? कि विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में बच्चे बिना कंप्लेन करे जो कि संभवतः उन्हें पता ही नहीं होता ,जाने अंजाने खुद के लिए संघर्ष करते हैं, वो भी बिना संघर्ष करना जानते हुए। उनकी हँसी-खुशी ,खेल-कुदव्वल, वे सख़्त ज़रूरी नैसर्गिक बाल्य क्रियाएं,जिन्हें सामूहिक शब्दावली तथाकथित शरारत और शास्त्रीय शब्दावली में उद्दंडता की संज्ञाओं से इंगित किया जाता है उनका जुझारूपन ,जिद्द उनका सहज आकर्षण या हर किसी को जान लेने की उनकी प्रवृत्ति, परिवेश अपने सम्मुख बदल देना ये सब मिलकर एक बच्चे और उसके बचपन का निर्माण करते हैं , अपने बचपन के हक के लिए उन्हें, मंगलेश जी की शब्दावली में किसी राक्षस की ज़रूरत नहीं ; प्रत्येक आंदोलन को छेड़ने के लिए वे खुदमुख्तार हैं उसका नेतृत्व भी स्वयं बच्चे ही करेंगे, पीछे औरों को उनकी रहनुमाई में चलना होगा।

संदर्भ :
2. गोर्की, मैक्सिम,मेरा बचपन, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्राइवेट लिमिटेड,नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण मई 2024, पृष्ठ संख्या 12
3. वही, पृष्ठ संख्या 28
4. वही, पृष्ठ संख्या 10
5. वही, पृष्ठ संख्या 230
6. वही, पृष्ठ संख्या 55
7. वही, पृष्ठ संख्या 106
8. वही, पृष्ठ संख्या 121
9. वही, पृष्ठ संख्या 61
10.वही, पृष्ठ संख्या 43
11. वही, पृष्ठ संख्या 56
12. वही, पृष्ठ संख्या 56
13.वही, पृष्ठ संख्या 65
14.वही, पृष्ठ संख्या 99
15.वही, पृष्ठ संख्या 96
16.वही, पृष्ठ संख्या 97
17.वही, पृष्ठ संख्या 92
18. Eternal Sunshine of the Spotless Mind,Michel Gondry,2004
19.गोर्की, मैक्सिम,मेरा बचपन, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्राइवेट लिमिटेड,नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण मई 2024, पृष्ठ संख्या 85
20. वही, पृष्ठ संख्या 72

आदित्य पाण्डेय

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

1 टिप्पणियाँ

  1. अदभुत संकलन एवं लेखन शैली का बेहतरीन प्रयास , आदित्य पांडेय जी को बहुत बहुत साधुवाद।

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