शोध आलेख : तकनीकी के युग में बाल साहित्य / कोमल यादव

तकनीकी के युग में बाल साहित्य
- कोमल यादव

शोध सार : तकनीकी विकास क्रम ने न सिर्फ़ बच्चों; बल्कि युवाओं के भी पठन-पाठन के परंपरागत तरीकों को व्यापक रूप से बदला है। ऐसे में तकनीकी ने बाल साहित्य के सामने कई चुनौतियाँ और संभावनाएँ दोनों पेश की है। चुनौतियों में डिजिटल गैजेट्स पर अधिक स्क्रीन टाइम बिताने और डूम स्क्रोलिंग के कारण बच्चों में आईस्ट्रेन, डिजिटल डिमेंशिया, ट्रिगर फिंगर, ओस्टियोपोरोसिस जैसी अन्य गंभीर बीमारियाँ सामान्य होती जा रही है साथ ही सर्वाइकल पेन, तनाव और  चिड़चिड़ा पन जैसी समस्याएँ हो रही है। इन डोर गेम्स के कारण बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर हो रहे हैं साथ ही भावनात्मक रूप से कमजोर और अंदर से अकेले भी। हालांकि तकनीकी ने प्रत्येक वर्ग का ज्ञानवर्धन किया और जीवन को सरल बनाया है। अब तकनीकी हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है।ऐसे में बच्चों को कॉमिक्स, वीडियो गेम्स, कार्टून्स, प्लेजेंट फैंटेंसी के जरिये बाल साहित्य से परिचित कराया जा रहा है। इसलिए सूचना विस्फोट के कारण टैक सेवी बच्चों के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि बच्चों को तकनीकी के माध्यम से जो कंटेंट पहुँच रहा है वह उनकी उम्र और समझ के हिसाब से हो। जिससे उनमें साहित्य, कला, संस्कृति, पर्यावरण, समाज आदि के प्रति सकारात्मक बोध जागृत हो सके

बीज शब्द : तकनीकी, बाल साहित्य,एकाकी परिवार, सोशल मीडिया, बालमन, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, बाल मनोविज्ञान,सूचना विस्फोट,डूम स्क्रोलिंग,इन्फोंटमेंट,डिजिटल डिमेंशिया, बाल विमर्श आदि।

मूल आलेख : नाना-नानी एवं दादा-दादी की रोचक राजा-रानी की कहानियों, परीकथाओं के माध्यम से बाल साहित्य प्राचीन काल से ही मौखिक रूप में प्रचलन में रहा है। इन कहानियों के रचनाकारों और रचनाकाल का भी कोई प्रमाण नहीं है। देशकाल एवं परिस्थिति के अनुसार इन कहानियों में कुछ नया समयानुसार जुड़ता और बदलता रहा है। डॉ० नागेश पांडेय ‘संजय’ भी कहते हैं:- ”बाल साहित्य का विकास मौखिक परंपरा से हुआ है। कभी खेल-खेल में बच्चों ने इसे गढ़ा तो कभी बच्चों के मनोरंजन के चलते बड़ों ने इसकी रचना की। यह विकास यात्रा ऐसे ही वाचिक स्तर पर परिवर्धित-संवर्धित हुई है।”1 इन कहानियों में विष्णुशर्मा की पंचतंत्र की कहानियाँ,हितोपदेश,कथासरित्सागर उल्लेखनीय हैं। जिनका उद्देश्य बच्चों का मनोरंजन एवं उन्हें नैतिकता तथा मानवता का पाठ पढ़ाया जाना था। इस तरह बाल साहित्य वह साहित्य है जो बच्चों के मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर लिखा जाए साथ ही यह बच्चों को यथार्थ से परिचित कराएं।

आज के बाल साहित्य के सामने कई चुनौतियाँ है और संभावनाओं के ऐसे क्षितिज भी, जिनका तकनीकी के अभाव में शायद कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इक्कीसवीं सदी अपने आप में कई बड़े बदलावों के साथ कई तरह की चुनौतियाँ भी लेकर‌ आई है।तकनीकी प्रयोग, वैज्ञानिक आविष्कार, नेट क्रांति से हमारा जीवन, जीवन शैली, दिनचर्या और आसपास का परिवेश बदलेगा तो स्वाभाविक रूप से बालमन और बाल साहित्य पर भी इसका गहरा और प्रभावी असर पड़ेगा। इंटरनेट में आई क्रांति ने न सिर्फ़ युवाओं बल्कि बच्चों के पठन- पाठन के परंपरागत तरीकों को बदला है। ख़ासकर कोरोना वैश्विक महामारी के कारण लॉकडाउन में कामकाज की शैली, शिक्षा व्यवस्था में बदलाव आया। अब घर बैठे-बैठे ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हुई।एक तरह से स्कूल घर पर आ गया। ऐसे में बच्चे परंपरागत पढ़ाई,अनुशासन,किताबों से एक तरह से कट गए।अब बच्चे डिजिटल गैजेट्स पर समय दे रहे हैं। डॉ० कृष्ण कुमार कहते हैं:- ”तकनीकी ने बच्चों के जीवन में बाल साहित्य की गुंजाइश और स्पेस को कम कर दिया है।”2 ऐसे में वर्तमान दौर में बाल साहित्य की प्रासंगिकता और चुनौती बढ़ गई है। वर्तमान दौर में बच्चे कुछ ही वर्ष के होते ही डिजिटल डिवाइसों से बखूबी परिचित ही नहीं हो रहे हैं बल्कि पूरी तरह से उसकी गिरफ्त में हैं। पूरे दिन मोबाइल पर कॉमिक्स, वीडियो गेम्स, कार्टून्स देखना बच्चों की प्राथमिकता में शामिल है। बेशक वर्तमान में तकनीकी ने बच्चों के मन में अपनी मजबूत और प्रभावी जगह बना ली है। ‘इंफोनमेंट’ के इस दौर में बच्चे किसी भी जानकारी के लिए शिक्षकों से ज्यादा गूगल, याहू जैसी सर्च साइट्स पर निर्भर हैं। इतना ही नहीं बच्चे तकनीकी जानकारी में माता-पिता से भी आगे हैं। यहाँ तक कि माता-पिता ही बच्चों से तकनीकी के बारे में पूछ और सीख रहे हैं।बच्चों के पास सूचना की अधिकता तो है लेकिन क्या देखना है क्या नहीं इस पर कोई रोक या कानून नही है।ऐसे में बच्चे पोर्न वीडियो जैसी अन्य चीजें भी देख रहे हैं।क्षमा शर्मा कहती हैं:- ”कंप्यूटर और नेट ने हम सब और खासतौर से बच्चों के लिए ज्ञान के दरवाजे खोले हैं, मगर यह ज्ञान किस उम्र में कितना पाना चाहिए, इसके बारे में नहीं सोचा है। हर उम्र के लिए ज्ञान की मात्रा होती है, लेकिन आज बच्चे सूचना विस्फोट के नीचे दबे हैं।”3ऐसे में बालसाहित्य, अभिभावकों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। बच्चे में पोर्न कंटेंट देखना सामान्य होता जा रहा है। यही यौन अपराध को जन्म देते हैं। रील्स और ‘डूम स्क्रोलिंग’ की वजह से फोकस करने की क्षमता कम होती जा रही है। ऐसे में ज्यादा देर तक बच्चा केंद्रित नहीं हो पा रहा है। तकनीकी ने बच्चों को समय से पहले बड़ा बना दिया है जो एक त्रासदी है।

पहले संयुक्त परवारों में बच्चे दादा-दादी,नाना-नानी की कहानियाँ सुना करते थे। इस तरह स्कूल जाने की औपचारिक शुरुआत के पहले ही इन कहानियों के माध्यम से बच्चे कई दुनिवायी अवधारणाओं, प्रकृति और पर्यावरण से परिचित हो जाते थे। इस समय बच्चे स्वाभाविक रूप से सब कुछ जान लेना चाहते हैं, उनमें जिज्ञासा प्रबल होती है।हालाँकि तीव्रता से विकसित हुए तकनीकी साधनों, बाजारवाद, एकाकी समाज साथ ही आज के न्यूक्लियर परिवारों में बच्चा जहाँ एक तरफ़ दादा-दादी, नाना-नानी और परिवार के अन्य सदस्यों से तो दूर हो ही गया है, नौकरीपेशा माता-पिता के पास भी बच्चे के लिए समय का अभाव है। न्यूक्लियर परिवार में चूँकि बच्चे की देखभाल करने के लिए, उनके सवालों का जवाब देने के लिए साथ में परिवार तो होता नहीं है ऐसे में माता-पिता भी सोचते हैं कि काम से थके-हारे आने के बाद बच्चों के सवालों से बचने का यही तरीका है कि उसे मोबाइल, लैपटॉप या अन्य डिजिटल गैजेट्स पकड़ा दिया जाए जिससे बच्चा उसी में व्यस्त रहे। इससे बच्चे के मस्तिष्क और आँख के साथ शरीर के विकास पर बुरा असर पड़ रहा है। बीबीसी हिंदी न्यूज के अनुसार “अमेरिकन एकेडमी ऑफ ऑपथैल्मोलॉजी’ की रिसर्च के मुताबिक ‘डिजिटल गैजेट्स पर ज्यादा स्क्रीन टाइम बिताने से मयोपिया( दूर की वस्तु स्पष्ट न दिखना) बच्चों में आम होता जा रहा है।’’4 इतना ही नहीं डिजिटल गैजेट्स पर अधिक स्क्रीन टाइम बिताने से आईस्ट्रेन, सिरदर्द, डिजिटल डिमेंशिया, ओस्टियोपोरोसिस, ट्रिगर फिंगर जैसी गंभीर बीमारियाँ और सर्वाइकल पेन और तनाव जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही है।

इस तकनीकी के युग में आज माँ के गोद में बच्चा है मगर साथ ही हाथ में मोबाइल भी है। बच्चा भी पहले जहाँ माँ, दादी की लोरी सुनकर सोता था आज वह मोबाइल लेकर सोता है। इसतरह बालमन विकास की अंधी दौड़ में अपना बचपन खोता जा रहा है। बच्चा माता-पिता के साथ कम समय बिता पाने के कारण भावनात्मक रूप से सबल नहीं हो पाता। प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास कर्मभूमि में अमरकांत कहता है:- ”जिंदगी की वह उम्र जब इंसान को मुहब्बत की सबसे ज्यादा जरूरत होती है,बचपन है। उस वक्त पौधे को तरी मिल जाए तो ज़िंदगी भर के लिए उसकी जड़ें मजबूत हो जाती हैं। उस वक्त खुराक न पाकर उसकी जिंदगी खुश्क हो जाती है। मेरी माँ का उसी ज़माने में देहान्त हुआ और तब से मेरी रूह को खुराक नहीं मिली।”5 आज के बच्चे से तो उसकी जड़ ही काट दी जा रही है।बचपन वह परिवार के साथ बिताने के बजाए मोबाइल के साथ बिता रहा है। वर्तमान समय में बाजारवाद, कारपोरेट तकनीक, डिजिटल आभासी दुनिया ने एक बच्चे का जीवन मनी, मोबाइल, मॉल्स तक सीमित कर दिया है। न्यूक्लियर फैमिली के बढ़ते चलन से बच्चे आज रिश्तों से, आसपास के परिवेश, प्रकृति से भी कटते जा रहे हैं। उनके पास समय ही नहीं है कि प्रकृति के साथ समय बिताएँ। बचपन से ही बच्चों को घर, संस्थानों द्वारा भी जीवन का मूल उद्देश्य के नाम पर सिर्फ़ सफलता की घुट्टी पिलाई जाती है। ऐसे में बच्चे को बस्ते के बोझ से और ट्यूशन के कल्चर से फुरसत ही नहीं मिलती है। इसके साथ ही बच्चा पहले जहाँ आउटडोर गेम्स खेलता था। आज बच्चे के जीवन में जैसे आउटडोर गेम्स की जगह ही नहीं है। आज का बच्चा पुराने खेलों कंचा खेल, चोर-सिपाही, तोता उड़, जीरो काट, आँख पर पट्टी बाँधना जैसे खेलों के नाम से ही शायद परिचित हो। पवन चौहान कहते भी हैं:- ”इन खेलों का अपना-अपना महत्व है। ये खेल जहाँ मनोरंजन का खजाना हैं,वही गणित व विज्ञान आदि के साथ कई सकारात्मक सामाजिक पक्षों से भी बच्चों को रू-ब-रू करवाते हैं।मेरा मानना है कि कुछ समय के लिए अभिवावक अपने बच्चों को इन खेलों में अवश्य शामिल करवाएँ ताकि बच्चा सही मायने में एक अंदरूनी खुशी के साथ, अपने बचपन की थाह पा सके।”6 आज का बच्चा वीडियो गेम्स खेलता है। कई बार बच्चों में वीडियो गेम्स की एडिक्शन इस कदर बढ़ जाती है कि बच्चे मोबाइल न मिलने पर या माता-पिता द्वारा रोकने पर आत्महत्या भी कर लेते हैं। नवभारत टाइम्स की 16 नवंबर 2023 की एक खबर के अनुसार पिता द्वारा वीडियो गेम्स खेलने से मना करने पर मुंबई का एक 16 साल का बच्चा आत्महत्या कर लेता है। इसी तरह के अन्य समाचार आए दिन मिलते रहते हैं। बाल लेखक प्रकाश मनु कहते हैं:- ”बच्चों के खेल तेजी से गायब होते जा रहे हैं और मनोरंजन के नाम पर जो परोसा जा रहा है उससे अनेक ग्रंथियाँ जन्म ले रही हैं।”7 कहने के लिए तो आज के बच्चे कंप्यूटर, मोबाइल और अन्य सुख सुविधाओं से पूरी तरह लैस है। ऊपर से देखने पर ऐसा लगता है बच्चा मोबाइल पर गेम्स खेलने में मगन है पर सच यह है कि आज का बच्चा अंदर से बहुत अकेला है।

तकनीकी, भूमण्डलीकरण, बाजारवाद के इस 21वीं सदी के दौर में वैज्ञानिक और यांत्रिक आविष्कारों, चिंतन-मनन, रहन-सहन, काम-काज की बदलती शैली से बाल-मन भी प्रभावित हुआ है। 21 वीं सदी बाल साहित्य में एक विश्वव्यापी क्रांति लेकर आई। बदलते युग, समाज और जीवन के अनुरूप बाल साहित्य के प्रतिमान भी बदले। प्राचीन बाल साहित्य में भूतप्रेत, राजा-रानी की कहानियों, परीकथाओं के माध्यम से पौराणिक, धार्मिक और नैतिकता की शिक्षा के साथ मनोरंजन करना उद्देश्य होता था। प्राचीन बाल साहित्य में तार्किकता का अभाव था। वहीं 21 वीं शती की कहानियाँ बच्चों की रुचि को ध्यान में रखकर जगत की समस्याओं को केंद्र में रखकर मनोवैज्ञानिक ढंग से लिखी जाने लगी। बाल साहित्यकार अखिलेश के अनुसार:-”आज का बच्चा इतना जागरूक,तार्किक और व्यवहारिक हो गया है जिसे आधारहीन चमत्कारिक गाथाओं, काल्पनिक घटनाओं तथा कोरे आदर्श की बातों से बहला सकना संभव नहीं है। आज का बच्चा कहानी के साथ हुकारी भरने वाला नहीं है बल्कि पलटकर प्रश्न करने वाल है।”8 अतः वर्तमान समय की समस्याओं से बच्चों को रू-ब-रू कराने के बजाए उन्हें जादूभरी घाटियों में घुमाते रहना अथवा परलोक की सैर कराना किसी समस्या का समाधान नहीं है। बाल साहित्यकार डॉ० हरिकृष्ण देवसरे, दिविक रमेश, डॉ० शकुंतला कालरा बाल साहित्य में अंधविश्वास, चमत्कार जैसी चीजों के खिलाफ हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि बालमन पर इसका गंभीर दुष्प्रभाव हो सकता है। अतः बाल साहित्य लेखन में प्रगतिशील और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अनिवार्य है।

टेक्नोलॉजी, गूगल, इंस्टाग्राम, फेसबुक, यूट्यूब के बदलते परिवेश ने बच्चों के टेस्ट को भी बदल दिया हैं। ऐसे में लेखकों के सामने बाल साहित्य लिखने और टैक सैवी बच्चों का ध्यान खींचने की चुनौती है। बाल साहियकार दिविक रमेश एक इंटरव्यू में कहते हैं:- “बड़ों के लेखन की अपेक्षा बच्चों के लिए लिखना प्रतिबद्धता, जिम्मेदारी, निष्छलता, मासूमियत जैसी खूबियों की मांग करता है। इसे लेखक, प्रकाशक अथवा किसी संस्था को बाजारवाद की तरह प्राथमिक मुनाफे का काम समझ कर नहीं करना चाहिए। बाल साहित्यकार के सामने बाजारवाद के दबाव वाले आज के विपरीत माहौल में न केवल बच्चे के बचपन को बचाए रखने की चुनौती है बल्कि अपने भीतर के शिशु को भी बचाए रखने की चुनौती है। कोई भी अपने भीतर के शिशु को तभी बचा सकता है जब वह निरंतर बच्चों के बीच रहकर नए से नए अनुभव को खुले मन से आत्मसात करे। अकेले होते बच्चे को उसके अकेलेपन से बचाना होगा लेकिन यह बच्चों के बीच रहना ‘बड़ा’ बनकर नहीं।”9

अतः बाल साहित्यकारों को ‘बच्चों के लिए साहित्य’ लिखने से ज्यादा ध्यान ‘बच्चों का साहित्य’ लिखने पर देने की आवश्यकता है। बाल साहित्य में भाषा एक महत्वपूर्ण कारक है।इसलिए बाल साहित्य की भाषा सरल, सहज, रोचकता से युक्त ऐसी भाषा होनी चाहिए जिसे बच्चे आसानी से समझ सकें। बाल साहित्य में बच्चों की भाषा, रोचकता और लयात्मकता अपनाने की जरूरत है क्योंकि भाषा, भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम होती है।साहित्य सृजन की प्रभावात्मकता पर भाषा का सीधा प्रभाव पड़ता है। काव्य, शिशुगीतों और बाल कविताओं में तो लय, तुक के साथ रोचक भाषा का विशेष महत्व होता है। बाल कवियों के लिए बाल मनोविज्ञान के अनुरूप काव्य भाषा में सृजन करना, वास्तव में कठिन काम है। सामान्य साहित्य की रचना अपेक्षाकृत आसान है,किन्तु बाल साहित्य सृजन सभी नहीं कर सकते हैं। बच्चों का साहित्य चूँकि बड़े ही लिखते हैं ऐसे में बालमन के मनोविज्ञान उनकी कल्पना,रुचि का ध्यान रखना अति आवश्यक हो जाता है। बालकों की दुनिया बड़ों से बिलकुल अलग होती है इसलिए बाल मनोविज्ञान का अध्ययन किए बिना कोई भी साहित्यकार बाल अनुरूप एवं सार्थक बाल साहित्य का सृजन नहीं कर सकता है। हरिकृष्ण देवसरे कहते हैं:- ”बच्चों के मनोभावों, कल्पनाओं को अपनाकर साहित्य लिखा जाना चाहिए। अन्यथा जिस प्रकार एक पूँजीपति कलाकार की,मजदूरों के दुःख दर्द को व्यक्त करने वाली रचना में अनुभूति की वह तीव्रता और अभिव्यक्ति की वह रोचकता नहीं आ सकती जो एक मजदूर के साथ उठने बैठने वाले कलाकार की रचना में, उसी प्रकार बड़ों के बाल साहित्य में भी वह सरसता और हृदयग्राहिता नहीं आ सकती।”10

वर्तमान में वैज्ञानिक अभिरुचि के विकास के लिए बाल साहित्य में बाल विज्ञान साहित्य अर्थात् वैज्ञानिक पक्ष को शामिल करने की आवश्यकता है। विवेक रंजन कहते हैं:- ”अब अ से अनार पढ़ने के साथ अ से अमीबा पढ़ना आवश्यक हो चला है।”11 तकनीकी के इस युग में हमारा मुख्य ध्येय बच्चों को विज्ञान की अवधारणाओं व कार्यप्रणाली से सरल भाषा में परिचित कराना होना चाहिए। आज का युग विज्ञान के धरातल पर प्रमाणों और तर्कों के साथ चलता है। स्थापित जादू-टोना और अन्य रूढ़िबद्धध् विचारधारा को तब तक नहीं बदला जा सकता जब तक उसे तर्क की कसौटी पर कसा न जाएं। डॉ० शकुंतला कालरा के शब्दों में:- ”भूत-प्रेत, राक्षसों की कहानियाँ बच्चों में भय, अंधविश्वास को जन्म देती हैं और परीकथाएँ वायवी लोक कथाओं पर आधारित होने के कर उन्हें जीवन के यथार्थ से दूर ले जाती है।”12

ऐसा माना जाता है कि बच्चे पढ़ने से ज्यादा सुनने और देखने में दिलचस्पी दिखाते हैं। चित्र मनुष्य की जिंदगी में पहले आए और अक्षर बाद में। ऐसे में बाल साहित्य में रोचकता लाने के लिए कॉमिक्स या चित्रकथा अधिक से अधिक होना चाहिए।चित्रकथाएँ जितनी बार पढ़ी जाती है एक नया अर्थ देती है।चित्रकथा की महत्ता पर बल देते हुए डॉ० नागेश पांडेय कहते हैं:- ”बाल साहित्य में एक कुशल लेखक,समर्थ प्रकाशक वरन एक सजग चित्रकार की आवश्यकता सिद्ध है। तीनों के पारस्परिक समन्वय के बगैर प्रभावी बाल साहित्य का निर्माण असंभव है।”13 बाल साहित्यकार मनोहर चमोली भी कहते हैं बच्चा जब चित्र देखता है तो उसके साथ कई दिशाओं की यात्रा एक साथ करता है। चित्रों का प्रभाव स्थायी होता है।चमोली लिखते हैं:-”हर कथा चित्रकथा नहीं बन सकती। हाँ, हर चित्रकथा को कथा के तौर पर ढाला जा सकता है।”14

आज‌ के समय में बढ़ते बाल अपराध, ग्लोबल वार्मिग, बदलते पर्यावरण और समाज में हो रही अन्य घटनाओं को बाल साहित्य, बाल सिनेमा, कार्टून्स, वीडियो गेम्स, कॉमिक्स में बच्चों की ही सरल, सहज, रोचक भाषा में शामिल करने की जरूरत है। प्रकाश मनु ने अपने एक लेख में ‘लता पंत’ की बाल कविता ‘ग्लोबल वार्मिग’ उद्धृत की है:-

अरे, अरे यह क्या हो रहा
बढ़ती जाती है नित गरमी
गरमी से बेहाल हुए सब
इसके रुख में तनिक न नरमी
अम्मा,
देखो, खबर छपी है
पिघल रही बर्फीली चोटी
क्या चक्कर है तुम्हीं बताओ
क्यों इतनी है होती गरमी

वर्तमान में बाल साहित्य में इसी तरह पर्यावरण की समस्याओं, असामनता, बढ़ते न्यूक्लियर फैमिली की वास्तविकता को दिखाने के साथ संज्ञानात्मक विकास की जरूरत है। साहित्य की मुख्य धारा में और आलोचना के क्षेत्र में भी बाल साहित्य को उस तरह से स्थान नहीं दिया गया। अतः आलोचना और मुख्य धारा में लाए जाने, अधिक मात्रा में बाल पत्रिका तक पाठकों की पहुँच, सरकार द्वारा नीतिगत ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। वर्तमान में स्त्री विमर्श और वृद्ध विमर्श के मूल कारक बाल विमर्श को भी अन्य विमर्शों की तरह लाए मुख्यधारा में लाने की जरूरत है। बाल सिनेमा में ‘पाठशाला’ फिल्म जो स्कूलों के व्यवसायिक नजरिए को व्यक्त करती है। ‘तारें जमीं पर’, ’ब्लू अंब्रेला’, ’भूतनाथ’ जैसी अन्य बाल केंद्रित फिल्मों की आवश्यकता है जिससे बालमन पर सकारात्मक असर पड़े। वर्तमान में कृष्ण शलभ, देवेंद्र कुमार, मनोहर चमोली, प्रकाश मनु, विमला भंडारी जैसे बाल साहित्यकार इसका बीड़ा उठाएं हुए हैं। देवेंद्र कुमार की कहानी ‘चिड़िया और चिमनी’ पर्यावरण की समस्या पर आधारित महत्वपूर्ण कहानी है।

निष्कर्ष : चूंकि तकनीकी का उपयोग दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है साथ ही बाल साहित्य पर इसका प्रभाव भी बढ़ता जा रहा है। तकनीकी हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है। ऐसे में बाल साहित्य को तकनीकी से अलग सिर्फ़ किताबों में नहीं देखा जा सकता है। तकनीकी का उचित प्रयोग बाल साहित्य को नई दिशा और संभावना प्रदान कर सकता है। चूँकि बच्चे डिजिटल गैजेट्स पर अधिक समय बिता रहे हैं ऐसे में ई-बुक्स, चित्रकथा, ऐप्स, क्विज़ गेम्स, वेबसाइट्स पर बाल साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है बाल मनोविज्ञान, भाषा में रोचकता और ‘प्लीजेंट फैंटेसी’ को बाल साहित्य में शामिल किया जाए। इसके साथ कार्टून्स और कॉमिक्स के जरिए प्रकृति, जंगल, पर्यावरण की समस्याओं को दिखाया जा सकता है।इन तकनीकों के प्रयोग से बाल साहित्य से बच्चों को आसानी से जोड़ा जा सकता है।

संदर्भ :
  1. डॉ० नागेश पांडेय ‘संजय’, अनूठे बाल साहित्य के कुशल वाचक अमृतलाल नागर(आलेख), पुस्तक संस्कृति, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, वर्ष-3; अंक-3, जुलाई-सितंबर 2018, पृष्ठ:-8
  2. डॉ० कृष्णकुमार मिश्र, शिक्षा-बाल साहित्य और विज्ञान(आलेख), इलेक्ट्रोनिकी आपके लिए, नवंबर-2018
  3. क्षमा शर्मा, आज के परिदृश्य में बच्चे और लेखक(आलेख), पुस्तक संस्कृति, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, वर्ष-3; अंक-3, जुलाई-सितंबर 2018, पृष्ठ:-5
  4. https://youtu.be/e6-_t4cG8yw?si=b81RliXTzBULlvDt
  5. प्रेमचंद, कर्मभूमि, डायमंड बुक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ:-90
  6. पवन चौहान, हिमाचली बच्चों के खेल, पुस्तक संस्कृति, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, वर्ष-3, अंक-3, जुलाई सितंबर-2018, पृष्ठ:-24
  7. प्रकाश मनु, आज का बाल साहित्य-दशा और दिशा, मधुमती, राजस्थान साहित्य अकादमी, नवंबर-2013 https://hhttps://web.archive.org/web/20140101061618/http://rsaudr.org/show_adition.php?id=November%
  8. अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’,हिंदी बाल साहित्य:आवश्यकता बदलाव की,साक्षात्कार,साहित्य अकादमी(मध्य प्रदेश), नवंबर-दिसंबर-2020,पृष्ठ-276
  9. https://www.setumag.com/2019/12 ,प्रदीप त्रिपाठी और कविता शर्मा द्वारा दिविक रमेश का साक्षात्कार
  10. डॉ० हरिकृष्ण देवसरे, हिंदी बाल साहित्य एक अध्ययन, आत्माराम एण्ड सन्स-दिल्ली, प्रथम संस्करण 1969, पृष्ठ:-32
  11. विवेक रंजन श्रीवास्तव, वैज्ञानिक अभिरुचि के विकास हेतु बाल विज्ञान, साक्षात्कार, साहित्य अकादमी(मध्य प्रदेश), नवंबर-दिसंबर-2020, पृष्ठ:-303
  12. डॉ० शकुंतला कालरा, भूत-प्रेत और परीकथाआओं की प्रासंगिकता, पुस्तक संस्कृति, राष्ट्रीय पुस्तक‌ न्यास, अंक-3, जुलाई-सितंबर-2018, पृष्ठ:-36
  13. डॉ० नागेश पांडेय, बाल साहित्य का शंखनाद, अनंत प्रकाशन-लखनऊ, पृष्ठ:-91
  14. मनोहर चमोली ‘मनु’,बाल साहित्य आधे-अधूरे चित्र,पुस्तक संस्कृति, राष्ट्रीय पुस्तकन्यास, अंक-3, जुलाई-सितंबर2018, पृष्ठ:-19
  15. प्रकाश मनु, आज का बाल साहित्य-दशा और दिशा, मधुमती, राजस्थान साहित्य अकादमी, नवंबर-2013
कोमल यादव
शोधार्थी, हिंदी एवं भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

1 टिप्पणियाँ

  1. कोमल जी आपने वर्तमान संदर्भ में बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान पर बहुत ही अच्छा लेख लिखा है उम्मीद है कि आप आगे भी ऐसे ही महत्वपूर्ण मुद्दों पर लिखती रहेंगी।
    धन्यवाद

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