- रत्नेश कुमार यादव
शोध सार : बाल साहित्य को सामान्यतः बच्चों के लिए लिखा जाने वाला साहित्य माना जा सकता है। बचपन को केंद्र में रखकर लिखे जाने वाले इस तरह के साहित्य में भी अनेक विधाएँ होती हैं। जिसमें कहानियाँ, कविताएँ, नाटक इत्यादि मुख्य रूप से शामिल हैं। बच्चे देश का भविष्य माने जाते हैं, इसलिए समाज का बाल साहित्य लेखन पर विशेष ध्यान होना चाहिए। बाल साहित्य का लेखन एक जिम्मेदारी भरा कार्य है यह जिम्मेदारी सिर्फ़ वर्तमान की नहीं बल्कि भविष्य के प्रति भी होती है। अतः वर्तमान समय में बाल साहित्य को सशक्त बनाने का प्रयास किया जाना आवश्यक है। ताकि न सिर्फ बच्चों को इसके प्रति आकर्षित किया जा सके अपितु अधिक से अधिक साहित्यकार इस विषय के सर्वांगीण विकास के प्रति गंभीर रूप से कार्य करने में स्वयं को गौरवान्वित समझें। इस तरह के जिम्मेदारीपूर्ण कार्य को समझने की दिशा में बाल साहित्य आलोचना के टूल्स विकसित करने होंगे। इस शोधपत्र में बाल साहित्य की संदर्भगत दिशाओं को खोजने के क्रम में बाल सहित्य आलोचना की पहचान करने की कोशिश है।
बीज शब्द : बाल साहित्य, बाल साहित्य आलोचना, बचपन, बाल मन, राष्ट्रीय नीति, वैज्ञानिकता, यथार्थता, पौराणिकता।
मूल आलेख : बाल साहित्य का समाज के बच्चों के बालमन को विकसित करने में अमूल्य योगदान है। बाल साहित्य बालमन को आकार देता है उसके जरिए बच्चे इस दुनिया की तमाम चीजों को समझ पाते हैं, एक दूसरे से साझा करने का कौशल निर्मित कर पाते हैं। साधारण शब्दों में बाल साहित्य से अभिप्राय ऐसे साहित्य से है जो समाज के समक्ष बाल मन की अभिव्यक्ति कराता है और बचपन की सहजता को साथ लिए होता है। वह बच्चों के लिए रुचिकर होता है, साथ ही बच्चों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत भी होता है। न केवल मनुष्य अपितु राष्ट्र निर्माण हेतु भी बच्चों का बहुमुखी विकास होना आवश्यक है। जिसमें बाल साहित्यकारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वस्तुतः एक जागरूक लेखक, शिक्षक, चिंतक, महापुरुष इत्यादि बच्चों के लिए ऐसा परिवेश चाहते हैं जो उसका सर्वांगीण विकास करने में सहायक हो। पंडित जवाहरलाल नेहरू जी भी कहते थे “शुरू के वर्षों में बच्चों में जो आदतें पड़ जाती हैं और बच्चे जिस तरह सोचने लगते हैं, उसका सारे जीवन पर असर पड़ता है। इसलिए मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि बच्चों पर अधिक ध्यान दिया जाए और इसके लिए राष्ट्रीय नीति तय की जाए।”[1]
इसी के साथ कवि व्लादिमीर मयाकोव्स्की बच्चों के लिए एक ऐसी कविता लिखते हैं जो बच्चों में एक नयी प्रेरणा भरती है। इस कविता का अंश इस प्रकार है -
“ सुन ले,
हर बालक, हर बेटा,
बात सदा को
रख ले मन में ।।।।।।
जो गन्दा-मंदा रहता है,
छुटपन में अपने बचपन में
वह ऐसा ही गन्दा रहता
होकर बड़ा, भरे यौवन में।
यह सुन,
नन्हा बहुत हुआ खुश,
किया फैसला उसने मन में-
“काम करूँगा केवल अच्छा,
नहीं बनूँगा
गन्दा बच्चा।”[2]
यह कविता वर्णित करती है कि किस प्रकार कविताओं के माध्यम से बच्चों में सफाई के महत्त्व को समझाया जा सकता है। साथ ही बच्चे यह भी समझें की शरीर की बाह्य सफाई के साथ ही हमें अपने अंतर्मन को भी शुद्ध रखना है। इसके अतिरिक्त बचपन में पड़ी सफाई की आदत एक आदर्श चरित्र बनाने का पहला चरण माना जाता है। सभी को अपना बचपन बहुत प्रिय होता है क्योंकि यह वही समय होता है, जिसमें न हमें कोई रोक-टोक होती है और न ही हम पर कोई दायित्व होता है। बच्चे अपने मन के अनुसार खाते-पीते तथा खेल-कूद करते हैं। परन्तु वर्तमान समय में माता-पिता बच्चों पर छुटपन से ही अपनी अपूर्ण इच्छाओं को थोपने लगते हैं। उपेन्द्रनाथ‘अश्क’ के नाटक ‘अंजो दीदी’ में मुख्य स्त्री पात्र ‘अंजली’ के माध्यम से इस समस्या पर गहनता से प्रकाश डाला गया है– “नीरज : मैं क्रिकेट का कप्तान बनना चाहता हूँ। अंजली : पागल! सिर पैर तुड़वायेगा क्रिकेट का कप्तान बन कर। तुझे तो डिप्टी कमिश्नर बनना है।”[3] जिससे बच्चा अपनी पसंद को दबा देता है, फलस्वरूप वह न तो क्रिकेट कप्तान बन पाता है और न ही डिप्टी कमिश्नर। जहाँ नीरज अपनी क्रिकेट कप्तान बनने की अपूर्ण इच्छा को अपने पुत्र नीलम पर थोपने की कोशिश करता है वहीं ओमी उसे सिविल सेवक बनाना चाहती है। इससे अलग नीलम की अपनी इच्छा कवि बनने की है –
“नीलम : मैं पढ़ रहा था दादा जी।
श्रीपत : पढ़ कर क्या बनोगे ?
नीलम : ममी कहती हैं कमिश्नर, पापा कहते हैं क्रिकेट का कप्तान।
श्रीपत : तुम खुद क्या बनना चाहते हो ?
नीलम : मैं तो कवि बनना चाहता हूँ।”[4]
यह कोई एक उदाहरण नहीं है बल्कि इस तरह के बहुत सारे प्रसंग हमारे आस-पास की दुनिया में दिख जाते हैं।जिसमें बच्चों की अस्मिता की पहचान न करके अपनी इच्छाओं को थोपा जाता है। समाज में यह चीजें इतनी सूक्ष्मता से की जाती हैं, जिसमें बच्चे के पढाई के माध्यम तथा विषय चयन में भी उसकी रुचि-अरुचि को दरकिनार कर दिया जाता है। अभिभावक अपनी रुचि को यह कह कर वरीयता देते हैं कि बच्चे को अभी इतनी समझ नहीं है, हम इसका बुरा नहीं चाहते या हमें बहुत अनुभव है इत्यादि। इससे न सिर्फ बच्चों का मनोबल कमज़ोर हो जाता है अपितु उसकी स्वयं निर्णय लेने की क्षमता भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है। परिणामस्वरूप बच्चा स्व विवेक का उचित उपयोग करना भी नहीं सीख पाता है तथा अपने जीवन के निर्णय हेतु अपने माता-पिता पर ही निर्भर रह जाता है। वह उसके अभिभावक द्वारा बताये गये कार्य की अपेक्षा अन्य कार्यों को हीन समझने लगता है। मयाकोव्स्की जी की ‘क्या बनूँ’ कविता समाज के हर कार्य को प्रतिष्ठित मानने का सन्देश देती हैं –
“बेशक अच्छा बनना डॉक्टर,
पर मजदूर और भी बेहतर,
श्रमिक ख़ुशी से मैं बन जाऊं,
सीख अगर यह धंधा पाऊं।।।।।।।।।
मिल कर वह सब कर डालें,
एक न पाए जिस पर पार।
हम कैंची से लोहा काटें,
काम सभी आपस में बांटे।।।।।।।।।।
काम कारखाने का अच्छा
पर ट्राम तो उससे बेहतर,
काम अगर सिखला दे कोई
बनूँ ख़ुशी से मैं कंडक्टर।
कंडक्टर तो मौज उड़ाएँ
बिना टिकट के वे तो दिन भर जहाँ-तहाँ पर आएँ, जाएँ।
काम सभी अच्छे, वह चुन लो,
जो है तुम्हें पसंद।”[5]
इस कविता में सभी कार्यों को समान बताते हुए कवि अंतिम पंक्तियों में कहते हैं कि सभी काम अच्छे हैं। हम अपनी रुचि के अनुसार किसी भी कार्य को अपना सकते हैं। रुचि को ध्यान में रखकर किया गया कार्य न केवल सुगमता से पूर्ण होता है अपितु उस कार्य को करने में आनंद की प्राप्ति भी होती है। समाज के विकास में हर कार्य, हर व्यवसाय का समान योगदान है। इसलिए प्रत्येक कार्य को समान समझा जाना आवश्यक है। जीवन के समावेशी होने के दर्शन का विकास बचपन से शुरू हो जाता है और बाल साहित्य यह काम बच्चों के भीतर बड़ी ही संजीदगी के साथ कर सकता है। बच्चों को समझकर उनके मनोभावों और कल्पनाओं को खिलने का आकाश देना हर समाज का दायित्व है। दुनिया के साथ बचपन के बनते रिश्ते जीवनभर उसके साथ रहते हैं इसलिए इस समय के अनुभव को समृद्ध करने का जिम्मा पूरे समाज का होना चाहिए।
बच्चे साधारणतः प्रकृति से पूरी तरह से जुड़े होते हैं क्योंकि उनका दिनभर का खेलकूद उसी के अंचल में होती है। झूला झूलना, छुपम-छुपाई इत्यादि में वृक्षों का महत्त्वपूर्ण सहयोग होता है। इसी तरह के परिवेश में उनकी सहजता होती है। मनुष्य से आगे बढ़कर प्रकृति के साथ उनकी वार्तालाप भी होती है। वे उन चीजों से भी संवाद करते हैं जो बोलती नहीं हैं। मौन की भाषा को बच्चे अपनी कल्पनाओं के जरिए प्रकट करते हैं। इससे सम्बंधित कक्षा-7 की हिंदी पाठ्यपुस्तक वसंत भाग-2 में लगी कहानी ‘अपूर्व अनुभव’ की कुछ पंक्तियों का स्मरण हो आया जो इस प्रकार हैं – “तोमोए में हरेक बच्चा बाग़ के एक-एक पेड़ को अपने खुद के चढ़ने का पेड़ मानता था। बच्चे अपने -अपने पेड़ को निजी संपत्ति मानते थे। किसी दूसरे के पेड़ पर चढ़ना हो तो उससे पहले पूरी शिष्टता से, ‘माफ कीजिये, क्या मै अंदर आ जाऊँ ?’ पूछना पड़ता था।”[6]
अतः उनकी संवेदनाएँ भी वृक्षों से मिले बिना नहीं रह पातीं। वे वृक्षों में भी अपने मित्र ढूँढ़ लेते हैं। वे उन्हें गले लगाते हैं। उनसे बातें करते हैं। उनकी शाखाओं पर चढ़ कर अनेक प्रकार के खेल खेलते हैं। ग्रीष्म ऋतु की उमस हो या शरद ऋतु की मीठी तपन वृक्ष उनके हर क्षण के साथी होते हैं। ‘अगर पेड़ भी चलते होते’ इसी विषय को चिह्नित करती है –
“अगर पेड़ भी चलते होते
कितने मजे हमारे होते
बाँध तने में उसके रस्सी
चाहे जहाँ कहीं ले जाते
जहाँ कहीं भी धूप सताती
उसके नीचे हम सुस्ताते
जहाँ कहीं वर्षा हो जाती
उसके नीचे हम छिप जाते
भूख सताती अगर अचानक
तोड़ मधुर फल उसके खाते
आती कीचड़-बाढ़ कहीं तो
झट उसके ऊपर चढ़ जाते।
”[7]
बाल मन जिज्ञासु होता है। वह हर बात यूं ही आत्मसात नहीं करता अपितु वह हर बात के साथ एक प्रश्न लिए रहता है। प्रश्नाकुलता बालपन की जिज्ञासाओं के मूल में होती है। जिसका उत्तर कई बार उनके अभिभावकों के पास भी नहीं होता। बच्चों की स्मरण शक्ति वयस्क की अपेक्षा अधिक तीव्र होती है। अतः वह तब तक अपने प्रश्नों को पूछते रहते हैं जब तक उन्हें सटीक उत्तर नहीं मिलता। आज के समय में बच्चे बहुत सजग हैं उन्हें पुराने समय के बच्चों की तरह ‘डाँट’ कर या ‘टाल-मटोल’ करके चुप नहीं कराया जा सकता। वह जानते हैं कि बच्चे माँ के पेट से आते हैं, उसे न तो ‘परी’ दे जाती है, न बाजार से ख़रीदा जाता है और न ही उन्हें चिड़िया के घोंसले से लाया जाता है। वह उन प्रश्नों के उत्तर खोजने का भरसक प्रयत्न करता है जो उनके ह्रदय की अतल गहराइयों में रह जाते हैं। बाल साहित्य बाल मन के उन प्रश्नों को लेकर सुलझाने का प्रयास करता है जिनका उत्तर खोजने में बच्चे असमर्थ होते हैं। साहित्य में इसका स्वर भी खूब दिखायी पड़ता है। ‘जब बाँधूँगा उनको राखी’ कविता एक ऐसे ही विषय पर आधारित है –
“माँ मुझको अच्छा लगता जब
मुझे बाँधती दीदी राखी
तुम कहती जो रक्षा करता
उसे बाँधते हैं सब राखी।
तो माँ दीदी भी तो मेरी
हरदम मेरी रक्षा करती
जहाँ में चाहूँ हाथ पकड़ कर
वहीं मुझे ले जाया करती।
मैं भी माँ दीदी को अब तो
बाँधूँगा प्यारी सी राखी
कितना प्यार करेगी दीदी
जब बाँधूँगा उनको राखी”[8]!
हमारे समाज में बालपन से ही बच्चे-बच्चियों में एक विचित्र भेद होता है। जेंडर का यह भेदभाव बच्चे के समूचे जीवन की क्रियाओं को प्रभावित करने वाला होता है। इस विभेद का असर समाज पर भी दीखता है। यह भेद खेल-खिलोनों से शुरू होता हुआ आगे बढ़ता ही जाता है। बचपन में गुड्डे-गुड्डियों का खेल लड़कियों का खेल माना जाता है, गिल्ली-डंडा लड़कों का। यदि कोई लड़का रसोई के खिलोनों से खेलता हुआ मिले तो उसे यह कह कर उपहास का पात्र बनाया जाता है कि तुम्हें किसके घर के बर्तन धोने हैं। उपहास में कही गयी बात बच्चों में जहाँ लैंगिक भेदभाव को पैदा करती है वहीं लड़कों में लिंग आधारित अहम् को भी पैदा करता है। कार्यों का बँटवारा जेंडर के आधार पर तय होता है इसकी ट्रेनिंग बचपन से हो जाती है। जिसके अंतर्गत कपड़े धोना, खाना बनाना, झाड़ू लगाना, बर्तन धोना इत्यादि औरतों के ही कार्य माने जाते हैं। ऐसा ही भेद दिनचर्या के कार्यों में भी दिखाई देने लगता है और बालिकाओं के जिम्मे घर का काम आता है –
“कभी-कभी मन में आता है
क्या मैं सीख नहीं सकता हूँ
साग, बनाना रोटी पोना ?
कभी-कभी मन में आता है
क्या मैं सीख नहीं सकता हूँ
कपड़े धोना, झाड़ू देना ?
मैं पढ़ता दीदी भी पढ़ती
क्यों माँ चाहती दीदी ही पर
काम करे बस घर के सारे ?
थक जाती होगी ना दीदी
क्यों ना काम करें हम मिलकर ?”[9]
बाल साहित्यकार समाज के यथार्थ पक्ष को बच्चों के समक्ष रखने का प्रयास कर सकता है। आज भी अनेक स्थानों पर अभावग्रस्त बच्चों की स्थिति बड़ी भयावह है। वे गन्दी अँधेरी बस्तियों में जीवनयापन करने को विवश हैं। जिस आयु में वे बेपरवाह और चंचल होने चाहिए, वह स्कूल की अपेक्षा गंदा कचरा बीन रहे हैं। अनेक अनाथ बच्चों को या तो भीख मांग कर अपना पेट पालना पड़ता है या लोगों के घरों में काम करते हुए घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है। इन पर आधारित साहित्य से जहाँ बच्चे इसके प्रति जागरूक होंगे वहीं वंचित वर्ग के प्रति संवेदनशील भी होंगे –
“कौन है पापा यह बच्चा जो
थाली की जूठन है खाता।
कौन है पापा यह बच्चा जो
कूड़े में कुछ ढूँढा करता।
देखो पापा देखो यह तो
नंगे पाँव ही चलता रहता।
कपड़े भी हैं फटे-पुराने
मैले-मैले पहने रहता।
”[10]
यह वास्तविकता है कि एक अच्छा बाल साहित्य बड़ों में मौजूद बच्चे तथा बच्चों में मौजूद आगामी प्रौढ़ की संवेदना को जाग्रत करने का प्रयास करता है। यह माना जाता है कि यदि साहित्य, पाठक के ह्रदय में प्रश्नों का वेग न लाए तो वह सही में साहित्य कहलाने के लायक नहीं होता। वह अपनी सार्थकता को तभी प्राप्त होता है जब पाठक प्रश्न पूछे बिना न रह सके। फिर चाहे उन प्रश्नों के उचित जवाब मिलें या न मिलें। ‘घर’ कविता में भी ऐसे ही प्रश्न पूछे गए हैं –
“थक कर जब वापस आते हैं
कैसे बिछ-बिछ जाता घर,
खिला-पिला, आराम दिला कर
नई ताजगी देता घर।
पर पापा, इक बात बताओ,
नहीं न होता सबका घर,
क्या करते होंगे वे बच्चे
जिनके पास नहीं है घर ?”[11]
यहीं पर मुझे कहानीकार जैनेन्द्र कुमार की कहानी ‘अपना-अपना भाग्य’ का स्मरण आता है। जिसमें घर के शोषण से पीड़ित दो बच्चे घर से भाग कर लोगों की दुकानों पर काम करने को विवश हो जाते हैं। परन्तु एक की मौत उसके मालिक द्वारा मारने पर हो जाती है। वहीं दूसरा उस दुकान से हटा दिया जाता है –
“कहाँ सोयेगा ?”
“यहीं कहीं।
”
“कल कहाँ सोया था ?”
“दुकान पर।”
“आज वहाँ क्यों नहीं ?”
“नौकरी से हटा दिया।”
“क्या नौकरी थी ?”
“सब काम। एक रुपया और जूठा खाना !”[12]
दूसरा बालक नंगे पाँव फटी कमीज पहने सड़क में घूमता रहता है। वह भूखा कड़ाके की सर्दी में ठण्ड के कारण असमय ही मृत्यु का शिकार हो जाता है –“मोटर में सवार होते ही यह समाचार मिला कि पिछली रात, एक पहाड़ी बालक सड़क के किनारे, पेड़ के नीचे, ठिठुर कर मर गया!”[13]
उच्च वर्ग वंचितों की सहायता करने से कतराते हैं और उन्हें अनदेखा करते हैं। यह मृत्यु न सिर्फ बच्चे की, अपितु उच्च वर्ग की संवेदनाओं की भी थी। हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि हर पीढ़ी का बाल साहित्य उस समाज का प्रत्यक्षीकरण करता है, जिससे वह पैदा होता है।
रूस के प्रसिद्ध साहित्यकार मैक्सिम गोर्की तथा कोरिया के बच्चों के पितामह साहित्यकार सोपा बांग जुंग ह्वान बालकों से सम्बंधित अपने विशेष विचार रखते हैं। सोपा कहते हैं – “बच्चों का आदर करो।”[14]
वह बच्चों को समान दर्जा देते हुए उन्हें ‘टोंग मू’ अर्थात साथी कहकर पुकारते हैं। वहीं गोर्की ‘ऑन थीसस’ में लिखते हैं कि हमें अपने देश की शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को उनके अभिभावकों व परिवार के प्रति ऐतिहासिक सोच से मुक्त करना है। यह जब ऐसा विचार दे रहे हैं तो इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि यह अपने परिवार या समाज की आवश्यकता को नकार रहे हैं या अपने क्षेत्र की संस्कृति या परम्पराओं को छोड़ने की बात करते हैं। अपितु वह उन विचारों को त्याज्य मानते हैं जो बच्चे को संकीर्ण मानसिकता में जकड़ते हैं तथा कहीं न कहीं उनके समुचित विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से अपने इतिहास, परम्पराओं व रीति-रिवाजों की बच्चों को जानकारी दें तो संभव है कि ऐसे विचार बच्चों पर हावी न हों। यहाँ वैज्ञानिकता से कदापि यह आशय नहीं है कि उन्हें कल्पना की दुनिया से पूरी तरह काट दिया जाए, क्योंकि कल्पना के बिना बच्चे भविष्य के बारे में नहीं सोच पाएँगे। परन्तु वैज्ञानिकता ‘कल्पना’ को विश्वसनीयता का आधार देकर उसे तर्क संगति का गुर सिखाती है।
लन्दन के प्रसिद्ध लेखक जी।के। चेस्टरसन लिखते हैं – “परी कथाएँ सच से ज्यादा होती हैं: इसलिए नहीं कि वे बताती हैं ड्रैगन होते हैं बल्कि इसलिए कि वे हमें बताती हैं कि उन्हें हराया जा सकता है।”[15]
आज भी लोग पौराणिक कथा, राजा-रानियों की कहानियों तथा परियों की कहानियों इत्यादि को परम्परा ग्रस्त और रूढ़िवादी बताते हैं। उनका यह भी मानना है कि इनका प्रयोग बाल साहित्य में वर्जित होना चाहिए। परन्तु यह वास्तविकता नहीं है। कहानी के विषय से अधिक कहानी की परिणति बाल मन को अधिक प्रभावित करती है। यदि किसी बाल कहानी में यह वर्णित किया गया है कि डाकू का महात्मा से मिलने पर हृदय परिवर्तन हो गया, तो भले ही वह यथार्थ के विपरीत हो परन्तु वह बच्चों को यह प्रेरणा देता है कि अच्छाई से बुराई को पराजित किया जा सकता है। कोई भी रचना चाहे वह बाल साहित्य पर केन्द्रित हो या प्रौढ़ साहित्य से सम्बंधित, विषय की अपेक्षा अनुभव पर लिखी जाती है। अतः साहित्यकार की अनुभूति कलात्मक होती है।
निष्कर्ष : उपर्युक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि आज के समय में बाल-साहित्य की स्थिति भले ही पूर्व की अपेक्षा कुछ सुधार लिए हुए है। परन्तु इसे संतोषजनक नहीं माना जा सकता। आज के समय में न तो उसको ठीक से पहचाना जा रहा है, न ही उसे अन्य साहित्य के समकक्ष समझा जा रहा है। यदि हर साहित्य की एक स्वस्थ समाज के बनने में समान भूमिका है तो सभी को एक-दूसरे का समकक्ष माना जाना आवश्यक है। आज भी हर शैक्षणिक संस्थान में बड़ों के लिए लिखे गए साहित्य पर अनेक सेमिनार, संगोष्ठी, कार्यशाला इत्यादि का आयोजन किया जाता है। परन्तु बाल साहित्य से सम्बंधित कोई भी कार्यक्रम या तो खानापूर्ति मात्र किया जाता है अथवा कई बार तो बाल सत्र ही गायब होते हैं, जैसे उसका कोई अस्तित्व ही न हो। बाल साहित्यकार योग्यता व आयु के आधार पर, बड़ों के लिए लिखे गये साहित्यकार के समकक्ष ही होते हैं। फिर भी बाल साहित्यकारों को उनकी अपेक्षा कमतर मापा जाता है। यदि साहित्य से सम्बंधित पुरस्कारों की बात की जाए तो बाल साहित्य से सम्बंधित पुरस्कारों की राशि कम ही होती है साथ ही उन्हें प्रोत्साहन के वर्ग में ही रखा जाता है। उनके पुरस्कारों का प्रचार-प्रसार भी उतनी गर्मजोशी से नहीं किया जाता, जितना बड़ों के साहित्य पर मिलने वाले पुरस्कार के लिए किया जाता है। यह भी संयोग ही है कि बाल साहित्य के अधिकतर पाठक बच्चे ही होते हैं इसलिए इसके लिए व्यापक आंदोलन भी नहीं हो पाते। एक अन्य बात यह है कि बाल साहित्य की समीक्षा और सम्बंधित विमर्श को कोई वरीयता नहीं दी जाती। इसे एकदम हाशिये की चीज समझा जाता है। सम्बंधित पत्रिका के संपादकों को भी औरों की तुलना में कमतर आँका जाता है। ऐसी स्थिति के लिए कुछ हद तक बाल साहित्यकार भी जिम्मेवार हैं। थोड़ी सी सफलता मिलने पर ही वह फूला नहीं समाता है। यदि उसमें उसका कोई प्रतिद्वंद्वी आ जाए तो गुटबाजी की शुरुआत हो जाती है। जबकि होना यह चाहिए कि बाल साहित्य में अलग-अलग विधाओं के ज्यादा से ज्यादा संकलन निकलें। जिसके कुशल सम्पादन मंडल हो तथा न केवल शहरी, कस्बाई तथा ग्रामीण अपितु आदिवासी क्षेत्रों से जुड़ी संवेदनाओं को भी बाल साहित्य में स्थान मिलना चाहिए। बालसाहित्य आलोचना के टूल्स बच्चों के मनोविज्ञान और सामाजिक व्यवहार को साथ मिलाकर बनाए जा सकते हैं लेकिन उसके पहले जरूरी है कि हम बच्चों की दुनिया के बारे में अपने नजरिए का विस्तार करें। उनकी भावनाओं और कल्पनाओं को अपने सामाजिक व्यवहार में उचित स्थान दें। बाल साहित्यकार यह काम कर ही रहा है, समय के साथ बदलती संवेदनाओं में उसका यह कार्य और भी दायित्वपूर्ण होता जा रहा है।
12। वही, पृष्ठ सं। 4
13।https://www।hindwi।org/story/apna-apna-bhagya-jainendra- kumar-story
14।वही कहानी
15।हिंदी बाल-साहित्य कुछ पड़ाव, दिविक रमेश, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, प्रकाशन (2015), पृष्ठ सं। 5
16।वही, पृष्ठ सं। 6
सहायक आचार्य, हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग, जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय, राया सुचानी (बागला) जिला साम्बा, जम्मू एवं कश्मीर -181143
बाल साहित्य के विविध पक्षों को प्रकाशित करता हुआ आलेख। सुस्पष्ट और दृष्टिसम्पन्न। हार्दिक बधाई
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