केदारनाथ सिंह के काव्य में मानवेतर प्राणी और उसकी संवेदना
- रजनीश कुमार
बीज शब्द : समकालीनता, प्रकृति, मानवेतर प्राणी, संवेदना, आधुनिकता, पारिस्थितिकी, पर्यावरण, पानी, नदी, विक्षोभ।
मूल आलेख : केदारनाथ सिंह की कविताओं में आरंभ से ही प्रकृति का आलंबन रहा है। वे अपने नन्हे से गुलाब के लिए सब्ज जमीन की तलाश करते दिख पड़ते हैं। केदारनाथ सिंह ने प्रकृति को – जैसा कि आरंभिक महाकाव्यों में प्रकृति को विभाव की कोटि में आलंबन मानकर किया गया वैसी आसक्ति से नहीं देखा है। प्रकृति से आलंबन का तात्पर्य है प्रकृति के उन तत्वों से जुड़ना जो हमारी भावनाओं, विचारों और अनुभवों को प्रभावित करते हैं। यह प्रकृति के सौंदर्य, शांति और जीवनदायिनी शक्ति से जुड़ने की प्रक्रिया है। आलंबन के अर्थ में पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी, समुद्र, झील, पहाड़, घाटियाँ, सूरज, चंद्रमा, तारे, हवा, बारिश और मौसम ये सभी आते हैं । इसके जुड़ने से हमें अपने जीवन में संतुलन, शांति और सुख की भावना मिलती है। यह हमें अपने आसपास की दुनिया को समझने और उसके साथ जुड़ने में मदद करता है, और हमें अपने जीवन को अधिक अर्थपूर्ण और सार्थक बनाने में सहायता करता है। केदारनाथ सिंह की बेचैनी और छटपटाहट इस दुनिया की या यूँ कहें कि ब्रह्मांड की मरम्मत करने की जुगत में है। उनकी कविताओं में पृथ्वी को बचाने की उद्दाम लालसा है। वे बाघ, सारस, कुत्ता-कुतिया, बैल, कौआ, गिलहरी आदि के प्रति ही अपनी जागरूक चेतना का उल्लेख नहीं करते, अपितु जीव अस्तित्व के आसन्न संकट के बोध को झरनाठ बरगद, घास, महुआ, मकई, नदी, पानी, आलू, धान, दाने आदि में भी संवेदना व्यक्त करते हैं । उनकी कविताओं में बेजान और निर्जीव वस्तुओं का भी संवाद होता है। केदारनाथ सिंह वास्तविकता को इस बिंदु से देखना चाहते हैं जैसा कि वह यथास्थिति में है। वे जब गिलहरी को देखते हैं, उसका भागना शहरी जीवन के भाव बोध को जगाता है। बैलों को लगातार कोल्हू में चक्कर लगाता देख एक मजबूरी की निशानी प्रस्तुत करते हैं । जब बैल ट्रैक्टर को हैरान रहकर ठिठक जाता है तो कवि स्वयं ठिठक जाता है । कवि के भाव ‘सृष्टि पर पहरा’ काव्य-संग्रह के ‘विद्रोह’[1] शीर्षक कविता में उमड़कर अपने तकिया, मेज़ आदि के दुःख में तल्लीन हो जाता है । नाजुक खयाल के कवि होने के साथ-साथ हर प्राणी तथा जड़ वस्तुओं की संवेदना व्यक्त करने में अपने उदात्त भाव का परिचय देते हैं। कवि की दृष्टि में ‘ब्रह्मांड’ अब ‘जर्जर बैलगाड़ी’[2] लगने लगा है जिसे मरम्मत की जरूरत है- यह मरम्मत कहीं न कहीं एक बेहतर दुनिया का संकल्प या हमारी भीतरी गहरी संवेदना का वाहक है। केदारनाथ सिंह की कविताएँ बहिर्मुखी हैं, किंतु समय की कुरुपता-विद्रूपताओं को पूरी संवेदना के साथ चित्रित किया है। जीव अस्तित्व की आसन्न त्रासदी तथा पर्यावरण-विक्षोभ को लेकर केदारनाथ सिंह की कविताओं की मूल चिंता है। पशु की कराह, चींटियों की रुलाई, बकरी का मौन आदि को केदारनाथ सिंह ने पूरी प्रखरता से उसका स्वर दिया है। केदारनाथ सिंह अपनी कविताओं में किसी एक लीक पर नहीं चलते, बल्कि बराबर नयी राह बनाते हैं; लेकिन संवेदना, विशेषकर मानवेतर संवेदना उनकी प्रत्येक काव्य-रचना में सीधे भाषा में उतरती है। मानवेतर संवेदना को जितना विस्तृत फलक पर केदारनाथ सिंह ने उभारा है तथा उनकी कविताओं में नदी के रूप में भीतरी तरलता के रूप में संवेदना विकसित हुई है वह सर्वथा अलग अनुभव देता है । मानव से इतर जितने प्राणी जगत हैं उनके साहचर्य में ही मनुष्य का विकास हुआ है। मानवेतर प्राणी की संवेदना प्रकट करना मनुष्य को और अधिक संवेदनशील बनाने का काम कवि ने किया है। प्रकृति के अन्य जीव से मनुष्य का तादात्म्य कितना गहरा और पुराना है यह शहर में कंक्रीट के भवन में रहकर अनुभव नहीं किया जा सकता । प्रकृति से लगाव और पशु-बिंबों की कौंध केदारनाथ सिंह की कविताओं की एक प्रमुख विशेषता है। कुछ ऐसे ही दृश्य उनकी ‘पानी’ शीर्षक कविता में दिखाई पड़ जाती हैं, “मैं घोषित करता हूँ कि / पानी मेरा धर्म है / आग मेरा वेदांत / हवा से मैंने दीक्षा ली है / घास-पात मेरे सहपाठी”[3] धरती की नागरिकता बनाती है। मानवेतर संवेदना के माध्यम से पृथ्वी के अन्य नागरिकों की चिंता तथा पर्यावरण का बोध लक्षित होता जो समकालीन कविता की पृष्ठभूमि में अधिक प्रासंगिक है।
इनकी कविताओं में मानवेतर संवेदना का सल्लज भाव कहीं पुलक प्रकट करती पंक्तियों से आबद्ध रहती हैं तो कहीं उसके हक़ में हलफनामा दाखिल करती हुई। वे मानवीय मूल्यों के सरोकारों को मानवेतर संवेदना के संचित भाव में देखते हैं। उनकी कविताओं में प्रकृति प्रेम चित्रण के लिए नहीं, अपितु अनुभूतिजन्य संवेदना के रूप में व्यक्त हुआ है। वे ब्रह्माण्ड के संवदिया कवि हैं। उनकी चिंता दुनिया को बेहतर बनाने की चिंता है। इसके लिए वे चींटियों के हक में शहर को ठीक करने की दलीलें देते हैं। ब्रह्माण्ड की धूरी तक ठीक और मरम्मत करना चाहते हैं। बेहतर दुनिया का संकल्प एक कवि का बेहतर सपना है, जिसे वे सदा जीते रहे हैं पेड़ और पक्षी के प्रति केदारनाथ सिंह अपनी पूरी बानगी के साथ कविताओं में डटकर खड़े रहने वाले कवि हैं । उनकी एक कविता है ‘बढ़ई और चिड़िया’ जिसमें वे लिखते हैं – “वह चीर रहा था / और चिड़िया खुद लकड़ी के अंदर / कहीं थी / और चीख रही थी।”[4]
चिड़ियों का आशियाना भला पेड़ से बेहतर क्या हो सकता है जबकि पेड़ों की कटाई यह आश्वासन है कि यह दुनिया गर्म हवा झेलना चाहती है, बेमौसम आँधी-तूफ़ान-बरसात या फिर सूखा चाहती है। ‘पेड़ों की यातना-भरी चुप्पी’ की पहचान करने वाले प्रकृति के सजग हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह की एक कविता है ‘पेड़’ जो कभी पीछा नहीं छोड़ती । वे लिखते हैं –“तुम्हें कोई नहीं बताएगा / कि इस समय / इस कोरे कागज पर तुम जो लिख रहे हो / उसमें पेड़ों की यातना-भरी चुप्पी भी शामिल है।”[5]
कवि के ‘ज़मीन पक रही है’ संग्रह में एक कविता ‘बारिश’[6] है जहाँ भीगते हुए एक गधा पूरे दृश्य का नायक प्रतीत होता है। इस कविता में कवि ने अचानक शुरू हुई बारिश में भीगते हुए बकरियाँ और गधे को केंद्रित स्वाभाविक चित्रांकन किया है। पशुओं के दुख बारिश में सींझने की तैयारी होती है क्योंकि वह इसके लिया तैयार नहीं होता। इसी संग्रह की एक कविता ‘ज़मीन’ जिसमें कवि ने मार्मिक पंक्तियाँ उकेरी हैं – “लाल पत्थर की तरह लग रही थी ज़मीन / जब उसने पहली बार देखा / और उसे याद आया यही मौसम है जब पेड़ / सबसे ज्यादा परेशान होते हैं / मेज़ और कुर्सियाँ बनने के लिए ... ज़मीन पक रही – उसने कहा / और उसे लगा यह एक ऐसी खबर है / जो खरहों की माँद तक पहुँचा देनी चाहिए।”[7]
जमीन का पकना वस्तुतः केदारनाथ सिंह की कविताओं में पके हुए फलों के स्वाद की तरह एक कविता का अपूर्व मिठास है जिसका रसास्वादन पाठक को आलोड़ित किए बिना नहीं रहता। केदारनाथ सिंह की कविता मानवेतर प्राणी तक खबरों को संप्रेषित करने की एक नवीन दृष्टि अंकित करती है। दरअसल, समकालीन कवियों की विशेषता रही है कि वे कविता के माध्यम से समकालीन खबरों को इंगित करते हैं। एक तरफ़ जमीन का पकना खरहों की माँद तक उसकी खबर पहुँचाना तथा दूसरी ओर इस मौसम में पेड़ों का फर्नीचर और मेज़ बनने हेतु बेचैनी। कवि यहाँ स्पष्ट कहना चाहते हैं कि पृथ्वी पर मौसम की खबर यहाँ सबको है – मानव जाति और मानवेतर प्राणी को। कवि अत्यंत संवेदनशील होता है। केदारनाथ सिंह एक कीड़े की मृत्यु पर रुक जाते हैं और मौन साध लेते हैं । वे लिखते हैं – “कितनी देर / एक कीड़े के मृत्यु-शोक में / मौन खड़ा रहना होता है / मानव को!”[8]
एक कीड़े की मृत्यु का शोक संभव है कि एक अन्य कीड़े को भी न हो, किन्तु कवि की दृष्टि में एक कीड़े की मृत्यु भी शोक और संतप्त संवेदना का ग्राह्य विषय है। कवि मनुष्य को मानवेतर संवेद्य होते देखना चाहता है। इस पृथ्वी पर जीवन की मूलभूत संस्कृति परस्पर मेल-भाव और जीव-मात्र के नैतिक सरोकारों से है। कवि ने ‘कीड़े की मृत्यु’ शीर्षक कविता लिखकर यह साबित किया है कि जीव की महत्ता उसकी उम्र-सीमा, आकार अथवा उसके रंग-रूप से नहीं, अपितु जीवन की मौलिक स्वीकृति के साथ होनी चाहिए। कवि ‘जानवर’ शीर्षक कविता में जानवर का एक नया बिम्ब गढ़ते हैं । वे लिखते हैं – “तुमने कभी देखी है / जानवर की चाल की गरिमा / अगर नहीं तो मेरे पास आओ / और यहाँ से देखो / वहाँ भरी दोपहरी में / झड़ते हुए पत्तों के नीचे / चला जा रहा है एक जानवर”।[9]
इस संग्रह की अधिकतर कविताएँ हुलसती हुई प्रकट होती हैं। कवि ने ‘टूटा हुआ ट्रक’, ‘बनारस’, ‘कीड़े की मृत्यु’ आदि कविताओं का विस्तृत फलक प्रस्तुत किया है। जानवर की चाल की गरिमा आखिर मनुष्य क्यों देखेगा इसकी शिनाख्त कवि ने अत्यंत सहजता से की है । कवि ने परवर्ती बहुचर्चित रचना ‘बाघ’ में बाघ की गरिमा का संकेत दिया है । ‘बाघ’ के सत्रहवें खंड की कविता में वे लिखते हैं – “आम तौर पर गरिमा / एक शब्द से ज्यादा कुछ नहीं होती / पर वहाँ एक आग थी / एक भयानक संतुलन / एक असह्य दुर्गंध / जो उसके पूरे शरीर से उठ रही थी।”[10]
केदारनाथ सिंह की कविताओं में संवेदना का उत्स छोटे-छोटे क्षणों में घटित वर्णनों में दिख जाता है। बिम्बात्मक शैली में इनकी कविताओं की पहचान सहज ही हो जाती है। कवि अपने समय के महत्वपूर्ण घटनाओं तथा चिंताओं को दर्ज़ करता है। हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है पर्यावरण का असंतुलन जिससे जीवन कठिन से कठिनतर होता जा रहा है। समकालीन कविता की सबसे बड़ी बेचैनी पारिस्थितिकी के रूप में देखा जा सकता है। कविता में पारिस्थितिकीय चिंता समकालीन हिंदी कविता की ही नहीं अपितु समकालीन जीवन की त्रासदी है। ‘कविता और समय’ को रेखांकित करते हुए अरुण कमल ‘यहाँ से देखो’ काव्य-संग्रह के बारे में लिखते हैं – “केदार जी की इन कविताओं में जीवनी-शक्ति की स्थापना हुई है। वह इनमें अपने विविध रूपों में प्रगट हुई है – लड़ते हुए, झुकते हुए, नष्ट होकर बचते हुए या फिर धुआँधार बढ़ते हुए।”[11] यह ‘जीवनी-शक्ति’ केदारनाथ सिंह की कविताओं को समझने का एक सूत्र है जिसे वे आद्योपांत काव्य में स्थापित करते हैं।
केदारनाथ सिंह के काव्य में संवेदना की आधुनिकी के साथ-साथ विषय और बिम्ब भी नवीन दृष्टिकोण के साथ उपस्थित होते हैं। उनकी एक कविता है ‘नये शहर में बरगद’ जिसमें बरगद के पेड़ को ‘दढ़ियल बरगद’ से संबोधित कर उससे वर्षों की जान-पहचान करते हैं। कविता में लिखते हैं – “जैसे मुझे जानता हो बरसों से / देखो, उस दढ़ियल बरगद को देखो / मुझे देखा तो कैसा लपका चल आ रहा है / मेरी तरफ़ … पर अफ़सोस / कि चाय के लिए / मैं उसे घर नहीं ले जा सकता”[12]
उपर्युक्त पंक्तियाँ बरगद से मित्रता का परिचायक मात्र नहीं है, अपितु विशाल और घने वृक्ष से गहरे आंतरिक संबंध के द्योतक हैं। किसी नये शहर में बरगद से मिलना असल में उस शहर की पारंपरिक-ऐतिहासिक-प्राकृतिक वातावरण से भेंट है। कवि बरगद को पास बुलाकर चाय पर ले जाना चाहता है, किन्तु उसे अफसोस है कि ऐसा हो नहीं सकता। एक बूढ़े वृक्ष के प्रति इतना लगाव कवि के प्रकृति-बोध को उजागर करता है जैसे उसका परिचय उस बरगद से वर्षों पहले हुआ है – कहने का भाव यह कि प्रकृति से गहरा राग है। कवि ने केवल पेड़-पौधों तक स्वयं को सीमित नहीं रखा है अपितु मानवेतर प्राणी की संवेदना को प्रमुखता से व्यंजित किया है। ‘अकाल में सारस’ काव्य-संग्रह में संकलित ‘पशुमेला’ शीर्षक कविता ट्रकों में लदे बैलों के प्रति जो ददरी मेला में बिकने जा रहा है – की थकन-ऊबन को रेखांकित करती है । उक्त कविता में केदारनाथ सिंह लिखते हैं – “सिर्फ़ कभी-कभी / ट्रकों के हिलने से / बज उठती है बैलों के / गले की घंटी / फिर एक बैल / चौंककर / देखता है दूसरे को / मानो पूछता हो – / ‘भैया, मेला अभी कितनी दूर है’।”[13]
कवि ने ‘पशुमेला’ शीर्षक कविता में ‘ददरी मेले’ में बिकने जा रहे बैलों का मार्मिक चित्रण किया है। ट्रक पर खड़े बैल पंजाब से आ रहे हैं और थक चुके हैं। बैलों की त्रासदी यह है कि उसे एक राज्य से दूसरे राज्य में सफ़र करना पड़ता है। सामान्य दृश्य को कविता में मार्मिकता के साथ उपस्थित करना केदारनाथ सिंह की काव्यगत विशेषता है। बैल को लेकर उनकी दो कविताएँ और हैं जिसमें ‘बैलों का संगीत-प्रेम’ नया और आधुनिकता को परिलक्षित करती हुई कविता है। इससे पहले उन्होंने बैल के बारे में, कोल्हू का बैल होना कितना त्रासदकारी होता है, एक अन्य कविता में मजदूरों के रेखांकन में उसे सफल प्रतिबिंबित किया है। बैल मुख्य रूप से खेतों में हल जोतने के लिए महत्वपूर्ण पालतू पशु है। बैलों का होना किसानी जीवन का सुदृढ़ आधार माना जाता है। किसान बैल के बिना खेत में एक मौसम का फसल नहीं उगा सकता है। सदियों की परंपरा और पशु से हमारा जो संबंध रहा है, उससे आधुनिक विज्ञान और नवीन तकनीक ने हमारी दूरी बढ़ा दी है। लेकिन आधुनिकता की चौखट पर बैलों के स्थान पर ट्रैक्टर का आना बैलों की त्रासदी है। कविता में केदारनाथ सिंह किसानी सभ्यता के नये दौर की तुरपाई बैलों की जगह ट्रैक्टर से होते देख कर उसका मार्मिक चित्रण करते हैं। वे पूर्णतः सामयिक और प्रासंगिक उद्घाटन करते हैं । वे लिखते हैं – “शहर की ओर जाते हुए / अपनी बीहड़ आज़ादी में / सड़क के किनारे / ठिठक गये थे बैल / बगल के खेत में ट्रैक्टर के चलने का / संगीत सुनते हुए”[14]
केदारनाथ सिंह की काव्यमयी प्रतिभा सूक्ष्म संकेतों की पहचान करने में सफल रहती है। सभ्यता के करवट की पहचान करने का हुनर कवि को ही प्राप्त है। कवि को स्रष्टा-प्रजापति तक की संज्ञाओं से अभिहित किया जा चुका है। केदारनाथ सिंह अपने परिवेश को सामयिक उपस्थित करते हैं। वे अपने पाठकों को कविताओं के माध्यम से एक रोमांचक संदेश देते हैं । ‘ठंड में गौरैया’ शीर्षक कविता में वे चिड़िया के भीतर मौसम के संकेत को स्पष्ट करना चाहते हैं – “मौसम की पहली सिहरन! / और देखता हूँ / अस्तव्यस्त हो गया है सारा शहर / और सिर्फ़ वह गौरैया है जो मेरी भाषा की स्मृति में / वहाँ ठीक उसी तरह बैठी है / और खूब चहचहा रही है / वह चहचहा रही है / क्योंकि वह ठंड को जानती है।”[15]
कवि ने अपनी कविताओं में पक्षियों को पर्याप्त अवसर दिया – विस्तार दिया है। केदारनाथ सिंह हर मूक पशु-पक्षी की पीड़ा, व्यथा, वेदना आदि संभाव्य संकटों तक की पड़ताल करते हैं। उन्हें कवि होने के साथ-साथ धरती के नागरिक होने का गौरव प्राप्त है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ‘बाघ’ ख्यातिलब्ध पुस्तक है। इक्कीस खंडों से मिलकर बना ये ‘बाघ’ पाठकों के मध्य लोकप्रिय कविता-संग्रह है। बाघ का मनुष्य के साथ कितना गहरा रिश्ता है, इस प्रसंग के आलोक में केदारनाथ सिंह द्वारा लिखित ‘बाघ’ की भूमिका ध्यातव्य है। वे लिखते हैं - “आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतनी दूर आ गया है कि जाने-अनजाने बाघ उसके लिए मिथकीय सत्ता में बदल गया है। पर इस मिथकीय सत्ता से बाहर बाघ हमारे लिए आज भी हवा-पानी की तरह एक प्राकृतिक सत्ता है, जिसके होने के साथ हमारे अपने होने का भवितव्य जुड़ा हुआ है। इस प्राकृतिक बाघ के साथ उसकी सारी दुर्लभता के बावजूद मनुष्य का एक ज्यादा गहरा रिश्ता है, जो अपने भौतिक रूप में जितना आदिम है, मिथकीय रूप में उतना ही समकालीन है।”[16]
केदारनाथ सिंह प्रकृति को विक्षोभ भरी दृष्टि से देखते हैं। वे कविता की परिपाटी में प्रकृति का लयात्मक चित्रण करने में समकालीन हिन्दी कविता की प्रतिनिधि इकाई रचते हैं। पर्यावरणीय दृष्टिकोण उनकी कविताओं का उत्स है जो पारिस्थितिकीय चिंता के रूप में उभरकर सामने आता है। नदी और पानी की महत्ता उनकी कविताओं में नए विमर्श को लेकर आती हैं। पक्षी और पशु केदारनाथ सिंह की कविताओं का काव्य-संगीत है जिसमें उसकी रूदनशीलता और पीड़ा-व्यथा सब अंकित होते हैं। कवि ने हर उस मूक को मुखर किया है जिसकी आवाज़ पाठकों तक पहुँचना चाहिए। ‘ताल्सताय और साइकिल’ की पहली कविता में ही कवि ने नई सदी का बयान दिया है कि वे दूसरों की आवाज़ बनकर बोल रहे हैं। वे लिखते हैं- “मैं उनकी तरफ़ से बोल रहा हूँ / जो चले गये हैं काम पर … लगता है बोल रहा हूँ उस चींटी की तरफ़ से / जो बच गयी थी अकेली / नागासाकी में”[17]
कवि पूरी सच्चाई के साथ सबकी ओर से बोल रहा है। उसके बोलने में निर्माता का आदेश है। इस संग्रह की कविताओं में केदारनाथ सिंह की कविताएँ नई सदी को लेकर अधिक आग्रह करती हुई सचेत करती हैं। उनकी कविताओं में कहीं भी अचानक से घास, कौआ, कुत्ते, खरहा, पेड़ आदि व्यवहृत होते देखा जा सकता है। उन्होंने ‘चींटियों की रुलाई का हिन्दी में अनुवाद’[18] करने की ललक तक दिखाई है और उन्हें शहर की मरम्मत एक खब्ती से करवानी है। वास्तव में कवि की यह सहज मनोवृत्ति है कि चीजों की मौलिकता का ह्रास होना विकास की गति के परिचायक नहीं हो सकते। कवि संवेनदंशील होता है। उसकी संवेदना समाज को जागरूक और विकास के पथ पर अग्रसर बेहतर दुनिया के लिए होती है। ‘एक पशु की कराह’ शीर्षक कविता में कवि ने सूअर का मार्मिक और हृदय कंपित कर देने वाला दृष्टांत दिया है। वे लिखते हैं – “वे लोग एक काले गदबदे सूअर को घेर कर / गोलाई में खड़े थे / और सूअर चीखे जा रहा था बुरी तरह / उसके पैर एक बाँस के सहारे / रस्सियों से बँधे थे / और वह इस तरह छटपटा रहा था / जैसे अपनी लंबी चीख और तेज़ नाखूनों से / चींथकर रख देगा सारी बस्ती को।”[19]
मानवीय सरोकार की यह विडंबना ही है कि भूख के लिए मनुष्य शेर और बाघ जैसे हिंसक पशुओं की भाँति आततायी होते जा रहे हैं। मनुष्य का मांसाहारी होना कोई अनिवार्य विवशता नहीं है। कवि एक पशु की चीख को देखकर भीतर तक हिल जाता है। और आश्चर्य इस बात में कि पीड़ा के क्षणों में कवि के हिलने और पशु की कराह के बीच कोई पुल नहीं था। दोनों की व्यथा समान हो गई थी। बस्ती के छोर पर सूअर की हत्या में लोग जश्न मना रहे थे। एक मनुष्य जिसकी संवेदना में समूची पृथ्वी समाती हो, उसके सामने यह भयावह दृश्य असह्य था। मनुष्य की संवेदना की कसौटी आखिर किस सीमा तक रखी जाए? उसके सामने यह प्रश्न उतना ही ज्वलंत था जितना कि पाठक के समक्ष।
समकालीन कविता का परिवेश किसी सीमाओं में बँधा हुआ नहीं है। उसकी शैली, शिल्प, भाषा और लय सब के सब अपनी पहचान के पक्षधर हैं। केदारनाथ सिंह ने ‘पानी को अपना धर्म बतलाया है आग को अपना वेदान्त हवा से उन्होंने दीक्षा ली है और घास-पात उनके सहपाठी’[20] हैं। प्रकृति को कविता में उन्होंने चित्रित नहीं किया है अपितु उसकी एक गहन अनुभूति से साक्षात्कार करवाया है। आज के सदी में मानव जीवन का प्रकृति और मानवेतर प्राणियों से साहचर्य का अभाव स्वतः देखा जा सकता है। जीवन मूल्य पर केवल मानव जाति का एकांगी शासन हो गया है जबकि प्रकृति के नैरंतर्य में ऐसा कोई भी शाश्वत नियम नहीं। इसके दुष्परिणाम मानव जाति को ही झेलने होंगे, जिसके प्रति केदारनाथ सिंह का सचेत आग्रह है।
निष्कर्ष : समकालीन कविता के विस्तृत दायरे में केदारनाथ सिंह का पर्यावरणीय बोध मानवेतर प्राणियों के आसन्न संकट से जूझता हुआ है। वे अपने दौर के सजग कवि हैं। उनकी मानवेतर कविताएँ मानवता को और अधिक संवेद्य और संपुष्ट करनेवाली हैं। मनुष्य में बची रहेगी मनुष्यता – इसकी प्रबल आशा में कवि कोमल भाव की रचनाएँ करता है। केदारनाथ सिंह की अपनी यह विशिष्टता उन्हें गाँव और शहर दोनों स्थानों की आवाजाही से खासकर प्राप्त हुआ । शहर की थकान और गाँव का सरिता स्नान उनके लिए अलग-अलग अनुभव की पोटली है। हिंदी कविता की ऊँचाई को छूने वाले विरले कवियों में उनका स्थान आता है। यह सहज ही नहीं अपितु एक मान्य धारणा है।
संदर्भ :
1. सिंह, केदारनाथ. (2014),सृष्टी पर पहरा, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली,पृष्ठ-11
रजनीश कुमार
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय
hirkjha@gmail.com, 7856888633
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
सुंदर आलेख।
जवाब देंहटाएंप्रणाम, सर! आपके उत्साहवर्द्धन से लेखन से प्रियता की प्रेरणा मिलती है । मैं प्रफुल्लित हूँ।
जवाब देंहटाएंसादर निवेदित, रजनीश कुमार, त्रिपुरा विश्वविद्यालय
खूब खुश रहिए। आपने बहुत अच्छा लिखा है। आपका आलेख सन्दर्भवान और मौलिक है। आपने विस्तारपूर्वक और सहज -संप्रेश्नीय भाषा में केदारनाथ सिंह के काव्य के नये पक्ष पर प्रकाश डाला है। हार्दिक बधाई ...शायद फरवरी अंत में मिलना हो ...
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम सहित अमित धन्यवाद, सर! आपका क्षणभर का सान्निध्य उत्साह से भर देता है। प्रतीक्षारत रहूंगा, सर!
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