राजेन्द्र दानी के कथा साहित्य में नगरीय जीवन
- तरूण कुमार साहू एवं प्रेम लता गौरे

नगरीय जीवन का भयावह यथार्थ बाहरी चकाचौंध से दिखाई नहीं देता, उसे देखने के लिए कहानी की गहरी पड़ताल करना पड़ता है। जगमगाते नगर में निवासरत लोगों के जीवन में आने वाला एकाकीपन, तनाव, कुंठा, संत्रास, मानवीय मूल्यों का पतन तथा नैतिक मूल्यों का विघटन इत्यादि इन सभी समस्याओं से जुझते मनुष्यों की कहानी को राजेन्द्र दानी की कहानियों में व्यापक फलक पर देखा जा सकता है। व्यापक विविधता का संयोजन किए हुए कहानी में नगरीय जीवन का भयावह यथार्थ को गंभीरता से कहानीकार राजेन्द्र दानी ने अभिव्यक्त किया है।
बीज शब्द : नगरीय जीवन, भयावह, संत्रास, अकेलापन, विसंगति, इक्कीसवीं सदी, चिलचिलाती धूप, सम्पन्नता, परिवर्तन, ह्रदयघात, चिकित्सालय, गर्भपात, वास्तविकता, छानबीन, पीड़ा
मूल आलेख : वरिष्ठ एवं हिन्दी के महत्वपूर्ण कहानीकार राजेंद्र दानी ऐसे रचनाकार हैं जो समाज की आंतरिक पड़ताल कर परिवर्तन, नई धारणाओं तथा नये व्यवहारों को परिभाषित करते हैं। मनुष्य जीवन में आने वाली विसंगतियों को रेखांकित करते हुए चार दशक से अनवरत लेखन कर रहे हैं। राजेन्द्र दानी कहानी को कल्पना में नहीं गढ़ते, बल्कि कहानी की कथावस्तु उनके आस-पास के भोगे हुए जीवन का अनुभव है, जिसे जीवंत भाषा में कहानी का रूप देते है। राजेन्द्र दानी का रचनात्मक वैशिष्ट्य यह है कि वे समय को गंभीरता से पकड़ते है। अपनी सीधी- सपाट लेखन शैली में गंभीर और भयावह परिस्थितियों को सूक्ष्मता से कहानी में रख देते हैं।
तीव्र गति से हो रहे परिवर्तन के इस दौर में समय तथा समाज अपनी स्थिरता खो रही हैं। जीवन मूल्यों का होना अब सिर्फ औपचारिकता मात्र बची हुई है। राजेन्द्र दानी इन्हीं बदलाओं को सूक्ष्मता से रेखांकित करते हैं, पर उन तथ्यों को नहीं जो एकदम से सामने दिख जायें, जैसे नगर के ढांचे का बदलना, राजनीतिक भाषा का बदल जाना। इन सब से अलग राजेन्द्र दानी उस परिवर्तन को देख लेते है जो सामान्य नजरों से दिखाई नहीं देते। राजेन्द्र दानी अपनी सूक्ष्म दृष्टि से चुपचाप हो रहे जीवन के आंतरिक परिवर्तन को एक काव्यकार के जैसे दर्ज करते हैं।
ऐसे वक्त जब समाज तथा पूरा संसार कोलाहल से भरा हुआ है, राजेन्द्र दानी का मर्यादित स्वर कुछ हद तक आश्चर्य भी करता है। उनकी प्रतिनिधि कहानियों का संग्रह ‘पारगमन’ हैं जिसमें नगरीय जीवन की भयावह स्थिति को चिन्हित किया गया हैं। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से भारत तथा विकासशील देशों में, बाजार का एक विकराल रूप दिखाई देता है जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों से निर्मित घरेलू वस्तुओं से लैस बाजार अब खुशियों का जरिया बन गया है। खुशियों का खरीददारी से बहुत ही अच्छा तालमेल देखने को मिलता है। लेकिन इस खुशी की आवश्यकता मिसेस खरे को नहीं है, वह “अकेली रह रही हैं पर खुश रहना चाहती हैं। यह होता नहीं, पर करना पड़ता है।”1 आधुनिक युग में भौतिक वस्तुओं का भोग ही लोगों को खुशियां प्रदान करती है, ऐसा लोगों का मानना है। किन्तु राजेन्द्र दानी ‘पारगमन’ कहानी में मिसेस खरे को भौतिक सुविधाओं से लैस होते हुए भी दुःखी और एकाकीपन से जूझते हुए दिखाते हैं जो पारिवारिक पीड़ा को गुप्त रोग की तरह सहती है। कॉलोनी के लोग उनके बाह्य जीवन को देख कर बधाई देते थकते नहीं, कहते हैं “अभी गर्मियों के ठीक पहले बेटा आया था तो उनके बेडरूम में एक महंगा स्पि्लट एयर कंडीशनर लगवा गया। कहने को सुख और आराम और भी बढ़ गया। अगले साल आएगा तो कुछ और बढ़ा जायेगा।”2 लेकिन उनके आंतरिक जीवन के दुःख को कोई नहीं पहचान पाता। मिसेस खरे साधन सम्पन्न होने के बावजूद काम वाली बाई ज्योति को सौभाग्यशाली मानती है, क्योंकि जीवन के अंतिम पड़ाव में अपने परिवार के बीच खुशी से रह रही है, हर वक्त वह अपनों के साथ है। मिसेस खरे अकेली है, इसी बात का दुःख उनको होता है। काम वाली बाई के छोटे बच्चों को देख मिसेस खरे के अंदर ममता उमड़ आती है। रसोई में सब कुछ होते हुए भी चिलचिलाती धूप में ज्योति को प्याज और आलू लेने भेज देती है और ज्योति से कहती हैं “बच्चों को यहीं रहने दो लौट कर लेते जाना, अब धूप इतनी चढ़ आई है कि बच्चों को लू लग सकती है।”3 ये बात इसलिए कहती है ताकि वो कुछ समय के लिए उन बच्चों पर अपनी स्नेह बरसा सके। बड़ी विडंबना है मध्यवर्गीय समाज में माता- पिता अपने बच्चों का परवरिश कर उन्हें बड़ा कर देते हैं, उनमें शिक्षा, समझ विकसित कर देते हैं, यहीं महत्वाकांक्षा लिए कि बड़ा हो कर हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेगा, लेकिन यहां ठीक उल्टा होता है। जीवन के अंतिम पड़ाव में उन्हें पारिवारिक सुख से वंचित रहना पड़ता है। संतान सोचते हैं कि पैसे की कोई कमी नहीं है तो उन्हें चिंता और दुःख किस बात की होगी।
‘भूलने का रास्ता’ पंद्रह कहानियों का संग्रह है। इस संग्रह के ज्यादातर पात्र मध्यवर्गीय हैं। राजेन्द्र दानी कहानियों के माध्यम से बताते हैं कि एक ओर मध्यवर्गीय समाज में समृद्धि आयी तो वही दूसरी ओर रिश्तों में दूरियां बढ़ती गयी। अकेलापन एकदम भयावह हो गया। संग्रह की दूसरी कहानी ‘मेंडोलिन’ उसी मध्यवर्गीय आचरण को प्रस्तुत करता है जो अचानक आयी सम्पन्नता से उच्च वर्ग में शामिल होते ही अपना व्यवहार बदल लेता है, और अपनी पुरानी जिंदगी के संघर्ष को भूल जाता है। वह उन्हें भी भूल जाता है जिन्होंने उसको आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस कहानी में सुर्रू को क्या पता था कि एस. एस. किशोर की प्रतिभा को पहचानना उसके लिए प्राणघाती होगा। यह कहानी पाठक को झकझोर कर रख देती है और चेतावनी देते हुए कहती हैं कि अपने अभिन्न मित्र को हर समय एक जैसा मत पुकारो, वक्त के साथ पद-प्रतिष्ठा आ जाने से वो पुराने जैसा नहीं रहता। कहानी की शुरुआत शहर के वातावरण में आई परिवर्तन से होता है। “मेरा शहर बड़ा ही अजीब है, जब मैं यह कहता हूं तो लोग कहते हैं कि ‘तुम्हारा ही नहीं यार यह तो सब जगह की हालत है, इसमें नई बात क्या है भला!”4 इस कहानी में मेंडोलिन एक प्रकार का विलुप्त होता वाद्य यंत्र है, जिसे आसपास में सिर्फ सुर्रू ही बजाना जानता था। ये उनको रक्त में मिला था। सुर्रू एस. एस. किशोर के गीत गाने की प्रतिभा को पहचान लेता है। उसके गाने की प्रशंसा करते हुए कहता है, “क्या गजब गाते हो यार, कहां थे साले तुम अब तक…कल से तुम मेरे आर्केस्ट्रा में गाओगे।”5 बाद में एस. एस. किशोर की पहचान बड़ी हस्ती के रूप में होता है। एस. एस. किशोर का विवाह शहर के सबसे अमीर परिवार में होता है। एक दिन उसी चौक पर एस. एस. किशोर और उसकी पत्नी किसी काम से आते हैं। उसे देख सुर्रू पुकारता है, “काय बे किशोर… उसकी यह आवाज बहुत दूर तक गई और कार चलाते चलाते एस.एस.किशोर तक भी पहुंची। उसने क्षण-भर को हमारी ओर देखा।”6 उसके क्षण-भर देखने में एक अलग ही दृष्टि थी जिससे सुर्रू अपराधबोध से भर जाता है। साधारण व्यक्ति जब अपनी प्रतिभा से असाधारण बन जाता है, तो अपने मित्रों का पुराना व्यवहार उसे बुरा लगने लगता और कहता है “अब देखो यार, मैं पहले जैसा तो रहा नहीं कि लोग पहले जैसा ही मुझसे व्यवहार करें।”7 दौलत और शोहरत प्राप्त करने के बाद एस. एस. किशोर को पुराने अंदाज में सुर्रू का पुकारना उसके सम्मान को ठेस पहुंचा देता है और बिना प्रतिक्रिया दिये चले जाता है। सुर्रू के लिए ये बात ह्रदयघात का कारण बन जाता है। बिना किसी रोग, बिना शिकायत अपनी प्राण त्याग देता है। इस बात का जरा भी अफसोस एस. एस. किशोर को नहीं होता, अपने मित्रों की स्थिति परिस्थिति को पूछता भी नहीं। यह कहानी बदलती दुनिया के यथार्थ को उद्घाटित करती हुई प्रश्न करती है। क्या सम्पन्न होते ही लोगों में संवेदना मर जाती है?, भावुक व्यक्ति का समाज में अब कोई स्थान नहीं बचा? इन प्रश्नों का उत्तर इस कहानी में ढूंढने का प्रयास किया गया है।
‘नेपथ्य का अंधेरा’ राजेन्द्र दानी की चर्चित कहानी है। यह 1965 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में आयी बदलाव से जुड़ी कहानी है जिसमें पूंजीवाद एक नया रूप के साथ भारत में प्रगट होता है। अखबारों में आने वाला विज्ञापन लोगों के जीवन से चैन की कड़ी के समान जुड़ गया हैं। बाजार विज्ञापन के जरिए आम जनता को लुभाने में कामयाब होने लगा है। सभी का बाजारीकरण कर दिया गया है, चाहे वह सुख हो, दु:ख हो, इच्छा तथा आकांक्षा। अब बाजारीकरण के प्रभाव ने चिकित्सा और शिक्षा को कस कर पकड़ लिया है। पूंजी के निवेश ने चिकित्सालय को भी नहीं छोड़ा। इस कहानी की अंतर्वस्तु चिकित्सा की व्यवस्था को बेनक़ाब करती हैं। चिकित्सा एक समय में सेवा भाव से किया जाता था लेकिन आज भंयकर व्यापार बना हुआ है। चिकित्सा को व्यापार बनाने वाले लोगों के अंदर संवेदना बिल्कुल नहीं होती। मरीज़ की मृत्यु हो जाने पर उसकी सूचना उनके परिजनों को तब तक नहीं देते जब तक पूरी राशि जमा न कर दें। आज के समय में यह चिकित्सालयों का यथार्थ है। कम उम्र में बड़ी उपलब्धियों का प्रमाण पत्र लिए शहरों में बहुत से डॉक्टर मिलेंगे जो अपने क्लीनिक को फिल्मी रेस्तरां के जैसे चमकदार बना कर रखे हैं। कहानी का नैरेटर कहता है कि “ सीढ़ियां मुझे सीधे चिकित्सक के स्वागत -कक्ष में ले गई। वह जगह बहुत रौशन थी, बाहर से ज्यादा। वहां बड़े-बडे़ गद्देदार मखमली सोफों पर बहुत सारे स्त्री -पुरूष बैठे हुए थे।”8 चिकित्सा के नाम पर मरीजों को लूटने का काम डॉक्टर कर रहे हैं। बड़ी -बडी़ उपलब्धियां हासिल करने वाले डॉक्टर नवारूण गुप्ता और उसकी बहुत ही कम उम्र की नर्स जो चिकित्सालय का यथार्थ बयां करती है। कैंसर का सफल ऑपरेशन की चर्चा बड़े बड़े होडिंग तथा अखबारों में यशस्वी डॉ. नवारूण गुप्ता का होता है, लेकिन कुछ ही दिनों बाद उस व्यक्ति की मौत हो जाती है उसकी चर्चा कोई नहीं करता। “मेरी व्यग्रता न बढ़े और पूछ लेंने में क्या हर्ज है, सोचकर उससे पूछा –‘क्यों, तुमने रामभरोसे की मृत्यु का समाचार बनाया?”9 पूंजी ने सभी को जकड़ लिया है, स्वयं नैरेटर अखबार से जुड़े होने के बावजूद रामभरोसे की मौत की खबर अखबार में लगा कर डॉ. गुप्ता की असफलता को छाप नहीं पाता। इस कहानी के माध्यम से लेखक की बेचैनी को महसूस किया जा सकता है कि पूंजी के दबाव में सच को समाने लाना कितना मुश्किल है।
‘ठंडी तेज रफ्तार’ कहानी आज के समय में स्त्री और पुरुष के बीच चंद दिनों के लिए बने रिश्तों के मजबूतियों पर प्रश्न चिन्ह लगती है। आधुनिकता तथा पाश्चात्य संस्कृति भारतीय सभ्यता और समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। इस कहानी में रीमा आज की नयी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती है जो अपनी जिंदगी को अपने अंदाज में जीना चाहती है। वो पारिवारिक बंदिशों को बिल्कुल नहीं मानना चाहती। पहले के समय में किसी लड़की का अन्य किसी पुरुष से वार्तालाप बदनामी का कारण बन जाता था। रीमा की मां स्वयं अपनी बेटी के लिए विचार करती है, “सुमित्रा खुश हुई थी यह देखकर कि रीमा को वे वर्जनाएं नहीं झेलनी पड़ रही हैं जो उन्होंने रीमा की उम्र में झेली थीं। उस समय पुरुष मित्र की कल्पना नहीं थी।”10 बिल्कुल सच बात है आज से लगभग बीस वर्ष पीछे जाने पर पता चलता है कि विवाह से पूर्व पुरूष से संबंध होने का पता लगने से जिंदगी बदनामी से अभिशाप बन जाती थी। आज के खुलापन बंदिशों से मुक्त जीवन ने लोगों के अंदर से सभ्यता को ही खत्म कर दिया है। विवाह के पूर्व किसी स्त्री का गर्भवती होना भारतीय समाज में सबसे बड़ा अभिशाप माना गया है। लेकिन इक्कीसवीं शताब्दी में गर्भवती होना और गर्भपात करवाना सामान्य सी बात हो गई है। रीमा और अंकित असुरक्षित यौन संबंध बनाते हैं जिससे रीमा गर्भवती हो जाती है, रीमा अंकित को गैर जिम्मेदार ठहराते हुए उससे दूर होने का फैसला खुद ले लेती है और अपनी मां से बहुत ही सहज और सामान्य समस्या के जैसे कहती है “मैं बता देना चाहती हूं कि आई एम प्रेगनेंट एंड यू नीड नाट टू वरी अबाउट इट, आई विल फेस इट अलोन। मैंने डॉक्टर से समय ले लिया है। आज चार पांच घंटे में सब कुछ ठीक हो जाएगा।”11 समय ने जब करवट बदली तो लोगों के अंदर से जज़्बात खत्म होने लगा है। लोग संतान प्राप्ति के लिए अनेक कामनाएं करते हैं। एक स्त्री मां नहीं बन पाने के दुख झेलती है, लेकिन रीमा अंकित को पुराने विचारों वाला समझ कर सब खत्म कर देती हैं। इस कहानी को कहानीकार ने पंद्रह वर्ष पूर्व लिखा था। आज के संदर्भ में देखें तो कहानी हमारे आस-पास ही घटित होती नजर आती है।
राजेन्द्र दानी अकेलेपन की भयावहता को कई दृश्यों में उठाते हैं। कहानियों की अंतर्वस्तु व्यापक फलक पर चलती हुई हमारे समाज के उन व्यक्तियों की पीड़ा को रेखांकित करती हैं। जो एक समय के बाद उनका घर में होना औपचारिकता ही रहता है, उनका होना घर वालों के लिए एक समस्या के जैसे लगता है। वह अपनो के बीच रहते हुए भी एकदम अकेला पड़ जाते हैं। यह अकेलापन इस लिए भयावह है कि लोग अब सम्पन्न होते जा रहे हैं। ‘सम्पन्नता’ राजेन्द्र दानी की कहानी है। जो नवधनाढ्य लोगों के परिवार का आंतरिक पड़ताल कर बुना गया है। राजेन्द्र दानी की अधिकतर कहानियों में सम्पन्नता मध्यवर्गीय समाज में अभिशाप बन कर उभरती है। ठीक उसी प्रकार जवाहरलाल अपने बच्चों के व्यवहार में परिवर्तन तथा रूपया का मूल्य न समझ कर खर्च करते जाना उसके लिए बहुत ही पीड़ादायक होता है। “जवाहरलाल जी इस बात को कभी नहीं समझ पाते कि खुशी और खरीददारी में कैसा रिश्ता है अब के दौर में?”12 खुशियां बंटना तथा पाने के लिए रिश्तों की जरूरत अब नहीं है। बाजार ही हमारा खुशियों का साथी बनते जा रहा है। जवाहरलाल इस बदलाव को स्वीकार इस लिए नहीं करता क्योंकि वे अपने बच्चों पर बहुत ही भरोसा और प्रेम करते हैं। एक पिता अपने बच्चों को बनाने में पूरा जीवन लगा देता है, बाद में वही बच्चे उनके संघर्षों के दिनों को एक क्षण में खत्म कर देते हैं कि आज जो कुछ भी बना हूं अपने मेहनत पर बना हूं। एक पिता इस बदलाव को नहीं देख पाता लेकिन नयी पीढ़ी इसे तुरंत समझ जाती हैं। जैसे आकाश कहता “आपके बनाए पुराने मकान में जब हम सब थे तो पापा क्या थे… कुछ नहीं पर ये नया मकान उन्होंने बनाया है, जो कम से कम पांच करोड़ का होगा, तो वे अब करोड़पति हुए कि नहीं..”13 राजेन्द्र दानी की दृष्टि जगमगाते दुनिया के कोने में पड़े पात्र पर पड़ती है जिसने अपनी पूरी जिंदगी लगा कर उस दुनिया को रौशन किया है। सभी ऊपर की चमक देखते हैं लेकिन उसके भीतर एक बेचैन दुनिया भी है वह कितना अकेला और असहाय है उसको राजेन्द्र दानी जी अपनी पैनी नजर से देख लेते हैं।
बड़े-बड़े नगरों में सत्य और ईमानदारी का अब कोई मूल्य नहीं रहा। व्यक्ति अगर ईमानदार है और घटनाओं का उल्लेख पूरी ईमानदारी से करता है तो उसे बचाने वाला कोई नहीं मिलता। वह एकदम अकेला पड़ जाता है क्योंकि वाक्छल से ही नगर के सिद्धांतों के साथ जीवन यापन करना पड़ता है। राजेन्द्र दानी की ‘बार-बार सच’ कहानी सत्य बोलने तथा नौकरी बचाने के बीच द्वंद में फंसे व्यक्ति की कहानी है, जो अपनी नौकरी बचाने के लिए गिड़गिड़ाता रह जाता है लेकिन उसकी बात नहीं सुनी जाती। जब सारी बातें सच-सच कह देता है तो दफ्तर के बाबू उसकी ईमानदारी पर कहते हैं-“मूर्ख है स्साला, सच बोल गया। अब नहीं बचने का।”14 झूठ से रची बसी दुनिया में शिवनाथ सच्चाई को दृढ़ता से कहता है और सच बोल कर हंसी का पात्र बन जाता है। अक्सर देखा जाता है कि मजदूर व्यक्ति अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करता, भले ही कष्ट स्वीकार कर लेगा लेकिन झूठ नहीं बोलता। दानी जी कहानी के माध्यम से निम्न वर्ग में छुपी ईमानदारी तथा उनके पीड़ा को उद्घाटित करने पर बल दिया है।
राजेन्द्र दानी वर्तमान समय में उन तथ्यों को प्रकाशित करने में लगे हुए हैं। जो हमारे नजरों के समाने घटित होता है लेकिन हम उसे पहचान नहीं पाते। इस आलेख में ‘अकेलापन’ एक शब्द मात्र है किन्तु इस शब्द में जो पीड़ा है, उसे कहानी पढ़ने पर ही महसूस होती है। दानी जी पाठक की पीड़ा को पहचान कर बहुत ही बारीकी से कहानी को गढ़ते हैं। साहित्य जगत के प्रसिद्ध आलोचक सूरज पालीवाल राजेन्द्र दानी को कहते हैं कि- “ कहानीकारों की भीड़ में अपनी कहानियों के बल पर अलग दिखना कठिन होता है लेकिन दानी जी ने उस कठिन मार्ग को पार कर लिया है।”15 इसके साथ ही दानी जी भाषा में मजबूत पकड़ बनाएं हुए है। पात्र के अनुसार ही भाषा का प्रयोग करते हैं। हिन्दी साहित्य का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है। जीवन के तमाम पहलुओं को रेखांकित भी किया जा रहा है किन्तु राजेन्द्र दानी जिन पहलुओं पर लिखते हैं उसमें उबाऊपन बिल्कुल नहीं है। जीवन की समस्त जटिलताओं को पूरी ताकत से निकालने का प्रयास करते हैं। इस लिए सूरज पालीवाल आगे कहते हैं – “राजेन्द्र दानी की कहानियां अकेलेपन, स्वार्थ, वासना और पूंजी के इस अबाध प्रवाह में बह गये मानवीय संबंधों की कहानियां हैं। उनके पात्र इस व्यवस्था में अकेले हैं, उनके दुख अलग-अलग हैं लेकिन दुखों की तीव्रता एक जैसी है।“16
कथ्य और शिल्प की दृष्टि से देखें तो राजेन्द्र दानी की कहानियों में समाज की वास्तविकता और जीवन की विभिन्न पहलुओं की गहरी छानबीन मिलती है। दानी जी कहानियों के माध्यम से समाज की विसंगतियों, संघर्षों और नैतिक दुविधाओं को उजागर करते हैं। उनके शिल्प में नवीनता है। वे कथानक को कुशलता से विकसित करते हैं और निबंधात्मक शैली में गहरी समझ का प्रयोग करते हैं। उनकी कहानियों में प्रतीकात्मकता, आंतरिक संघर्ष, और संवेदनाओं का सुंदर संयोजन देखने को मिलता है। राजेन्द्र दानी जिस शिल्प का प्रयोग करते हैं वो केवल पठनीय नहीं होता है बल्कि विचारणीय भी होता है। ऐसा नहीं है कि ये सारी बातें राजेन्द्र दानी जी को बड़े कहानीकार के रूप में स्थापित करने के लिए कही जा रही हो, बल्कि हिन्दी जगत के सबसे प्रसिद्ध और वरिष्ठ कहानीकार ‘ज्ञानरंजन जी’ राजेन्द्र दानी की रचनात्मकता पर कहते हैं – “पुराना नैरेटिव उनमें शून्य है। यही उनका नयापन है। वे अग्रगामी यथार्थों के कहानीकार हैं।”17 दानी जी की प्रत्येक कहानी यथार्थ को रेखांकित करते हुए आगे बढ़ती हैं।
निष्कर्ष : इक्कीसवीं सदी तथा उसके पिछले दशक से भारतीय अर्थव्यवस्था में जो परिवर्तन आया है उसने मध्यवर्गीय समाज और उनके जन-जीवन को पूरी तरह से ध्वस्त कर के रख दिया है। पहले के लोग सादगी से मर्यादित जीवन यापन करते थे। लेकिन अब पूंजी और आधुनिक सुविधाओं ने उनके जीवन में कई तरह की अभिलाषा उत्पन्न कर दी हैं, जिसके कारण व्यक्ति आंतरिक रूप से टूट गया तथा बाह्य रूप से एकदम अकेला पड़ गया है। राजेन्द्र दानी इसी अकेलेपन की भयावह स्थिति को व्यापक परिदृश्य में रेखांकित करते हैं। राजेन्द्र दानी की कहानियों में एक अलग तरह की पीड़ा छुपी हुई है। ये कहानीकार की पीड़ा नहीं है ये सामान्य जनता की पीड़ा है जिसको हम घर परिवार के बीच रह रहे उन तमाम लोगों में देखते हैं, जो अपनों के बीच अपने आप को अकेला पाते हैं।
संदर्भ :
- राजेन्द्र दानी, पारगमन, साहित्य भंडार, इलाहाबाद 2016, पृष्ठ 91
- वही, पृष्ठ 91
- वही, पृष्ठ 95
- राजेन्द्र दानी, भूलने का रास्ता, नयी किताब, दिल्ली 2015, पृष्ठ 15
- वही, पृष्ठ 16
- वही, पृष्ठ 18
- वही, पृष्ठ 19
- राजेन्द्र दानी, नेपथ्य का अंधेरा, मेघा बुक्स, नवीन शाहदरा दिल्ली, संस्करण 2016, पृष्ठ 10
- वहीं, पृष्ठ 26
- राजेन्द्र दानी, कछुए की तरह, साहित्य भंडार, चाहचंद प्रयागराज, प्रथम संस्करण 2019, पृष्ठ 66
- वही, पृष्ठ 71
- राजेन्द्र दानी, पुराना घर पुरानी बस्ती, नयी किताब प्रकाशन, नवीन शाहदरा दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019, पृष्ठ 13
- वही, पृष्ठ 09
- राजेन्द्र दानी, नेपथ्य का अंधेरा, मेघा बुक्स, नवीन शाहदरा दिल्ली, संस्करण 2016, पृष्ठ 45
- शुक्ल स्मृति. कहानीकार के रोशनदान, अनुज्ञा बुक्स शाहदरा दिल्ली, प्रथम संस्करण 2023, पृष्ठ 13
- वही, पृष्ठ 58
- वही, पृष्ठ 62
तरूण कुमार साहू
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, शासकीय विश्वनाथ यादव तामस्कर स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दुर्ग (छ.ग.)
sahutarun628@gmail.com, 9691341582
शोध निर्देशक
प्रेम लता गौरे
प्राचार्य, शासकीय नवीन महाविद्यालय, बेरला जिला – बेमेतरा (छ.ग.)
PremlataGaure1234@gmail.com, 91795 10747
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
बदलते समय के साथ बदलते नगरीय जीवन विशेषकर मध्यवर्गीय जीवन में आये व्यापक बदलाव को राजेन्द्र दानी ने अपनी कहानियों किस तरह से अभिव्यक्त किया है। उसका एक विस्तृत विश्लेषण इस शोध आलेख में
जवाब देंहटाएंदेखने को मिलता है। इसके लिए तरूण कुमार साहू जी को बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ!
एक टिप्पणी भेजें